________________
श्री आनन्दघन पदावली - २१५
1
रूपी गृह में प्रवेश करें तो वह तुरन्त स्वामी को मिल सकती है । सती एवं कुलीन स्त्री मर्यादा का परित्याग करके परिभ्रमण नहीं करती । केवलज्ञान दृष्टि सती नारी है । वह आत्मा के असंख्यात प्रदेश रूपी घर में रहती है । वह स्वयं पर कर्म के अनेक आवरण आने पर भी अपने आत्मस्वामी को छोड़कर अन्य की नहीं बनती । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि वह केवलज्ञान -दृष्टि कर्म रूपी घूँघट खोलकर उन्हें निहारती है ।
(ε)
(राग - गौड़ी श्रासावरी )
आज सुहागन नारी अवधू |
मेरे नाथ आप सुध लीनी, कीनी निज अंग चारी ॥ श्रवधू० ।। १ ।।
प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे झीनी सारी । महिंदी भक्त रंग की राची, भाव अंजन
सुखकारो ||
० ।। २ ।।
अवधू ०
सहज सुभाव चूरियाँ पहेनी, थिरता कंगन भारो । ध्यान उरवसी उर में राखी, पिय गुन माल आधारी ॥
अवधू० ।। ३ ।।
सुरत सिन्दूर मांग रंग राती, निरते बेनी समारी । उपजी ज्योत उद्योत घट त्रिभुवन, प्रारसी केवलकारी ॥
अवधू० ।। ४ ।। उपजी धुनी अजपा की अनहद, जीत नगारे वारी । झड़ी सदा श्रानन्दघन बरखत, बन मोर एक न तारी ।। श्रवधू० ।। ५ ।। नोट - भाषा-शैली आनन्दघन जी की नहीं होने के कारण यह पद शंकास्पद है ।
अर्थ - चेतना कहती है कि हे अवधूत आत्मन्! आपकी कृपा से आज मैं सौभाग्यवती स्त्री बनी हूँ । आज आपने मेरी सुध ली