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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एव उनका काव्य-३३४ अर्थ-भावार्थ- यह मेरा मन रात-दिन बस्ती में, जंगल में एवं आकाश-पाताल में जाता रहता है, फिर भी तृप्त नहीं होता। जिस प्रकार साँप काटता है परन्तु उसका मुह खाली ही रहता है। उसके मुंह में कुछ नहीं आता। इस कहावत के अनुसार मन कोरा ही रहता है चाहे कितना ही भटके। विषयानन्द तो इन्द्रियाँ प्राप्त करती हैं ।।२।।
अर्थ-भावार्थ-मुक्ति के अभिलाषी महान् तपस्वियों एवं ज्ञानध्यान के अभ्यासियों को भी यह वैरी मन कुछ ऐसा चिन्तन कराकर. उलटे मार्ग पर लगा देता है ।। ३ ।।
अर्थ-भावार्थ-- शास्त्रज्ञों के हाथ में पागम रूपी अंकुश रहता है, फिर भी यह मदोन्मत्त हाथी रूपी मन वश में नहीं रहता। यदि इसे किसी स्थान से बलपूर्वक हटाया जाता है तो यह मन साँप की तरह और अधिक टेढ़ा हो जाता है, वश में नहीं होता ।। ४ ।।
अर्थ-भावार्थ-यदि मैं इसे ठग कहूँ तो इसे मैं ठगी करते हुए नहीं देखता, क्योंकि भोगोपभोग रूपी ठगी तो इन्द्रियाँ करतीं प्रतीत होती हैं । मैं इसे साहूकार भी नहीं कह सकता क्योंकि इसके सहयोग के बिना इन्द्रियाँ प्रवत्ति नहीं करतीं। मेरे मन में एक विस्मय हो रहा है कि यह मन समस्त इन्द्रियों के साथ रहकर भी सबसे अलग है ।। ५॥
अर्थ-भावार्थ-मैं इसे जो-जो बातें कहता हूँ (परमार्थ की बातें), उस ओर तो यह कान ही नहीं देता और अपने मते ही कलुषित रहता है। देव, मनुष्य, पण्डित-जनों के समझाने पर भी यह कुमति का भाई मेरा साला समझता ही नहीं ॥ ६ ॥
अर्थ-भावार्थ - (संस्कृत में 'मन' शब्द नपुसक लिङ्ग का है) मैंने तो इसे नपुंसक लिङ्ग ही समझा था परन्तु यह तो बड़े-बड़े समर्थ पुरुषों को दूर ढकेलता है। अन्य बातों में मनुष्य भले ही समर्थ हो, परन्तु इसका तेज कोई सहन नहीं कर सकता ॥ ७ ॥
विवेचन–मनुष्य सिंह को वश में कर सकता है, सागर पार कर सकता है, आग पर चल सकता है और हवा में भी उड़ सकता है, परन्तु मन को वश में करना कठिन है ॥ ७ ॥