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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-७०
सुमति ने पुनः कहा-हे सखि श्रद्धा! मैं तो प्रत्येक बात सीख की कहती हैं, परन्तु वे ऐंठते हैं, उसे अवगुण मानते हैं। इसका क्या कारण है ? परवाल भरके पानी लाने के लिए बैल का उपयोग होता है, परन्तु यदि बैल न हो तो वह काम भैंसे (पाड़े) से ही निभाना पड़ता है अर्थात् शुद्ध चेतना रूपी बैल के अभाव में मुझ सुमति रूपी भैंसे से ही निर्वाह करना चाहिए। उस समय गुण-अवगुण का विचार नहीं करना चाहिए। मुझसे दसवें गुणस्थान से ऊपर नहीं चढ़ा जाता। मेरे इस अवगुण का तथा शुद्ध चेतना बारहवें, तेरहवें तथा चौदहवें गुरणस्थान तक चढ़े, इस गुरण का विचार न करके हे प्रानन्द के समूह आत्माराम !
आप प्रानन्दघन हो। इस प्रकार मुझे भी आप अपने चेतन स्वभाव में मिला लीजिये ॥३॥
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( राग-वसन्त ) प्यारे लालन बिन मेरो कोण हाल ? समझे न घट की निठुर लाल ।। प्यारे ॥१॥ वीर विवेक तु मांझी माहि, कहा पेट दाई आगे छिपाहि ॥
प्यारे० ॥२॥ तुम्ह भावे सो कीजे वीर, मोहि प्रान मिलावो ललित धीर ॥
___ प्यारे० ॥३॥ अंचर-पकरे न जात प्राध, मन चंचलता मिटे समाधि ।।
.. प्यारे० ॥४॥ जाइ विवेक विचार कीन, आनन्दघन कीने अधीन ।।
. प्यारे० ॥५॥ अर्थ-सुमति कहती है कि प्रिय स्वामी के बिना मेरा क्या हाल हो रहा है ? वे ऐसे निष्ठुर हो गये हैं कि वे मेरे अन्तर की वेदना को समझते ही नहीं हैं ॥१॥
हे भाई विवेक ! तू ही मेरा खिवैया है, मेरी नाव को पार लगाने वाला है। मेरे हृदय में जो है, वह तू सब कुछ जानता है। तुझ से क्या छिपाया जाये ? दाई के समक्ष पेट छिपाया जाता है क्या ? २॥