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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २२६
में अकुला रही हूँ । मेरे दिन रुदन में व्यतीत हो रहे हैं । मेरे लिए यह कितनी खेद की बात है ? मेरे बाल स्वामी मेरी व्यथा जान नहीं सकते। मेरे चेतन स्वामी छद्मस्थ होने से मेरा सम्बन्ध जान नहीं पा रहे हैं ।
अर्थ - क्षमा, शील, सन्तोष आदि रत्नों से जड़ित व्रत रूपी प्रभूषण चेतन स्वामी के बाल भाव में होने से मुझे अच्छे नहीं लगते । मैं उनसे जल सी रही हूँ । इस दशा के कारण तो मेरा मन हो रहा है कि मैं विष-पान कर लूँ ।। २ ॥
विवेचन - हे समता सखी! मैं आभूषणों से अलंकृत हूँ परन्तु आभूषण मुझे अच्छे नहीं लग रहे । स्वामी के बिना आभूषण पहने हुए हैं पर वे देह को सुशोभित नहीं कर रहे। अब तो यही इच्छा हो रही है कि विष पान करके मर जाऊँ ताकि मेरी समस्त वेदना मिट जाये । स्वामी के प्रेम में अत्यन्त मग्न बनी शुद्ध चेतना वियोग - जनित अपने दुःख. से तंग आकर प्रारण-नाशक मार्ग ग्रहण करना चाहती है | चेतनस्वरूप स्वामी के आनन्द-रस की प्यासी शुद्ध चेतना अपने स्वामी के सामने अपनी देह तथा प्राण का भी कोई मूल्य नहीं समझती । वह अपने स्वामी में लीन हो गई है। स्थिर उपयोग से वह अपने स्वामी का ध्यान करती है । आत्म-स्वामी की बाल्यावस्था होने से शुद्ध चेतना का कार्य नहीं हो पाता । जगत् व्यवहार में भी यदि 'छोटे कन्त बड़ी बहू' हो तो परिणाम विपरीत होता है । श्रीमद् श्रानन्दघनजी के अनुसार बाल-विवाह के निषेध का बोध प्राप्त होता है ।
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अर्थ - हे सखी! सोना भी मेरे भाग्य में नहीं है । मैं सो भी नहीं पाती । स्वामी की बाल्यावस्था से दुःखी मैं निःश्वास छोड़ती हूँ और मन ही मन पछताती रहती हूँ । स्वामी चेतनराज पर-भाव छोड़कर स्व-भाव दशा में नहीं आ रहे हैं । यह मेरे लिए भारी विपत्ति है । हे सखी समता ! तू उन चेतनराज को समझा, अन्यथा मैं योगिनी बनकर घर से निकल पड़गी, किसी काम की नहीं रहूंगी ॥ ३ ॥
विवेचन - शुद्ध चेतना कहती है कि चिन्ता के कारण मेरी नींद भी उड़ गई है । मेरे स्वामी की बाल अवस्था के कारण घातक कर्मों ने मुझे घेर लिया है । स्वामी यह भी ध्यान नहीं रखते कि घर में क्या हो रहा वे कषाय, नोकषाय आदि प्रमाद के स्थानों में खेलने के लिए दौड़
है ?