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श्री आनन्दघन पदावली - १८१
जड़ संयोग से उत्पन्न होते हैं अतः द्रव्य प्रारण कहलाते हैं । योगी जब भगवान को ही सब कुछ समझ लेता है तो वह देह एवं इन्द्रियों की सुधबुध खो देता है । पहले वह अवस्था अल्पकालीन होती है, परन्तु अभ्यास बढ़ने पर संस्कार बढ़ते जाते हैं, चारों ओर वही चैतन्य रूप
गोचर होता है । जब तक अहंभाव रहता है तब तक यह दृष्टि दृढ़ नहीं होती । 'मेरा कुछ नहीं है' यह स्थिति आने पर तदात्मता बढ़ जाती है । उस स्थिति में इस पद के उद्गार योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी के मुख से निकले हैं ।
वे कहते हैं - मेरा आनन्द समूहभूत आत्मा सचमुच प्रभभूत है जिसमें उपशम- प्रमृतघन है। इसकी प्राप्ति के पश्चात् जन्म-मरण के कष्ट नहीं रहते । अतः सत्य अभ्ररूप मेरा आत्मा है । गर्भ भी सत्य-सुख का दाता नहीं है । मेरा आत्मा ही गर्भरूप है । गर्भ में से प्राणी बाहर निकलते हैं, उस प्रकार मेरी आत्मा में से अनन्त सुख प्रकट होते हैं, अतः आत्मा ही गर्भ रूप है । नाभिरूप मेरा श्रात्मा ही है । आत्मा के आठ रुचक- प्रदेश नाभिकमल के स्थान में रहते हैं । उनके आठ प्रकार के कर्म अनादिकाल से नहीं लगते । इस कारण से नाभिकमल के स्थान में विद्यमान आठ रुचक- प्रदेश सिद्ध भगवान के प्रदेशों के समान निर्मल हैं । बाह्य प्रदेशों का लाभ वास्तविक लाभ नहीं है, क्योंकि बाह्य लाभ क्षणिक है । वे सच्चा सुख प्रदान नहीं करते । आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि सद्गुणों का लाभ ही वास्तविक लाभ है जो श्रात्मारूप है और वही लाभ सच्चा है ।
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(राग - बसन्त - धमाल )
पूछोइ आली खबरि नई, प्राये विवेक महानंद सुख की वरनिका, तुम्ह श्रावत प्रान जीवन आधार कु, खेम कुशल
अचल अबाधित देव कुं, खेम विवहारी घट बढ़ि कथा, निहचे
बधाई ||
हम गात । कहो बात ||
पूछीइ० ।। १ ।।
सरीर लखंत |
शरम अनन्त ॥
पूछीइ० ।। २ ।।