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योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-६२
मेरे प्रिय चेतन-स्वामी के बिना मेरी अथाह एवं विकराल विरहव्यथा कौन दूर करे ? मेरा दुःख देखकर मेरे नेत्रों से मेरी नींद भी जाती रही। दीप-शिखा के समान मेरा सिर इधर-उधर डोल रहा है । पल भर के लिए भी मेरी देह स्थिर नहीं रहती। अतः हे ज्योतिषी ! तुम अपना ज्योतिष देखकर बताओ कि मेरे प्रिय चेतन-स्वामी का मुझसे मिलाप कब होगा? ॥१॥
विशेष -व्यक्ति समतायुक्त हो, अध्यात्मरत हो, परन्तु आत्मानुभव का आश्रय नहीं मिला हो तो उसमें स्थिरता नहीं आ सकती। वह दीपक की शिखा के समान अस्थिर रहता है।
___ चन्द्रमा अस्त हो गया है, तारे टिमटिमा रहे हैं, बिजली तलवार की तरह चमक रही है। रात्रि तथा कामदेव अपने स्वजन के अभाव में मुझे तीव्र वेग से दगा देने के लिए तत्पर हो रहे हैं। अर्थात् ऐसा कामोद्दीपक वातावरण मुझे प्रियतम का अत्यन्त स्मरण करा रहा है । अतः हे ज्योतिषी ! तू सोच कर मुझे.मेरा भविष्य बता ।। २ ॥
श्री ज्ञानसारजी महाराज ने उपर्युक्त पद्यांश का अर्थ इस प्रकार बताया है - 'चन्द्रमा अस्त हो रहा है, तारे टिमटिमा रहे हैं और बिजली बिना ग्रहण की हुई तलवार से मुझे दगा देने के लिए तत्पर हो रही है, क्योंकि यदि मैं अशुद्ध चेतना है तो कामोद्दीपन के कारण कामदेव मेरा सज्जन है, किन्तु मैं तो शुद्ध चेतना हूँ अतः कामदेव मेरा सज्जन नहीं है। अंधेरी रात, तारे, दामिनी तलवार धारण करके मुझे कामोद्दीपन रूप दगा देना चाहते हैं।
मेरा यह हंस रूपी जीव उड़ नहीं सकता क्योंकि वह तन रूपी पिंजड़े में कैद है। इस तन-पिंजड़े में पड़ा-पड़ा जीव कष्ट भोग रहा है। विरहाग्नि तीव्र वेग से जल रही है। विरह की ज्वाला से पंख तो मूल से ही सर्वथा जल चुके हैं। अतः हे प्रिय चेतन ! पंख जल जाने के कारण मैं तो उड़ कर भी आपके पास नहीं आ सकती। आयुष्यकर्म के. उदय से मेरा जीव-हंस देह रूपी पिंजरे में से उड़ नहीं सकता ॥ ३ ॥
विवेचन-ऐसी परिस्थिति में मेरे जीव-हंस को कैसी पीड़ा होती होगी? बाह्य ताप से दग्ध जीव किसी भी उपाय से शीतल हो सकते हैं, परन्तु आन्तरिक ताप से दग्ध जीव उपशम रूपी वृष्टि के बिना शान्त नहीं हो सकते। मेरे प्रिय जीव-हंस की भी वैसी ही दशा है। अनन्त