________________
पद एवं स्तवन-२९
श्री जिनविजयजी मुनि का कथन है कि प्रानन्दघन चौबीसी में प्रारम्भिक ज्ञान की झलक है, परन्तु तत्पश्चात् व्यापक दृष्टिकोण की झलक उनके पदों में दृष्टिगोचर होती है। यही निर्णय उचित प्रतीत होता है। श्री अगरचन्दजी नाहटा ने भी माना है कि स्तवन अध्यात्म-ज्ञान की प्राथामिक दशा के द्योतक हैं तथा पद परिपक्वता के द्योतक प्रतीत होते हैं । पदों में वे साम्प्रदायिकता से ऊपर उठे हुए दिखाई देते हैं।
श्री कापड़िया जी का मत है कि श्रीमद् प्रानन्दघनजी ने प्रथम पदों की रचना की और तत्पश्चात् स्तवनों की। स्तवनों की भाषा, विचारप्रौढ़ता एवं अपूर्ण रहे हुए स्तवनों को ध्यान में लिया जाये तो यह बात सत्य ठहरती है। उनकी मान्यता है कि आनन्दघनजी की मूल भाषा राजस्थानी थी, अतः भाषा की दृष्टि से पद अत्यन्त सौष्ठव-युक्त हैं और उत्तर अवस्था में रचित स्तवनों में गुजराती भाषा का पुट है। स्तवनों में पदों के समान संवरी हुई भाषा नहीं है।
इनके पदों का कोई क्रम प्रतीत नहीं होता। विभिन्न प्रतियों में पदों का क्रम भिन्न है क्योंकि श्री आनन्दघनजी के हाथ की लिखी हुई कोई प्रति तो उपलब्ध ही नहीं है। अतः जिसको जितने पद कण्ठस्थ रहे उतने उस क्रम में लिख लिये गये। अन्य कवियों के पद भी आनन्दघनजी के पदों में सम्मिलित हो गये हैं, जिससे क्रम बराबर नहीं रह पाया।
श्रीमद् आनन्दघनजी के पद राजस्थानी भाषा में हैं परन्तु स्तवनों में गुजराती का पुट आ गया है। भाषा की दृष्टि से राजस्थानी उनकी मातृ-भाषा होने के कारण पदों में वे सफल रहे क्योंकि मातृ-भाषा पर व्यक्ति का अधिकार रहता है। स्तवनों की भाषा भी मूलतः तो राजस्थानी ही है परन्तु बाद में गुजरात, सौराष्ट्र प्रादि में विहार करने से भाषा में गुजराती के शब्द आ गये प्रतीत होते हैं।
स्तवन उत्तर अवस्था में लिखे गये, जिसका एक प्रमाण यह भी है कि उनके बाईस स्तवन उपलब्ध हैं। सामान्यतया तो कोई भी स्तवनरचयिता चौबीसी पूर्ण करना चाहेगा, अपूर्ण क्यों रहने देगा? कदाचित् चौबीसी पूर्ण करते-करते उनका स्वर्गवास हो गया हो और दो स्तवन शेष रह गये हों। ऐसा भी हो सकता है कि कोई पद स्तवनों की रचना करते-करते विचार आ जाने से मध्य में भी लिख लिया गया हो। अतः निर्णय यही हो सकता है कि इनके अधिकांश पद पूर्व जीवन में रचित हैं और स्तवन उत्तर जीवन में रचित प्रतीत होते हैं।