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श्री आनन्दघन पदावली-१५१
अर्थ-अपने मुख्य शत्रुओं से न लड़कर जो औरों से युद्ध करता है वह तो मूर्ख है। क्रोधी एवं द्वेषी मनुष्य अपने होश खो देता है, अतः वह पागल ही है। जो सच्चा पुरुष होता है वह तो उच्च श्रेणी में चढ़कर राग-द्वेष रूपी समस्त शत्रुओं को परास्त करता है। राग-द्वेष को जीतने पर मनुष्य जगत्-पूज्य हो जाता है। हे भोले चेतन! तू धर्म का मर्म दूसरों को क्या पूछता है ? तू तो इन प्रानन्दघन प्रभु के चरण-कमलों को पकड़ रख । प्रत्येक प्रवत्ति में यह देख कि मैं आत्म-भाव में हैं अथवा अनात्म भाव में हूँ ॥३॥
- विवेचन -चेतना अपने प्रात्मस्वामी को कहती है कि तू अब मोहशत्रु का संहार कर। जीव बाह्य युद्ध तो अनादि काल से करते आये हैं और इस कारण वे चर्तु पति रूप संसार में परिभ्रमण करते हैं। मनुष्य अपनी जाति वालों को शत्रु मानते हैं, परन्तु वस्तुतः तो उनके भीतर के राग-द्वेष शत्रु हैं। सच्चे शत्रु तो मोह के राग आदि योद्धा हैं। उनको ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के द्वारा जो नष्ट करता है, वही सच्चा शूर-वीर है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा अपने शुद्धानन्द स्वरूप में रमण करता है और समस्त कर्मों का क्षय करता है। शुद्ध चेतना अपने स्वामी को कर्म-क्षय करने के.लिए प्रोत्साहित करती है।
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राग-कान्हड़ो (प्रासावरी) देख्यो एक अपूरब खेला। पाप ही बाजी प्राप बाजीगर, आप गुरु प्राप चेला ॥
देख्यो० ॥ १ ॥
लोक अलोक बीचि आप बिराजत, ग्यान प्रकाश अकेला । बाजी छांडि तहाँ चढ़ि बैठे, जहाँ सिन्धु का मेला ।।
देख्यो० ॥ २ ॥
वाग वाद षट वाद सहूँ मैं, किसके किसके बोला । पाहण को भार कहा उठावत, इक तारे का चोला ।।
देख्यो० ।। ३ ॥