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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३८४ कुमति जो कहूँ तुमने एटलू रे, म्हारा सधर्मी छे अनन्त काय रे 1 ते सवने दास पणू दियो रे, ते साले छे मुझ चित्त माय रे ।। २६ ।। श्यु कीजे पूठ ते नहीं करवे रे, तो पण मुझने दया थाय रे । तेथी देशना बहुविध करू ं रे, जिहां चाले म्हारो प्रयास रे ।। २७ ।। चेतन जी ने बहु परे प्रीछवु रे, तेने बनावू स्थिर वास रे । ते तो थारे बस करी न होवे रे, तेने वोसिरावी शिव जाय रे । . धर्मराय नी श्राणने अनुषरे रे, ते तो 'आनन्दघन' महाराय रे ।। २८ ।। शब्दार्थ : - मारगे रमू = घरे रम् । पूठ ते नहि करवे रे ते पूठ नहीं । उजमाल = उज्ज्वल । श्रनाचीर्ण= फेरवे रे | उन्मार्ग= कुमार्ग । परिहरो = छोड़ो। रूडी परे = भली प्रकार से । अकल = सुन्दर । वोसिराय = छोड़ना जिसका आचरण करने योग्य न हो अनवगाही नहीं ग्रहणं करने म्हालता = आनन्द पूर्वक चलते हुए । मूकी = छोड़ी । श्यो = क्यों | पीछे । विवरो = विवरण | प्रथाह = असीम | । = पंच-पांच इन्द्रियाँ । = आकर्षित करके । प्रीछवु = प्रश्न करना | वाला । पूठे = मोलवे
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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