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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - १८२
बंध मोख निहचे नहीं, विवहारी लखि दोइ । कुशल खेम अनादि ही, नित्य अबाधित होइ ॥ पूछीइ० ।। ३ ।।
सुनि विवेक मुखते नई, बानी अमृत समान । सरधा समता दोई मिली, लाई श्रानन्दघन तान । पूछीइ० ॥ ४ ॥
अर्थ - श्रद्धा समता से कहती है- - हे सखि समता ! विवेकजी पधारे हैं, उनका स्वागत कर ले और यदि कोई नवीन समाचार हों तो पूछ ले । समता विवेक के समीप जाकर कहती है कि आपके आगमन से हमें तथा हमारे मन व शरीर को जो महात्रानन्द प्राप्त होता है, उस महान् सुखं का वर्णन नहीं किया जा सकता । आप हमारे प्राणनाथ की कुशलता के समाचार बताइये ।। १ ।।
अर्थ - समता के प्रश्न का उत्तर देते हुए विवेक कहता है - अचल एवं अबाधित देव के तो सर्वदा कुशल-क्षेम है । वास्तव में तो उनकी असंख्य प्रदेशात्मक देह तो बाधारहित निश्चल है । व्यवहारनय से घटने-बढ़ने, सुख-दुःख एवं लाभ - प्रलाभ की बात है, किन्तु निश्चय से तो अनन्त शान्ति विद्यमान है ।। २ ।।
विवेचन - निश्चय से तो बंध - मोक्ष नहीं है, व्यवहार से ही बंध एवं मोक्ष का विचार देखा जाता है । जब निश्चय से बंध - मोक्ष है ही नहीं, तब अनादि से आनन्द ही आनन्द है, कुशलता है, अबाधितता है । यह आत्मा शाश्वत है, बाधा रहित है, फिर बन्धन कैसा ? दुःख कैसा ? वेदना कैसी ? आत्मा को भूले हुनों के लिए ही सब विघ्न हैं ।
अर्थ - जो देह को ही सब कुछ समझते हैं उन विभाव परिणामियों के लिए ही संसार बन्धन है । आत्मा की ओर लक्ष्य देने वाले तो शाता - अशाता से परे रहकर अव्याबाध सुख के अधिकारी होते हैं ।। ३ ।।
अर्थ – विवेक के मुँह से अमृततुल्य वचन सुनकर श्रद्धा एवं समता मिलकर आनन्द स्वरूप अपने स्वामी आत्मदेव को निज स्वरूप की ओर खींच कर ले आई ॥ ४ ॥