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________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३१६ राग आदि भावों को जड़ कर्म के संयोग से उत्पन्न जान कर छोड़ते हैं वे वारित्रवान हैं, आनन्दघन मत के साथी हैं अर्थात् वे ही अत्यन्त आनन्द करे. प्राप्त करते हैं ॥ ६ ॥ श्री विमल जिन स्तवन (राग-मल्हार-इडर प्रांबा प्रांबलो रे, इडर दाडिम दाख-ए देशी) दुःख दोहग दूरे टल्या रे, सुख सम्पत सु भेट । . . धींग धरणी माथे कियो रे, कुण गंजे नर खेट । विमल जिन'दीठा लोयण आज म्हारा सीझा वांछित काज । विमल ।। १ ।। चरण कमल कमला वसे रे, निरमल थिर पद देख । . समल अथिर पद परिहरी रे, पंकज पामर पेख। ' . , विमल ।। २ ॥ मुझ मन तुझ पद-पंकजे रे, लीनो गण मकरंद । रंक गणे मंदर धरा रे, इन्द्र चन्द्र नागिन्द । , विमल ।। ३ ।। साहिब समरथ तू धणी रे, पाम्यो परम उदार । मन विसरामी वालहो रे, प्रातमचो आधार । - विमल ॥ ४॥ दरसण दीठे जिन तणो रे, समय रहे न वेध । दिनकर कर भर पसरतां रे, अंधकार प्रतिषेध । विमल ।। ५ ।। अमी भरी मूरति रचि रे, उपमा घटे न कोय । . शांत सुधारस झीलती रे, निरखत तृपति न होय । विमल ॥ ६ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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