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श्री आनन्दघन पदावली-३५७
अर्थ-भावार्थ--हे प्रियतम राजकुमार! आप तनिक मन में विचार करें, इसमें मेरा तो कोई दोष नहीं है। मैं तो पूर्ण रूप से आपके प्रति आसक्त हूँ। मेरे अन्तर में तो केवल यही दुःख है कि जब आप राज-दरबार में बैठेंगे तब आपकी कौनसी प्रतिष्ठा बढ़ेगी? आपने तो मुझे पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया था। जब आप वचन-भंग करेंगे तो आपकी कौनसी प्रतिष्ठा बढ़ेगी? ।। ६ ।।
अर्थ-भावार्थ-जगत् में प्रेम तो सभी मनुष्य करते हैं परन्तु प्रेम का निर्वाह करने वाले विरले ही होते हैं। जो मनुष्य प्रेम करके छोड़ देते हैं उन पर कोई जोर तो नहीं है। आप मेरा प्रेम ठुकरा रहे हैं । मैं आपको घर लौट आने के लिए निवेदन ही कर रही हूँ कि हे प्राण-प्रिय ! आप लौट आइये ।। ७ ।।
अर्थ-भावार्थ-यदि आपके मन में मुझे छोड़ जाने का पहले से ही विचार था तो आपको मेरे साथ सम्बन्ध ही नहीं करना था। एक बार सम्बन्ध करके छोड़ने में तो मनुष्य की भारी हानि होती है। लोग भाँति-भाँति की बातें करते हैं। आप बारात लेकर विवाह करने के लिए आये थे और अब आप रथ लौटाकर ले जा रहे हैं, इसमें आपका भी अपयश है। अतः हे प्राण-वल्लभ ! आप घर पधारें ।। ८ ।। ___. अर्थ-भावार्थ-(जैन तीर्थंक र दीक्षा अंगीकार करने से पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन एक करोड़, आठ लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान देते हैं । जब राजीमती को श्री नेमिनाथ के सांवत्सरिक दान की बात ज्ञात हुई तब वह निराशा से दुःखी होकर बोली--)
. . हे प्राण-प्रिय ! आपके सांवत्सरिक दान से सबको इच्छित फल प्राप्त होता है, किन्तु मैं आठ भवों से आपकी सेविका हूँ। मुझे इच्छित फल प्राप्त नहीं हो रहा है, यह मेरा ही दोष है ।। ६ ।।
अर्थ-भावार्थ-हे प्राण-वल्लभ ! मेरी सखियाँ कहती थीं कि श्री नेमिनाथ श्याम वर्ण के हैं, परन्तु मैंने उन्हें उत्तर दिया था कि यदि उनका वर्ण श्याम है तो क्या हुआ ? उनके लक्षण तो उज्ज्वल हैं, श्वेत हैं। आपके मुझे छोड़कर जाने के लक्षणों से तो सखियों की वह बात ही सत्य सिद्ध होती है। आप स्वयं ही इसका विचार करें। अत: मेरा को मापको पुनः निवेदन है कि हे मेरी आशाओं के विश्राम ! आप घर पारें ॥१०॥