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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- ७२
शुभ अशुभ दोउ नाउँ वखारणीये, ऊँच नीच दोय गोत । विघ्न पंचक निवारी आपथी, पंचमगति पति होत || अनन्त ० ||३||
जुग पद भावी गुण जगदीसना रे, एकत्रीस मति श्राणि । अवर अनन्ता परमागम थकी, अविरोधी गुरंग जारिण ||
अनन्त० ||४||
सुन्दर सरूपी सुभग सिरोमणी, सुणि मुझ प्रांतमराम । तनमय तल्लय तसु भजने करी, 'श्रानन्दघन' पद पाम ॥
अनन्त ० ||५||
अर्थ - योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि सिद्ध भगवान अनन्त हैं, रूपी हैं, इन्द्रियों द्वारा जाने नहीं जा सकते, इनके स्वरूप का पूर्णतः वर्णन नहीं किया जा सकता । वें शाश्वत हैं और सिद्धशिला पर निवास करते हैं । वे सम्पूर्ण वस्तुनों एवं उनके भावों के ज्ञाता हैं तथा सहज सुख में विलास करते हैं। वे कभी किसी से हँसी नहीं करते ... क्योंकि वे अविकारी एवं अविनाशी हैं । सिद्ध भगवान संग्रहनय की सत्ता की अपेक्षा एक हैं तथा व्यक्तिग्राहक व्यवहार-नय की अपेक्षा भिन्न-भिन्न हैं और अनन्त हैं । वे पुद्गल - द्रव्य से भिन्न हुए हैं श्रतः उन्हें रूपी कहा जाता है । उनके परिपूर्ण स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। लोक के अग्रभाग में वे सादि अनन्तवें भाग में रहते हैं । वह मुक्ति-स्थान शाश्वत है । वहाँ वे अनन्त सुख का उपभोग करते हैं । वे सहज-सुख में विलास करते हैं पौद्गलिक सुख कृत्रिम एवं क्षणिक है और सहज स्वभाव से होने वाला सुख अनन्त है जिसका नाश नहीं होता । कर्मरहित सिद्ध किसी की हँसी नहीं करते ।। १ ।।
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मति श्रुत, अवधि, मनः पर्यव तथा केवल - इन पाँच प्रकार के
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ज्ञान पर आवरण डालने वाले कर्म को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं । दर्शनावरणीय के नौ भेद हैं । वेदनीयकर्म के साता प्रसाता दो प्रकार हैं । दर्शन - मोह और चारित्र मोह - ये मोहनीयकर्म के दो भेद हैं । आयुष्यकर्म चार प्रकार का है। नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । सिद्ध भगवान में इकत्तीस गुण हैं जिनमें से ज्ञानावरणीय के पाँच भेद टलने से पाँच प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है । दर्शनावरणीय