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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २३८
खगपद गगन मीन पद जल में, जो खोजे सो बोरा । चित 'पंकज' खोजे सो चीन्हे, रमता अन्तर भौंरा || श्रवधू ० ।। ४ ।।
विशेष - यह पद श्रीमद् श्रानन्दघनजी का न होकर 'पंकज' नामक कवि का है।
अर्थ - हे अवधूत आत्मन् ! जगत् राम-राम गा रहा है । अनेक व्यक्ति तो 'राम-राम' बोलकर माला गिनते हैं, परन्तु कोई बिरला ही राम का अलक्ष्य स्वरूप समझ सकता है। रामानुज, गोस्वामी, कबीरपन्थी, दादूपंथी, नानकपन्थी यदि मत वाले अपने मत में प्रसन्न हो रहे हैं । मठों में निवास करने वाले शंकर, गिरि, भारती, पुरी, सरस्वती
गेरी मठ, गोवर्धन मठ, ज्योतिर्मठ, तथा शारदा मठ आदि मठों में मस्त हैं । वे अपने मठों का महत्त्व एवं मठों की क्रियाएँ करने में ही प्रसन्न । जटाधारी मतों के बाबा अपने पक्ष में प्रसन्न हैं । लकड़ी के पट्टे.. एवं चीमटे आदि धारण करने वाले अपने मत में प्रसन्न हैं और वे अपने मतों की स्थापना हेतु अनेक युक्ति कर रहे हैं । छत्र, धारण करने वाले छत्रपति राजा अपने-अपने मत में प्रसन्न हैं । अपनी बात पर दृढ़ रहकर अन्याय करते हैं । अधिकारी कैसे बन सकते हैं ? ।। १ ।।
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वे अपनी सत्ता के बल पर वे भला राम को पहचानने
आगमों का अध्ययन करने वाले अनेक प्रागमधर थक गये परन्तु आगम पढ़कर वे भी राग-द्वेष की मन्दता नहीं कर सके । वे गच्छों के भेद के कारण खण्डन- मण्डन में पड़कर आगमों के बताये मार्ग पर चल नहीं सके । शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति करना ही आगमों की शिक्षा है । माया को धारण करने वाले माया में छक गये हैं । जगत् के समस्त जीव माया देवी के वश में हो गये हैं । बाजीगर की तरह माया समस्त जीवों को नाच नचा रही है । जगत् मोह के वश में पड़कर अपने
लक्ष्य आत्म-स्वरूप की ओर ध्यान नहीं देता । समस्त मनुष्य आशा दासी के वश में हैं । कोई विरले मनुष्य ही आत्मा के स्वरूप को पहचानने के लिए ध्यान दे रहे हैं ।। २ ।।
बाह्य वस्तुओं में आत्मत्व भाव रखने वाले जगत् में जितने मूढ़ मनुष्य हैं, वे सब माया के फन्दे में हैं । मूढ़ मनुष्य मायां में ही सुख मानते हैं । वे लोभ के वश में होकर देव, गुरु, धर्म से भी दूर रहते हैं ।