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श्री आनन्दघन पदावली - ६३
शान्ति के धाम मेरे स्वामी मुझे मिल जायें तो अनेक प्रकार के आन्तरिक ताप शान्त हो जायें । अतः अनन्त गुणों के धाम मेरे स्वामी मुझे कब मिलेंगे ? हे ज्योतिषी ! तू पत्रक एवं पोथी देखकर मुझे बता ।
उपर्युक्त पद्यांश का सारांश श्री ज्ञानसारजी महाराज के अनुसार यह है - 'हे सखी ! मैं शुद्धात्मा से मिलना चाहती हूँ, किन्तु मिलाप होता नहीं प्रतीत होने से देह रूपी पिंजड़े में पड़ा यह जीव अत्यन्त छटपटा रहा है, कष्ट पा रहा है ।'
श्वासोश्वास बढ़े हुए हैं । ज्यों-ज्यों रात्रि बढ़ती है, त्यों-त्यों श्वास-प्रश्वास की गति में भी वृद्धि हो रही है । ऐसा प्रतीत होता है मानों रात्रि और श्वास में परस्पर होड़ लगी हो । हे प्रिय चेतन ! मनाने पर भी श्वास की तीव्रता नहीं मिट रही है और लड़ाई ठाने हुए रात्रि पीछे नहीं हट रही है ॥ ४ ॥
विवेचन - विरह दशा रूपी रात्रि हटती नहीं है और मनाने पर भी मानती नहीं है । अतः मैं रात्रि में कष्ट भोग रही हूँ । ज्ञान-प्रकाश हुए बिना रात्रि के अनेक प्रकार के कष्ट टलेंगे नहीं ।
उपर्युक्त पद्यांश का श्री ज्ञानसारजी महाराज ने अर्थ बताया है कि 'श्वासोश्वासरूपी पथिक में तथा रात्रि में संघर्ष चलता है । आत्मा सोपक्रमी आयुष्यवाली है । उसकी सातों प्रकार से प्रायु स्थिति टूटने वाली है । चेतना सोचती है कि अन्त समय में शुभ परिणाम हों तो आत्मा से मिलाप हो सकता है, परन्तु आत्मा की अशुभ आयु स्थिति पहले ही बँध चुकी है । अतः मरण के समय अशुभ परिणाम ही आयेंगे। अशुभ परिणामी आत्मा से शुद्धचेतना का मिलाप असम्भव है । सात प्रकार के उपक्रम में से कोई भी एक उपक्रम लग जाये तो आयु स्थिति टूट जायेगी । अतः श्वासोश्वास को मनाती है, परन्तु हठ के कारण श्वासोश्वास ने रात्रि में आत्मा को उस गति में नहीं
रहने दिया ।
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इस प्रकार जिसका गृहस्वामी अशुद्धोपयोग में रमण करता है, उस स्त्री के भाग्य में सुख कहाँ है ? वह तो पति की स्थिति से उदास रहती है । फिर भी उसे आशा है कि आनन्द के घन परमानन्दी प्रभु ( चेतन) स्वभाव रूप निज घर में आकर प्रत्येक प्रकार से मेरी आशा पूर्ण करेंगे ।। ५ ।।