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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३८२
थारे म्हारे हवे नहीं बने रे,
तमे तमारे घरे हवे जामो रे। माटला दहाडा है बालपणे हतो रे,
हवे पण्डिम वीर्य प्रगटायो रे ॥ १४ ॥ सुमति सु में प्रादर मांडियो रे,
ए तो बहु गुणवंती कहेवाय रे । सुमति ना गुण प्रगट पणो रे,
में तो लीधो उपयोग मांय रे ॥ १५ ॥
सांभल सुमति ना गुण कहूँ रे,
जे प्रचल प्रखण्ड रहेवाय रे । स्थिरतापणु सुमति मां घणो रे, .
तुझमां तो अस्थिरता समाय रे ॥ १६ ॥ थारा सुख तो हवे में जाणियुरे,
____ दुःखदायक सदा काल रे। थारा सुख विभाव कहेवाय छे रे, ,
नहीं पुण्य-पापनु ख्याल रे ॥ १७ ॥ ज्ञानी ते एहने सुख नहीं कहे रे,
सुख तो जाण्यु एक स्वभाव रे। थारा पूठे पड्या ते तो प्रांधला रे,
भव-कूप मां पड्या सदाय रे ।। १८ ॥ थारू स्वरूप में बहु जाणियुरे,
तू तो जड़ स्वरूप कहेवाय रे। जड़ पणु प्रगट में जाणियुरे,
तू तो पर पुद्गल मां समाय रे ।। १६ ॥