SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-६८ विवेचन-मुझसे रुष्ट चेतन-स्वामी कैसे मनाये जायें? वे मेरे घर कैसे पा सकते हैं। वे मुझसे रुष्ट होने के कारण विभाव दशा में रमण करते हैं। वे क्षण में सांसारिक दशा में निर्धन हो जाते हैं और पुण्य के योग से सांसारिक दशा में क्षण में धनवान बन जाते हैं। क्षण भर में वे पाप-मलरहित शुभ परिणाम को धारण करते हैं। शुभ परिणाम से पुण्य का बन्ध होता है और अशुभ परिणाम से पाप का बन्ध होता है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने अन्तर्मुहूर्त में मन में अशुभ परिणामों से सातवीं नरक के योग्य पाप बाँधा। तंदुलिया मत्स्य मन में अशुभ परिणाम धारण करने के कारण सातवीं नरक में गया। राग-द्वेष रूपी पर-भाव से आत्मा अशुद्ध परिणति रूपी स्त्री के फन्दे में फंसती है और शाता तथा अशाता की चेष्टा करती है। शुभ एवं अशुभ परिणाम विषम दशा होने के कारण मेरा स्वामी समदंशा रूप मेरे घर में आ नहीं सकता। शुद्ध चेतना कहती है कि चेतन स्वयं को क्षण में इन्द्र जैसा महान् समझने लगता है तो क्षण में तक (छाछ) जैसा निःसत्त्व हो जाता है। अथवा 'तक्र' के स्थान पर 'वक्र' पाठ मानें तो वह कुटिल हो जाता है। इस प्रकार वह क्षण-क्षण अनेक भाव बदलता दिखाई देता है, परन्तु संसार से विरक्त ज्ञानियों ने इसे अविनाशी, नित्य तथा वासना से मुक्त रहने वाला कहा है जो सदा स्वभाव से अपना हित ही करता है, किन्तु विभाव परिणामी होने पर वह अपनी ज्ञान आदि सम्पत्ति को विपरीत परिणमन करके गलत खाते खताता है अर्थात् अज्ञानवश संसारबन्धन का खाता खताता रहता है ।। २ ॥ विवेचन-आत्मा की ऐसी दशा देखकर किसी को उसके बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आत्मा का हितकारी आत्मा ही है, आत्मा का शत्रु आत्मा है तथा आत्मा का मित्र आत्मा है । आत्मा स्वयं अपना उद्धार करती है और प्रमादवश आत्मा स्वयं ही स्वयं को नरक में धकेलती है। प्रात्मा ही देवता है, आत्मा ही नारकी एवं तिर्यंच होता है तथा आत्मा ही मनुष्य बनता है। कर्म से आत्मा ही परिभ्रमण करती है और कर्म-क्षय करके आत्मा ही शिव-बुद्ध-सिद्ध बनती है। अतः मुझे विश्वास है कि मेरे स्वामी जाग्रत होते ही अपना हित करने वाले हैं। इस समय तो वे अशुद्ध परिणति के कारण निर्धन बनकर मिथ्या खाते खताते हैं, परन्तु जब वे अनेक कष्ट भोगेंगे तब अशुद्धं परिणति के घर में से मुक्त होकर मेरे घर आने की इच्छा करेंगे। अभी तक उन्होंने
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy