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श्री आनन्दघन पदावली-३५६
गुणों से युवा-रति-प्रेम रूपी शृगार-रस, रूप-रंग से उत्पन्न हास्य-रस, पर-दु:ख सन्तप्तता रूपी करुण-रस, कर्म-शत्रुओं पर विजय, तप, दान, चारित्र-पालन, पर-दुःख-हरण में उत्साह रूपी वीर-रस; भव-बन्धन में डालने वाले कषायों पर क्रोध के रूप में रौद्र-रस, जन्म-मरण के कष्टों से भयभीत होने के रूप में भयानक-रस, नरक-निगोद के कष्टों से उत्पन्न ग्लानि रूप वीभत्स-रस; संसार की विचित्रता के आश्चर्य-रूप अद्भुत-रस
और राग-द्वेष रहित प्रात्म-शान्ति में लीन वैराग्य भाव रूप शान्त-रस रूपी मुक्ता-हार उपहार में दिया है जो मेरा धारण-आधार है, मेरी शोभा है तथा मेरे आत्मिक गुणों को पुष्ट करने वाला है तथा मुझे भव-सागर से तारने वाला है ॥ १६ ॥
अर्थ-भावार्थः-अपने वीतराग-भाव के कारण श्री नेमिनाथ भगवान की मैंने आराधना की है। आराधना में मैंने काज-काज को तनिक भी महत्त्व नहीं दिया। मैं तनिक भी विचार किये बिना उनके प्राशय के अनुसार उनकी आराधना में लीन हूँ। अब मेरा निवेदन है कि हे दयालो! कृपा करके मुझे परमानन्द के समूह मोक्ष का साम्राज्य प्रदान करें ।। १७ ।।
विवेचनः-महासती राजीमती की प्रार्थना के फलस्वरूप श्री नेमिनाथ भगवान से पूर्व ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और वे मुक्ति की ओर अग्रसर हुई। इस पद्यांश में श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि मैं भी आपके मार्ग का, वीतरागता का अनुगामी हूँ। मैं काज-अकाज अथवा फल का विचार किये बिना ही आपकी आराधना में तल्लीन हूँ। कृपा करके मुझे अनन्त सुख (मोक्ष) प्रदान करें।
( २३ ) श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवन
(देशी रसिया को) ध्रुवपद रामी हो स्वामी म्हारा, निःकामी गुणराय, सुग्यानी । निज गुण कामी हो पामी तू धणी,
ध्रुव पारामी हो थाय, सुग्यानी।
ध्रुव० ॥१॥