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________________ श्री आनन्दघन पदावली-३१३ जो आत्म-वस्तु के विचारक हैं वे ही अध्यात्मी हैं अर्थात् साधु, संत, मुनि अध्यात्मी हैं, शेष दूसरे तो केवल बकवास करने वाले भेषधारी हैं । वस्तु में निहित गुणों तथा पर्यायों को यथार्थ रूप से प्रकट करने वाले हैं वे ही आनन्दघन प्रभु के सप्तनय-प्राश्रित मत के वासी हैं अर्थात् रमण करने वाले हैं ॥ ६ ॥ विवेचनः - इस स्तवन में बताया है कि सच्चे अध्यात्मी को ही मान्यता देनी चाहिए। उसी में कल्याण है। नाम मात्र के अध्यात्मी को मान्यता देने से भव-भ्रमण बढ़ता है, प्रात्म-कल्याण नहीं होता। सम्मान के योग्य तो वही है जिसमें कषायों की मन्दता हो, जो साधु का नाम उज्ज्वल करने वाला हो। अन्य व्यक्ति गुरु मानने योग्य नहीं हैं। केवल भाव-अध्यात्मी ही आदर का पात्र है, उसे ही जीवन अर्पण करना चाहिए। ( १२ ) - श्री वासुपूज्य जिन स्तवन (राग-गौड़ो-तुगिया गिरि शिखर सोहे-ए देशी) वासुपूज्य जिन त्रिभुवन स्वामी, घणनामी परणामी रे । निराकार साकार सचेतन, करम करम फल कामी रे । ... वासु० ।। १॥ निराकार अभेद संग्राहक, भेद ग्राहक साकारो रे । दर्शन ज्ञान दुभेद चेतना, वस्तु ग्रहण व्यापारो रे । वासु० ।। २ ।। करता परिणामी परिणामो, करम जे जोवे करिये रे । एक अनेक रूप नय वादे, नियते नर अनुसरिये रे । वासु० ॥ ३ ॥ सुख-दुःख रूप करमफल जाणो, निश्चय एक आनंदो रे । चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिन चंदो रे । वासु० ॥ ४ ।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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