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(२) पद एवं स्तवन
. प्रात्म-ज्ञान की धुन में रमण करने वाले साधक को अद्भुत, अनुभूति होती रहती है। उक्त अनुभूति जब शब्दों में प्रकट होती है, तब उसके इतने स्वरूप होते हैं कि उसे एक ही व्यक्ति के अन्तर का आविष्कार मानने की इच्छा नहीं होती। आनन्दघन जी के स्तवनों में गहन सिद्धान्तों का बोध, मार्मिक शास्त्र-दृष्टि एवं योगानुभव बरबस हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं, जबकि उनके पदों में भावोन्मुखं वाणी, और विद्युत् की तरह अन्तर से अद्भुत अनुभूति प्राप्त होती है। स्तवनों में प्रानन्दघनजी जैन-शास्त्र सम्मत योगवाणी का आलेखन करते हैं। पदों में उन्होंने कहा
वेद न जान', कतेब न जान, जानन लक्षण छन्दा। . तारकवाद विवाद न जान, न जान कवि फन्दा ॥...
(प्रानन्दघन ग्रन्थावली पद-१०) पदों में भक्ति एवं वैराग्य का निर्भर बहता है । स्तवनों में अनुभवी भक्त एवं शास्त्र-साता की वाणी है तो पदों में कवि की वाणी है । स्तवनों की भाषा जैनत्व का चोला धारण किये हुए है तो पदों में प्रेम-लक्षणा भक्ति के उद्गार सुनाई देते हैं। स्तवनों में प्रात्म-ज्ञान-विषयक विचार हैं, तो पदों में हृदय से निकलने वाले आनन्दानुभूति के उद्गार हैं । निष्कर्ष यह है कि प्रानन्दधनजी के पद स्तवनों की तुलना में उच्चकोटि के हैं। श्री आनन्दघनजी के स्तवनों का स्थान जैन परम्परा में गौरवमय है, तो उनके पद कबीर, नरसी भगत एवं मीराबाई के पदों से किसी प्रकार कम नहीं हैं। स्तवनों की भाषा गुजराती प्रावरण से युक्त है, जबकि पदों की छटा राजस्थानी भाषा से युक्त है।
__ स्तवनों तथा पदों की भिन्नता के कारण प्रश्न उत्पन्न होता है कि श्री आनन्दघनजी ने पहले स्तवनों की रचना की अथवा पदों की ? इस सम्बन्ध में आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी, मुनि श्री जिन विजयजी एवं श्री अगरचन्दजी नाहटा का मत है कि प्रथम स्तवनों की तथा तत्पश्चात् पदों की रचना की गई, जबकि श्री मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया का मत है कि प्रथम पदों की रचना हुई, तत्पश्चात् स्तवनों की रचना हुई।