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श्री प्रानन्दघन पदावली-२२५
( १३ )
( राग-मालसिरी) वारे नाह संग मेरो यूं ही जोबन जाय । ए दिन हसन खेलन के सजनी, रोते रैन विहाय ।।
वारे० ॥ १ ॥ नग भूषण से जरी जातरी, मो तन कछु न सुहाय । इक बुद्धि जोय में ऐसी पावत है, लीजै री विष खाय ।।
वारे० ॥ २॥ ना सोवत है लेत. उसासन, मन ही में पिछताय । । योगिनी हुय के निकसू घर तें, आनन्दघन समजाय ॥
वारे० ॥ ३ ॥ नोट-इस पद को भाषा-शैली भी प्रानन्दघनजी की भाषा-शैली से भिन्न होने के कारण यह पद भी शंकास्पद है ।
अर्थ-शुद्ध चेतना अपनी सखी समता को कह रही है-हे सखी! बाल पति के साथ अर्थात् बाल भाव छद्मस्थ अवस्था वाले चेतन के साथ मेरा यह यौवन व्यर्थ ही जा रहा है। यौवन तो हँसने, खेलने और मौज करने के दिन हैं किन्तु पति छोटे होने के कारण मेरी रात्रि तो रुदन करतेकरते ही व्यतीत होती है; अर्थात् यौवन अवस्था रूप धर्म-साधनाकाल तो हँसने-खेलने रूप ज्ञान, ध्यान, तप आदि करने का समय है, किन्तु चेतन यह समय प्रमाद में व्यतीत कर रहा है। इस कष्ट से मेरी शान्ति रूप रात्रि रोते हुए विरह में व्यथित व्यतीत हो रही है ।। १ ।।
विवेचन -शुद्ध चेतना अपनी सजनी समता को अपनी व्यथा सुनाते हुए कह रही है कि मेरे चेतन स्वामी क्षयोपशम भाव के चारित्र-धारक होने से तथा छद्मस्थ होने से वे अभी अन्तरात्म दशा में छोटे हैं और मैं तो तेरहवें गुणस्थान में रहने वाली क्षायिक शुद्ध चेतना अर्थात् केवलज्ञानदृष्टि हूँ। मेरे स्वामी अन्तरात्म दशा वाले क्षयोपशम भाव वाले होने के कारण वे मेरी दशा जान नहीं सकते। इस कारण मेरा यौवन अकारथ जा रहा है। मेरे तेरहवें गुणस्थान का समय अनन्त आनन्द का खेल खेलने का है और ऐसे समय आनन्द प्राप्त नहीं होने से मैं अनेक चिन्ताओं