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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-६४
विवेचन-जब तक आत्मा ममता के घर में रहती है और ममता के कथनानुसार करती है, तब तक प्रात्मा एवं समता का मिलाप नहीं हो पाता। जब तक पर-वस्तु में ममत्व रहता है तब तक आत्मा राग-द्वेष के पक्ष में रहती है। राग-द्वेष के कारण आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप नहीं देख सकती। मन, वचन एवं देह में जब तक ममता का वास है, तब तक आत्मा समता के घर में प्रविष्ट होने की अधिकारी नहीं हो सकती। वह अनेक प्रकार के कुकृत्य करने की प्रवृत्ति करती रहती है, आशा के उद्गार निकालती है, हास्य का कुतूहल करती है और तृष्णा रूपी मदिरा का पान करके बन्दर के समान बन जाती है तथा आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा एवं परिग्रह-संज्ञा धारण करके संसार में स्थिर रहती है तब तक उसके कुलक्षणों से. समता उदास रहती है। आत्मा समता के मुक्ति रूपी घर में प्रविष्ट होने के लिए गुणस्थानक रूपी भूमि का उल्लंघन नहीं कर सकती अर्थात् परवस्तु के प्रति ममता का परित्याग करने पर पर-वस्तु को समभाव से देखती है तब वह आनन्द प्रकट कर सकती है। आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि आनन्दघन रूप बनी आत्मा समता से आकर मिलती है तथा उसकी समस्त आशाएँ पूर्ण करती है। आत्मा सादि अनन्त भाग में शिव रूप घर में समता के साथ समय-समय पर अनन्त सुख का उपभोग करती है।
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(राग-सारंग) साखी-प्रातम अनुभव फूल की, नवली कोऊ रीति ।
नाक न पकरे वासना, कान गहे परतीति ।। अनुभौ नाथ कु क्यू न जगावे ? ममता संग सुचाइ अजागल, थनते दूध दुहावे ॥अनुभौ०।१।। मेरे कहे ते खीज न कीजे, तू ही ऐसी सिखावे । बहुत कहे ते लागत ऐसी, प्रांगुली सरप दिखावे ॥अनुभौ०॥२॥ औरन के रंग राते चेतन, माते आप बतांवे । आनन्दघन की समता आनन्दघन वाके न कहावे ।।अनुभौ०॥३॥