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श्री आनन्दघन पदावली-३१५
आत्मा वस्तुओं को देखता-जानता है। तात्पर्य यह है कि अभेद को ग्रहण करने वाले द्रव्य नय की अपेक्षा आत्मा निराकार और भेद को ग्रहण करने वाले नय की अपेक्षा आत्मा साकार है। चेतना के ज्ञान एवं दर्शन दो भेदों के द्वारा हो वस्तु के जानने तथा देखने का कार्य सम्पन्न होता है ॥२॥
विवेचन-प्रत्येक द्रव्य सामान्य एवं विशेषात्मक होता है। चेतन भी द्रव्य है, अतः वह भी सामान्य एवं विशेषात्मक है। ज्ञान तथा दर्शन इसके दो रूप हैं। दर्शन उसका सामान्य स्वरूप है तथा ज्ञान उसका विशेष स्वरूप है। सामान्य उपयोग दर्शन है, विशेष उपयोग ज्ञान है।
जीव कर्ता है क्योंकि परिणामों में परिणमन करता है और कर्म को करता है। नयवाद से इस कत्तत्व के अनेक रूप हैं। अशुद्ध निश्चय नय से जिन राग आदि भावों में परिणमन करता है उनका कर्ता है और व्यवहार नय से ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक कार्यों एवं शारीरिक नोकर्म का कर्ता है तथा उपचार से घर, नगर आदि का कर्ता है। इस प्रकार इसमें कर्तृत्व एवं मरिणमनशीलता है किन्तु मनुष्य को शुद्ध निश्चय नय के अनुसार अपने भाव में परिणमन करना चाहिए ॥ ३ ॥
___ सुख-दुःख दोनों को कर्म-फल जानें। निश्चय से तो केवल आनन्द ही है। चन्द्रमा तुल्य श्री वासुपूज्य जिनेश्वर ने कहा है कि प्रात्मा किसी भी अवस्था में अपनी चेतन प्रकृति को नहीं छोड़ता। अत: वह चैतन्य है और निश्चय नय से वह आनन्दस्वरूप है ।। ४ ।।
. समस्त द्रव्य परिणामी हैं (परिवर्तनशीलता को परिणामीपना कहते हैं) अपने-अपने स्वभाव में सब परिणमन करते हैं अत: चेतन भी परिणामी है। उसका परिणमन ज्ञान, कर्म एवं कर्म-फल के रूप में होता है। इन्हें क्रमशः ज्ञान-चेतना, कर्म-चेतना और कर्म-फल-चेतना कहना चाहिए। ज्ञानचेतना शुद्ध है और कर्मचेतना एवं कर्मफल चेतना अशुद्ध है। ये दोनों अज्ञान चेतनाएँ संसार को बीज हैं और ज्ञानचेतना मुक्ति बोज है। अतः हे भव्य जीवो! अपने चेतन को मनाकर आत्म-स्वरूप प्राप्त करो ॥ ५ ॥
आत्म-ज्ञानी ही श्रमण कहे जाते हैं, अन्य तो द्रव्य लिङ्गी भेषधारी हैं। जो जड़ और चेतन भाव को यथार्थ रूप से प्रकाशित करते हैं और