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श्री प्रानन्दघन पदावली-88
विवेकपूर्वक विचार नहीं किया, इस कारण वे अशुद्ध परिणति के साथ संसार में अनेक प्रकार के प्रानन्द ले रहे हैं, धन, धान्य, घर, परिवार आदि पर-वस्तुओं में प्रसन्न हो रहे हैं, मिथ्या खाते खता रहे हैं, परन्तु ऋण चुकाने पर जब अनेक प्रकार को पीड़ा भोगेंगे तब ही उनकी (मेरे स्वामी की) बुद्धि ठिकाने आयेगी।
- समता अनुभव से कह रही है कि हे अनुभव ! तू मेरा हितैषी है और मैं तेरी हितैषिणी हूँ। तुझमें एवं मुझमें क्या भेद है ? तनिक बता। जहाँ सुमति, सद्बुद्धि, समता, शुद्ध चेतना होती है वहाँ अनुभव होता ही है। हे अनुभव ! अपना इतना घनिष्ट सम्बन्ध है फिर भी तू इतना विलम्ब कर रहा है। अब तो आनन्द के समूह समर्थ आत्माराम को शीघ्र मुझसे मिलायो अन्यथा यहाँ से विदा लो। मैं अन्य कुछ नहीं चाहती। समता ने निराशा एवं खीझ के कारण ये शब्द कहे हैं, ये उद्गार प्रकट किये हैं ।। ३ ॥
विवेचन-स्वामी की दुःखी दशा में, निर्धनता में भी सती नारी अपने स्वामी का साथ नहीं छोड़ती। वह विषम परिस्थिति में भी पति के साथ दु:ख सहन करती है तथा उन्हें सत्य मार्ग पर चलाती है। पति के क्रोध करने पर, तिरस्कार करने पर, अपमान करने पर भी सती नारी सहन करती है। इस प्रकार समता अपना कर्त्तव्य समझती है और . अनुभव को कहती है कि मुझे प्रात्म-प्रभु का मिलाप करायो।
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( राग-मारू ) पिया बिन सुधि-बुधि मूदी हो । विरह भयंग निसा समै, मेरी सेजड़ी खूदी हो ।
_ पिया० ।। १ ॥ भोयन पान कथा मिटी, किस कहूँ सधी हो । आज काल्ह घर आवन की, जीउ आस विलूधी हो ।।
पिया० ।। २ ।। वेदन विरह अथाह है, पाणी नव नेजा हो। कौन हबीब तबीब है, टारे करक करेजा हो ।।
पिया० ।। ३ ।।