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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३५८
अर्थ-भावार्थ-हे नाथ ! प्रेम करने वाले के साथ तो सब मनुष्य प्रम करते हैं, परन्तु वैरागी व्यक्ति के साथ भला प्रेम कैसा? तो मैं आपसे पूछ रही हूं कि आप बिना राग के मुक्ति-सुन्दरी को प्राप्त करने का मार्ग अपनाकर दूसरों को वह मार्ग कैसे बता रहे हो ? विरक्त बनकर राग रखना तथा राग का कथन करना उचित है क्या ? अतः मेरी विनती स्वीकार करके हे बालम ! आप घर आयें ॥ ११ ॥
अर्थ-भावार्थ:--आप में एक भी गुप्त कर्म घटित नहीं होता। यह बात सभी मनुष्य जानते हैं। आप काम-रोग रहित ब्रह्मचारी हैं। फिर भी आप अनेकान्तिक बुद्धि रूपी नारी के साथ रमण करते हैं। आप अनेकान्तिक बुद्धि का उपभोग करते हैं, यह सभी को ज्ञात है। इसमें कोई गुप्त बात नहीं है। अत: मैं आठ जन्मों को आपकी अर्धाङ्गिनी आपको निवेदन करती हूँ कि हे बालम ! आप घर आयें ॥ ११ ॥
अर्थ-भावार्थः-हे राजवी! जिस दृष्टि से मैं आपको देख रही हूँ, उसी दृष्टि से आप भी मुक्ति-रमणी को निहार रहे हैं। यदि आप एक बार भो मेरो अोर प्रेमदृष्टि से निहारेंगे तो मेरे समस्त कार्य सिद्ध हो जायेंगे। इसलिए हे प्राण-नाथ मेरा आपको निवेदन है कि आप घर लौट आयें ।। १३ ॥
अर्थ-भावार्थः-मोहावत राजीमती के विचारों में यकायक परिवर्तन आ गया। इसी विचार-धारा के मध्य उसका मन तत्त्व-विचार का दिव्य प्रकाश प्राप्त कर गया।. उसे अपने कर्तव्य का ध्यान आया। दिव्य प्रकाश में उसे वास्तविकता का ज्ञान हो गया कि प्राण-वल्लभ नेमिनाथ ने तो वीतरागता स्वीकार कर ली है, वे वीतराग बन गये हैं ॥ १४ ॥
अर्थ-भावार्थः- राजीमती के मन में अनेक विचार आते रहे और उसने निश्चय कर लिया कि अब तो मुझ सेविका की प्रतिष्ठा इसी में है कि मैं भी उस पथ पर चलकर वीतराग बन जाऊँ। सेवक को स्वामी के आशय के अनुसार ही चलना चाहिए। सेवक के लिए यही सर्वोत्तम कार्य है ॥ १५ ॥
अर्थ-भावार्थः-राजीमती कहती है कि मन-वचन-कर्म से मैंने वीतराग भाव धारण करके वास्तव में श्री नेमिनाथ को अपना भरतार' स्वीकार कर लिया है। उन्होंने मुझे नौ रस रूपी अद्वितीय आत्मिक