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________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ३६१ शब्दार्थः – ध्रुव =अटल । रामी= = रमण करने वाला | ज्ञाता रूप से । पर पररणमन = अन्य में परिणमन करने वाले । आनन्द । विनश्वरु = नाशवान । और वीर्य रूप । समो = समान । जागगपने = खेम=क्षेम, आत्म चतुष्कमयी = अनन्त ज्ञान दर्शन - चारित्र परसनो = स्पर्श का । चिद्रुप = ज्ञान रूपी । अर्थ - भावार्थ :- हे मेरे स्वामी श्री पार्श्वनाथ भगवान ! आप अविचल पद (मोक्ष) में रमण करने वाले हैं । आप निष्काम हैं एवं अनन्त गुणों के सम्राट हैं । आत्मिक गुणों का अभिलाषी कोई भव्य जीव प्रापको स्वामी के रूप में प्राप्त करके मोक्ष के भवों में निवास करने वाला बन जाता है ॥ १ ॥ अर्थ - भावार्थ:- समस्त गुण पर्यायों के त्रिकाल - ज्ञानी होने के कारण आपको सर्वव्यापी कहा जाता है, परन्तु पर द्रव्य के परिणमनस्वरूप में वही आत्म-तत्त्व है क्या ? अर्थात् नहीं है क्योंकि आपकी सत्ता तो ज्ञानमय है । यदि वह द्रव्यमय हो जायेगा तो वह स्व-स्वरूप में नहीं रह सकेगा । अतः हे. स्वामिन् ग्राप ध्रुवपद रामी हैं ।। २ ।। अर्थ- भावार्थ:- ज्ञेय पदार्थ की अनेकता के कारण ही ज्ञान की अनेकता है, जैसे जल के अनेक पात्रों में सूर्य का प्रतिबिम्ब अनेक रूप में दृष्टिगोचर होता है अर्थात् एक ही ज्ञान अनेक क्षेत्रों में पृथक्-पृथक् रूप में दृष्टिगोचर होता है । उत्तर यह है कि द्रव्य के एक होने के कारण उसका गुण भी एक ही होता है क्योंकि गुण एवं गुरणी पृथक्-पृथक् नहीं हैं। अपने गुण में गुणी का रमण करते रहना ही कुशलता है, स्व सत्ता में रहना है, आनन्द है, मोक्ष है । पर - परिणति में गुण एवं गुणी का एकत्व स्थिर नहीं रहता । अतः हे नाथ ! आप ध्रुवपद-रामी हैं ।। ३ ।। अर्थ - भावार्थ:-- ज्ञान अन्य स्थान में रहने वाले ज्ञेय पदार्थ को उसी क्षेत्र में जानने से अन्य क्षेत्र रूप हो जाता है, किन्तु प्रापने ज्ञान का अस्तित्व अपने क्षेत्र में ही ज्ञान की निर्मलता के कारण बताया है । अन्य क्षेत्र में ज्ञान का अस्तित्व नहीं है । एक आत्मा (ज्ञान) अनन्त श्रेय रूप होने से वह भी अनन्तरूप होगी । तब आत्मा (ज्ञान) का अपने क्षेत्र में अस्तित्व कैसे सम्भव होगा ! ज्ञान की सत्ता तो अपने क्षेत्र में ही है । अतः हे प्रभो ! आप ध्रुवपदरामी हैं ।। ४॥ अर्थ - भावार्थ:- यदि ज्ञान ज्ञेय हो जायेगा तो ज्ञेय के नाश होने पर ज्ञान भी अवधि की समाप्ति होने पर नष्ट हो जायेगा । ज्ञेय के नष्ट 1
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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