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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३१०
नहीं होते। वे उन्हें सहर्ष सहन करते हैं। यह पर-दुःख-रीझन स्वरूप तीक्ष्णता है। यह सब प्रवृत्ति किसी प्रेरणा के बिना स्वाभाविक रूप से होती है, यह आपकी 'उदासीनता' है ॥४॥
तीसरे पद के विरोध-भाव का यहाँ परिहार हो जाता है।
श्री शीतलनाथ भगवान में शक्ति, व्यक्तित्व, त्रिभुवन-प्रभुता, निर्ग्रन्थता, योगी, भोगी, वक्ता, मौनी, उपयोग-रहितता एवं उपयोगसहितता है। अनन्त ज्ञान-दर्शन उनकी शक्ति है। ये गुण इन्होंने अपने पुरुषार्थ से प्रकट किये हैं-यह उनका व्यक्तित्व है। स्वयं के गुण स्वयं में प्रकट हों, इसमें न शक्तित्व है, न व्यक्तित्व है-इस रूप में तीसरा भंग होने से 'त्रिभंगी' सिद्ध हो जाती है। तीनों लोकों में पूज्य होने से 'त्रिभुवनप्रभुता', माया-ममता आदि अन्तरंग सामग्री नहीं होने से इनकी 'निर्ग्रन्थता' सिद्ध होती है। उनमें स्वयं को पुजाने की इच्छा नहीं होने से 'न त्रिभुवन प्रभुता' और निर्ग्रन्थ के बाह्य लक्षण नहीं होने से 'न निर्ग्रन्थता' है। इस तरह त्रिभंगी सिद्ध होती है। चित्त-वृत्ति के निरोध से तथा तेरहवें गुणस्थान सयोगी केवली अवस्था में मन, वचन, काया के योग के कारण वे योगी हैं। प्रात्म-रमणता के रूप में सुखों का उपभोग करने के कारण वे भोगी हैं। मन-वचन-काया के योग, कर्मक्षय के कारण बाधा उत्पन्न नहीं करते अतः वे अयोगी हैं और इन्द्रिय-जनित विषयों के त्यागी होने से वे अभोगी हैं। द्वादशांगी के कथन से 'वक्ता' पापास्रव विषयक वचन नहीं कहने से 'मौनी' तीर्थकर जो कहते आये हैं वही आपने कहा है, यह आपकी 'प्रवक्तृता' हैं और धर्म-तीर्थ-प्रवर्तनं हेतु देशना देना आपका 'अमौनीपन' है। आपको केवलज्ञान के कारण अनन्त पदार्थ प्रत्यक्ष हैं, अतः आप 'अनुपयोगी' हैं। आपके ज्ञान-दर्शन उपयोग हैं अतः आप उपयोगवन्त है। योगरूंधन के पश्चात् सिद्ध अवस्था में ज्ञान-दर्शन का उपयोग अनुपयोग करने का कोई उद्देश्य नहीं रहता, अतः आप न उपयोगी हैं, न अनुपयोगी हैं। इस प्रकार श्री शीतलनाथ जिनपति. में त्रिभंगियों के संयोग की सम्भावना प्रशित की गई है ॥५।।
इन त्रिभंगियों के और भी अनेक भेद कहे जा सकते हैं क्योंकि भगवान अनन्त गुण-निधान है। ये त्रिभंगियाँ चित्त में चमत्कार उत्पन्न करती हैं, आश्चर्य उत्पन्न करने वाली हैं। ये चित्र-विचित्र त्रिभंगियाँ मोक्ष-पद प्राप्त कराती है। ऐसा श्रीमद् आनन्दघनजी का कथन है ॥६॥