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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२२४
अर्थ-इस पद में वामा-नन्दन पार्श्वनाथ प्रभु की स्तवना की गई है। हे अश्वसेन राजा एवं वामादेवी के पुत्र पार्श्वनाथ प्रभो ! इस संसार में आपकी समानता करने वाला अन्य कोई नहीं है। विष्णु, महादेव
और ब्रह्मा-ये तीनों महान् कहे जाते हैं, जिन्हें भी कामदेव ने धर दबाया अर्थात् भ्रष्ट कर दिया। तात्पर्य यह है कि सरस्वती तो ब्रह्मा की पुत्री कही जाती है। उसे देखकर ब्रह्मा कामातुर हो गये, विष्णु सदा लक्ष्मी के संसर्ग में रहते हैं और महादेव भीलनी का रूप देखकर मोहित हो गये। इस प्रकार तीनों महान् देवों को कामदेव ने भ्रष्ट कर दिया। उसी कामदेव को हे प्रभो! आपने पल भर में जीत लिया ॥१॥
विवेचन --हे वामानन्दन पार्श्वनाथ प्रभो! ब्रह्मा, विष्णु, महादेव की त्रिपुटी भी काम को वश में नहीं कर सकी। वे तीनों काम की प्रबलता से दब गये। काम की गति अत्यन्त बलवान है। . काम के वेग से तपस्वी भी च्युत हो जाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को भी काम सताता रहता है। उस कामदेव को आपने पल मात्र में जीत लिया।
अर्थ -संसार में जिस प्रकार जल अग्नि को बुझा देता है और अग्निशामक जल को बड़वानल क्षरण मात्र में पी जाता है, उसी प्रकार हे वामा-नन्दन ! आपने भी कामाग्नि को पी लिया है, उसका शमन कर लिया है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे वामादेवी के पुत्र पार्श्वनाथ प्रभु ! आपकी शक्ति का वर्णन कण्ठ से नहीं किया जा सकता। आपकी काम-विजय शक्ति अनिर्वचनीय है अर्थात् आपके ब्रह्मचर्य-व्रत का वर्णन वाणी से नहीं किया जा सकता ।। २ ।।
विवेचन - काम बड़वानल से भी अधिक दाहक है। अग्नि अन्य पदार्थों को जला कर राख कर देती है, पर वह मन को नहीं जला सकती। कामरूपी बड़वानल तो हृदय को भी जला कर राख कर देती है। जगत् में जल अग्नि को बुझाता है। जल में अग्नि को बुझाने की शक्ति है। उस जल का पान करने वाला भी बड़वानल है। हे भगवन् ! ऐसे बड़वानल तुल्य कामरूपी बड़वानल का आपने पान किया। काम रूपी बड़वानल का पान करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। हे आनन्द के समूहभूत त्रिलोकीनाथ ! हे वामा-नन्दन पार्श्वनाथ ! आपके कण्ठ काम रूप बड़वाग्नि को पान करने की जो शक्ति है, वैसी किसी अन्य देव के गले में नहीं है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे पार्श्वनाथ ! मैं आपका ध्यान करता हूँ।