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श्री आनन्दघन पदावली-३६६
मजाक की थी। उस समय उस यति ने कहा कि 'बादशाह का बेटा रुक जा', इतनी बात मैं जानता हूँ।" शाहजादा के साथी समझ गये कि उस यति ने ही कुछ किया है। शाहजादा के मित्रों के कहने से बीकानेर के राजा ने जैन यतियों को पूछताछ की तो ज्ञात हुआ कि यह कार्य तो योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी का प्रतीत होता है, उनके पास जाओ। राजा आदि पता लगाते-लगाते श्रीमद् आनन्दघनजी के पास आये और उन्होंने श्रीमद् को अनेक प्रकार से अनुनय-विनय की। श्रीमद् ने स्पष्ट कह दिया कि बादशाह का बेटा सन्त-साधुओं को सताता है, उनका उपहास करता है, ठठ्ठा करता है तो उसकी भी तो मजाक होनी ही चाहिए। उस पर शाहजादा ने संकल्प किया कि “मैं यतियों को कदापि नहीं छेड़गा।" तब श्रीमद् ने शाहजादा को कहलवाया कि 'बादशाह का बेटा चलेगा।'. ये शब्द शाहजादा को सुनाते ही उसका अश्व चलने लगा। ऐसा चमत्कार.देखकर शाहजादा प्रसन्न हो गया। उसने श्रीमद् आनन्दघनजी के दर्शन किये। श्रीमद् तो औलिया थे, साधुओं एवं यतियों के उपद्रव दूर करने के लिए उन्हें शाहजादा को ऐसा चमत्कार
बताना पड़ा।
: लोहे का सेर का बाट स्वर्ण का हो गया
. एक बार योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी मारवाड़ के एक गांव में एक निर्धन वणिक् के घर पर कुछ दिन ठहरे थे। एक दिन वह निर्धन वरिण उदास बना हुआ श्रीमद् के समक्ष पाया और वन्दन करके बैठा । वह अनेक कष्टों से सन्तप्त होकर श्रीमद् के समक्ष रो पड़ा। रोने का कारण पूछने पर वणिक् ने अपना वृत्तान्त सुनाया। श्रीमद् को उसकी निर्धनता पर तरस आ गया। उन्होंने वणिक् को कहा, 'तेरे पास लोहा हो तो ला।' वरिणक ने घर में से एक सेर का लोहे का बाट लाकर श्रीमद् को दिया। श्रीमद् तो प्रात:काल में विहार करके चले गये। जब वणिक् ने वहाँ देखा तो श्रीमद् तो वहाँ दृष्टिगोचर नहीं हुए। उसने
अपना लोहे का एक सेर का बाट ढ ढ़ा तो वह भी वहाँ नहीं मिला, परन्तु — उसके स्थान पर स्वर्ण का एक सेर का बाट दिखाई दिया। उस वणिक् ने उस स्वर्ण को बेच कर अपना समस्त ऋण चुका दिया और सुख से जीवन यापन करने लगा। उस दिन उसे अत्यन्त पश्चाताप हुआ कि मैंने श्रीमद् को दो मन लोहा लाकर दिया होता तो कितना स्वर्ण हो जाता और मैं निहाल हो जाता।