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________________ श्री आनन्दघन पदावली-२३६ अपने हृदय में आत्मा रूप चिदानन्द परमात्मा बिराज रहे हैं। प्रात्मतत्त्व का ज्ञान करने से सत्य तत्त्व का अवबोध होता है। अपने हृदय में आत्मा को पहचान कर उसकी भावना करने वाले मनुष्य जगत् में दुर्लभ हैं। हमें आत्म-तत्त्वज्ञानी सत्पुरुषों की संगति करनी चाहिए। सद्गुरु के साथ दीर्घकाल तक रहना चाहिए ताकि अभिनव ज्ञान की प्राप्ति हो सके। आत्मा के ज्ञानादि गुणों को विकसित करने से आत्मा परमात्मा बनती है, परन्तु कोई विरले मनुष्य ही प्रात्म-तत्त्व की भावना करते हैं ।। ३ ।। पक्षियों का आकाश में किस प्रकार पदन्यास होता है तथा जल में मछलियों का किस प्रकार पदन्यास होता है। तत्सम्बन्धी शोक करने वाला मूर्ख गिना जाता है और उस प्रकार की जड़ वस्तुओं में जो सुख को खोजता है, वह भी मूर्ख है। जिस प्रकार आकाश में पक्षियों के पद-चिह्न तथा जल में मछलियों के पद-चिह्न खोजने से कोई फल प्राप्त होने वाला नहीं है, उसी प्रकार पर-वस्तु जो क्षणिक हैं, उनमें आत्मत्वबुद्धि को धारण करने वाला मूर्ख है। आत्मा का ज्ञान करने से मनुष्य जन्म की सफलता होती है। समस्त ज्ञानों में आत्मा का ज्ञान श्रेष्ठ है, समस्त वस्तुओं के धर्मों में आत्म-धर्म श्रेष्ठ है। श्रीमद् अध्यात्म तत्त्ववेत्ता आनन्दघन जी कहते हैं कि जो प्रात्म-तत्त्व के जिज्ञासु भव्य सूक्ष्म दृष्टिधारक हृदय-कमल में सत्, चित्त और आनन्दमय आत्म-भ्रमर को खोजते हैं वे पूर्ण आनन्द प्राप्त करते हैं। अतः हृदय-कमल में आत्मा का ध्यान करो। आनन्द का घन आत्मा ही राम है और वह समता रूपी सीता के साथ रहता है, ऐसे प्रात्मा रूप राम का स्याद्वाद रूप से जो ध्यान करता है वह परमात्म-पद को प्राप्त करता है ।। ४ ।। .. . ( २० ) ( राग-सोरठ मुलतानी ) साइडां दिल लगा बंसी वारे सु, प्राण पियारे सु। मोर मुकुट मकराकृत कुडल, पीताम्बर पटवारे सु ।। साइ० ।। १ ।। चंद्र चकोर भये प्रान पपइया, नागरि नंद दुलारे सु। इन सखा के गुण गंध्रप गावै, प्रानन्दघन उजियारे सु ॥ साइ० ।। २ ।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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