SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हुई है। इससे पूर्व यहाँ जैनों के ३२०० घर होने का उल्लेख मिलता है। उस समय यह शहर वैभवशाली था, यहाँ कई लखपति रहते थे, विशेष कारणवश यहाँ के ३५ लखपति मेड़ता को छोड़कर अजमेर चले गये थे, वह स्थान आज भी लाखनकोटड़ी के नाम से विख्यात है। यहाँ ८४ गच्छों के ८४ उपाश्रय भी विद्यमान थे, वर्तमान में तपागच्छ के उपाश्रय में पू. प्राचार्य श्री होरसूरीश्वरजी म. की गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा सं. १६५३ में हुई थी, वह भी है। भक्तिमती श्री मीरा की नगरी मेड़ता कई वीरों, संतों, भक्तों, कवियों, इतिहासकारों व साधकों की पावन स्थली रही है। इन साधकों में अनुमानतः वि. सं. १६५० से वि. सं. १७४० के मध्य हुए श्री प्रानन्दघनजी म. का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । __ अध्यात्मयोगी-विश्वविभूति श्री आनन्दघन जी म. का भी शिक्षादीक्षा क्षेत्र मेड़ता रहा है। ऐसा कहा भी जाता है कि चौबीस भगवान के स्तवनों की व आध्यात्मिक पदों की अनेक रचनाएँ भी उन्होंने यहीं पर की है। राजा-रानी सतीत्व आदि के कई प्रसंग भी, यहीं पर हुए हैं तथा उनको अन्तिम साधना व कालधर्म भी यहीं पर हुआ था। सत्रहवीं सदी में महान् योगिराज श्री प्रानन्दघनजी महाराज की साधना से यह भूमि पवित्रता को प्राप्त हुई है। यह उनकी अन्तिम साधना-भूमि भी रही है । योगिराज का जैन समाज पर असीम उपकार रहा है। वैसे स्मृति स्वरूप समाधि पर एक छत्री बनी हुई है। श्रीसंघ के सौभाग्य से मेड़ता रोड (श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ) में उपधानतप करने हेतु पधारते शासन-प्रभावक प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय कलापूर्ण सूरीश्वरजी महाराज सा. यहाँ पधारे, उनकी देवी प्रेरणा मिली कि ऐसे महान् योगिराज का उचित एवं गरिमामय स्मारक न होना सारे समाज के लिए खटकने जैसी बात है। उपधान के माला महोत्सव पर उन्होंने भव्य प्रेरणा दी एवं परमपूज्य प्राचार्य भगवंत श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. एवं पूज्य पंन्यास श्री जिनोत्तम विजयजी गणिवर्य म. के सदुपदेश से मेड़ता श्रीसंघ ने यह महान् कार्य करवाने का शुभ निर्णय लिया। तत्पश्चात् २८ जनवरी, १९८८ का शुभ दिन
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy