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श्री प्रानन्दघन पदावली - १०६
हाथी जब हथिनी को देखकर मदोन्मत्त हो जाता है तब वह महावत के अंकुश के प्रहारों को भी नहीं गिनता । समता युक्त मन भी प्रात्मा के प्रति प्रेम में मस्त हो गया है जिसके कारण वह पीछे नहीं हट रहा है ।
मेरी बात स्पष्ट सुन लो । देह को छोड़ देंगे । इस
सुमति कहती है कि हे अनुभव मित्र ! प्रीतम के बिना मेरे प्राण इसी स्थान पर इस पर अनुभव ने कहा, "हे सुमति ! शीघ्रता मत कर, शीघ्रता करना बुद्धिमानी नहीं है । तू धीरज रख, विश्वास रख, आनन्दघन चेतन तुझसे दूर नहीं हैं ।। ४ ।।
विवेचन - सुमति अनुभव को प्रात्म-वृत्तान्त सुनाती है । अनुभव उसका आन्तरिक मित्र है आत्मा के स्वरूप में होने वाला प्रेम ऊपरऊपर के गुणस्थानक में अनन्तगुना विशुद्ध बनता है । आत्मा तथा समता में एकता कराने वाला आत्मा में उत्पन्न होने वाला शुद्धप्रेम ही है । बाह्य वस्तु का प्रेम 'विष- प्रेम' कहलाता है । आत्मा के सद्गुणों पर तथा उनके निमित्तों पर होने वाला प्रेम 'अमृत - प्रेम' कहलाता है । आत्मा के प्रति ज्यों-ज्यों प्रेम की वृद्धि होती जाती है, त्यो त्यों शुक्ल लेश्या की उज्ज्वलता की वृद्धि होती है । आत्मा पर होने वाला शुद्ध प्रेम चन्द्रमा की चांदनी की तरह आनन्द प्रदान किये बिना नहीं रहता । आत्मा के प्रति यदि सचमुच प्रेम प्रकट हुआ है तो जान लें कि परमात्म- पद प्राप्ति में अब विलम्ब नहीं है । सुमति के कथनानुसार ग्रात्म-स्वामी के बिना उसके प्रारण नहीं रहेंगे, यह बात सत्य प्रतीत होती है । ऐसे श्रेष्ठ मोक्षमार्ग का प्रेम ही सत्य प्रेम है ।
विशेष- इस सम्पूर्ण पद में अध्यात्म भरा हुआ है । रूपी हठीले नेत्र शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रियतम की ओर लग सम्पूर्ण पद का सार यह है कि मन, वचन एवं काया के योग से अन्तर में प्रेमपूर्वक आत्म-स्वामी के साथ रमण करें । अशुभ प्रेम को शुभ प्रेम में परिवर्तित करने के लिए प्रभु-दर्शन, प्रभु-पूजा, सामायिक आदि छह श्रावश्यक, सद्गुरु-सेवा, परोपकार तथा सिद्धान्तों के श्रवरण में प्रवृत्त होना चाहिए और आत्मा के प्रति प्रेम रखना चाहिए। अपनी आत्मा की तरह समस्त आत्माओं के प्रति प्रशस्य प्रेम रखकर उनका कल्याण करने का प्रयास करना चाहिए । साधु अथवा श्रावक के व्रतों को पालन करने का प्रयत्न करना चाहिए । आत्मा के सद्गुणों के प्रति प्रेम रखना चाहिए ।
चित्तवृत्ति रहे हैं ।