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श्री आनन्दघन पदावली - ६६
सकता है ? जब आप पर भाव में रम रहे हो तो फिर मुझसे प्रेम कैसे कर सकते हो ? तत्पश्चात् सुमति श्रद्धा की ओर देखकर कह रही है कि हे सखि ! मैं तो अपने स्वामी के साथ इस प्रकार एकात्म हो रही हूँ, जिस प्रकार पुष्प में सुगन्ध बसी रहती है । पुष्प एवं उसकी सुगन्ध भिन्न-भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार मैं भी अपने स्वामी के साथ तल्लीन बनी हुई हूँ । मैं अपने स्वामी के प्रत्येक गुरण का स्थिर उपयोग से स्मरण करती हूँ । मैं अपने स्वामी के गुणों में ऐसी तन्मय हो गई हूँ कि पलभर के लिए भी बाह्य में ध्यान देना मुझे रुचिकर नहीं प्रतीत होता । मेरा अपने स्वामी के प्रति पूर्ण प्रेम है ।। २ ।।
सुमति की बात सुनकर श्रद्धा कहती है कि पुष्प जो सम्बन्ध है वह तो चेतना का है । तू अहंकार क्यों यदि न हो तो क्या भैंसे पर पानी नहीं ढोया जाता ? हे सुमते ! तेरा तथा चेतन का सम्बन्ध उपशान्तमोह ग्यारहवें गुणस्थानक तक ही है । यथाख्यात चारित्र तक तेरी गति नहीं है जो बारहवें, तेरहवें गुणस्थानों में होता है । वहाँ तो चेतना का ही साथ है । इस पर सुमति कहती है कि हे चेतन ! मैं आगे गुणस्थानों में नहीं पहुँचा सकती - इस अवगुण का और चेतना अन्त तक पहुँचा सकती है- इस गुरण का विचार न करके आप मुझे अपने समान बना लीजिये ।। ३ ॥
और सुगन्ध का करती है ? बैल
श्री ज्ञानसारजी महाराज ने अपने टब्बे में उपर्युक्त पद का निम्नलिखित अर्थ किया है
सुमति आत्म-स्वामी को मनाने की इच्छा से कहती है कि 'हे स्वामी ! आप इतने कठोरहृदय क्यों हो गये ? मैंने तो मन, वचन और काया से आप ही की रीति ग्रहरण की है, फिर भी आप इतने निष्ठुर क्यों हो ? ।। १ ।।
जिस प्रकार हर्षित भौंरा पुष्पों पर बार-बार घूमता है, उसी प्रकार मैं घूम रही हूँ, परन्तु आपके मन में मेरी कोई गिनती नहीं है । जब गिनती नहीं है तो प्रेम कैसे निभ सकता है ? इस पर श्रद्धा ने सुमति को कहा कि तुमने अपने स्वामी के साथ भेद रखा होगा, तब तुम्हारे स्वामी निष्ठुर बने होंगे । सुमति ने श्रद्धा को कहा, 'हे सखि ! मैं तो पुष्प एवं सुगन्ध की तरह अपने स्वामी के साथ तन्मय हूँ, किन्तु
पता नहीं स्वामी किस कारण से निष्ठुर हैं ? ।। २ ।।
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