SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३१८ मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल के पराग में लीन है। मेरा मन इन्द्र, चन्द्र एवं नागेन्द्र तथा मन्दराचल (मेरु) पर्वत की धरा को आपके चरणों की तुलना में तुच्छ मानता है ।। ३ ॥ हे स्वामी ! आप समस्त प्रकार से समर्थ हैं। मुझे आपके समान परम उदार स्वामी प्राप्त हो गया है। आप मेरे मन के लिए विश्राम स्वरूप हैं और मुझे अत्यन्त ही प्रिय हैं। आप मेरी आत्मा के आधार हैं। मैंने आज ज्ञान-चक्षुओं से आपके दर्शन कर लिये हैं ।। ४ ।। हे प्रभो! जिस प्रकार सूर्य की किरणों के फैलते ही अन्धकार लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार से हे जिनेश्वर ! आपके दर्शन से संशय आदि का मूलोच्छेदन हो जाता है ।। ५ ॥ हे प्रभो ! आपकी मूत्ति अमृत से परिपूर्ण है जिसके लिए कोई उपमा दी ही नहीं जा सकती। आपकी मूर्ति में प्रशम रस रूपी पीयष उमड़ रहा है, जिसे निहारते-निहारते मन भरता ही नहीं, तृप्ति ही नहीं होती ॥ ६ ॥ हे जिनेश्वर भगवान ! मुझ सेवक का एक निवेदन है जिसे आप स्वीकार करें। कृपा करके मुझे आनन्दघन रूपी परम पद की सेवा प्रदान करें ॥७॥ ( १४ ) श्री अनन्त जिन स्तवन (राग-रामगिरि कडखा-ए देशी) धार तरवार नी सोहिली, दोहिली चउदमा जिन तणी चरण सेवा। धार पर नाचता देखि बाजीगरा, सेवना धार परि रहे न देवा ।। धार० ।। १॥ एक कहे सेविये विविध किरिया करी , फल अनेकान्त लोचन न देखे । फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा , रडवडे चार गति मांहि लेखे । धार० ।। २ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy