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श्री आनन्दघन पदावली-२२३
चौथे में आने का कोई निश्चित समय नहीं है, अत: चेतना विलाप करती है) मेरी ऐसी निराधार दशा को देखकर हे स्वामिन् ! आप शीघ्रातिशीघ्र प्रायें ताकि मैं अपने मन की आशा पूर्ण कर सकू; अर्थात् चेतन मिथ्यात्व त्याग कर सम्यक्त्वी बने और क्षपक श्रेणी चढ़कर शुद्ध-बुद्ध बने तो मेरी समस्त आशाएँ, अभिलाषाएँ पूर्ण हो ॥६।।
विवेचन - सम्यक्त्व दृष्टि कहती है कि मैं कभी से आप की प्रतीक्षा कर रही हूँ कि चेतन अाज आयेंगे, कल पायेंगे और प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा में अपना जीवन व्यतीत करती हैं। आपके आगमन की अवधि के बिना तो दिन भी व्यतीत नहीं होते। मैं विरहिणो विलाप करती हूँ कि कब आपका आगमन होगा? वह विरह से दु:खी होकर कहती है कि हे आनन्द के समूहभूत चेतन ! अब आप शीघ्र आयें ताकि मैं अपनी समस्त आशाएँ पूर्ण कर सकू।
सम्यक्त्वदृष्टि तथा अध्यात्मदृष्टि की प्रेमदशा और उन दोनों के उद्गार सचमुच हृदय पर प्रभाव डालते हैं। अध्यात्मदृष्टि के भी अन्तरात्म-स्वामी के विरह में वैसे ही उद्गार निकलते हैं। प्रात्मा एवं जड़ वस्तु का परोक्ष प्रमाण से भेद जानना और आत्मा को आत्मा के रूप में मानना अध्यात्मदृष्टि है। · अध्यात्मदृष्टि का प्रारम्भ-काल चौथे गुणस्थान से है और अध्यात्मंचारित्र तो गुणस्थान के अधिकार के अनुसार प्राप्त होता है।
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( राग-सूरति टोडी ) प्रभु तो सम अवर न कोई खलक में । हरि हर ब्रह्मा विगूते सो तो,मदन जीत्यो तें पलक में ।।
प्रभु० ।। १ ।। ज्यों जल जग में अगन बुझावत, बड़वानल सो पीये पलक में । प्रानन्दघन प्रभु वामा रे नन्दन, तेरो हाम न होत हलक में ।।
प्रभु० ॥ २ ॥ नोट-इस पद में प्रानन्दघनजी को चौबीसी की शैली भी नहीं है। प्रतः ग्रह पद उनका नहीं माना जा सकता। सम्भव है यह पद किसी अन्य जैन कवि का हो और प्रानन्दघनजी के नाम पर चढ़ गया हो।