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________________ श्री आनन्दघन पदावली - ६५ अर्थ - आत्मा के अनुभव ज्ञानरूपी पुष्प की कोई भिन्न रोति है क्योंकि नाक में उसकी सुगन्ध नहीं आती और कान में उसकी आवाज नहीं सुनाई पड़ती । आत्मा का जो अनुभव ज्ञानरूपी पुष्प है वह तो भिन्न प्रकार का है । वहाँ घ्राणेन्द्रिय एवं कर्णेन्द्रिय का व्यापार नहीं चल सकता । अनुभव ज्ञानरूपी पुष्प की प्रतीति सचमुच पाँच इन्द्रियों द्वारा नहीं होती । अनुभव ज्ञानरूपी पुष्प की यदि कोई सुगन्ध लेने लगे तो उसे वह नाक से सूँघ नहीं सकता, आँखों से देख नहीं सकता, अनुभव ज्ञान शब्दों के द्वारा अन्य व्यक्तियों को सुनाया नहीं जा सकता, क्योंकि शब्दों के उस पार भी अनुभव ज्ञान है । जिसको वह ज्ञान होता है वही जान सकता है । ( साखी) कतिपय प्रतियों में 'कान न गहे परतीत' पाठ है । इसका अर्थ है कि न कानों को शब्द सुनने से उसकी प्रतीति होती है क्योंकि आत्मा को प्राँखें देख नहीं सकतीं, न त्वचा स्पर्श कर सकती है अर्थात् किसी भी इन्द्रिय के द्वारा आत्मा को जाना नहीं जा सकता । यह इन्द्रियातीत है । यह स्वयं के द्वारा जानी जाती है । जैन दार्शनिकों ने इन्द्रियों के द्वारा होने वाले ज्ञान को इन्द्रिय- प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है । जैन चिन्तकों तथा दार्शनिकों ने 'सम्यक दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : ' कहा है । यह सूत्र श्री उमास्वाति के 'तत्त्वार्थ सूत्र' का प्रथम सूत्र है, जिसका अर्थ है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के साधन हैं । कहीं-कहीं ज्ञान-क्रिया को मोक्ष का साधन कहा है । उसका भी तात्पर्य यही है क्योंकि सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा अवश्य होगा, परन्तु सम्यक्चारित्र के साथ इनका साहचर्य नितान्त आवश्यक नहीं है । इसलिए संक्षेप में ज्ञान - क्रिया ( चारित्र) को मोक्ष का साधन कहा है । तप को भी मुक्ति का साधन माना है । इसी कारण से इसे नौ पद ( नवपद ) में भी स्थान मिला है । जिस प्रकार दर्शन का समावेश ज्ञान में हो जाता है, उसी प्रकार तप का समावेश चारित्र में हो जाता है । इसलिए संक्षेप में ज्ञान एवं क्रिया को ही मोक्ष का साधन कहा है । जीव को संसार में उलझाने वाली भी दो ही वस्तुएँ हैं तथा तारने वाली भी दो ही वस्तुएँ हैं । दर्शनमोह और चारित्रमोह-ये दो जीव को संसार में परिभ्रमण कराते हैं तथा ज्ञान एवं क्रिया ये दो तारते हैं । दर्शनमोह दृष्टि को बिगाड़ता
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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