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परिशिष्ट-(२) योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के स्तवनों तथा
___ पदों में अगाध ज्ञानगरिमा जिन-प्रतिमा-पूजा की मान्यता__योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी अध्यात्मज्ञानी थे। वे प्रतिमापूजा के समर्थक थे। उनका कहना था कि साकार ध्यान के पश्चात् ही निराकार ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। श्रीमद् आनन्दघनजी अध्यात्मज्ञानी, वैरागी, त्यागी एवं सत्यवक्ता थे जिससे उनके वचनों पर अन्य धर्मावलम्बियों को भी श्रद्धा थी। श्रीमद् ने श्री सुविधिनाथ के स्तवन में शास्त्रों के आधार पर प्रतिमा-पूजन-विधि स्पष्ट की है । मन को वश में करने की तीव्र भावना
श्रीमद् का कथन था कि मन को वश में करने से ही शीघ्र मुक्ति प्राप्त होती है। मन ही बन्ध एवं मोक्ष का कारण है। मन के सभी अशुभ परिणाम ही कर्म के कारण हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी मन को वश में करने का नित्य अभ्यास करते थे, यह उनके द्वारा रचित श्री कुन्थुनाथ भगवान के स्तवन से ज्ञात होता है। मन की कैसी स्थिति होती है, इसका श्रीमद् ने श्री कुन्थुनाथ के स्तवन में वर्णन किया है। कुछ • विद्धानों का मत है कि श्री कुन्थुनाथ भगवान के स्तवन के अक्षरों में श्रीमद् ने स्वर्ण-सिद्धि डाली है। श्रीमद् प्रानन्दघनजी की प्रान्तरिक दशा
___ उनकी आन्तरिक दशा स्वच्छ एवं परमात्म-प्रेम से अनुरक्त थी। वे आत्मा के शुद्ध धर्म में मस्त रहते थे। निश्चय-नय से आत्मधर्म की शुद्ध दशा का वर्णन करने में उनका अत्यन्त प्रेम था। आत्म-ध्यान तथा आत्मानुभव का रसास्वादन करने में वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान करते थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने श्री अरनाथ के स्तवन में अपने उद्गार प्रकट किये