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श्री आनन्दघन पदावली-७१
हे भाई विवेक ! अब तुझे जो उचित लगे वह कर, परन्तु किसी भी प्रकार मेरे मन-भावन स्वामी चेतन को मुझसे मिला दे। सुमति पतिव्रता है अतः वह ऐसा मर्मस्पर्शी भाषण करके विवेक को अपना दुःखद वृत्तान्त सुनाती है। पतिव्रता स्त्री पति का तिरस्कार पाने पर भी अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होती ।।३।।
केवल अंचल पंकड़ने मात्र से ही मानसिक पीड़ा शान्त नहीं होती। धैर्यपूर्वक समता भाव में रहे बिना उद्धार नहीं है। जब तक चेतन यह बात नहीं समझता, तब तक यहाँ आने मात्र से कुछ कार्य नहीं बनेगा। मन की चंचलता मिटने पर ही समाधि अवस्था प्राप्त होगी। मेरे निवेदन करने से आत्म-स्वामी पर कोई प्रभाव नहीं होता जिससे मेरे मन में चिन्ता एवं चंचलता उत्पन्न होती है ।।४।।
- विवेक ने चेतन के पास जाकर विचार-विमर्श किया, उसे समझाया और सुमति को प्रानन्दघन के अधीन कर दिया। इससे दोनों का वियोग दूर हुआ और सहज सुख का आविर्भाव हुआ ।।५।।
विवेचन-उपर्युक्त पद का सारांश यह है कि सुमति के साथ प्रत्येक वस्तु का विवेक रखना चाहिए। सुमति से विवेक पाता है और विवेक से प्रात्मा उपादेय प्रतीत होती है। विवेकपूर्वक प्रात्म-तत्त्व में रात-दिन रमण करना चाहिए। सुमति को प्रात्म-तत्त्व प्राप्त कराने वाला विवेक है। मुनियों की संगति से जैनागमों का रहस्य ज्ञात होता है और उससे प्रात्मा की प्राप्ति होती है।
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(राग-प्रासावरी) अनन्त अरूपी अविगत सासतोहो, वासतो वस्तु विचार । सहज विलासी हांसी नवि करे, अविनाशी अविकार ।।
अनन्त० ॥१॥ ज्ञानावरणी पंच प्रकार नो, दरशन ना नव भेद । . वेदनी मोहनी दोइ दोइ जाणीइरे, आउखो चार विछेद ।।
अनन्त० ॥२॥
दानावरही या प्रकार जोर दरवाजा वा रणबशेव ।