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श्री आनन्दघन पदावली-३४५
दोष है क्योंकि सुख-दुःख भी एक ही हुए। इसके अनुसार चैतन्य के कर्म सुख-दुःख जड़ को भोगने पड़ेंगे और जड़ के कृतकर्म सुख-दुःख चैतन्य को भोगने होंगे, जो सम्भव नहीं है। यह संकर दोष है अतः आत्म-तत्त्व की परीक्षा करो ।। ३ ॥
अर्थ-भावार्थ-एकान्तवादी आत्म-तत्त्व को नित्यज मानते हैं क्योंकि वे अपने स्वरूप-दर्शन में लीन हैं। इसमें अपने किये हुए कर्म का फल स्वयं को नहीं मिलता और अकृतागम (जो कर्म अभी तक नहीं किया गया है) की फल प्राप्ति -ये दो दोष हैं । मतिहीन एकान्तवादी व्यक्ति यह बात तनिक भी नहीं देखते ।। ४ ।।
विवेचन - समस्त प्राणी संसार में सुख-दुःख भोगते प्रतीत होते हैं । इसका कारण हमारे पूर्व-कृत शुभ-अशुभ कर्म ही हैं। यदि आत्म-तत्त्व को अपने स्वरूप दर्शन में तन्मय (नित्यज) माना जाये तो सुख-दुःख का कर्ता तथा भोक्ता कौन है ? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है ।। ४ ।।
अर्थ-भावार्थ -बौद्ध दर्शन के अनुयायी तर्कवादी आत्मा को क्षणिक, क्षण-क्षण में बदलने वाली, बताते हैं। यदि आत्मा का रूप क्षणिक माना जाये तो बन्ध और मोक्ष तथा सुख-दुःख की व्यवस्था घटित नहीं होती। इसका भी मन में विचार करके देखो ।। ५ ॥
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भगवान श्री मुनिसुव्रत स्वामी की भक्ति में लीन अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघन जी के चरणों में
कोटि-कोटि वन्दन !
निवास : 20241
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मैसर्स साँवलराम राम अवतार ४
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