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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ११०
अचल, अविनाशी, अखण्ड, परमानन्दमय प्रात्म-प्रभु के प्रति शुद्ध प्रेम रखना चाहिए । अशुद्ध प्रेम का नाश करने के लिए आत्मा के गुणों का प्रेम रखना चाहिए । आत्मा में प्रेम होने से समता अपनी आत्मा के साथ मिलती है अर्थात् आत्मा में क्षायिक भाव से चारित्र प्रकट होता है ।
( ४१ )
( राग- वसन्त )
दु की राति काती सी बहइ, छातीय छिन छिन छीन । प्रीतम सवी छबि निरख कइ, पिउ पिउ पिउ पिउ कीन | वाही चवी चातिक करे, प्राण हरण परवीन ।।
॥ १ ॥
इक निसि प्रीतम, नाउकी, विसरी गई सुधि चातक चतुर चिता रही, पिउ पिउ पिउ
एक समइ आलाप के, कीन्हइ अडान सुघर पपीहा सुर धरइ, देत है, पीउ पीउ
नीउ । पिउ ।।
भादु ।। २ ।।
गान ।
तान ।।
भादु ।। ३ ।।
रात विभाव विलात ही, उदित सुभाव सुभानु । समता साच मतइ मिले, प्राएं आनन्दघन
मानु ||
भादु ।। ४ ।।
अर्थ – सुमति कहती है कि प्रिय चेतन स्वामी की विभाव दशा रूप भादौं की घनघोर अंधेरी रात्रि मेरी छाती को क्षरण-क्षण छेद रही है, विदीर्ण कर रही है ।
प्रिय चेतन की शोभा देखकर हृदय प्रेम से विभोर हो जाता है और मुँह से 'पिया पिया' की ध्वनि निकल पड़ती है । पपीहा भी 'मिउ-पिउ' शब्दही बोलता है । इससे विरहिणी के पति की स्मृति ताजी हो जाती है । इसलिए कवियों ने पपीहे को विरहिणियों के प्रांरंग हरण करने में चतुर कहा है ।। १ ।।