Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सी.१.५ धिप्रपती प्रतापी आयिबर सुमतिमती दिगंबर जैन ग्रंथमाला प्रथम पुष्प पूज्यपाद श्री देवसेनाचार्य विरचित भावसंग्रह "* MOHAMR W E हिन्दी टीकाकार पं. लालाराम शास्त्री प्रकाशक हिरालाल माणिकलाल मांधी, अध्यक्ष आपिका सुमतिमती दिगंबर जैन ग्रन्थमाला अकलूज (सोलापूर-महाराष्ट्र) प्रस्तावनाकार उपाध्याय मुनिश्री १०८ कनकनन्दि महाराज बीर निर्वाण संवत् इ. स. वि. संवत् २०४४ २५१४ 90c0 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री वर्धमानाय नमः ॥ आचार्य श्री देवसेन का परिचय श्रीमान् उद्भट विद्वान दि: जैन वीतराग महषि आचार्य देवसेन भाव संग्रह के कर्ता महोदय का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है आचार्य देवसेन ने अपने बनाये हुए ग्रन्थ संग्रह में अपने विषय में यह लिखा है सिरि विमलसेणगणहर सिस्सो णामेण देवसेणु ति । अहुजणवोहणत्थं तेणेयं विरइन सुत्तं ॥ अर्थात् श्री विमलसेन गणधर (गणी) के शिष्य देवसेन है। उन्ही देवसेन आचार्य ने अज्ञ जनों को बोध कराने के लिये यह भाव संग्रह सूत्र ग्रन्थ रचा है उसमे भी उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है पुश्वारिय कथाई गाहाई संधिऊण एयत्थ । सिरि देवसेण गणिणा धाराए संवसंतेण ॥ ४९ ।। रचओ दसणसारो हारो भव्वाण णवसए नयए। सिरि पासणाह गेहे सुविसुद्धे माहसुन दसमीऐ ।। ५० ।। अर्थात् पूर्वाचार्यों की रची हुई गाथाओं को एक स्थान में संग्रह करके श्री देवसेन गणि ने धारा नगरी में निवास करते हुए पार्श्वनाथ भगवान के मंदिर मे माघ सुदी दशमी विक्रम सम्वत् ९९० मे यह दर्शनसार ग्रन्थ रचा । इस उपर्यवत कथन से दो बातें सिद्ध हो जाती है । एक तो यह कि आचार्य देवसेन स्वयं भी गणी थे अर्थात् गण के नायक थे और विक्रम संवत ९९० में ये हए है। इन्होंने अन्य अपने बनाये हुए ग्रन्थों में अपना परिचय नहीं दिया है । और न उन ग्रन्क्षों की रचना का समय बताया है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री देवसेन का परिचय यद्यपि इनके किसी ग्रन्थ में इस विषय का उल्लेख नहीं है कि किस संघ के आचार्य थे परन्तु दशन सार के पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे मल संघ के आचार्य थे । दर्शनसार मे उन्होंने काष्ठ सन्ध, द्राविड सन्ध, माथुर सन्घ और यापनीय सघ आदि सभी दिगम्बर सन्धों की उत्पत्ति वतलाई है और उन्हे मिथ्यात्वी कहा है । परन्तू मल सन्ध के विषय मे कुछ नहीं कहा है अर्थात् उनके विश्वास के अनुसार यही ( मूल पन्ध ) मूल से चला आया है और यही वास्तविक सन्ध श्री देवसेन का आम्नाय श्री देवसेन गणि ने दर्शचसार की ४३ वी गाथा में लिखा है किजाई पउमणविणाहो सीमंधरसामि देष्य गाणेण । ण वियोहइ तो समणा कहं सुमागं पयाणंति ।। अर्थात् यदि आचार्य पद्यनंदि (कुंद कुंद स्वामी ) सिमंधर स्वामी द्वारा प्राप्त दिध्यज्ञान के द्वारा बोध नहीं देते तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते । इस कथन से यह निश्चय हो जाता है कि आचार्य देवसेन गणि श्री कुंद कुंदाचार्य की आम्नाय मे थे । भाब मन्त्रह मे ( प्राकृत मे ) जगह जगह दर्शन सार की अनेक गाथाएं उपत की गई है। आर उनका उपयोग उन्होंने स्वनिर्मित गाथाओं की भांलि किया है। इस से इस विषय में कोई सन्देह नही रहता कि दर्शनसार और भाबसन्ग्रह दोनों के कर्ता एक ही देवसन है। इन अतिरिक्त आराधनासार और तत्वसार नाम के ग्रन्थ भी इन्हीं देवसेन के बनाये हुए है। प. शिवलालजी ने इनके धर्म सन्ग्रह ' नामक एक और ग्रन्थ का उल्लेख किया है परन्तु वह अभी तक हमारे देखने में नहीं आया मगचत्र के कर्ता भी श्री प्राचार्य देवसेन है परन्तु इस सम्बन्ध में Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री देवसेन का परिचय स्वामी विद्यानदि ने इलोकवातिकालंकार मे यह लिखा है कि नयों का वर्णन विशेष रुप में जानना हो तो नयचक्र को देखो। इससे यह जाना जाता है कि जिस नयचक्र को आचार्य देवसेन ने बनाया है उससे पहले और कोई नयचक्र था, उसी का उल्लेख स्वामी विद्यानंदि ने किया है। जैसा कि नीचे लिखी वात से सिद्ध होता है__माइल्ल घपल के वृहत् नयचक्र के अंत की एक गाथा जो बम्बई प्रति में पाई जाति है यदि ठीक हो तो उससे इस बात की पुष्टि होती है, वह गाथा इस प्रकार है इसमीरणेण पोयं पेरियसतं जहा तिरं नर्से । सिरि देवसेन मुणिणा तह णयचक्क पुणो रइयं ।। इस गाथा का अभिप्राय यह है कि दुषमकाल रूपी आंधी से जहाज के समान जो नयचक्र चिरकाल से नष्ट हो गया था उस देवसेन मुनि ने फिर से रचा इससे विदित होता है कि देबसेन आचार्य के नयचक्र से पहले कोई नयचक्र था जो नष्ट हो गया था और बहुत संभव है कि देवसेन ने दूसरा नयचक्र बनाकर उसी का उद्धार किया हो ? उपलब्ध ग्रंथों में नयचक्र नाम के तीन ग्रंथ प्रसिद्ध है और माणिक चन्द ग्रंथमाला में तीनों ही नयचक प्रकाशित हो चुके है। १- आलाप पद्धति, २- लघु नयचक्र, ३- बहत् नयचक्र । इनमें पहला ग्रंथ-आलाप पद्धति संस्कृत मे है और शेष दो प्राकृत मे है । आलाप पद्धति के कर्ता भी देवसेन आचार्य है । डॉ० भांडार रिचर्स इंस्टियूट के, पुस्तकालय में इस ग्रंथ की एक प्रति है उसके अंत मे प्रति के लेखक ने लिखा है कि " इति सुख बोधार्थ मालयपद्धतिः श्री देवसेन विरचिता समाप्ता । इति श्री नयचक्रं सम्पूर्णम्' उक्त पुस्तकालय की सूची में भी यह नयचक्र नाम से ही दर्ज है। इसे नयचक्र भी कहते है और आलाप पद्धति भी कहते है । आलाप पद्धति के प्रारंभ मे लिखा है कि आलाप पद्धति वचन रसनानुक्रमेण Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री देवसेन का परिचय नयचक्ररयोपरि उच्यते । इससे विदित होता है कि नयचक्र से ही आलाप पद्धति को संस्कृत रूप में किया गया है। और "देवसेन कृता' लिखा है अत: यह उन्ही देवसेन का स्वा हुआ ग्रंथ है, यह सिद्ध है । लघु नयचक्र लघु नयचक्र श्री देवसनाचार्य का बनाया हुआ है इस से पहले के कई नय विवेचक ग्रन्थों को देखकर आचार्य देवसेन ने इसका नाम लघु नानक रक्खा ह एमा विदित होता है। आचार्य देवसेन की महत्ता और पूज्यता द्रष्य-स्वभाव प्रकाश नामका एक सुन्दर ग्रंथ है उसकी गाथा रूपमे रचना माइल्ल धवल ने की है । ये माइल्ल धवल भी महा विद्वान प्रतित होते है । उन्होंने उक्त अपने '' दब्वसहाब पयास " नामक ग्रन्थ मे लिखा है कि श्री देवसेन योमी के चरणों के प्रसाद से यह ग्रंथ बनाया गया । इस मे स्पाट सिद्ध है कि आचार्य देवमेन मूलसंघ के एक महान योगी और महान विद्वान थे । और मुनिगण तथा आचार्यों द्वारा पूज्य थे । नयचक्र के अंत मे यह गाथा मिलती है सियसद्द सुणय दुग्णय वणु देह विहारणेक्क वरवीरं । तं देवसेण देवं णयचक्कयरं गुरु पमह । ४२१ ।। अर्थात् स्यात् गब्द सुनय द्वारा दुर्नय शरीर घारी दानव के विदा. रण करने में महान वीर जो नयचक्र के कर्मा आचार्य देवसेन देव है उन देवसेन गुरु को नमस्कार करा । उपयुवत सभी कथन में यह वात सिद्ध हो जाती है कि आचार्य देवसेन गणी एक महान उद्भट विद्वान आचार्य हुए है वे दशमी शताद्वि में हार है और आचार्यबर्य कुंद कुंद स्वामी की आम्नाय मलसंघ के आचार्य थे। ये आचार्य विमनसन गणी के शिष्य थे । और वे स्वयं अनेक मुनियों के नामक गगी हुए है। आचार्य देवसेन में भावसंग्रह महान ग्रंथ जो गंभीर एवं सूक्ष्म तत्वों से भरा हुआ है बनाया है इसके Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री देवसेन का परिचय सिवा उन्होंने आलाप पद्धति, दर्शनसार आराधनासार, तत्वसार, नयचक्र आदि सिद्धांत के महान ग्रंथों की रचना की है। श्लोक वार्तिक मे आचार्य विद्यानन्द ने जिन नयों का वर्णन किया है वह वर्णन पुरातन नयचक्र से मिलता है जिसके नष्ट होने पर आचार्य देव 'न ने लघु नयचक्र रचा है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। इस से यह भी सिद्ध होता है कि आचार्य देवसेन आचार्य विद्यानन्दि के पश्चात हुए प्रतिल होते है । इन आचार्य देवसेन की भगवत्कुंद कुंद आचार्य में दृढ श्रद्धा थो इस बात का उल्लेख उन्होंने दर्शनसार में किया है। इन्होंने मालवा प्रान्त को अपने विहार से बहुत काल तक पवित्र किया था। वर्तमान मुनियों के विषय में स्पष्टीकरण आजकल दक्षिण उत्तर में अनेक मुनिगण नग्न, दिगम्बर जैन साध सर्वत्र विहार कर रहे है । यह समाज धर्म और देश के लिये कल्याण की बात है । दिगम्बर जैन शास्त्रों मे उत्कृष्ट एवं तद्भव मोक्षगामिता की शक्ती रखने वाले तपस्वी साधुओं का स्वरुप और उनकी अचिन्त्य कठीन चर्या का वर्णन पढ कर अनेक स्वाध्याय शील बन्धु कहने लगते है कि जो गरमी मे पहाडों पर माध्यमिक समय तपश्चरण करे शीत ऋतु मे जो नदियों के किनारे पर ध्यान लगाये बैठे हो वर्षा में जो वृक्षों के नीचे टपकते हुए पानी मे बाहे लुभायें खड़े हों और जो सिंह व्याघ्र भाल आदि हिंसक जानवरों से भरे हुए जंगलों मे रहते हों वे ही साध हो सकते है | आजकल नगरों में मन्दिरों मठों और धर्मशाला आदि में रहने वाले साधु, मुनि नहीं कहलाने योग्य है, आदि आक्षेपों और दुर्भा बनाओं से अनेक लोग वर्तमान साधुओ को साधु ही नहीं समझते है । इस विषय मे आचार्य सोमदेव आचार्य कुंद कुंद आदि महान आचार्यों स्वरचित शास्त्रों में बहुत अच्छा समाधान किया है. उन्होंने लिखा है काले कलौ चले चिले देहे चाशावि कीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ।। C अर्थाथ आज के इस पतनशील कलिकाल मे और चित्त की क्षण क्षण में बदलने वाली चंचलता मे साथ ही शरीर के अक्ष का कीडा बन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनार्य श्री देवसेन का परिचय जाने पर भी आश्चर्य है कि आज भी जिन रूप को धारण करने वाले माथु गण दीख रहे है। पाण्डस प्रवर आशाधरजी न लिखा है कि वर्तमान मुनिराजों को चतुर्थ काल के मुनिराजों के समान ही समझ कर उनकी श्रद्धापूजा करना चाहिये । जो लोग मुनिराजों की परीक्षा में ही अपनी बुद्धि का समस्त संतुलन खो बैठते हैं और कहते फिरते है कि इनकी इर्या समिती ठीक नहीं है । ये उद्दिष्ट भोजी है । आदि, इन तथ्य कुतों का उत्तर देते हुए पूर्वाचार्य बाह्ते है कि भरितमानप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम् ' अति श्रावक लोगो ! वीतराग मुनिराजों को केवल आहार देने मात्र के लिये तुम क्या परीक्षा करते फिरते हो ? जब कि पंचम काल के अंत समय तक साधु गण पाये जाएंगे और वे चतुर्थ कालबत् ही अठ्ठावीस मूल गुणधारी परम पवित्र शुद्धात्मा होंगे ऐसा सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्राचार्य त्रिलोकसार में लिखते हैं । तव आज कल के मुनिराजों पर आक्षेप करना सिवा अशुभ कर्म बन्ध के और कुछ नहीं है । आचार्य देवसेनजी का स्पष्ट वक्तव्य आज कल के मुनिराजों के विषय में आचार्य देवसेन जी ने अपने द्वारा रचित इस भाव संग्रह में बहुत ही सुन्दर आगमोक्त सिद्धांत का स्पष्टीकरण किया है वह इस प्रकार है दुविहो जिणेहि कहिओ जिणको सह य थपिर कयो य । सो जिशफप्यो उसो उसमसंह्णण प्रारिस्स ।। ११९ ॥ जस्थण कंटय भागो पाए गयणम्मि रय पबिछम्मि । फेडंति सयं मुणिणो परावहारे य तुहिका ॥ १२० ।। जल वरिसणवा याई गमणे भग्गे य जम्म छम्मासं । अच्छति णिराहारा काओसग्गेण छम्मास ।। १२१ ।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री देवसेन का परिचय एयारसंग धारी एआइ धम्म सुक्क मणीय । यत्ता सेस कसाथ मोगबई कंदरा वाली ॥ १२२ ।। वाहिरतर मंथ बहा धिणेहा णिपिहा व जइवइगो। जिण इब विहरति सया ते जीण कप्पट्टिया समणा ।। १२३ ।। थविरकप्पोवि कहिओ अणयाराणं जिणेण सो एसो । पंचच्चेलचाओ अकितणतं च पडिलिहणं ।। १२४ ।। पंच महन्वय धणं ठिदिभोयण एयभत्त करपत्तो । भत्ति भरेण य दत्तं काले य अजायणे भिक्खं ।। १२५ ।। दुविह तवे उज्जमणं छन्ति आवासाहि अणवरयं । खिविसयथं सिर लाओ जिणवर पडिरुव पडिगणं ।। १२६ ।। संहणणस्स गुण य दुष्सम कालप्स तव पहावेण । पुरणयराम वासी थविरे करपे ठिया जाया ।। १२७ ।। उवयरणं तं गहिसं जेण ण भंगो हवे चरियप्स । गल्हियं पुत्थ य दाणं जोम्म जस्स तं तेण ।। १२८ ।। समुदाएण विहारो धम्मस पदावणं ससत्तीए। भवियाण धम्मसवर्ण लिस्साण य पालनं गहणं ॥ १२९ ।। संहणणं अइणिन्ध कालो सो दुक्समो मणो अवलो । तहवि दुधारी पुरिसा महत्वष भरधरण उच्छहिया ॥ १३० ।। बरससहस्सेण पुरा जं कम्मं हाइ तेण कारण | ते संपइ यरिसेग हु णिज्जरयइणि संहणणे ।। १३१॥ भावार्थ- मुनि दो प्रकार के होते है जिनकल्पी और स्थविरकल्पी जो उत्तम सेहनन को धारण करने वाले है, जिनके पैर में कांटा लग जाय वा आंखों मे धूल भर जाय तो स्वयं नहीं निकालते दूसरा निकाले तो मौन धारण करले । जो वर्षा आदि ऋतु मे ६ महिने तक बिना आहार लिये बैठे वा खडे रहे । जो ग्यारह अंग के पाठी हो धर्म वा शुक्ल ध्यान में लीन रहते हों जिनकी कषायें नष्ट हो गई हो, मौनव्रती हो, कंदरावासी हो, बाह्याभ्यंतर परिग्रह से रहित हो, वीतराग निस्पृह Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री देवसेन का परिचय हों और जिनके समान विहार करे वे मुनि जिनकल्पी कहलाले है । जो मुनि पांचो प्रकार के वस्त्रों के त्यागी हो जिनके पास कोई परिग्रह न हो, पीछी हो, जो पांचों महाव्रतों के धारी हों खड़े होकर दिन में एक बार करपात्र भोजन करते हो, दोनों प्रकार के तपश्चरण में उद्यमी हों सहा छहों आवश्यकों का पालन करते हो लोच करते हो पृथ्वी पर शयन करते हो इस प्रकार अट्ठाईस मूल गुणों का पालन करते हों । जो हीन संहनन के कारण इस दुःषम काल में पुर नगर वा गांव मे (मन्दिर वा मठ आदि में) रहते हो उनको स्थविरकल्पी कहते है । जिनसे रत्नत्रय का भंग न हो ऐसे उपकरण रखते है अपने योग्य किसी के द्वारा दी हुई पुस्तक रखते है समुदाय से बिहार करते है भव्यों को धर्म श्रवण कराते हे शिष्यों को दीक्षा देते है और उनकी स्थिति का पालन करते हैं इस दुःष म काल मे हीन संहनन होने पर भी धीर पुरुष महावत धारण करते है यह आश्चर्य है। पहल के उत्तम संहनन से जो कर्म हजारों वर्षों में नष्ट होते थे वे कर्म इस समय हीन संहनन के द्वारा एक वर्ष मे नष्ट हो जाते है । ___ इस उपयुंक्त कथन से सिद्ध है कि आज कल के मुनिगण स्थविर कल्पी मुनि है वे हिंसक जंतुओं से भरे हुए जंगलों में रहकर निर्विघ्न धर्म ध्यान करने में सर्वथा असमर्थ है इसलिये वे नगरों मे, उद्यानों में मन्दिरों में, मठों, बगीचों आदि मे रहते है। यह वर्तमान शक्ति हीन सहनन के लिय समुचित शास्त्र मार्ग है । जो लोग बर्तमान मुनियों पर नाना आक्षेप करते है उन्हे इन महान पूर्वाचार्यों के शास्त्र विधानों से अपना समाधान कर वर्तमान मनियों में उसी प्रकार श्रद्धाभक्ति से देखना चाहिये जैसी कि चतुर्य कालवर्ती मुनगें पर रहती है । शारीर सामर्थ्य को छोडकर बाकी चर्या और भावों की विशुद्धी वर्तमान मुनियों म भी प्राच्य काल के समान ही रहती है। इन दिगम्बर वीतराग महर्षि आचार्य देवसेन गणी का संक्षिप्त परिचय भाई नाथराम जी प्रेमी के द्वारा लिखा हुआ माणिकचन्द ग्रंथमाला के मुदित नय नयचक्र संग्रह के प्राक्कथन का उद्धरण देते हुए. हमने लिखा है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री देवसेन का परिचय आचार्य देवसेन की रचना में महत्त्व आचार्य देवसेन ने अपने बनाए हुए ग्रन्थों मे द्रव्य मुण पर्यायों का बहुत ही गंभीर विवेचन किया है । नणे के गहन एवं सूक्ष्म विवेचन मे जिन अपेक्षा वादों का निदर्शन किया है उनसे उनकी अगाध विद्वत्ता का परिचय सहज मिल जाता है । गणस्थाने के स्वरूप के साथ उनका मार्गणाओं में संघटन भी उन्होंने बहुत स्पष्टरुप से किया है । स्थविर काल्पी जिन कल्पी साधुओं का स्वरुप बताकर तो आचार्य देवसेन ने ने मुनिराजों के सम्बन्धों मे कुछ स्वाध्याय शील भ्रामक लोगों के भ्रम को सर्वथा दूर कर दिया है । हम श्रीमान परमाराध्य श्री आचार्य देवसेन गणी के पुनीत चरणों में नत मस्तक होकर अपनी श्रद्धा और भक्ति प्रगट करते है । कल्याणमस्तु । मैनपुरी ( यू० पी० ) भाद्रपद वि० सं० २०१३ - आचार्योपासक - लालाराम शास्त्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्धमानाय नमः ।। टीकाकार का परिचय उत्तर प्रदेशवर्ती आगरा नगर के निकट एक चावली ग्राम है। है छोटा पर है सुन्दर । इसी गांव की पद्मावती पुरवाल सज्जाति म भूषण स्वरुप श्रीमान लाला तोताराम जी थे । वे जैसे धर्मात्मा ५ वैस ही अनुभवी निरपेक्ष वैद्य थे । तथा जैसे सज्जन थे वैसे ही परोपकारी थे । यही कारण था कि वह गांव के शिरोमणि गिने जाते थे। आपने अपने नश्वर शरीर को विक्रम सं० १९६५ मे छोड़ा था, आपके छह पुत्र हाए जिन-में १-लाला रामलाल जी - आप आजन्म ब्रह्मचर्य पालन करते हए घर पर ही व्यवसाय करते रहे । आपका स्वभाव बहुत ही मिलनसार और अतीव सरल था। आप बहत धर्मात्मा थे । आपने विक्रम सं० १९७० मे अपना शरीर छोडा । २-लाला मिट्टनलाल जी - आप घर पर ही रह कर व्यवसाय करते रहे । आपनें वाल्यजीवन में कुछ समय अलीगढ की पाठशाला में संस्कृत का अध्ययन किया क्षा | आप भी वैसे ही धर्मनिठ थे । आपका स्वर्गवास विक्रम सं० २००७ मे हुआ था। ३-इस ग्रंथ के टीकाकार विद्वच्छिरोमणि धर्मरत्न सरस्वती दिवाकर पं० लालाराम जी शास्त्री।। ४-श्री १०८ परम पूज्य आचार्य सुधर्म सागर जी महाराज । आपका पूर्व नाम पं० नन्दनलाल जी शास्त्री था । बीर निर्वाण संवत २४५४ फागुन मास मे जव कि श्री सम्मेद शिखर जी पर इतिहास प्रसिद्ध पत्रच कल्याण महोत्सव हुआ था उस समय आपने शुभमिती फागुन शुक्ला १३ त्रयोदशी के दिन परमपूज्य चरित्र चक्रवर्ती सिद्धांत पारंगत योगीन्द्र चूडामणि धर्म साम्राज्यनायक दिवतग आचार्य श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज से गृह विरत सन्तम प्रतिमा की दीक्षा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टोकाकार का परिचय ली थी इसके एक वर्ष पीछे श्री कुंडलपुर क्षेत्र पर दशमी अनुमती विरत प्रतिमा ग्रहण की थी फिर अलीगढ मे क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली। तदनंतर प्रतापगढ़ में आपने श्री जैनेश्वरी दीक्षा ( मुनिपद ) धारण की थी। आप संस्कृत भाषा के उद्भट शास्त्री थे ही । साथ मे हिन्दी और गुजराती के भी प्रौढ लेखक थे । तथा प्रसिद्ध व्याख्याता भी थे । अपने चौबीस पाठ, दीपावली पूजन, आदि कविता मय नथ लिखे है। तथः सुर्यप्रकाश पुरुगर्थानुशामन आदि संस्कृत ग्रंथों की टीकाएं भी लिखी है उत्तमोत्तम उपदेशपूर्ण जीव कर्म विचार, यज्ञोपवीत संस्कार सदृशा अनेक ट्रक्ट भी लिखे है । कितनी हो लेखमालाए लिखा है और गुजराती भाषामे भी कितने ही ग्रंथ लिखे है । आप वैद्यक भी जानते थे । आप की लिखी एक नीतिवाश्यमाला नाम को पुस्तक मिली है जो बहुत ही उत्तम उपदेशों से पूर्ण है। उसमें आपने एक सदाचार नामकी पुस्तक का भी उल्लेख किया है । परन्तु वह हमारे देखने में नहीं आ सकी है। गृहस्थावस्था का अन्तिम जीवन आपने बम्बई में व्यतीत किया। श्री ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन को उन्नती के मूल कारण आप ही थे। श्री आचार्य संघ को उत्तर प्रांत में लाने का मुख्य प्रयत्न आपका ही था। इसलिये आप संघ के साथ हो लिये थे । और फिर संघ में ही रह गये थे। श्री जैनेश्वरी दीक्षा लेकर आपने कितने ही बडे काम किये थे । आपने नीमाङ गुजरात बागड मालवा आदि प्रांतों में विहार कर शास्त्रोक्त मार्ग का अनुपम प्रचार किया था । तथा साथ में चतुर्विशति तीर्थकर महास्तुती, सुधर्म ध्यान प्रदीप और मुधर्म श्रावकाचार ऐस सस्कृत भाषा में महाग्रंथों की रचना भी की थी । आपने कुलगढ़ में मुनि ऐलक क्षुल्लक भट्टारक ब्रह्मचारियों के मध्य श्रेष्ठ समाधिमरण पूर्वक पौष शुक्ला द्वादशी सोमबार विक्रम सं० १९९५ वे सन्ध्याकाल मे इस नश्वर शरीर का त्याग किया। आप की इस यात्रा के समय कुशालगड स्टंट ने अपना बैचड ध्वजा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार का परिचय निशान आदि लवाजमा भेज दिया था, उनकी निषद्या बनाने के लिये स्टेट ने नदी के किनारे एक सुन्दर स्थान भी दिया है । ऑफिसर लोग नागरिक सब शवयात्रा के साथ थे। तथा स्टेट भर में सदा के लियं उस दिन की स्मृत्ति में राज्य छुट्टी रखने और किसी भी जीव की हिंसा नहीं होने देने की घोषणा सरकार ने कर दी थी। वह स्टेट की सराह नीय भक्ति का नमूना है। निषद्या स्थान पर कुआ, बाग धर्मशाला वन गई है, छतरी बन गई है और उस छतरी में उनके चरण कमल प्रतिष्ठित होकर स्थापन किये जा चुके है । उनके चरण कमलों की स्थापना स्वयं आचार्य श्री १०८ कुंथु पागर महाराज ने की थी। आचार्य श्री कुंथु सागर जी महाराज आचार्य श्रीं सुधर्म सागर जी को अपना विद्या गुरु मानते थे। तथा उन्होंने अपने समस्त स्वरचित संस्कृत ग्रंथों मे आचार्य सुधर्म सागर जी को अपना विद्या गुरु के नाम से सर्वत्र उल्लेख किया है । आचार्य सुधर्म सागर जी के गृहस्थावस्था के पुत्र वैद्य राज पं० जयकुमार जी आयुर्वेदाचार्य नागीर ( राजस्थान ) में सकुटुम्ब रहते हुए अपना रवतन्त्र बैद्य क व्यवसाय चला रहे है। ५-न्यायालंकार पं० मक्खनलालजी शास्त्री - आप संस्कृत के अद्वितीय विद्वान है । और हिन्दी भाषा के सामान्य लेखक और वक्ता है आपने देहली नगर मे आर्य समाज के साथ लगातार छह दिन तक शास्त्रार्थ कर बड़ी शानदार विजय प्राप्त की थी। उसी समय वहां के अग्रवाल खण्डेलवान पद्मावती पूरवाल आदि समस्त पंचायत ने तथा प्रान्त और दूर से आय हुए समस्त जैनियों ने मिलकर 'वादिभ केसरी' यह सुप्रसिद्ध उपाधि आपको प्रदान की थी। इसके सिवा न्यायालंकार विद्यावारिधि की उपाधियां भी आपको प्राप्त है । भा० दि० जैन महा सभा ने आपकी निःस्वार्थ अनुपम सेवा से प्रसन्न होकर धर्मवीर की मम्मान्य उपाधि प्रदान की है । इस समय आप' समस्त दि. जैन समाज में एक अच्छे माननीय विद्वान गिने जाते है । आपनें वर्षों तक उक्त महासभा के मुख पत्र माप्ताहिक जैन गजट की सम्पादक का उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य बड़ी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार का परिचय सुयोग्यता से किया था तथा अधार्मिक वातावरण को हटाते हुए धर्म का उद्योत किया है ! आपने पंचाध्यायी, पुरुषार्थसिध्युपाय तथा उत्तरार्ध राजवाति कालंकार की अत्यंत विस्तृत स्वतन्त्र टीका लिखी है जिनमे प्रत्येक पदार्थ का विवेचन बडी योग्यता और सरलता के साथ किया है । आपने भा० दि० जैन महासभाश्रित परीक्षालय के मंत्रिस्न का कार्य भी बड़ी योग्यता के साथ किया है। इस समय आपने श्री गो० दि० जैन सिद्धांत महाविद्यालय मोरेना का संचालन बहुत योग्यता और उत्तरादायित्व के साथ किया था । साथ में जैन धर्म के प्रौढ तत्त्वों को बतानेवाले तथा उनकी रक्षा करने वाले ॥ जैन दर्शन ' पाक्षिक पत्र का सपादन भी किया है । गवालियर स्टेट ने आपको प्रा० मॅजिस्ट्रेट भी बनाया था, आपको सेकन्ड क्लास पावर के अधिकार थे उस कार्य को आपने करीब २० वर्ष तक प्रभावक एवं न्यायरूप में किया, फल स्वरूप राज्य ने आपको पोशाक और प्रमाण पत्र भेंट किये। ६-वाबू श्रीलालजी जौहरी - आप इस समय करीब २५ वर्षों से जयपूर में जवाहरात का व्यापार करते है और सहकुटुम्ब वहीं पर रहते है । जवाहरात की पारख करने मे आपकी जैसी प्रसिद्धी है वैसे ही आप जवाहरात के व्यवसाय में भी एक प्रतिष्ठित प्रामाणिक जौहरी माने जाते हैं । विशेषता यह है कि सभी भाई और पूरा घराना ही दृढ धार्मिक है। इस ग्रथ के टीकाकार-श्रीमान् धर्मरत्न, सरस्वतीदिवाकर विद्व-- च्छिरोमणि, समाज मे प्रसिद्ध एवं संस्कृत निद्धांत के पूर्ण मर्मझ प्रभावक अनुभवी विद्वाम् श्रद्धेय पं० लालाराम जी शास्त्री महोदय है। ___ आपने अनेक गम्भीर महान ग्रंथों की बडे सरल रूप में हिन्दी टीकाएं की है। तथा ग्रंथों के मर्मस्थलों को बहुत ही उत्तमता के साथ स्पष्ट और विशद किया है। आपकी टीकाओं में ग्रंथ का कठीन भाग भी सरलता से समझाया गया है । आपकी बनाई हुई टीकाओं में खास Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार का परिचय विशेषता यह है कि मुलग्रंथ के अनुसार ही आशय रहता है । ग्रंथ के वाहर की कोई भी बात स्वतन्त्र रूप से लिखी हुई आपकी टीकाओं मे प्रक्षिप्त नहीं की जाती है । आपके द्वारा टीका किये हुए बहुत से ग्रंथ हैं जिनमे कुछ के नाम इस प्रकार है-आदि पुराण, उत्तरपुराण, शान्तिपुराण, धर्मामृत श्रावकाचार, सुबोधसार, चारित्रसार, आचारसार,, बोधा मृतसार, ज्ञानामृतसार, सुधर्मोपधर्मदेशामृतसार, प्रश्नोत्तर, श्रावकाचार, समन्तभद्र कृत जिनशतक, पात्र केशरी स्तोत्र संशयि वदन विदारण, गौतम चरित्र, सुभौम चरित्र, सूक्ता भुक्तावला, तत्वानुशासन, बैराग्य मुनिमाला, द्वादशानुप्रेक्षा, ( वशस्तिलक चम्पू स्थित ), बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, लघीयस्त्र, चतुर्विंशतितीर्थकर महास्तुती, चतुर्विंशतितीर्थकर स्तोत्र, सुधर्मध्यान प्रदीप, सुधर्म श्राबक्काचार, शान्ति सिंधु, मुनित्रमं प्रदीप, दशभक्त्यादि संग्रह, मोक्षशास्त्र, भावसंग्रह, आशाधर सहस्र नाम, जिनसेन सहस्रनाम मूलाचार प्रदीप, सार समुच्चय, आलाप पद्धति, दशलाक्षणिक जयमाला आदि । इनके सिवा षोडश संस्कार, क्रियामंजरो, बालबोध जैनधर्म तीसरा चौथा भाग, जनधर्म, जनदर्शन, आदि कितनी ही स्वतन्त्र पुस्तके श्रद्धेय धर्मरत्नजी ने लिखी है । आचार्य शान्तिमागर पूजन, आचार्य शान्तिसागर छाणी पूजन, आचार्य कुंथुसागर पूजन, श्री सम्मेद शिखर पूजन, श्री अकंपन संघ, पूज्य विष्ण कुमार मुनि पूजन, भक्तासार शतद्वयी, नमस्कारात्मक सहस्रनाम शान्त्यष्टक, आदि संस्कृत पद्य रचनात्मक स्वतन्त्र ग्रंथों की रचना मी आपने बहुत सुन्दर और प्रासाद गुणयुक्त की है। आपने आदि पुराण समीक्षा की परीक्षा लिखी थी उसका प्रभाव भी जैन समाज में बहुत अधिक पड़ा था आपने इन ग्रंथों को लिखकर तथा अनेक ग्रंथों की सग्ल टीकाएं लिखकर समाज को जो लाभ पहुंचाया है तथा हिन्दी और संस्कृत साहित्य की जो उन्नति की है उसके लिये समाज आपका सदैव ऋणी रहेगा । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार का परिचय आप वर्षों तक भा० दि० जेन महासभा के साप्ताहिक मुखपत्र जैन से सफर मापन हो है नाम दि० जन महासभा के सहायक मंत्री भी रह चुके है। उक्त महासभा ने आपकी दूरदर्शितापूर्ण निपुह सेवा से प्रसन्न होकर आपको " धर्मरत्न " की महत्वशालिनी उपाधि से विभूषित किया है । आप भा० दि जैन शास्त्री परिषद के सभापती तथा संरक्षक भी रह चुके है । मा० दि० जैन सिद्धांत संरक्षिणी सभा का जो प्रथम अधिवेशन पैठण (औरंगाबाद निजाम) मे हुआ था उसके आप ही सभापती नियत हुए थे तथा आपने उस अधिवेशन का कार्य वडी सफलता के साथ किया था । उसी सभा का दुसरा अधिवेशन श्री अंदेश्वर पार्श्वनाथ मे ( जिला ढुंगरपुर कुशलगढ़ के निकट ) हुआ था उसमे आपको उक्त सभा ने अपना संरक्षक बनाया है तथा उसी अधिवेशन मे उस सभा ने आपको “ सरस्वती दिवाकर " प्रभावशालिनी उक्त उपाधि प्रदान की श्रीमान् सरस्वती दिवाकरजी की यह साहित्य सेवा जैन साहित्य के प्रचार के लिये पूर्ण सहायक हुई है । जैन समाज हृदयों से इन परो. पकारी महा विद्वान का अभिनन्दन करेगा । हम भी शास्त्री जी का अभिनन्दन करते है। भाद्रपद शु० २ वि० सं० २०१३ . ब्रह्माचारी चांदमल धूडीवाल नागौर ( मारवाड ) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय मंगलाचरण जीवों के भेद भावों के भेद इस ग्रन्थ की विषयसूची गुणस्थानों के नाम मिथ्यात्व गुणस्थान का लक्षण मिथ्यात्व से होने वाले भाव मिथ्यात्व के भेद विपरीत मिथ्यात्व जल शुद्धि के दोष मांस के दोष, श्राद्ध के दोष गोयोनि वंदना के दोष एकांत मिथ्यादृष्टी का स्वरूप वैनयिक मिथ्यात्व का स्वरूप संशय मिध्यात्व का स्वरूप सपरिग्रह मोक्ष का निषेध स्त्री मुक्ति निषेध कवलाहार निषेध जिन कल्पी स्थविर कल्पी का स्वरूप श्लोक संख्या सासादन गुणस्थान का स्वरूप मिश्रगुणस्थान का स्वरूप ब्रह्मा के कार्य और उसका निराकरण १ २ १० १२ १५ १७ १८ २६ ४६ ६३ ७३ ८५ ८८ ९२ १०३ ११६ श्वेताम्बरों की उत्पत्ति १३७ अज्ञान मिथ्यात्व १६१ मिथ्यात्व का त्याग करने का उपदेश और मिथ्यात्व से हानियां १६५ चार्वाकमत का निराकरण १७२ सांख्यमत का निराकरण १७७ १९५ १९८ २०४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय श्री श्लोक संख्या २२४ २४१ २५९ २६२ २६४ २७२ ३२१ ३२४ ३४४ विष्णु के कार्य और उनका निराकरण महादेव के कार्य और उनका निराकरण अविरत सम्यग्दृष्टी चतुर्थ गुणस्थान का स्वरूप सम्यग्दर्शन का लक्षण सम्यग्दर्शन के भद परमात्मा और उसके भेद जीव का स्वरूप अजीवपदार्थ आश्रय मंवर बध निर्जरा मोक्ष विरताविरत' का स्वरूप बारह व्रतों का स्वरूप पांचवें गुणस्थान में होने वाले ध्यान भद्रध्यान धर्मध्यान के भेद स्वरूप सालंबन धर्मध्यान और पंचपरमेष्ठियों का स्वरूप निरालंबन ध्यान पुण्य के भेद और उसके फल पुण्य के कारण पूजा की विधी दान, दान के भेद, विधि और फल प्रमत्त संयत गुणस्थान का स्वरूप ३५३ ३५७ ३६५ ३६६ ३७४ ४२५ ४२६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय श्री श्लोक संख्या ६१४ ६४९ ६५२ अप्रमत्त मुणस्थान का स्वरूप अपूर्वकरण गुणस्थान का स्वरूप अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का स्वरूप सूक्ष्मसांपराय नाम के दशवें गुणस्थान का स्वरूप ग्यारहवें उपशान्त मोह् गुणस्थान का स्वरूप क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान का स्वरूप सयोग केवली तेरहवें गुणस्थान का स्वरूप अयोग केवली चौदह गुणस्थान का स्वरूप श्री आचार्य द्वारा अन्तिम मंगल भावसंग्रह के पढ़ने का फल संक्षिप्त प्रशस्ति उपसहार तथा चौदह गुणस्थानों का स्वरूप परिशिष्ट टीकाकार का अन्तिम मंगलाचरण Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार का सार (णमो समयसाराणं) शास्त्राध्ययन क्रम जैनागम रूपी महासमुद्र के चार भेद है। (१) प्रथमानुयोग (२) करणानुयोग (३) चरणानुयोग (४) द्रव्यानुयोग । ये चारों अनुयोग सर्वज्ञ, वीतराग, हितोगदेशी अरिहन्त भगवान की दिव्यध्वनि से निसृत होने के कारण मुत्य है, तथ्य है, और उपादेय है। चारों अनुयोगो का अध्ययन भनन, चिन्तन, एवं उपलब्धि क्रमश: सेही होती है। यथा अथेष्ट प्रार्थना प्रथमं करणं परणं द्रव्यं नम: 1 शास्त्राभासो- - - .. - ॥ पहले प्रथमानुयोग का अध्ययन, मनन, चिंतन, प्राथमिक साधक करें। उसके बाद करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग का भी करें। अर्थात साधका पूर्व-पूर्व अनुयोग एवं अपनी अवस्थानुसार कर्तव्य में दक्ष होते हवं उत्तरोत्तर अनुयोगों का अध्ययन, मनन, एवं अनुकरण करें। प्रधमानुयोग में पुण्य पुरषों का चरित्र बोधि समाधि आदि समाचिन विषय का वर्णन है । उसको पढ़कर प्राथमिक साधक महापुरुषों के चरित्र के माध्यम स धर्म को सरल, सहन अवगत कर लेता है , इस लिये इम को प्रथम - अनुयोग - प्रथमानुयोग प्राथमिक साधकों का अनुयोग करणानयोन जिस अनुयोग में लोक, अलोका, युग परिवर्तन. गुणस्थान. जीवसमास आदि का वर्णन हैं 1 उसे करणानुयोग कहते हैं इस में आधिकत्तर गणित का अवलम्बन लेकर वर्णन हैं । इसमें सूक्ष्म रुप से गणितिक पद्धति से जीवो के विभिन्न अवस्थाओं का सूक्ष्म एवं अत्यन्त प्रमाणिक वर्णम है। इममें जो भावों का वर्णन हैं वह भाव अन्य अनुयोग के लिये मानद स्वरुप है। भाव किस तरह उत्तरोत्तर जान बुद्धि को प्राप्त होती है उसकी सूक्ष्म गणितिक एवं वैज्ञानिक वर्णन हैं। इस अनुयोग से ही अन्य तीन अनुयोग के वणित भाबों कि परीक्षा कि जाती है । यदि करणानुयोग इन भावों को सत्य साबित करता है तो सत्य है अन्यथा मिथ्या है। इसमें किसी प्रकार साहित्यिक, मनोरंजक, अतिश्योक्ति उपमा, अलंकारात्मक वर्णन मही है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) चरणानुयोग में गृहस्थों के अनुनत. शिक्षात्रत. द्विग्नतादि चारित्र तथा मुनियोंके महाद्रत, समिति आदि २८ मूलगुण-उत्तरगुणादि का वर्णन है। बारह अंग में प्रथम अंग आचारांग है। बाचारांग का मूल कारण यह है कि बिना आचरण के रत्नत्रय की वृद्धि नहीं हो सकती हैं। तथा केवलज्ञान और मोक्ष की भी प्राप्ति नहीं हो सकी है। इस लिये आचार ( चारित्र) प्रथम एवं मुख्य धर्म है, इसलिये आचागर का वर्णन प्रथम किया गया है। __जल अनुयाग अजीबादि सारा त्वी का वर्णन है उसको द्रव्यानुयोग कहते हैं । द्रव्यामुयोग अति इन्द्रिय विषयों का सूक्ष्म वर्णन करने के कारण नम ज्ञान विरहित प्राथमिक शिष्यों के लिये अत्यन्त दुरह दुरासाध्य एवं क्लिष्ट है। जिस ने विज्ञ अनुभवज्ञ अनेकान्त एवं पारंगत गुरु से क्रमशः प्रथमानयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानयोग का अध्ययन मननचिन्तन एवं आचरण कर लिया है वह शिष्य गुरु के तत्वावधान में इस रहस्य पूर्ण नय उपनय से अकीर्ण सूक्ष्म अनुयोग का अध्ययन-मनन-चिन्तन एवं आचरण करके शुद्ध परम उपादेयतत्व स्वातंत्र्य रुपी समयसार को प्राप्त कर सकता है। अन्यथा साधक का विशेष उत्पान होना कठीन ही नहीं अशक्य है। __ जैसे एक विद्यार्थी पहले गुरु के अवलम्बन से वर्ण माला को पढ़ता है उसके पश्चात् पद् वाक्य शास्त्रादि का अध्ययन करते-करते आगे बढ़ता है। उसी प्रकार मुमुक्षु साधक पहले गुरु से प्रथमानयोग पड़कर उससे आत्मा का उत्थान-पतन जानकर संसार शरीर मोग से संवेग, वैराग्य को प्राप्त कर करणानुयोग के माध्यम से विभिन्न भावों को एवं उनके फल को जानकर चरणानुयोग के माध्यम से उत्तरोत्तर विशुद्ध भावों को प्राप्त करता हुआ, दत्र्यानयोग में वर्णित स्व शुद्धात्म तत्त्व को प्राप्त कर लेता है। यह चारो अनुयोगों का क्रमः एवं विषय है। अब तक पहले-पहले के तीन अनुयोग रूप परिणमन नहीं करते है तब तक चतुर्थ अनुयोग में वर्णित शुद्ध तत्त्व मी अत्यन्त दूर हैं। समयसार महान आध्यात्मिक योगी पुरुष आध्यात्मिक कांतिकारी एवं मूल आम्नाय के मुख्यस्तंभ स्वरुप प्राचार्य कुन्दकुन्द के अनेक काखमय में समयसार अन्यतम कृति है। इस शास्त्र में आचावर्ग में समयसार स्वम्प शुद्धात्म द्रश्य सिद भगवान का वर्णन किये है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) समय पहुई प्राक्षतं सम्यम् अयः बोधो यस्य भवति का समय आत्मा, अपना समं एकी भावनायनं गमन समयः । प्रामृतं सारं सार: शुद्धावस्था सामवस्या मनः प्राभृतं ममय प्राभृत, अथवा समय एव प्राभूत समय प्राभूत. स. सार. जयसेनाचार्य ह. दु./गा.. समय प्राभत ग्रन्थ को-सम्यक-समीर्च न अर्थ बोध, ज्ञान है जिस के वह समय अर्थात, आत्मा । अथवा समम की भावनायनम, समनं 'ममयः'' अर्थात् एकमेक रुप से जो गमन उसका नाम समय: प्राभूत अर्थात् सार शुद्धावस्था इस प्रकार समय नाम आत्मा उसका प्राभूत्त अर्थात शुद्धावस्था वही हुआ समय प्राभृत । अथवा समय जो है वही प्रामृत सो समय प्राभृत । स्वरुपाद प्र च्यवनान् टकोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थ; समय समयत एकत्वेन युगमज्जानाति ।। स. सा. अमृतचन्द्र आचार्य । गा. २ स्व स्वरुप से च्युत न होने से टकोत्कीर्ण चित्स्वभावबाला जीव नाम पदार्थ है वहीं समयसार हैं । एक काल में ही जानना और परिणमन करना ये दो किराये जमा हो वस साय है। " स्वस मन एव शुद्धात्मनः स्वरूप न पुनः पर समय" स. सा. जयसेनाचार्य त. वृ./गा. ३ स्वसमय ही पद्धारमा का स्वस है, पर समय खात्मा का स्वरुप नहीं । अर्थात सुद्धात्मा सिद्ध परमेष्ठी ही स्बसमय है । अन्य समस्त संसारी जीव परत मय है। बहिरंतरप्य भेयं पर समयं भग्णय जिणिदेहि । परमप्पो सगसमय तब्भय जाण गुण ठाणे ।। मिस्सोति बाहिरप्पा तरतमया तुरिय अंतरप जहण्णा । संतोति मज्यिमंतर रवीणुतम परम जिण सिद्धा ।। रयणसार । कुन्दकुन्दाचार्य / गा. १४८-१४९ जिनेन्द्र भगवान द्वारा बहिरारमा एवं अंतरात्मा को परसम्म कहा गया है, परमात्मा स्वसमय है उसको गुणस्थान के अनुसार जान लेना चाहिये। मिथ गणस्थान पर्यन्त अर्थात मिथ्णत्त्व, सासादन, सम्यमिथ्यात्व गुणस्थानवी जीव तारतम्यसे बहिरारमा है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) जीव जघन्य अन्तरात्मा है । पाँचवे गुणस्थान अर्थात देशत्रता श्रावक से लेकर ग्यारवाँ उपशांत मोही महामुनि उत्तम अन्तरात्मा है। अरिहन्त भगवान अयोग केवली भगवान एवं सिद्ध भगवान परमात्मा है। जैसे पडित दौलतरामजी ने भी अपने छहढाला में कहा है । हिरात अन्तर आतम, परमातम जीव विद्या है। देह जीव को एक गिर्ने, वहिरात तत्त्व मृधा है। उत्तम - मध्यम, जवन विधि के अन्तर आतम ज्ञानी । विविध संग बिन शुद्ध-उपयोगो मुनि उत्तम निज ध्यानि ॥ पं. दौलतरामजी । छटाला क्र. ३/४ जीवो चरित्र दंसण णापठितं हि ससमयं जाण । गुग्गल कम्मपदेसद्धिमं च तं जाण परसमयं ॥ स. सा. गा. २ जीवस्वारित्र दर्शनज्ञानस्थितो यदा भवति तथा काले तमेव जोदं हि स्फुटं स्वसमयं जानीहि विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावे निज परमात्मनि यदुचिरुपं सम्यग्दर्शनं तत्रैव रागादि रहित स्वसंवेदन ज्ञानं तथैव निश्चलानुभूति रूपं वीतराग चारित्रमित्युक्त लक्षणेन निश्चय रत्नत्रयेण परिणत जीव पदार्थ है शिष्य स्वभ्रमयं जानीहि । पुद्गल कर्मोपदेश स्थितंच तमेव जानीहि परसमयम् । - gara निश्चय रत्नत्रया व सत्र यदा स्थितो प्रत्यक जीवस्तदा त जीव परसमयं जानीहि । T स. सा. जयसेनाचार्य / त. बृ. गा. २ वह जीव जब चारित्र दर्शन ज्ञान में स्थित रहता है उस समय में उसे स्वसमय समझो। अर्थात् विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाववाल निज परमात्मा में रचि रूप सम्यग्दर्शन और उसमें रागादि रहित स्वसंवेदन का होना यह सम्यग्ज्ञान तथा निश्चल स्वानुभूति रूप वीतराग चारित्र इस प्रकार कहे गये लक्षणवाले निरचय रत्नत्रय के द्वारा परिणत जीवपदार्थ को ह शिष्यं तु स्वसमय समझ । मुद्गल प्रदेश में स्थित उसी जीव को तू परसमय समझा। पूर्वोक्स रत्नत्रय न होने से उस काल में परमय जाना । अथ शुद्ध परमात्म तरुष प्रतिपादन मुख्यत्वेन विस्तर रुचि शिष्प प्रति छोधन में श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव निर्मिले समयसार प्रनृतग्रन्थं । स सा. जयसेनाचार्य त. वृ. / गा १ अब शुद्ध परमात्म तत्त्व को मुख्य लकर विस्तार में रुचि रखने वालें Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्यों के प्रतिबोधन के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव के द्वारा बनाया हुआ समयप्रामृत ग्रन्थ हैं | समयसार रूप शुद्धात्म तत्व का वर्णन कुन्दकुन्दाचार्य देव ने इस ग्रन्थ में विशेष रुप प्रतिपादन करने स इस अन्य का यथार्थ नाम समयमार है। समयसार के लिये योग्य पात्र समयसार अन्य में वणित जो आत्मतत्त्व उ का प्रत्यक्ष अनुभव निर्विकल्प समाधिस्थित निश्चयनय का अवलम्बन स्थित महामुनि को ही होता है । और मयसार में प्रतिपादित विषय उनके अनुभव भठा एवं आचरण होने के कारण समयमार ग्रन्थ भी महामुनि के लिये ही विशेष प्रयोजनवान अन्तः बाह्म चिस चमत्काररूप "मयसार को आत्मसात कर सकता है 1 जो अन्तरंग बहिरदग ग्रन्थ रूपी गसमय का त्याग किया है वह है, हृदयंगम कर सकता है, आचरण में ला सकता है 1 परंतु जो अन्तरंग बहिरंग ग्रेस्थवान (परिमही) पर सर यन्त जीव है वह केवल इस ग्रन्थ यो अंथरूप से (परिग्रह) सिर पर धारण कर सकता है, परंतु पूर्ण रूप से ग्रहण करके हृदय में ग्रहण नहीं कर सकता है । जैसे कि शेरणो सिंहणी) का दूध जिस किसी पात्र में नहीं रहना उसे सुवर्ण पात्र ही चाहिये, अन्यथा पात्र किन्न-भिन्न होता है उसे योग्य पात्र ही चाहिये । अतः एम्पूर्ण रूप से निर्मोह, निस्संग, निराग, निक्षेप, मुनि ही उस समयसार को जानने के समसने के, कथन करने के पात्र हैं, अन्यथा अपात्र होने पर भी इस समयसार को धारण करने लगे तो जीवन रुपी पात्र छिन्न-भिन्न होगा, तुकडे तुकडे होगा अर्थात स्वच्छंद विषयी-कषायी होगा जैसे भीजन को योग्य व्यक्ति, योग्य रीति से भोजन करके पचाने पर वह भोजन शक्तिवर्धक होता है । परतु अयोग्य व्यक्ति अयोग्य रीति से भोजन करने पर अपचन होकर पाक्ति क्षण होती है, रोगों का कारण बनता है । भोजन कर पर रखने पर केवल वह भार स्त्रम्प होता है, परन्तु योग्य रीति से भोजन करने मे शक्ति वर्षक होता है । उसी प्रकार शास्त्र को केवल सिर पर रखने पर सिर का बोझ बढ़ता है एवं आत्मा को कोई लाभ नहीं मिलता है। इस समयमार में वर्णित शद्धात्म तत्व का परिज्ञान एवं प्राप्ति किनको होता है स्वयं जयसेनाचार्य ने प्रथम गाथा की टीका में काह है . .. निविकार स्वसम्वेदन जानेन शहात्म परिक्षा प्राप्तिर्वा प्रयोजनमित्यभिप्रायः । " इस समयसार ग्रन्थ का प्रयोजन यह है कि निर्विकार स्वसम्वेदन ज्ञान के द्वारा शुखात्मा का जानना व प्राप्ति है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) सद्दृष्टि जनः पुनरभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प फलस्थानीयं निश्कप्रनयमाश्रित्य शुद्धात्मामनुभवतीत्यर्थः । स. सा. जयसेनाचार्यं स वृ./ गा. ११ सम्यग्दृष्टि जीव पुन अभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधि बल से स्थानीय निश्चयनय का आश्रय लेकर शुद्धात्मा का अनुभव करता है । निश्चयनय किसके लिये सुद्धा सुद्धादेसी गायको परमभाव दरिमीहि । ववहार देसिदो पुण जे दु अपरमे द्विदाभावे । समाधबलेन स. सा. ग. १२ भूतार्थी निश्चयनयो निकल्पसमाधितवानां प्रयोजवान् भवति । किन्तु निर्विकल्प समाधि रहितानां पुनः षोडशवणिका सुवर्णलाभावाने अधस्तन वणिका सुवर्णलाभ त्वां चिन्प्राथमिकानां कदाचित् सविकल्पावस्थायां मिध्यात्व विषय कषाय दुष्यनवचनार्थ व्यवहार नयोषि प्रयोजनवान् भवतीति प्रतिपादयति तात्पर्य वृत्ति सुद्ध शुद्धनय निश्चग्नयः कथंभूत सुद्धादेसो मुद्रव्यस्या देश कथनं यत्र स भवति शुद्धादेशः । णादस्त्री सातव्यः भावयितव्यः केः परमभावदरसं हि शुद्धात्म गावदर्शिभिः । कस्मादिति चेत् यतः षोडशवर्णकाकार्तस्वराभवेद भेदत्रय स्वरुप समाधिकाले प्रयोजनो भवति । निःप्रयोजनो न भवतीत्यर्थः । ववहार देसिदो व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन पर्याणि दक्षितः कथित इति व्यवहार देणिती व्यवहार नयः पुनः पुनः अधरान वणिक सुवणं लाभवन्प्रयोजनवान् भवति। केषा जे ये पुरुषा दु पुन अपमद्धे असंवत सम्यदृष्टयपक्षया श्रावकाक्षया वा सराग सम्यादृष्टि लगे शुभोपयोग प्रमत्ताप्रमत संयतापक्षयाच भंद्र रत्नत्रय लक्षणे वा स्थिताः कस्मिन स्थिता ? भग्वे जीव पदार्थों तेषामिति माषार्थ । - स. पा. तात्पर्यवृत्ति गा. १२ " शुद्ध निषेचनय शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला है, वह परम मुद्धात्मा की भावना में लगे हुये पुरुषों के द्वारा अंगिकार करने योग्य है । परन्तु जां पुरुष अशुद्ध व नीचे क अवस्था में स्थित है । इनके लिये व्यवहार नय हो कार्यकारी है अर्थात उपाय है । निश्वं नय शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला है वह शुद्धता को शान हुये आत्मदर्शियों के द्वारा जानने-भावने अमांत अनुभव करने योग्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) है। क्योंकि वह सलवानी सुवर्ण के समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप समाधि काल में प्रयोजनवान होता है । किन्तु व्यवहार अर्थात विकल्प, चंद अथवा पर्याय के द्वारा कहा गया जो स्ववहार नय हैं वह पन्द्रह, चौदह आदि दानी के सुवर्ण लाभ के उन लोगों के लिये प्रयोजन हैं जो लोग अशुद्ध रुप शुभपयोग में जो कि असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक की अपेक्षा तो सराम सम्यग्दृष्टि लक्षणवाला हैं और प्रमत्त- अप्रमत्त संयत लोगों की अपेक्षा भेद रत्नत्रय लक्षणवाला है ऐसे शुभोपयोग या जीव पदार्थ में स्थित है 1 हार नय त्यागने से हानि यद्यपि व्यवहार नयी बहिर्द्रव्यावलंबनत्येन भूतार्थस्तथापि रागादि विरहित विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव सहितस्य परमार्थस्य प्रतिपादकत्वाद्दर्शयितुमुचितां भवति यदा पुनर्व्यवहार नयो न भवति तदा शुद्ध निश्चय नयेन स स्थावर जोबा न भवतीति मत्वा निःशकोपमर्दन कुर्वति जनाः । ततश्च पुण्यरूप धर्मामाद इत्येकं दूषणं तथैव नयन राग द्र मोह रहितः पूर्वभव मुक्तो जोवस्तिष्ठतोति मत्वा मोक्षार्थमनुष्ठानं कोsपित करोति तत्स्व मोक्षाभाव इति द्वितीयं च दूषणं । तल्माद् व्यवहार नय व्याख्यानमुचितं भवतीत्यभि गयः । म. सा. त. वृगा. ५१ गद्यपि व्यवहार नथ बहर्दव्य का मालवन लेने से अभूतार्थं हैं किन्तु रागादि बहिर्द्धव्य के आवन से रहित और विशुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वभाव के आलम्बन सहित ऐसे परमार्थ का प्रतिपादक होने से इसका भी कथन करना आवश्यक है क्योंकि यदि व्यवहार लय को सर्वथा भुला ( छोड ) दिया जाय तो फिर शुद्ध निश्चय नय से तो बस स्थावर जीव है ही नहीं । अतः फिर लोग स्वच्छंद. निःशंक होकर उनके मर्दन में प्रवृत्ति करने लगेंगे ऐसी दशा में पुण्य रूप धर्म का अभाव हो जायेगा एक दूषण तो यह आये। 1 तथा शुद्ध निश्चयनम से तो जब राग-द्वेष-मोह से रहित पहले से ही हैं अतः मुक्त ही हैं, ऐसा मानकर फिर मोक्ष के लिये भी अनुष्ठान कोई क्यों करेगा? अतः मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा, यह दूसरा दूषण आयेगा । इसलिये व्यवहार नय का व्याख्यानं परम आवश्यक हैं, निरर्थक नहीं है । ● आचार्य ज्ञानसागर हिंदी टी से उद्धृत परमार्थनय तो जीव को शहर और राग-द्वेष मोह से भिन्न कहता कहता हूँ | यदि किसी का एकांत किया जाये, तब शरीर तथा राग द्वेष Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) मोह से भिन्न पुद्गलमय ठहरे और तब पुद्गल की बात से हिंसा नहीं हो सकती हैं और राग-द्वेष-मोह से बध नहीं हो सकता है इस प्रकार परमार्थ से ससार और मोक्ष दोनों का अभाव हो जायेगा ऐसा एकान्ताप वस्तु का स्दा नहीं है । अवम्त का ४ान, ज्ञान और आचरण मिथ्या अवस्त रुप ही है इस लिये व्यवहार का उपदेश न्याय प्राप्त है । इस प्रकार स्थाद्वाद से दोनों नयों का विरोध रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व हैं । ५ जयचन्द्रीकृत हिन्दी टीका समयसार की दृष्टि में ज्ञानी व अज्ञानी. यद्यपि सम्यग्दर्शन होते के बाद आगम अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीत्र ज्ञानी है, परंतु अध्यात्मिक दृष्टि अर्थात समयसार दृष्टि से सम्पुर्ण पचेंद्रिय जनित विषध भोगों से रहित सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प से रहित अंतरग बहिरंग परिग्रह रहित निर्विकल्प इयान स्थित महामुनि ही ज्ञानी है उसमे अतिरिक्त उस अवस्था से हित नीचे-नोचे के गुणस्थानवर्ती जीव अज्ञानी है, क्यों कि जो शद्धात्मानुभूती रूप निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान, अनुभूति कप आत्मानंद का आस्वादन पूर्ण रूप से नहीं कर पाता है। यथायोग्य विषय कषाय पर पदार्थ में अनुरंजित होने के कारण वह अज्ञानी है । समयसार बाम शास्त्रीय ज्ञान को कोई प्रकार महत्व नहीं देता है अर्थात ज्ञानी नहीं मानता है। पंडिय-पंरिय-पष्टिया कणु छडि कि तुरा कडिया । अत्थे गथे तृदठोसि परमस्थ ण जाहि मूढो सि ।। पाहुद दोहा मुनि रामसिंह हे शब्द-अर्थ ग्रंथ से मंतष्ट को प्राप्त करने वाला परित! तु परमार्थ झा निना केवल मत है, अज्ञानी है, मिथ्य दृष्टि है। जैसे काण -हित तस की कटने पर उससे विशेष लाभ नहीं होता उसी प्रकार तू ने परमार्थ रहस्य को जाने बिना केवल शब्द ग्रन्थमे संतष्ट होकर ग य.ए दकर लचकदार भाषा से भाषण करके, पर मनोरंजन करके भी तूने कुछ विशेष लाभ प्राप्त नहीं कर पाया । कारण कि शब्द, अन्य में परमार्थ तत्त्व, धर्म अथवा अध्यात्मिक नहीं है वह केवल सूचना मात्र है। जैसे किसी रोगी ने औषधी का नाम लिखे हुए कागज को सेवन करने स उस रोग दूर नहीं होता हैं उसी प्रकार शास्म कण्ठस्थ करने से भवराग दूर नहीं होता है । जैस चित्रित कए से जल प्राप्त नहीं होता है एक प्यास भी नहीं बुझता है । चित्रित मिष्ठान्न व भोजन स जिन्हा को स्वाद नहीं मिलता है एवं पंट नही भारता है। जैसे मां बेटे को हाथ की अंगुली से पन्द्र को संकेत करती हे, दिखाती Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९) परन्तु च 'द्र अगली में नहीं, है, इसी प्रकार शास्त्र में परम तत्त्व का सकेन है । परम तत्व को दिखाता है किन्न परमतत्त्व नहीं है। जैसे पाणी के पात्र में सूर्य बिम्ब दिखाई देता है किन्तु मूर्य बिम्ब नहीं है किन्तु बहुत दूर में है उसको प्राप्त करने के किये तदनुकूल क्रिया करना आवश्यक है । जैस मानचित्र में देश-विदेशों का चित्र है परतु हम उस में ही देश विदेशों को इंग तो उसमें देश-विदेश नहीं मिल सकता है। उसी प्रकार शास्त्र में तत्वों का मान चित्र है किन्तु बधार्थ तन्य उनमें नहीं है उस सकत के अनुसार हम सम्यक क्रिया करेंगे तो उस ताव को प्राप्त कर सकते है जैस रोड । रास्ते) पर माईल स्टोत में नगरों का नाम एवं दुरं। एवं दिग् सूचित रहता है परंतु उस माईल स्टोन को पकाई कर बैठने पर उन - उन मगरों में नहीं पहुँच सकते है । उस भाईल स्टोन को छोडकर एव गमन करने पर ही उन-उन नगरों को प्राप्त कर सकते है उसः प्रकार शास्त्र में मोक्षादि सत्त्वों का वर्णन है उस वर्णन के अनुसार दि सम्पक आचरण करेगें तब मोक्षाष्टि तत्त्व की प्राप्ती हो सकती है। जैसे एक विद्यार्थी वाणिज्य विद्या | कॉमर्स' ) में स्नातकोत्तर ( 11. Con. ) होने के बाद भी वह कुपाल व्याग नहीं हो सकता है गणित हा का विद्यार्थी होने मात्र से वह सेठ नहीं बन सकता है। उम 'बधा के अनुकूल छपार करने पर ही धनोपार्जन कर सकता है। एक कुशल निरक्षर ब्यापारी व्यापार के माध्यम से सेठ बन सकता है। परन्तु साक्षरो वाणिज्य विद्या विशारद भी उस निरक्षरी सेठ का नोकर होकर कार्य करता है । अख्खर.हि जि गम्विया कारणु ते ण मणति । चंस विह था डोम जिम परहन्थडा धुणंति ।। पाहुड दोहा मुनि रामगिह कारण को नहीं जानने वाला रज मनुष्य का ज्ञान व्यर्थ है उसरों वह आत्मोन्नति नहीं कर सकता है। यह स्वावलंबी सप आत्मावलंबी नहीं हो सकता है। जैसे डोम ब्रांस से :हित होने के कारण अपना खेल दिखाने स्प कार्य नहीं कर सकता है 1 केवल हाथ धुनते रहता है उसी प्रकार शास्त्र के रहस्य को हृदयंगम नहीं करने वाला, आचरण में नहीं लाने वाला केवल हाथ मलते रहता है। सस्थं जाणं ण हदि जम्हा सत्यं ण याणदे किचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा विति ।। सद्दी गाणं ण हनदि जम्हा सहो ण याणदे किचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सई जिणा विति ।। स. सा./ गा. ४१४-४१५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) शास्त्र और ज्ञान एक नहीं है क्यों कि पास्त्र कुछ भी नहीं जानता है। वह तो जड है। इसलिये ज्ञान भिन्न वस्तु है और शास्त्र उससे भिन्न वस्तु है ऐसा जिन भगवान कहते है । शब्द भी ज्ञान नहीं है क्यों कि शब्द कुछ नहीं जानता है। इसलिन ज्ञान अन्य है और शब्द अन्य है। और शब्द उससे भिन्न वस्तु है ऐगा जिन भगवान कहते है। पुस्तकें न विद्या परहस्तेषु यदधनम् । उत्पम्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम् ।। चाणक्यनीति र्पण । इला. २७ जो विद्या कण्ठ में न रह कर पुस्तक में लिखी पडी है। जो धन अपने हाथ में न रहकर पराये हाथ में पड़ा है अतएव आवश्यकता पड़ने पर अपने काम नहीं आ सकती, बह विद्या न विद्या है और न वह धन, धन ही है ! जैसे एक कृषि विद्या में स्नात्तकोत्तर उत्तीर्ण होकर भी कृषि काय करने में अर्थात हल चलाने में, मिट्टी खोदने में, मिट्टी डाने आदि में असमर्थ भी हो सकता है। परंतु जो कृषक है जिसने कृषि विद्या संबधी विशेष आक्षरीक अध्ययम भी नहीं किया यह कृषि कार्य दक्ष होकर करता है। उसी प्रकार केवल शास्त्रज्ञ भी आत्मतत्त्व से, आत्म भावना से, धर्म- कम से दान पजादि कर्तव्यों के पालन करने में असमर्थ भी हो सकता है, और परामुख भी हो सकता है । उसी प्रकार अक्षरज्ञ पंडित के लिये वह शास्त्र विमेष कार्यकारी नहीं है । परंतु जो विशेष शास्त्रज्ञ नहीं है किन्तु आचरण मे धर्म को लाता है वह कृतकार्य हो सकता है। जैसे कि प्रथमानुयोग में शिवभूति, भीमसेन जैसे अनेक अक्षर ज्ञान से अनभिज्ञ मोक्ष को प्राप्त किये मिलते है। तथा ग्यारह अंग पाठी भी अपने कुकृत्यों से अधोगति-दुर्गति को प्राप्त हुये । जैसे केवल भोजन करने मात्र से शाक्ति वृद्धि नहीं होती है । भोजन यथार्थ पाचन से ही शक्ति वृद्धि होती है। उसी प्रकार शास्त्र को आत्मसात करके तदनकूल आचरण करने से ही आत्मविशुद्धि होती है। जैसे भोजन नहीं पचाने से उससे रोग ही बढता है उसी प्रकार शास्त्र को भी नहीं पचाने पर अर्थात आचरण में नहीं लाने पर वह भी अपाय आहार के समान अपत्य का अति विष का कार्य करता है। यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम । लोचनाभ्यां बिहीनस्य दर्पणं किं करिष्यति ।। - - नीति वाक्य Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) जसका विधवा मशा पदा नहीं है। उसके लिये शास्त्र कोई कार्यकारी नहीं हैं। जैसे दुष्टि रहित अंध के लिये दर्पण कोई कार्यकरी नहीं हैं । अर्थात दृष्टि शक्ति विना मनुष्य स्वच्छ दर्पण में भी अपना मुख नहीं देख पाता है उसी प्रकार हिताहित विवेक रहित मनुष्य भी शास्त्र से अपन आत्मस्वरुप को प्राप्त नहीं कर पाता है। विद्या वित्रादाय धन मदाय शक्ति परेषा परपीडमाय । बलस्य साक्षोविपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ।। खक दुर्जन व्यक्ति विद्या प्राप्त करके बिवाद करता हैं धन प्राप्त करको मदोन्मत्त हाता है, शक्ति प्राप्त कर के दूसरों को पीडा देता है, परतु साधु धर्मात्मा पृरुप विद्या प्राप्त करके हिताहित विवेक बित ज्ञानी बनता है, दान प्राप्त करके दान देता है, एवं शक्ति गप्त करके दूसरों की रक्षा करता है । जैसे अग्नि के द्वग भोजन तयार करके उससे शरीर की पुष्टि कर सकते हैं, और अग्नि को शरीर के ऊपर डालकर नष्ट भी कर सकते है। उसी प्रकार शास्त्र के माध्यम से आत्म विशुद्ध करने से शास्त्र, शास्त्र है अन्यथा वह शस्त्र है अति स्वयं काही घातक भी हैं। " अज्ञानिना निर्विकल्पसमाधि स्रष्टानां । " जो निर्विकल्प समाधि से भ्रष्ट है अर्थात निविकल्प समाधि म स्थिर नहीं हैं वह अज्ञानी है । और जो निविकल्प समाधि में स्थित है वह ज्ञानी है। _ निर्विकल्प समाधि परिणाम परिणत कारक समयसार लक्षणेन भेद ज्ञानेन सर्वारभापरिणतत्याजज्ञानिनो जीवस्य एवात्मप्रतीति संविस्युपलब्धनभूति रुपेण ज्ञानमय एव भवति । अजानिनस्तु पूर्वोक्त भेदज्ञानाभावात् शुद्धात्मानुभूति स्वरुपाभावे सत्यज्ञानमय एव भवतीत्यर्थः । जयसेनाचार्य । त. वृ ! गा. १३४ निर्विकल्प समाधिरुप परिणाम से परिणतर हने वाला जो कारण समयसार हैं लक्षण जिसका उस पेदज्ञान के द्वारा सभी प्रकार के आरंभ से रहित होने के कारण ज्ञानी जीव का वह भाव शुखात्मा की ख्याति प्रतीति, सवित्ति, उपलब्धि, या अनुभूति रुप से ज्ञानमय ही होता है । किन्तु अज्ञानी जीव को पूर्वोवत अदनान न होने से सुद्धामा की अनुभुति स्वरूप का अभाव होने से उसका वह भाव अज्ञातमय होता हैं । ___ जो आत्मा अनंतमान, दर्शन, अनंत सुख और अनंत धीर्य रुप चतृष्टय को प्राप्त है वह कार्य समयसार कहलाता है। किन्तु जो अनंत चतुष्टय को Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) प्राप्त न होकर उसकी प्राप्ति के लिये निविकाल्प समाधि में लगता है यह उपर्युक्त कार्यसमयसार का सम्पादक होने में के रण समयसार कहलाता है। जो सब प्रकार आरंभ परिग्रह आदि से रहित होकर अपनी शुद्धात्मा को अनुभूति लिय हमें रहता है अतः उसके राग-द्वेषादि रहित शुद्ध ज्ञानमय भाव ही होता है। किन्तु जो समाधि से च्युत होकार अशद्ध होता है । अत: उसका भाव उस समय अज्ञानमय होता है ऐसा आचार्य का कहना है । म सा. आचार्य ज्ञा सागर हिदी टी । का विशंधार्थ : गा. ५३२ '' आदा तावद् कत्ता सो होनि गादच्या नावकालं परमसमाधे मायाल म चाज्ञानी जोत्र. कर्मणा बारकी भवतीति ज्ञातव्यः" तब तक परम समाधि के न होने में यह जीव अजाना होता है जो की कमों का कम वाला होता है ऐसा समझना चाहिये ।। निविकार स्वसवेशन लक्षणे भेद ज्ञाने स्थित्वा भावना कार्येति तामेव भावना वृदयति । यथा को 5 प राज सेवक पुरुषो राजशभिः सह समग कुणि. सन् राजाराधको न भवति तथा परमात्मा 5 राधक पुरुषस्तत्प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व रागादिभिः परिणममानः परमात्माधिको न भवतीति भावार्थः । समयसार । त. वृ गा २०-२१-२२ निविकार स्वसंवेदन हैं लक्षण जिप्तका से भेद ज्ञान में निमग्न होकर भाधना करनी चाहिये । इसी बात को फिर दृढ करते है कि जैसे कोई राज पुरुष भी राजा के शशू ओं के साथ संसर्ग रखता है तो वह रजा का आराधक नहीं कहला सकता । उसी प्रकार परमात्मा की आराधना करने आला पुरुष आत्मा की प्रतिपक्षभूत जो मिथ्यात्य व रागादि भाव : उन रुप परिणमन करने वाला होता है तब वह परमात्मा का आराधक नहीं हो सकता यह इसका निचोड ! तात्पर्य ) हैं। जिरा प्रकार आत्मा से इतर पदार्थों में अहका खिने वाले को भी अप्रतिवद्ध बतलाया है उसी प्रकार उन म मम पर रखने वाला को भी अप्रतिबद्ध बताते हुये उन । ब से दुर हटकर ओवल निविकल्प समाधि में स्थिन होने वाले जीव को ही प्रतिबद्ध, ज्ञ नी एवं सम्यगदृष्टि कहा है। आचार्य ज्ञानसागरजी की हिन्दी टीका से उद्धृत निश्चयज्ञ कौन जा इन्दिये जिणित्ता पाणसहायाधिय मुदि आदि । त खल जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साह ।। मग यसार गा. ३६ में क्षेपक : कतीकर्माधिकार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) मिश्चय मे तत्पर रहने वाले अर्थात् आमा का अनामद करने वाले साध लोक ही जिनेन्द्रिय कहते है । जो इम्मियों को वश में करके अपने ज्ञानादि गगगों से परपूर्ण अपनी आत्मा का ही अनुभव वारता है । यकर्ता द्रवद्रि- 'भावेन्द्रिय पननेन्द्रिय विष गन् जित्वा शुद्ध ज्ञान चेनाना ग नेनाधिक परिपूर्ण गद्धात्मानं मन्तं जानात्वनुभवनि सचेतति । तं पुरुष बल स्फुटं जितेन्द्रियं भर्गान्त ते सायब: यो त ? निश्चयज्ञा । म. सा. जयसेनाचार्य । त.. गा. ३६ जी जीव द्रघंद्रिय-भावेन्द्रिय रुप पञ्चेद्रियों के पित्रों को जोतकर शुद्यमान चेतना गण से परिपूर्ण अपने शुखात्मा को मानता है, जानता. अनभव करता है। संतन करता है अति शुद्धास्मास समय होकर रहता है. उस पुरुष को ही निश्चय नय के जानने वाले साध लोग जितेन्द्रिय कहते हैं। यः पुरुष उदयाननं मोहं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रे काग्रयरुप 'नविकल्प समाधि लेन जिचा शनातगुणेनाधिक गांपूर्ण मान्मानं मनुते जानानि भावप्रति । तं साधं जितमोह रहितमोह परमार्थ विज्ञायया बुवन्ति कथयतीति । (स. सा. जयमेनाचार्यत, मा. ३६) जो रुप प्यमे आये हुये मोह को सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, मम्याचारित्र इन तीनों की एकाग्रता रुप निर्विकल्प समाधि के बल से जीतकर । अर्थाद दवाकर पा द्धनान गण के द्वारा अधिक अर्थात् परिपूर्ण अपनी आत्म को माना है, जानता है, और अन पत्र करता है उस साधु को परमार्थ के जाननेवाले । जिन मोह अर्थात् मोह से रहित जिन, इस प्रकार कहते है। आचार्य ज्ञानमागर जी का हिन्धि टीका से उद्धन) उपरोक्त आगम प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि वोवल शास्त्र-शास्त्र कण्ठस्थ करने से अध्ययन-अध्यापन करने से उपदेश देने से, शास्त्री की रचना एवं दीका करने से अथवा आत्म तत्त्व (निश्चय नय) का वर्णन करने से कोई निश्च । ज्ञ नहीं हो सकता। किन्तु जब भव्य सम्पादृष्टी जीय संमानशरीर भोगों से विरक्त होकर अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह को त्याग कर पञ्चेद्रिय विषम कषाय को जाकर परिषद उपसर्ग को सहन कर, कयायों का क्षय या उपशम करके. समस्त संकल्प-विकल्प से दूर होकर निर्विकल्प समाधि के मा प्रम में स्त्र युद्धात्मा को जानता है, मानता है, भावना करता है, वही निश्चया हं अन्य नहीं । अर्थात् सातिशय सप्तम गुणस्थानवर्ती से ऊपर के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) गुणस्थानवर्ती जीत्र निश्चयज्ञ हूँ। उसके नीचे के गुणस्थानवर्ती जीव निश्च यज्ञ नहीं है। पूर्ण निश्वज्ञ तो केवलज्ञानी अरिहंत एवं सिद्ध ही है। जो परिग्रहदि धारण करके स्त्री भांगकर, विजय कषायों में स्वपच होते हु अपने को निश्चयज मानना है वह रूक है। और उसी प्रकार गृहस्थ श्रावक की पंडितों को भी अथवा निर्विकल्प समाक्षिसे नीचे स्थित नयों को भा जो निश्ववज मानता है, वह भी अम के रहस्य को नहीं जाना वह भी अकारमय ही है। मुख्यरूप से समयसार किस के लिए " अत्र ग्रंथ वस्तुवृत्या बोतराग नम्वरदृष्टे द्रणं वस्तु चतुर्थ गुणस्था r नव न्यस्तस्य गणल्या गुफ स. सा. त. नृ २२ जयसेनावास इस ग्रंथ में वास्तविक चराग सम्यग्दृष्टि (ध्यानस्थ एव श्रेणी स्थित मुनि) का ही ग्रहण | परन्तु चतुर्थ गुणस्थानवती अविरत स्यदृष्टि का कन यहाँ गौण है । F ध्यान स्थित मुनि समयमारमे वर्णित विषयों का अनुभव करता है; आचरण करता है. अधान करता है। मानना है जानता है, इसलिये सम-सारका विषय मुख्य रूप से मुनियों के लिए हैं उसके नीचस्थ सम्बदृष्टि जन जैसे छ । गुणस्थान स्थित मुनि, पाँचवें गुणस्थानवर्ती देशी श्रावक एवं गुणस्थानबल असंयत सम्यग्दृष्टि जीव समयसार के पूर्ण आवरण न कर पाते है। चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव मुख्यवर्ती से श्रध्दान करता है किंतु आचरण में नहीं ला पाता है उसके लिये समयसार गोण है। सम्यग्वष्टि जीव केवलम्वी का श्रश्वान करता है परंतु पवेन्द्रियों के से विरत नहीं हो पाना है. भोग-उपभोग को भोगना रहता है, धनोबाजन के लिये व्यपार धंधा करके स और स्थावर का भी बध करता रहता है. मन सतत राग-द्वेष कामादि विषय वासना में रत रहता है, अत्यन्त स्थूल अणुव्रत भी धारण नहीं कर पाता हैं, उसका अन्तरंग - बहिरंग परिग्रह रहने के कारण उसका मन क्षुभित रहता है। मन और इन्द्रियों की वश करने में वह समर्थ नहीं हो पाता है जिससे वह स्थूल परिग्रह त्याग नहीं कर पाता है । जब वह उत्कृष्ट धर्म व पुण्यकर्म, शुभोपयोग भी नहीं कर पाता है तब वह कैसे अत्यन्त सूक्ष्म अन्तरंग परिग्रहों को त्याग करके मन को वर्ती करके कैसे निविकल्प ध्यान कर सकता है ? इसलिए समयसार के विषय को सम्यग्दृष्टि अदान करता है, किंतु आधरण नहीं कर पाता है, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका पोल अल नामिक पात्रों को बाहर बामे अदते हा अन्त रग-बहिरंग एग्रह को छोडो हुा आर्त-राद्र ध्यान को नष्ट करते म ध्यान का माते हुए मुनि म को घाण करते हुए निविकल्प भमाधि मे लोन होता है सब समयसार को प्राप्त कर सकता है। जब तक इस अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है तब तक यथायोग्य दान-पूजा-अभिषेक पड़ावश्यक, प्रनिकमण, प्रत्याख्यान, नीर्थ-पाया, देवदर्शन-जपतपमामायिक आदि शम क्रियायें करना चाहिये, जो कि आत्म-विशुद्धि के लिए कारण पाप निर्जर के लिये कारण पुरा प्रबंध का कारण. एवं परंपरा माक्ष के लिए कारण है । यदि श्रावक अवस्था में रहते हुए यथायोग्य श्रावकों की क्रियाओं को नहीं करता है यह इतोभ्रष्ट ततोभ्रष्ट अभ्यभ्रष्ट है। इसा प्रकार मुनि भी निविलम समाधि को प्राप्त नहीं करता है तब तक रसमलाण. देववादनाटि षट् आवश्यक निर्दोष पूर्वक पालन करना चाहिय, या: इन शुभ किओं मे पध होता है गा मानकर पाग का देगा तो वह भी उसयनल है. क्योकि धर-द्वार स्त्री कुटुम्बादि को छोडकर इसलंक सुख से वंवित है, तथा स्वातंत्र्य पालन नहीं करने से परलोक सुख से भी वंचित हो जायेगा । जो के पल संसारिक मुख भोगते हुए, परिग्रह की संचय करते हुए, स्त्री कुटुम्ब का सुख लेते हुए भोग से योग मानते हुए भक्ति से मुक्ति मानने हुए, संभोग से समाधि मानते हुए स्वयं को मोसनामो मुमुक्षु बीत रागी मानते हैं वह अपने को धोखा दे रहा है । क्योंकी उमरीन कार्य अहमा से विपरीत हान के कारण उससे मोहनीयादि तोत्र पाप बध होते है जिससे के बल संसारिक घोर दुःख हो दुःख मिलता है । " दो मुख पन्थी चले न पन्था, दो मृग्व मुई मिये न कन्था । दोय बात नहि होर मयाने, विषय भोग अरु मुक्ति पाने " गगदेषके त्याग विना याग्थ पद नाहीं । कोटि ग्रन्य पद्धो ध्याख्या क रोसब अकारज जाहि ।। समयसार क्या ? उसका अनुभव कौन कर सकता है ? कम्म बद्धमत जीवे तु जाण णयपखं । पातिकतो पूण भण्णति जो सो समयसारो ।। समयसार । गा १५० जीव मे क्रम बन्धे हुये है अथवा नहीं बन्धे हुए है इस प्रकार तो नम पक्ष जानो और जो पक्ष से दूरवर्ती कहा जाता है, यह समयसार है निर्विकल्प शुद्धात्म तत्व है। " ततो स एव समस्तं जयपक्षमासिक्रमति स एव समस्त विकल्पमक्ति Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) कामति, य एव समस्त विकल्पमतिकामति स य समयमार विति" (श्रीमहाभूतचन्द्राचायं मृत अात्मख्याति ) इस लिये जो समस्त नय्पक्षो को छाइता है, तथा वही सनयमार का अनभव कर सकता है। नयपातिक्रानो भग्यते यः स समयमार; शुद्धात्मा । तद्यथा-व्यवहारेण बद्धो जीव इति नथ विकल्प. गुरु जोत्र स्वस्पं न भवति निश्चयेनाबद्धो जीन इति च नय विकल्पः अद्ध जाद म्यरुप न मवति निश्चयव्यवहाराभ्यां बद्धाबद्ध जीव इति वचन विकल्पः शुद्ध जोध५३ न पशि . काविति । कुरा विकल्प नया इति वचनात् । श्रतजानं च क्षायोपशमिक क्षायोपशमस्तु शानावरणीय क्षायोपशभजनित तत्वात । यथिपि व्यवहार नयेन छपमस्थापेक्षया जीवस्वरूप मण्यते तथापि केवळ सानापेक्षया शुद्धीव स्वरूपं न भवती । तहि कथभूत जीवस्वरूपमिति चेत् ? यौसौ नवपक्षपात रहित स्वसंवेदन ज्ञानो तस्याभिषायण बद्धाबद्ध म्:-- मादि नय विकल्परहितं चिनदेव स्वभाव जीवस्वरुप भवतीति । (जयसेन आचार्य की तात्पर्यवृत्ति टीका गाथा १५) शुखात्म तत्व क बास्तविक स्वरूप जो की समयसार नामसे कहा जाता है वह है तो इन दोनो पक्षोंसे भिन्न प्रकार का ही हैं। क्योंकी व्यवहार नयके कहने के अनुसार जीव कॉमे बधा हुवा है जो की शुद्धजीवका स्वरुप नही है और निश्चपनय । जीत्र कर्मोसे अबद्ध है । वह मी नए का विकल्प है जो की शुद्ध जीवका म्वरुप ही है इसलिये निश्चय और व्यवहार के द्वारा जीव को बद्ध या अबद्ध कहना यह जीव मात्र का स्वरूप नहीं है। यह नय का विकल्प है। नय जितने भी होते हैं वह सब श्रुतज्ञानके विकल्प रुप होते हैं वह सिद्धांत की बात है । और श्रुतज्ञान है सो क्षायांप. शमिक है। वह भाय पगम झालाबोय कर्म के क्षायोपशमसे प्रकट होने के कारण अपि व्यवहारनय के द्वारा छमस्थ जीव की अपेक्षा से जीव का स्वाप होता है तथापि केवलज्ञान की अपेक्षा से वह शुद्ध जीद का स्वरूप नहीं है तब फिर जीव का स्वरूप क्या है इस प्रपन के होने पर आचार्य उत्तर देते हुये कहते है- नय के पक्षपात से रहित जो स्वसंवेदन ज्ञानी जीव है उसके विचारानुसार जोष का स्वरूप बद्धावद्ध या महामत आदि नय के विकल्पों में रहित चिदानंदम्वरुप हैं.सा हं। ण एक मुक्ता नयगक्ष यात स्वरुप गुप्ता निवसति नित्यं । बिकल्प जाल च्युन शांत चित्रास्तएव साक्षादमुतं पिबति ।। ६८ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) जो लोग नय के पक्षपात को छोडकर मदा अपने आप के स्वरुप मे तल्लीन रहते है एवं सम प्रकार के विकल्प जालसे रहित शांतचित्त वाले तें है । होते है वे लोग ही साक्षात् अमृत का समयसार पान एकस्य बीन तथा परम्य चितिपोवितियक्ष पालो । चिच्चिदेव ।।६९ ॥ यत्रवेदी च्युन पक्षपातस्तस्थास्ति नित्यं खल जोव व्यवहार नय की अपेक्षा से बद्ध होता है और निश्चय नय की अपेक्षा से बद्ध होता है। और निश्चरनयको अपेक्षा मे वह बद्ध नहीं होता है। अतः इन दोनो नयों के विचार में अपना-अपना पक्षपान है इसलिये पक्षपात रहित तत्ववेदी गुम्पके ज्ञान में तो वेतन नहीं है । 4 समयाख्यानकाले गं बुद्धिर्भयद्वयात्मिका । वर्तले बुद्धतत्त्वस्य म स्वस्थस्य निवर्तते ॥ मोपादेयतत्वे तु विनिश्चिच नयद्भयात् त्यक्त्वा देयम्पादेवस्थानं साधुसम्मतं ॥ ( स. सा. जयसेन यं त. वृ.) आगम के व्याख्यान के समय मनुष्य की बृद्धि निश्चय और व्यवहार इन दोनों मयों को लेकर चलती है। किन्तु लत्व को जान लेने के बाद स्वस्थ हो जानेपर उहापोहात्मक बुद्धि दूर हो जाती हैं। निश्वर और व्यवहार इन दोनों नयों के द्वारा य और उदय सवका निर्णय कर लेने पर हंस का या करके उप देय तत्व से लगे रहना साधु-संतों को अभीष्ट है आह्वान जिस करणी से हम हुए अनंत महान । उस करणी तुम करो हम तुम दोन समान । उपसंहारः समयसार वस्तुतः शास्त्र नहीं है, जो कि कुछ स्वर अजनात्मक वाय सेल है । वह तो एक परमोत्कृष्ट, अलकिक, अभीतिक अतिप्रिय, मातीत वचनातील अलाकार, मनासीत परमतत्व है वह परमतत्र वचन के अगोवर, शन से अवर्णनीय शास्त्र की सीमा से परे है, पीई की उसको हाय मे लेकर देख नहीं सकता है। सुक्ष्म अणुवीण दूरदशक यंत्र से देख Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं सकता है, भौतिक विन न शाला का अविषय है। वच, के अगौचर होते हुए भी जिसका कथन मानत अभ्यात्मिक दियाद न शान सीमा से परे हाने हुए भी जिसका वर्णन समस्त आध्यात्मिक शास्त्र करता है, जिसका प्रदर्शन करवाना असंभव होते हुवे भी समस्त आध्यामिक प्रशिक्षक जिसका ही प्रदर्शन कराते हैं, वह हा गरमा-कृष्ट स्य तत्व समयसार है। जिसका दर्शन चक्षु आदि इन्द्रियों से, मूक्ष्म शतशाली अणुदर्शक दूर दर्श यत्र से, तर्क, व्याकरण, छन्द, साहित्य, क्रान्य, नाटक, न्याय, दशन, आगम. आशस्मिक बाम्न से भी नहीं हो सकता है। उसका दर्शन निःशंक निरालम्बा अकिंचन महामुनि महज स्वभाषी निविकल्प परम्समाधि के माध्यम से करते है । जानक, जितकं. कुन, सूतक्र के अगम्य वाद विवाद कुवाद सुवाद के परे होते हुए भी जो सहज सरल महामुनि के वेदाम्य हैं । जी परम मनियों क" परम णन का विषय होते हुए भी स्वयं ध्यानातीत, जो निश्चय-त्र्यवहार, देव्य-पयांयात्मक नय वा विषय होते हुये भी स्वयं सर्व नयातीत है, जो निक्षेपों के विषय हाते हुये मी स्वयं निक्षपातित है, जो सर्व ज्ञेय पदार्थ को जानते हार मी स्वय अन्म झय स्वरूप नहीं, जा सर्व द्रव्य गयोग सहिन हने हुने भा वय असंग स्वरुप वह है, अतिवित्रिय अनि गृढ गद्ध स्वात्मतत्व । जो आमल्य होकर भी ग्रिलोक के मूल्य से भी खरीदा नहीं जा सकता, जो गुरुता से (भारोपना) रहित होकर भो लोक के गुरु है. जा सूक्ष्म हाक भः लोकालोक से भी अनन्त गण (ज्ञानापेक्षा। बड़ा है वह है महान तत्व स्वशुद्धात्म तःब । जो अगुमलघु (न भारी, न हल्का) होते हये 'भौं जिसको चलायमान करने में पिलोक की शक्ति असमथं, जो दूसरों को प्रतिरोध (अधानाध) नहीं करते हुये भी कोई उनको बाधा नही पहुंचा समता. जी मन बचन कार्य बलले हित होकर भी अनत्तवार्य है, वह स्वयम् सर्वशक्तिवान समयभार नत्व स्वशुकाम तत्व है । जो समस्त चर चर का दर्शक होते हुये भी स्वय मवदृष्टि के अगोचर, सर्व का दर्शन होते हो भी जा स्वयं अन क्षिायिक सम्यग्दृष्टि है वह शुद्ध बद्ध सदान आरमतत्त्र ममयमार स्वशुद्ध तत्व है। (जो मिथ्या देवादियों का दर्शन करता है वह मिथ्वादाट परंतु शुद्वारला, अनंनतर्गन से सबका दर्शन करते हुये भी क्षायिक अनन्त सम्यक्षवाला है। जो सुख में { काम-भोग इन्द्रिय जानन मूत्र से 1 हि होर भा जा त्रिकालवों नर-नरेन्द्र देव-देव-द्र, अमूर असर द्रादित्रों के मुख से भी अनत गणित प्रतिन्द्रिय, अव्य वाध. निग क्षा, आत्माय, निगकुल, ज्ञानानद रुप अमित सुख को अनभव करता है वह अति शान्ति, सुखी, आत्मोपमांगी, महेन्द्र, विष्णु, मकर, शुद्ध वृद्ध-प्रबुद्धा अपातिक चिज्योतिस्वर.प, आनंद धन स्वरुप Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) यकाल ध्रुवतत्व विशद्ध आत्मतत्व ही नग्नय से समयसार है। जो दूसरों का तो कभा स्मरण नहीं करता है पर जिनका स्मरण मुनिन्द्र, देवेन्द्र नरन्द्रादि करते हैं वह परमेश्वर, प्रविम अहन विष्णु पूज्यपाद, परमाराध्य त्रिलोक पूज्य स्वशुद्ध तप, उत्कृष्ट परमोपदेय द्रव्य समयसार है। यः स्मधेने सर्व मुनीन्द्र वृन्दैः यः सूयते सर्वतरामरेन्द्रः । या गीयते वेद पुगण शास्त्रः स देव देवो हृदये ममास्ताम् ।। भा द्वा. १२ ।। यो दर्शन जान सुख स्वभावः समस्त संसार विकार बाह्यः ममाधिगम्यः परमात्म्स ज्ञः स देवदेवा हुदये । म नाम् ।। भा. द्वा. १३ । यो व्यापको विश्व जनीन वृत्ते: मिड़ी विबुद्धी द्युत कर्मबन्धः । ष्यातो घुनीता सफल विकार म देवदेवो हृदयं ममास्ताम् ।। भा. द्वा. १३ ।। निमल: केवल: सिद्धो विवियत प्रभुक्षय । परमेष्टी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ।। समाधिपतकम् ६ ।। नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासत । चित्स्वभावाय भावाय सर्व भावान्तर विवे ।। अमृतकलश १ ॥ उपाध्याय मुनिश्री कनकमनि ७-११-८७ धर्मकी परीक्षा प्रथा सुवर्ण परिक्ष्यते घर्षण छेवन ताप ताउनः ।। धर्मो विदुषाः परीक्ष्यते श्रुतेन शोलेन तपदयागुणः ।। जैसे सुवर्णको घर्षण, छेदन, अग्निमे तपना, एवं ताडना से परीक्षा करके शुझसुवर्ण ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी धर्म को शास्त्रसे, शीलसे, तपसे एवं दया गुण से परीक्षा करके पाद्ध धर्म को ग्रहण करता है। मर्थात् जिस धर्म में अविरोध शास्त्र है. शील है, तपश्चर्या है, दया धर्म है चही धर्म मस्यधम हे अन्य धर्म कुधर्म है । अज्ञानी, मिथ्यादिष्टि, बुद्धिहीन जन प्यादिहीने धर्मको स्वीकार करते है, जानी, सम्यग्दृष्टि बुद्धिमान जन नहीं । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मः कल्पवृक्ष धर्म कल्पवृक्षस्य अहिंसा दृढमूल: सुरत्न त्रयः स्कंधः क्षमादि दिव्य शाखाः । समिति सुमन शोभे गुप्तित्रयः पराग: अमृतफलं दिव्यः नित्यानन्द रसाल: ।। सरस्वती स्तव सर्वज्ञदेव तनुजा शुद्ध शुभ्रगात्री विज्ञान हंसवाहिनी वेद-चतुर्भुजी। स्थाद्वादबीणा अनेकान्त धर्मधारिणी जगत जननी नमो अमृत वर्षणी ।। सर्वज्ञद्दोद्भुतः पवित्र तीर्थः पूनी अनेकान्तः वहुर्मि स्याद्वाद कलध्वनी ।। अहिसा स्वच्छगात्री भन्यानां तीर्थमूर्ती: ___ ससार ताप ही भव्यानां मोक्षदाश्री ।। अमृत नीति विनयसमं न नीति स्वाध्याय सम तप: स्वरुचिसमस्वाद: प्रेमसमान वन्धः न क्षमापमं शास्त्रं लोमसमान पाएं धैर्य समानं शक्तिः त्रैलोक्ये नान्य अन्य ।। स्वाधीन सुरणं परमेव सुखं भोगसमं रोग न अन्य क्वचित । रत्नत्रयधारी समं न श्रीमान् भारवाही पारेव धनवान् ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवसम वेवसेन आचार्य को अद्वितीय व्यक्तित्व एवं कृतित्व को विषय-सूची -विषय पृष्ठ -विषयदर्णनसार १ एकान्त नियतिवादी जनाभास २ प्रत्येक कार्य के लिए '५ काष्ठासंघ २ कारणों की आवश्यकता श्वेताम्बर संघ २ मिथ्यात्व में बन्ध द्राविक संघ ३ सासादन गणम्यान यापनीय संघ ३ मिन गुणस्थान निपिकिछक संघ ४ अविरत सम्बन्ट गणस्थान निमित्त उपादान से कार्य होता है देश विरत {श्रावक। नयचक्र ५ अण्ट पूलगुण नय . श्रावक के पद आवश्यक निश्चय-व्यवहार नय १२ देवरा आलाप पद्धति १४ जिनदर्शन महिप श्रुप्तभवन दीपक नयचक्र जिन चैत्य-च-यालय का स्वरूर ६८ (आध्यात्मिक नय)नयपक्षातीत ५ अकृत्रिम चैत्य । तत्वसार २४ जिनेंद्रपूजा विधि पंचमकालमे भावन्निगी मुनियोंका अभिषेक पूजा का फल सद्भाव (मनि निवास) २५ अरिहंत भवितसे तिथंकर नाम पंचम कालमे मुनियोंकी १ वर्ष का कर्म बन्न तपस्या चतुर्थ कालगे १०० वर्ष गरूपास्ति के समान है २७ धावत्य न करने में दोष पंचम कालके अन्तम तक भाव यायत्त्य का प्रयोजन व फर लिगीमुनि २८ वयावृत्त्यसे तिर्थकर नाम कमका आराधना सार ३० बन्ध ध्यान का पात्र ३१ स्वाध्याय भावसंग्रह (देवसेन के स्वयं देव संयम होने का प्रायोगिक मार्ग) ३. तप मिथ्यात्व मे बन्ध ४२ दान एकान्त कालवादी ४६ दानांश ba ८२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -विषय पृष्ठ -विषय- पृष्ठ दान अभावसे दोष ५० परत फिनिवत्ति दान पूजादि कथा पाप बन्धका शुक्ल ध्यान कारण ९. पंचम कालम क्यानाव भुकेवली । पाप-पुःय ९३ हो सकते है? १३२ पुण्य का ना ९६ पाभ प्रियाओंमे कम निर्जरा १४२ सालम्धन एवं निरालाइन शान ९६ शुभाए पागका स्वरूप गृहस्यका उष्ट धर्मध्यान हो पाश्रवके कारण होनेका कारण २७ पुण्य फल अप्रमन गुण थान में मुनिओं को पापका स्वरूप निरालम्ब ध्यान ९८ पापानका कारण छवा गुणस्थान सकल संयमी १०० पाप बन्ध का कारण मनिका स्वरुप १०० सम्यग्दर्शन घातक व्यक्ति १४८ मनियों का कर्तव्य १०२ पास फल यम नियमोंका फल १०३ पाप अत्यन्त हेय है १५२ शोपयोग एवं पुण्यपार १. पुण्य त्याग करने योग्य व्यक्ति गद्धात्म भनि १५२ परमध्यान का पर्यायवाच। किनके पुण्य हय है। ११८ पाप भी उपादेय है वीतराग निर्विकला समाधी १२५ घ्यानावस्था-अप्रपत्त गुणस्थान पंचम मुणस्थानवर्ती मलम्थोंमें अपूर्वक ण गुणस्थान १६७ हाने योग्य ध्यान १२२ अनियनिकरण गुणस्थान ध्याताका लक्षण सूक्ष्मसांपराय मुणस्थान आज्ञाविचय धर्म यान १३३ उपशान्तमोह गुणस्थान अपायविचय धमध्यान १३३ क्षीणोह गत स्थान १६८ विपाकविचन धर्मध्यान १३४ जीवनमपत गुणस्थान सस्थानविचय धर्मध्यान १३४ शैलेश १६१ पत्रकाचविलकं वीचार शुक्लध्यान १३४ अरहत का विधाष वर्णन एकत्ववितर्क बोचार शुक्लध्यान १३५ सिद्धावस्था मूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान १३५ उपसंहार शब्दार्थ १७१ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः ।। - तस्य भुवणेषक गुरुणो णमो अणेर्गतकायस्स - देवसम देवसेन आचार्य का अद्वितीय व्यक्तित्व और कृतित्व परम जिनागम रहस्य ज्ञाता उभय भाषावित् नय चक्र संचारक धुरन्धर, अक्षुण्ण चारित्र पालनॅक धोर, मूल संघ कुन्द कुन्द आम्नाय के समर्थ पोषक एवं प्रचारक महा प्राज्ञ देवसेन आचार्य जैन धर्मके एक अलौकिक ज्योतिपुंज थे। उनके वर्तमान उपलब्ध निश्चय व्यवहार समन्वयात्मक अनेक बेजोड ज्वलन्त कृतिसे उनका व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से प्रतिभाषित होता है। आचार्य प्रवर समन्वय अनेकान्तवादी होते हुए भी मिथ्या मत का सम्यक् खण्डन करके सत्य धर्म का प्रतिपादन स्पष्ट एवं निर्मग्र रुप से अपनी समस्त कृति में यत्र तत्र किये हैं। कृतित्वसेही व्यक्तिका व्यक्तित्व पहिचाना जाता है इस न्यायानुसार उनके द्वारा रचित वर्तमान उपलब्ध कुकृतियों के माध्यम से उनका व्यक्तित्व का हम अवलोकन करेंगे उनकेद्वारा रचितशास्त्र निम्नलिखित है। १) दर्शनसार २) नय चक्र ३) आलाप पद्धती ४) श्रुत भवन दीपक नय चक्र ५) तत्वसार ६) भावसंग्रह ७) आराधनासार, इतने शास्त्र उपलब्ध है। धर्मसंग्रह पुस्तक अप्राप्य है। १) दर्शनसार दर्शनसार एक लघुकृति प्राकृत दोहा बद्ध शास्त्र है। इसमें मूल आम्नाय के समर्थक प्रचारक एवं पोषक देवसेन आचार्य ने जैनाभासियोंका उत्पत्ति काल एवं उनके शिथिलाचार के बारे में ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक वर्णन किये हैं। भाव संग्रह में आचार्यश्रीने समस्त मिथ्यामत एवं श्वेताम्बरो का सविस्तृत खण्डन किये हैं। दर्शनसार में भाचार्य श्रीने पांच जनाभासियोंका वर्णन किया है Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाभास गोपुच्छक श्वेतवासा द्रविडोयापनीय । निष्पिच्छश्चेति से पञ्च जैनाभासाः प्रकीर्तिताः । १) गोपुच्छक (काष्ठा संघ) २) श्वेताम्बर ३) द्राविड ४) यापनीय ५) निपिच्छिक (माथुर) ऐसे पांच प्रकार जैनाभास कहे गये हैं। १) गोपुच्छक ( काष्ठा संघ) - प्रासीकुमार सेणो णंदियडे विणय सेणा दिक्खिओ। सण्णास भंजणेण अगहिय पुणदिक्खओ जादो ।।३३।। सत्तसए तेवण्णे विक्रम रायस्स मरणपत्तस्स । णंदियड़े बरगामे कट्टो संघो मुणेयन्वी ।।३। णंडियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्त्थ विण्णाणी । कट्टो दसण भट्टो जादो सल्लेहणा काले ।।३।। आचार्य विनयसेन के द्वारा दीक्षित आचार्य कुमार सेन जो संन्यास से भ्रष्ट होकर पुनः गुरु से दीक्षा न ली और सल्लेखना के समय दर्शन से भ्रष्ट होकर नन्दितट ग्राम में (वि. सं. ७५३ में) काष्ठासंघी हो गए। काष्ठासंघ में मूलसंघ के विरुद्ध सिद्धांत - कुमार सेन ने मयूर पिछी का त्याग कर तथा चमरी गाय की पूंछ के बालों को ग्रहण कर सारे बागड़ प्रांत में उन्मार्ग का प्रचार किया । उसमें स्त्रियों को पूर्ण दीक्षा देना, क्षुल्लकों की बीर्य चर्चा, मनियोंको कडे बालों की पीछी रखना और रात्रि भोजन त्याग नामक छठे गुणव्रत का विधान किया। उन्होंने आगम, शास्त्र, पुराण प्रायश्चित ग्रंथों को कुछ और ही प्रकार रचकर मूर्ख लोगों में मिथ्यात्व का प्रचार किया । इस संघ में भोपुच्छ की पीछी रखने के कारण इसे गोपुच्छ संघ कहा जाता है। २) श्वेताम्बर संघ - श्वेतवस्त्रधारी, स्त्रीमुक्ति, केवली कवलाहारी आदि को माननेवाले प्रसिद्ध श्वेताम्बर संत्र का वर्णन स्वयं देवसेन आचार्य भाव संग्रह में वर्णन करेंगे इसलिये उसका विशेष कथन नहीं कर रहे हैं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३) द्राविड संघ J सिरि गुज्जपाद सीसो दाविड़ संघस्य कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो ||२४|| दर्शनसार अप्पा सुथ चयाणं मक्खणदी वज्जिदो मुणिदेहि । परियं विवरीयं वग्गणं नोज्जं ॥ २५ ॥ दर्शनसार पीजीटी उत्पसणं णत्थि फासुन णत्थि । सावज्जं ण हुमण्णइ ण गणइ हि कप्पियं अठ्ठे ॥ २६ ॥ कच्छ खेतं वसहि वाणिज्जं कारिकण जीवंतो । हंतो सीयलणीरे पात्रं पडरं स संजदि ॥ २७॥ पंचसय छब्बीसे विक्कम रायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिण महराजी दाविध संघो महामोहो |२७|| दर्शनसार 1 श्री पूज्यपाद या देवनंदि आचार्य के शिष्य दुष्ट ब्रजनंदि दाविड़ संघ को उत्पन्न करनेवाले हुए । ये ग्रंथो के ज्ञाता और महान प्राभृत सत्यधारी थे। मुनिराजों ने उन्हें अप्राक या सचित्त चनों को खाने के लिय रोकें । परंतु वे नहीं माने और भ्रष्ट होकर विपरित प्रायश्चित आदि ग्रंथों की रचना की । उनके मतानुसार बीजों में जीव नहीं होते, मुनियोंको खड़े होकर भोजन लेने की विधि नहीं है। कोई वस्तु प्रासुक नहीं है । वह सावद्य भी नहीं मानते थे और गृह कल्पित अर्थ को भी नहीं मानते थे। कच्छार क्षेत्र वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए और शीतल जल में स्नान करते हुए उन्होंने पापोंका संग्रह किये। विक्रम राजा की मृत्यु के प्रचुर वर्ष बीतने ५२६ पर दक्षिण मथुरा में यह महामोहरूप द्राविड संघ उत्पन्न हुआ । ४) यापनीय संघ 1 कल्लाणे वरणयरे सत्तसय पंच उत्तरे जाये । J ३ जावणिय संघ भावो सिरी कलसादो हु सेवडदो ||२९|| दर्शनसार यापनीयास्तु बेसरा इवो भयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पंच चाचयन्ति स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं केवलि जिनानां कवलाहार, पर शासने सग्रन्थानां मोक्षंच कथयन्ति । J Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण नगर में विक्रम राजा की मृत्यु के ७०५ वर्ष बीतने के बाद तथा दूसरी प्रति के अनुसार २०५ वर्ष बीतने के बाद श्रीकलश नापक श्वेताम्बर साधु द्वारा यापनीय संघ का उद्भव हुआ। यापनीय संघवाले दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों को मानते है, रत्नत्रय को पूलने हैं, कल्पश्रुत को पढ़ते हैं, स्त्रियों को उसी भव में मोक्ष मानते हैं, के वलियों को कवलाहार मानते हैं । परमत वालों ( मिथ्यात्व वादियों को) और परिग्रह धारियो को भी मोक्ष बताते हैं। ५) निपिच्छिक संघ - (माथुर संघ) तत्तो दुसए तीदे महुराए माहुराण गुरुणाहो । णामेण रामसेणो णिप्पिच्छं वण्णियं तेण ॥४०॥ सम्मत पडि मिच्छंतं कहियं जं जिणिद बिबेसु । अन्य यरणिठ्ठिएसु य ममत्त बुद्धीए परिवसणं ॥४१॥ एमो मम होऊ गुसो अवरो णस्थि त्ति चित्त परियरणं । सग गुरू कुलाहि माणो इयरेमु वि भंग करणंच ॥४१॥ काष्ठा संघ के २०० वर्ष पश्चात विक्रम सं. ९५३ मे मथरा नगरी में माथुर संघ के प्रधान गुरु रामसेन हुए। जिन्होंने निपिच्छ रहने का उपदेश दिए। उन्होंने अपने और पराये प्रतिष्ठित किए हुए जिनविम्बों की ममत्व बुद्धि के द्वारा न्यूनाधिक भावों से पूजा वंदना करने एवं यह मेरा गुरु है दूसरा नहीं है इस प्रकार के भाव रखने और अपने गुरु कुल का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मान भंग करने के लिये सम्यक्त्व प्रकृति रुप मिथ्यात्व का उपदेश दिये। पिच्छे ण हु सम्मत्तं कर गहिए मीर चमर डंबरए । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायवो ||१|| सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य । समभाव भावियप्पा ल्हेय मोक्खं ण संदेहो ।।२।। मोर पंख या चमरी गाय के बालों को पिच्छ हाथ में लेने से सम्यक्त्व नहीं है । श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बुद्ध हो या अन्य कोई Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी हो, समभाव से भायो गयो आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करती है इसमें संदेह नहीं । निमित्त उपादान से कार्य होता है - ___इस संघ का मानतः स्जद शशिकानारी निश्नमाभासीय है, क्योंकि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यान्तर कारण से होता है। जैसा कि ताकिक शिरोमणि स्वामी समन्त भन्न ने स्वयंभू स्तोत्रमें कहा है बाह्यतरोपाधि समग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां, तेनाभिवंद्यस्त्वमषिबूधानाम ॥६०।। प्रभाचंद्राचार्य की टीका - बाह्येत्यादि । बाह्य च इतरश्चाभ्यन्तर: तौ च तो उपाधीच हेतु उपादान सहकारि कारणे तयोः समग्रता संपूर्णता । इयं प्रतीयमाना क्वः कार्येषु घटादिषु । ते तत्र मते । कथम्भूता सा? द्रव्यगत: स्वभाव: जीवादि पदार्थगतमर्थ क्रियाकारि स्वरुपं । अन्यथा एतस्मात्तत्समग्रतातत्स्वभावता प्रकारात् अन्येन तदस्वभावता प्रकारेण । नैव मोक्ष विधिश्च । च शब्दोऽपि शब्दार्थः । न केवलं घटादि विधानं नैवान्येन प्रकारेण घटते किंतु मोक्षविधिरपि । पुंसा मुक्यर्थिनां । यत एवं तेन कारणेन अभिवंद्यस्त्वं बचानां गणधर देवादीनां विपश्चिता। कथम्भूतः? ऋषिः परमद्धि सम्पन्नः ।। बाह्य कारण अर्थात निमित्तकारण एवं आभ्यान्तर कारण अर्थात उपादान कारणों की परिपूर्णता से ही कार्य की उत्पत्ति होना यह द्रव्य का स्व स्वभाव है अर्थात जीवादि पदार्थगत अर्थ क्रियाकारित्व के लिये दोनों कारणों का समन्वय होना अनिवार्य है। जैसे घट रुप कार्य के लिये योग्य मिट्टी उपादान कारण है एवं कुंभार, चक्र, पानी, चीवर आदि बाह्य कारण है । यदि केवल योग्य मिट्टी है परतु बाह्य योग्य कुंभारादि कारणों का अभाव होने पर मिट्टी घट रुप परिणमन नहीं करती है । उसी प्रकार योग्य कुंभारादि के सद्भाव होने पर भी योग्य Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिट्टी के अभाव में भी घट की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। यदि इसी प्रकार नहीं मानेंगे तो प्रत्यक्ष आगम विरोध प्राप्त होगा । बाह्य निमित्त कारण के अभाव से भी मिट्टी स्वयमेव ही घट बनती है ऐसा मानने पर समस्त मिट्टी स्वयमेव घट रुप परिणमन हो जाना चाहिये किंतु इस प्रकार उपलब्ध नही हं ओर अनुपलब्ध को ही उपलब्ध मानना मिथ्यात्व है । उसी प्रकार केवल बाह्य निमित्त से कार्य होता है। तो कुंभारादि बाह्य निमित्त से घट बनता है मानने पर मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती तथा कुंभारादि के हाथ, पैर आदि ही घट रुप परिणमन कर जाना चाहिए किंतु ऐसा भी उपलब्ध नहीं है। केबल लोकिक घटादि कार्य के लिये दोनों कारणों का सदभाव चाहिये ऐसा नहीं किंतु अलौकिक अभूतपूर्व महान कार्य मोक्ष के लिये भी दोनों कारणों का समन्वय अनिवार्य है । मोक्ष के लिये रलत्रय परिणत स्वात्मा उपादान कारण है एवं बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, कालादि, निर्ग्रन्थ मुनि लिंग आदि निमित्त कारण है । अन्तरंग परिणाम एवं बहिरंग साधनों के माध्यम से मोक्ष रूप कार्य सिद्ध होता है । आध्यात्मिक सम्राट मूल आम्नाय के कर्णधार कुन्दकुन्द आचार्य अष्टपाहुड में बताये हैं - णवि सिज्झदि वत्थधरो जिणसासणे जह वि होइ तित्थयरो। णगो विमोक्लमम्गो सेसा उम्मग्गया सब्वे ।।२३।। जिन शासन में वस्त्रधारी तीर्थकर को भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। एक केवल निर्ग्रन्थता ही मोक्ष मार्ग है अन्य सर्व उन्मार्ग हैं, कुमार्ग हैं। जैसे आचार्य कहे हैं -- कारण द्वयं साध्यं न कार्य मेकेन जायते । द्वन्द्वोत्पाद्यमपत्यं किमेकेनोत्पद्यते क्वचित् ॥ जो कार्य दो कारण से होता है वह कारण से नहीं हो सकता है । जैसे पुत्र उत्पत्ति रुप कार्य माता पिता रूप दो कारणों से होता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार अन्तरंग चारित्र एवं बाह्य चारित्र रूप कारण से ही मोक्ष प्राप्ति रुप कार्य हो सकता है । अन्यथा नहीं । इगरिहालित थ दो मूल का: शिथिलाचार, मनो कल्पित सिद्धांत, हठग्राहितावादी । यदि अंतरंग में परिग्रह की इच्छा नहीं है तो बाह्य में परिग्रह कदापि नहीं हो सकता। यदि बाह्य म परिग्रह है तो अन्तरंग में मूर्छा है ही। इसी प्रकार प्रायः एकान्त निश्चय आध्यात्मवादी करण चरण को छोड़कर स्वछन्द होकर संसार वृद्धि करते हैं। इस प्रकार देवसेन आचार्य ने दर्शनसार में दर्शन विषयक कलंक धोकर निर्मल दर्शन प्राप्त करने का वर्णन किये हैं। २) नयचक्र - वर्तमान उपलब्ध नय विषयक स्वतंत्र कृति आचार्य देवसेन की है । आचार्य देवसन द्वारा नय चक्र में गाथाएँ प्राकृत भाषा में है । इस नय चक्र में आचार्य श्रीने सम्पूर्ण नयों का आगमानुसार संक्षिप्त वर्णन किया है । आचार्य श्री अपने काल में नय विषयक ज्ञान में अत्यंत दक्ष थे । द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नय चक्र के कर्ता माइल्ल धवल ने देवसेनाचार्य कृत नय चक्र के अवलम्बन से ही नय चक्र की रचना की। सिय सछसुणय दुग्णय दणुदेह विदारणेक्क वर वीरं । तं देवसेण देवं णय चक्कयरं गुरुं णमह ।।४२३॥ द्रव्य स्वभाव प्रकाशक दव्य सहाव पयासं दोह्य बंधेण आसि जं दिह्र । तं गाहा बंधेण रइयं माइल्ल धवलेण ।।४२४॥ , , सुसमीरणेण पोयं पेरथं संतं जहा तिरणटुं । सिरिदेवसेण मुणिणा तह णय चरक पुणो रइयं ।।४२५।। , , स्यात् शब्द से युक्त सुनय के द्वारा दुर्नयरूपी दैत्य के शरीर को बिहारण करने में एक मात्र बीर नय चक्र के कर्ता उन देवसेन नामक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव को नमस्कार हो । इससे सिद्ध होता है कि देवसेनाचार्य नय विषयक मर्मज्ञ महाप्राज्ञ विद्वान थे उन्होंने सुनय चक्र के माध्यम से दुर्नय स्पो मोहान्धकार स्वरूप देत्य को नाश क्रिये थे अर्थात जैन धर्म का सम्यक् प्रचार प्रसार उन्नयन किये थे ।।४२३।। द्रव्य स्वभाव प्रकाशक दोहा में रचा हुआ था उसको माइल्ल धवल ने गाथाबद्ध किया || ४२४।। अनुकूल बायु के द्वारा प्रेरित हुआ जहाज तैरने में समर्थ होता है वैसे ही श्री देवसेन मुनि ने नयचक्र पुनः रचा। इससे सिद्ध होता है उस समय की परिस्थिति से प्रेरित होकर आचार्य श्रीने पुनः नयचक्र को रचा । अन्य प्रति में स्थित अन्य गाथा - दुसमीरणेण पोयं पेरियसंतं जहा तिरं नहूँ । सिरि देवसेन मुणिणा तह णय चक्कं पुणो रइयं ।। दुःषम काल रुपी आंधी से मंसार सागर से पार उतारने वाला जहाज के समान जो नय चक्र चिरकाल से नष्ट हो गया था उसे देवसेन मुनि ने पुन: रचा । इससे सिद्ध होता है कि नयचक्र विषयक उस समय शास्त्र था परंतु दुःकाल के कारण वह शास्त्र नष्ट होने से धर्म वात्सल्य से प्रेरित होकर जिन शासन की रक्षा प्रसार प्रचार के लिये एवं मिथ्या नयों का निरसन करने के लिये आचार्य श्रीने संसार से पार उतारने के लिये जहाज के समान, एक नवीन नय चक्र रचा। जैन धर्म एक पंथ व वाद नहीं है जैन धर्म वस्तू स्वभाव सहज सरल स्वभाव प्राकृतिक धर्म है । वस्तु सत्त स्वरूप होने से त्रिकाल अवाधित एवं शाश्वत है । वस्तु अनादि अनंत है एवं जैन धर्म वस्तु स्वभाव धर्म है उसी कारण जैन धर्म शाश्वतिक अनादि अनंत प्राकृतिक सहज सरल धर्म है । प्रत्येक वस्तु अनंत गुण पर्याय होने से प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है इसलिये जैन धर्म भी अनेकान्तात्मक है । अनंत गुण पर्यायात्मवा वस्तु को जानने के लिये अनंत ज्ञान भी चाहिये। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो अनंत ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ हैं वे ही वस्तु को पूर्ण यथार्थ रूप से जान सकते हैं अन्य कोई असर्वज्ञ नहीं जान सकते हैं। सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान सम्यग्ज्ञान होनेरो वस्तु जैसी है उसी प्रकार हैं। परंतु दिव्यध्वनि में युगपत सम्पूर्ण गुण पर्यायों का वर्णन नहीं हो सकता इसलिये दिव्यध्वनि भी नयात्मक हैं । जैसे कि स्याद्वाद्वरि सिद्धसेन दिवाकरने सन्मति सूत्र में कहा है तित्थयर वयण संगह विसेस पत्थार मूल वागरणी । दवडियो य पज्जबणयो य सेसा वियप्पा सिं ॥३॥ तीर्थ कर के वचन सामान्य विशेषात्मका है। सामान्य रूप से मूल व्याख्यान करनेवाला वचन द्रव्याधिक नय है। विशेष रुप का प्रतिपादन करनेवाला मूल व्याख्यान पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी मय इन दो नयों के भेद है इसलिये द्रव्यार्थिक अर्थात् निश्चय नय भी मानसी पर वार में प्राषिक नय भी सत्य है। नय : जं णाणीण वियप्पं सुयत्रेयं वत्थूयंस संगहणं । तं इह जयं पउत्तं णाणि पुण तेहि गाणेहिं ॥२।। नय चक्र जह्या ण णएण विशा होइ णरस्स सियवाय पडिवत्ती । तह्मा सो बोहब्बो एतं हतुकामेण ।।३।। नयचक्र नय :- ज्ञानी का जो विकल्प हैं उसे नय कहते हैं अथवा श्रुत ज्ञान के भेद को नय काहते हैं अथवा वस्तु के एक अंश ग्राही को ज्ञानियों ने नय कहा है । इसलिये नय न पूर्ण ज्ञान है न अज्ञान है परंतु ज्ञानांश है । नय में द्रव्य का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है और नय अन्यथा वस्तु का प्रतिपादन करता है केवल वस्तु अंशग्राही होता है ।।२।। नय के बिना स्याद्वाद की सिद्धी नही होती है इसलिये स्याद्वाद सिद्धि के लिये एवं एकान्त खण्डन के लिये नय विषयक ज्ञान अनिवार्य है क्योंकि "णयमूलो अणेयंतो” अनेकांत का मूल नय है ॥३॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस्तु अनेकांत स्वरुप है । अनेकांत को जाननेपर ही वस्तु के स्वरुप को जान सकते हैं। जब वस्तू के स्वरुप को जानेंगे तभी सम्यगृष्टि हो सकते हैं । जब सम्यगृष्टि होंगे तभी मोक्षमार्गी होंगे। जं णयदि विहीणा तेसि ण हु वत्थुरुव उवल द्धिः । वत्थु सहाब विहूणा सम्माइट्ठी कहं हुति ।।१०।। नय चक्र । नय दृष्टि से विहीन व्यक्ति वस्तु स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता है वस्तु स्वभाव रहित जीव सम्यगृप्टी नहीं हो सकता है ।।१०।। एअंतो एअणओ होइ अणेयंतमस्स सम्महो । तं खल णाणवियप्पं सम्म मिच्छ च णायव्वं ॥२|| नयचक्र एक नय एकांत स्वरूप है सम्पूर्ण नयों का सम्यक् समन्वय अनेकांत है । नय और अनेकांत दोनों ज्ञान के विकल्प हैं। तो भी एकांत नय मिथ्या है और अनेकांत सम्यक् है । वह भले द्रव्यार्थिवा या निश्चय नय हो अथवा पर्यायाथिक या व्यवहार नय हो ये दोनों निरपेक्ष होने से दोनों मिथ्या एवं अवस्तु स्वरूप हैं । सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति सूत्र में कहे हैं -- दबट्ठिय वत्तव्वं अवत्थु अवत्थु णियमेण पज्जब णग्स्स । तह पज्जव वत्थु अवत्युमेव दवट्ठिय णयस्स ।।१०॥ द्रव्यार्थिक नय का सामान्य कथन पर्यायाथिक नय के लिये नियम से अवास्तविक है। इसी प्रकार पर्यायाथिक नय का विषय द्रव्यार्थिक नय के लिये अवास्तविक है। क्योंकि विवक्ष भेद से दोनों नयों के विषय भिन्न भिन्न हैं। दोनों ही नय एक ही वस्तु के विभिन्न स्वरुप को ग्रहण करते हैं। कथञ्चित्- दोनों नय परस्पर एक दूसरे के विषय को ग्रहण कर सकते हैं क्योंकि दोनों नय सापेक्ष हैं । द्रव्याथिक मय सामान्य हैं और पर्यायाथिक नय विशेष है 1 अतएव एक दूसरे के विषय को अवस्तु Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानने के कारण ये दोनों नय भिन्न भिन्न हैं। उदाहरण स्वरूप समयसार मे कुन्द कुन्द देव कहते है-- ववहारेणु बदिस्सइ गाणिस्स चरित्त सणं गाणं 1 णवि णाणं ण चरित्तं ण दसणं जाणगा सुद्धो 11७11 From the vyavahara point of view, conduct. belief and knowledge are attributed (as different characteristics) of the knower, the self. But from the real point of view there is no (differentiation of ) knowledge, conduct and belief, in Pure selt. ध्यबहार नय की अपेक्षा ज्ञानी का चारित्र, दर्शन, ज्ञान है किंतु निश्चय नय की अपेक्षा ज्ञानी का ज्ञान दर्शन चारित्र नहीं है केबल एक ज्ञायक शुद्ध स्वभाव है ॥७॥ इस गाथा में दोनों नयों का विरुद्ध विषय प्रतिपादन है जैसे कि शानी का चारित्र आदि है किंतु निश्चय नय की अपेक्षा ज्ञानी का चारित्र आदि नहीं है तो निश्चय नय की अपेक्षा चारित्र आदि नष्ट हो गए क्या? यदि चारित्र आदि नष्ट हो जायेंग तो आत्म द्रव्य ही नष्ट हो जागेगा, परंतु ऐसा है नहीं । सद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा चारित्र आदि भेद है, तथा शुद्ध नय की अपेक्षा अभेद से एक ज्ञायक स्वभाष में अन्तर्भत किया गया है । व्यवहार अपेक्षा तीन भेद होकर परस्पर अलग अलग द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में रहते है क्या? नहीं परंतु गुण-गुणी भेद से भेद है। इस प्रकार दोनों नयों का परस्पर विरोध और समन्वय हुआ। दुसरा उदा, - " सव्वे सुद्धा हु सुद्ध णया" शुद्ध द्रव्याधिक नय की अपेक्षा से प्रत्येक जीव शुद्ध, बुद्ध, नित्य निरंजन, अनंत दर्शन ज्ञान स्वरुप हैं । परंतु पर्यायाथिक नय की अपेक्षा अभव्य लध्य पर्याप्तक जीव अनंत मोही, अज्ञानी. दुःखी हैं । द्रव्य दृष्टिसे वह भी सिद्ध के समान होते हुए भी पर्याय रुप से वह कभी सिद्ध हो सकता है? कदापि नहीं । इससे सिद्ध होता हैं निरपेक्ष द्रव्याथिक नय भी मिथ्या है परंतु शक्ति Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ रुप से उस अभव्य में जो गुण है वे सर्वथा कभी लोप हो सकते हैं? कभी नहीं । यदि लोप होगा तो जीव ही अजीव बन जायेगा ऐसा कभी संभव नहीं है । इसलिये वस्तु का स्वरुप प्रतिपादन करने के लिये एवं धर्म प्रचार-प्रसार के लिये, आत्म उद्धार के लिये दोनों नयों की परम आवश्यकता है । यथा - — निश्चय व्यवहार नय जई जिणमयं पत्रज्ञ्जइ ता वा ववहार णिच्छा भुयह । एक्केण विणा हिज्जइ तिथं अणेण उण तच्चं ॥ — यदि जिनधर्म का प्रचार-प्रसार प्रवर्तन करना है एवं आत्म उद्धार करना हैं तो केवल एकांत व्यवहार का पक्षपाती मत बनो इसी प्रकार केवल एकांत निश्चय का भी पक्षपाती मत बनो । यदि व्यवहार को नहीं मानेंगे तब संसार से उत्तीर्ण होने रुप जो व्यवहार तीर्थं ह उसका लोप हो जायेगा और जिसके कारण आत्मोपलब्धि रूप निश्चय धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती है । यदि निश्चय को नहीं मानेगें तो व्यवहार धर्म के माध्यम से जिस परम तत्व को प्राप्त करना है उस परम तत्व का लोप हो जायेगा फिर उस व्यवहार धर्म के द्वारा किस तत्व को प्राप्त करेंगे । समयसार के गुप्त रहस्य को उद्घाटित करनेवाले, कुंदकुंद साहित्य रुपी सागर में अवगाहन करनेवाले समयसार के आद्य टीकाकार आध्यात्मिक संत अमृतचन्द्र सूरि तत्त्वार्थं सार में कहते हैं: निश्चय - व्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ मोक्षमार्ग दो प्रकार का है । (१) निश्चय मोक्षमार्ग ( २ ) व्यवहार मोक्षमार्ग | निश्चय मोक्षमार्ग साध्य रूप है जिसे प्राप्त करना है जो कार्य स्वरूप है। द्वितीय व्यवहार मोक्ष मार्ग साधन स्वरुप हूँ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ जिसके द्वारा साध्य रूप निश्चय मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है समर्थ कारण से कार्य होता है अर्थात् साधन से साध्य सिद्धि होती है इस न्यायानुसार व्यवहार मोक्ष मार्ग के द्वारा निश्चय मोक्ष मार्ग की उपलब्धि होती हैं । व्यवहार मोक्ष मार्ग बिना निश्चय मोक्ष मार्ग त्रिकाल में अनुपलब्ध ही रहेगा । पंडित शिरोमणि चतुर अनुयोग पारंगत निश्चय-व्यवहारज्ञ आर्ष परम्परा संरक्षक संस्कृत के महान धर्मामृतादि अनेक मौलिक कृति के रचयिता आचार्यकल्प आशाधरजीने अनगार धर्मामृतम लिखे हैं : व्यवहार पराचीनः निश्चयं यः चिकीर्षति । बीजादि बिना मूढः सः शस्यानि सिसृक्षति || व्यवहार से जो विमुख होकर जो निश्चय को चाहते हैं वे मूढ हैं जैसे कि एक मूड बीज के बिना वृक्ष को चाहता है अर्थात जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष नहीं हो सकता है उसी प्रकार व्यवहार के बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं हो सकती है । इसलिये अमृतचन्द्र सूरि पुरुषार्थं सिद्धि में कहते हैं - व्यवहार निश्चय यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनाया: स एव फलम विकलं शिष्यः || २ || पुरुषार्थ सिद्धि जो व्यवहार और निश्चय में ज्ञानी होकर अर्थात दोनों नयों कों अच्छी तरह समझकर कोई भी नयों का पक्षपाती नहीं होकर मध्यस्थ होते हैं अर्थात यथायोग्य दोनों को मानते हैं वही योग्य शिष्य हैं वही उपदेश प्राप्त करने के लिये योग्य हैं । अन्य हठग्राही, पक्षपाती जन उपदेश के पात्र नहीं हैं || वेवसेन आचार्य तयचक्र को समाप्त करते हुए लिखते है - जह इच्छत् उत्तरिदुं अज्झाण महोर्वाह सुलीलाए । तो णादुं कुणह मई णय चक्के दुणय तिमिर मत्तण्डे ||२६|| नयचक्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ यदि अज्ञान रूपी महासमुद्र को लीला से तरने की इच्छा है तो नयचक्र को जानने के लिये मति को नयचक्र में प्रवेश कराओ। दुर्नय रुपी अंधकार को नष्ट करने के लिये सम्यक् नय सूर्य के समान है ॥२६॥ इसी प्रकार देवसेनाचार्यने गुरु परंपरा से प्राप्त सम्पूर्ण नयों उपनयो का वर्णन इस लघुकृति नयचक्र में समावेश किये हैं । सुप्रसिद्ध नीति - गागर में सागर यहाँ लागू नहीं होती किंतु बिंदु में सिंधु है यह नीति इसनय चक्र में लागू होती है । जिस अनेकांतवाद को बड़े बड़े दिग्गज आचार्य विनम्र नतमस्तक होते हैं उस भगवंत अनेकांत को को स्वलेखनी से जीवंत प्रकट करनेवाले पूज्यपाद देवसेन आचार्य को मेरा विनम्र अनंत नमस्कार हो । ३) आलाप पद्धत्ति देवसेन आचार्य की तीसरी कृति संस्कृत सूत्र बद्ध नय विषयक शास्त्र आलाप पद्धति है । बहुश: देवसेन आचार्य ने नयचक्र लिखने के पश्चात् आलाप पद्धति की रचना की उसकी निम्नसूत्र से पुष्टि होती है — — आलाप पद्धतिर्वचन रचना ऽनुक्रमेण नय चक्रस्योपरि उच्यते ॥ १ ॥ आलाप पद्धति अर्थात् वचन की पद्धति नय चक्र के आधार पर मैं ( देवसेन आचार्य ) कहता हूँ । इसको पुनः स्वतंत्र लिखने का कारण मंद बुद्धि जनों के सुखबोधन के लिये है । आचार्य श्रीने आलाप पद्धति की समाप्ति में कहा है। - इति सुखबोधार्थ मालाप पद्धतिः श्रीमद्देवसेन विरचिता परिसमाप्ता ॥ इसमें गुण, पर्याय, स्वभाव, नयों, उपनयोंका अनूठा वर्णन है । इसमें भी आध्यात्मिक नमों, आगम नयों का वर्णन है । जैसे — पिच्छय बवहार गया मूलमभेया गयाण सव्वाणं । णिच्छय साहण हेऊ दब्बय यज्जस्थिया मुणह् ॥ ४॥ आलाप पद्धति सामान्य रूप से समस्त नयों के दो भेद हैं १) निश्चय नय २ ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार नय ! उनमें से निश्चयनय की सिद्धि के लिये द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ये दोनो नय कारण है ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा है । आध्यात्मिक दृष्टि से नय दो प्रकार है। १) निश्चय २) व्यवहार तत्र निश्चयनयोऽभेद विषयो, व्यवहारो भेद विषय ॥२१६॥ १) निश्चय नय – अभेद विषयो ज्ञेय: यस्य सः निश्चय नयः । २) व्यवहार नय - भेदेन ज्ञातुं योग्यः सो ब्यवहार नयः । निश्चय नय का विषय अमेद है । यबहार गाविस विशेष भेद स्वरुप है। जैसे :- गुण-गुणी पर्याय-पर्यायी, धर्म-धर्मी भेद नहीं करके अभेद रुप से जो नय ग्रहण करता है उसको निश्चय नय कहते हैं । जैसे:-आत्मा गुणी, ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्यादि गुण हैं उन ज्ञान-दर्शनादि को अभेद करके केवल आत्मा ग्रहण करना निश्चय नय है। आत्मा में ज्ञान, दर्शनादि है इसी प्रकार भेद करके अथवा आत्मा ज्ञानवान, दर्शनवान ग्रहण करना व्यवहार नय का विषय है। सामान्य से आत्मा एक होते हुए भी ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि से अनेक है । इसलिये दोनों नय स्वक्षेत्र में यथार्थ हैं। आध्यात्मिक नय (४) श्रुतभवन बीपक नय चक्र : नयचक्र धुरन्धर आचार्य देवसेनने पूर्वोक्त दोनों नय विषयक शास्त्रों में मुख्यतः आगम भाषा में तथा गौण रुप से आध्यात्मिक भाषा में नयों का वर्णन किये हैं। आगमन होने के पश्चात् आध्यात्मिक साम्राज्य में प्रवेश करने के लिये आचार्य श्रीने " श्रुत भवन दीपक नय चक्र" का प्रतिपादन किया किया है । यह नय चक्र संस्कृत गद्य पद्यात्मक शैली में हैं देवसेनाचार्यने शास्त्र प्रारंभ में इष्ट देव वर्धमान स्वामी को नमस्कार पूर्वक श्रुत भवन दीपक नय चक्र को प्रतिपादन करने के लिये प्रतिज्ञा की है । आचार्य श्रीने मंगलाचरणमें ही प्रतिज्ञा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की । " गाथार्थरयाविरोधेन नयचक्र मयोच्यते " अर्थात में गाथा के अर्थ से अविनय चक्र को कहता हूँ । एक छंद में कहते हैं :जिशिमत मधा रत्नशैलादपापा, दिह हि समयसाराबुद्ध बुद्धया गृहीत्वा । प्रहलघन विमोहं सुप्रमाणादिरत्नं श्रुत भवनसुदीपं विद्धि तद्वयापनीयम् ।।२।। जिनेन्द्र भगवान के मतपो भूमि में समयसार रुपी निर्दोष पवित्र रत्नपर्वत को बुद्धि के द्वारा अच्छी तरह समझकर, गाढ़ मोह को नष्ट करनेवाले तथा सम्यक् प्रमाणादि रत्नोंबाले "श्रुत भवन दीपक नय चक" को प्रकाशमान करने के उद्देश्य से लिखता हूँ ॥२॥ इसके पश्चात् समयसार की ११, १२, १४३ वी गाथाओं का उल्लेख किया है ववहारोऽभुदत्थो भूवत्थो देसिदो दु सुद्ध णओ । भदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥११॥ समयसार प्रथम व्याख्यान को अपेक्षा : व्यवहार नय अमूतार्थ है किंतु शुद्ध निश्चय भूतार्थ है । भूतार्थ का अवलम्बन लेकर जीव सम्यग्दृष्टि होता है ॥११॥ द्वितीय ध्यास्यान की अपेक्षा : ___ द्वितीय व्याख्यानेन पुन: व्यवहारो अभूदत्थो व्यवहारोऽभूतार्थों भदत्यो भूतार्थश्च देसिदो देशितः कथितः । न केवलं व्यवहारो देशित; सुद्धणओ शुद्ध निश्चय नयोपि दु शब्दादयं शुद्धनिश्चय नयो पीति व्याख्यानेन भूता. भूतार्थभेदेन व्यवहारोपि द्विधा शुद्ध निश्चयाशुद्ध निश्चय भेदेन निश्चयनयोपि द्विधा इति नय चतुष्टयं । (श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्य वृत्ति) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्यवहार नय अभूनार्थ भी है और भूतार्थ भी है ऐसे दो प्रकार का कहा गया है अब केवल व्यवहार नय ही दो प्रकार का नहीं है किंतु ( सुद्धणओ ) निश्चय नय मी शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय के भद से दो प्रकार है एसा गाथा में आये हुए ' दु' शब्द से प्रगट होता अथ पूर्वगाथायां भणितं भतार्थ नयाश्रितो जीव: सम्यग्दगिटभवति । अथ तु न केवल भूतार्थों निश्चय नयो निर्विकल्प समाधिरतानां प्रयोजनवान् भवति । किंतु निर्विकल्प समाधिरहितानां पुनः पोइषणिका सुब लाभाभावे अधस्तन वणिका सुवर्ण लाभवत्यैषांचित्प्राथमिकानां कदाचित् सांवकल्पावस्थायां मिथ्यात्व विषय कषाय दुध्यान वंचनार्थ व्यवहार नयोपि प्रयोजनवान् भवतीति प्रतिपादयति - ( श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्य वृत्ति ) यहाँ इस पूर्वोक्त गाथा मे कहा गया है कि भूतार्थ नय को आश्रय लेकर ही सम्यग्दृष्टि होता है किंतु इस माथा मे स्पष्टीकरण करते है कि निर्विकल्प समाधि में निरत होकर रहनेवाले सम्यग्दृष्टियों को भूतार्थ स्वरूप निश्चय नथ ही प्रयोजनवान हो ऐसा नहीं है परंतु उन्ही निर्विकल्प समाधिरतों को किन्हीं किन्ही को कभी सविकल्प अवस्था मे मिथ्यात्व विषय कषाय रूप दुर्ध्यान को दूर करने के लिये व्यवहार नय भी प्रयोजनवान होता है जैसे किसी को सोलहवानी के सुवर्ण का लाभ न हो तो नीचे के ही अर्थात पन्द्रह चौदहवानी का सोना भी सम्मत समझा जाता है। ऐसा कहते है - मुद्धो सुद्धादेसो णायन्वो परममाव दरिसीहि । बवहार देसिदो पुण जे दु अपरमें ठिादाभावे ।। १२ । समयसार सुद्धों शुद्धनयः निश्चय नयः कथंभूतः सुद्धादेसी शुद्धद्रव्यस्यादेशः कथनं यत्र स भवति शुद्धादेशः । णादन्यो ज्ञातव्यः भावयित्वः कः परमभाव दरसीहि शुद्धात्मभाव दशिभिः । कस्मादिति चेत् यतः षोडषणिका कार्त स्वरलाभ बद भेद रत्नत्रय स्वरूप समाघि काले सप्रयोजने भवति निःप्रयोजनो न भवतीत्यर्थः । बवहार देसिदो व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पर्यायेण दर्शितः कथित' इति व्यवहार देशितो व्यवहार नय: पुणे पुनः अधस्तनणिक सुवर्ग लामवस्त्रयोजनवान् भवति । . जे | पुरानाः दु पून: अपरमें अशुद्ध असमत सम्यग्दष्टया पेक्षया श्रावकापेक्षया वा सुराग सम्यादृष्टि लक्षणे शुभोपयोग प्रमत्ताप्रमत्त संयतापेक्षया च भंद रत्नत्रय लक्षणे वा ठिदा स्थिताः कस्मिन् स्थिता: ? भावे जीव पदार्थ तेरामिति भावार्थः । ( श्री जयसेनचायं कृत तात्पर्य वृत्तिः ) — सुद्धोसुद्धादेसो ' शुद्ध निश्चय नय शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला है । गादयो परम भाव दरसीहि । वह वाद्धता को प्राप्त हुए आत्मशियों के द्वारा जानने भावने अर्थात् अनुभव करने योग्य है। क्यांकि बह सोलह वानी स्वर्ण के समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप समाधि काल में प्रयोजनवान होता है। (वबहारदेसिदो कित व्यवहार अर्थात् विकल्प, भेद अथवा पर्याय के द्वारा कहा गया जो व्यवहार नय है वह (पुण ) पन्द्रह, चौद: वानी के स्वर्णलाभ के समान उन लोगों के लिये प्रयोजनवान् है । ( जे) जो लोग ( अपरमे हिटदा भावे ) अशुद्ध रूप शुभोपयोग मे, जो कि असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक की अपेक्षा तो सराग सम्बग्दृष्टि लक्षण वाला है और प्रमत्त अप्रमत्त संयत लोगों की अपेक्षा नंद रत्नत्रय लक्षण वाला है ऐसा शूभोपयोग रूप जीव पदार्थ में स्थित है। अथ नय पक्षालिक्रांतस्य शुद्ध जीवस्म नि स्वरूपमिति पृष्टे सति पुनविशेषण कथयति । दोपहपि णयांण भणियं जाणइ गरि तु समयपडिबद्धो। ण दु णयं पर्वखं गिण्हदि किंचि विजयपत्र परिहीणो ।।१४३॥ समयसार योसी नये पक्षपात रहितः स्वसंवेदन ज्ञानी तस्यातिप्रायेण बद्धाबद्ध मृदामूढादि नये विकल्प रहित चिदानंदैक स्वभाव । दोपह वि णयाण भणिय जाणई थी, भगवान् केवली निश्चय व्यवहाराभ्यां द्वाभ्यां भणित मर्थ द्रव्य पर्याय रूप 'जानति । गरि तु पडिबद्धो तथापि नवरि केवलं Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महज परमान देक वा बन्य समयस्य प्रतिबद्ध आधीनः सन् णय पक्व परिहीणो सतत समल्ल मन के गुलज्ञानरुपतया श्रुत ज्ञानावरणीय क्षयोपशम जनित विकल्प जाल रूपान्नमय पश्चपाताद् दूरीभूतत्वात् ण दु णय पयखं गिण्हदि किषि बि न तु नय पक्ष विकल्पं किमप्यात्म रूप तया गृण्हाति तथायं गणधर देवादि उद्भस्थ जनोपि नयद्वयोक्तं वस्तु स्वरूपं जानाति तथापि नबरि ओवलं चिदानंदैव स्वभावस्य समयस्य प्रबिद्धत आधीनः सन् श्रुत ज्ञानाबरगीय क्षयोपशम जनित विकल्प जालरूपान्नय वय पक्षपातात शुद्ध निश्चय न दूरीभूत त्वान्नय पक्षपात रूपं स्वीकार विकल्पं मिविकल्प समाधिकाले शुद्धात्म स्वरुषतया न गुण्हाति । अथं शुद्ध पारिणामिक परम भाव ग्राहकेण शुद्धद्रव्याथिक नयेन नय विकल्प स्वरूप समस्त पक्षातिकांत समारे इये। यिति । ( श्री जयसेनाचार्य कृत तात्पर्य वृत्तिः ) दोण्हवि णयाण भणिय जाणइ' जो कोई नयों के पक्षपात से दूर स्वसवेदन ज्ञानी है वह बद्ध अबद्ध मूद अमूद आदि नय के विकल्पों से रहित चिदानंदमयी एक स्वभाव को उसी प्रकार जानता है जैसा भगवान केवली. निश्चय नय तथा व्यवहार नय के विषय द्रव्य पर्वाय रूप अर्थ को जानते है । ' णवरि तु समय पडिबद्धों' किंतु सहज परमानंद स्वभाव जो शुद्धात्मा उसके आधीन होते हुए केवली भगवान् ( नय पाख परिहीणो) निरन्तर केवल ज्ञान के रुप में वर्तमान होने से श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले विकल्प जाल रूप जो निश्चय नय और व्यवहार नय उन दोनो नयों के पक्षपात से रहित होने के कारण ( ण दु नय पक्खं गिण्हदि किचिवी ) किसी भी नय के पक्षरूप विकल्प को कभी स्विकार नहीं करते अर्थात् उम छूते नहीं है । वैसे ही गणधर देव आदि छयस्थ महर्षि लोम भी दोनों नयों के द्वारा बताये हुए वस्तु के स्वरूप को जानते अवश्य है फिर भी चिदानंदेक स्वभाव रूप. शुद्धास्मा के आधीन होते हुए अर्थात् शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करने में लीन होते हुए श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विकल्पों का जाल हेप जी दोनों नयों का पक्षपात उस से शुद्ध निश्चय के द्वारा दूर होकर मय के पक्षपात रूप विकल्प को निर्विकल्प समाधिकाल मे अपने आत्म रूप से ग्रहण नहीं करते है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस से सिद्ध होता है कि निश्चय नय का अवलम्बन ध्यानावस्था में स्थित अप्रमत्तादि गुणस्थान वर्ती महामुनि के लिये है जब तक बह अवस्था प्राप्त नहीं होती है तब तक उस अवस्था को प्राप्त करने के लिने व्यबहार नय आवश्यक है । व्यबहार रनत्रयका प्रतिपादवा व्यवहार नय है एवं निश्चय रत्नत्रय का प्रतिपादक निश्चय नय है । व्यवहारोड सकल्पना निवृत्यर्थ सद्रत्नत्रय सिध्यर्थच । सदरत्नत्रयेण तु परमार्थ सिद्धिः । ( श्रुतभवन दीपक नपचक्र ) व्यबहार से अमकाल्पना की निवृत्ति होती है एवं सद् रत्नश्य की सिद्धि होती है। स्वभाव सिद्धस्य परमार्थस्य कथं तेन सिद्धिरिति वक्तव्यं । सद् रत्नत्रयात्सर्वथा भेदे निश्चय भावः । सर्वथात्वादभेद व्यवहारो मा अदिति कथंचिद् भेदेन तेन सिद्ध इति वचन । ( श्रुतमवन दीपक नयचक्र) शंका :- स्वभावसिद्ध परमार्थ की सिद्धि व्यवहार से कैसे हो सकती है ? समाधान :- व्यवहार का सदरत्नत्रय से सर्वथा भेद मानने पर निश्चय का भी अभाव हो जायेगा, तथा सर्वथा भेद को मानने पर अभेद का व्यवहार भी नहीं हो सकेगा, अत: कञ्चित् भेद मानने पर हो उसकी सिद्धि होती है - ऐसा आचार्यों का वचन है । एबमात्मा यावद् व्यवहार निश्चयाभ्यां तत्त्वनुभवति तावत्परोक्षानूभुति । प्रत्यक्षानुभुतिनय पक्षातीता । ( श्रुतभवन दीपक नयचक्र ) जब तक अह आत्मा व्यवहार और निश्मय इन नयों के द्वारा तत्त्व का अनुभव करता है, तब तक परोक्षानुभूति रहती है, प्रत्यक्षानुभूति नय पक्षातीत है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहाँव वावपि सामान्येन पूज्यतां गतौ न । झवं व्यवहार पूज्यतरत्वानिश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् । ( श्रुतभवनदीपक नयचक्र ) शंका:- यदि ऐसा है तो दोनों ही नय सामान्यरूप से ही पूज्यत्व - को प्राप्त होंगे। समाधान:- नही, व्यवहार नम तो पूज्यतर है, लेकिन निश्चय नय पूज्यतम है 1 नयपक्षातीत: यथा सम्यग्ध्यवहारेण मिथ्या व्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयम व्यवहार विकल्पोति निवर्तते । यथा निश्चयनयेन व्यवहारा विकल्पोपि निवर्तते तथा म्बपर्यवसित भावेनेकत्व विकल्पोंपि निवर्तते । एवं हि जीवस्य बो सौ स्वपर्यवसित स्वभाव स एव नय पक्षातीतः । ( श्रु. में, दी. नय, ) जिस प्रकार सम्यक् व्यवहार से मिथ्या व्यवहार का निराकरण होता है, उसी प्रकार निश्चय के द्वारा व्यवहार का विकल्प भी निवृत्त होता है तथा जिस प्रकार निश्चय नय द्वारा व्यवहार का विकल्प निवृत्त होता है उसी प्रकार स्वयंवसित स्वभाव ( परम निरपेक्ष स्वाश्रित स्वभाव ! के अवलम्बन से एकत्व का विकल्प भी छूट जाता है। इस प्रकार जीव का जो स्वपर्यवसित स्वभाव है वह नय पक्षातीत है । शुभाशुभ मंचर हेतु क्रममाह :जह व णिरुद्धं असुहं सूहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण । सम्हा एण कमेण य जोई झाएउ णियआदं ।। ३४७ ।। द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र | जैसे शुभ के द्वारा अशुभ का विरोध होता है शुद्धोपयोग के द्वारा शुभ कर्मों का भी विरोध होता है । इसलिय योगी को पहले अशुभ का त्याग कर शुभोपयोगी होना चाहिये शुभोपयोग बढते बढ़ते आत्म विशुद्धि बढती है और शुद्धोपयोग मे स्थिर हो जाता है तब शुभ कर्मों का भी संवर हो जाता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवती बतमादाय प्रती ज्ञानपरायणः । परमात्मज्ञानसम्पन्न: स्वयमेव परो भवेत् 11 ८६ ॥ समाधि शतक अन्नती सराग चारित्र रूप मुनि धर्म को स्वीकार करके भेद ज्ञान सम्पन्न होकर आत्मा में लीन होता है उस समय स्वयमेव ही समस्त सकल्प विकल्प व्रत, अव्रत निश्चय व्यवहार से परे होकर निर्विकल्प रुप परमात्म स्वरुप बन जाता है। यह परमात्म पद प्राप्त करने का त्रिकाल अबाधित परम सत्य सिद्धांत है । गीतक जो अनंत सिद्ध हए, सिद्ध हो रहे है, आगे होंग, वे सभी इसी मार्ग के द्वारा ही हए है अन्य कोई दुसरा मार्ग नहीं है। उदा. :-- आमरस का आस्वादन करना लक्ष्य है तो उसके लिये पहले बीज चाहिये । बीज से वृक्ष, योगावस्था, प्राप्त होनेपर वृक्ष मे फूल आते है फुल से कैरी, करी से अपक्व आम, उसमे रस पश्चात् आस्वादम होगा । जिस समय रस का आस्वादन होता है उस समय न बृक्ष, न फूल न कच्चा आम, न गुटली आदि रहती है केवल वहां रस ही रस है । रसाबस्था में अन्न अन्य प्रारंभिक अवस्थाएं नहीं रहने पर भी बिना प्रारंभिक अवस्था के बिना रस की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि विचार करे कि हमें तो रस चाहिये । बीज, वृक्ष, फूलादि नहीं चाहिये । बीज के बिना वृक्ष कैसे होगा, वृक्ष के अभाव में फूल कैसे होगा, फल के विना फल कैसे होगा ? यदि हम सोचे कि फल में तो आम रस नहीं है इसलिये फूल को तोड़कर फेक दे तो फल की प्राप्ति हो सकती है क्या ? फल के अभाव मे रस की प्राप्ति कैसे होगी ? परंतु वीज अंकुर होकर वृक्ष रुप परिणित हो जाता है तो स्वयमेव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार फूल से फल बन जाता है तब स्वयमेव फूल योग्य समय में गिर जाता है फूल को तोडना नहीं पड़ता है। यदि योग्य सगय के पूर्व ही फूल को तोड़ देंगे तो फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है । इसी प्रकार निर्विकल्प आत्मानुभव रूप रस प्राप्त करने के लिये आत्म रूप भूमि मे सम्यक्त्व रुप बीज रोपण करना होगा। इसके लिये मिथ्यात्त्व हिंसा, झूठ, चोरी, अन्याय, अत्याचार, दुराचार, कुशील, अतिकांक्षा, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोषणा, कालाबाजारी, संग्रहबती, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन,म द्यपान, मांस भक्षण, रात्रिभोजन, अमक्ष भोजन, ईया-दुष, मात्सर्य, आदि अशुभ भावों का त्याग बारके हिसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, रामता शांती, शांत, ऋजुता, मृदुता, विश्वमैत्री, उदारता, वात्सल्य, गुणानुराग धर्मानुराग, अनुकम्मा आदि शुग भावों को धारण करना चाहिये । इनमे सतत तद होकर ना आत्मा में विशेष निर्मलता आती है, तब वह महा संयमी आत्मानंद प रस को निविकल्प होकर आस्वादन करता है। उस समय व्रत अन्नतों का विकल्प स्वयमेब छट जाता है, जिस प्रकार रस अवस्थामे पूर्व की अवस्थाएं नहीं रहती है। शंका:- आम रस के लिये बीज, वृक्षादि की क्या आवश्यकता हे वाजार रो पका आम खरीदकर लाकर उससे रस निकालकर अथवा रस खरीदकर लाकर रस का आस्वादन कर सकते है। समाधान:- हे भाई धर्म कभी भी रूपयं के माध्यमसे नहीं खरीदा जा सकता है। धर्म को तो आद्योपान्त स्वयमेव हो आचरण करके प्राप्त कर सकते है । भाध्यात्मिक सम्राट अमलचन्द्र सूरी अमृतकलश में कहते य एव मुक्त्वा नय पक्षपात, स्मरुए गुप्ता निवसन्ति नित्यम् । विकल्प जालपच्युत शांतचित्तास्त एवं साक्षावमृतं पिबन्ति ॥२४।। ( अमृत कलश ) जो समस्त प्रभार नय पक्षबात से रहित होकर समस्त संकल्पविकल्प जालों से रहित होकर शांत चित्त में स्वरूप में ही सतत निवास करते है बे साक्षात् आत्मानंद रूप अमृत का पान करते है। जो समयसार रुप शुद्ध आत्म द्रव्य है वह समस्त नय पक्ष से अतीत है। देवसेनाचार्य इसी प्रकार आध्यात्मिक प्रधान्य नय चक्र को समाप्त करते हुए लिखते है:निश्चयध्यवहारयोरविनामावित्व निर्णीति कथनो नाम तृतीयोऽध्यायः समाप्त: । "ट्टारक श्री देवसेन आचाय ( कम रुप शत्रु को नाश करने वाले विशेष ज्ञानी मुनि ) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ विरचित व्योम पंडित को प्रतिबोध करने वाले श्रुतभवन दीपक नय चक्र में निश्चय व्यवहार का अबिनाभाव का कथन करनेवाला तृतीय अध्याय पूर्ण हुआ । " निश्चयव्यबहारयों बिना गावित्व " यह वाक्यांश अत्यन्त महत्त्व पुर्ण है। समस्त आगम और आध्यात्मिक रहस्य को उद्घाटित करने वाली एक गुरु चाबी है अर्थात् निम्न्य व्यवहार "रसार विरोधी नहीं है दोनो परस्पर सापेक्ष, उपकारक, सहायक है। दोनों सापेक्ष होने पर ही सम्यक है और निरपेक्ष होने पर दोनों मिथ्या हो जाते है। ५) तत्त्वसार: आचार्य प्रवर की अन्य एक ध्यान प्रधान कृति तत्वसार है इस शास्त्र में गाथाएं प्राकृत में है। इसमें ७४ गाथाएँ है । इसमें स्वतन्त्र, परतत्त्व, सविकल्प तत्त्व, अविकल्प तत्त्व, अपरमतत्त्व परमतत्त्वों का आध्यात्मिक भाषा में वर्णन है । आचार्य श्री ने हण्डावसपिणी पंचमकालस्थ में वक्र जड़ स्वभावी भ्रष्ट मिथ्यादृष्टियों का जो एक ध्यान संबंधी शका है उसका स्पष्टीकरण किये है यथा:-- पंचम काल में भाव लिंगी मुनियों का सदभाव :-- संकाकरवा गहिया विसय वसत्या सुमग्गयभठ्ठा । एवं भणंति केई पाहु कालो होइ झाणस्स ।। १४ ॥ तत्वसार सदेह शील विषय सुख के प्रेमी भोगों में आसक्त एवं विषय भोगों म अपना हित मानने वाले जिनेन्द्र प्रणीत रत्नत्रय रुपी सुमार्ग से भ्रष्ट कितने ही इस प्रकार कहते है कि वर्तमान पचम काल ध्यान योग्य काल नहीं है. इस काल में मोक्ष नहीं है. स्यान भी नहीं होता है, यदि मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है तो मुनि होकर क्या करना है। पूर्वोक्त समस्त प्रश्नों का समाधान करते हुए आचार्य कहते है : अज्जवि तिरचणवंता अप्पा झाऊन अंति सुरलोच। तत्थ चुया मण्यत्ते उपज्जिय लहहि णिवाणं ॥१५॥ (तत्वसार) __थान भी इस पंचम काल में रत्नत्रयधारी मुनि आत्मा का ध्यान कर स्वर्ग लोक को जा सकते है वहाँ से च्युत होकर उत्तम मानव कुल में जन्म लेकर मुनि होकर निर्वाण की प्राप्ति कर सकते है : Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि निवास : कले फाले बने चासो वर्जनीयो मुनीश्वरः । . स्थीयतेच जिनागारे प्रामाविषु विशेषतः ।। (इन्द्रनंदि नीतिसार) कलि काल में मनिश्वरों को वनवास छोडने योग्य है, विशेषत: जिन मंदिर, ग्रामादिक में रहना चाहिये । कुन्दकुन्दात्रर्य मोक्ष पाहुड में कहते है :भर हे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हधेइ साहुस्स । तं अप्पसहाव ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ।।६।। अज्ज वि तिरयण सुद्धा अप्पा क्राए विलहइ इंदतं । लोपंतिय देवत्तं तत्य चुआ णिचुदि जति ।।७७(समयसार) भरत क्षेत्र में दुःषम काल में मुनियों को धर्म ध्यान होता है वे धर्मध्यान के माध्यम से आत्मा में स्थित रहते है जो इस प्रकार नहीं मानता है वह भी अज्ञानी मिथ्या दृष्टि है ॥७६।। अभी मी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र से शुद्ध मुनि आत्म ध्यान कर इन्द्रत्व एवं लौकान्तिक देव होता है वहां से च्युत होकर । उत्तम मानव पर्याय को प्राप्त कर मुनि होकर परम निर्वाण को प्राप्त करते है । शंका :- वर्तमान काल में मूनियों को शुक्ल ध्यान नहीं होता है तो क्या चारित्र भी नहीं हो सकता है ? " वीतराग चारित्राभावे कथं गौणत्व मित्या शेवयाह :-" समाधान :- माइल्ल धवल “द्रव्य' स्वभाव प्रकाशक" में इसका निर्णय करते है। मसितम जहाणु क्कस्सा सराय इब धोयराय सामग्गी । तम्हा सुद्धचरितं पंचमकाले विदेसदो अस्थि ।।३४४॥ "तव्य स्वभाव प्रकाशक मयचक्र" जिस प्रकार सरागदशा के भी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद होते है। अतः एक देश वीतराग चारित्र पंचम काल में भी होता है ।।३४४।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नागसेन मुनि भी कहते है :- .. अत्रेदानी निषेधति शुक्लध्यान जिनोत्तमाः । धमध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राग्वितिनां ॥८३।। यत्पुनयनकायस्य ध्यानभित्यागमे वचः ।। श्रेण्यो ध्यान प्रतोयोक्तं तनावस्तानिषेधक 11८४।। ' घ्यातारश्चेन सन्त्यधत सागरपारगाः । तत्किमरूपश्रुतेन ध्यातव्यं स्वशक्तितः ॥८५।।... चरितारो न चेत्सन्ति यथाख्यातस्य संप्रति । तरिकमन्ये यथाशक्तिमाचरन्तु तपस्विनः ।।८६।। सभ्यरगुरूपदेशन समभ्यस्यननारतं । ' धारणासौष्ट वाचयानं प्रत्ययानपि पश्यति ।।८७।। यथाऽभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणिस्युर्महान्त्यपि । तथा ध्यानमपि स्थैर्य लमतेऽभ्यासर्वासना ।।८८॥ श्री जिनेन्द्र भगवान ने इस पंचम काल में यहां पर भरत क्षेत्रमें । शुक्ल ध्यान का अभाव वताया है । उपराम-क्षपक श्रेणी से नीचे रहने बालों को धर्मध्यान होना बताया है । वज्रकायबारी उत्तम संहननदालों को जो ध्यान आगम में कहा है वह श्रेणी की अपेक्षा से कहा है। अध स्तन ध्यान के लिये निषेध नहीं है। यद्यपि वर्तमान में श्रुतवलीसमान ध्यानी मुनी नहीं हो सकते है, तो भी क्या अल्पश्रुत के ज्ञाताओं को अपने शक्ती के अनुसार ध्यान नहीं करना चाहिये ? अर्थात अवश्य करना चाहिये । तत्वार्थ सूत्र से "शक्तीतस्त्यागतपसी" शक्त्ती के अनुसार त्याग और शक्ती के अनुसार तपस्या करना चाहिये । यद्यपि वर्तमान काल मे यथाख्यात चारित्र के आचरण करनेवाले नहीं हो सकते है, तो क्या तपस्वियोंको यथाशक्त्ती सम्मायिक-छेदोस्थापनादि सराग चारित्र नहीं पालन करना चाहिय . अर्थाल अवश्य ही पालन करना चाहिो । जो साधक भले प्रकार गुरु के उपदेश से भले प्रकार आध्यात्मिक अभ्यास निरंतर करते रहेगा, तो उसकी वारणा उत्सम हो जायगी तो वह अनेक चमत्कार को भी देख सकेगा.। जैसे बड़े बड़े - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । शास्त्र भी अभ्यास के बल से समझने में आते है उसी प्रकार. अभ्यास करनेवालों का भी ध्यान स्थिर हो जाता है । इसलिये पंचम काल में भी यथाशक्ति प्रमाद रहित होकर काम भोग, पंचेन्द्रिय के विषयों से, स्त्री, कुटुम्ब, व्यापारादि से विरक्त होकर, स्यातिपूजा लाभादि से रहित होकर धर्मध्यान पूर्वक आत्मध्यान करना चाहिये । इससे पाप कर्मों का सवर, निर्जरा. होगी ।। निरिच्छक सातिशय पुण्य बंध होगा, जिससे परम्परा स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति होगी। जैसे करोडपति, अरबपति स्वमूलधन के अनुसार व्यापार करते है, उसी प्रकार साधारण व्यक्ती स्वशक्ति अनुसार व्यापार करता है । अधिकं धन नहीं रहने पर निरुद्यम होकर बैठा नहीं रहता है, यदि बैठा रहेगा तो पेट पोषण भी नहीं हो पायेगा, श्रीमंत होने की बात तो दूर रही । इसी प्रकार पंचम काल में स्वशति अनुसार श्रावक दान पूजा शील व्रत, उपत्रांसादि जघन्य शत्र देश चारित्र पालन नहीं करेंगे तो पाप संचय के कारण नरक निगोद ही मिलेगा, संसार वृद्धि होगी, मोक्ष तो अत्यन्त दूर की बात है, सुस्वर्ग की भी प्राप्ति नहीं होगी। पंचम काल में मुनियों की एक वर्ष की तपस्या चतुर्थ काल में १००० वर्ष के समान : इस अत्यंत विपरीत हुण्डावसपिणी रुप इस पंचम काल में अत्यंत दुर्द्धर महाप्रतादि धारण कर अत्यन्त भौतिक भोग विलास वातावरण में विचरण करना लोहा के चना चबाने के समान है। यह कोई बच्चों का खेल नहीं है, अथवा बहुरुपीयों का खेल नहीं है, वाग्विलास नहीं है । वातानुकूल ( एयरकण्डिशन) कमरे में बैठकर वातानुकूल ( स्वयं के अनुकूल वात), अध्यात्मिक शुष्क बौद्धिक चर्चा नहीं है । जो धीर, वीर है, वही पंचग काल में जिनेन्द्र भगवान का निग्रंथ लिंग को धारण कर सकता है । सह्णणं अधणीचं कालो सो दुस्समो मणो चवलो । तह यि हु धौरा पुरिसा महत्वय भर धरण उच्छहिया ।।१३०॥ (भाव संग्रह) वरिस सहस्सेण पुरा जं कम्म हणह तेण काएण । तं संपइ बरिसेण हु णिज्जरया होण संहणणे ॥१३१!! (भाव संग्रह) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. इस पंचम काल में सहनन अत्यन्त हीन है, काल अत्यन्त दुःषम है। मन अत्यन्त चंचल है, तथापि जो धीर बीर पुरुष महाव्रत रुपी महामार को धारण करने के लिये उत्साहित है वह महान प्रशंसनीय वंदनीय, पूज्यनीय है ॥ १३० ॥ चतुर्थ काल में जिस उत्तम संहनन युक्त शरीर माध्यम से तपउचरण द्वारा जो कर्म एक हजार वर्ष में नष्ट होता था, उतना ही कम वर्तमान दुःषम काल में हीन संहनन युक्त हीन शरीर से एक वर्ष की तपश्चरण द्वारा नष्ट होता है । इसमे सिद्ध होता है, चतुर्थकाल अपेक्षा पत्रमाल में तर, मतपश्चरणादि १००० गुणा दुष्कर है। निग्नंथ रूप की दुधरता के लिये भगवान जिनसेन स्वामो आदि सुराण में बताये है : अशक्य धारणं चेदं जन्तूनां कातरात्मनाम् । जनं निस्संगला मुख्य रुप धोर: निषेव्यते ।। जिसमे यथाजात रुष अन्तरंग-बहिरंग संग रहितता मुख्य है एसा निग्रंथ लिंग उसी प्रकार दुर्घर, दुरासाध्य अत्यन्त कठीण रुप को कातर कायर, मन एवं इन्द्रियों के दास, भोगों के कीड़ों के द्वारा धारण करना अत्यन्त अशक्य है । जो धीर, वीर, गंभीर, दमी, यमी होते है उनके द्वारा ही निग्रंथ लिंग धारण किया जा सकता है। जैसे-चक्रवर्ती के चक्र को कायर पुरुष प्रयोग नहीं कर सकता है, केवल बीर पुरुष, पुण्यात्मा पुरुष धारण कर सकता है । उसी प्रकार इस निग्रंथ रुप को बीर, बीर एवं पुण्यात्मा पुरुष धारण कर सकते है। अन्तर विषय वासना वरतें बाहर लोक लाज भय भारी । यातें परम दिगम्बर मुद्राधर नहीं सके दोन संसारी ॥ ऐसी दुर्धर नगन परिषह जीतें साधु शोल व्रतधारी । निधिकार बालकवत् निर्भय तिनके चरणों घोक हमारी ॥७॥ (२२ परिषद) पचमकाल के अंतिम समय तक भाव लिंगी मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका रहेंगे, यह त्रिलोकसार में सिद्धांत चक्रवर्ती नेमीचंद आचार्य कहते है : Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथं चरम कल्की स्वरूप गाथा पञ्चकेनाह : इवि पडि सहस्त वस्सं वीसे कक्कोगविक्कमे चरिमो । जल मथणो भविस्सदि कनकी सम्मग्ग मंथणओ ॥८५७।। इह इंदराय सिस्सो वीरगद साहु चरिम सबसिरी । अा अग्गिल सावय वरसाविय पंगसेणावि ।।८५८।। पंचम चरिपे परखड माततिवासो बसेसए तेण । मुणिपढम पिर गहणे सणसणं करिय दिवस तियं ॥८५९।। सोहम्मे जायंते कत्तिय अमदास सादि पुन्य हे ।। इगि जलहि ठिदो मुणिणो सेसतिए साहियं पल्लं ।।८६०॥ तव्या सरस्स आदी मज्झते धम्मराय अग्गीणं । पासो तत्तो मणुसा जग्गा मच्छादि आहारा ।1८६१।। इस प्रकार एक एक हजार वर्ष वाद एक एक कल्की होगा, तथा २० कल्कियों के अतिक्रम अर्थात् पूर्ण होने के पश्चात् सन्मार्ग का मंथन करने वाला जल माथन नाम का अंतिम कल्की होगी। उसी काल में इन्द्रराज नामक आचार्य के शिष्य वीराङगद नामक अंतिम साधु, सर्वश्री नाम की आर्यिका, अग्गिल नामक उत्कृष्ट थावक, पंगुसेना नाम की श्राविका होगी । पञ्चमकाल के अंत में तीन वर्ष, ८ माह और १पक्ष अवशिष्ट रहने पर उस कल्की द्वारा पूर्वोक्त प्रकार मनिराज के हस्तपुट का प्रथम ग्रास शुल्क स्वरुप ग्रहण किया जायेगा । तब वे चारों तीन दिन के सन्यास पूर्वक कार्तिक बदी अमावस्या को स्वाति नक्षत्र, एवं पूर्वाह काल में मरण को प्राप्त हो सौधर्म स्वर्ग में मुनि तो एक सागर आयु के धारी, शेष तीनों साधिक एक पल्य की आयु के धारो उत्पन्न होंगे 1 उसी दिन आदि मध्य और अंत में क्रम से धर्म, राजा एवं अग्नि का नाश हो जायगा इसलिये उसके बाद मनुष्य मत्स्यादि का भक्षण करनेवाले और नग्न होंगे ।।८५७ - ८६१।। पंचमकालं २१ हजार वर्ष प्रमाण है। वर्तमान केवल २५१३ वर्ष ( १९८७ में ) प्रमाण व्यतीत हो रहा है। यह तो केवल पंचम Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल की शैश्व अवस्था है । अर्थात् प्राथमिक अवस्था है । अभी प्राय: १८४८४ वर्ष प्रमाण और भाव लिङगी मनि' रहेंगे । उपरोक्त सिद्धांत से ज्ञात होता है कि पहले धर्म का जीवन्त स्वरुष मुनि आयिका श्रावक श्राविका का पूर्वापह में अंत होगा, उनके अंत में धर्मका भी अंत होगा क्योंकि "न धर्मों धामिर्कविना ", मध्यान्ह में राजा का लोप, एवं सन्ध्याकाल में अग्नि का लोप होगा। इससे सिद्ध होता है भरत क्षेत्र में जब तक अग्नि है तब तक भाव लिङगी मुनि भी है । जो पंचम काल में भाव लिङगी मुनियों का अस्तित्व नहीं मानता, वह जिनवागी को नहीं मानता, जिनवाणी के न मानने के कारण मिथ्या दृष्टी है । भाव लिङगी मुनियों के सद्भाव के लिये स्वयं अग्नि ही सालोभूत है । धर्मादिक के नाश का कारण :परेग्गल अइरुणखादो जलग धम्में णिरासरण हदे । असुर वइगा रिवे सयलो लोओ हो अंधो ।८६२।। पुद्गल द्रव्य में अत्यन्त कक्षता आ जाने से अग्नि का नाश, समीचीन धर्म के आश्रयभूत मुनिराज का अभाव हो जाने से धर्म का नाश तथा असुरेन्द्र द्वारा राजा का नाश हो जाने से सम्पूर्ण लोक अंधा हो जामा अर्थात् मार्गदर्शक कोई नहीं रहेगा । आचार्य श्री ने अंत में आशिर्वादात्मक अपना नाम देकर इस । शाल्व की समाप्ति की है :सोऊण तमसार रहयं मुणिणाह देवसेणेण । जो सद्दिको भात्रइ सो पादए सासयं सोकावं ॥७४11 (तत्वसार) मुनिराज देवसेन रचित तत्वसार को सुनकर जो सम्यग्दृष्टी भावना करेगा बह शाश्वतिक सुख को प्राप्त करेगा। (६) आराधनासार : आचार्य श्री के द्वारा प्रतिपादित आरावनासार में प्राकृत गाथाएँ ११५ है। इसमें निश्चय एवं व्यवहार दोनों आराधनाओं का सक्षिप्त एवं मौलिक वर्णन है । निश्चय आराधना साध्य और व्यवहार Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना साधन है । जब तक व्यवहार आराधना नहीं करेंगे तब तक निश्चय आराधना नहीं हो सकती है। - निश्चय व्यवहार आराधना - नन निश्चयाराधनायां सत्या किमनया व्यवहाराराधनया साध्यमिति वदन्तं प्रत्याह ... पज्जय गयण भणिया चउम्विहाराहा हु जा सुत्ते । सा पुणु कारण भूवा णिच्छ्यजयदो चउक्कस्स ॥१२।। (आराधनासार) जो निश्चय से आत्मा से अभिन्न रुप दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, आराधना है उसके कारणभूत व्यवहार दर्शन, ज्ञान, चारित्र तपाराधना है। कारण बिना कार्ये कभी भी संभव नहीं है । इस न्याय के अनुसार जब तक साधक व्यवहाराधना रुप परिणमन नहीं करता है तब तक निश्चयाराधना को प्राप्त नहीं कर सकता है। करिद्भव्यः प्राथमिकावस्थायां निश्चयाराधनायां स्थितिमलभमान स्तावद् व्यवहाराधनामाराधयति पश्चान्मनसो दाढचं प्राप्य क्रमेण निश्चयाराधनामाराधतीत्यभिप्राय: ।। (आराधना सार) अनादि कुसंस्कार के कारण इन्द्रिय और मन की बहिर्मुखना के कारण पुनः पुनः पूर्व में आत्मतत्व की भावना से रहित होने के कारण जब एक प्राथमिक आत्म तत्व की आराधना करता है तब वह व्यवहाराधना को पुनः पुनः आराधना करते हुए जव चंचल मन दृढ हो जाता है वाह्य विषय वासनाओं से विरत होता है, आत्म भावना स्थिर होती है तब क्रमशः निश्चयराधना की आराधना करता है। ध्यान का पात्र : देवसेन आचार्य ने शून्य ध्यान का विशेष वर्णन किया है । शून्य ध्यान अर्थात निर्विकल्प शुक्ल ध्यान है। जाम वियप्पो कोई जायइ जोइस्स साण जुत्तस्स । साम ण सुणं माणं चिता वा भावणा अहदा ॥ ८३ ॥ ( आराधनासार) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान युक्त मुनि को जव सका कोई प्रकार चिकल्प उत्पन्न होते रहते है तब तक शून्य अर्थात संकल्पातीत ध्यान अर्थात निर्विकल्प ध्यान नहीं हो सकता है। किंतु चिंता, भावना, अनुप्रेक्षा, मनन चिंतन होता है, तब तक निर्विकल्प ध्यान नहीं होता है, चिता भावनादि ध्यान के लिये साधन है । इस प्रकार ध्यान सबको प्राप्त नहीं होता है । उसके लिय विशेष साधक चाहिये ॥ यथा चइऊण सव्वसंग लिंग परिऊण जिण रिवाणं । अप्पाणं झाऊणं भविया सिझति णियमेण ।। ११२ । ( आगधनासार ) समस्त अंतरंग बहिरंग ग्रंथों को त्याग करके यथाजात रुप जिनेंद्र लिंग को धारण कर जो आत्मा का यान करेंग वे भव्य सम्पुर्ण कर्मों को नष्ट करके नियम से सिद्ध परमेष्ठी पद को प्राप्त करेंगे । इस प्रकार मिद्धात चक्रवर्ती नेमीचन्द्र आचार्य ने भी कहा है। तव सुरववव चेवा काणरह धुरंधरी हवे जम्हा । सम्हा ससिर्याणरदा सल्लबोए सदा होई ।। ५७ ।। (ब्रव्य संग्रह ) . ध्यान रुपी धुरा को धारण करने के लिये वही धीर पुरुष समर्ग हो सकता है जो अन्तरंग बहिरंग तपश्चरण को धारण किया है, जिनवाणी का अवगाहन किया है, महाव्रतों का पालन किया है। जो तप पावं व्रतों की आराधना नहीं करता है, वह भीरु पुरुष ध्यान रुपी धुरा को धारण करने में समर्थ नहीं हो सकता है । यदि ध्यानामृत के पान करने की इच्छा रखता है तो वह व्रत, श्रुत, एवं तप मे रत रहे, निरतिचार पूर्वक सेवन करें । ध्यान के लिये योग्य पात्रता चाहिये, बिना पात्रता के ध्यान की सिद्धी नहीं हो सकती है। आचार्यों ने कहा है:ध्यान का पात्र अपात्रः वराग्य तत्वविज्ञान नग्य वसवित्सला । परिवह जयश्चेति पंच से ध्यान हेत्वा ।। ध्यान के लिये पांच कारण है :- १) वैराग्य २) तत्वविज्ञान Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T) निर्गथता ४) मनवशता ५) परिषह जय । जहाँ पर उपरोक्त ५ कारण है वहाँ पर ध्यान हो सकता है। जो परिग्रहधारी, तत्व विज्ञान रहित, काम भोग वि-त्रय वासमा में रत, शरीर पोषण करनेवाले है तको त्रिकाल में भी ध्यान को सिद्धि नहीं हो सकती है । ज्ञानार्णव में मुमार्जन्मनिविष्णः शान्तचिसो वशी स्थिरः ।। - जिताक्षः संवृतो धोरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते ॥६॥ (ज्ञानार्णव चतुर्थ सर्ग) (१) जो मोक्ष का इच्छुक है, (२) जो संसार से विरक्त है, ३) मोह क्षोत्र रहित शांतचित्त है, (४) मन वश में है, (५) अगोपांग दृढ होने के कारण व्यायासन में स्थिर हो, (६) इन्द्रियों को होतकर उनके विषयों से विरक्त हो, (७) संवर सहित हो, (८) सपसर्ग परिषह सहन करने में धीर हो वहीं ध्यान के लिये योग्य पात्र । उपरोक्त गुण अथवा विशेषण केवल निग्रंथ मुनि में ही पाये जा सकते है। किंतु जो उपरोक्त विशेषण से रहित, भुभुक्षु, बकध्यानी, संसार-शरीर भोग-धनसंपत्ति, स्त्रीकुटुम्ब में आसक्त है, चंचल मन वाले है पंचेन्द्रिय के दास है, व्रत-नियम-त्याग-तपश्चरण करने में नपुंसक के सदृश कायर है, वे कभी भी ध्यान के लिये योग्य पात्र नहीं हो . मिथ्यादृष्टि की बात तो दूर रही किंतु सम्यग्दृष्टि और श्रावक मी जब तक गृह-घंधा में लीन रहता है तब तक उसको भी ध्यान की सिद्धि नहीं सकती है। (१) नवदेवता स्तवन (संस्कृत ) लेखक -- पू. कनकनन्दि महाराज धर्मचक्रधरः जिनं जाणार्णवः चतुष्टयम् । चत्वार वर्म ध्यायेत् सर्व मोहोपो शान्तये ।। २) ज्ञानाम्बर धर: सिद्ध वर्णातितं मुणाष्टमम् । प्रणष्ट कर्माय स्मरेत् सर्वकर्म प्रणास्त्राये ।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोह बन्हिना । प्रमाद मदमुत्सृज्य नि:क्रान्ता योगिनः परम ||८|| ( ज्ञाताणंव ) महामोहरूपी अग्नि से जलते हुए इस जगत में से केवल मुनिगण ही प्रमाद को छोडकर निकलते है, अन्य कोई नहीं । न प्रमादजयं कर्तुं धो धनैरपि पायते । महाय्यसन संकीर्णे गृहवासेऽतिनिन्विते |९|| ( ज्ञानार्णव ) अनेक कष्टों से भरे हुए अतिनिन्दित गृहवास में वर्ड २ बुद्धिमान् भी प्रमाद से पराजित करने में समर्थ नहीं है । इस कारण गृहस्थावस्था में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती । शक्यते न वशीकर्तुं गृहिभिश्चपलं मतः । अतश्चित्त प्रशान्त्यर्थ सद्भिता गृहे स्थिति ||१०|| ( ज्ञानार्णव) गृहस्थ गण घर में रहते हुए अपने चपल मन को वश करने में असमर्थ होते है, अतएव वित्त की शांती के अर्थ सत्पुरुषों ने घर में रहना छोड दिया और वे एकांत स्थान में रहकर ध्यानस्थ होने को उद्यमी हुए । प्रतिक्षण द्वन्द्वशतार्त्तं चेतसां नृणां दुराशाग्रह पीडितात्मनाम् । नितम्बिनी लोचन चौर संकटे गृहाश्रमे स्वात्महिते न सिद्ध्यति ॥ ११ ॥ ( ज्ञाना. ) सैकडों प्रकार के कलहों से दुःखित चित्त और घनादिक की दुराशारुपी पिशाची से पीडित मनुष्यों के प्रतिक्षण स्त्रियों के नेत्ररुपी चारो का है उपद्रव जिसमे ऐसे इस गृहस्थाश्रम में अपने आत्म हित की सिद्धी नहीं होती || निरन्तरार्त्ता नलदाह दुर्गमे कुवासनाध्वान्त विलुप्त लोचने । अनेक चिता ज्वर जित्यितात्मनां नृणां गृहेनात्महितं प्रसिद्धयति ॥ १२॥ निरन्तर पोडा रूप आर्त्तध्यान की अग्नि के दाह से दुर्गम, वसने के अयोग्य तथा काम क्रोधादि की कुवासना रूपी अंधकार से विलुप्त हो गई नेत्रों को दृष्टी जिसमे ऐम घरों में अनेक चिन्तारूपी ज्वर से Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकार रूप मनुष्यों के अपने आत्मा का हित कदापि सिद्ध नहीं होता ऐसे गृहस्थावास मे उत्तम ध्यान कैसे हो ? विपन्महापडक निमग्न बुद्धयः प्ररुद्ध रस्मज्वरयन्त्रपीडिताः । परिग्रहव्यालविषाग्नि भूच्छिता विवेकवीभ्यां गहिणः स्खलन्त्यमी॥१३॥ (शामार्णव) गृहस्थ अवस्था की आपदा रुपी महान कीचड मे जिनकी बुद्धि फंसी हुई है, तथा जो प्रचुरता से बढ़े हुए राग रुपी ज्वर के यंत्र से पीडित है, और जो परिग्रह रुपी सपं के विष की ज्वाला से मूच्छित हुए है, वे गृहस्थ गण विवेकरुपी बीथी मे (गली मे) चलते हुए स्खलित हो जाते है अर्थात च्युत हो जाते है । अपवा समीचीन मार्ग में (मोक्ष मार्ग) भ्रष्ट हो जाते है। हिताहित विमूढात्मा स्वं शश्वद्वेष्टयेद्गृहो । अनेकारम्भः पाप कोशकारः कृमियथा ॥१४॥ (मानार्णव) जैसे रेशम का क्रिडा अपने ही मुख से तारों को निकालकर अपने को ही उसमें आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार हिताहित में विचार शून्य होकर यह गृहस्थजन भी अनेक प्रकार के आरंभों से पापोपार्जन करके अपने को शीघ्र ही पाप जाल में फंसा लेते है । जेतुं जन्म शतेनापि रागाग्ररिपताकिनी ।। बिना संयम शस्त्रेण न सद्भिरपि शक्यते ।।१५।। (जानार्णव) रागादि शत्रुओं की सेना संयमरुपी शस्त्र के बिना बड़े बड़े सत्पुरुषों से (राजाओं से) सैकडों जन्म लेकर भी जब जीती नहीं जा सकती है, तो अन्य की कथा ही क्या है। ३) अष्टाचारं धरः सूरी गुण निधिः संघाधिपम् । गम्भीररुपाम ध्यायेत् शुद्ध चारित्र प्राप्तये ।। ४) आगमरधः पाठक ज्ञान निधिः गुणाधारः । प्रशान्त रुपाय ध्यायेत् विनयाचारप्राप्तये ।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचण्ड पवनैः प्रायश्चाल्यन्ते यत्र भमतः । तमामाविभ. स्वान्स तिरल न किम् ॥१६।। (ज्ञानार्णव) स्त्रियां प्रचंड पवन के समान है। प्रचंड पवन बडे बडे भूभतों (पर्वतों) को उड़ा देता है और स्त्रियाँ बड़े बड़े भभतोंको गजाओं को घला देती है। ऐसी स्त्रियों से जो स्वभाव से ही चंचल है ऐसा मन क्या चलायमान नहीं होगा ? भावार्थ :- स्त्रियों के समर्ग में ध्यान की योग्यता कहा: ।। खपुष्पमथवा शङग खरस्यापि प्रतीयते ।। ने पुनवेश कालेऽपि ध्यानसिद्धिगुहाश्रमे ।।१७।। (जानार्णव) आकाश के पुष्प और गधे के सींग नहीं होते है । कदाचित किसी देश वा काल मे ध्यान की सिद्धि होनी हो तो किसी देश बा काल में संभव नहीं है ।।१७।। जो विषय बासना में लोन होकर गृहस्थ में रहकर स्वयं को उत्कृष्ट ध्यानी मानता है वह आत्मवंचन है । वह बक ध्यानी के समान विषयों का ही ध्यान करता है न कि आत्मध्यान । यदि अंतरग में विषयों के प्रति अनुराग नहीं है तो बाह्य में सेवन भी नहीं सकता है। रागद्वेष निवृत्ते हिंसादि निवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नपतीन् ।।४८।। (रत्नकरण्ड श्रावका.) अन्तरंग रागद्वेष की निवृत्ती से बाह्य हिसा, असत्य, चौर्य, कुशोल, परिग्रहादि वाह्य पापों से निश्चित रुप से निवृत्ती हो जाती है। जब तक अतरंग में रागादि भाव रहेंगे तब तक बहिरंग में उसके कार्यरुप धन सम्पत्ती के ऊपर लालसा, काम भोग, सेवन आदि रहेगा। अन्तरग बहिरम परिग्रह रहने के कारण श्रावक उत्कृष्ट ध्यान का पात्र नहीं हो सकता। देवसेन आचार्य महाप्राज्ञ होने पर भी अत्यन्त निगर्वी थे 1 'गणी विद्वान न करोति गर्वम्' इस न्याय के अनुसार आराधना सार को Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्त करते हुए लघुता प्रगट किये है :अपणिय तच्चे ग इमं भणियं जं किंपि वेवसेणेण । सो हंतु तं मुगिदा अस्थि हु जइ पवयग विरुद्धम् ||११५।। (आराधना सार) तत्व को नहीं जाननेवाला मैं देवसेन आचार्य जो कुछ नाता है उसमें यदि निश्चय से आगम के विरुद्ध कुछ भी हो तो द्रव्य भाव श्रुत के धारी श्रुत केवली महामनि सशोधन करें । ये भावश्रुतविरहिता: केवलं द्रव्यश्श्रुतावलंबिनस्तेषां पुनरिहाराधनासार शोधने नाधिकारः । यं परब्रह्माराधनातत्परास्त एवात्राधिकारिण इत्यर्थः ॥ जो भावश्रुत मे रहित होते हुए जो द्वन्य श्रुत का आश्रय लेते है वे इस आराधनासार नय के सशोधन करने के अधिकारी नहीं है। किन्तु जो परम ब्रह्म की आराधना में तत्पर है वे ही इस आराधना सार के संशोधन करने के अधिकारी है। इससे सिद्ध होता है कि भाववत ज्ञान से रहित द्रव्यश्रुत ज्ञानी वा कोई महत्व नहीं है क्योंकि स्वमत या स्वाभिप्राय के विरोध में कुछ जिनागम मे परिवर्तन करके स्वभावानुसार प्रतिपादन करेगा उससे जिनागम का हनन एवं सत्य का नाश होगा। भावसंग्रह :- देवसेन के स्वयं देव होने का प्रायोगिक मार्ग (भाब संग्रह ) देव सेन आचार्य को बृहत्तमकृति यह भाव सम्रह है। इसमें प्राकृत गाथा बद्ध ७०१ गाथाएँ है । इसमे कुशल, निर्मीक आचार्यश्री ने मिथ्या मान्यताओं व परम्पराओं का सशक्त मुक्त कंठ से विरोध किया है। आचार्यश्री ने किसी प्रकार कलुषित मना नाव से अरवा पक्षपात से अथवा सम्प्रदाय व्यामोह से अथवा दसरों को अपमानित करने के लिये कुठार घात नहीं किये किंतु वस्तु स्वरुप का प्रतिपादन करने के लिये अथवा सम्यक मार्ग से भ्रष्ट हुए प्राणियों के ऊपर दया भाव कयन । मौनव्रतधरः मुनि रत्ननिधिः निषिकारम् । निर्वाणरूपाय ध्यायेत् आत्मप्राप्ति संसिद्धये ॥ ६) विध्यध्वनि धारिणो वेवो शुभ्रवर्णा ज्ञानरुपम् । सर्वतो वदनो ध्यायेत् अज्ञान ध्वान्त नाशये ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ किये है। जो भव्य सम्यग्दृष्टि है उनके लिये इनकी वाणी अमृततुल्य है जिसका पान कर वह अमृत पद अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त कर सकता है । परंतु जो अभव्य है वह इस अमृत को प्राप्त नहीं कर सकता हैं शास्त्रानो मणिबन्यो विशुद्धो भाति निर्वृतः । अङगारवत् खलो दीप्तो मली या भस्म वा भवेत् ॥ १७६ ॥ ( आत्मानुशासन. ) शास्त्ररूपी अग्नि में भव्य ( सम्यग्दृष्टि ) रुपी मणि विशुद्धी को प्राप्त कर निर्वाण सुख को प्राप्त करता है परंतु जो अभव्य रुप अंगार है वह शास्त्र रूपी अग्नि मे गिरकर पहले थोडा प्रकाशवान होता है पश्चात मलीन हो जाता है अथवा भस्म हो जाता है। यहां पर शास्त्र को आचार्य गुणधर स्वामी ने अग्नि की उपमा दी है क्योंकि अग्नि पक्षपात रहित होकर योग्य ईंधन को जलाती है एवं प्रकाश देती है उसी प्रकार शास्त्र रूप अग्नि निरपेक्ष से ज्ञान रूपी प्रकाश देती है जैन पुष्प रागादि रत्न अग्नि के माध्यम से किट्टकालिमा से रहित निर्मल हो जाता हे उसी प्रकार भव्य रूपी रत्न शास्त्र रूपी अग्नि के माध्यम से कर्म कलंक से रहित होकर निर्मल चित्चमत्कार ज्योति रूप में परिणमन करता है । जिस प्रकार लकड़ी अग्नि के माध्यम से पहले प्रकाशमान होती है बाद में मलीन रूप कोयला रूप परिणित होती है या भस्मरूप परिणित करती है उसी प्रकार अभव्य मिथ्यादृष्टी शास्त्र अग्नि से के माध्यम से पहले प्रकाशवान होता है अर्थात क्षयोपशम के माध्यम मे शास्त्र हो जाता है परंतु मिध्यात्व के कारण मिथ्याज्ञानी होकर आगम का विरोध करते हैं । अनंतानुबंधी क्रोधादि कषायों के कारण अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचारों का प्रचार प्रसार करके ज्ञान शून्य होकर पाप संचय कर संसार मे परिभ्रमण करते है । विकासयति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः । रिवार विन्दस्य कठोराइच गुरुवक्तयः || १४२ ।। ( आत्मानुशासन ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार सूर्य की कठोर भी किरणे कोमलसी कली को प्रफुल्लित करती है उसी प्रकार कठोर भी गुरू के वचन भव्य जीव के मन रूप कमल को प्रफुल्लित करते हैं अर्थात भव्य जीव कठोर भी गुरू के वचन सुनकर अपने दोष को दूर कर अभ्युदय एवं निःश्रेयस सुख को प्राप्त करते है । नीति प्रसिद्ध है:- हितं मनोहारी च दुर्लभं वचः " संसार मे हितकर मनोहारी वचन दुर्लभ है जैसे रोग को दूर करने के लिये वैद्य कडवी औषध देता है, उसी प्रकार भव्य जीवों के भवरूप रोग दूर करने के लिये भवरोग बैद्य गुरूदेव भी कठोर वचन रूप कड़वी औषध देते है उसका पान करके भक्ष्य भव रोग से दूर होकर परम स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। यह शास्त्र का नाम अन्वयर्थक संज्ञा वाला है क्योंकि इस शास्त्र में समस्त संसारी एवं मुक्त जीवों का भाव संग्रहित है अर्थात् वर्णित है। " उपयोग लक्षणं जीवः" इस सूत्रानुसार समस्त जीब राशि उपयोगमय है। परंतु कर्म सापेक्षता एवं कर्म निरपेक्षतानुसार अनेकानेक भेद प्रभेद हो जाते है । सामान्यापेक्षा उपयोग एक, विशेषापेक्षा-शुद्ध-अशुद्ध की अपेक्षा दो, शुद्ध, शुभ, अशुभरूप से तीन, गुणस्थानापेक्षा १४ इसी प्रकार संख्यात-असत्यादि भेद प्रभेद है। मध्यम प्रतिपत बेः अनुसार उपयोग तीन प्रकार है जिसमे समस्त भाव गभित है । यथा जीको परिणमदि जदा सुहेण असुहेण या सुहो अनुहो । सुद्धेण लदा सुद्धो ह्यवि हि परिणाम सम्भावो ॥ ९ ।। (प्रबचन सार) (जयसेनाचार्य कृत टीका) यथा स्फटिक मणि विशेषो निर्मलोऽपि जपा पुष्पादि रगत कृष्ण श्वेतोपाधिवेशन रक्त-कृष्ण श्वेत वर्णो भवति, तथाश्य जीवः स्वभावन ७) अहिंसा धर्मरुपाय अनेकातप्रकाशने । रत्नत्रयगुणांगाय नमो बु.खविनाशाय 11 ८) प्रशान्तरुपरुपाय कृतकृत्य: स्वरूपाय । परमात्मनिर्देशय नमो चैत्यजिनालये ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० 1 शुद्धबुद्धक स्वरुपोऽपि व्यवहारेण गृहस्थापेक्षया यथासम्भवं सराग सम्यक्त्व पूर्वक दान-पूजादि शुभानुष्ठानेन तपोधनापेक्षया तु मूलोतर गुणादि शुभानुष्ठानेन परिणतः शुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वविरति - प्रमाद कवाय योग पञ्च प्रत्ययरुपाशुभोपयोग नाशुभो विज्ञेयः । निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगेन परिणतः शुद्धो ज्ञातव्य इति । किं च जीवस्या संख्येयलोक मात्र परिणामाः सिद्धान्ते मध्यम प्रतिपत्या मिध्यादृष्ट्यादि चतुर्दश गुणस्थान रूपेण कथितः । अथ प्राभृत शास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षपेण शुभाशुभ शुत्रोपयोग रूपेण कथितानि । कथमिति चेत - मिथ्यात्व - सासादन - मिश्र गुणस्थान त्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः तदनन्तरमसंयत सम्यग्दृष्टि-देश वरत- प्रमत्तसंयत गुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादि क्षीणकवायान्त गुणस्थान षट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सवोग्य योगीजन गुणस्थानद्वये शुद्धोपयोग फलमिति भावार्थ: ।। - 1 गाथार्थ :- जब उपयोगात्मक जोन शुभ भाव से परिणमन करता है तब वह स्वयं ही शुभ होता है। जब अशुभ से परिणमन करता है, तब वह स्वयं ही अशुभ होता है, और जब शुद्ध भाव से परिणमन करता है तब वह स्वयं शुद्ध होता है क्योंकि जोब परिणमन शोल एक चैतन्य द्रव्य है । टीकार्य :- जैसे स्फटिकर्माण निर्मल होने पर भी जया पुष्पादि लाल काला श्वेत उपाधि के वंश से लाल काला स्वेतरंग रूप परिणत करता है वैसे ही यह जीव स्वभाव से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव होने पर भी व्यवहार से गृहस्थापेक्षा यथासंभव सराग सम्यक्त्व पूर्वक दानपूजादि शुभानुष्ठान को करने से तथा मुनि की अपेक्षा मूल एवं उत्तर गुणादि शुभानुरुप परिणित होने से शुभोपयोग वाला जानना चाहिय (मध्यादर्शन, अविरति प्रमाद कराय, योग एसे पांच कारण रूप अशुभ योग में सहित होता हुआ अशुभोपयोग जानना चाहिये निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोग में परिणित करता हुआ शुद्ध जानना चाहिये ! सिद्धांत में विस्तार प्रतिपत्ति अपेक्षा असंख्यात लोक मात्र परिणाम है । मध्यम प्रतिपत्ति अपेक्षा मिथ्यादृष्टी आदि चतुर्दश गुणस्थान अपेक्षा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन है। इस प्राभृत शास्त्र में उन्हीं गुणस्थान को संक्षेप से शुभ-अशुभ तथा शुद्धोपयोग रूप से कहा गया है। (१) (२) (३) मित्र इन तीन गुणस्थान में तारतम्य रुप से अशुभ उपयोग है । इसके भाग ( ४ ) असंयत सम्यग्दृष्टि, (५) देशबिरत धावक, (६) प्रमत्त संगत मुनि इन तीन गुणस्थान में तारतम्य रुप से शुभोपयोग है। इसके आग (७) अप्रमत्त, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्म साम्पराय ( ११ ) उपशांतमोह (१२) क्षीण कषाय में तारतम्य रूप से शुद्धोपयोग होता है । उसके बाद (१३) सयोगी, (१४) अयोगी गुणस्थान इन दो में शुद्धोपयोग का फल है। ऐसा इस गाथा का भावार्थ है । ४१ इस आवचन से निश्चित होता है कि शुभोपयोग का प्रारंभ चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ होता है एवं पांचवा, छट्ठा, सातब गुणस्थान में उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है । उत्कृष्ट शुभोपभोग श्रावक को नहीं हो सकता है वह मात्र लिंगी सातवे गुणस्थानवर्ती मुनि को ही हो सकता है। शुद्धोपयोग ( शुक्लध्यान नहीं है) मुनि की ध्यानावस्था से आरंभ होकर १२ वे गुणस्थान तक रहता है । १३ व १४वाँ गुणस्थान में पूर्ण शुद्धोपयोग प्रगट होता है जो शुद्धीप का फल है । J प्रत्येक जीव स्वभाव से स्वयं सिद्ध भगवान के समान शुद्ध बुद्ध निर्लेप निरंजन अनंत ज्ञान दर्शनवान होते हुए भी कर्म के कारण इसमे जीव अनेक अवस्थाओं में रहता है। वह सामान्य १४ प्रकार है । गुणस्थान :- गुणस्थान का अर्थ है आध्यात्मिक सोपान । जिस सोपान के माध्यम से जीव संसार रूपी भूपृष्ठ से ऊपर ऊपर चढता हुआ मोक्षरूप महल में पहुँच जाता है। त्रिकाल में इस आध्यात्मिक सोपान के माध्यम से ही जीवात्मा परमात्मा बनता है, अन्य कोई उपाय न ९) समवशरण स्वरुपाय धर्मायतन बीजाय । नमो जिन चैत्यालय चैतन्यरुपप्राप्तये || १०) नवलब्धिप्राप्ताय नमदेव स्तवोऽयम सच्चिदानंदसिद्धये बाह्याभ्यन्तर धर्मोऽयम् || Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतो न भविष्यति । जीवकी अत्यन्त आध्यात्मिक पुस्त एवं निम्नश्रेणीय अवस्था मिथ्यात्व गुणस्थान है। इस पतित आत्मान्धकार अति नीच अवस्था में जीव अनादि काल से पतित होकर रच पच रहा है । जव अनुकूल द्रव्य, क्षत्र, काल, भान रूपी निमित्त एवं उपादान का सम्यक् समन्वय रुप समवाय होता है एवं सद्गुरु का उपदेश मिलता है तब जाकर उसकी सुप्त अवस्था नष्ट होकर, अर्थात् जाग्रत होकर खडा होता है एवं स्वयं को अवलोकन करता है। एवं स्वस्वरुप को प्राप्त करने के लिये मोक्ष की ओर उत्साह पूर्वक आग पुरुषार्थ मे सुदृढ कदम उठाता है । आगे बढ़ते बढ़ते मोक्ष महल को प्राप्त करता है । इस अलोकिक मोक्ष महल की यात्रा को ही गणस्थान कहते हैं । १) मिथ्यास्व गुणस्थान : सत्य से बिपरीत मान्यता, श्रद्धा, प्रतीति, विश्वास रुप परिणाम ब भावोंको मिथ्यात्व कहते हैं। सत्य का पूर्ण साक्षात्कार सर्वज्ञ बीतरागी देव है । सर्वज्ञ भगवान ने दिव्य ध्वनी मूलक उस परम सत्य का प्रमाण नय, निक्षपों के द्वारा प्रतिपादन किय है, उनके द्वारा प्रतिपादित सत्य अर्थात जो उनके द्वारा कहे हुए द्रव्य, तत्व, पदार्थों में विश्वास नहीं। श्रद्धा नहीं, वह मिथ्यादृष्टि है क्योंकि उसकी श्रद्धारूप दृष्टी विपरीत होन के कारण बह पदार्थ को भी विपरीत रूप श्रद्धान करता है सिद्धांत चक्रवर्ती नेमीचन्द आचार्य गोभटसार में कहते है : मिच्छाइट्टी जीवो उवा; पवयणं ण सद्दर । सहवि असम्भावं उवइछे वा अणुवइठ्ठं ॥ १८॥ ( गो. सार) The wrong-believing soul does not believe in the noble dectrine preached (by the conquerona) and he eves in the nature of things ab it really is not whether it be preached or not hy (the teaching or ('seription of ) any one. मिथ्यादृष्टिजीवः उपदिष्टं - अहंदादिभियाख्यातं, प्रवचन आप्तागम पदार्थत्रयं न श्रद्दधाति-नाप्युपगच्छति । प्रकृष्टं वचनं यस्यासों Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ प्रवचनः आप्तः, प्रकृष्टस्य बत्रनं प्रवचनं – परमागमः, प्रकृष्ट मुच्यतेप्रमाणेन अभिधीयते इति प्रवचनं पदार्थः, इति निरुक्त्या प्रवचन शब्देन तत्प्रामाभिधान ! पुन: पिपादृष्टिः असावं मिथ्यारुपं प्रवचनं आनागम पदार्थ उपदिष्टं -. आप्ताभासोः प्रकथितं अथवा अनुपदिष्टंअकथितमपि श्रद्दधाति । भिभ्यादष्टि जोय उपदिष्ट' अर्थात् अर्हन्त आदि के द्वारा कहे गये, 'प्रवचन' अर्थात् आप्त आगम और पदार्थ ये तीन, इनका श्रद्धान नहीं करता है। प्रवचन अर्थात् जिसका वचन प्रकृष्ट है एसा आप्त, प्रकृष्ट का बचन प्रवचन अर्थात् परमागम, प्रकृष्ट रूप से जो कहा जाता है व प्रवचन अर्थात पदार्थ । इन निरुक्तियों से प्रवचन शब्द से आप्त, आगम और पदार्थ तीनों कहे जाते है । तया वह मिथ्यादृष्टि असद्भाब अर्थात् मिथ्यारूप प्रवचन यानी आप्त आगम पदार्थ का 'उपदिष्ट' अर्थात आप्राभासों के द्वारा कथित अथवा अकथित का भी श्रद्धान करता है । पवमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोवेदि सुत णिद्दिष्ठठं । सेसं रोचतो वि हु मिच्छादिही मणेयवा ||३९।। (भगवती आराधना) विजयोदया टीका- पदमक्खरं इति । पद शब्देन पद शब्दस्य सहकारी पदस्यार्थ उच्यते । अक्खरं च इति स्वल्प' शब्दोपलक्षणं स्वल्पमप्यर्थ शब्दश्रत वा । जो यः। ण रोचेदि न रोचते । सूत्त णिदिळं पूर्वोक्त प्रमाण निर्दिष्टम । सेसं इतरश्रुतार्थ श्रुतांशं । रोचतोऽपि । (२) मंगलाचरणं ( सुमण पुप्फ संचयण ) प्राकृत मंगलं मयवदो आदा मंगलं अणयंत धम्मो । मंगलं रणतयं मंगलं वत्थु सहायो ।। १ ।। मंगलं विसुद्ध आवा मंगलं आतं परमेछी । मंगल साधयत्तयं मंगलं रयणनयं ॥ २ ।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिच्छादिट्ठी मिथ्यादृष्टिरिति । मुणेदब्बो ज्ञातव्यः । महति कुंछे स्थित बव्हपिपयो यथा विष कणि का दूषयति । एवम श्रद्धानकणिका मलिन यत्यात्मनमिति भावः । श्रुत मे कहा गया है कि एक पद का अर्थ अथवा एक अक्षर का भी अर्थ जो प्रमाणभूत मानला श्रद्धा नहीं करता है वह बाकी के श्रुतार्थ को या अश्रुतांश को प्रमाण जानता हुआ भी मिथ्यादृष्टी ही है। बड़े पात्र में रक्खे हुए वहुत दूध को भी छोटी सी विषकणिका बिगाड़ती है । इसी सरह अश्रद्धा का छोटा सा अंश भी आत्मा को मलीन करता मबि सुबणाण बलेण दु सच्छंद बोल्लेदे जिद्दिछ । जो सो होवि कुदिछी ण होवि जिण मग लग्गखो ॥ २ ॥ ( रयणसार कुदकुंदाचार्य । जो मतिज्ञान-श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम से प्राप्त हुए मतिज्ञान-श्रुतज्ञान के कारण उद्धत होकर स्वयं के मनमाने ज्ञान द्वारा अपने मत अर्थात पक्ष को लेकर स्वच्छंद होकर कपोल कल्पित मत का प्रतिपादन करते हैं, जिनवाणी को नहीं मानते है वे मिथ्यादृष्टी अज्ञानी जिन धर्म से वाह्य है। यदि जिनागम को दिखाने पर यथार्थ वस्तु का श्रद्धान करने लगता है और पूर्व कल्पित मत-पेक्ष का त्याग करता है वह सम्यग्दष्टी बन जाता है । अन्यथा मिथ्यादष्टी रहता है। मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीय वंसणो होदि । ण य धम्म रोचेदि ह महुरं ख रसं जहा जरिदो ।। १७ ।। ( मोम्ममसार जीवकांड ) मिथ्यात्वं उदयागतं वेदमन्-अनुभवन् जीवा विपरीत दर्शनः अतत्व श्रद्धा य तो भवति न केवलं अतत्वमेव श्रद्धदत्ते अनेकांतात्मकं कर्म वस्तुग्वभावं रत्नत्रयात्मक मोक्षकारणभूत धर्म न रोचते ( नाभ्युगच्छति ) अत्र दृष्टांतमाह-यथाज्वरित: पित्तज्वराकान्हो, मधुर-क्षीरादिरसं न रोचते तथा मिथ्यादृष्टीधर्मं न रोचते इत्यर्थः ।। १७ ।। उदय में आये मिथ्यात्व का वेदन अर्थात् अनुभवन करने वाला Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ जीव विपरीत दर्शन अर्थात् अतस्य श्रद्धा से युक्त होता है । वह न केवल अतत्व की ही श्रद्धा करता है, अपितु अनेकान्तात्मक धर्म, बस्तु स्वभात्र, मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रयात्मक धर्म को भी पसन्द नहीं करता । दृष्टांत :- पित्त ज्वर मे ग्रस्त व्यक्ति मीठे दुध रसादि को पसन्द नहीं करता, उसी तरह मिथ्या दृष्टि को धर्म नहीं रुचता है । इंदिव विसय सुहादिसु मूढमवी रमदि न लहदि तच्छ । बहुबुक्समिवि प चितदि सो चेव हवदि बहिरप्पा ।।१२९॥ (रयणसार) जो मूढमति इन्द्रियजनित मुख में रमण करता हुआ उसको सुख मानता है, यहृदुःखप्रद नहीं मानता है, वह आत्म तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता है, वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है। पूर्व सचित मिथ्यात्व कर्म के उदय से जो स्वयंमेव विपरीत भाव होता है उने निसर्ग व अगृहीत मिथ्या दृष्टि कहते है। जो कुगर के उपदेश मे विपरीत भाव होते है उसे अधिगमज व गृहीत मिथ्याष्टि कहते है । मिथ्यात्व के कारण जीव अवस्तु मे वस्तु भाव, अधर्म में घमभाव, कुगुरु में गुरु भाव, कुशास्त्र में सुशास्त्र भाव, धारण करता है। वरात्मा केवल शरीर पोषण करता है, अतिन्त्रिय आत्मोत्य सुख से बहिर्मुख होकर विषयसुख में ही लीन रहता है । बाह्य-भौतिक हानी-वृद्धि में अपनी हानी-वृद्धि मानकर सुखी दुःखी होता है। सामान्य मे मिथ्यात्व एक प्रकार होते हुए भी विशेष अपेक्षा अर्थात् द्रव्य-भाव में दो प्रकार एकान्त, विपरीत, संशय, विनय, अज्ञान की अपेक्षा ५ प्रकार भी होता है । इनमें सांख्य-चार्वाक मत मिलाने से ७ प्रकार का मिथ्याल होता है। विशेष रुप से क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादी के ६७ और वैयनिकवादियों के ३२ इस णमो आप्त परमेठ्ठीणं णमो णिस्कम्माणं पमो साधयाणं । णमो रयणतयाणं णमो लोये सम्ब देवाणं ।। ३ ।। मंगल भयवचो पारस मंगलं आइरिय वोरो। मंगलं संति कुंयुध मंगलं सिरि जिण धम्मो ।। ४ ।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार मिथ्यावादियों के ३६३ भेद होते है । कोई एकांत से काल, ईश्वर, आत्मा नियति और स्वभाव स्वतंत्र स्वतंत्र रूप से कर्ता मानते है । कुछ मिथ्यावादियों का स्वरूप : एकांतकालवादी:- काल ही सबको उत्पन्न करता है, काल ही सबका नाश करता है, सोते हुए प्राणियों को काल ही जगाता है सो ऐसे काल को ठगने में कौन समर्थ हो सकता है ? इस प्रकार काल से ही सब कार्य मानना, कालवाद कहलाता है । एकांत निसियाबी:- ओ जिस समय जिसस जैसा जिसको नियम से होना है वह उस समय उससे वैसे उसके ही होता है ऐसा नियम में सभी वस्तु को मानना नियतिवाद कहलाता है । किसी भी कार्य के लिये पंच कारणों की आवश्यकता: इसी प्रकार कोई मिथ्यावादी एक एक कारण से कार्य उत्पति को मानते है परंतु प्रत्यक कार्य सम्यक् अन्तरग-बहिरंग भावों के सद्भाव से एवं विरोधी कारणों के अभाव से होता है । यथा: कालो सहाय णियइ पुवकयं पुरिस कारणेगंता । मिच्छतं ते वेव उ समासओ होंति सम्मतं ।। ५३ ।। ( सन्मतीसूत्र ) प्रत्येक कार्य के लिये १) काल २) स्वभाव ३ नियति ४)पूर्वकृत ५) पुरुषार्थ । इन पांच कारणों का सम्यक् समन्वय चाहिये और प्रत्येक कार्य के लिये पांचो को मानना सम्यक्त्व है । एक एक को कार्योत्पत्ति में कारण मानना मिथ्यात्व है। कालरूपी कारण केवल वाह्य उदासीन कारण है, उपादान अथवा प्रेरक कारण नहीं है । यदि काल को ही सम्पूर्ण कार्यों का कर्ता मानेंगे तब काल को ही कर्म बंध होना चाहिये, काल को ही सुख दुःख होना चाहिये, काल को ही मोक्ष पद की प्राप्ति होनी चाहिये ? परंतु यह आगम, प्रत्यक्ष अनुमान विरुद्ध है क्योंकि इस प्रकार उपलब्ध नहीं है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ इसी प्रकार नियति को ही यदि कार्य के लिये कारण मानेंगे तब काल, स्वभाव, पूर्वकृत, पुरुषार्थ रूप चार कारणों के लोप का प्रसंग प्राप्त होता है परंतु विकल अर्थात पडून कारण से कार्य नहीं हो सकता है। द्रव्य में परिणमन के लिये उदासीन रुप काल का अभाव होने पर प्रव्य में परिणमन नहीं होगा, स्वमाव के अभाव से द्रव्य का ही लोप होगा । पूर्वकृत के अभाव से एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक एवं मिथ्यात्व से चौदह गुणस्थान तक जीव की अवस्था विशेष का अभाव होने से संसार का अभाव हो जायेगा, जिससे प्रत्येक जीव शुद्ध-बुद्ध, नित्य निरंजन स्वरुप जायेंगे जो कि प्रत्यक्ष विमद्ध है। कर्म नहीं है तो कर्म नष्ट करने के लिये पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है ? संसार के अभाव से प्रतिपक्ष भूत मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। संसार-मुक्त जीवों का अभाव होने से प्रतिपक्ष भूत अजीव द्रव्य का अभाव हो जायेगा, तब सर्व शून्यता का प्रसंग आयेगा जो कि अनुपलब्ध है। यदि केवल नियति को ही कार्य में कारण मानेंगे तो पुरुषार्थ के अभाव होने से लौकिक व अलौकिक कार्य के लिये जीव बुद्धिपूर्वक अथवा अबुद्धिपूर्वक क्रिया करता है उसका लोप होगा, पुरुषार्थ के अभाव से मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। परंतु अनंत केवली हुए वे सभी पुरुषार्थ पूर्वक, बुद्धिपूर्वक, गृहस्थ जीवन का त्याग कर, शरीर स्थित पोषाक निकालकर, केशलोंच कर, निग्रन्थ रुप धारणकर, कठोर अन्तरंग-बहिरंग तपश्चरण कर मोक्षपदवी प्राप्त किये है। धृव सिद्धि तिस्थयरो चउणाण जुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुवं कज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि ।।६०॥ (अस्टपाहुड) उदय लोय ह्यियर अणंत सुहसंति वातारो । विस्ससंति पवातारो जो सो हवई धम्मो ।। ५ ॥ (३) सुमण पुष्फ संचयण - जिण धम्मो - जत्थ अयंत जत्थ सियावाय जत्य रयणत्तय होई । जत्थ जीवदया जत्थ उह्य गया तत्थ जिण धम्मो होई ॥६॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ तद्भव मोक्षगामी, चरमशरीरी, निश्चितरुप से तद्भव में मोक्ष जानेवाले, जन्म से ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि, मति-श्रुत-अवविज्ञान के घारक होते है और अन्तरंग-बहिरंग कारण मिलने पर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर "नमः सिद्धेभ्यः” बोलकर केशलोंच कर दीक्षा लेते है तब अनेक ऋद्धि-सिद्धि सहित मनःपर्यय ज्ञान प्रगट होने पर चार ज्ञान धारी होने के कारण उन्हे स्पष्ट अवगत है कि मैं निश्चित मोक्ष जाऊंगा तो भी तिर्थंकर भगवान् कठोर-कठोर अन्तरंग-बहिरंग तपश्चरण करते है, मासोपवासी होकर पर्वत के शिखर पर ग्रीष्म ऋतु में, जिस समय पाँव के मीचे पृथ्वी जलती है और सूर्य ऊपर अत्यन्त संताप देला है, चारों ओर ऊष्ण वायु शरीर को शोषण करती है, तब भी कम शत्रु को नष्ट करने के लिये अन्तरंग बहिरंग तपश्चरण करते है, अन्यथा कर्म नष्ट नहीं हो सकता है, कर्म नष्ट हुए चिना शाश्वतिक आत्मोत्थ अतिन्द्रिय ज्ञानानंद सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है । तोश्वरा जगज्जेष्ठा, यद्यपि मोक्षगामिना । तथापि पालितं तैश्च चारित्रं मुक्ति हेतवे ।। जगत में ज्येष्ठ तीर्थ के ईश्वर जो निश्चित मोक्षगामी है तो भी । वे मुक्ति के हेतु चारित्र को पालन करते है। जवि ण वि कुवि छेदं ण मुच्चवे तेण बंधणवसो सं । कालेण दु बर्गेण विण सो गरो पावदि विमोक्खं ॥२८९।। (मोक्ष अधिकार समयसार) जह बंधे छेलण य बंधण बद्धो दु पाववि विमोक्खं । तह बंधे छेतूण य जीवो संपावि विमोक्खं ॥२९२६॥ (मोक्ष अधिकार समयसार) Ass. PET'son, who lhas been in shuckles for a long timu may be aware of tho nature of hia bundlage, intI'IIN: Ur fueble, and also its duration still 80) long y 2: de not make any cffort to break them, he clore 1860. got him welf free from the chains, and muy luvu 1 rxmain sn. for a long time without obtaining free, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ dom Similarly a person with karmic bondage, even if h3 has the knowledge of the extent, the nature, the duration, and the strength of the karmic bondage,does not get liberation ( by this mere knowledge i but he gete complete liberation if pure in heart -289 As one bound in shackles geta release only on breaking the shacklos, so also the self attaionse emrin - cipation only by breaking ( Karmic ) bondage 292 जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति:- ज्ञानन्नपि यदि बंत्रच्छेद न करोति तदा न मुच्यते तेन कर्म बंध विशेषेणामुच्यमानः सन् पुरुषो बहुतर कालेऽपि मोक्षं न लभते ।। २८९ ।। यथा बंधन बद्धः कश्चित्पुरषो रज्जुबंधं श्रृंखला बंधं काष्ठि निगल बंवा कमपि बंधदित्वा कमपि बंधं द्दित्वा कमपि मित्वा कमपि मुक्तवा स्वकीय विज्ञान पौरुष बलेन मोक्षं प्राप्नोति । तथा जीवोऽपि वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान । युधेन बन्धं हित्वा द्विधाकृत्वा भित्वा विदार्य मुक्त्वा छोडयित्वा च निज शुद्धात्मोपर्लभ स्वरुप मोक्षं प्राप्नोतीति ॥ २९२ ॥ कोई एक पुरुष धातु निर्मित श्रृंखला से बंधन होकर पडा है, वह उस श्रृंखला का वर्ण, स्वभाव, गुण धर्म के बारे में जानता है, मानता है और मनन चितवन भी करता है, तो भी तब तक उस बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है, जब तक वह उस बंधन को छेदन, भेदन, खण्डन नहीं करेगा । उसी प्रकार संसारी जीव कर्म रूपी बंधन में पड़ा है विषय I अधम्मो अण्णाणं दुष्ठचारिय विसदियो एयंत पक्कवाई | सपर उय लोयझाणी सुहसंति विध्धकर हवई अधम्मो || ७ || आदा धम्मो के णासेण सगदोसो मोहो णात्थि निश्चयेण | ले णासेण धम्मो होदि हू णिच्चयेण ॥ ८ ॥ - — - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म जानता है, मानता है, और बंधन से मुक्त होने के लिये चिंतन मनन भी करता है, परंतु जब तक कर्म बंधन को नष्ट करने के लिये दुख पुरुषार्थ रूप क्रिया नहीं करेगा, वह पुरुष बहुकाल तक मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है । जैस उज ( रस्सी), लोह, स्वर्ण, काष्ठ रूप बंधन को तोडकर फोडकार, खोलकर, नष्ट कर अपने विज्ञान और गृहपार्थ के बल से उस बंधन से मुक्त हो सकता है। उसी प्रकार मुमुक्षु वीर भी स्वविज्ञान, पुरुषार्थ रूपी वीतराग निविकल्प स्वसंवेदन ज्ञान के बल से उग बंधन को छेदकर, भेदकर, खोलकर, तोडकर, नष्ट कर, विदारगा कर अपने शुद्धात्मा के उपलम्भ स्वम्प मोक्ष को प्राप्त करता है, वहीं परम पुरुषार्थ है । विना पुरुषार्थ मोक्ष नहीं होता, केवल नियति को मानना, परम पुरुषार्थ का तिरस्कार करना, अवहेलना करना, नकार करना है। इसलिय एकान्त नियतिवाद घोर मिथ्यात्व है. शिथिलाचार भ्रष्टाचार ! का पोषण है । यदि नियति से सब कुछ होता है तो धनसम्पत्ति के लिये व्यापार, पुत्र उत्पत्ति के लिये विवाह, रोग निवारण के लिये औषध सेवन, ज्ञानार्जन के लिये विद्यालय जाना, शास्त्र अध्ययन, प्रवचन, शिबिर आदि की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार सम्पूर्ण मिथ्यात्व के कारण बस्तु स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान एवं आत्म स्वरुप का विपरीत श्रद्धान होने से मिथ्यात्व संसार का मूल कारण है, कर्म बंध का प्रधान कारण है, अधर्म का आधार है, आत्म पतन के लिये मुल हेतू है । सिथ्यात्व में बंध :"मिश्या दर्शनाऽविरतिप्रमाद कषाय योगाबंध हेतवः" ।। मिथ्यादर्शन, अबिरति, प्रमाद, कषाय और योग बंध के हेतु है व्योंकि इन कारण पूर्वक ही बंध होता है । "त एते पञ्च बंध हेतवः रामस्ता ब्यस्ताश्च भवन्ति । तद्यथा मिथ्यादण्टः पञ्चापि समृदिता बंध हेत.बो भवन्ति यं पांचों स्वतंत्र स्वतंत्र बघ के हेतु है और समुदाय से भी बंक के कारना है जैसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पांचों बंध के लिये Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण है। सासादन, मिश्न, असंयतसम्यग्दृष्टि इन तीन स्थान में मिथ्याव को छोड़ अन्य अविरति आदि चारों प्रत्यय बंध के कारण है। जब तक मिथ्यात्व गणस्थान में मिथ्यात्व प्रकृति उदय में रहती है तव तक मिथ्यात्वादि १६ प्रकृतितों का बंध होता है उसके आगे बंद च्छित्ति हो जाती है। मिच्छत्त हुंड सदाऽसंपत्तेयक्ल थावरावावं । सुहमतिय विलिदिय णिरंयबु गिरयाउ मिन्छे ।।१५।। (कर्मका) मिथ्यात्व, हुण्डक संस्थान, नपुंसकवेद, असम्प्राप्तासपाठिका संहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलय, नरकति. नरकगत्यानुपूर्वी और नरकामु इन १६ प्रकृतियों की बंध ट्युच्छित्त मिथ्यात्व गुणस्थान के अंत में होती है । सामण्ण पच्चया खल चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायं जोगा य बोद्धव्वा ॥१०॥ ( समयसार ) सामान्य से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बंध के का है अर्थात् जिस समय में मिथ्यात्व कर्म का उदय होता है उस समय उदयगत मिथ्यात्व कर्म के कारण जो भाव होता है उसके माध्यम से पुन: नवी कर्म बंध होता है इसी प्रकान अविरति आदि से जानना चाहिये । यहाँ पर प्रमाद को आचार्यश्री ने नहीं गिनाया है तो क्या प्रमाद बंध के लिये कारण नहीं है, अवश्य कारण है किंतु प्रमाद को कषाय में अन्तर्भूत कर दिया है क्योंकि कषाय के कारण प्रमाद होता है। द्रव्य संग्रह में “जोगा पडि प्रदेशा टिदिठ अनुभाग कसायदो होदि" इस में कसाय को ही स्थिति और अनुभाग का कारण बताया जे जासेण रागद्दोसो मोहो आस्थि णिच्चयेण । से फासेण अधम्मो होदि हुणिच्चयेण ।। आदा धम्मो दुविहं सायार अणायार भयेण । सायार साधयं पुणो अणायारं साजन ।। १० ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। तो मिथ्यात्व और अविरति बंध के कारण नहीं है, अवश्य है, किंतु संक्षेप से कषाय में मिथ्यात्वादि को अन्तर्भूत कर दिया है। यहाँ पर कषाय प्रत्यय अंत दीपक है, इसलिये उसके पहले पहले के सभी कारण उससे ग्रहण किये गये है। सूत्रः सम्वतित्वाणुभागा मिच्छतस्स उक्कस्साणु भागुतोरणा । अणंताणबंधोणमण्णदरा उक्कस्साणु भागुदीरणा सुल्ला अणंत गुण होषा ।। । ज. प. पु. ११ पे. १२३-१२४ सब से मिथ्यात्व को उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा तीव्र अनुभाग वाली है । अर्थाथ् सब से तीव्र शक्ति से संयुक्त है। उससे अनंतानुबंधीयों को अन्यतर (कोई एक) उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा परस्पर समान होकर मिथ्यात्व को उत्कृष्ट अनु पाग उदीरणा से अनंत गुणी हीन है । शंका :- मिथ्यात्व को उत्कृष्ट अनुभाग उदोरणा सत्र में तीन । क्यों है । समाधान :- " सव्व दब बिसय सदहण गुण पडि बंधितादो" अर्थ ,- सर्व द्रव्य विषय श्रद्धान गुण का प्रतिबंधन मिथ्यात्व कर्म करता है। ज. प. पु. ११ पे. १२३ मिच्छतपच्चयो खलु बन्धो जवसाम यस्य बोधव्यो । उवसंते सासणे तेण परं होदि भय गिजो ।। (धवल) मिथ्यात्व का उपशांत अवस्था में और सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व निमित्तक बंध नहीं होता है अन्य स्थान भी भजनीय है । अर्थात मिथ्यात्व को प्राप्त हुए जीव को मिथ्यात्व' निमित्तक बंध होता है। अन्य गुणस्थान प्राप्त जीव को बंध नहीं होला । एक विचारणीय विषय है कि ४० कोडा कोडी सागर स्थिति वाला चारित्र मोहनीय ( अनंतानुबंधी आदि ) ७० कोडा कोडी सागर स्थिति प्रमाण दर्शण Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ है। यदि मोहनीय को कैसे बंधकर को ही स्थिति जध का कारण मानेंगे तो दर्शनमोहनीय का स्थिति बंध मात्र कषाय के रहने पर ७० कोड़ा कोडी सागर का और मिथ्यात्व मे १६ प्रकृतियों का जो बब होता है वह नहीं हो सकता है। अनंतानुबंधी भी मिथ्याल के सहाय से ही अनंत संसार का कारण हो सकती है अन्यथा नहीं । अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ कषाय आत्मनः सम्यक्त्व परिणाम कषन्ति अनंत संसार कारणत्वात् अनन्तं मिथ्यावं, अनंत भव संस्कार कालं वा अनुबन्धन्ति सुघटयन्तीत्यनन्तानुबन्धिन इति ॥ ( गो. सार. टीका माथा २८३ ।। ) अनंतानुबंधी क्रोध - मान-माया - लोभ कषाय आत्मा के सम्यक्त्व परिणामको घातती है क्योंकि अनंत संसार का कारण होने से मिथ्यात्व कर्म को अनंत कहते है । उस अनंत भव के संस्कार काल को बांधती है इसलिये उसे अनंतानुबंधी कहते है । एक क्षण के लिये भी सम्यक्श्व हो जाता है तो संसार अनंत नहीं रहता है संसार परीत हो जाता है जो कि अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र है । न सम्यक्त्व समं किञ्चित् त्रैकाल्यं त्रिजगत्यपि । श्रेयोsaure मिथ्यात्व समं नान्यत्तन् भूताम् ||३४|| In the three periods of time and the three worlds there is nothing more auspicious than Right Faith for the living beings, nor any thing more inqntaacious than a false conviction ( रत्नकरण्ड श्राव ) — सावय अट्ठ मूल गुण जुत्तो सत्तविणं परिक्को दिवा भोयणं सुद्ध जलं देव दंसणं सावय धम्मो ।। ११ ।। समण — अठ्ठावीस गुण जुलो णिम्मम झाणज्यण संयुतो । परिसह उपसभा जयी समयारुवी हवई समयो ।। १२ ।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन जगत् में तीन काल में सम्यक्त्व के समान श्रेयस्कर जीवों के । लिये अन्य कुछ नहीं है एवं मिथ्यात्व के समान अश्रेयस्कर अन्य कुछ। नहीं है। २) सासादन : आदिम सम्मत्तद्धा समयादो छायलित्ति वा सेसे । अण अण्णवरुदयावो णासिय मम्मोत्ति सासणक्खो सो ||१९|| सासादन अर्थात असादन सहित । जिसने उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर सम्यक्त्व के काल में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट मे आवली शेष रहने पर अनंतानुबंधी संबंधी क्रोधादि एक कषाय का उदय होनेपर जिसने सम्यक्त्व रुपी रत्न पर्वत के शिखर से गिरकर मिथ्यात्व रुप भूमि के सन्मुख हुआ है परंतु मिथ्यात्व रुप भूमि में अभी तक पहुंचा नहीं, उस पतनभिमुख आत्मीक परिणाम विशेष को सासादन गुणस्थान ।। कहते है। ३) मिश्र गुणस्थान : सम्मामिच्छुदएण य जत्तंतर सव्वधादि कज्जेण । ण य सम्भं मिन्छ पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१॥ (गो. सार) जात्यंतर सर्वघाति के कार्य रूप सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय । से जीत्र के एक साथ सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रुप मिश्र परिणाम होता है उस समय में शुद्ध न सम्यक्त्व रहता है न मिथ्यात्व रहता है जिस प्रकार मिले हुए दही-गुड में खट्टा और मीठा दोनों युगतप मिले हुए रहते हैं उनको अलग - अलग कतना शवय नहीं है उसी प्रकार मिश्र अवस्था में सम्यम्मिथ्यात्व भाव रहते है। जिस प्रकार घोडी गधा से उत्पन्न हुआ संतान न घोडा होता है और न गवा होता है, खच्चर होता है उसी प्रकार मिश्र परिणाम होते है। " गंगा गय गंगादास, अममा गय जमनादास" नीति के अनुसार सम्यक् देव गुरु शास्त्र को। भी मानता है और मिथ्या देव गुरु शास्त्र को भी मानता है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४) अविरत सम्यग्दृष्टि :-- को बाता मोक्ष का मंगलाचरण होता है। अन्तरंग-बहिरंग समस्त कारणों के सद्भाव से मिथ्यात्व एवं अनतानुबंधी चतुष्क का उपशम, क्षयोपशम, क्षय से यथाक्रम उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। जो कि मोक्षाफल के लिये बीजभूत है। जिस प्रकार बीज के अभाव से बीज की उत्पत्ति वृद्धि नहीं हो सकती है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रुप बीज के अभाव से मोक्ष रुपी वृक्ष की उत्पत्ति, वृद्धि नहीं हो सकती है। सम्यग्दर्शन सहित ही ज्ञान व चरित्र सम्यक है अन्यथा मिथ्या है । सम्यग्दर्शन एक अंक प्रमाण है और ज्ञान चारित्र दो शून्य समान है जैसे स्वतंत्र शून्य का कोई मूल्य नहीं है परंतु एक के आगे जोडने पर १०० संख्या हो जाती है 1 वर्तमान शून्य में विशेष मूल्य है जिसके कारण एक का मूल्य बढकर सौ हो गया। यदि सौ पूर्ण मोक्ष मार्ग है तो स्वतंत्र एक एक संख्या रुपी सम्यग्दर्शन मोक्ष मार्ग नहीं है. दशक स्थान स्थित शून्य रुपी सम्यग्ज्ञान पूर्ण मोक्षमार्ग नहीं है तथा एक-एक स्थान स्थित चारित्र रुप शून्य पूर्ण मोक्षमार्ग नहीं है, परंतु सम्यग्दर्शन रुप एक के आगे सम्यग्ज्ञान रुप शुन्य जोडने पर दश तथा सम्यकचारित्र रुप शन्य जोडने पर सौ हो जाता है जो कि पूर्ण मोक्षमार्ग है । वर्तमान काल के संस्कृत जैनवाङमय के आद्य सूत्रकार उमास्वामी प्रथम सूत्र में कहते है : " सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः '' | इस सूत्र में सम्पग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि " बहुवचन है और मोक्षमार्ग एकवचन रखने का एक महान रहस्य छिपा हुआ है। जिसका अर्थ है स्वतंत्र सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग नहीं है परंतु तीनों का सम्यक् समन्वय ही मोक्ष मार्ग है। सूत्र में जो पद ऋम रखा गया है मोण शाणामयण णिम्मम णिरहंकार संजुसो । आसा संकप्प भुक्को जो सो हवई सो समणो ।। १३ ॥ समदारस सेई सय जीये समभाव सया भाई। साम्ब सग सच्यासो जो सो समणो होई ॥ १४ ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें भी एक महान आगमिक एवं आध्यात्मिक सूक्ष्म रहस्य भरा है अर्थात् सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक चारित्र होता है। अन्य भी एक कारण है जो कि सम्पग्दर्शन पूर्ण होने के बाद मी साक्षात तत्वाल मोक्ष नहीं मिलता है, जैसे क्षायिक सम्यग्दर्शन चतुर्दा गुणस्थान में पूर्ण होने पर तत्क्षण मोक्ष नहीं होता है। कोई जधन्य से एक भव और उत्कृष्ट से ४ भवों तक परिभ्रमण करता है। सम्यग्ज्ञान १३ वे गुणस्थान में पूर्ण हो जाता है तो भी तत्क्षण मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है जघन्य से अन्तर्मुहुर्त से लेकर उत्कृष्ट से से कुछ कम एक पूर्व कोटी वर्ष तक संसार में रुका रहता है । चौदहवें गुणस्थान के अंत में शैलेश अवस्था प्राप्त होती है एवं चारित्र पूर्ण होला है सम्पूर्ण कर्म नष्ट होकर शाश्वतिक मोक्ष पदवी प्राप्त होती है । इस सिद्धांत को जब हम सुक्ष्म दृष्टि से अबलोकन करते है कि सम्यग्दर्शन की पूर्णता माक्षमार्ग की पूर्णता नहीं है, किंतु सम्यक चारित्र की पूर्णता नहीं है, सम्यग्ज्ञान की पूर्णता भी मोक्षमार्ग को पूर्णता नहीं है, किंतु सम्यक्चारित्र की पूर्णता ही मोक्षमार्ग की पूर्णता है । इसलिये सूत्र में पहले सम्यग्दर्शन को उसके पश्चात सम्यग्ज्ञान और शष में सम्यक्चारित्र को रखा है । मोक्ष मार्ग का प्रारं+ सम्यग्दर्शन से एवं पूर्णता सम्यकचारित्र से होती है। जहां पर सम्यक् चारित्र है वहां सम्यग्दर्शन व मम्यग्ज्ञान निश्चित रुप से रहेगे ही, कित जहां पर सम्यग्दर्शन व सम्पज्ञान है वहां पर चारित्र भजनीय है अर्थात हो भी सकता है और नहीं भी । जैसे किसी के पास दस हजार रुपये है उसके पास सौ रुपये, दस रुपये है ही । किंतु जिसके पास दस रुपये और सौ रुपये है उसके पास हजार रुपये हो भी सकते है, नहीं भी हो सकते है । इसलिये मोक्षमार्ग का धनी सम्यक्चारित्रवान जीव है । जो इंदिएसु विरदो णो जोवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहवि जिणुतं सम्माइछी अविरदो सो ॥ २९ ।। ( गो. सार. ) जो इंद्रिय के विषयों से विरत नहीं है तथा अस और थावर जीवों की हिंसा से भी विरत नहीं है केवल जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रति Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादित तत्त्वों के ऊपर श्रद्धान रखता है, इसलिये वह जीव अविरत सम्यग्दृष्टी है । अपि शब्द से संवेगादि गुण प्रगट होते है । सम्माइठी जोबो उवहळू पवयणं तु सद्दहहि । सद्दहवि असम्मा, अजाणमाको गुरुजियाना ।। २७ ।। (गो. जी. ) सुत्तावो से सम्मं वसिसिञ्जतं जवा " सह वि। सो चेव हवाइ मिच्छाइछी जीवो तवो पहुडि ।। २८ ॥ { गो. जी. ) जो जीव अहन्त आदि के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन अर्थात आप्त आगम और पदार्थ इनकी श्रद्धा रखता है, साथ ही उनके विषय में . असद्भाव अर्थात अतत्व भी स्वयं के विशेष ज्ञान से शून्य होने से, केवल गुरु के नियोग से जो गुरु ने कहा वही अर्हन्त भगवान की आज्ञा है ऐसा श्रद्धान करता है, वह भी सम्यग्दृष्टी ही है । अर्थात अपने को विशेष ज्ञान न होने से और गुरु भी अल्पज्ञानी होने से वस्तू स्वरुप अन्यथा कहे और यह सम्यग्दृष्टी उसे ही जिनाजा मानकर अतत्व का श्रद्धान कर ले तब भी वह सम्यग्दृष्टी ही है, क्योंकि उसने जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं किया ।। २७ ।। उक्त प्रकार से असत् अर्थ का श्रद्धान करता हुआ आज्ञा सम्यग्दृष्टी जीव जब अन्य कुशल आचार्यों के द्वारा पूर्व में उसके द्वारा गृहीत अस. त्याथ से विपरीत तत्व गणधरादि द्वारा कथित सूत्रों को दिखाकर सम्यक रुप से बतलाया जाचे और फिर भी वह दुराग्रह वश उस सत्यार्थ का - सज्जण . सम्व जीव हिये तत्पर पर दुख सुख समभाई। पसण कुटोल च्चागी समवस्सी हवई सम्मणो ॥ १५ ॥ - दुज्जणो - पर सुहे दुःक्खी पर दुःखे हबई जो सुहि । वसण कुटोल सेई विसम विट्ठी दवई बुढो ॥ १६ ।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्रद्धान न करे तो उस समय से वह जीव मिथ्यादृष्टी होता है, क्योंकि गणवरादि के द्वारा कथित सूत्र का श्रद्धान न करने से जिनाज्ञा का उल्लंघन सुप्रसिद्ध है । इसी कारण वह मिथ्यादृष्टी है ।। २८ ॥ भयवसण मल विज्जिव-संसार सरीर भोग णिविष्णो । अल्छ गुणंग समगो वंसण सुद्धो हु पंचगुरु भत्तो ।। ५ ।। ( रयणसार) जो सप्त भय रो रहित, सप्त व्यसन से रहित, सम्यग्दर्शन के २५ || अतिचार मल दोष से रहित है, संसार शरीर भोग से विरक्त है। सम्यग्दर्शन के ८ अंग सहित है एवं पंच परमेष्ठी को जो भक्ति करता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टी है। __ सम्यग्दर्शन पामान्य से एक प्रकार है सराग सम्यग्दर्शन और दुसरा वीतराग सम्यग्दर्शन अपेक्षा दो प्रकार है । १) उपशम २) क्षयोपशम ।। ३) क्षायिक की अपेक्षा तीन प्रकार का है। १) आज्ञा २) मार्ग ३) उपदेश ४) सूत्र ५) बीज ६) संक्षेप ७) विस्तार ८) अर्थ ९) अवगाढ १०) परम अवगाढ भेद से मम्यक्त्व १० प्रकार भी है । उसमें से प्रथम सम्यक्त्व आज्ञा सम्यग्दर्शन है। यथा आज्ञासम्यक्त्व मुक्तं यदुत विचितं वीतरागाजयैव । स्यक्त ग्रन्थ प्रपंच शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः ।। ( आत्मानुशासन ) दर्शनमोहनीय के उपशांत होने से ग्रंथ श्रवण के विना केवल । दीतराग भगवान की आज्ञा से ही जो तत्व श्रद्धान उत्पन्न होता है उस का आज्ञा सम्यग्दर्शन कहते है क्योंकि उसका श्रद्धान होता है सर्वज्ञ हितोपदेशो भगवान कभी भी अन्यथा उपदेश नहीं करते है जो भी कथन करते है वह सत्य ही कथन करते है। सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिनव हन्यते । आता सिद्ध तु तग्राह्यं नान्यथावादिनो जिना ॥ ५ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग सर्वज हितोपदेशी भगवान के द्वारा प्रतिपादित तत्व त्रिकाल अवाधित परम सत्य एवं सूक्ष्म है । जो कि परोक्ष मतिज्ञान श्रुतज्ञान के अवयवभूत हेतु, तर्क, उदाहरण से खण्डित नहीं होता है । जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं होते है । इसलिये उनकी आज्ञा ग्रहण करने योग्य है, यहां से ही सम्यग्दर्शन का प्रारंभ होता है, आज्ञा सम्यक्त्व तलहदी ( आधारशिला ) है उसके ऊपर अन्य अन्य सम्यग्दर्शन रुपी महल अवस्थित है। कुछ वर्ष पूर्व जैन धर्म के अनेकांतवाद स्याद्वाद, धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, कॉलद्रव्य, परमाणुवाद, वनस्पति एकेन्द्रिय है इत्यादि सिद्धांत अन्य कोई दर्शन एवं विज्ञान नही मानते ये वर्तमान वैज्ञानिक शोध से उपरोक्त समस्त विषय को आज वैज्ञानिक जगत एवं साधारण जन भी मानने लगे है । विज्ञान की नवीन नवीन शोध से जैन धर्म की प्रमाणिकता अधिक अधिक दुनिया के सन्मुख स्पष्ट स्पष्ट होता जा रहा है, इससे सिद्ध होता है कि जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रणीत समस्त सिद्धांत सत्य पूर्ण और तथ्यपूर्ण है, इसलिये जो जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा को नहीं मानता है वह मिथ्यादृष्टी है। ५) देशविरत: सम्यग्दर्शन होने के बाद जीव की सुप्त अवस्था नष्ट होती है । विपरीत श्रद्धान नष्ट होने के पश्चात आत्मा की उन्नति के लिये अथवा मोक्ष प्रयाण के लिये उठकर खड़ा होता है परंतु पूर्व संस्कार के कारण चारित्र मोहनीय के तीन उदय से मोक्ष मार्ग के साधन मत किसी प्रकार का चारित्र धारण नहीं कर पाता है। जब देश चारित्र प्रतिबंधक अप्र - पुरिसो - पुरु गुणा णुराई पुरु साध्ये जो होई लोण | पर णिव अप्पा पसंस्सा रहियो जो सो हबई पुरिसो ।। १७ ॥ - इत्थी - माया काम मुत्ति कलहो कुछ बचणाणु राई । पर दोस संसणो पण्णा अप्पा दोस छापणा इत्थी ।। १८ ।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० त्याख्यान कषायों का उपशम या क्षयोपशम होता है तब आत्मिक शक्ति कुछ वृद्धि होने के कारण मोक्षमार्ग मे बढ़ने के लिये कदम उठाता है । मोक्ष के साधनभूत सम्पूर्ण व्रतों का पालन करने के लिये आत्मशक्ति नहीं होने के कारण देश व्रतों को धारण कर मन्थरगति से मोक्षमार्ग में बहता है । जो तस बहावो बिरदो अविरदओ तह य यावर दहाओ । एक्क समयम्मि जीओ विरदाबिरदो जिणेक्कमई ।। ३१ ।। ( गो. जी. ) (He) Who vows against the killing of mobilo ( trasa } Souls, and ( is ) vowless as to the killing of immobile (sthavara) souls, and is entirely devoted to the conqueror (Jina ), in yowful and vowless ( Virata -avirata) at one and the same time. पंचम गुणस्थानवर्ती जीव एक ही काल में स वध से विरत होने के कारण एवं स्थावर बघ से अविरत होने के कारण वह विस्ताविरत सार्थक नाम से सहित है । च शब्द से सूचित होता है कि प्रयोजन के बिना स्थावर हिंसा भी नहीं करता है, उसकी श्रद्धान अर्थात रुचि भक्ति जिन भगवान में रहने के कारण वह जिनैकमति होता है, यहाँ से संयम अथवा विरत का प्रारंभ होता है यह आदि दीपक होने के कारण आगे भी गुणस्थान में यह विशेषण जोडना चाहिये । इस गुणस्थान में श्रद्धान रहते हुए भी आत्मा के घातक विषय कषायों से सम्पूर्ण विरत नहीं हो पाता है । अनाद्य विद्या दोषोत्थ चतुः संज्ञाज्वरातुराः शश्वत्स्वज्ञान विमुखः सागारा विषयोन्मुखाः ।। २ ।। ( सागार धर्मामृत ) अनाद्यविद्यानुस्यूत ग्रंथसंज्ञमपासितुम् । अपारयन्तः सागराः प्रायो विषयमूच्छिताः ॥ ३ ॥ ( सागार धर्मामृत ) अनादि कालीन अविद्यारूप दोषों से उत्पन्न होने वाली चारों Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञाओं रुपी ज्वर से पीडित होकर और उसके सहन करने में असमर्थ होकर उस आहार, भय, मथुन, परिग्रह, संज्ञा रूप दाह को शांत करने के लिये विषय समुद्र में स्नान करता है। उस समय में वह हिताहिम विवेक से शून्य होकर, निरस्त र आत्म जान से विपाल होकर विधषों को भोगता है । बाह्य जड वस्तुओं का संग्रह करता है । धन-सम्पत्ति आदि के क्षय से भयभीत होता है, शुष्टि पुष्टि कर इन्द्रियों को उत्तेजित कर आहारादि का भी सेवन करता है । अनादिकालीन अज्ञान के कारण परंपरा से आनेवाली परिग्रह संझा को त्याग करने में असमर्थ प्राय: विषय काम भोग में मूच्छित श्रावक होते है । इसी प्रकार भव्य मम्यरदृष्टी जीवों की दीन अवस्था को देखकर स्वपर उपकारी मोक्ष मार्ग के पथिक यथाशक्ति उसका आत्मउद्धार के लिये उपवेश देते है . विषयविषप्राशनोस्थित मोहज्वरजनित तीव्रतष्णस्य | निःशक्तिकस्य भवतः प्राय: पेयाधुपक्रमः श्रेयान् ॥ १७ ।। ( आत्मानुशासन ) विषय रुपी विषय अपथ्य भोजन से उत्पन्न हुआ माह रुप उबर के निमित्त से जो तीन स्त्री संभोगरूप तृष्णा घन सापत्ति उपार्जन सरक्षणादि लालसा, विलासतादि तीय तृष्णा से सहित होने के कारण जिसकी शक्ती उत्तरोत्तर क्षीण हो रही है ऐमे तेरे लिये प्रायः मुपाच्य पेय के योग्य अणुव्रतादि सदृश पथ्य प्राथमिक अवस्था में चिकित्सा के लिय अधिक श्रेयस्कर होगी - बहुशः समस्तविरति प्रदर्शिता यो न जानु ग्रहणाति । तस्वदेशथितिः कथनीयानेन बोजेन ।। १७ ।। - बालयो - हिमाहिम परिभुषको पर बल्वे सया अणुरत्तो । पर वन्य मासे आऊलो जो सो हवई थालयो ।॥ १९ ॥ - फोड - जो सो विवेय सोलो अप्पावग्वे सपा अणुरत्तो । पर दच्य विमुत्त कुसलो जो सो हवई फोडों ।। २० ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ He, who is not prepared to adopt the order of saints should be persuaded to enter the life of a virtu ous hu ase holder, who practises partical renunciation' and gradually prepares himself for the higher orders. प्रथम भव्यों को समस्त विरति रूप मोक्ष का प्रधान कारणीभूत महात्रतरुप मुनि धर्म का उपदेश देना चाहिये और ग्रहण करने के लिये प्रोत्साहन देना चाहिये । यदि वह भव्य इस महान व्रतों को धारण करने के लिये असमर्थ होगा तब एक देशविरति रूप गृहस्थ धर्म का उपदेश देना चाहिये । यदि मुनि धर्म का उपदेश न देकर मुनि धर्म को स्वीकार करने रूप उत्साह नहीं देकर केवल गृहस्थ धर्म का उपदेश देंगे तब वह मुनि प्रायश्चित का भागी है। क्योंकि गृहस्थ धर्म में सम्पूर्ण विषय कपाय परिग्रह से विरति नही है। सम्पूर्ण पाप कर्मों से विरति नहीं है निराकुलता रूप धर्म शुक्ल रूप आत्मध्यान भी नहीं होता है, उससे भव्य का आत्म उन्नति में बाधक होता है । " अष्टमूल पुत्रः महु मज्ज मंस विरई चाओ पुण उंबरान पंचहं । अरे मूलगुणाहवंति फुड देसविरवम्मि ।। ३५६ ।। ( भाव-संग्रह ) मध्यमांत मनु एवं पंच उदुम्बरों को त्याग करना देश विरतियों के भुल गुण है । मलमधु निशाशन पंचफली विरति पंचकाप्सनुतो । नौदयाज गलनमिति च क्वचिदप्यमूलगुणा ।। १८ ।। ( आशाचरत सागार धर्मामृत ) मद्य त्याग २ | मांस त्याग ३) मनु त्याग ४) रात्रि भोजन त्याग ५) पंच उदुम्बर फलों का त्याग ६) त्रैकाल्य पंचपरमेष्ठी भगवान की वंदना ७ ) जीव दया ८) पानी छानकर पीना। इस प्रकार प्रकारान्तर ८ मूलगुण है । जो श्रावक उपरोक्त मूलगुणों को पालन नहीं करता वह श्रावक ही नहीं है। श्रावकों के लिये मद्य, मांस, मधु, पंचउम्वर पल सप्त व्यसन, रात्री भोजन, उनछना पानी पीना आदि त्याग करना. ہ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवार्य है । तथा जीव दया, पंचपरमेष्ठी प्रतिभक्ति, देव-दर्शन, शास्त्र श्रवण, गुरु बंदना, आहार दान, देव पूजा, संयम, तप, अहिंसाणुव्रत. सत्यानव्रत, अचौर्यानुनत, ब्रह्मचर्यानुवत, परिग्रह परिमाणु अणुव्रत पालन करना अनिवार्य है तथा अन्याय, अत्याचार, शोषण, लोक विरुद्ध, समाज बिरुद्ध, पर निंदा, आत्म प्रशंसा, द्वेष मात्सर्य आदि पापात्मक अशुभ परिणामों को त्याग करके पुण्यात्मक शम परिणाम को धारण, पोषण स्वचन करना चाहिये । अष्टावनिष्ट दुस्तर दुरिता यतनान्यमूनि परिवज्ये । जिनधर्म देशनाया भवन्ति सत्राणि शुद्धधियः ॥ ७४ ।। ( पुरुषार्थ सिद्धि ) मद्य, मांस, मधु एवं पच उदुम्बर फल अत्यन्त अनिष्ट कर पाप वक, नरक निगोदियादि दुर्मति के बारण आत्मपतन के कारण मानसिक शारीरिक, वाचनिक आध्यात्मिक मलीनता के कारण होने से जो उनको यत्नदुर्बका त्याग करता है वही भव्य सम्यग्दृष्टी जीव शुद्ध मनोभाव याला होकर जिनधर्म सुनने के लिये, शास्त्र सुनने के लिये शास्त्र पढ़ने पढ़ाने, उपदेश करने का पात्र होता है अन्य नहीं हो सकता है। श्रावक के षट् आवश्यक : येवपूजा गरुपारितः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गहस्थान षटकर्माणि दिने दिने ।। ६ ॥ ( पद्मनंदि पंचविंशति ) १) देवपूजा २) गुरुसेवा ३) स्वाध्याय ( भाव द्रव्यरुप श्रुताग्यास ! ४) संयम (५ प्रकार प्राणी संयम, मन सयम, इन्द्रिय संयम) - सोच - भाधि भोग पक्षात्थे जो पाठवि ममत्ति भावं सो सोच मुणे यच्च ण बहिरंग मातण ।। २१ ।। सव्व असुचि शोज लोह कमाय होदि णियमेण । यो गासेण पुणो अनुचि ऋक्ख ण हबदि ।। २२ ।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ५) तप (यथायोग्य इच्छा निरोध हा अन्तरंग-बहिरंग त।। ६) दान ।। ये गृहस्थों के दैनन्दिन अवश्य करने योग्य कर्तव्य है । देवपूजा दया दान, तीर्थयात्रा जपस्तपः । शास्त्र परोपकारत्वं मत्यु जन्म फलाष्टकम् ।। १) देवपूजा २) दया ३) दान' ४) तीर्थ यात्रा ५) जप ६) ता । ७) शास्त्र अध्ययन ८) पसोपार ये "धा जोशम हैं। " दाणं पूजा सोलमुबवासो चेवि चडब्विहो सावध धम्मो " (ज. घ. पु. १ पे २१ ) । १) दान २) पूजा ३) शील ४) उपवास यं चारों श्रावकों के धर्म है। दाणं पूया मुक्खं सावय धम्मे सायया तेण विणा । शाणाजायणं मुक्खं जदि धम्मे तं विणा तहा सोयि ।। ११ ॥ । ( रयणसार ) श्रावकों के अनेक कर्तव्यों में से षट् आवश्यक मुख्य है । उनमें भी दान-पूजा अत्यन्त मुख्य है । यदि श्रावक दान-पूजा नहीं करता है तो वह श्रावक ही नहीं है । उसी प्रकार मुनि धर्म में ध्यान अध्ययन मुख्य है, यदि मुनि ध्यान, अध्ययन नहीं करता है तो मुनि नहीं है । दाण ण धम्म ण चाग ण भोग ण बहिरप्प जो पयंगो सो लोह कसायनिगमहे परिदो मरिनो ण संदेसो ।। १२ ॥ रयणसार ) जो दान, धर्म, त्याग नहीं करता है तथा अनर्गल पूर्वका आयनि पूर्वक भोग करता है, परंतु संयम पूर्वक नहीं रहता है, वह वाहरात्म; मिथ्यादृष्टी, अज्ञानी है, वह लोभकषाय रूप अग्नि में पतग के समान पड़ता है, भरता है, संसार में दु,खी होता है । जिण पूया मुणिदाणं करेदि जो वेदि सत्तिरवण । समादिछी सायय-धम्मो सो होदि मोक्जमग रदो।। १३ ।। ( रयणसार ) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ जो शक्ति भक्ति अनुसार देव पूजा करता है, मुनियों को दान देता है वह सम्यग्दृष्टी श्रावक धर्म को पालन करने वाला धर्मात्मा मोक्षमार्ग में रत है, निकट भविष्य में मोक्ष प्राप्त करने वाला है । - दाणु विष्णउ मुणिवर ण वि पूज्जिड जिणणाह । पंच ण वंदय परम गुरु किमु होसह शिवलाहु || (रमा प्रकाश ) आध्यात्मिक आचार्य योगीन्द्र देव बताते है, है भव्य तु मुनियों को भक्ति पूर्वक दान नहीं दिया, जिनेन्द्र भगवान की पूजा नहीं किया, पंत्र परम गुरुओं की सेवा - वंदना - भक्ति आदि नहीं किया तो किस प्रकार तुझे मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। देवपूजा : पुण्णस्स कारणं फुड पढमं ता हवइ देव पूजाय । कायव्या भत्तीए सावय वग्गेण परमाए ।। ४२५ ।। गुण्य प्राप्ति के लिये देवपूजा निश्चय से प्रथम कारण है इसलिये श्रावक वर्ग अतिशय भक्ति से प्रतिदिन देव पूजा करना चाहिये | देव पूजा से अशुभ कर्मों का सुंदर एवं निर्जरा होती है. अतिशय आत्म विशुद्धि होती है, जिससे सम्यग्दर्शन विशुद्ध होता है और उससे सातिशय पुण्य बंध होता है, जो कि स्वर्ग मोक्ष का कारण है, इसलिये योग्य श्रावक मन-वचन-काय शुद्धि पूर्वक द्रव्य भावात्मक पूजा नित्य करनी चाहिये । - ( भाव संग्रह ) नपुंसक इह पश्लोग कुसल रहियो भोग रागे अणुस्तो । चचिह पुरुसाथ चिहोणो नपुंसक होई अष्णाजी ।। २३ ।। सामान्य धम्मो - - — रयणत्तयं य धम्मं अणेयंत सिवाय धम्मो । धम्मो वत्थु सहावी उत्तमवखमादी दस पिहो धम्मो ।। २४ ।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जिन दर्शन महिमा: दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दशनं स्वर्गसोपानं दर्शन मोक्षसाधनम् || दर्शनेन जिनेंद्राणां साधूनां वन्दनेन च । न चिरं तिष्ठते पापं छिद्रहस्ते यथोदकम् || वीतरागमुख वृष्टचा पद्मराग समप्रभम् । नैकजन्म कृतं पापं वर्शनेन विनश्यति ॥ दर्शनं जिनसूर्यस्य संसार ध्वान्तनाशनम् । बोधनं वित्तपद्मस्य समस्तार्थ प्रकाशनम् ।। वर्शनं जिनचंद्रस्य सद्धर्मामृतवर्षणम् । जन्मवाह विनाशाय वर्धनं सुखवारिधेः ।। जन्म जन्म कृतं पापं अम्मकोटयामुपाजितम् । जन्म मृत्युजरा रोगं हन्यते जिनदर्शनात् || एया विसा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेग | पुष्णाणि य पूरेदं आसिद्धि: परंपरा सुहाणं ।। ७४९ ।। ( भगवती आराधना ) बीएण विणा सरसं इच्छदि सो बासम भएण विणा । आराधण मिच्छन्तो आराधण भतिम करतो ।। ७५० ।। अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है, इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है, और मोक्ष प्राप्ति होने तक इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है, इससे इन्द्र पद, चक्रपर्ती पद, अहमिन्द्रपद, और तीर्थंकर पद के सुखों की प्राप्ति होती है ।। ७४३ ।। जो भगवान की भक्ति आराधना नहीं करना चाहता है तथा रत्नत्रय सिद्धि रूप फल की इच्छा रखता है, वह पुरुष बीज के बिना धान्य प्राप्ति की इच्छा रखता है, अथवा मेघ के बिना जलवृष्टी की इच्छा करता है ।। ७५२ ।। सोहि कारणेहि पढम राम्मत्त सुप्पा देखि केइ जाइस्सरा । केइ सोकण, केई जिवनं दण ।। सूत्र २२ ॥ ( ध. पु. ६ पे ४२७ ) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ पूर्वो त पंचेन्द्रिय तिर्यच तीन कारणों से प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते है - कितने ही तिर्यंच जाति स्मरण से, कितने ही घोपदेश सुनकर और कितने ही जिनबिंब दर्शन करके सम्यक्त्व प्राप्त करते है । कधं जिबिंव देसण पढम सम्मत्तुप्पत्तीए कारण ? जिविध सणेण पिवत्त णिकाचिदस्स दि मिच्छसादिक कम्मकलावस्न खय दसपादो। तथा चोक्तं : वर्शनेन जिणेन्द्राणां पापसंघातकुंजरम् । शतथा भेवमायादि गिरिवञहतो यथा ॥१॥ (व. पु. ६ पे ४२७-४२८) शंका:- प्रथम सम्यक्त्व को उत्पत्ति का कारण किस प्रकार होता समाधान:- जिनजिब के दर्शन से मियत और निकाचित रुप भी मिथ्यात्ववादी कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है जिससे जिनबिंब का बर्शन प्रथम सम्यक्त्व को उत्पत्ति का कारण होता है । कहा भी है: जिनेन्द्रों के दर्शन से पाप संघात रुपी कुंजर के सो टुकड़े हो जाते है, जिस प्रकार कि वज्र के आधात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते है । प्रत्येक कार्य अन्तरंग - बहिरंग कारणों से होता है । सम्यक्त्व उत्पत्ति के लिये अन्तरंग कारण सम्यग्दर्शन प्रतिबंधक कर्मों का उपशम क्षयोपशम, क्षय, निमित्त है तथा बहिरंग कारण जिनबिंब दर्शन, जाति स्मरण, धर्म उपदेश, देवद्धिदर्शन, वेदनानुभवादि है । जिनबिंब अचेतन होते हुए भी मूर्ती की वीतरागता, सौम्यता आदि माध्यम से जो आत्म -- जीव - अस्थित वस्युथ पमेयत्त अगुरु लहु भावो । उप्पाद यह धुव्व सभ्य बबाण सामण्णो धम्मो ।। २५ ॥ चेवण गाणं वसणं सुह अणंत विरीय अस्थावाहं । जिम्मम जिरापेक्खं जीवाणं उत्तमो धम्मो ।। २६ ।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशुद्धी होती है उसके कारण जो वज़ के समान निकाचित – निधत्ति कर्म भी नष्ट हो जाते है जिस प्रकार वज्रपात से पर्वत भी टकडे दकड़े हो जाता है। निकाचित-निद्धत्ति कर्म :- जो कर्म उदय, उपचार्षण, उत्कर्षण संक्रमण योग्य नहीं हो उसी कर्म को निकाचित कर्म कहते है । वह । स्थिति पूर्ण होने पर ही उदय में आकर फल देता है। उपरोक्त प्रकार कर्म अकृत्रिम, कृत्रिम अथवा साक्षात भगवान के दर्शन से नष्ट हो जाता है तो सामान्य कर्म की बात क्या है। इसलिये भव्यजीव भक्तिपूर्वक भगवान के दर्शन - पूजा - अभिषेकादि करना चाहिये । यह कोई रुढी अथवा मिथ्यात्व नहीं है और पुण्य बंध का मात्र कारण नहीं है, परंतु साक्षात आत्म विशुद्धी एवं सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिये मी कारण है । जिन मंदिर, जिन प्रतिमा, जिनदर्शन, जिनपूजा प्रतिष्ठादि अर्वाचीन पद्धति नहीं है, अन्य परम्परा से आगत नहीं है ।। जिन चैत्य -- चैत्यालय का स्वरूप:___जैनियों के परमपूज्य परमोत्कृष्ट प्रातः स्मरणीय नव देवता है । । यथा-१) अरहंत २) सिद्ध ३) आचार्य ४) उपास्याय ५) सर्व साधु । ६) जिन चैत्य ७) जिन चैत्यालय ८) जिनधर्म ९) जिनागम । जिन चैत्य एवं जिन चैत्यालय कृत्रिम एवं अकृत्रिम दोनों प्रकार के होते है। जिन चैत्य अर्थात जिनबिंध पंच परमेष्ठियों का भी होता अकृत्रिम चैत्यः चमर करणाग जक्संग बत्तीसं मिहुण गेहि पुह जुत्ता । सरिसोए पतीए गठमगिहे सुटु सोहंति || ९८७ ।। त्रिलोकसार सिरिदेवो सुबवेवी सरवाह सणकुमार जक्खाणं । स्वाणि य जिनपासे मंगलम विहमयि होवि ।।९८८।।त्रिलोकसार भिगार कलस वप्पण बीय ण धय चामराव वत्तमहा । सुबठठ मंगलाणि य अहिय समाणि पसेयं ।।९८९, त्रिलोकसार Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । वे जिन प्रतिमाएँ, चरमधारी, नागकुमारों के ३२ युगलों औ पक्षों के ३२ गुगलों सहित पृथक् पृथक् एक एक गर्भगृह में सदृश पवित से भली प्रकार शोभायमान होती है। उन जिन प्रतिमाओं के पार्श्वभाग मे श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वान्ह यक्ष और सानत्कुमार यक्ष के रुप अर्थात प्रतिमाएं है, तथा अष्टमंगल द्रव्य भी होते है । झारी, कलश, दर्पण, पंखा, ध्वजा, त्रामर, छत्र और ठोना ये ८ मंगल द्रव्य है । ये प्रत्येक मंगल द्रव्य १०८, १०८ प्रमाण होते है ।। ९८७-९८८-९८९ ।। तिलोयपण्णनि में कहा है : सिरिसुबवेवीण तहा सव्वाह सणक्कुमार मक्खाणं । वाणि पत्तेवक पडिवर रयणाइ रहवाणि ॥ १८८१ ॥ ( चतुर्थ अधिकार ) प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्रीदेवी, श्रुत । देवी तथा सर्वाह व सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियां रहती है । कत्रिम चैत्य: प्रातिहार्याष्टकोपेतं, सम्पूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानु बिद्धांग, कारयेव बिम्बमहता ।। ६२ ।। प्रालिहाविना शुद्ध, सिद्धं बिम्बमपीदृशः । सूरीणां पाठकानां च, साधूनाम च यथागमम् ॥ ७० ।। ( बसुनन्दि प्रतिष्ठा पाऊ तृतीय प्रतिच्छय ) अष्ट प्रातिहार्य से युक्त सम्पूर्ण अवपनों से सुन्दर तथा जिनका - पुद्गल - फास रस गंध वण्ण पुरण गलण येव । सद्द छाया पिकास पुग्गल बयाणं बम्म ।। २७ ।। - धर्म - अमुत्त पिच्च सुद्धं लोयायासे प्पमाण द्विदं । गई परिणयाणं जीव रवीणं गमणे णिमित्त धम्म ।। २८ ।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्निवेष ( आकृति ) भाब के अनुरुप है ऐसे अरिहंत विश्व का निर्माण । करें। सिद्ध प्रतिमा शद्ध एवं प्रातिहार्य से रहित होती है आगमानुसार । आचार्य, उपाध्याय एव साधुओं की प्रतिमाओं का भी निर्माण कर । जिनेन्द्र पूजा विधि: ___ द्रव्य सहित भाव पूजा:- लोभ कषाय के उदय के कारण धात्रक सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर नहीं पाता है इसलिये वह परिग्रहधारी है । परिग्रह के अपर अशक्ति ही बंध का कारण है। " रत्तो बंधयि कम्म मुंदि जीवो विराग सम्पण्णो " इस सिद्धांतानुसार बाह्य बस्तु में जो आशक्ति है वह बंध का! कारण है और वैराग्यभाव, निर्मो भाव विमुक्ति का कारण है । वैराग्य भाव को प्रगट करने के लिये लोभ कषाय परित्याग पूर्वक द्रव्य पूजा सहित भाव पूजा करे । श्राकक कषायवान, इच्छावान, कामीभोगी होने । के कारण उसका मन निरालम्बन ध्यान और पूजा में स्थिर नहीं हो । सकता है । यदि स्थिर होता है तो वह काम भोगों के लिये बाह्य द्रव्यों का आवलपवन क्यों लेता है ? परिग्नह संचय क्यों करता है ? वाह्य परिग्रहों के हानि वृद्धि में सुख-दुःख का अनुभव करता है । इसलिये आचार्य ने द्रव्य सहित भाव पूजा करने के लिये कहे है:द्रव्यस्य शुद्धि मधिगम्य यथानुरुपं भावस्य शुद्धिधिकामधिगन्तुकामः । आलन्दनानि विविधान्यवलम्ब्य वल्गन भूतार्थ-या-पुरुषस्य करोमि यशम् ।। ११ ।। मै यथायोग्य द्रव्य भाव शुद्धि पूर्वक विभिन्न अवलम्बन को लेकर परमपूज्य. परमआराध्य, वीतराग सर्वज्ञ भगवान का भूतार्थ यज्ञ (पूजा) करता हूँ। द्वेधापि कुर्वतः पूजां जिनानां जितजन्मनाम् । न विरले नये लोके दुर्लभ वस्तुपूजितम् ।। १५ ।। ( अध्याय १२ अमित गति श्रावकाचार ) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारको जितने वाले जिनेन्द्र देव की द्रव्य और भाव से पूजा । करने वाले पुरुष को यह लोक परलोक में कोई भी श्रेष्ठ वस्तु पाना दुर्लभ नहीं है । "सुद परिचिदाणु सूदा सवस्स वि काम भोग बन्ध कहा'' काम भोग बन्ध को कथा इस जीव ने सुना, परिचय लिया, अनुभव लिया, रचा, पथा उसमें ही लीन रहा इसिलिये मन उसके ओर ही दौडता है । उस अत्यन्त चंचल अशुभ मान को आत्मा की ओर परिवर्तन करने के लिये प्रशस्त द्रव्यों का अवलम्बन चाहिये । जिस प्रकार बच्चे व बन्दर मनमोहकारी वस्तु को प्राप्तकर उसमें रमायमान हो जाते है उसी प्रकार मन भी उत्तम देव, शास्त्र, मुरु एवं उनकी प्रतिकृति (मूर्ती) सुन्दर, सरस, सुगन्धित, प्रशस्त पूजा द्रव्यों के माध्यम से धर्म में रमायमान होता है । यह श्रावक अवस्था से अवलम्बन भूत है । जब श्रावक दृढ़ होकर मुनि हो जाता है तब उस वाह्य पूजा द्रव्य की विशेष आवश्यकता नहीं रहती है जब तक श्रावक है तब तक द्रव्य पूर्वक भाव पूजन करना अनिवाय है ऐसा जिनाज्ञा है। उच्चारिऊण मंते अहिसेयं कुणउ देवदेवस्स । गोर धय खीर दहियं खिवउ अणुक्कमेण जिण सोसे ॥ ४४१ ।। ( भावसंग्रह) पहवणं काऊण पुणो अमलं गंधोक्यं च वंदिता। सव लहणं च जिणिवे कुणउ कस्सीर मलएहि ।। ४४२ ।। ( भावसंग्रह) अभिषेक के श्लोक और उनके मंत्र बोलकर जिन प्रतिमा का मस्तक से पानी, घी, दूध, दही से अनुक्रम से अभिषेक करें, अभिषेक के - अधम्म - अमुत्त णिच्चसुद्धं लोयायासं प्पमाणं द्विवं । विल्छी परिणयाणं जीव रुवोणं छिदि णिमित्तमधम्म || २९ ।। - आगास - अमुत्त णिच्च सुद्धं सब्ध वापि महायादन्वं । सग पर ओगास वाणं आगास दग्याणं धम्म ।। ३० ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पश्चात भक्ति पूर्वक अपने शिर पर गंधोदक को धारण करें उसके बाद केशर, चंदन आदि सुगंधित पदार्थों से जितेंद्र प्रतिमा का अभिषेक करे । पूर्वक जिनेन्द्र भगवान अभिषेक विधि:-- आशुत्य स्नपनं विशोध्य तविलां पीठयां चतुष्कुम्भयुक् । कोणायां सकुशश्रियां जिनपति न्यस्यान्तमाप्येष्टदिक् । नीरज्याम्बुर साज्य दुग्धदधिभिः सिक्त्वा कृतोद्वर्तन सिक्तं कुम्भजलेस्य गन्धसलिलै: सम्पूज्यनुत्वा स्मरेत ॥२३ ।। ( षष्ठ अधिकार सागर वर्मामृत ) अभिषेक करने की प्रतिज्ञा करके जहां पर भगवान का अभिषेक करना है वहां की भूमि की विशुद्धि करके चतुष्कुंभ से युक्त हैं कोणा जिनकी ऐसी तथा जिस पर भी लिखा हुआ है तथा कुश रखा हुरा है ऐसी पीठिका पर ( सिंहासन ) जिनेन्द्र भगवान को स्थापित करके आरती उतारकर इष्ट दिशा मे अर्थात पूर्व दिशा में स्थित होकर जल, फलरस घृत, दुग्ध, दधि के द्वारा अभिषेक किया है उद्वर्तन अर्थात चंदन का अनुलेपन करके चारों कोण के कलशों से तथा सुगन्धित जल से अभिषेक करे । तथा जल - चन्दनादि अष्ट द्रव्य से पूजा करके और मित्य बन्दनादि विधि से नमस्कार करके अपने हृदय में भगवान को विराजमान करके अपने शक्ति के अनुसार भगवान का ध्यान करें व जप करें। कुन्वते अभिसेयं महा विभूदीहि ताण देविदा | कंचन कलसगदेहिं विमल जलेहि सुगंधेहि ।। १०४ ( तिलोयपण्णति । देवेन्द्र महान विभूति के साथ इन प्रतिमाओं का सुवर्ण कलशों में भरे हुए सुगन्धित निर्मल जल से अभिषेक करते है ।। १०४ ।। कुंकुम कप्पूरेहि चंदन कालाहि अण्णेहि । ताणं विलेवणाई ते कुते सुगन्धेहि ॥ १०५ ॥ (तिलोयपणत्ति ) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घे इन्द्र कुंकम, कपर, चंदन, कालागझ और अन्य सुगन्धित द्रव्यों से उन प्रतिमाओं का विलेपन करते है। कुन्देन्दु हुन्दरेंहि कोषल विमलेहि सुरभिगंधहि । 3 पर कल न तंडुलेहिं पूर्जति जिणिद पडिमाओ ।। १०६ ।। ( तिलोयपण्णत्ति ) ये कुन्द पुष्प व चन्द्रमा के समान सुन्दर, कोमल निर्मल और मुगन्वित उत्तम कलम धान्य के तंदुलों से जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते है। सयवंतगा य यंपयमाला पुण्णाय तणाय पहुदोहि । अच्चति ताओ देवा सुरहीहिं कुसुममालाहिं ।। १०७ ।। (तिलोयपण्णत्ति ) वे देव सेवती, चम्पकमाला, पुनाग और नागप्रमूति सुगन्धित पुष्प . मालाओं से उन प्रतिमाओं की पूजा करते है । १०७ बहु विहर सर्वहिं वर भहि विचित्त रहि । अमय सरिह सुरा जिणिद पडिमाओ महति ।। १०८ ।। ( तिलोयपण्णत्ति ) य देवगण बहुत प्रकार के रसों से संयुक्त, विचित्र रुप वाले और अमृत के सदृश उत्तम भोज्य पदार्थों से ( नैवेद्य ) जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते है। विपकुरिद किरण मंडल मडिद भवणेहि रयण दीहि । णियकाल कलुसेहि पूजति जिणिद परिमाओ ।। १०९ ।। (तिलीयपण्यत्ति ) - काल - अमुस णिच्च सुद्ध पत्तेय लोयाप्पसे विदं । सग पर परिणयाणं णिमित्त काल दम्वत्स धम्मं ।। ३१ ।। (४) लघु द्वादश अनुप्रेक्षा दोहा (हिन्दी) सख धर्म का सार है सर्व चारित्र का सार । सर्व ज्ञान का सार है तत्त्वों का विचार ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ देदीप्यमान किरण समूह से जिन भवनों को विभूपित करनेवाले और कज्जल एवं कलुषता से रहित एमे रत्नदीपकों से इन प्रतिमाओं की जापू करते है। वासिद विसंतरेहि कालागर पमूह विविह पूर्वहिं । परिमलिद मंदिरेहि महयंति जिणिव बिबाणि ।। ११० ।। (तिलोयपण्णात्ति) देवगण मंदिर एवं दिमंडल को सुगन्धित करने वाले कालागरुः प्रभूति अनेक प्रकार के धूपों से जिनेन्द्र विम्बो की पूजा करते है। वषखा दाडिम कबली गारंग य माहलिग चूदेहि । अण्णेहिं वि पक्केहि फलेहि पूंजति जिगणाहं ।। १११ ॥ दास्त्र, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलों से वे जिननाथ की पूजा करते है। हिस्सेण कम्मक्खणेक्क हे मण्णतया तत्थ जिणिव पूर्ण । सम्मत्त विरया कुवंति णिचं देवा महाणंस विसोहि पुब्बं ।२२८ (तिलोयपणति ) । वहांपर अविरत सम्यग्दृष्टी देव जिन पूजाको समस्त कर्मों के क्षय करने में एक अद्वितीय वारण समझकर नित्य ही महान अनंत गुणी विशुद्धिपूर्वक उसे करते है ।। २२८ अभिषेक पूजा का फल : जलधारा णिक्खेवण पापम सोहणं हवे णियमं । चन्दनलेवेण परो जावई सोहाग संपण्णो ।। ४२३ ॥ (बसु श्रा. ) पूजनके समय नियम से जिन भगवान के आगे जलधारा के छोड नसे पाप रूपी मैल का संशोधन होता है। चन्दन रस के लेप से मनुष्य सौभाग्य से संपन्न होता है । जायद अक्खणिहि रयणसामिओ अक्लष्टही अक्खोहो । अक्लोण लाहिद जित्तो अबसय सोक्खं व पावे ।। ४८४ ॥ (वसु.) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ अक्षताओं से पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और १४ रनोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है । सदा अक्षीय अर्थात रोग, शोक रहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धि से संपन्न रहता है और अंतमें अक्षय मोक्ष सुखको पाता है । कुसुमेहि कुसुसेय वयणु तरुणी जन णयण । कुसुम वरमाला वलारणच्चियवेहो जय कुसुमाउहो चेव ।।४८५।। (व. सु. श्रा. ) पुष्पो से पूजा करने वाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुखवाला तरुणी जनों के नयनों से और पुष्पों की उत्तम मालाओं के समुह से समर्चित देहवाला कामदेव होता है । जायइ णिविज्ज दाणेण सत्तिगो कति-तेय संपण्णो। लावण्ण जाह वेला तरंग संण्णविय सरीरे ।। ४५६ ।। (वसु.) नैवेद्य के चढाने से मनुष्य शक्तिमान, कांति और तेज से सम्पन्न और सौंदर्यरुपी समुहकी बेला ( सद ) वर्ती तरगों से संप्लावित शीर वाला अर्थात अतिसुन्दर होता है । बोहि वीषिया सेस जोव व इतच्च सम्मावो। सम्माय जणिय केवल पहबतेंएण होइणरो ॥ ४८७ ।। (वसु.) दीपसे पूजा करनेवाला मनुष्य सद्भावों के योग से उत्पन्न हुए केवलज्ञान रुपी प्रदीप के तेज से समस्त जीव द्रव्यादि तत्त्वों के सदस्य अनित्य ( अनित्स ) राम गये रावण गये, गये तीर्थकर । जो आत्मा में स्थिर मये, ताके न हेर न फेर ॥ -- अशरण - पार्व पर उपसर्ग भये, कोई न रखना हार । जो अपना आश्रय लहे ताके न मारन हार ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ को प्रकाशित करनेवाला अर्थात केवलज्ञानी होता है। धूवेण सिसिरयर धवलकित्ति धपलिजयसओ पुरिसो । जायइ फलेहि संपत्त परमणिबाण सोक्ख फलगे ॥ ४८८ ।। धूप से पूजा करनेवाला मनुष्य चंद्रमा के समान धवल किर्ती से जगत्रय को धकल करने वाला अर्थात त्रैलोक्य व्यापी ययवाला होता हे फलों से पूजा करने वाला मनुन्य परम निर्माण का सुख रुप फल पाने वाला होता है। घंटाहि घंटा सदाउलेसु पवर झण्णमच्झाम्मि । संकोउप सुर संघाय सेविओ वर विमाणेसु ।। ४८९ ।। जिन मंदिर में घंटा समर्पण करने वाला मनुष्य धंटाओं के शब्दों से आकुल अर्थात व्याप्त, श्रेष्ठ विमानों मे सुर-समुह से सेवित होकर प्रवर अपसरावों के मध्य में कीश करता है। छत्तेहि एयद तं मुंह पुट्टयो सवत परिहिणो । चामर बाण तहा धिज्जिज्जइ चमरणवि हेहि ।। ४१० ॥ छत्र पूजन करने से मनुष्य शत्रू रहित होकर पथ्वी को एक छत्र भोगता है । तथा चमरों के यान से चमरों के समुहो द्वारा परिविजित किया जाता है, अर्थात उसके उपर बमर ढोरे जाते है । ४९० अहिसेय फलेण णरो अहिसिंचज्जइ सुन्दसणस्सुवरि । रवीरोय जलेग सुरिवष्प मुह देवेहि भत्तोए ।। ४९१ ।। जिन भगवान के अनिषेक करने के फल से मनुष्य सुदर्शन मेरु के । उपर क्षीर सागर के जल से सुरेन्द्र प्रमुख देवों के द्वारा भक्ति के माथ अभिषिक्त किया जाता है ।। ४९१ ।। विजय पडाएहिणरो संगाय मुहेतु विजइओ होइ । दरखंड विजयणाहो णिप्पडिवतो असस्सी य ।। ४९२ ।। जिन मंदिर में विजय पताकायों के देने से मनुष्य संग्राम के मत्र्य विजयी होता है । तथा षट्खंडरूप भारतवर्ष का निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख कि पिएण बहुणा तीसु बिलाएसु किं विज सोक्खं । पूजा फलेण सव्वं पाविज्ज णत्थि संदेहो || ४९३ ।। अधिक कहने से क्या लाभ है, तीनो ही लोकमे जो कुछ भी है वह सब पूजाके फल से प्राप्त होता है। इसमे कोई सन्देह नहीं है । एकापि समर्थे जिनभक्तिदुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः || ८ ॥ ( पूज्यपाद समाधिभक्तिः ) एकही परम जिनभक्ति भक्त का समस्त दुर्गतियों का निवारण करने के लिये सातिशय पुण्य को संपादन करने के लिये एवं मोक्ष पदवी देने के लिए समर्थ होता है । देवाविदेव चरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिनी परिचिनु यादावृतो नित्यं ॥ ११९ ॥ ( रत्नकरंड ) The worshipping of the feet of the Deva of devas (Holy Tirthankara) the bestower of desired good and the consaner of Cupid's Shat1s, is the remover of all kinds of Pain (For this reason it) should be performed A reverently every day, श्रावक को आदर से युक्त होकर प्रतिदिन मनोरथों को पूर्ण करने वाले और काम वेदना को भस्म करने वाले इन्द्रादिक द्वारा बंदनीय अरहंत भगवान के चरणों में समस्त दुःखों को दूर करने वाली भगवान की करें f पूजा संसार संसार है उल्टा यामे सम्यक् सार नहीं । अमृतामति से विष क्षरें हैं यशोधर अयश फैलाई — ७७ - - एकत्व दो में हं बंधन विवाह, दो मे हो संसार । एकत्व में सब नशे, पाये सच्चिदानन्य सार ॥ — Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ देवेन्द्र चक्रमहिमानममेयमानम् राजेंतु धनभवनीन्वशिरोऽर्चनीयम् । धर्मेन्द्र चक्रमधरीकृतसर्व लोकम् लच्या शिवंच जिन भक्तिरुपति भल्य: ।। ४१ ।। ( रत्नकरण्ड जिनेन्द्र भगवान में सातिशय अनुराग को रखनेवाला जिमेंद्र भक्त । सम्यग्दृष्टी जीव अपरिमित प्रतिष्ठा और ज्ञान से सहित इन्द्र समूह की ! महिमा को प्राप्त करता है । ३२ हजार मुकुट वद्ध राजाओं से पूजनीय चक्रवर्ती के चक्ररलों को प्राप्त करके चक्रवर्ती बनता है । केवल इस प्रकार अभ्युदय सुख का अधिकारी नहीं होता है परतु समस्त लोक से | पूजनीय धर्म चक्र के अधिपति होकर अर्थात तीर्थकर बनकर शेष त्रिलोक । का प्रभू स्वरूप सिद्ध भगवान वनकर मोक्ष साम्राज्य को प्राप्त करता अरहंत णमोऽकारं भावेण य जो करेदि पयवमदि । सो सव्व दु:क्व मोक्नं पायदि अचिरेण कालेण ।। ( मूलाचार ) जो उत्कृष्टमतिबाला अहंत भगवान को भावपूर्वक नमस्कार करता है । वह समस्त दुःख से अचिरकाल से अर्थात अतिशीघ्र मुक्त होकर मक्त अवस्था का प्राप्त करेगा । अरिहंत भक्तिमें तीर्थकर बन्धः अरिहंतभ सीए - खवीद घाविकम्मा केवलणाणेण द्विवसम्बवा अरहंतणाम । अथवा णि विव छ कम्माणं धाइबघादि कम्माणंच अरहतेत्ति सण्णा अरिहणणं पडि दोण्हं भेदा भावादो । तेसु भत्ती अरहंत भत्ती । ताए तिथयर कम्म बज्झइ । कथमेल्थ में सकारणाणं संभवो ? बुच्चदे अरहंत वुत्ताणु दाणणु बत्तणं तदणु, ट्राण पासो वा अरहंत भत्तीणाम णच एसा देसण विसुज्झदादीहि विणा संभवइ, विरोहा हो । तदो एसा एक्कार सम्म कारणं । ।। धवला प्र५ से ८९ ।। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ अरहंत शक्ति से तीन लोकका क्षुभित करनेवाला सातिशय पुण्य स्वरुप और परंपरा मोक्ष के लिये निश्चित कारण है इसी प्रकार तिर्थनाम कर्म बंधता है । जिन्होंने घातियां कर्म को नष्ट कर केवलज्ञान के द्वारा सम्पुर्ण पदार्थो को देख लिया है । वह अरहंत अथवा ८ कर्मों को नष्ट करनेवाले सिद्ध और धातियां कर्मों को नष्ट करनेवालों का नाम ( अरहंत सकल परमात्मा ) है क्योंकि कर्म शत्रू के नाश के प्रति दोनों में कोई भेद नहीं है उन अरहंतों में नो गुणानुराग रुप भक्ति होती है वह ही अरहंत भक्ति कहलाती है । इस अरहंत भक्ति से तीर्थंकर प्रकृतिका बंध होता है। शंका:- केवल अरहंत भक्ति में अन्य भावनाओ की संभावना कैसे है ? ( योंकि १६ भावनाओं से तीर्थकर नाम कर्म बंत्रता है । तो केबल अरहंत भक्ति से किस प्रकार बंध हो सकता है ? ) समाधान:- अरहत के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उस अनुष्ठान के स्पर्शो को अरहंत भक्ति कहते हैं 1 और यह वर्शन विशुद्धि आदि के बिना ऐसा संभव नहीं है क्योंकि ऐसा मानने में विरोघ है । अतएव अरहंत भक्ति तिर्थकर प्रकृति बंध का ११ वा कारण उपरोक्त सिद्धांत से सिद्ध होता है कि जहां अरहंत भक्ति है वहां दर्शन विशुद्धि विनय संपन्नता आदि संपूर्ण भावना का सद्भाव है क्योंकि अरहंत भक्ति जब होती है जब हृदय में सम्यग्दर्शन के विना यथार्थ अरहंत भक्ति हो ही नहीं सकता है । उपरोक्त समस्त सिद्धांत से सिद्ध होता है । देव दर्शन अरहंत' भक्ति सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के लिये कारण पाप कर्मों की निर्जरा के लिये कारण निधत्ति, निकाचित वध -- अन्यत्व - अन्य सर्वदा अन्य रहे ताते दुःख साधना । अप्पा सदा अप्पा रहे ताते सुख खजाना || - अशुचि - सर्व अशुचि की देह गेह सर्व अशुधि का यंत्र । भक्त वस्तु मल होय स्पर्वा वस्तू असार ।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० कर्म के लिये कारण, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, तिर्थंकर प्रकृति के लिये कारण है इसलिय मोक्ष पद की प्राप्ति के लिए कारण है। इस लिये आचार्य ने बताया है " वन्त्रे तद्गुण लब्धये भक्त ही भक्ति के माध्यम से संपूर्ण कर्म को नष्ट करके भगवान बन जाता है । " 44 दासोहं रहता प्रभो ! आया जब तुम पास दे वर्शन ही हट गयो " सोsह " रहो प्रकासु ।। CA सोऽहं सोऽहं " ध्यावतो रह नहीं सको सकार । I दीप अहं मम हो गयो अविनाशी अधिकार | 1 · " गुरूपास्ति:- ( साधु सेवा ) - fr जैन धर्म रुपी रथ-श्रावक और मुनि च रूपी अवलंबन से गतीशील होता है । उसमें से एक भी चक्र के अभाव में धर्म रुपी रथ आग नहीं वह सकता जब तक जिवंत धर्म स्वरुप मुनियों का सद्भाव रहेगा तब तक धर्म रहेंगा, तब तक श्रावक भी रहेंगे। क्योंकि, न धर्मो धार्मिकवींना " इसीलिये दूरदृष्टी एवं सूक्ष्मदृष्टी धर्म प्रवर्तकों की एवं प्रचारकोने धर्म की स्थिरता एवं धर्म की गतीशीतता के लिये विनय वैयावृत्त्य, वात्सल्य, उपगूहन, स्थितिकरण और प्रभावनादि धर्मप्रचारप्रसार का उपाय रखे है । T सेज्जागास णिसेज्जा उबधिपडिले जयग्गहिदे । आहारो सह वायण त्रि किं चत्वत्तमादीसु ।। ३०५ ।। ( भगवती आराधना अाण तेण सावयरायणदोरा में गासिवे ऊमे । वेज्जावच्चं उत्त सगहणारक्खणी वेदं ।। ३०६ ।। शयनस्थान, बैठनेका स्थान, उपकरण इनका शोधन करना, निर्दोष आहार - औषध देकर उपकार करना, स्वाध्याय अर्थात उपदेवा (व्याख्या करना, अशक्त मुनि कां मैला उठाना, उसे करवट दिलाना बैठाना वगैरह कार्य करना थके हुए साधू के हात पैर दबाना, नदी से रुखं हुए अथवा रोग पिडीत का उपद्रव विद्या आदि से दूर करना दुर्भिक्ष पिडीत को सुमिक्ष देश में लाना ये सब कार्य वैयावृत्य कहलाते है 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) वैयावृत्त्य न करने में दोष एदे गुणा महल्ला वेज्जावच्चुज्जदस्स बहयाय । अप्पढ्दिो हु जायदि सज्झयं चेव कुवंतो ॥३२९।। आणिहिद बलविरओ वेज्जावच्चं जिणो व देसेण । जदि ण क रेदि समत्थो संतो सो होदी णिद्धम्मो ॥३०६॥ तित्थयराणा कोधो सुदधम्म विराधणा अणायारो। अम्पापरो पवयणं च ते ण णिज हिदं होदि ।।३०८। भगवती आराधना समर्थ होते हुए तथा अपने बल को न दिलाते हुए भी जिनोप-- दिष्ट वैयावृत्त्य जो नहीं करता है यह धर्म नष्ट है। जिनाज्ञा का भंग, शास्त्र कथित धर्म का नाश, अपना साघु वर्गका व आगमका त्याग ऐसे महादोष वैयावृत्य न करने से उत्पन्न होते है ॥३०६।। वैयावृत्त्यका प्रयोजन व फल : गण परिणामो सइटा बच्दल्लं भक्ति पत्त लंभोय । संधाण नवप्या अब्बोच्छित्ती समाधी य ।।३०९।। आणा मजम मखिल्लाक्ष य दाणं व अविदिगिदाय । वेज्जा बसचस्स गुणा पभानण्णा कज्ज पुष्णाणि ।।३१०।1 भगवती आराधना गुण ग्रहण के परिणाम श्रद्धा. भक्ति बात्सल्य, पात्र की प्राप्ति विच्छिन्न सम्यक्त्व आदि का पुनः संघाम'. नाप, पूज! तीर्थ, अ व्युनिछत्ति, समाधी ।।३०९।। जिनाज्ञा, संय्यम, महार्य, दान निविचिकित्सा प्रभावना, कार्य निर्वाहण ये बेंयावृत्त्यकें १८ गुण है। समाध्याधान विचिकित्सा भाब प्रवचन बात्सल्याद्याभि ब्यक्त्यर्थम् ।। राजवातिक ।। सर्वार्थ सिद्धी ४४२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह समाधिकी प्राप्ति विचित्साका अभाव और प्रवचन वात्सल्य की अभिव्यक्ती के लिए किया जाता है। वयावृत्तीसे तिर्थकर नामकर्म का बंध : साहुणं वेज्जावच्च जोग जुत्तदाए.व्यावृते पत्कियते तद्वे याव । त्यम् । जेण सम्मत्त-णा-अरहंत-बहुसुद भत्ति पवयण' वच्छ ग्लादिणा | जोबो जुज्जइ वेज्जायच्चे सो वेज्जावच्च जोगो दसणवि मुज्झदादि तेण जुत्तदा वेज्जावच्च जोग जुत्सदा । ताए विहाए एक्काए वि तिस्थयराणा कम्म बंधइ । एत्थ सेसकार गाणं जहा स भवेण अंत भावो क्तव्यो। एवमेंद दसय कारणं । साधुओं के वैयावृन्य योग युक्तता से तिर्थकर नामकर्म बंधता है। वैयावृत अर्थात रोगादि व्याकुल साधु के विषय में जो सेवा औषधादि देना, उपसर्ग, परिषद दूर किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है। जिम सम्यक्त्व-ज्ञान-अरिहंत भक्ति बहुश्रुत भवती एवं प्रवचन | वात्सल्यादि से जीव वेयावृत्त्य मे लगाता हो वह वैयावृत्त्य योग है अर्थात दर्शन विशुद्धतादि गुण है उनमे संयुक्त होते का नाम वैयावृत्त्य योग मुक्तता है इस प्रकारकी उस एकही प्रकारको वैयावृत्य मक्ततासे तिर्थकर नाम कर्म बधलं है । यहाँ शेष कारणोका यथा संभव अंतर्भाव करना चाहिए । इस प्रकार यह दसवा कारण है। कुंदकुंद स्वामी प्रवचन सार मे बताये है की, मुनि यो की अपेक्षा श्रावकों का मुख्य कर्तव्य है। जो अंतरंगमे अहंकारी, अविनयी हैं और जिनकी धमके प्रति, . गुरु के प्रति प्रीती नही है वह साधू सेवा नहीं कर सकता है । वैयावृत्त्यसे अभिमान, अविनयता दूर होता है । ऋजुता, नम्रता कोमलता आदी गुण प्रगट होते है । वैयावृत्त्य अंतरग तप है । एक सतत ज्ञानोपयोगी साधुसे भी वैयावृत्त्य करनेवाला साधू श्रेष्ठ है। क्यों की वह स्व पर उपकार करता है। परंतु स्वाध्यायवाला केवल स्व उपकार करता है बाध्याय करने वाले पर विपत्ती आयेंगी तो उसे बयावृत्य वाले के मुख तरफ ही देखना पडेगा ऐसा भगवती आराधना ये ३२९ गाथामे कहा है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय : स्वाध्याय केवल शब्द आगम अर्थात द्रव्य श्रुतका पढ़ना रटना स्वाध्याय नहीं है। परंतु द्रव्य श्रुत के माध्यमसे भाव श्रुतद्वारा स्व भारम द्रव्यका अध्ययन करना, जानना, शोध करना, प्राप्त करना यथार्थ स्वाध्याय है प्रज्ञातिशम अस्तायाः मरणयास्सगोपतिरतिधार विशुद्धि रित्येवमाद्यर्थः । प्रज्ञा मे अतिशय लाने के लिये अध्यावसाय को प्रशस्त करने के लिए परम सवेग के लिये, तपद्धिच अतिचार शुद्धि के लिये (संशयोच्छेद व परवादियो की शंकाका अभाव राजवार्तिक ) आदिके लिए स्वाध्याय तप आवश्यक है । दव्य सुयादो भावं भावदो होइ सव्व सण्णाणं । संवेयण वित्ति केवल णाणं तदो भणियो ॥१।। नय चक गाहिओ सोसुदणाणे पच्छा संवेयणेण क्रायब्यो । जोणहु सुदमवलंबइ सो मुज्झइ अप्प सम्भावे ॥३४ नयचक्र द्रव्य श्रुतसे भानश्रुत होता है । भावश्रुत से भेद विज्ञान होता है 1 उससे संवेदन. आत्मसंवित्ति और केवल ज्ञान होता है ।।१।। पहले श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माको ग्रहण करके संवेदन के द्वारा उसका ध्यान करना चाहिये । जो थुत ज्ञानका अवलबन नही लेता है वह आत्मस्वभावमे भूद रहता है। जिणवयण मोसहमिणं विसय सुह विरेयणं अमिद भूयं । जर मरण बाहि हरण रवय करण सव्व दृक्क्षण ॥ दसग पाहुड यह जिन वचन रूप औषधि इंद्रिय विषय से उत्पन्न सुखको दूर करनेवाला है । तथा जन्म मरण छप रोग को दूर करने के लिए अमृत सादृश है और सर्व दुःखों के भय का कारण है। शास्त्रं बदोड़े शांति सैरने निगर्वं नीति मेवात मुक्ती स्त्रीचिते निजात्म चितने मिल वेलक तल्लदा शास्त्रदि ।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४ } दुस्त्रीचितने दुर्मुखं कलहम गर्व मनंगोंडज । शास्त्रं शास्त्र मे शास्त्रिकनला रत्नाकरा धीस्वरा ।। रत्नाकर शतक शास्त्रका ज्ञान प्राप्तकर शांति और सहिष्णुता को धारण करना,! अहंकारसे रहित होगा, धार्मिक मा, मृदु बाते करना मोक्ष चिंता तथा स्वात्म चिता मे विरत रहना श्रेष्ठ कार्तव्य है । इसके विपरीत शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त कर स्त्रियों की चिता, क्रोध, मान, माया आदिसे विकसित स्पर्धा और अहंकार के उपयोग से शास्त्र शस्त्र बन जाता। है । और शास्त्रज्ञ भी शशधारी हो जाता है । अभिप्राय यह है की। शास्त्र ज्ञान का उपयोग आत्महित के लिये करना चाहिये ।। जिस स्वाध्याय के माध्यमसे आत्मतनका परिज्ञान होता है।। हिताहित ज्ञान प्रगट होता है, कषाय इंद्रियोंका दमन होता है, संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न होता है, मोक्ष मागं मे प्रवृत्ति होती है, वात्सल्य, प्रेम, विनय, मरलता देव, गुरु, शास्त्र प्रति बहुमान, शांति । प्रगट होती है । उसको स्वाध्याय कहते है अन्यथा उसका स्वाध्याय केवल द्रव्य स्वाध्याय है जो मोटा मार्ग के लिए अकित्कर है संयम : जिस प्रकार एक कार के लिए गनि चाहिए, प्रकाश चाहिए । उसी प्रकार गति रोधक शक्ती-ब्रक भी चाहिए । बक नियंत्रण के । विना कार बेकार है । उसी प्रकार मानवी जीवनमे उन्नती रुप गति । चाहिए, साथ साथ भी इंद्रिय और मनको नियंत्रण करने रुप ब्रेक भी चाहिए नहीं तो वह मानव भी बेकार है । उस नियंत्रण शक्ती को हो । संयम कहते है । " सम्यक् पयो वा सयम: सम्यक रुप से पम अर्थात । नियंत्रण सो संयम है । उस संय मरुपी अत्र ( सम .. यम ) के माध्यमसे संसार रूपी यम को नपर कर सकते है । अन्यथा नही। . पूर्ण मंयमी यमी. महामुनी हो सकते है। किंतु श्रावकको भी। आंशिक रुप संयम पालन करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। इस लिये श्रावक को देश संयमी कहते है । संयम १२ प्रकारके Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५ इन्द्रिय का निरोध एक मननिरोध और षड्काय जीओं का रक्षण को सयम कहते है । इच्छा आकाश के समान अनत है। जिस इच्छा रुपी आकाश में संपूर्ण विश्व एक सरसो के समान है । जब एकही जीव की इच्छा रुपी खड्डा में यह संपूर्ण विश्व सरसों के दाने के समान है । तो अनंत जीवों के लिए उस सरसों समान विश्व का भाग करने से एक जीव के भाग में कितना प्राप्त होगा । अथवा जिस प्रसार अग्नि के ऊपर व्रत डालने से २.अग्नि बढती जाती है । अग्नि संतुष्ट नहीं होती उसी प्रकार इच्छा रुपी व आशा रुपी अग्नि में पारह रुपी वृत डालने से आशा रूपी अग्नि शांत नहीं होती किंतू बढ़ती ही जाती है । इसीलिये ज्ञानी श्रावक उस इच्छारुपी अग्नि को शांत करने के लिये तपरुपी में पानी डालते है । उसको महान शांती मिलती है । इसलिये " इच्छानिरोध तप: '' महषियों ने बताया है । वह भी यथायोग्य अतरंग बहिरंग १२ प्रकारका । तप धारण करता है। : दान: चारित्र्य मोहनीय कर्म क उदय मे लोभ कषाय के वशवर्ती होकर श्रावक संपूर्ण बाह्य परिग्रह को त्याग नहीं कर पाता है वह गह में रह कर असि मषि कृणि व्यापारादि आरंभ करके परिग्रह सचय करता है। भोग उपभोग भी करता है । उसे जो पाप संचय होता है उसे पार का नष्ट करने के लिये, कषायों की क्षीण करने के लिय, देव, गुरु, शास्त्र के सेवा सरक्षण के लिये आत्म विशुद्धि के लिये सातिशय पृण्य संपादन -- आस्वं - पानी के प्रवेश में नाव से डूबे अथाह सागरे । कम के सयोगे जं व बावरा हो अपार ससारे ।। - संबर - पानी के निरोध यथा नाव में प्रवेश नहीं करे पानी । आस्रव द्वारों को निरोध जब जीव संवर' भाव हैं मणि ।। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ के लिये और परंपरा से आत्मोत्थ सहज सरल अतींद्रिय के लि जाना मृत का आस्वादन के लिय १) आहार २) औषध ३) शास्त्र ४) । अभयदान शक्ति के अनुसार दान देता है । जो यथाशक्ति मान नहीं देता है बह ।। दाणं पूजा मुक्खं साक्य घम्मेण सावया तेण विणा " इस सूत्र के कारण श्रावक ही नहीं है। पुरुषार्थ सिद्धी उपाय में अध्यात्मिक महर्षि अमृतचंदजी कहते है । गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्या परान्न पीडयते । वितरति यो नाडतियये स कथं नहीं लोभवान भवति ।। जो रत्नत्रय एवं मूल गुणादि से सहित और अन्य को पीडा नहीं देते हुए मधुमक्खी के समान जो आहार ग्रहण करते है उसी प्रकार महान गुण संपन्न महामुनि जब घर पर आते है । उनका जो श्रावक आहार। दान नहीं देते है वह कैसे लोभी नहीं है अर्थात वह निश्चय से महालोभी ! कंजूस है। विष्णद सुपत्त वाणं विसेसतो होई भोग सग्गमही 1 णिवाण सुहं कमसो णिद्दिळ जिणरि चेहिं ।। १६ ।। ( रयणसार ) रवेत्तविसेस काले बविय सुधियं फलं जहां पिडलं 1 होई तहा तं जाणइ पत्तविसेसेसु वाण फलं ॥ १।1 इह णियसु सुबित्तबाज ओ बबई जिणुत्तसत्तरवेसेसु । सो तिहुवण रज्जफल भंजवि कल्लाण पत्रफलं ॥ जो भक्तिपूर्वक सुपात्र को दान देता है विशेष से उन्हे भोगभूमी । स्वर्गसुख मिलता है और क्रमशःपरम निर्वाण सुख की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार स्वयं जिनेन्द्र भगवान कहे है। जैसे उत्तम खेत में बोया हुआ उत्तम बीज काल विसेस को प्राप्त होकर विपुल फल को देता है उसी प्रकार पात्र विषेस को दिया हुवा । बीज स्वरुप अल्प दान भी काल प्राप्त होने पर स्वर्ग मोक्ष रुपी विपुल फसल को प्राप्त करता है। जो अपने न्यायपूर्वक उपार्जित धनरुपी बीज को जिनेन्द्र भगवान Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ द्वारा प्रतिपादित ( जिन प्रतिमा - जिन मंदीर जिन गुरु सप्त क्षेत्र में बोता है उसको त्रिभुवनरूपी राज्य फल मिलता है एवं पंचकल्याणक धारी तिर्थकर पद को प्राप्त करता है। जो मुनिजुत्तवसेसं मुंभइ सो भुजाए जिणुवदिद्ध । संसार सार सोपस्खं कमसो णिन्याण वर सोक्खं ।।११।। (रयण.) जो भव्य मुनिश्वरों के आहार दान के पश्चात अवशेष अन्न को भक्तिपूर्वक खाता है वह संसार के सारभूत उत्तम सुख को प्राप्त करता है । और क्रमशा निर्वाण सुख भी प्राप्त करता है। सर्वोवांति सौख्यमेव तनुचत्तन्मोक्ष एवं स्फूट | वृष्टयादित्रय एवं सिद्धयति स तमिर्गय एवं स्थितम् ।। ( पदमनंदी पंच वि. - - - - -) सवत्तिर्मपुरुषोऽस्य वृत्ति रशनासदीयते श्रावकैःकाले । क्लिडर तरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते ॥ ८॥ सब प्राणी सुख की इच्छा करते है, वह सुख स्पष्टतया मोक्षमे ही है । वह मोक्ष सम्यग्दर्शनादि स्वरुप रत्नत्रय के होनेपर ही सिद्ध होता है । बह रत्नत्रय साधू के होता है । उक्त साधुकी स्थिति भोजन के निमित्त से होती है । और वह भोजन श्रावकों के द्वारा दिया जाता है । इस प्रकार इस अतिशय क्लेशयुक्त काल में भी मोक्ष मार्ग की प्रवृत्ति प्रायः उन श्रावको के निमित्तसे ही हो रही है । रानांश: तूर्यांशो वा षडयो या वशांशो वा निजार्थतः । वोयते यातु सा शक्तिवर्या मध्या कनीयस ।। (धर्मरत्नाकर अ० १२ ) - निहुरा - नाव से नाधिक निकाले पानी है यथा हल्का हुये है नाव । तथा जीव भी निर्जरे फर्म को आत्मा का विशेष भाव ।। - लोक - अनादि अनंत लोको शाश्वसिक याके कर्ता न कोय । अज्ञान मोह वश जीव भर में करता घरता होई ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ८८ जो अपने वन में अर्थात दैनिक आय में से चतुर्थ भाव दान देता है वह उत्कृष्ट दानी है जो षष्टांश दान देता है वह मध्यम दानी है । जो दशांश दान देता है वह जगन्य दानी है | धर्मे स्थैर्य स्यात्कस्यचिच्चं बलस्य | प्रौढं वात्सल्यं बृहणं सद्गुणानाम || दानेन श्लाघा शासनस्यातिनुर्थी । दातृणामित्थं वर्शनाचारशुद्धिः || ( धर्मरत्नाकर ) दान देने से किसी चंचल से होते हुए सा धार्मिक की उसमें स्थिरता होती है, धार्मिकों में प्रौढ (अतिशय ) वात्सल्य प्रगट होता है | धार्मिक में सद्गुणों की वृद्धी होती है तथा दान देने से जिन शासन की बडी प्रशंशा होती है। इस प्रकार दाता जन के दर्शनाचर की शुद्धि होती है। औदार्यवर्य पुष्य दक्षिण्यमन्यत् । समशुद्ध बोधः पातकात्स्याज्जुगुप्सा ।। आख्यातं मुख्यं सिद्धधर्मस्य | लिंग लोकभेयस्तद्दातुरेवोपपलम । १०८ ।। ( धर्मरत्नाकर ) श्रेष्ठ उदारता, पवित्र मृदुता या सरलता, निर्मलता पापसे ग्लानी तथा लोकप्रियता से अनादि सिद्ध धर्म के चिन्ह कहे गये है और ये सब गुणदाता को ही प्राप्त होता है । तोर्थोन्नतिः परिणतिश्च परोपकारे । ज्ञानादि निर्मल गुणावलिकाभिवृद्धिः । वित्तादि वस्तुविषये च विनाश बुद्धिः । संवादिता भवति दानवतात्मशुद्धिः ।। १०९, ( ध र दान देने से तिर्थकी उन्नती, दाताकी परोपकार परिणती ( प्रवृत्ति ) ज्ञानाहि निर्मल गुण समूह की वृद्धी धन आदि वस्तुओं मे नश्वरता का विचार और दाता की आत्मशुद्धी भी हैं। ।। १०९ ।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोदति पश्यतां येषां शक्तानामपि साधवः । म धर्मो लौकिकोऽप्येषां दूरे लोकोत्तरा: स्थितः ।। ११० ।। (घमरत्नाकर ) दुःखको दूर करने में समर्थ होकर जो श्रावक साधूजन को कष्ट में देखकर भी उनके दुःख को दूर नही करते है। उनके लौकिक धर्म भी संभव नहीं है । फिर भला लोकोत्तर धर्म तो उनसे बहुत दूर है । एमा समझना चाहिये । ज्ञानपान ज्ञानवानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदाना त्सुखी नित्यं नियाधिभेर्षजा द्भवेत ।। जान दामम दानी विशिष्ट क्षायोपशमके माध्यम से मति श्रत अवधि मनःपर्याय ज्ञानी होता है । श्रुत केवली होता है। एवं शेष मे केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जाता है । अभय दान से इहलोक परलोक में निर्भय होता है । अन्न दान से इहलोक परलोक में सुखी होता है । औषध दान देने से शारिरीक - मानसिक - आध्यात्मिक रोग से रहित होकर परम स्वास्थ्य रुप अमृत पद को प्राप्त करता है । यस्यानपानः संतप्ताः साधवः साधयंत्यमी। स्वाध्यायादि क्रिया सा- तस्य पुण्यं तदुद्भवम् ।। (धर्मर लाकर ) जिस दाता के अन्न पानी से तृप्त हुए मनिजन आत्म हितकर सब स्वाध्यायादि क्रियाओं को करते है, इस र उत्पन्न हुआ पुण्य उम - बोधि दुर्लभ - जनम मरण मोह राग द्वेष अत्यन्त सुलभ भाई। संसार नाशक मोह मणाशक सुज्ञान सुलभ होई ।। - धर्म भावना - सबैच्छा पूरक सर्वार्थ साधक अनंत सुख के बाई। तीन लोक के सार चिप्तामणी आतम धरम होई ।। यह विधि द्वादश भावना बल से आत्मा परमाला होई । दुःख सुख में है समक्षा बल से कर्म कलंक न सई ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० दाता को प्राप्त होता है। दान शभात से नो - सीदतो यतयो यदण्यनुचित किचिज्जलान्नादिक । स्वोकुर्वति विशिष्ट भक्ति विकला; कालादि दोषादहो । मालिन्यं रचयति यज्जिन मतस्यास्थानशयादिना । श्राबानामिदसि दूषण पदं शक्तानुपेक्षा कुलाय || || ४०१ ॥ ( धर्मरत्नाकर ) ! रोगादिसे पीडित साधूजन विशिष्ट भक्ति से रत्रित होते हुए काल आदिके दोष से यद अपने पदके अयोग्य जल व अन्नादिक का स्वीकार करते है तथा अयोग्य वसति व शय्या आदिका ग्रहण करके जिनमत में मलिनता को उत्पन्न करते है तो यह दोष शक्ती होने पर भी उपेक्षा करनेवाले श्रावक पर आता है- इसे श्रावकों का दोष समझना चाहिए। दान तीर्थ और धर्म तीर्थ की अपेक्षा तीर्थ दो प्रकारका है । दान तीर्थ के माध्यम से शरीर की रक्षा होती है और शरीर के माध्यम से धर्म पालन होता है । " शरीर माध्यम खलु धर्मशासनम् " धर्म पालन से इहलोक पर एवं अलोकिक सुख मिलता है। इसलिये श्रावकों को। धर्मतीर्थ प्रतन के लिये दान देना चाहिये । दान पूजावि क्या पाप बंध का कारण: शंका:- पूजा दानादिक से आरंभ होने से हिंसा होती है। और उससे पाप बंध होता है। इसलिय दान पूजादिक नहीं करना चाहिए। ननुदधि दुग्ध गंघमाल्यादिना भगवत: पूजाभिदाने पापमप्युपाय॑ते लेशतः सावद्य सद्भावात् इत्याशक्या । श्री जितेंद्र भगवान की दही-दूध-गंध-फूल मालादिसे पूजा करने । से पाप उत्पन्न होता है क्योंकि उस पूजादिसे (में) सावध है (पापात्मक आरंभादिक) समाधान:- हे पूजातिशय पूज्य भगवान आपकी पूजा करने से , भव्य जीवों को सातिशय महत् पुण्य उपार्जन होता है । यद्यपि पूजादिक सामुग्री लाना, धोना, स्वच्छतादि करने से पाप उत्पन्न होता है तथापि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पाप इतना कम है कि, पूजादीसे उत्पन्न पुण्य से उसकी शक्ति नष्ट हो जाती है। वे अपना कार्य करने के लिये अशुभ कर्म फल देनेके लिये असमर्थ हो जाता है । जैस स्पर्शन इंद्रिय को तृप्त करनेवाले झंडे पानी से भरा समुद्र मे एक कण विष पड़ने से उस संपूर्ण समुद्र को वह विष कण दूषित नहीं कर पाता है। प्रारम्भोऽप्येष पुण्याय वेधाधुद्वेशतः कृतः । सामग्ज्यंतर पातित्या जीवनाय वित्रं यथा ।। ३३९ ।। (धर्मरत्नाकर ) देव, शास्त्र, गुम के उपदेश से किया गया महान आरंभ भी उसकी । सामग्री के अन्तर्गत होने से पुष्प के लिये होता है। जैसे विष इतर सामुग्री से युक्त होने पर जीवन के लिये प्राण रक्षा का कारण मा होता . भिन्न हेतुक एवायं भिन्नात्मा भिन्न गोचरः । भिन्नागु बंधस्तेन स्यात्पुण्यबंधनिबंधनम् ।। ३४० ।। (धर्मरत्नाकर ) (५) ईशस्तवनम् सत्यं शिवम् सुन्दरम् चिदानन्दमंगलम सर्व कर्म रहितम् सर्वगुणः मण्डितम् परिभ्रमः रहितम् लोक अग्ने संस्थितम् सदा स्थिरः निष्कम्पं व्यो दादः सहितम् सिद्धः शुद्धः ज्ञायकः बुद्धः विष्णुः महेशः पुरुः हः शंकरः स्तुत्यः पूज्यः श्रीधरः एकानेक: ईश्वरः सक्षस्थूल: ध्यापकः आदिअन्त रहितम् आत्ममध्ये संस्थितम् वेह मनः रहितम् ज्ञान सुखं सहितम् राग द्वेष रहितम् शम शान्ति शायितम् स्वच्छं सौम्यः गम्भीरम् आस्मभावा स्वरूपम् ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस आरंभ का चूंकी हेतु भिन्न स्वरुप, भिन्न विषय, गिन्न सबंध भी भिन्न है । इसलिये वह पुण्य बध का कारण होता है । लोभादि हेतुकः पापारभो गेहादि गोचरः । पापानुबंधी सत्याज्यः कार्योऽन्यः पुण्य साधनः ॥ ३४१ ॥ ( घ. रत्नाकर ) लोभ के कारण जो गृह कुटुंबादीके विषय मे आरंभ किया जाता है वह पाप का बंधक होने से छोड़ने के योग्य है । परंतु दूसरा जिनगृह व जिनप्रतिमा के निर्माणादि तथा आहार दानादि विषयक आरंभ पुण्य का बंधक होनेसे आचरणीय है। धमारंभस्तस्य रज्यति जनः किर्ती: पराजायते । राजानोऽनुगुणा भवैति रिपयो गच्छंती साहायकम् ।। चेतः कांबन नित्ति च लभते प्रायोऽयमलामापरः । पापारंभ भरा घनार्य विरतिश्चेति प्रतिता गुणाः । ३४२, (घ. रत्नाकर ) लो भव्य धर्म के निमित्त आरंभ मे निरत होता है, उससे लोग प्रेम करते है । उसे उत्तम किर्ती का लाभ होता है, राजा उसको अनुकल होता है, शत्रू सहाय्यक होता है। उसका चित्त किसी अभूतपूर्व शांति को प्राप्त होता है । उसे प्राय: वहुत धन का लाम होता है । तथा बह प्रचूर पापारंभ म परिपूर्ण अनोंसे -निरर्थक कर्मोमे बिरक्त होता है। इस प्रकार धर्मारंभ मी तत्पर भव्य के ये प्रसिद्ध गुण हुआ करते है। म मिथ्यत्वात्प्रमाांद्वा काषायावा प्रवर्तते । श्रासो द्रव्यस्तवे हेन तस्य अंघोजस्ती नाशुभः ।। ३४३ ।। श्रावक चुकि मिथ्यात्वसे, प्रमादसे, अथवा कषायसे द्रव्यस्तव मे । पूजा-प्रतिष्ठा एवं दानादिरूप बाह्य संबम मे प्रवृत्त नहीं होता है, इस. लिपे उसको अशुभ का बंध नही होता है से करना चाहिये । कृष्यादि कर्म बहुजंगय जंतुति ।। कुर्वति ये गृह परिग्रह मोगसक्ताः ।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माय रंधनकतां किलपापमेषा । मेवं वदनापि न लज्जित एव दृष्टः ॥ (धर्मरलाकर ) जो गृहम्य धर, परिग्रह, तथा भोगोंमे आसक्त होकर बहुतसे त्रस जीओं के धान के कारणभूत खेती आदिक कार्यो को करते है उन्हे धर्म के लिये भोजन के तैयार करने मे पाप का भागी कहनेवाले दुपर को लज्जा नहीं आती ? ( तात्पर्य मुनियोका आहार देने के लिए जो आरंम होता है उससे पाप अल्प और पुण्य महान होता है अत: ऐसे आरंभ का निषेध करना अनुचित है। एवं विधस्याप्य बुधस्य वाक्यं सिद्धांत वाह्ययं बहु बाधकं च । मूढा दृखं अवधते कदर्याः पापे रमतेऽमतयाः सुखेन ।। (ध, रलाकर ) जो अज्ञानी जन लोभ के वशीभूत होकर इस प्रकार बोलनेवाले मूर्ख के भी आगमबाह्य और अतिशय बाधक बचनपर स्थिर श्रद्धा करते है वे दुर्बुद्धि पाप मे आनंद से रममाण होते है ऐसा समझना चाहिए । पुण्य पाप: वांका:- भले पूजादी से पाप बंध से बच सकते है किंतु पुण्य बंध से नहीं बच सकते है । पुण्य भी संसार का कारण है । यथा क-ममसुहं कुसील सुहकम्मं चावि जाणह सुसील । किह त होचो सुसील जं संसार पवेदि ।। १४५ ।। ( समयसार) अशुभ कार्य कुशील पापरुप है । शुभ कर्म पुण्य सुशील स्वरूप है । (६) अद्वितीय वस्तु वीतरागानापरो वेवः आगमन्नापरो वेदः 1 निग्रन्थान्नापरो गुरु: अहिंसानापरो धर्मः ।। १ ।। न ज्ञानात् परो ज्योतिः न अज्ञान समं तमः । न समता समं सुखं न तरुणात्परो दुःखम् ।। २ ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा साधारण जन कहते है। परंतु शुभ कार्य सुशील कैसे है । जो की । संसार रुप कारागार में प्रवेश करने के लिये कारण है। जई भणइ कोवि एवं गिह वावारेसु वह माणो वि । पुण्णे अम्हण काजं जं संसारे सुवाउई ।। ३८९ ।। ( भावसंग्रह । गृहवास मे रहते हुए भी और गृह व्यापार मे प्रवृत्त होते हुए भो। कोई कहता है की हमको पुण्य नही चाहिये क्योंकी पुण्य संसारमे गिराने वाला है। समाधान: मेहुणसण्णारुढो मारइ णवलक्खसुहुम जीवाई । इद जिणवरेहि भणिय बझंतर णिगंथ रुबेहिं ।। ३९० ॥ ( भावसंग्रह ) गहे चट्ट तस्स य वावरसयाइ सया कुर्णतस्स । आसवइ कम्ममसुहं अट्टर ठेउट्टे पवत्तस्स || ३९१ ॥ आम ण छह गेहं तामण परिहरइ इंतयं पावं । पावं अपरिहतो हेड पुण्णस्स भाचया ॥ ३९३ ॥ उपरोक्त कुशंका का समाधान देते हुए आचार्य प्रवर देवसेन में नय एवं अवस्थाओं का अवलंबन लेकर स्याद्वाद पद्धति से उसका समर्थन एवं आगतिक उत्तर दिये है। बाह्य अभ्यतर ग्रंथों से रहित जिनेंद्र भगवान ने बताये है की एक बार मैथुन संज्ञासे सहित होकर मनुष्य जब भोग करता है तब लिंग और योनि के लिये संघर्षण से ९ लाख पंचेद्रिय मनुष्य जातिय लब्ध्य पर्यातक जीवों का घात करता है। पहले जीव मैथुन मोह कर्म के उदय से निर्मल ब्रह्मचर्य रुपी आत्म स्वरूप का घात करता है । उस समय जिस प्रकार सरसों से भरा हुआ पात्रा में संतप्त लोह शलाका डालने पर सरसों जल जाते है उसी प्रकार योनी गत १ लास्त्र' कब्ध्य पर्याप्त मनुष्य जीव भी जल जाते है । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गृह मे रहते हुए हजारो गृहव्यापारोंके सदा करते हुए अत्यन्त अमुम आई रौद्र परिणाम से अशुभ कर्म का आस्रव करता है जो की एकान से संसारका कारण होने से अत्यन्त हेय स्वरुप है। जब तक आई-रौद्र ध्यानोंका निवासस्वरुप गृहवास को त्याग नहीं करते है तब तक अत्यंत इन पापों का त्याग नहीं हो सकता है । यदि पाप का त्याग न होता है तो पुण्य कारणों को मत छोडो । पुण्यं कुरुत्व कृतपुण्यमनीहशोऽपि । ना पदवोऽभिभवति प्रभवेच्च भत्यं ।। संतापयन् जगदशेषमशीतरश्मिः । पोषु पश्य विदधाति विकासलक्ष्मीम् ॥ ३१ ॥ ( आत्मानुशा.) हे भव्य जीव ! तु पुण्य कर्म को कर, क्योंकि पुण्यवान प्राणी के ऊपर असाधारण भी उपद्रव कुछ प्रभाव नहीं डाल सकते है। इतना ही नहीं बल्कि वह उपद्रव भी उसके लिये संपत्तीका साधन बन जाता है। देखो, समस्त संसार को संतप्त करनेवाला भी सूर्य कमलों में विकासरुप लक्ष्मी को ही करता है । यथांगमध्यक्ष सुखे हि धर्मस्तथा परोक्ष पित्र मोक्ष सौख्ये । भोगाय भोगादी सुखाय धर्मो मित्रादि यत्नोऽपि निमित्तमात्रम्।१३ (धर्म रत्नाकर ) धर्म जैसा प्रत्यक्ष सुख का कारण है वैसे ही वह परोक्ष स्वरुप मोक्षसुख का भी कारण हैं । भोगोपभोगादि सुख के लिये धर्म ही कारण है । इस सुख के लिये मित्रादिकों का यल भी निमित्तमात्र है। रत्नत्रय समं धनं णमोकार समं मंत्र । आत्म तीर्थ समं तीर्थ न भूतो न भविष्यति ॥ ३ ॥ आत्मविद्या समं विद्या आत्महिता समं हिंसा | आत्ममित्र समं मित्र: न त्रिकाल लोके सन्ति ॥ ४ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य का लक्षण: पुनात्यारमानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । ( सर्वार्थ सिद्धि ) जो आरगा को पवित्र करता है जिसे अपना पवित्र होता है। वह पुण्य है। यस्तु शुद्धात्म भावना साधनार्य बहिरंग व्रत तपश्चरण । बानपूजाविकं करोति स परंपराया मोक्षं लभते इति भावार्था । । शुद्धात्माभावना को सिद्ध करने के लिये अथवा प्राप्त करने के | लिये बहिरंग ब्रत तपश्चरण, दान पूजादिक को जो करता है वह परंपरा से मोक्ष को प्राप्त करता है । ( समयसार १५ म. गा. जयसेनाचार्य तात्पर्यवृत्ति ) पावागम धाराई अणाइरुठ्ठि याइं जीवम्मि । तत्प सुहासवदारं उग्धादेंतेका सवोसो || ५७ ।। (जय धवला ) | जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है तब तक जीव अनादि काल से। बंध ही करता है । सम्यग्दर्शन होने के पश्चात ही सातिशय पु.य का । आश्रव होता है । जीव मे अनादि काल से पापाधव के द्वार स्थित है। उनके रहते हुए जो जीव शुभाश्रव द्वार का उद्घाटन करता है अर्थात ! पापाश्रव के कारणभूत मिथ्यात्व, विषय, कषाय, हिंसादि त्याग करके शुभाधवके कारण मत सम्यग्दर्शन, दया, दानादि में प्रवृत्त होता है । यह कसे सदोष हो सकता है ? अर्धात कभी भी नहीं हो सकता है । इसलिये प्राथमिक जीव को परंपरा मे मोक्ष के साधनभूत पुण्य को निदान रहित होकर सतत उपार्जन करना चाहिये । सालम्बम एवं निरालम्बन का ध्यान: शंफा:- अवलम्वन ध्यान से पुण्य होता है और अशुभ ध्यान से पाप होता है ये दोनों संसार के कारण है इसलिये दोनों विकल्पों से उपरम होकर शदात्मानुभूतिरुप निरालम्ब ध्यान क्यों नहीं करना । चाहिय ? समाधानः-- Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मग पोई एवं अलि गिहा थानगिच्चलं झाण । । सुद्ध व णिरालम्ब ण मुणइ सो आयमो जइणो ।। ३८२ ।। ( भाव-संग्रह) कहियाणि विट्टिवाए पछुच्च गुण ठाव जाणि झाणाणि । तह्मा स देस विरओ मुक्खं धम्म ण ज्झाएई ।। ३८३ ।। (भाव-संग्रह) । जो कोई कहता है कि गृहस्थी को निश्चल निरालम्ब, शुद्ध घ्यान रता है वह यतियों के आगम को नहीं जानता है दृष्टीवाद अंग में जो अणस्थान को लेकर ध्यान का वर्णन है उससे सिद्ध होता हे बि देश धरत' पंचम गुणस्थान श्रावकों को मुख्य ( उत्कृष्ट ) धर्म ध्यान नहीं होता है। ___ गृहस्थों को उत्कृष्ट धर्म ध्यान नहीं होने का कारणः - कि जे सो गिहवन्तो बहिरंतर गंथ परिमिओ णिच्च । बहु आरंभ पउत्तो कह शायद सुख मप्पाणं ।। ३८४ ।। ( भाव-संग्रह ) धरवायारा केई करणोया अस्थि तेण ते सव्वे । शायिस्स पुरओ चिट्ठति जिमी लियच्छिस्स ।। ३८५ ।। { भाव-सग्रह ) गृहस्थ सतत वाह्य धन धान्य, स्त्री-पुत्र परिग्रह एवं कामक्रोधादि । अन्तरंग परिग्रह से वेष्टित रहता है। कृषि व्यापारादि आरंभ स लीन रहता है इसी प्रकार बाह्य विषय मे लीन रहनेवाला गृहस्थ शुद्ध आत्मा का ध्यान किस प्रकार कर सवाता है अर्थात नहीं कर सकता । न धर्मकल्पवक्ष समं तरं न भावतीथं समं अस्ति तीर्थ । मनसमान नान्य चंचलास्ति आत्मशक्ति समं न शक्तिमस्ति ।। ५ ।। विवेक समं न राजहंसः मधुर वचन समं नहि पिकः । गण ग्राहक समं मधुमक्षिः निन्दक समं नही गडपक्षिः । ६ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ गृहस्थ व्यापार को करता हुआ उसका मम, इद्रियों, भाव उस हो तल्लीन रहता है जिस समय मे वह ध्यान करने के लिये आंख ब. कर बैठता है उसो. मानने सम्पूर्ण संसार-व्यापार मनरुपी चल चित्र परदे पर अंकित होते है । वह उस समय मे हाथ में तो माला फिरा. है और मन बाजार मे घंमाता है । ख पुष्पमथवा शंग स्वरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेऽपि ध्यान सिद्धिगृहाश्रमे ।। १७ । (ज्ञानावः) आकाश के पुष्प और गधे के सींग नहीं होते है । कदाचित् कि देश वा काल में इनके होने की प्रतीति हो सकती है, परंतु ग्रहस्थायी में ध्यान की सिद्धि होना किसी देश वा काल में संभव नहीं है ।। १७६ अप्रमत्त गुणस्थान में मुनि को निरालम्ब ध्यान होता है:ॐ पुण वि णिरालम्ब तं झाणं गयपमाय गुण ठाणे । चत्तगेहस्स जायद धरियं जिण लिंग यस्स ।। ३८१ ।। ( भाव-संग्रह) जो गृह त्याग करके निम्रन्थ जिनलिंग को धारण किया है इस प्रकार अप्रमत्त गुणस्थानवों मुनियों को निरालम्ब ध्यान हो सकता गृहस्थों को नहीं । अरसमरुवमगंधं अध्यतं चेवणागुणमसई । जाण अलिंगरगहणं जीव ममिद्दिष्ठ संठाणं ।। १२७ ।। ( पंचास्तिकाय ) । अलिंगग्गहणं यद्यप्यनुमानेन लक्षणेन परोक्ष ज्ञानेन व्यवहारनगंगा घूमादग्निवदशुखात्मा ज्ञायते तथापि रागादि विकल्परहित स्वसंवेदनज्ञानसमुत्पन्न परमानंदरूपानुकूलत्व' सुस्थित वास्तव सुखामृतजलेन पूर्णकलशवत्सर्व प्रदेशेषुमरितावस्थानां परमयोगिनां यथा शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति तथेतराणां न भवतीत्यलिंगग्रहण: (श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिः)। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ गाथार्थ :- शुद्ध आत्मा रस रूप, ग रहिल है । संसारी जीव के समान शुद्ध जीव प्रगट नहीं है इसलिये अप्रगट है। चैतन्य गुण से पूर्ण हे शब्द रहित हैं, इन्द्रियादि चिन्हों से ग्रहण करने में अयोग्य है, निराकार है । टोकार्थ :- रागादि विकला रहित स्वसंवेदन ज्ञान से समुत्पन्न परमानंद रुप अन्नाकूलत्व सुस्थित, बास्तविक, सुखामृत जल के द्वारा पूर्ण कलश के समान सर्व प्रदेश में भरे हुए अवस्था को प्राप्त परम मुनियों से शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है उसी प्रकार अन्यों को शुद्धात्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है। किंतु अनुमान लक्षण के द्वारा परोक्ष ज्ञान से व्यवहार नय से धूमय अग्नि का ज्ञान जैसे होता है उसी प्रकार आत्मा का परोक्ष ज्ञान परमयोगी ( ध्यानावस्थापन्न मुनि ) को छोड़कर यथा योग्य अन्यों को होता है । जैसे दृश्श्य पर्वतादि के ऊपर घूम अग्नि का साक्षात् दर्शन नहीं होता है परंतु बिना अग्नि से घूम नहीं होता है इस न्याय के अनुसार अनुमान से ज्ञात होता है। वहां पर अग्नि है इसी प्रकार गुरु के उपदेश से शास्त्राध्ययन, मनन, चिंतन, अनुप्रेक्षा से परम मुनि को छोड़कर अन्यों को अशुद्धात्मा का अनुमान से ज्ञान होता है । उपसंहारः F लहिऊणदेस संजय सयलंबा होइ सुरोत्तमोसग्गे । मोत्तूण सुहे रम्मे पुणो वि अवयर मणुयते ।। ५९६ ।। तत्य वि सुहाई मुसा दिक्ला गहिऊण भविय णिग्गंयो । सुक्काणं पाविय कम्मं हृणिऊण सिक ।। ५९७ ॥ I जो देश संयम को अर्थात श्रावक के व्रतों का पालन करता है अथवा मुनिधर्म को पालन करता है उस सातिशय पुण्य के कारण उत्तम स्वर्ग में जन्म लेता है वहां पर रम्य, मनोहर भोगों को भोगकर सुगुण समं नहि गन्धमस्ति न वीर्य समं प्रतापमस्थि । न रागसमानं बन्धनमस्ति न क्रोध समानं अनलमस्ति ॥ ७ ॥ विषयसमानं विषं मोह समानं रिपुः । कुभाव समानं हिंसा त्रैलोक्य मध्ये नहि ॥ ८ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पुनः उत्तम मनुष्य को प्राप्त होता है। वहां पर उत्तम भोग को भोगकर पूर्व संस्कार के कारण सातिशय पुण्य के प्रभाव से दीक्षा लेकर मनित्रत को धारण कर शक्ल ध्यान को प्राप्त करके कर्म नष्ट करके सिद्धान को प्राप्त करता है इसी प्रकार गृहस्थ के व्रत मे सातिशय पुण्य प्राप्त होता है, पापों का संवर निर्जरा होती हैं और परम्परा से मोक्ष प्राप्त होता है। ७ वा गुणस्थान-सफल सयमी-मोक्ष मार्ग के उत्कृष्ट पात्रो: जब भव्य सम्यग्दृष्टो देश संयम मपी पुरुषार्थ से कर्म शक्ति को ! हास करके आत्मशक्ति की वृद्धि करता है तब उसकी मोक्ष मार्ग की यात्रा तीन हो जाती है । तब वह अवशष बाह्य परिग्रहों को पूर्ण रुपले त्याग सहित अन्तरंग परिग्रह को त्याग कर वह जिनेन्द्र भगवान के यथा जात रुप को धारण करता है । वह तीर्थकर का लघुनंदन बन जाता है। वत्तावत्तपमादे जो णिवसर पमत्त सजदो होइ । सयल गुणसौल कॉलओ महत्वई चित्तलायरणो ।। ६०१ ।। ( भव-संग्रह ) जो महानतवारी मुनि व्यक्त अव्य सप्रमाद से सहित है, सर्व गण शीले मण्डित है. चित्रलाचरण मे सहित है ( प्रमाद के कारण आचरण में मिधरूप परिणाम ) उनके प्रमाबरत ६ ठा गुणस्थान होना है। मुनि का स्वरूप: णाह होमि परेसि ण मे परे पास्थि मजमिह किचि । इदि णिच्छिचा जिणिदो जादो जध जादस्व घरो । २०४।। ( प्रवचनसार ) मैं दूसरों का नहीं हूँ पर मेरे नहीं है इसलोक में मेरा कुछ भी नहीं है एसा निश्चय करके जितेन्द्रिय होता हुआ यथा जात रुप धारी निम्रन्थ मुनि बन जाता है । शंका:- आत्म, द्रव्य, त्याग, आदान, व्रत, अन्नन्न, संकल्प विकल्प से रहित है । तब इसी प्रकार बाह्य द्रव्यों अर्थात् संसार स्त्री कुटुंब का त्याग एवं व्रतों आदि का पालन रुपी संकल्प विकल्प क्या करना चाहिये? Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ समाधान:"पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुकावं परिमोक्खें" || २०१॥ (प्रवचनसार) यदि सपूर्ण दुःख भे प्रष्ट रुप से विमुक्त होना चाहते हो तो आमा य दीक्षा को अंगीकार करो । अन्यथा मोक्ष नहीं मिल सकता है। णिच्चेल पाणिपत उवळ परमजिगरिदेहि । एक्को वि मोक्ख मम्मो सेसाय अमरगया सन्वे ।। १० । (अष्टपाहुइ ) परम जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित अचेलकत्व एवं पाणिपात्र स्वरूप को प्राप्त करो। क्योकि ये ही प्रकृष्ट मोक्ष का प्रकृष्ट मार्ग है शेष मार्ग उन्मार्ग है, मिथ्या मार्ग है। द्रव्यस्य सिद्धी चरणस्य सिद्धिः तव्यस्य सिद्धि चरणस्य सिद्धौ । बध्येति कर्मा विरताः परेऽपि द्रव्याविषई चरणं चरंतु ॥१३॥ ( अमृतचन्द्रटीका ) द्रव्य की सिद्धी में चरण फ्री सिद्धी है । और चरण की सिद्धी में ज्य को सिद्धी है ज्ञान में आत्मविशुद्धि होती है उससे विवक प्रगट होता है हेय को त्याग करता है, उपादेय को ग्रहण करता है, बाह्यद्रव्यों से उपेक्षा भाव धारण करता है । आत्म स्वरुप को जानने के बाद ज्ञानी आत्म स्वरूप से विरोध कार्य अर्थात आचरण नहीं करता है बाह्य कम से विरक्त होकर आत्मशुद्धि के लिन चारित्र पालन करता है । जब तक नहि नहि अमतं अहिंसा समं क्वचित् नहि नहि भोजन सुज्ञान समं क्वचित । नंहि नहि व्यापार सुध्यान समं क्वचित नहि नहि सुधीरः मुमुक्षसमं क्वचित् ।। ९ ॥ विनय सम ने नोति स्वाध्याय समं तपः स्वरुचि समं स्वाद: प्रेम समान बन्धः । नक्षमा समं शस्त्रं लोम समानं पापं धर्म्य समान शक्तिः त्रैलोक्पेनान्य अन्य ।। १० ।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म अविरुढ चारित्र पालन नहीं करेंगे तब तक सर्व कार्य से निवृत्त | होकर आत्मोथलब्धि रूप मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते है। मुनियों का कर्तव्यः मायह धम्मज्माणं अठं पि य गोकसाय उदयाओ । सज्झाय भावणाए उवसामइ पुंणु चि झाणम्मि ॥ ६०३ ॥ ( भाव-संग्रह ) मन धर्मध्यान को धाता है कभी कभी तो कषाय के उदय से आर्त ध्यान भी हो जाता है । उस आर्सध्यान' को उपशमन के लिये स्वाध्याय, अनुप्रेक्षाओं का चितवन करते है । प्रमादवशतः मूल गुण उत्तर गुण में अतिचार आदि लगने पर निंदा, गर्दा प्रतिक्रमणादि करता है । जब मन धर्मध्यान मे स्थिर नहीं रहता है, तव स्वाध्याय स्तुति वंदनादि करता है। शंका-- मुनि गृहादि क्रिया को छोडकर मूलगुण रुप क्रिया को करता है । क्रिया की अपेक्षा दोनों समान होने से बंध भी समान है। अशुभ को छोडकर अहिंसावत देववंदनादि शुभ क्रियाओं से पुण्य बंध होता है क्योंकि शुद्ध की अपेक्षा शुभ अशुभ है बन्ध की अपेक्षा पुण्यपाप समान है । मुनि धर्म ही बन्ध स्वरूप है । और बन्धस्वरुप होने के कारण संसार का कारण है। समाधान: सेतु सुद्धो भावो तस्सुबलभो य होइ गुणणे । पणवह प्रमाद रहिये सयलपि चारित्त जुत्तस्स || ६ || (भाव-संग्रह ) शुद्ध भाव आत्म का स्वरुप होने से अत्यन्त उपादेय एवं ग्रहण करने योग्य है । इस शुद्ध भाव की प्राप्ति १५ प्रमाद से रहित सकलचारित्र से शोभित महामुनियों को अप्रमत्तगुणस्थान आदि मे होती है। छठमए गुणटाणे पट्टतो परिहरेइ छावास । नो साहु सो ण मुणई परमायमसार संवोह ॥ ६०६ ॥ ( भाव-संग्रह ) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब सुतो छंउड सव्वावास सुत्तबद्धाई । तो शेण होइ चत्तो सुआयमो जिनवरिदस्स || ६०७ ।। यम नियमों का फल : जो ६ ठा गुणस्थान मे प्रवर्तन करते हुए देव वंदना, स्तुति, स्वाध्याय प्रतिक्रमणादि का त्याग करता है वह परमागम के रहस्य को नहीं जानता है । अथवा जानला हुआ भी सूत्र निवद्ध आवश्यकों का त्याग करता है वह जिन भगवान द्वारा प्रतिपादित आगम को ही त्याग किया । और जिनागम के त्याग के कारण सम्यक्त्व को ही त्याग कर दिया इसलिये वह मिथ्यादृष्टी है । इसलिये जब तक मन निश्चल रुपले निश्चल ध्यान नहीं होता है तब तक षट् आवश्यक क्रिया को व्रतसहित पालन करना चाहिये । वाणादिरयण वियमिह सजा तं साधयंति जमणियमा जस्थ जमा सस्यदिया नियमा णियतथ्य परिणामः ॥ २ ॥ ( मूलाचार कुंद कुंदा ) स्वाधीन सुखं परमेव सुरणं भोग समं रोग न अन्य क्वचित् । रत्नत्रय धारी समं न श्रीमान् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप साध्य है । यम और मियम इस रत्नत्रय रूप साध्य को सिद्ध करनेवाले है । साधन के बिना साध्य सिद्धि नहीं होती है। इसलिये महाव्रतादि यम सामायिकादि नियम के बिना रत्नत्रय की सिद्धि नहीं हो सकती है। इसलिये मोक्ष के लिये ( भाव-संग्रह ) मारवाहि पशु रेव धनवान् ।। ११ ।। मर पशुः धर्मः विधेषः नीति ज्ञानं हीन बात्सल्य बन्धुत्व समता हीन । मनुष्य समानं न पशुरस्ति १०३ — - परोपकारी पशुरेव श्रेष्ठः ।। १२ ।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ यतादि अनिवार्य है । जो महाव्रतादि आजीवन पालन किया जाता है। उसे यम कहते है। सामायिकादि अल्पकालावधि होने से यम बहलाते। मूलगुणेसु बिसुद्धे वंदित्ता सव्व संजदे सिरसा ।। इह पर लोग छिदत्थे मूलगणे कितइत्सामि ॥ १ ॥ ( मूलाचार ) सि. न. बमुनन्दी टीकाकार इह शब्दः प्रत्यक्षबचनः परशब्द उपरतेन्द्रिय-जन्म वचन: लोक शदः । सुरेश्वरादि वचनः । इह च परश्चेहपरी तोच तो लोको च इह पर लोको । ताभ्यांतयोर्वा हित सुरेश्वर्यपूजा सत्कार चित्त निवृत्तिफलादि तदेवार्थः प्रयोजनं फलं येषां ते इहपरलोक हितार्थास्तान् इह लोक परलोक सुरे- | श्वर्यादि निमित्तान् । इहलोके पूजा सर्व जनमान्यतां गस्तां सर्वजनमैत्रीमावादिके व लभते मूलगुणानाचरन्, परलोक च सुरश्वयंतीर्थकरत्वं चक्रवर्ती बल देवादिकत्वं सर्वजनकान्त-तादिकं च मूलगणानाचरन् लभते इति । मूल. गुणान् सर्वोधर गुणधारतां गतानाचरणविशेषान् । 'इह शब्द प्रत्यक्ष को सूचित करने वाया है पर' शब्द इन्द्रियातीत जन्म को कहनेवाला है और 'लोक' शब्द देवों के ऐश्वर्य आदि का वाचक है। हित ' शब्द मे सुख, ऐश्वर्य पूजा सत्कार और चित्त की निवृत्ति । फल आदि कहे जाते हैं और · अर्थ ' शब्द से प्रयोजन अथवा फल वित्र. क्षित है । इस प्रकार से इहलोक और परलोक के लिये अथवा इन उभय लोकों में सुख ऐश्वर्य आदि रुप ही है प्रयोजन जिनका, वे इहलोक पर हितार्थ कहे जाते है । अर्थात ये मुल गण इहलोक और परलोक मे सख । ऐश्वर्य आदि के निमित्त है। इन मूलगुणों का आचरण करते हुए जीव इस लोक में पूजा, सर्वजन से मान्यता गुरुता ( वडप्पन ) और सभी जीवों में मैत्री भात्र आदि को प्राप्त करते है तथा उन मूलगुणों को धारण करते हुए परलोक में देवों के एश्वर्य, तीर्थकर पद, चक्रवर्ती, बलदेव, आदि के पद और सभी जनों मे मनोज्ञता, प्रियता आदि प्राप्त Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ करते है । एसे मूळगुण जो कि सभी उत्तर गुणों के आधारपने को स्त आचरण विशेष है। एका पसत्यभूदा समणाणं बा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा बाएष पर लहणि सोपखं ।। २५४ ।। (प्रवचनसार ) - तपोधनः शेषतपोधनानां वैयावत्यं कुर्वाणा सन्त: कायेन किमपि निरवद्ययावृत्यं कुर्वन्ति । वचनेन धर्मोपदेशं च । शेषमौषधानापानादिकं गृहस्थानामधीन तेन कारणेन वयाबृत्यरुपो धर्मो गृहस्थाना मुख्यः पोधनानां गौणः । द्वितीयं च कारणं निर्विकारचिच्चमस्कारभावना प्रतिपक्ष भूतेन विषय कषाय निमित्तोत्पलेनाति रौद्रध्यानद्वयन परिणसाणां ग़: स्थामात्माश्रित निश्चय धर्मस्यावकाशो नास्ति बयावृत्यादि इधर्मेण दुान वंचना भवति तगोधन संसगंण निश्चय व्यवहार मोक्ष मापदेशलानो भाति । तता नपरा लभत इस्मभित्रायः ।। (जयचन्द्राचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिः) गाथार्थ:- यह प्रशन त चर्या श्रमणों के होती है और गृहस्थी के लो मुख्य होती है मास्त्रों में ऐसा कहा गया है । उसो से गृहस्य परम सौख्य को प्राप्त होता है। तपोधन द्रुमरे साधुओं की वैयावृत्ति करते हुए अपने शरीर के द्वारा जो कुछ भी वैयावृत्य करते है वह पापारंभ ब हिंसा से हित - दुर्जन - परोपकारदुग्ध पाने सोऽपि कृतघ्न विषंप्रदाते संलग्नः । दुर्जन सम नहि विषधरः संत्रेन शाम्यति दुर्जन नरः ।। १३ ।। सुगण शतेऽपि समाश्रितोऽपि कुगुण कुरक्तः ग्रहणे शक्तः । दुर्जन समानं नहि जलौकः दूरेऽपि फुगुणः ग्रहणे शक्तः .. १४ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ होती है तथा वचनों के द्वारा धर्मोपदेश करते है । शेष औषधि अन्नपान आदि की सेवा गृहस्थों के अधीन है, इसलिये वैयावृत्त्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है किन्तु साधुओं का गौण है । दूसरा कारण यह है कि विकाएं रहित चैतन्य के चमत्कार की भावना के विरोधी तथा इन्द्रिय' विषक और कषायों के निमित्त से पैदा होनेवाले आत्त आर रद्रध्यान मे परि णमनेवाले गृहस्थों को आत्माधीन निश्चय धर्म के पालने का अवकाश नहीं है । यदि वे गृहस्थ बयावत्यादि रुप शुभोपयोग धर्म से वर्तन करें तो खोटे ध्यान से बचते है तथा साधुओं की संगति से गृहस्थी निश्चय तथा व्यवहार मोक्ष मार्ग के उपदेश का लाभ हो जाता है, इससे ही गृहस्थ परपरा निर्वाण को प्राप्त करते है। धम्मो दयाविसुद्धों पम्चज्जा सश्वसंग परिचित्ता । देवो वषगधमोहो उदय करो भन्यजीवाण ।। २५ ॥ ( अट्ठ पाहुडं ) कुन्द कुन्द दया से विशुद्ध जो धर्म सर्वसग में रहित प्रवज्या अर्थात मनि दीक्षा, मोह से रहित देव भव्य जीवों के लिये उदय कर रहा है। वर वय सहि सग्गो मा दुक्खं होऊ गिरइ इयरेहि । छायातविठ्ठायाणं पडिवालताण गुरू भेव ।। २५ ।। ( अट्ठ पाहुडं कुन्द कुन्द ) जब तक रत्नत्रय की पूर्णता नहीं होती है तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है । जब तक मोक्ष की मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। तब तक व्रत तपों का पालन करके स्वर्ग प्राप्त करना श्रेष्ठ है । परन्तु अवती होकर नरक तिर्यंचगति संबंधी दुःख प्राप्त करना श्रेष्ठ नहीं है। जिस प्रकार एक पथिक को पीछे आनेवाले अपने साथी की राह देखने के अत्यन्त उष्ण धूप में बैठने की अपेक्षा शीतल वृक्ष की छाया में बैठना श्रेयस्कर है ऐसा कौन मूर्ख होगा जो शीतल छाया को छोड़कर अत्यन्त उष्ण धूप में बैठेगा। अवतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठित्तः त्यजेत्तान्यपि सम्प्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ ८४ ।। ( समाधिशतक) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिसा पापादि अवतों को छोड़कर अहिसादि अत मे अत्यन्त निष्ठा बान होना चाहिये । उस व्रत के माध्यम से जो पमात्मा पद की प्राप्ति हो जायेगी तब उन व्रतों को भी त्यागना चाहिये । जिस प्रकार मंजिल के ऊपर चढ़ने के लिये सीडी की आवश्यकता होती है बिना सीढी के बढा नहीं जा सकता है परन्तु मंजिल के ऊपर जाने के बाद सीढी स्वय - मैंव छूट जाती है अथवा सीडी की शेष सीमा के वाद उस सीढी को त्याग कर मंजिल में प्रवेश करते है जैसे हम आगे बढ जाते है पीछे का रास्ता छूट जाता है उसी प्रकार हम गुणश्रेणी आरुद्ध होकर बढ़ जाते है तो पीछे की गणनगी जूट जाती है। जमे मुनि होनेपर श्रावक के व्रत छूट जाते है, उसी प्रकार परमात्म पद को प्राप्त करते है तो व्रतादि के । विकल्प नहीं रहते है जैसे दूध से दही, घी बनता है जब तक भी नहीं । बनता है तब सक दूध दही का सरक्षण कारण आवश्यक है परंतु घी बनने के बाद दूधादि अवस्था नहीं रहती है। जैसे फूल से फल बनता है फल होनेपर स्वयं फूल खिर जाता है । अशुभाच्छुभायातः शुद्धः स्यादयभागमात् । खर प्राप्त संध्यस्य तमसो न सुमद्गमः ॥ १२२ ॥ विद्यूत तमसो रागस्तपः श्रुत निबन्धन् । संध्याराग इवाकस्य अन्तोरभ्युदयाय सः ।। १२३ ॥ बिहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृत्य पुनस्तमः । रविवागमागच्छन् पातालतलमच्छति ॥ १२४ ।। ( आत्मानुशासन) ईर्षक समानं नहि इन्दुरः सन्त सुगुणः कर्तने चतुरः । मुषिक: लनन्ति निकट वस्तु इर्षक: लुनन्ति वूरे स्थितेऽपि ।। १५ ॥ दुर्जन शिष्य सम नहि अग्नि वहति शिक्षाः अशिक्षारपि । पन्धन हीन दूरस्थ अग्नि न वहति ( कु) शिष्या उभयरेपि ॥ १६॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अर्थः-- यह आराधक भव्य जीव आगम ज्ञान के प्रभाव से अशुभ स्वरूप असंयम अवस्था से शुभ रूप संयम अवस्था को प्राप्त हुआ समस्त कर्ममल से रहित होकर शुद्ध हो जाता है। जिस प्रकार सूर्य जत्र तक प्रभात काल को प्राप्त नही होता है तब तक वह अन्धकार को नष्ट नहीं कर सकता है | अज्ञान असंयमरुप अंधकार को नष्ट करनेवाले प्राणी के जो तप और शास्त्र विषय का जो अनुराग होता है वह सूर्य की प्रभात कालीन राग ( लालिमा ) के समान अभ्युदय के लिये होता है । जिस प्रकार सूर्य फैले हुए प्रकाश को छोड़कर और अंधकार को आगे करके जब ( अस्त ) राग ( लालिमा ) को प्राप्त होता है तब वह पाताल को जाता है । अर्थात अस्त हो जाता है । उसी प्रकार जो प्राणी वस्तु स्वरुप को प्रकाशित करनेवाले ज्ञान रूप प्रकाश को अज्ञान असंयम को स्विकार करता हुआ संसार- शरीर भोग सम्बन्धी राग को प्राप्त होता है तब वह पाताल तल अर्थात आत्म पतन रूप अवस्था को प्राप्त होता हुआ नरकादि दुर्गति को प्राप्त होता है । - 1 आत्मारूपी सूर्य अनादिकाल से अज्ञान असंयम मोहम्पी अन्धकार से व्याप्त संसाररूपी रात्री मे संचरण कर रहा है। उसको चिन्ज्योति स्वरुप मुक्ति लोक को प्राप्त करता है उसको पहले अज्ञान असंयम रूपी अंधकार को छोड़कर देव शास्त्र गुरु व्रत नियम सम्बन्धी राग रूपी दिग्वलय मे आना ही होगा । उस समय में पूर्ण अंधकार नहीं प्रकाश भी नहीं परन्तु उस राग आत्मा रूपी सूर्योदय के लिये कारण है । जिस प्रकार सूर्योदय के पूर्व पूर्ण प्रकाश नहीं पूर्ण अंधकार नहीं परन्तु बह लालिमा सूर्योदय के अभ्युदय का सूचक है परन्तु जब जीव देव शास्त्रगुरु-तप-संयम को छोड़कर संसार शरीर प्रति अनुराग करता है वह राग उसके पतन का ही कारण है जिस प्रकार सायंकालीन राग (लालिमा ) पतन का सूचक है अर्थात प्रभात कालिमा और सायंकालीन दोनों राग समान होते हुये भी प्रभात कालीन अभ्युदय के सूचक है और सायंकालीन राग पतन के सूचक है। उसी प्रकार देव-शास्त्र-गुरु प्रति और ससार-शरीर भोग प्रतिराग समान होते हुए एक उस्थान का कारण हो तो दूसरा पतन का कारण है । - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ णिज्जावगो य गाणं बादो झाणं चरित णावा हि । भवसागरं तु मविया तरंति तिहिसमिपायण ।। १०० ॥ मूलाचार - ' समयसाराधिकार ' - अर्थ:- खटिया ज्ञान है, वायु प्रशन है और नौका चारित्र है । तीनों के सयोग से ही भव्य जीव भवसागर को तिर जाते है। विषयधिरतिः संगत्यागः कषाय विनिग्रहः शम-यम दमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोधनः ।। नियमित मनोवृत्तिभक्तिजिनेषु दयालुता । भवति कृतित: संसाराब्धेस्तटे निकटे सति ।। २२४ 11 ( आत्मानुशासनम ) अर्थ:- इन्द्रिय विषयों से विरक्ति परिग्रह का त्याग कषायों का विमन राग-द्वेष को शान्ति यम-नियम इन्द्रिय दमन सात तत्वों का विचार मन की प्रवृत्ति पर नियंत्रण जिन भगवान को भक्ति और प्राणियों पर दिया भाव ये सब भाव उस पुयात्मा पुरुष के होते है। जिसके कि संसार समुद्र का किनारा निकट आ चुका है । अर्थात निकड भव्य सम्यग्दृष्टी बीच उपरोक्त व्रतादि स्वरूप नौका मे बैठकर संसार रूपी स्वरूप को शौन रुप से पार करता है। यथा यथा समायाति संवितो तत्वमुत्तमम् । तथा तश न रोचते विषया: सुलभा अपि ।। ३७ ॥ निन्दक समं नहि चित्रकार: सम सुगुणे विषमः आकार: । मतिक द्रव्यं समो असमः किंतु अमूर्तिक गुणे निन्दक: ।। १७ ।। - सज्जनः - सजन समान न कदा सरोजः मित्रागमे बिकाशितः रात्रौ म्लानमुखः । अहो ! सज्जन सरोज सवा विकाशित: निन्दा प्रशंसा सर्वत्र शत्रु किम्बा मित्रे ।। १९ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० यथा यथा न रोचते विषयाः सुलभा अपि । तथा तथ. समायाति तस्वमुत्तमम् ।। ३८ ।। ( इष्टोपदेश ) । अर्थः- जैसे जैसे विशुद्ध आत्मस्वरुप की संवित्ति बढ़ती जाती है। वैसे वैसे सुलभ भी इन्द्रिय विषय रुचता नहीं है जैसे जरे सुलभ भी इन्द्रिय विषय रुचकर नहीं लगता है वैसे वैसे आत्मसंबित्ति बढती हो जाती है। णिय अप्पणाण झाणज्झयण सुहामियर सायण्णं पाणं । मोनणखाणसुहं जो भुंजदि सोहु बहिरप्पा ।। १२६ ।। अर्थ:- जो झान झ्यान अध्ययन और सुखामृत रसायण पान से विमुख होकर इन्द्रिय सम्बन्धी सुख भोगता है वह निश्चित बहिरात्मा मूढ है। शुभोपयोग एवं पुण्यपाप: शंका:- व्यवहार नय अपेक्षा शुभोपयोग के प्राध्यान्यता से जो ना संयमादि अरिहन्त भक्ति आदि भाव है वे सब पुण्य बन्ध के कारण होने से एवं रागात्मक होने के कारण हेय है ? पुण्य से ससार बढता है इसलिये प्रत, संयमादि अरिहन्त भक्ति संसार के कारण है ? सुह परिणामो पुण्णं असुहो पावंत्तिभणिवमणेसु । परिणामो पण्णगदो दुवक्षवलय कारणं समये ॥ १८१ ।। (प्रवचनसार ) अपने आत्मा से भिन्न अन्य द्रव्य मे जो शुभ रुप परिणाम है. उससे पुण्य होता है और अशुभ भाव से पाप होता है जो दोनों भावों से रहित होकर स्व स्वरुप में प्रवर्तमान होता है उसका सम्पूर्ण दुःख क्षय हो जाता है। अरहंत सिद्ध चेरीय पदयण गण गाण भसि संपण्णो । बन्धवि पुण्णं बहुसोण ह सो कम्मक्लयं कुणवि ।। १६६ ॥ ( पंचास्तिकाय ) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अर्थ :- लरिनान्स-सिद्ध चैत्यालय-प्रवचन-मुनिगण-भेद-विज्ञानादि आहश्नुत की भक्ति आदि से अत्यधिक पुण्य बन्ध करता है। परन्तु कर्म आस नहीं करता है। - इस आर्ष वचन से सिद्ध होता है व्यवहार स्वरुप शुभ क्रियायें हेय समाधान:- ण च ववहारणो वपलओ तत्तो ववहाराणुसारि सिस्साणं पत्ति दसणादो। जो बहुजीवाणु पहकारी बदहारणओ सो चेव समस्सिदयो त्तिममोणावहारिय गोद गयेरेण मगलं तत्थ कयं । अर्थ:- यदि कहा जाय कि व्यवहार नय असत्य है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार का अनुसरण करनेवाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः जो व्यवहार नय बहुत जीवों का अनुग्रह करनेवाला है उसी का आश्रय करना चाहिये ऐसा मन मे निश्चय करके गौतम स्वविर ने चौबीस अनुयोग के द्वारों के आदि में मंगल किया है। वीरसेनाचार्य । ज. प. पु. पृष्ठ ७-८ ण च अप्पमाणपुरस्सरो ववहारो सच्चत्तमल्लियइ । ण च एवं' बाहविवज्जिय सम्व ववहाराणं सच्चत्तुवलंभादो । अर्थ:- अप्रमाण पूर्वक होनेवाला व्यवहार सत्यता को प्राप्त नहीं हो सकता है । यदि कहा जाय कि सभी व्यवहार अप्रमाण पूर्वक होने से असत्य मान लिये जाय सो भी बात नहीं है, क्योंकि जो व्यवहार बाधा रहित होते है उन सब में सत्यता पाई जाती है। सज्जन लमानं नहि कवापि सलिल: ___ अग्नि संपर्केन उष्णमेव अतिशीघ्रः । वावालन अग्नि सम दर्शन: सम्पर्क सज्जन स्वशीतलता न त्यो त्रिकाले ।। २० ।। निन्दा प्रशंसा प्रसंगो शत्रू मित्र वर्ग लाभालाभे जीवित मरणे सर्वकाले । समुद्रवत् गम्भीरं मेरुयत स्थिर यः तिष्टत सयेष सज्जन: पौरः वीरः ॥ २१ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पुण्ण फम्म बन्ध त्थीगं देसन्त्रवाणं मंगलं कारणं जुत्तं ण मुणीग । कम्मवखवखुवाणमिदि ण वोत्तुं जुत; पुण्णबन्ध हेनत्तं पडि बिसेसा भावादो मंगलस्सेव सराग संयमःस वि परिच्चागण संगादो; ण च एवं तेण संजम परिच्चागप्प सग भावेण विचुइगमणाभावप्पसंगादो । सराग संयमो गुणसेदि णिज्जराए कार , नेण बंधादो मोक्खो अमखेज्ज गुणो त्ति सराग संयमे गुगौणं वट्टणं जुत्तमिदि णं पच्चवठागं कायव्वं ; अरहंत णमोक्कारो से यदि वन्ध दो अमंखेज गुण कम्मक्खय कारओ त्ति तत्व वि मुणीणं पत्तिप्पसंगादो उत्तं च ।। अरहंत णमोवकार यावेण रा जो करेदि पयउमदी । सो सम्व दुक्ख मोक्खं पावइ अचिरेण कालेग ।। यदि कहा जाय कि पुण्य कर्म के वान्धने के इच्छुक देशवतियों को मंगल करना यक्त है, किन्तु कमरें के क्षय के इच्छुक मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है एसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि पुण्य बन्ध के कारणों के प्रति उन दोनों में कोई विशेषता नहीं है । अर्थात पुण्य बन्ध के कारण भूत कार्यों को जैसे देश नती श्रावक करते है वसे ही मुनि भी करते हैं, मुनि के लिये उनका एकान्त से निषेध नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो जिस प्रकार मुनियों को मंगल के परित्याग के लिये या कहा जा रहा है उसी प्रकार उनके सराग संयम के भी परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है क्योंनिः देशजत के समान सराग संयम भी पुण्य बन्ध । का कारण है। यदि कहा जाय कि मुनियों के सराग संयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है तो होवो सो मी वात नहीं है क्यों कि मुनि में के सराग संघम के परित्याग का प्रमंग प्राप्त होने से उनके मुक्तिगमन के अभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है । यदि कहा जाय कि सराग संयम गुणश्रेणी निजंग का कारण है क्योंकि उससे बन्ध की अपेक्षा मोश अर्थात क्रों को निर्जरा असंख्यात गणी होती है एसा भी निश्चय नहीं करना चाहिये, क्योंकि अरहन्त नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यात गगी कर्म निर्जरा का कारण है इसलिए सराग संयम के समान उसमें भी मुनियों की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ का भी है। जो विवेब जीव भावपूर्वक अरहन्त को नमस्कार करता है बह त्तिली न ममस्त दुःखों से मुकर हो जाता है । ( ज. घ. पु. १ पृ ७-८) किं फलमेदं धम्मज्झाणि? अभाववएसु विउलामर सुहफलं गुणलिए कामणिज्जरा फलं च । स्त्रवारम् पुण असंखं ज्ज-गुण से डीए काम प्रदेश णिज्ज रण फलं मुहका माण मुक्कस्सा शुभागविहाण फलं च । अत - श्व धम्मदिनपेत घार्य ध्यानमिति- मिद्धम् । एत्य गाहाओ होति सुहासव-संवर-णिज्जरामर सुहाई विउलाई । जमाण परस्स फालई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ।। ५६ ।। जह वा घण संधान रवणेण रणाह्या विलितति । माणप्प वणोबया तह क्रम्म घणा विलिज्जति ।। ५७ ।। अर्थः- शंका - इस वर्भध्यान का क्या फल है ? । समाधीन:- अापक जीवों को देव पर्याय सम्वन्धी विपुल मुग्व मिलना उसका फल है और गुण अंगी में कर्मो की निर्जरा होना भी उसका फल है; तथा क्षपक जीवों के तो असंख्यात गुण श्रेषी कर से कर्म प्रदेशों की निर्जरा होना और शुभ कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना उसका फल है । अतएव जो धग से अनुप्रेत वह धमध्यान है। यदि सूर्यः कवापि पश्चिमे उदिश्यति अग्नि शीतलता याति चन्द्र तापयति । समुद्र यदि कदापि स्वमर्यादा त्यागे तथापि सज्जनः स्वस्वभाव न त्यागे । २२ । पर स्त्री वशंने अन्धः गमनेच नपुंसकः विकथा निन्दा श्रवणे बधिरमेव भावः । असत्य भाषणे मूकः कुकार्येच पंगुः मुग्ध कुविचारे अहो कृति सज्जनस्य ।। २३ ।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ यह बात सिद्ध होती है। इस विषय में गाथाएँ उत्कृष्ट धर्मध्यान के शुभ आश्रव संवर, निर्जरा और देवों का सूख मे शुभानबन्धी विपुल फल होते है ।। ५६ ।। अथबा जैन मेघपटल ताडित होकर क्षण मात्र मे विलीन हो जाते है वैसे ही व्यानरूपी पवन से उपहन होकर कर्ममेघ भो विहीन जाते है ॥ ५७ ॥ ( घ. पू. ५ पू ७७ ) मोह सदुग्गो पुणमज्झाण फलं सकसायत्तणेण धम्मज्झाणिणो हम सांपराइयस्स चरिम एमए मोहणीयस्स सत्त्वसमुतल तिष्णं वादि कम्माणं निम्मूल विणास फल मेंपत्तविदक्क अविचारज्याण मोहणीय विणासो पुण धम्मज्झाण फलं, सुहुम सांपराय चरिम समए तस्स विणासुवलंभादो | अर्थ :- मोह का सर्वोपशम करना धर्म ध्यान का फल है। क्योंकि कषाय सहित धर्मध्यानी के सूक्ष्म एवं सांपराय गुणस्थान के अन्तिम समय मे मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना देखी जाती है। तीन ध्यानी कर्मों का निर्मूल विनाश करना एकत्व वितर्क अविचार ध्यान का फल है | परन्तु मोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान का फल है, क्यों कि सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में उसका विनाश देखा जाता है । ( घ. पु. ५ पृ. ८१ ) प्राथमिकानां चिन्ता स्थिति करणार्थं विषय दुर्यान वचनार्थं च परंपरा मुक्ति कारणमर्हदादि पर द्रव्यं ध्येयम् पश्चात् त्चित्तं स्थिरी भूते साक्षान्मुक्ति कारणं स्वशुद्धात्मतत्वमेव ध्येयं नास्त्येकांतः एवं साध्य साधक भावं ज्ञात्वा ध्येय विषये विवादो न कर्तव्यः इति । ( " परमात्म प्रकाश अध्याय २ गाहाटीका ३३ ब्रह्मदेव " ) अर्थ :- ध्यान के प्राथमिक साधकों को चित्त के स्थिर करने के लिये और विषय कषाय स्वरूप दुर्ध्यान से बचने के लिये परम्परा मुक्ति Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ कारण स्वरूप अरिहन्तादि ध्यान करने योग्य है । अर्थात ध्येय है । संत चित्त स्थिर होने पर साक्षात् मुक्ति का कारण जो निज शुद्धात्म है वही ध्यावने योग्य है । पर द्रव्य होने से अरिहन्तादि ध्यावने ग्य नहीं है य एकान्त से ठीक नहीं है । अतः सविकल्प अवस्था में अरिहन्तादि उपादेय हो है । इस प्रकार साध्य साधन जानकर ध्यावने योग्य वस्तु में विवाद नहीं करना पंचपरमेष्ठी का ध्यान साधक है, और सात्म ध्यान साध्य है, यह निःसंदेह जानना । वैयावृत्यादि स्वकीयावस्था औग्यो धर्मकार्य नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति 1 ( टीका प्रवचनसार २५० ) अर्थ:- वैयावृत्य आदि अपनी अवस्था के योग्य धर्म कार्य की पेक्षा से नहीं चाहता है उसके सब से सम्यग्दर्शन ही नहीं है। मुनि व कपना तो दूर हो रहा । यद्यषि व्यवहार नयेन गृहस्थावस्थाणं विषय कषाय दुर्व्यानि वंचमार्थं धर्मवर्धनार्थच पूजाभिषेक दानादि व्यवहारोऽस्ति तथापि वीतराग निविकल्प समाधि रतानोतत्काले बहिरंग व्यापाराभावात् स्वमेव नास्तीति । अर्थ :- यद्यपि व्यवहार नय कर गृहस्थ अवस्था में विषय कषाय रुप खोटे ध्यान के हटाने के लिये और धर्म बढाने के लिये पूजा अभिषेक ज्ञानं ज्ञान समान नहि कोटि रश्मिः ― क्षेत्रा कालावधि प्रकाशयति । ज्ञानं तु पुनः चैतन्य रश्मिः - ज्ञानी समान नहि चक्रवर्ती - सर्व क्षेत्र काल प्रकाशयन्ति ।। २४ ।। ज्ञानी ज्ञानी जयन्ति समस्त विश्वम् - क्षेत्र कालावधि प्रभूत्ये स्थिति । अनन्त सुख ईशत्वे स्थिति ।। २५ ।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ दान आदि का व्यवहार है । तो भी वीतराग निविकल्प समाधि में लोन हुए योगीश्वरों को उस समय में बाह्य व्यापार के अभाव होने से स्वयं ही द्रव्य पूजा का प्रसंग नहीं आता भाव पुजा में ही तन्मय है। ( टीका परमात्म प्रकाश । १२३-२। शुखात्मानुभूति: सम्यग्दृष्टी जनः पुनरभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधिवलेन । कतकफल स्थानीयं निश्चय नयाश्रित्य शद्धात्मानमनुभवतीत्यर्थः । (स. सा. ता. व. - पृ. १३) । अर्थ:- जो सम्यग्दृष्टी जन होता है वह तो अभेद रत्नत्रय लक्षण निविकरूप समाधी के बल मे कतक स्थानिक निश्चय नय का आश्रय लेकर शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है । ननु-वीतराग संवेदन विचार काले बीतराग विशेषणं किमिति क्रियते प्रचुरेण भवन्धिः कि सरागमति स्वसंवेदन ज्ञानमस्तीति ? __ अत्रोत्तर विषय सुखानुभवानन्द रुप स्वसंवेदन ज्ञाने सर्वजन प्रसिद्ध सरागमप्यस्ति । शुद्धात्मसुखानुभूतिरुप संवेदनज्ञानं वीतरागमिति ।। इदं व्याख्यानं स्वसवेदन ज्ञान व्याख्यान काले सर्वत्र ज्ञातव्यमिति भावार्थ:। स. सा. ता. वृ. १०३ - पु ८९ शंका:- बीतराग संवेदन विचार काल में आप ने जो बार बार वीतराग विशंषण दिया है वह क्यों देते आ रहे है क्या कोई सराग स्व संवेदन ज्ञान भी होता है ? समाधान:- इस के उत्तर मे आचार्य उत्तर देते है कि भाई विषय सुखानुभव के आनंदरुप स्वसंवेदन होता है वह सर्वजन प्रसिद्ध है ।। अर्थात वह सब लोगों के अनुभव मे आया कस्ता है, वह सराग होता है। किन्तु जो शुद्धात्मा के सुखानुभव रुप स्वसंवेदन ज्ञान होता है वह वीत. राग होता है । इसी प्रकार स्वसंवेदन ज्ञान के व्याख्यान काल मे सब ही स्थान पर समझना चाहिये ।। बिषय कषाय निमित्तोत्पन्नातं रौद्रध्यान पेन परिणतानां | Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थानामात्माश्रित निश्चयधमस्यावकाशो नास्ति । (प्र. सा. ता. व. २५४ - पृ. ३४७) विषय कषाय के निमित्त से उत्पन्न आर्त-रोद्र ध्यानों में परिणत हस्थजनों को आत्माश्रित निश्चय धर्म का अवकाश नहीं है । असंयत सम्यग्दृष्टी श्रावक प्रमत्तसंयत्तेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोग वर्तते तदनन्तरमप्रमत्तादि क्षीणकषायपर्यंत जघन्य मध्यमोत्कृष्ट भेदेन विवक्षितेकदेश शुद्धनय रूप शुद्धोपयोग वर्तते । (द्र. सं. टी. ३८) असंयत सम्यग्दृष्टी से प्रमत्त तक के तीनों गुणस्थानों में परम्परा से शुद्धोपगंग का साधक ऐसे उत्तरोत्तर विशुद्ध शुभोपयोग वाता है। और उसके अनन्तर अप्रमत्तादि क्षोण कषाय के गुणस्थानों में जवन्यः मा उत्कृष्ट मंद को लिये विवक्षिा एकदेश शुद्ध नया शुद्धोपरांग वर्तता है। ये गृहस्थापि सन्तां मनामात्म भावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति भवंते ते जिन धर्म बिराधक: मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । जो गृहस्थ होते हुए भी मनाक (थोड़ा) आत्म भावना को प्राप्त करके " हम ध्यानी है" ऐसा कहते हैं, वे जिनधर्म बिराधक मिथ्या .. दृष्टी जानना चाहिये । (मो. पा. अध्याय - ३०५) - कालरात्रि - मोह रेव महा मध: अज्ञानमेव काल रात्रिः इच्छारेव महास्वप्नं स्वजागृते विनश्यति : २६ ।। मोहमहा मद्म पानेन जोधः अज्ञान रात्री मध्ये स्पपयति । आकाक्षां स्वप्न पश्यति सर्वदा आत्म जाग्रते समस्त नश्यन्ति ।। २७ ।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ परम ध्यानों के पर्यायवाची शब्द: मा चिठ्ठह्मा जंप मा चिन्तह कि वि जेण होइ थिये । अप्पा अप्पामि रओ इणमेव परं हवे असणं ॥ नित्य निरंजन निष्क्रिय निज शुद्धात्मानुभूति प्रतिबन्धक शुभाशुभ चेष्टारुप कायव्यापारं तथैव शुभाशुभान्तर्वहि जल्परुप वचन व्यापारं तथैव शुभाशुभविकल्प जाल रूपं चित्तव्यापारं च किमपि मा कुरुते हैं। विवेकि जनः । येन योगत्रय निरोधेन स्थिरो भवति । कथम्भूतः स्थिरो भवति ? सहज शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्म तत्त्व सम्यक् श्रद्धान्ज्ञानानुचरण उपामेव रत्नत्रयात्मक परम समाधि समुद्भूत सर्वप्रदेशाल्हाद जनक सुखास्वाद परिणति रूहिते निजात्मनि रतः परिणतिस्तल्लीयमान स्तच्चित्तस्तन्मयो भवति इदमेवात्म सुखरुपे तन्मयत्वं निश्चयेन परमुत्कृष्टं ध्यानं भवति । तस्मिन् ध्याने स्थितानां यद्वीतरागं परमानन्द सुखं प्रतिभाति, तदेव निश्चय मोक्षमार्ग स्वरुपम् 144 तच्च पर्याय नामान्तरेण तदेव शुद्धात्म स्वरूपं स्वात्मोपलचि लक्ष सिद्ध स्वरूप संवेदन ज्ञान तदेव शुद्ध चारित्र तदेव शुद्धात्म द्रव्य स एवात्म प्रतीति स एव आत्म संवित्तिः स एव शुद्धात्मानुभूति स एव परम समाधि स एव शुद्धात्मपदार्थम अध्ययन रुपं एक निश्चय मोक्षोपायः स एव चैकायचिन्ता निरोध; स एव सुद्धोपयोगः स एव परम योग; स एव भूतार्थ: स एव निश्चय पंचाचार: स एव समयसार स एव अध्यात्मसार: तदैव समतादि निश्चय पडावश्यक स्वरुपं, तदेवानंद रत्नत्रय खलयं, तदेव वीतराग सामायिक स एवं परमात्म भावना स एव शुद्धात्मभावनोत्पन्न सुखानुभूति रूपं परम कला तदैव परमामृत परम धर्म ध्यानं - तदेव शुक्ल --- -NV --- --- आत्मा शुद्धात्म स्वरूपं तदेव प्रारम तदेव निर्मल स्वरुपं तदेव स्व तदेव परमात्म दर्शनं --- --- --- Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ ध्यान सदैव रागादि विकल्प शून्य ध्यानं तदेव परम बीत रागत्वं परम भेद ज्ञातं इत्यादी समस्त रागादि विकल्पोपाधि रहित परमाल्हादक सुख लक्षण ध्यानरूपस्य निश्चय मोक्ष मार्गस्थ वाचकान्यान्यपि पर्याय नामानि विज्ञेयानी भवद्धि परमात्म तत्त्वविद्भिरिति । प्र. सं. टी. ५६ - पृ १६६-१८८ - हे ज्ञानी जनो तुम कुछ भी चेष्टा मत करो अर्थात काय के व्यापार को मत करो, कुछ भी मत बोलो, और कुछ भी मन विचारों जिस से कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में तल्लीन स्थिर होवे : क्यों कि जो आत्मा में तल्लीन होना है वही परम ध्यान है । नित्य निरंजन और क्रिया रहित, ऐसा जो निजशुद्ध आत्मा का अनुभव है उसको रोकनेवाला जो शुभ-अशुभ चेष्टा रूप कार्य का व्यापार है उसको उसी प्रकार शुभ अशुभ अन्तरंग तथा बहिरंग वचन के व्यापार को और इसी प्रकार शुभ अशुभ विकल्पों के समूहरूप मन के व्यापार को कुछ भी मत करो जिन मन वचन काय रूप है तीनों गोगों के रोकने से स्थिर होता है वह कौन है ? आत्मा ! कैसा स्थिर होता है ? सहज सुद्ध आत्मज्ञान और दर्शन स्वभाव को धारण करनेवाला जो परमात्मतत्त्व है उसके सम्यक श्रद्धान-ज्ञान तथा आचरण लाने रुप जो अभेद रत्नत्रय है उस स्वरूप जो परम ध्यान है उससे उत्पन्न और सब प्रदेशों को आनंद उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो सुख उरके आस्वादरूप परिणति सहित निज आत्मा में परिणत तल्लीन, तन्मय तथा तच्चित्त होकर स्थिर होता है । यही जो आत्मा के सुखरुप में परिषमन होता है वह निश्चय (७) सरस्वती स्तोत्रम् जगन्माता वागीश्वरी शारदा ब्रह्मचारिणी । आत्मविद्या संपादने सिद्धिर्भवतु मे सदा ।। सर्वज्ञदोभ्दुतः पवित्र तीर्थं धूनी । अनेकान्तो बहुभि स्याद्वादः कलध्वनि ॥ अहिंसा स्वच्छ गात्री भव्यानां तीर्थ मूर्तीः । संसार ताप ही भव्यानां मोक्षदात्री || Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से परम अर्थात् उत्कृष्ट ध्यान होता है । उस परम ध्यान में स्थित हुप जीवों को जो वीतरागपरमानंद सुख प्रतिभासित है वही निश्चय मोक्षमाग स्वरूप है। वह दूसरे पर्याय नामों से क्या क्या कहलाता है अर्थात् उसको किन किन नामों से लोग कहते है सो कथन किया जाता है । वहीं शद्ध आत्मा का स्वरूप है। वहीं स्वात्मोपणब्धि स्वरुप है। वही निर्मल स्वरुप का धारक है । वही स्वसंवेदन ज्ञान है । वहीं शुद्धात्म स्वरूप है। वहीं परमात्म का दर्शन है । बही शुद्ध चारित्र है । वही शुद्वात्म द्रव्य है । बही शुद्ध आत्मा की अनुभूति हैं । वही शुद्धात्मा कि प्रतीति है, वहीं स्वसंबित्ति है, वही परम समाधि है, वही शुद्धात्म पदार्थ है, वहीं शुद्धात्म पदार्थ का अध्ययन है, वही निश्चय मोक्ष उपाय है, वही एकात चिन्ता स्वरुप ध्यान है, वहीं शुद्धोपयोग है, वही परम योग है, वही भतार्थउपादेय है, वही निश्चय पंचाचार है, वही आत्म स्वरुप है, वहीं आत्म सार है, वही समतादि निश्चय नय से षडावश्यक है, वही अभेद रत्नत्रय है, वहीं वीतराग परम सामायिक, वही परमात्म भावना है वही शुद्धात्म के भावना से उत्पन्न सुखानुभूति स्वरुप परम कला है, वहीं परमामृत स्वरुप परम ध्यान है, वहीं शक्ल ध्यान है, वहीं रागादि विकल्प से रहित ध्यान है, वहीं परम वीतरागत्व है, वहीं जा परम भेद ज्ञान है ऐसे समस्त रागादि विकल्पों से रहित परम आनद सुख रुप लक्षण का धारक जो ध्यान है उस स्वरूप जो निश्चय माक्ष मागे । उसको कहने वाले अन्य भी बहुत से जीव पर्यायी नामः परमात्म तत्त्व को अर्थात परमात्मा के स्वरुप को जानने वाले जो भव्य जीव है उनको जान लेने चाहिये 1 आद-रौद्र परित्याग लक्षण निबिकल्प सामायिक स्थितानां यच्छु. द्वात्मरूपस्य दर्शनमनुभवलोकन मुपलब्धिः संवित्रिः प्रतीतः रुपपतिरनुभूति स्तदेव निश्चयनयेन निश्चय चारित्राविनामादि निश्चय सम्यक्त्व वीत-- राग सम्यक्त्व भन्यते तदेव च गुणगण्यभेद रुप निश्चय नयन सुद्धात्म स्वरुपं भवतीति । स. सा. त. व. -- जीवाधिकार पीठिका आर्त-रौद्र ध्यान का त्याग कर देना है लक्षण जिसका एसे निवि Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ कल्प समाधि में स्थिर रहनेवाले जो जीव है उनको जो शुद्धात्मा के रूप का दर्शन है, अनुभव है, अवलोकन है, उपलब्धि है, सवित्ति है. प्रतोति है, ख्याति है, अनुभूति है, वही निश्चय नय में निश्वय सम्यक्त्व या वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है जो निश्चय चारित्र के साथ अविताभाव रखता है अर्थात ( उसे वीतराग चारित्र को ) साथ में लिये हुए रहता है। और वही गुण-पुगी में अभेद जो निश्चय नम है उनमें मुद्धाल का स्वरुप कहा जाता है । वीतराग चारित्रनुकूलं शुद्धात्मानुभूत्य विनाभूतं वीतराग सम्यकत्र (म. प्र. टो. ७६ ) वीतराग चारित्र के अनुकूल जो शुद्धात्मानुभूति रुप तराग सम्यक्त्व है । संवेदना ज्ञानेन परं परमात्मानं भावय पं. दौलतरामजी | भावा टीका (म. प्र. टी. १३) जो वीतराग संवेदन कर परमात्मा जाना जाता था. वही ध्यान करने योग्य है । शंका:- जो स्वसंवेदन अर्थात अपने कर अपने को अनुभवना इसमें वीतरागता विशेष क्यों कहा है ? समाधान:- विषयों के आस्वादन में भी उन वस्तुओं के स्वरूप का जाननापना होता है, परन्तु राग भाव कर दूषित है इसलिये बीज एकान्त अध्यात्मवाद ( ८ ) यावत् जोवाय सुखी मीयात् पंचेन्द्रिय भोग सदा कुर्यात् । शरीर क्रिया शरीरे भवति आत्मा सदा निलिप्त भवति । यावत् जीयात् सुखी जीयात् पंचेन्द्रिय गोग सव कुर्यात् । भोगते निर्जरा भवति अध्यात्म योग यह पर्णान्ति || यावत् जीयात् सुखो जीयात् निरर्गल भाव सबा कुर्यात | संयमे भावे कर्म बन्धन्ति सद्गुरुदेव सबा भणन्ति । यावत् जीयात् सुखी जीयात् दान तपादिक दामन कुर्यात् । पुष्य बन्धेत् संसार वर्धति भावी तिथंश सदा भणन्ति || Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस का आग्वादन नहीं है, और वीतराग दशा में स्वरुप का यथार्थ खान होता है । आकुलता रहित होता है । तथा संवेदन ज्ञान प्रथम अवस्था । में चौथे, पाँचवें गुणस्थान वाले गृहस्थ के भी होता है, वहाँपर सराप देखने में आता है, इसलिये राग सहित अवस्था के निषेध के लि वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान कहा गया है । राग भाव है वह कषाय रुप है। इस कारण जब तक मिथ्यावृष्टी अनन्तानुबन्धि कषाय है तब तक तो बहिरात्मा है, उस के स्वसवेदन ज्ञान अलि सम्यग्ज्ञान सर्वथा ही नहीं है। चतुर्थ गुणस्थान में स. यादृष्टी के मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धि के अमात्र से सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परन्तु कषाय को तीन चौकडी बाकी रहने स द्वितीया के चन्द्रमा के समान विशेष प्रकाश नहीं होता, आरक्ष श्रावक के पांचवें गुणस्थान में दो चौकडी का अभाव है, इसलिय राग भाव कुछ कम हुआ, वीतराग भाव बढ़ गया, इस कारण से भी स्वसं वेदन ज्ञान प्रवल हो गया, परन्तु दो चौकड़ी के रहने से मुनि के समान प्रकाश नहीं हुआ। मुनि के तीन चौकडी का अभाव है, इसलिये रागः । भान तो निर्बल हो गया । तथा वीतराग भाव प्रबल हो गया । वहाँपर | ग्वसवेदन ज्ञान का अधिक प्रकाश हुआ, परन्तु चौथी चौकड़ी बाकी है। इसलिये छठे गुणस्थानवर्ती मुनि सराग सयमी है ! उसका वीतराव सयमी के जैसा प्रकाश नहीं है । सातवे गुणस्थान में चौथी चौकडी मन्द हो जाती है । वहाँपर आहार-विहार आदि क्रिया नहीं होती। ध्यान में | आरुढ रहते है । सातवें से छठे गुणस्थान मे आते तब वहाँपर आहारादि | क्रिया है । इसी प्रकार छठा सातबा गुणस्थान करते रहते हैं । वहाँप अन्तर्महत काल है । आठवे गुणस्थान मे चौथी चौकडी अत्यन्त मन्द हो | जाता है । वहाँ राग भाव कि अत्यन्त क्षीणता होती है । वीतराग भाव पुप्ट हो जाता है । स्वसवेदन ज्ञान का विशेष प्रकाश होता है । श्रेणी मांडनें गे शुक्ल ध्यान उत्पन्न होता है। श्रेणी के दो भेद है । एक क्षपक दुसरा उपक्षपक, क्षपक श्रेणी वाले तो उसी भव से. केवल ज्ञान पाकर मुक्त हो जाते है, और उपशम पाले आठवे नत्रमें-दसवें से म्यारहवाँ गुणस्थान तक पहुंच पीछे पड़ जाते | हैं: 1 अर्थात नीचे के मुणस्थानों में आते है क्योंकि उसका काल अन्तमहतं है। किन्तु कुछ एक भव भी धारण करते है । तथा क्षपक वाले.. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ म से नवम गुणस्थान में प्राप्त होते हैं, वहाँ कषायों का सर्वथा नाश होता है, एक सज्वलन लोन रह जाता है इसलिये स्वसंवेदन ज्ञान का बहुत जादा प्रकाश होता है, परन्तु एक संज्वलन लोभ बाको रहने से यहाँ सराग चारित्र ही कहा जाता है । जब दसवें गुणस्थान मे सूक्ष्म लाभ नहीं रहता है तब मोह की अट्ठावीस प्रकृतियों के नष्ट हो जानें से वीतराग चारित्र की सिद्धि हो जाती है । दसवें से बारहवें में जाते है । ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते है । वहाँ निर्मोह वीतरागी के शुक्ल ध्यान का दूसरा पाया ( भेद ) प्रकट होता है । यथाख्यात चारित्र हो जाता है। बारहवें के अन्त में ज्ञानावरण-दर्शनावरण अन्तराज इन तीनों का भी विनाश कर डाला, मोह का नाश पहले हो ही चुका मे था। तब चारों घाति कर्मो के नष्ट हो जाने से तेरहवें गुणस्थान केवलज्ञान प्रकट होता है | वहाँपर ही शूद्ध परमात्मा होता है अर्थात उसके ज्ञान का पूर्ण प्रकाश हो जाता है, निकषाय है । वह चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानतक तो अन्तरात्मा है, उसके गुणस्थान प्रति चढती हुई शुद्धता है, और पूर्ण शुद्धता परमात्मा के है, यह सारश समझना । रागादि मल जुवाणं, नियधरुवं ण विस्सवे किपि । समला वरिसे रूवं ण विस्सेव जह सहा णेयं ॥ ( रयणसार स्वरुप स्तोत्रम् ( १ ) जिनं शुद्ध ज्ञानी सिद्ध आत्म रूपं सूक्ष्मं परं श्रेष्ठं परमार्थ रूपम् | अव्यक्तं अव्ययं अनादि अनन्तं चिदानंद रूपं नमो स्वस्वरूपम् ।। १ ।। स्वयम्भूः श्रीधरः अच्युतो माधवः सुगतः कामारि निरंजनरूपम् । पूर्ण शून्यरूपं द्वैताद्वैत रूपं शिवानंदरूपं नमो स्वस्वरुपम् ॥ २ ॥ १०२ ) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जित हार घाली. प.: जना मुख नहीं दिखता है, जमी प्रकार चित्र रागादि भावों से मलीन है, उसे अपने निज आत्मा का वर्शन नहीं हो सकता। राग-द्वेषादि कल्लोलैरेलोलं यन्मनो जलम । स पश्यत्यात्मनस्तस्वं, तसत्त्वं नेतरो ।। ३५ ( स. श. - पृ. ८१ ) जैसे समुद्र का जल जब पवन के द्वारा उटनेवाले तरंगों से चंचल होता है तब उसमें पदार्थ निर्मलता के साथ नहीं दिखाता है। परन्तु जक वहीं जल स्थिर होता है तब उस निर्मल जल में अपना मुंह या अन्य कोई पदार्थ साफ-साफ दिखता है । वैसे ही जब यह, मन, क्रोध, मान माया, लोभादि विकारी भावों से चंचल होता है तब उसमें आत्मा का स्वभाव नहीं झलकता है । परन्तु जब उसमें क्रोधाधि भाव नहीं होते है तब उस निर्मल मन में आत्मा का जो स्वरुप है सो वरावर दिखता है। तात्प। यह है कि जिस के मन से राग-द्वेषादि बिकारी भाव है वे आत्मा के स्वरूप को नहीं पा सकते और मोह सहित सम्यग्दृष्टी बोगी अपने स्वरूप के अनुभव में ऐसे दत्तचित्त होते है। तमात्मानं कोऽसौ जानाति । योगी कोऽर्थः किंगप्ति निर्विकल्प समाधिस्थ इति । ( प. प्र. टी. १० - पृ ८५ ) शंका:-- आत्मा को कौन जानता है ? समाधान:- योगी जानता है। का:- बह योगी कैसा है ? समाधान:-त्रिगुप्ति स्वरुप समाधिमें लीन होनेवाला योगी आत्मा को जानता है । अथ समभावस्थितानां योगिनां परमानन्द जनयन् कोऽपि शुद्धाभा स्फुरति तमाह जो समभाव परिठियहं जोइहं कोई फुरेइ । परमाणंदु जगंतु फुडु सो परमप्पु वेइ ।। (प.प्र. ६५ ) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ समभाव अर्थात जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रू-मित्र इन सब मे सममान को परिणत हुए परम योगीश्वरों के अर्थात श-मित्रादि सब ममान है, और सम्यग्दर्शन-सम्यग्नान-सम्यन रूप अभेद रत्नत्रय जिसका जमा है, ऐसी वीतराग निर्विकल्प में तिष्ठे हुए है, उन योगीश्वरों के हृदय में वीतराग परमानन्द करता हुआ जो स्फुरायमान होता है वही प्रकट परमात्मा है सानो । अति उपरोक्त गुणों से युक्त होनेवाला योगी ही शुद्धारमा रायमान सुखानुभव कहता है। वीतराग निर्विकल्प समाधिस्थो अन्तरात्मा परस्वरूपान् जानतीति ( प. प्र. ८९ टी. ) वीतराग निर्विकल्स समाधि स्थित अन्तरात्मा पर स्वा को हा है । अर्थात भंदविज्ञान के बल से परद्रय से स्वद्रव्य पृथक राग निर्विकल्प समाधि विषयं च परमात्मानं प्रतिपाइयंति : यहि सहि इविहिं जो जिय मुणहु ण जाइ । निम्मल-माणहं जो पिसा जो परमप्पु अगाई ॥ २३ ।। बेदः शास्त्ररिदिये यो जोवमन्तु न पाति । निमलध्यानस्थ यो विषयः स परमात्मा अनादि ।। २३ ।। अर्थातः- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, गेग इन पांच तरह बोंसे रहित निर्मल निज शुद्धात्म के जानकर उत्पन्न हुए नित्यानंद एकानेक रूपं व्यता व्यक्तरूपं अरुपी स्वरुपी विचित्र स्वरुपम् । चैतम्याचतन्य अनेकान्तरूपं चिदानन्दरुपं नमो स्वस्वरूपम् ।। ३ ।। अकर्ता सकर्ता भोक्ताभोक्तरुप अमूर्ति समूति मुक्तामुक्त रुपम् । जाताजातरूपं ज्ञान ज्ञेयरूपं चिदानन्दरूपं नमो स्वरूपम् ।। ४ ।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखामृत वा आस्वाद उस स्वरुप परिणत निविकल्प अपने स्वरुपके ध्याः । कर स्वरुप की प्राप्ति है । आत्मा ध्यानगम्य हो, शास्त्र गम्य नहीं है। क्योंकि जिनको शास्त्र सुनने से ध्यान की सिद्धि हो जावे, वे ही आत्मा । का अनुभव कर सकते है, जिन्होंने पाया, उन्होंने ध्यान से ही पाया है। और शास्त्र सुनना है तो ध्यानका उपाय है ऐसा समझकर अनादि अनंत । चिद्रूप में अपना परिणाम लगाओ | दूसरी जगह भी अन्यथा इत्यादि कहा है। उसका यह मावार्थ है कि, वेद शास्त्र तो अन्य तरह ही है। नय प्रमाण रुप है तथा ज्ञान की पडिताई कुछ और ही है वह आत्मा निर्विकल्प है नय प्रमाण निक्षेप से रहित है वह परम तत्व को केवल आनंदरूप है और ये लोग अन्यही मार्ग मे लगे हुए है सो वृथा लेश कर रहे है । इस जगह अर्थरुप शद्धात्माही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है। यह सारांश समझना ।। ( परमात्म प्रकाश ) यत्रनेन्द्रिय सुखदुःखानि यत्र न मनोव्यापारः । तं आत्मनं मन्यस्य जीवत्वं अन्यस्परमहर ।। २७ ।। जित्थुण इन्बिय-सुह-दुह्ई जित्थु ण मन बावारु । सो अप्पा मुणि जीव तुहं अण्ण परि अवहारु ।। २८ ।। गाथार्थः- जिस शुद्ध आत्म स्वभाव मे आकुलता रहित अतीद्रिय सुख से जो विपरीत जो आकुलता के उत्पन्न करनेवाले इन्द्रिय जनित सुख दुःख नहीं है। जिसमें संकल्प विकल्परुष मन के व्यापार भी नहीं है अर्थात विकल्प रहित परमात्म से मन के व्यापार जुदे है उस पूर्वोक्त लक्षण वालों को हे जीव, तू आत्माराम मान अन्य सब विभाओं को छोड ! टोका:- अनाकुलत्व लक्षण पारमार्थिक सौख्य विपरितान्याकुलस्वोत्पादकानीन्द्रिय सुखदुःखानि यत्र च निर्विकल्प परमात्मनो विलक्षणः संकल्पविकल्परूपो मनो व्यापारो नास्ति । सो अप्पा मुणि जी व तुहं अण्ण परि अबदारु तं पूर्वोक्त लक्षणं स्वशुद्धात्मानं मन्यस्य नित्यानन्दैक रुपं वीतराग निर्विकल्प समाधौ स्थित्वा जानीहि, हे जीव त्वम् अन्यपर. मात्म स्वभावाद्विपरीतं पन्चेन्द्रिय विषय स्वरुपादि विभाव समूह परम्प. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ दूरे सर्व प्रकारेणापहर त्यज । तात्सर्यार्थ। निविकल्प समाधौ सर्वत्र तराग विशेष गं किमयं कृतम् इति पूर्वपक्ष: 1 परिहारमाह । यतएव तो: वीतरागस्तत एव निबिकल्प इति हेतु हेतु मद् भावज्ञापनार्थम् अथवा ये सरागिणोऽपि संतो वयं निविकल्प समाधिस्थ इति वदंति निषेधार्थम अथवा श्वत्तसंखवत्स्वरुप विशेषणमिदम् इति परिहारत्रयं निर्दोष परमात्म शब्दादि पूर्वपक्षेऽपि योजनीयम् ।। २८ ।। । भावार्थ:- ज्ञानस्वरुप निज शुद्धात्मको निर्विकल्प समाधिमे स्थिर होकर जान अन्य परमात्म स्वभाव से विपरित पांच इन्द्रियों के विषय वगैरह सब बिकार परिणामों को दूर से ही त्याग, उनका सर्वथा ही त्याग कर । यहाँपर किसी शिष्यने प्रश्न किया कि निर्विकल्प समाधि मे सब जगह बीतराग विशेषण क्यों कहा है ? उसका उत्तर कहते है - वहाँपर वीतरागता है, वहीं निर्विकल्प समाधीपना है, इस रहस्य को समझने के लिये अथवा जो रागी हुए कहते है कि हम निर्विकल्प समाधि मे स्थित है उनके निषेध के लिये वीतरागता सहित निर्विकल्प समाधि का कथन किया गया है । अथवा सफेद शंख की तरह स्वरुप प्रकट करने के लिये कहा गया है अर्थात जो शंख होगा, वह श्वेत ही होगा उसी प्रकार जो निर्विकल्प समाधि होगी, वह वीतरागतारुप ही होगी ।। २८ ।। गृहस्थ गमेद रत्नत्रयस्वरुपमुपादेयं कृत्वा भेद रत्नत्रयात्मक धायक धर्म कर्तव्य: यतिना तु रत्नत्रये स्थित्वा व्यावहारिक रत्नत्रयवलेन स्वात्मस्थ स्वरुपं विश्व व्यापिरुपं प्रमाण स्वरुपं अप्रमाण रुपम् । सर्वात्म स्वरुप स्यावाद स्वरूप चिदानन्द रुपं नमो स्वरुप । ५ ।। ध्यानातीत रुपं ध्यानमय रूपं मानमय रूपं ज्ञेयातील रु म् । सदसवरूप अस्तिन.स्ति रुप चिदानन्द रुपं नमो स्वस्वरूपम् ।। ६ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ विशिष्ट तपश्चरण कर्तव्यं नो चेत दुर्लभ परंपराया प्राप्त मनुष्यजन निष्फलमिति । (अध्याय २ परमात्म प्रकाश - १३३) अर्थ:- गृहस्थों को अभेद रत्नत्रयात्मक निश्चय रत्नत्रय को उपा देय करके लक्षमे रख कर भेद रत्नत्रयात्मक अर्थात ब्यबहार रत्नत्रया स्मक श्रावक धर्म-दान पूजादि पालन करने योग्य है । तथा यतिओं को निश्चय रत्नत्रयात्मक अभेद रत्नत्रय में स्थित होकर व्यवहार रत्नत्रया के वल से विशेष तपश्चरण करने योग्य है। यदि उपरोक्त वार्तव्य श्राव तथा मुनि पालन नहीं करते है तो दुर्लभ परंपरा से प्राप्त मनुष्य जन्म निष्फल जाता है इसलिये श्रावक व्यवहार मोक्ष मार्गी है, मनी निश्चय मोक्ष मागौं । सर्व धर्ममयं प्रवचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं । क्वाप्येतद द्वयवत्करोति चरितं प्रशाषनानामपि । तस्मावेष तवन्धरस्वलनं स्नानं गजस्याथमा । मसोन्मत्तविचेष्टितं न हितो गेहाश्रमः सर्वथा ।। ४१ ।। ( आत्मानुशासन ) गृहस्थाश्रम विद्वज्जनों के भी चारित्र को प्रायः किसी सामायिक । आदि शुभ कार्यो में पूर्णतया धर्मरुप किसी विषय भोगादि रुप कार्य में पूर्ण तया पाप रुप तथा किसी जिन गृहादि के निर्माणादि रुप कार्य में उभय ( पाप-पुण्य ) रुप करता है । इसलिये यह गृहस्थाश्रम अन्धे के। रस्सी मांजने के समान अथवा हाथी के समान अथवा शराबी या पागल की प्रवृत्ति के समान सर्वधा हितकारक नहीं है। अनाधिचा दोषोत्थ चतुःसंज्ञाश्यरातुराः । शशवस्त्रज्ञान विमुखाः सागारा विषयोन्मुखा ।। ( प. आशाधर - सा. ध. २) । अनादि कालीन अविद्यारुपी दोषो से उत्पन्न होनेवाली आहार-भय मैथुन परिग्रह रुपी संज्ञा ज्वर से पीडित निरन्तर आत्मज्ञान से विमुख Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ विषयों के मुख गृहस्य होते है अर्थात विषय भोगों मे विशव रत के कारण उनका लक्ष नहीं जाता है। ममाद्यविद्यानुस्थतां ग्रंथसंज्ञामपासितुम् ।। अपरायन्तः सागाराः प्रायो विषय भूछिता ॥ ( पं. आशाधर - सा. घ. ३ ) अनादि कालीन अज्ञान के कारण परपरा में आने वाली परित्र मा को छोड़ने के लिपं असमर्थ प्राय कर के विधा गोगों में छि हाथ होते है । भहस्स लक्षणं पुण धम्म चितेइ भोय परिमाको । चितिय घमं सेवइ पुगरवि भोए जाहिज्छारे । ( भा. सं - गा. ३६५ ) भद्र ध्यानी गृहस्थ जब तक धार्मिक शुभ क्रियाय करता है तब तक वह भोगोंपभोग को त्याग करता है। इसलिये गृहस्थों को धार्मिक क्रियायें हस्तिस्नानवत् है । अर्थात धार्मिक क्रियायों के समय में किचित संबर और निर्जरा होती है परन्तु भोगोपभोग के समय आश्रय एवं बंध हो जाता है। पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थों को होने योग्य व्यानअाउदं जमाणं मई आस्थिति तम्हि गुणठाणे । बहु आरम्भ परिग्गड़ जुतस्त च गरिय त धम्म । ( मा. सं. -- गा. ३५० ) न कर्मो नो कर्म न समावि रुपं न लेश्या म योग न भोगादि रुपम् । न वर्णन गंधं न रसादि रूपं विवानन्द रुपं नमो स्वस्वरूपम् ।। ७ ।। न पुण्यं न पापं न जन्म न मृत्यू न मित्र नामित्रं न शिष्यं न गुरुम् । न दीनं न होनं न वृद्धो न बालो शिवानन्द एवं नमो स्वस्वरूपम् ।। ८॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० इस पंचम गुणस्थान में आर्त-रौद्र ध्यान एवं भद्र ध्यान होता है, श्रावक बहु आरम्भ और परिग्रह से सहित होने के कारण उनको धर्म ध्यान नहीं होता है । गिह वावार रयाणं गेहोणं इंदियस्थं परिकलियं । अट्ठमाणं जायइ लई वा मोह छपणाणं ।। झाणेहि तेहि पावं जपण्णं तं खबइ मद्द माणेण । जीवो उबसम जुत्तो देसजई णाण संपण्णो ।। ( भा. सं. - गा. ३६३-३६४१ | कृषि वाणिज्यादि व्यापार करनेवाले गृहस्थों को नाना प्रकार के इन्द्रिय मोहक पदार्थ विषय में आर्त ध्यान उत्पन्न होता है । मोह से गुजर गृहस्थों को रौद्र ध्यान भी होता है । पर दोनों ध्यान से उत्पन्न पाप को | उपशमानेवाले एवं ध्यान संपन्न श्रावक भद्रध्यान के माध्यम से नाश | करता है। असुह कम्मस्स णासो सुहस्स वा होइ केणुवाएण । इय चितं तस्स हवे अपाय विचयं परं झाणं ।। ( भा. सं. -- गा. ३६८ ) अशुभ कर्म का नाश होकर शुभ कर्मों की प्राप्ति किन उपायों से होगी ऐसा विचार करनेवाला गृहस्थ अपाय विचय नामक धर्म ध्यान का स्वामी होता है। मुक्खं धम्ममाणं उत्तं तु पमाय विरहिए ठाणे । वेश विरए पमत्ते उपधारेणेव गायव ।। ( भा. सं. - गा. १७१ ) ! यह चार प्रकार का धर्मध्यान मुख्य रीति से अप्रमत्त गुणस्थान में होता है। एवं देश विरत और प्रमत्त विरत इन दोनों गुणस्थानों में उपचार से धर्म ध्यान होता है ऐसा जानना चाहिये । सेतु सुद्धो भावो तस्सुवलंभो य होई गुणठाणे । पण एमाव रहिये सयलविं बारित्त जुत्तस्स ।। ( भा. सं. - गा. ६) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ जो शुद्ध भात्र सेवन करने योग्य है। उसकी प्राप्ति पन्द्रह प्रकार प्रमाण से रहित सकल चारित्र से युक्त अप्रमत्त विरत गुणस्थान मे होती है। इन्द्र विस विरामे मगस्स पिल्लूरणं हवे जया । सइया तं अविअप्प सप्रू अप्पनो तं तु ॥ ( तत्वसार गा. ६ ) जब इन्द्रिय विषयों से विरक्त हुआ मन स्थिरता को प्राप्त होता है तब निर्विकल्प तत्त्व अपने स्व स्वरूप में स्थिरता को प्राप्त होता है. समणे णिचचल भूये गठ्ठे सब बियप संबोहे | थमको सुद्ध सहायो अवियप्पो विलो णिच्चो ॥ ( तत्त्वसार गा. ६ ) सर्व विकल्प समूह नाश होनेपर एवं मन स्थिर होनेपर निर्विकल्प स्थिर, निश्चय, नित्य अर्थात शाश्वत ऐसा जो शुद्ध स्वभाव प्रगट होता है । ध्याता का लक्षण: न देवं न न न नारकी रुपं - मा मुज्हह मा रज्जह मा बुस्सह हठ्ठाणिडु अठ्ठेसु । स्थिर मिच्छहि जह घिसं विचित्त झाणप्प सिद्धीए || (द्र.सं. हे भव्य जनों ! यदि तुम नाना प्रकार के ध्यान अथवा विकल्प रहित ध्यान की सिद्धि के लिये चित्त को स्थिर करना चाहते हो तो न लिंग नालिंग लिंगातीतरूपम् । न आद्यं न मध्यं न अन्तं न शून्यं fears रूपम् नमो स्वस्वम् ।। ९ ।। निर्वण्यं निद्वन्द्वं निर्मम् निर्दोषं निक्षोभ निष्काम मयातीत रुपम् । अक्षयं अनन्तं गुणाधीश रूपं - - चिदानन्द रूपं नमो स्वस्वरूपम् || १० || गा. ४८ } Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इष्टानिष्ट रुप जो इन्द्रियों का विषय है उनमें राग-द्वेष और मोह को । मत करो। समस्त राग-द्वेष-मोह से उत्पन्न हुए विकल्पों के समूह में रहित जो निज परमात्मा के समूह की भावना से उत्पन्न हुआ परमानन्द रुप एक लक्षण सुखामृत रस उससे उत्पन्न हुई और उसी परमात्मा के सुख के आस्वादन में तत्पर हुए जो मग्न हुई परम कला अर्थात परम सवित्ति है । उस मे स्थित होकर हे भव्य जीवो ! मोह-राग-द्वेष को मत करो।। शंका:- किन मे राग-द्वेष-मोह मत करो ? समाधान:- माला, स्त्री, चन्दन, ताम्बुल आदिरूप जो इन्द्रियों के विषय मे राग-द्वेष-मोह मत करो । यदि तुम परमात्म के अनुभव में निश्चल चित्त को जानना चा ते हो तो नाना प्रकार जो ध्यान है उसकी । सिद्धि के लिये नित्त से उत्पन्न होने वाला शुभाशुभ विकल्पों का समूह जिसमें विचित्त ध्यान, उस विचित्त ध्यान अर्थात निर्विकल्प ध्यान के लिये राग-द्वेष-मोह मत करो। इष्ट वियोग-अनिष्ट संयोग रोग को दूर करने तथा भोगोपभोगों के कारणों की इच्छा रखने रुप भेदों से चार प्रकार का आतं ध्यान है। यह आर्त ध्यान न्यूनाधिक भाव से मिथ्यादृष्टी गुणस्थान को आदि । लेकर प्रमत्त विरत गुणस्थान पन्ति जो छह गुणस्थान है उनमें रहनेवाले जीवों के होता है। और यह आत ध्यान यद्यपि मिथ्यादष्टी जीवों के निर्ग्रन्थ गसि के बन्ध क कारण होता है तथापि जिस सम्यग्दृष्टी ने पहले तिर्यंच गति की आयु को बांध लिया है उस सम्यग्दृष्टी जीव को छोडकर अन्य जो स. यादृष्टी जीव है उनके तिथंच गति के बन्न का कारण नहीं है । क्योंकि सम्यग्दाटी जीवों के निज शुद्धास्मा के ग्रहण करने की भावना के वल से तिर्यंचगति का कारणरुष जो संक्लेश भाव है उसका अभाव है। हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द या विषयसरक्षणानन्द के भेद से रोट्र ध्यान चार प्रकार का है। यह न्यूनाधिक भाव से मिथ्यात्व गुणस्थान से पंचम गुणस्थान पर्यंत रहनेवाले जीवों के उत्पन्न Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ है। यह रौद्र ध्य न मिथ्यादृष्टी जीवों के लिये नरकमति का कारण को भी जिस सम्यग्दृष्टीने नरया, 4 की है उसको छोटकर अन्य पादुष्टीयों को नरकगति का कारण नहीं है । क्योंकि सम्यग्दृष्टीयोंके शुद्धात्मा ही उपादेय है । इसलिये विशिष्ट धान के वल से नरक का कारण भूत जो तीन संक्लेश नी होता है। आज्ञा विचत्र - अपाय विचय - वियाफ विचय एवं संस्थान विचय चार भेदों से भेइ को प्राप्त हुआ धर्म ध्यान न्यूनाधिक वृद्धि के क्रम अविरत सम्यग्दृष्टी, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत गुणमानवी जीवों को उत्पन्न होता है। मुख्यवृत्या पुण्यबन्ध कारण मपि परया मुक्ति कारणं चेति धर्मध्यानं " । यह धर्मध्यान मुख्यरूप में न्य बन्ध का कारण है तो भी प:परा से मोक्ष का कारण है । शाविचय धर्मध्यान1 अल्प वृद्धि का धारक विशेष ज्ञान के धारी गुरुके अभाव मे शुद्ध लावादि पदार्थों की सूक्षमता होने पर भी जिनदेव के आज्ञानुसार तत्त्वों को ग्रहण करना अर्थात श्रद्धान रखना माजावित्र र धर्मव्यान है । न सक्षम जिनोदितं तत्त्व हेमियन हन्यते । आज्ञा सिद्धं तु तद् ग्राहां नान्यथा वादिनो जिनाः ॥ थी जिनदेव का कहा हुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है वह हेतु अर्थात तर्क सिखंडत नहीं हो सकता । इसलिये जो सूक्ष्म तत्व है उसको आज्ञानुसार प्रहण करना चाहिये क्योंकि जिनेंद्र देव अन्यथावादी अर्थात झूठा उपदेश नहीं देनेवाले है | इस लिये भगवान की वाणी को प्रमाण मानकर जो पदार्थों का निश्चय करता है । इसे आज्ञा बिचक नामक धर्मध्यान कहते माय विषय धर्मध्यान - भेद तथा अभंदरुप रत्नत्रय की भावनाके बल से अपने अथवा अन्य ज्ञानमय सुखाकर चैतन्य विभूः सर्वज्ञम् । मम सर्वस्य गुरु प्रभु पिता माता नमाम्यहम् ।। ११ ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों के कामों के नाश का विचार प.रना अर्थात वर्तमान में इन पा हुए दुःखों से छुटकारा कब मिलेगा इस प्रकार जो विचार करता। उसको अपाय बित्रय नामक धर्मध्यान जानना चाहिय विपाक विचय धर्मध्यान शुद्ध निश्चय नय से यह जीव अशुभ कर्मों के उदय से रहित । तो भी अनादी कमों के बन्ध के वश से पाप के उदय से नारकादि गति में दुःखरूप विषाकरुप फल का अन करता है । और पुण्योदय से देवा गतियो मे सुखरुप बिपाक को भोगता है । उस प्रकार कर्म फल-विवार का विचार करना विपाक विवध धर्मध्यान है । संस्थान विधय धर्मध्यान ऊपर कही हुई जो लोकानुप्रेक्षा का चिंत न करता है वह संस्थानः । विचय नामका धर्मध्यान है । इस प्रकार चार प्रकार का धर्मध्यान होता है । पृथवश्ववितर्क वीचार शुक्ल ध्यान द्रव्य-गुण और पर्याय इनका जो जुदापना है उसको पृथक्त्व कहीं है । निज शद्धात्मा का अनुभव रुप भावत अथवा निज शद्धात्मा को कहनेवाला जो अन्तरंग वचन है वह वितर्क कहते है । निरीवत्ती से अर्थात विना इक्छा किये अपने आप ही जो एक अर्थ से दूसरे अर्थ में एक वचन से दूसरे वचन में और मन-वचन-काय इन तीनों योगों में एक योग से दूसरे योग मे जो परिणमन है उसको वीचार कहते है । त्याम करनेवाला निज सुद्धात्मा के ज्ञान को छोड़कर बाह्य पदार्थों की चिंता नही करता अर्थात निज आत्मा का ध्यान करता है । तथापि जितने अंशों से उसके आत्मा में स्थिरता नहीं है उतने संशों में अनिहित वृत्ति से विकल्प उत्पन्न होते है इस कारण से इस ध्यान को पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान कहते है। यह प्रथम शुक्ल ध्यान उपशम श्रेणी की विवक्षा मे अपूर्वकरण उपशमक, अनिवृत्तिकरण उपशमक, सूक्ष्म सांपराय उपशमक और उपशान्त मोह इन आठवा-नवमा-दसवा ग्यारहवाँ पर्यंत जो चार गुणस्थान Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं उनमें होता है। और क्षपक श्रेणी की विवक्षामें अपूर्वकरण क्षपक, अनिवत्तिकरण क्षपक, और सूक्ष्म सांप राय क्षपक नाम के धारक जो आटवे से दसवे तक तीन गुणस्थान है ! इनमें होता है । एकत्ववितर्क वीचार शुक्लध्यान आत्म द्रव्य म अथवा विकार रहित जो आत्मा का सुख है उससे | अनुभव पर्याय मे अथवा उपाधि रहित निज आत्मा का जो ज्ञात गुण है में उन तीनों मे से जिस एक द्रव्य-गुण या पर्याय में ध्यानी प्रवृत्त हो गया उसं मे वितर्क नामक जो निजात्मानुभव रुप भावश्रुत का बल है। उससे स्थिर होकर जो वीचार अर्थात द्रव्य-गण-पर्याय में परावर्तन करता है वह एकत्व वितर्क बीचार, क्षीण कषायवर्ती गुणस्थान में होनेवाला शुक्लध्यान है। सूक्ष्मनिया प्रतिपाति शुक्लघ्यान __ यह उपचार से सयोग कवली जिन नामक तेरहवें गुणस्थान मे होला है। ध्युपरतक्रिया निवृत्ति-शुक्लध्यान विशेषता करके उपरत अर्थात दूर हुई है क्रिया जिसमे वह व्युपरत किया है । व्युपरत त्रिया हो या अनिवृत्ति अर्थात निवर्तक न हो वह परत क्रिया निवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान है। और अध्यात्म भाषा से सहज शुद्ध परम चैतन्य से शोभायमान तथा निर्भर आनंद के समूह को धारण करनेवाला जो भगवान निज आत्मा है उसमें उपादेय बुद्धि करके अर्थात निज शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है एसे बुद्धि को करके फिर जो “ मैं अनंतज्ञान का धारक हूँ, मैं अनंत सुख का धारक हूँ" इत्यादि भावनाको करता है। इस रूप अन्तरंग धर्मध्यान कहा जाता है और पंचपरमेष्ठीयों की भक्ति को आदिसे उसके अनुकल जो शुभ अनुष्ठान का करना है वह बहिरंग धर्मध्यान है । उसी प्रकार निज शुद्ध आत्मा में विकल्प रहित ध्यान रुप लक्षण का धारक शुक्लध्यान है। अथवा मत्र वाक्य मेंपंचम काल में क्या भावश्रुतकेवली हो सकते है ? Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो हि सुदेणभिगच्छति अाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुद केवलिमिसिणो भणप्ति लोगप्पदीवयरा ।। ( स सा. -- गा. १०) तात्पर्यवृत्तिः यः कर्ता भावश्रुतेन स्वसंवेदज्ञानेन निर्विकल्प समाधि ना करनभूतेन अभिसमज्जानात्यनुभवति के आरमान इमं प्रत्यक्षी भूत पुनः कि विशिष्टं असहाय रागादि रहितं पुरुषं निश्चयश्रुत केवलिनं परम ऋषयः कथयति लोक प्रदीप करा: लोक प्रकाशकः इति । अनया गाथथा निश्चयश्रुत केवलि लक्षणं । अथ य: कर्ता द्वादशांग द्रव्यश्रुतं सर्व परिपूर्ण ! जानाति व्यवहार श्रुतकेलिनं तं पुरुष आहु शुवन्ति के ते ? जिनाः । सर्वज्ञाः। कस्मादिति चेत यस्मात् कारणात् द्रावताधारेणोत्पन्नं भावभुत । ज्ञानं आत्मा भवति कथभूत कात्म सवित्ति विषयं परमरिच्छित्ति विपर्य : वा तस्मात् कारणात द्रव्यश्रुत के वलि स भवतीति । अयमत्रार्थः-यो भावश्रुतरुपेण स्वसंवेदन ज्ञानेन शुद्धात्मानं जानाति स निश्चय श्रुत केबलि भवति । यस्तु स्वशुद्धात्मानं न सबेदति न भावयति बहिविषयं द्रव्यश्रुतार्थं जानाति स व्यवहार श्रुत केवलि भवतीति । ननु तहि स्वमवेदन जानबलेनास्मिन् कालेपि श्रुतकेवलि भवति ? तन्न यादश पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरुपं स्वसंवेदनशानं तादृशमिदानी नास्ति किंतु धर्मध्यान योग्यमस्तित्यर्थः । ( स. सा. त. पृ. १०) जो द्वादशांग के द्वारा अपनी शुद्धात्मा को अपने अनुभव में लाता है उसे सर्वज्ञ भगवान निश्चयश्रुतके वली कहते है। और उसी श्रुतज्ञान के द्वारा जो संपूर्ण पदार्थों को जानता है उसे जिन भगवान द्रव्यश्रुत कैवली कहते है। जो जीव कर्ता ( करणता ) को प्राप्त हुए निर्विकल्प समाधिरुप स्वसंवेदन ज्ञानात्मक भावश्रुत के द्वारा पूर्णरूप से अपने अनुभव मे लाता है, उस प्रत्यक्षीभूत अपनी आपकी आत्मा को सहाय रहित अर्थात निरालम्ब, रागादि रहित अनुभव मे लाता है उस पुरुष को निश्चय श्रुत Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपली कहते है। कौन कहते है ? लोकालोक के प्रकाशक परम ऋषी हते है । इस प्रकार इस गाथा के द्वारा निश्चय श्रुत केवली का लक्षण हा गया है। किंतु जो पुरुष द्वा शांग द्रव्यश्चत ज्ञान को परिपूर्ण रुप जानना है उसे जिन भगवान द्रव्यश्रुत केवली कहते हैं। क्योंकि द्रव्यश्रुत के आधार की उत्पन्न हुआ जो भ वश्रुत है वह आत्मा ही है जो कि आत्मा की मदित्ति को विषय करनेवाला और पर की परिच्छित्ति को विषय कहने बाला होता है इसलिये वह द्रव्यश्रुत केवली होता है। इसका अभिप्राय बह हुआ कि जो भावश्रुत रुप स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा केवली अपनी खात्मा को जानता है वह निश्चय श्रुत कवली होता है । किनु जो ६.अपनी शुद्धात्मा का अनुभव नहीं कर रहा है न उसकी भावना कर रहा है। केवल बहिविषयक द्रव्यश्रुत के विषयभूत पदार्थों को जान । है वह व्यवहार श्रुत चे वली होता है । इस पर शिष्य कहता है कि शका:- फिर तो वसंवेदनज्ञान के बल से इस काल में भी अत | अवलं हो सकता है ऐसा समझना चाहिये क्या ? ___समाधानः- इसका समाधान यह है कि, इस काल से अनवली . नहीं हो सकता है । क्यों क जैसा शुक्लध्यानात्मक स्वसंवेदन ज्ञान पूर्व पुरुषों को होता था वैसा इस समय नहीं होता है । किन्तु इस काल मे ता यथा गेग्य धर्मध्यान ही हो सकता है। मोइय अपों जाणिएण जगु जाणियउ हवेइ । अप्पर फेरइ भावडइ बिबिउ जेण इसेह ।। ( म. प्र. अध्या, २ - गा. १९) जोइक अप्पे जाणिएण हे योगिन आत्माना ज्ञातेन । किं भवति । मागु जाणिय उ हवइ जगम् त्रिभूवन ज्ञातं भवति ! कस्मात् । अरपाई केर भावडइ विविउ जण कसेइ आत्मनः संबन्धिान भ.वे केवलज्ञान पर्याये विम्बितं प्रतिबिम्बितं येन प्रकारेण वसति तिष्ठतीति । अयमर्य:- स्वरुप ज्ञातं भवति । कस्मात् । यस्मादायव पाण्डवादयो Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ महापुरुषा जिन दीक्षा गृहीत्वा द्वादशांग पठित्वा द्वादशांगध्ययन फल निश्चय रत्नत्रयात्मके परमात्म ध्याने तिष्ठन्ति तेन कारणेन वीतराम स्वसंवेदन ज्ञानेन निजात्मा ज्ञाते सति सर्वं ज्ञात भवतीति । अथवा निय कल्प समाधि समुत्पन्नपरमानन्द सुखरसास्वादे जातो सति पुरषो जानाति कि जानाति । बेचि मम + रुपमस्यदेह गादिक परमिति तेन कारणनात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवति । अथवा आत्मा कर्म श्रुतज्ञान रुपे प्याप्ति ज्ञानेन करणभतेन सर्व लोकालोक जानाति तेन पारणेनात्माति ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवतीति । अथवा वीतराग निर्विकल्प विशुद्धी समाधी वलेन केवलज्ञानोत्पत्ति बीज भूतेन केवलशाने जाते स्मति दर्णणे विम्ववत सर्व लोकालोक स्वरुपं विज्ञायत इति हेतोरात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञान भवताति । अभेद व्याख्यान चतुष्टयं ज्ञात्वा वाह्याभ्यन्तर परिग्रह त्याग कृत्या सर्व तात्पण निज सुबातम भावना कतव्यतिः तात्पर्यम् । ह योगी एक अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना । जाना है। क्योकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिंबित हुआ है, बस रहा है। ___ भावार्थ:- वीतराग निविकल्प स्वसंवेदन ज्ञानसे शुद्धात्म तत्त्व के आनने पर समस्त द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है । क्योंकि जर रामचंद्र पांडव, भरत रुगर आदि महान पुरुष भी जिन दीक्षा लेकर फिर द्वाद शांग को पढकर द्वादशांग पढ़ने का जो फल निश्चय रत्नत्रय स्वरुप जो शुद्ध परमात्मा उसके ध्यान में लीन हुए विष्ठ है । इस लिये वीतराग स्वसंवेदन जानकर अपने आत्माका जानना ही सार है। आत्मा के जान न से सबका जानपना सफल होता है । इस कारण जिन्हो ने अपनी आत्मा जानी उन्होंने सब को जाना । अथवा निविकल्प समाधि से उत्पन्न हुआ जो परमानन्द सुख रस उसके आस्वाद होने पर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है, कि मेरा स्वरुप जुदा है । और देह रागादिक मेरे से दूसरे है मेरे नहीं है । इसलिये आत्मा के जानने से सब भंद जाने जाते है, जिसने ! अपने को जान लिया उसने अपने से भिन्न सब पदार्थ जाने । अश्वा आत्माश्रुत ज्ञानरूप सव लोकालोक को जानता है । इसलिये आत्मा के जानने से सब जाना गया । अथवा वीतराग-निविकल्प परमसमाधि के Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में से केवलज्ञान को उत्पन्न करके जैसे दर्पण मे घटपटादि पदार्थ झलसे है उसी प्रकार ज्ञान रूपी दपंण में सब लोकालोक भासते है । इससे ह बात निश्चय हुई कि आत्मा के जानने से सब जाना जाता है । ___ यहाँपर सारांश यह है कि इन चारों व्याख्यानों का रहस्य जानऔर बाह्य अभ्यन्तर सर्व परिग्रह छोडकर सर्व तहसे अपने शुभारमा को भावना करनी चाहिये । । अब केवलनान श्रुतज्ञानिनोरवि शेष दर्शनेन विशेषाकांक्षा क्षोभ क्षपति अब केवलजाती तथा श्रुतज्ञानों के विशेष दिखलाते हुए विशेष आकांक्षा के क्षोभ को नष्ट करते है। जो हि सुदेण विजाणादि अपपाणं जाणगं सहावेण । त सुयके वलिमिसिणो भणन्ति लोपप्पीवयरा ।। (प्रवचनसार – ३३ ) जो वास्तव में श्रुतज्ञान से (निविकला रुप भावयुत परिणाम से) स्वभाव से ज्ञायक स्वभावी आत्म द्रव्य को जानता है । लोक के प्रकाशक ऋषीगण उसको श्रुतकेवली कहते है । या कर्ता स्फुटं निर्विकारखं स्वसबित्ति रुप भाव श्रुत परिणामेन विजानाति विशेषण जानाति । विषय सुखानन्द विलक्षण निज शुद्धामोत्यपरमानन्देक लक्षण सुखरसास्वादनानुभवति । कम् । निजात्म द्रव्यं कथ भूतं । ज्ञायक केवलज्ञान स्वरुपं । केन कृत्वा । समस्त विभावरहित स्वस्वभावेन । तं महायोगीन्द्र श्रुतकेवलिनं कथयन्ति । के कर्तारः । ऋषयः । कि विशिष्टाः । लोकप्रदीपकरा: लोकप्रकाशकाः इति । अतो विस्तर:- युगपत् परिणत समस्त चैतन्यशालिनः केवलज्ञानेन अनाद्यनन्त नि:कारणान्यद्रव्यासाधारण स्वसंवेद्यमान परम चैतन्य सामान्य लक्षणस्य परद्रव्यरहितत्वेन केवल य त्मन आत्मनि स्वानुभवनाद्यथा भगवान केवलो भवति, तथायं गणधरदेवादि निश्चय रत्नत्रयाराधकजनोपि पूर्वोक्त लक्षणस्यात्मनो भावश्रुतज्ञानेन स्वसंवेदनानिश्चयाश्रुत केवलो भवतीति । किंच यथा कोपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति रात्रौ किमपि Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्रदीपेनेति । तथादित्योदयस्थानीयेन केवलज्ञानेन दिनम स्थानीय मोक्ष पर्याय भगवानात्मानं पश्यति । संसारी विवेकजनः पुननिशास्थानीय संसारपर्याय प्रदीपस्थानी येन रागादि-विकल्प त परम समाधिना। निजात्मानं पश्यतीति । अथमत्राभिप्राय: आत्मोपरोक्ष: कथं ध्यान : क्रियते इति सन्दह कृत्या परमात्म भावना न त्यज्यति । (प्र. सा. ता. वृ. गा. ३३ पृ. ७८)। जो कोई पुरुष निश्चय से निर्विकार स्वसंवेदन रुप भावभुत रुप परिणाम के द्वारा समस्त विभाओं से रहित स्वभाव से ही जायक अर्थात केवलज्ञानरुप निज आत्मा को विशेष करके जानता है । अर्थात विषयों के सुख से विलक्षण अपने निज शुद्धात्मा की भावना के बल में पैदा होने वाले परमानन्द मथी एक लक्षण को रखनेवाले सुख रस के आरवाद मे : अनुभव करता है । लोक के प्रकाशक ऋषी उस महायोगीन्द्र को श्रुतकेवली कहते है। इसका विस्तार यह है कि एक समय मे परिणमन करनेव ले सर्व चैतन्यशली केबर ज्ञान के द्वारा आदि अन्त मे रहित अन्य किसी कारण के बिना दूसरे द्रयों में न पाईये ऐसे असाधारण अपने आपसे अपने में अनभवाने योग्य परम चैतन्य रुप सामान्य लक्षण को रखनेवाले तथा ! पर द्रव्य से रहितपने के द्वारा केबल एंसे आत्मा का आत्मा से स्वानुभव। करने से जैसे भगवान केवली होते है वैसे ही यहां गणधर आदि निश्चय सनत्रय के आराधक पुरुष की पूर्व मे कहे हुए चैतन्य लक्षणधारी श्रुत ज्ञान के द्वारा अनभव करने से श्रुतकेवली होते है । प्रयोजन यह है कि जैसे कोई एक देवदत्त म का पुरुष सूर्य का उदय होने से दिवस में देखता है और रात्रि में भी दीपक के द्वारा कुछ देखता है, वैसे सूर्य के उदय के समान केवलज्ञान के द्वारा दिवस के समान मोक्ष अवस्था के । होते हग भगवान के.वलो आत्मा देखते हैं और संसारी विवेकी जीव रत्री के समान ससार अवस्था में दं पक के समान रागादि विकल्पों से - रहिल परम समाधि के द्वारा अपनी अत्मा को देखते है । अभिप्राय यह है कि आत्मा पर क्ष है उसको ध्यान कैसे किया जाय ऐसा सन्देह करके परमाताको भावना को नहीं छोड देना चाहिये । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपलागम पर गया सुद के लिणाम सुपसिद्धा जे । एवाण बुद्धि रिद्धि चोट्सपुवित्त णामेण || १४१ ( ति. प. अ. ४ मा १००१ ) जो महर्षि संपूर्ण आगम के पारंगत है और श्रुत केवली नाम से प्रसिद्ध उनके चौदह पूर्व नामक ऋद्धि वृद्धि होती है। " णमो चोद्दस पुन्वीपाणं ।। १३ ।। ६. ४-१-१३ 'सयलसुदणाण धारिणो चोत्रसपुब्बियो " अर्थात चौदन पूर्व के धारियों को नमस्कार हो । समस्त श्रुत ज्ञान के धारक चौदह पूर्वी कहे जाते है । जो चौदह पूर्व के धारक महामुनि होते है, वें मिध्यात्व को प्राप्त नहीं होते है और उस भत्र में असंयम को भी प्राप्त नहीं करते है । श्रुतकेवली भावलिंगी चौदह पूर्व धारी महामुनी ही होते है ! संयम रहित चौदह पूर्व धारी मी श्रुतकेवलो नहीं होते है । जैसे कोई देव चौदह पूर्व के धारी क्षायिक स यग्दुष्टी होते हुये भी वे श्रुत केली नही हो सकता है। क्योंकि उनके संयम का अभाव है । जो महामुनि भावश्रुत के माध्यम से स्वसंवेदन ज्ञान रूप निर्विकल परमसमात्रि के बल से आत्मा को सम्पूर्ण ओर से जानता है, अनुभव करता है, भले बुराग्रही एवं सत्याग्रह आग्रही बत निनीषति युक्ति यत्र तत्र मतिरस्य निविष्ट । पक्षपात रहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशन ।। दुराग्रही मनुष्यने जो पक्ष निश्चित कर रखा है वह युक्ति को । उसी ओर ले जाना चाहता है, किन्तु जो आग्रह से रहित होकर freer बुष्टों से विचार करना चाहता है वह युक्ति का अनुसरण करके उसके उपर विचार करता है, और तदनुकूल वस्तुस्वरूप का निश्चय करता है । दुराग्रही - Mine is Right. मानता हूँ । सत्याग्रहो " Right is Mine " मानता है । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ बहु सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत के ज्ञान का ज्ञाता नहीं होते हुए भी वह भाश्रुत का ज्ञाता होता है । परन्तु सांप्रतिक पंचम काल मे शुक्ल ध्यान रुप निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है इसलिये वर्तमान मे कोई भावश्रुत केवली भी नहीं है । उसी प्रकार द्रव्यश्रुत केवली भी नहीं है। पचम काल मे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रवाह हुये हैं । उसके बाद श्रुतकेबली रुप सूर्य का अस्त हो गया । शुभोपयोगी रूप श्रुतकेवली नहीं है । क्योंकि शुभोपयोगी निर्विकल्प परम समाधि में लीन होकर आत्मा को पूर्ण रुप अनुभव नहीं कर सकता है । शुभ क्रियाओं से कर्म निर्जरा आपालया कम्म, विज्जावच्चं च वाण पूजाई । जे कुणइ सम्मट्ठी, तं सम्ब णिज्जरा णिमितं ॥ देव बन्दनादि सामायिक कर्म मुनियों की सेबादि दान कर्मादि ओ शुभ क्रियायें सम्यग्दृष्टी जीव करते है उससे कर्म की निर्जरा होती है । समतुप्पलो वि य सायय विरये अनंत कम्मंसे । दसव मोहक्लबए कसाथ जवसामए य जवसते || खवये य खीण मोहे जिणे य नियमा हवे असंज्जा | तब्बिरिओ कालो संखेज्ज गुणाए सेबीए || तीनों करणों के अन्तिम समय में वर्तमान विशुद्ध मिथ्यादृष्टी जीव के जो गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य है उससे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी निर्जरा होनेपर असंयत सम्यग्दृष्टी में प्रति समय होनेवाली गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असख्यात गुण है। उससे देश विरति के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे सकल संयमी के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे अनन्तानुबन्धी कि संयोजना करनेवाले के गुणश्रेणी निर्जंग का द्रव्य असख्यात गुणा है। उससे दर्शन मोह की क्षपणा करनेवाले जीव के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात गया है। उससे अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती उपशन जीव के गुण श्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात गुणा है । उससे उपशांत कषाय जीब के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे अपुर्वकरण Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ आदि तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक जीव के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य सख्यात गुणा है । उससे क्षीण मोह जीव के गुणश्रेणी निजरा का द्रव्य संख्यास गुणा है । उससे स्वस्थान केवली जिन के गुणश्रेणी निर्जरा का प्रय असंख्यात गुणा है। उससे समुद्रात केली जिन के गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य असंख्यात गुणा है। परन्तु गणश्रेणी आयाम का काल इसमे विपरीत है अर्थात समुद्जन्म के टली से लेकर विशुद्ध मिथ्यात् ष्टी तक काल क्रम से असंख्यात णा है। ( भो. जी. - धवल - ज. ध पु. १- पृ. ९७ ) । भावार्थ:-इस उपरोक्त सिद्धांत से यह सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टीसे सम्यग्दृष्टी असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करता है । और अविरत सम्यग्दृष्टीसे देश सयत गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यात गुणीत कर्म निर्जरा करता है। और इनसे एक एकलसंयमो असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करता है 1 मुख्य रुप से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती से लेकर सातवाँ गुणस्थान पर्यत शभध्यान है । अतः यदि शुगध्यान से कर्म निर्जरा नहीं होती है ऐसा माननेपर आगम विरोध होगा | आगम त्रिकाल अबाधित सत्य है कभी अन्यथा नहीं हो सकता है । अतः सिद्ध हुआ कि उत्तरोत्तर शुभध्यान (शुभोपयोग) से अधिकाधिक कर्म निर्जरा होती है। पर मोक्ष हेतु" ! (त. सू. अध्याय – ९) आगे के दो शुभ और शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हे । उपरोक्त गुणस्थान में शुभ प्रकृतियों के अनुभाग बन्ध उत्तरोत्तर चार चरमोत्कृष्ट बानं तुर्गतिमाशाय शीलं सगतिकारणं । तपः कर्मविनाशाय भावना भवनाशिनी ।। दान से नरकाविकुगसि नाश होता है, शोल से सद्गति मिलती है तपः से कर्मनाश होता है, भावना से भवनाश होता है । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ बढ़ती जाती है । यदि पुण्य प्रति सर्वथा संसार का कारण होता है उत्तरोत्तर गुणस्थानवी जीय अधिकाधिक दी सारी होने अत: वे । संसार का कारण कहना आगम विरोध है । जिन भगवान कि मुख निकली हुई द्वादशांग वाणी मे मुनियों को मुख्य करके आचारांग में। वर्णन है । और यथायोग्य धर्म को धारण करनेवाले गृहस्थों के लि उगासकाध्ययन अंग का वर्णन है, जो कि शभ ध्यान स्वरूप है, पूथ बन्ध का कारण है ! यदि शुभ क्रियाओं से सिर्फ पुण्य बन्ध ही होता संस.र काही कारण है तो क्या जिन भगवान के मुख से निकली हमः । बाणी संसार का कारण है ? क्या जिन भगवा' अनन्त दुःख स्वय संसार मे परिभ्रमण कराना चाहते है ? अत: पुण्य ससार का कारक कहना हेय करना यह जिन भगवान के वाणी या श्रुत का अवर्णवा पुण्य प्रकृति शभध्यान से अथवा आदि के तीन शक्लध्यान से भी नष्ट नहीं होता है । केवल अयोग गुणस्थानवर्ती के चरम समय मे नष्ट | होता है उसके पहले नहीं । सातावेदनीय उक्कम्साणु भागं बन्धिय खीणकसाय समोगि-अनोगि गुणठाणाणि वगयरय वेग्रणीय उक्फस्साणुभागो एदेसु गुणठाणेसु लब्धदि । साता वेदनीय उत्कृष्ट अनुभाग को बांधकर क्षीण कसाय सयोगिः और अयोगी गुणस्थान को प्राप्त हुए जीव के इन गुणस्थानों में वेदनीय का उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है । ( ज. प. पु. ४ पृ. १७) सुभाणं कम्माणमणुभाग घादो त्यि । शुम कर्मो का अनुभाग घात नहीं होता है। ( घ. पु. १ पृ. २७२ ) शमोपयोग का स्वरुप: दवस्थिकाम धप्पण तच्च पयत्येसु सत्त णवमेंसु । बन्धण मोक्ने तक्कारणरुवे बारसणुषेवः ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यणत्तय स्मरुवे अम्माकम्मो क्यादि सम्मे। इच्चेव माइगे जो वट्टदि सो होदि सुहमायो । छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व, नव पदार्थ, संसार और सके कारणश्य आश्रववन्ध और मोक्ष के कारण स्वरुप संबर-निर्जराभारह अनुप्रेक्षा-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-स-या चारित्र रुप रत्नत्रय धर्म, आर्म ( शुभ कर्म, श्रावक और मुनि के यथायोग्य षडावश्यक दान जादि स ममं इवादि रुप जो उपयोग है वह शुमभाव है। ( रयणसार - ६४.६.५ ) साता पुण्याश्रव वेदनीय आश्रव के काण बया बानं तपः शीलं सत्य शौच दमः क्षमा । यावत्यं विनोतिश्च जिन पूजार्जव तथा ।। सराग संयमश्चैव संयमासंयमस्सथा । भूत व्रत्यनुकंपा स सद्धेश्यासाव हेतवः ॥ (गा. - २५.२६ ) 1 दया, दान, तप, शील, सत्य, शौचं, इन्द्रिय, दमन, क्षमा, यावृत्ति । विनय ता, जिन पूजा, सरलता तथा सराग संयम, संयमासंयम, जीव, दया | आदि साता वेदनीय के कारण है । यदि शुभपयोग को नहीं मानेंग तो उपरोक्त समस्त गुणों का अभाव हो जायेगा । जिस से व्यवहार तीर्थ का विच्छेद होगा। व्यवहार तीर्थ का विच्छेद होने से धर्म का लोप होगा । धर्म के लोप मे इह लोक सुख स्वर्गादि अम्पदय सुख लोप होगा। सिद्धांत कौनसा श्रावक पढ़ सकता है ? सम्यक्त्य व्रतसंयुक्त। श्रायक: शीलधारिभिः । पठनीयं सुसिद्धान्तं रहस्ये न विना हि तत् ।। जो श्रावक सम्यक्त्व सहित है, व्रतों का पालन करनेवाला है शोलसम्पन्न है वह सिद्धांत शास्त्र रहस्य स्त्रशा को पट सकता है । यदि उपरोक्त गुणों से रहित है सो सिद्धांत शास्त्रको नहीं पढना चाहिये । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इ ना ही नही नीति नियम सदाचार का लोप होने से देश, राष्ट्र समाज परिवार में अन्याय, दुराचार चलेगा जिससे बहुत बडा विप्ल होगा और सर्वत्र अशान्ति ही फैलेगी। इसलिये शान्ति स्थापना के लि. सम्यक् शुभोपयोग अत्यन्त आवश्यक है । जो कि मात्र स्वर्गादि अभ्युदय । सुस्त्र में ही कारण नहीं बल्कि परम्परा से मोक्ष का भी कारण है। अनेक आचार्य भी जिनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा किये है एते । पूज्यपादाचार्य अपने वचन को पवित्र करने के लिये जिन भगवान की स्तुति करते हुए अन्त में यहाँ तक कहते है कि सब पाचौ मम हृदये मम हत्यं तव पदद्वये लोनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावद्यावनिर्वाण संप्राप्ति ।। ६ ।। ( समाधि भक्ति - पूज्यपादाचार्य - इलो. ६) आपके पुनीत चरण मेरे हृदय मे एवं मेरे हृदय आपके पवित्र चरण में हे जगज्जष्ट परमा-ध्य त्रिलोकाधिपती जिनेन्द्र ! तब तक रहे, जब तक निर्वाण की प्राप्ति न हो । अर्थात मैं सदा आपक चरण | के उपासा वन के रहै। पुण्य फल काणि पुण्ण फलाणि? तित्थयर गगहर रिसिवकट्टि बलदेव वासुदेव सुर-विज्ाहरिडिओ। (घ. १-१-२ - प. १०५ ) शांका:- पुण्य के फल कौन से है ? समाधान:- तीर्थकार, गणधर, ऋषी, चक्रवर्ती देव, बलदेव, वाम । देव और विद्याधरों की ऋद्धियां पुण्य के फल है। पाप का स्वप पाति रक्षति आरटान शुभाविति पापम् । ददसद्वद्यादि । जो आत्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप है। जंस - असाता बेदनीय ( स. सि. अध्याय ६ - सू. ३ प. २२० ) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पापं नाम अनभिमतस्य पान | ( म. आ. वि. ३४- १३४ ) अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति जिसन होती है ऐसे कर्म को पाप कहते है। पापालथ कारण वरिय पमाद बहुला कालस्तं लोलदा य विसयेसु । परपरित्ता पवादो पावस्त य आसवं कुर्णादि ॥ ( पंचास्तिकाय - गा. १३९ ) लोलुपता, परको परता करना तथा परके अपवाद बोलना यह सब पाप के आश्रव के कारण है । १४७ पाप बन्ध का कारण अथ देव शास्त्र मुनीनां योसी निन्दा करोति तस्य पाप बन्धो भवति । वेहं सस्यहं मुणिवरहं जो बिहेसु करेई । पियमे पात्र हवे समु जे संसार भमेव ॥ ६२ ॥ गुरु बिन कौन दिखाये बाट ( परमात्म प्रकाश द्वितीय अधिकार ) देव शास्त्र गुरु की जो निंदा करत है, उससे महान पाप का बन्ध होता है, वह पापी पाप के अभाव से नरक निगोदादि खोटी गति में मे अनन्त काल तक भटकता है । वीतराग देव, जिन सूत्र और निर्ग्रन्थ मुनियों से जो जीव द्वेष पुस्तक | धितो नाधितो गुरुसन्निधौ । न शोभते सभामध्ये जारगर्भजया सोयाः ॥ जो गुरु से पुस्तक अध्ययन नहीं करता है, वह सभा में जसो प्रकार शोभायमान नहीं होता जैसे पर पुरुष से गर्भ धारण करनेवाली स्त्री ।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ करता है उसके निश्चय से पाप होता है, उस पाप के कारण से बह जीव मंसार में परिभ्रमण करता है । पर परा से जा माक्ष के कारण और साक्षात पुण्य के वन्ध के कारण, जो देव शास्त्र गुरु है इनकी जो निन्दा करता है, उसके नियम से पाप होता है, पान से दुर्गतियों में भटकता देवहं इत्यादि । देवह सत्यहं मुणिवरहं जो विहेमु करेइ देशास्त्र, मुनीनां साक्षातगुण्य बघ हेतु भूतानां परंपरयः मस्ति कारण भूतानां च योऽसौ विद्वषं करोति । तस्य कि भवति । णियमे पाउ हदेई तसु नियमेन पापं भवति तस्य । येन पाप बन्धेन किं भवति । जे ससाह भमेह यं पापेन संसार भ्रमतीति । तद्यया । निज परमात्म पदार्थीपलम्भरुचि रुप निश्रय सम्यक्त्वकारणस्य तत्वार्थश्रद्धान' रुप व्यवहार सम्यक्त्वस्य विषयभतानां देवशास्त्रपतीनां योऽसौ निन्दा करोति स मिथ्यादाटीभवति । मिथ्यात्वेन पापं बध्नाति, पापेन चतुर्गति संसारं भ्रमतीति भावार्थ: ।। ६२ ।। निज परमात्म द्रव्य की प्राप्ति की रुचि वही निश्चय सम्यक्त्व उसका कारण तत्वार्थ श्रद्धान रुप व्यवहार सम्यक्त्व उसके मल अरहत देव, निर्ग्रन्थ गरु और दयामयी धर्म इन तीनों की जो निंदा करता है वह मिथ्यादृष्टी होता है। वह मिथ्यात्व का महान पाप बांधता है, उस पाप में चतुर्गति मंसार मे भ्रमता है। सम्यग्दर्शम घातक व्यक्ति जिनाभिषेके जिन प्रतिष्ठा जिनालथे जैन सुपात्रतायाम । सावधलेशो बदते स पापो स निन्दको दर्शनघातकश्च ।। ( सार-संग्रह) जो व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक, चत्य चैत्यालय निर्वाण प्रतिष्ठा एवं मुपात्र दान में पाप होता है, ऐसा जो प्रतिपादन करता है वह जिन धर्म का निदक है, सम्यक् दर्शन का घातक है, उपरोक्त त्रिया. ओं में कुछ आरम्भादि कारणों से अत्यन्त कम पाप बन्ध होता है - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s परन्तु उससे अत्यन्त आत्मविशुद्धि होती है। सम्यग्दर्शन की निर्मलता बढती है, साविजय पुण्य बन्ध होता है, जो कि परंपरा मोक्ष का कारण है, इस महा फल के आग जघन्य पाप निकल जाता है । अशुभ भाव fense कोहrsa मा नासु परखवाए । मिच्छारिए मए दुर्राहणि सुसु असुहलेसेसु ॥ विकासला असुसु वसु । सल्लेसु गारवेसु य जो बठ्ठइ अनु भायो सो ॥ | रणसार - गा. ६२-६३ ) P t 1 · हिंसादिकमे कोधादिमें मिथ्याज्ञानमें, पक्षपात में, मत्सर भाव में मदमें, मिवाभिप्रायमत में अशुभ श्याम, त्रिकथ में आनं-रोद्र ध्यान में अशुभ कारण दण्डमे, निध्यामाया - निदान झल्यगें, चार प्रकार मदमें जो प्रवर्तमान होता है, उसे अशुभ भाव कहते है । इन्हीं अशुभ भावों ने पाप का आश्रव होता है । दुःखं शोको वस्ताः कवनं परिवेदनं । परात्म द्वितयस्यानि तथा व परशुन || छेदनं भेदनं चैव ताडनं बनतं तथा । तर्जनं भत्र्सन चंब सद्यो विशसनं तथा ।। What is the Religion— धम्मवत् सहावी उत्तमसमाधि दसविहो धम्मो । रयणत्तयंच धम्मो जोवाणं रखणं धम्मो || धम्मो मंगलमूविक अहिंसा संयमो तवो । देवा वि तरल पणमंति जस्त धम्मे सया मणो ॥ पवित्री क्रियते येन येनय त्रियते जगत् नमस्तसै दयाद्वाय कर्मकल्पांपिाय ये ॥ संसार दुःखन: सहवान् यो घरत्युक्त मे सुखे स धर्मः । इन्द्रियाणां निरोधने राणद्वेषक्षयणं च ॥ ( आगे पृष्ठ १५१ पर देखिए ) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० पापकर्मोपजीवित्वं वक्रशोलत्यमेव च । शस्त्रप्रदानं विश्रम्भ द्यातनं विष मिश्रणं ॥ शृंखला वारा पाश रज्जुजलादि सनिं । धर्म विध्वंसतं धर्मत्रत्यूहकरणं तथ ॥ तपस्वी गर्हणं शील व्रतपावनं तथा । इत्थसववेदनीयस्य भवन्त्यासत्र हेतवः ॥ ( तत्त्वसार अध्य ४ श्लो. २०-२४ ) F अर्थ- दुःख - अनिष्ट संयोग होनेपर दुःख करना । शोक- इष्ट वियोग होनेपर दुःख करना | वध - लोक निन्यादि प्राणों का वर करना । ताप- लोक निन्दादि के होनेपर संताप करना । कन्वन- अनुपात करते हुये रुदना करना | परिवेदन- दूसरों को दया उत्पन्न हों, ऐसा जोर-जोर से रोना | जिससे देखकर दूसरा भी होने लगे । परशुन- दुर्भावना से दूसरों पर दोषारोपण करना । छेदन - शरीर के अवयवों का छइन करना । जैसे - बैलों का नाक छेदनादि । भेदन- शरीर के अंगों का अलग करना । जैसे पैर निकालना, हात काटनादि । ताडन- लाठी से मारना । - दूसरों को भय दिखाना । वसन - F - सर्जन दूसरों को दुःख देना । भर्त्सना - कठोर अभद्र बचनो से दूसरों की निन्दा करना । सद्यो विशंसन- छल-कपटपूर्वक दूसरों को धोका देना । हिसादि पाप कर्म से आजीविका चलाना, कुटील माव- मायाचार में प्रवत्ति, हिंसाजनक शस्त्र दूसरों को काम में देना, विश्वासघात करना, स्वतः और दूसरों को विषादि सेवन करके कराके मरण को प्राप्त होना, या दूसरों को प्राप्त कराना । पशु-पक्षीओ को बन्ध मैं डालना, धर्मनीति विरुद्ध कार्य करना, धर्मात्माओं के शुभ कर्म में विघ्न Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ डालना पस्वी साधुओं की निन्दा करन झूठे अपवाद लगाना । व्रत I 1 पुरुषों के भी व्रत, नियम नियमों का भंग करना | और दूसरे धर्मात्म 4 क्रियाओं को करने न देना । इसी प्रकार अनेक धर्मनीति विरुद्ध कार्य करना यह सब असता वेदनीय कर्म बन्ध के कारण है । सुमा शुभ पाप का फल दुःख व कुगतियों की प्राप्ति हिंसादिवामुपावद्य दर्शनम् ।। ९ ।। दुःखमेव वा ॥ १० ॥ हिंसादि पांच दोषों मे एहिक और पारलौकिक उपाय और अवत्र का दर्शन भावनें योग्य है । अथवा हिंसादिक दुःख ही है, एसी भावना करनी चाहिये । ( स. सि. w अध्या. ६ सु. ९- १० प्र. सा. मु. - १२ ) - असुहोवयंण आदा कुणरो तिरियो भविय बेरहयो । युक्त सहस्लेहि सदा अभिधुदो भर्मादि अच्चंता || अशुभ उदय से कुमानुष, तिर्यंच और नारकी होकर हजारों दुःखों से सदा पीडित होता हुआ संसार मे अत्यन्त भ्रमण करता है । ( व. १ - १, १, २ - १०५-५ ) काणि पावफलाणि । णिरय- तिरिय कुमाणुस जाइ-जरा-मरणवाहिणादालिद्दादीणि । अहिंसाया च भूतानाममृतसत्वाय कल्पते ण हिन्दु धम्मो वयाविशुद्धो ॥ घति क्षमा नमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धी विद्यासत्यमक्रोध दशकं धर्मलक्षणम् ॥ ( मनुस्मृति ) Religion is the manifestation of divinit in man. ( विवेकानन्द ) यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः सधर्मः ॥ ( वैदिक ) Religion is the pursuies and justice and abdication of violence. राधाकृष्णन ) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ शंका- पाप के फल कौन से है? समाधान- नरक, तिर्यंच और कुमानुषकी योनियों में जन्म-मरण व्याधि वेदना और बारिद्री आदि की प्राप्ति पाप के फल है । पाप अत्यन्त हेय है. - ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्त हेय एवायमशुभोपयोग इति । चारित्र के लेशमात्र का भी अभाव होने में यह अशुभोपयोग अत्यत हेय है । ( स. सि. वा. ३०६ ) प्रस्तावदज्ञानिजन साधारणोऽप्रतिश्रमणादिः स महात्म सिद्धयाभव स्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव । प्रभ तो जो अज्ञान जन साधारण ( अज्ञानी लोगों को साधारण एंगे ) अतिक्रमणादि है वे तो शुद्ध आत्मा की सिद्धि के अभ रुप स्वभाव वाले है । इसलिये स्वयमेव अपराध स्वरुप होने से विषकुम्भ ही है । क्योंकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य है । — अशुभ एवं शुभ भावों के फल सुहादो गिरयाउ सुहभावादो दु सम्म सुहमाओ | दुह-मुहमा जाणदु जंत रुच्चेद्रणं कुणही || पंचेन्द्रियादि विषय और कपाय रूप अशुभ भावों से नरकादि दुर्गति का दुःख मिलता है और देव-शास्त्र-गुरु कि भक्ति रूपी शुभभावनाओं से सर्गादिक अभ्दय सुखा कि प्राप्ति होती है। सुख और दु:ख अशुभ और शुभ भावोंवर आधारित है । हे भव्य आत्मन् ! आप को जो अच्छा लगे सो करो । दुःख चाहिये तो अशुभ भाव करो और सुख चाहिये तो शुभ भाव करो। इतना सब ध्यान रखो जो तुम कर्म करेंगे वह तुम्हे भोगा ही होगा । पुण्य त्याग करने योग्य व्यक्तो कौन है ? अत्राह प्रभाकर भट्ट तहि ये केचन पुण्य पाप द्वयं समान कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां क्रिमिति दुपणं दीयते भवद्धिरिति । भगवानाह । यदि - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्मानुभूति लक्षणं त्रिगुप्ति गुप्त वीतर ग निर्विकल्प परमसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा स मतमेव । यदि पुनस्तथा विद्यामवस्थामलभ माना अपिसंतो गृहस्यावस्थायां दानपूजादिकं त्यजति तपोवनावस्याया पडावश्याकदिक च त्यक्त्वोज्य भृष्टाः संत: तिष्ठन्ति तदा दूषणःमेवति तात्य ॥ अर्थ- प्रभाकर भट्ट कहने है - यदि जो कोई पुण्य पाप इन दोनों को ममान मानकर रहते है तो उनके मत मे आप दूषण क्यों देते हैं ? योगीन्द्र देव कहते है - जब शद्वात्मानुभूति स्वरुप जीन मुति म गुप्त बोतराग निर्विकल्प समाधि को पाकर ध्यान में मग्न हुये पुण्य पापको समान जानते हैं तब तो सम्मत ही है । परन्तु जो मूढ परमसमाधि को न पाकर भी गृहस्थ अवस्था में द्वान पुन दिक शुम क्रियाओं को छोड़ देते है । और मुनि पद में छह आवश्यक क्रियाओं को छोड देने है वे दोनों तरफ भ्रष्ट हो जाते है इसलि। उनके मन में अब जो पु-य और पाप को समान मानते है हुये रहते हैं सो ही दूषण है। ( प. प्रकाश - पा. १८२) अथ हे जीवजिनेश्वर पदे परम भक्ति कुविति शिक्षा वताती" अरि जिघ जिश – पर मति करि सुहि सज्जणु अवेहरि । ति बप्पेण वि कज्जु धि जो पाडइ संसारी ।। १३४ ।। मिरर्थक जीवन वित्तं हि नष्ट किचित र स्वास्थ्यं हि नष्ट किचिोड नष्टम् । वत्त हि नष्टं सर्व विनष्ट तसच वृत्तं परिरक्षणीयम् ।। धर्मार्थकाममोक्षाणं यस्यकोऽपि न विद्यते । अजागलस्तनस्यैव तस्य जन्म निरर्थकम ।। येषां न विदा न तपो न आनं ज्ञानं न शोलं न गुणो न धर्मः । ते मत्र्यलोके भूविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।। आहारनिद्राभयमथुनानि सामान्यमेतत्पशुमिर्जराणाम् । धर्मः विशेषः खलुमानवानां धर्मेन हीना पावो मानवाः ।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे आत्मन । अनादि काले दुर्लभे वीतराग सर्वज्ञ प्रणीने रग-द्वेष मोह रहिते जीव परिणाम लक्षणे शुद्धोपयोगमपे निश्चय धर्म बहार धर्म च पुनः षडावश्यका.ि लक्षणे गृहस्थापेक्ष पा दान-पूजादि लक्ष वा शुभोपयोग स्वरुपे गतिं कुरु । इत्थंभूते धर्मे प्रतिकूलो यः तं मनुष्यं स्वगोजमपि त्यज तदनुकलं परगोगजमपि स्वीकृर्विति । अगाथं भावार्थः । विषय सुख निमितं यथानुरागं करोति । जीवम्तथा जिनधर्म करोति तहि संसारे न पततीति । विस यह कारणि सन्य जण जिम अणराउ करेइ । सिम जिणभासिए धम्मि जई ण उ संसारो पडेट ।। अर्थ- हे आत्मन : अनादि काल से दुलं । जो वीतराग सर्वज्ञ कहा हुआ राग-द्वेष-मोह रहित शुद्धोपयोग रुप निश्चय धर्म और शुद्धोपयोग रुप व्यवहार धमं उनमें भी छहः आवश्यक हा यतीका धर्म, तथा दान गूजादि श्रावक का य: धर्म शुभाचार रुप दो प्रकार धर्म उसमें प्रिति कर । इस धर्म से मुिख जो अपने कुल का मनष्य उसे छोड और उस घम के सन्मुख जो पर कुटु' ब का भो मनुष्य ही उससे प्रिती कर । तात्पर्य यह है को, यह जीव जंसे विषय-सुखसे प्रिति करता है, वैसे जो जिनधर्म में करें तो संसार में नहीं भटके । एसा दूसरी जगह भी कहा है की विषय कारणों में यह जीव वारंबार प्रेम करता है, वैसे जो जिन धर्म में करें तो ससार में भ्रमण न करे ।। १३४ ॥ (परमात्म प्रकाश ) यरप्राम्जन्मनि संचितं तन मृता कर्मोशुभं वा शुभं । तदेव तदुदीरणादनुभवन दुःख सुखं वागतम् । कुर्याथः शुभमेव सोऽप्यभिमतो यस्तुभयोच्छितये । सर्वारम्भ परिग्रह ग्रहपरित्यागो स वन्धः स ताम् ।। २६२ ॥ (आत्मानुशासनम् ) अर्थ-प्राणिने पूर्व भव मे जिस पाप या पुण्य कर्म का सचय किया है वह देव कहा जाता है। उसकी उदीरणासे प्राप्त हुए दुःख अथवा सुख का अनुभव करता हुआ जो बुद्धिमान शुभ को ही करता है। पाप कार्यों को छोड़कर केवल पुण्य कार्यों को ही करता है-वह भी अभीष्ट Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ है - प्रशसा के योग्य है किन्तु जो विवे को जोब उन दोनों { पुण्य-पाप) काही नष्ट करने के लिये समस्त आरम् व परिग्रह पिशाच्च को छोड । कर शुद्धोपयोग में स्थित होता है वह तो सज्जन पुरुषों के लिये वंदनीय पूज्य है ।। २६२ ।। शुभाशुभे पुण्य पापे सुख दुःखे च षट अयम । हितमाधमनष्ठेयं शेष श्रयमथाहितम् ॥ २३९ ।। तत्राप्या परित्याज्यं शेषो न स्तः स्वतः स्वयम् । शुम च शुद्ध त्यक्त्वान्ते प्रा-नोति परमं पदम् ।। २४० ।। अर्थ- शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप, सुख और दुःख इस प्रकार यं छह हुए । इन छहों के तीन युगलों में से आदि के तीन शप, पुण्य और सुख - आत्मा के लिये हितकारक होने से आचरण के योग्य है। तथा शेष तीन अशुभ-पाप और दुःख अहितकारक होने से छोड़ने के योग्य है। विशेषार्थ- अभिप्राय यह है की जिनपूजादिक शुभ क्रियाओं के द्वारा पुण्य कर्म का बन्ध होती है । इसके विपरीत हिंसा एवं असत्य माभापणादिरूप अशुभ क्रियाओंके द्वारा पाप का वन्ध होता है और उस पाप कर्म के उदय मे प्राप्त होनेपर उससे दुःख की प्राप्ति होती है । श्रावक की परिभाषा श्रा - ( श्रद्धावान ) बसालना अति जिनेन्द्र शासने, 4- ( विवेकवान ) अनाधि पात्रघुनपस्य नीरसम् । क - ( क्रियावान ) कृतस्य पुग्पानि सुसाधु सेवनात् । अतोऽपि ते श्रावकमाहुरुत्तमाः ।। मुनि का परिवार धर्यः यस्यैपिता क्षमाश्च जननि शास्तिश्चिरगहिणी । सत्र : सनुरयं दया च भगिनी भ्रातः मनः संयमः । शप्पा भूमीतल: विशोऽपि वसनं जानामृतं भोजनम् । येते यस्य कुटुम्बिनो वन सखे कस्मात भीतः योगीनः ।। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिये उक्त छह मे से शुभ और पुण्य सुख ये तीन उपादेव तथा अशुप पाप और दुःख ये तीन हेय है ।। २३९ ।। पूर्व श्लोक में जिन तीन को शुभ-पुण्य और सुख को हितकारवा बतलाया है उनमे भी प्रथम का (अशभ का) परित्याग करना चाहिय ऐसा करने से शेष रहे पुण्य और सुख य दोनों स्वयं ही नहीं रहेंग, इस प्रकार शुभ को छोडकर और शुद्ध स्वभाव में स्थित होकर जीव अन्तम उत्कृष्ट पद ( मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है। विशेषार्थ-उपर जो इस श्लोक का अर्थ लिखा गया है वह संस्कृत टीकाकार श्री प्रभात्रन्द्राचार्य के अभिप्रायानुसार लिखा गया है। उपयुक्त इलोक के अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है - श्लोक २३९ में जो अशम पाप और दुःख ये तीन अहितकारक वतल ये गये है। उनमें भी प्रथम अशुभ का ही त्याग करना चाहिये कारणा यह कि ऐसा होनेपर शेष दोनों पाप और दुःख स्वयंभव नही रहते है क्योंकि इनका मूल कारण अशुभ ही है। इस प्रकार जब मूल कारण भूत वह अशम न रहेगा तब उसका साक्षात कार्यभूत पाप स्वयमेव नष्ट हो जावेगा, और अब पाप ही न रहेगा तो उसके कार्यभूत दुख:की भी कैसे सम्भावना की जा सकती है नहीं की जा सकती है । इस प्रकार उक्त अहितकारक तीन के नष्ट हो जानेपर शेष तीन जो शुभादि हितकारक रहते है वे भी वास्तव में f.तकारक नहीं है । ( देखिय आगे श्लोक २६२ ) उनको जो हितकारक व अनुष्ठय बतलाया गया है वह अतिशय अहितकारी अशुभादिक अपेक्षा ही बतलाया है | यथार्थ में तो वे भी परतंत्र के ही कारण है । भेद इतना ही है कि जहां अशुभादिक जीवको नारक एवं नियंच पर्याय में प्राप्त कराकर केवल दुःख का अनुभव कराते है वहां ये शुभातिक उसको मनुष्यों और देवों में उत्पन्न कराकर है । दुःखमिश्रित सुख का अनुभव कराते है । इसलिये यहां यह बतलाया है की उन अशुभादिक तीन का छोड़ देने के पश्चात शुद्धोपोग मे स्थित कर उस शभ को भी छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार अन्त में उस शुभ के अविनाभावि पुण्य व सांसारिक सुख के भी नष्ट हो जाने पर जीव उस निर्वाध मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। जी की अनन्त काल Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ सक स्थिर रहने वाला है ।। २४० ।। ( आत्मानुशासनम् - २३९ ते २४० ) धरं व्रतैः पदं देवं नाक्तैर्वत नारकं । छायातपस्थयोभेवः प्रति लियतामहान् ।। ३ ।। अर्थ- ब्रतोंके द्वारा देव-पद प्राप्त करना अच्छा है किन्तु अवतों के द्वारा नरक पद प्राप्त करना अच्छा नही है। जैसे- छाया और धप में बैठनेवाले मे अन्तर पाया जाता है वैसे ही व्रत और अवन के आवरण व पालन करने वाले में फर्क पाया जाता है ।। ३ ।। दोपदेश ब्रतादिक पालने में पाप कर्मों की निर्जरा होती है और पुण्य म का वन्ध होता है। परन्तु पुष्य वन्ध इहलोक व परलोक मुख का कारण है और परम्परा से मुक्ति का कारण है। . नमःशुभारतिय नहेवाग जायते । पारंपर्येण यो बन्धः स प्रबन्धाद्विधीयते ।। ५४ ।' अर्थ- भ भ व में शभान बन्धी होता है और यह शमानवन्धी परम्परा से वन्ध छेद के लिए कारण हो जाता है । इसलि शुभान यन्धा कर्म का प्रचूर रुप से करना चाहिये । ( धर्मरत्नाकर - दान फल अधिकार । विशेषार्थ- शरीर में कांटा घुसने के वाद उस कांटाको निकालने के लिये एक सुदृढ कांटा चाहिय, शरीस्थित काटाको जय तक नहीं निकालते तव त ' इस सदढ कांटा की परम आवश्यकता है शरीर स्थित कांटा निकालने के बाद उस सदृढ कांटा की आवश्यकता स्वयमेव नहीं रहती उसी प्रकार पाप कर्म देह स्थित कांटा के समान है। उस पाप कर्म को निकालने के लिो एक सुदृढ पुण्यरुप कांटा चाहिय, पाप रूपी कांटा निकालने के बाद पुण्यरूपी कांटा की आवश्यकता स्वयमेव हट जाती है। जैसे- मलीन वस्तु के संपर्क मे वस्त्र अब छ हो जाता है। उस अस्वच्छ को हटाने के लिये पानो, साबून, टिनोपाल चाहियं । पानी और साबन के प्रयोग से जव वस्त्र स्वच्छ हो जाता है तब उस वको Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ लगा हुआ सायून को भी स्वच्छ पानी से घोकर निकाल देते है। वस्त्र । म्वच्छ होने के बाद उसको टिनोपाल मे डाल के उसको चमकाते है।। वम्न मे साबून और पानी अलग बस्तु है ( पर द्रव्य है ) जो भी बिना पानी और साबून मलिन स्त्र स्वच्छ नहीं होता है । परन्तु स्वच्छ होने के बाद साबुन और पानी का आवश्यकता नहीं रहती है । मलीन अवस्था में दिनोपाल बस्त्र को लगाने पर उसमें चमक नही आ सकती है। इसी प्रकार आत्माको स्वच्छ करने के लिये शुनभा-रुपी पानी और पुण्यरुपी साब'न चाहिये इसके माध्यम से मलीन पापात्माको पवित्र पुण्यात्मा होने के बाद शक्ल ध्यानरूपी टिनोपाल से उसको केवलज्ञान रपी प्रकाश से चमकना चाहिये । जब तक आत्मा को शुभ भाव और पुण्य से स्वच्छ नहीं करते तव तक शुक्लध्यान रुपो टिनोपाल का कोई प्रकार परिणाम नहीं हो सकता है । वस्त्र स्वच्छ होने के बाद उस वस्त्र में स्थित पानी को भी निकाल देते है। इसी प्रकार अयोग केवली १४ वे गुणस्थान के आवस्था में व्युपरित त्रिया निवृत्ती रुपी परम शुक्ल ध्यान से पुण्यरूपी कण को भी सुखाकर पृथक करना चाहिये तब जाकर भारमा निरंजन निष्कलंक होता है। अहो पुष्यबन्ता पुंसा काट वापि सुखायते । तस्मा अध्यः प्रयत्नेन कार्य पुष्यं जिनोदित ।। अर्थ- अहो आश्चर्य की बात है की पुण्यवान के लियं कष्ट भी सुखकर हो जाता है इसलिये हे भव्य जिनेंद्र भगवान द्वारा प्रतिपादित पुण्य को तुम प्रयलवकः करो। यस्य पुण्यं च पापं च फिलं गलति स्वयम । स योगो तस्य निर्वाण न तस्य पुनराध ॥ २४६ ।। टीका- यस्य च कर्मणां स्वकार्यमकुर्वतामेव विश्लेषो भवति स त्र योगीयाहयस्येत्यादि । यस्य परम वीतरागस्य । निःफल स्वकर्यम अकुर्वत सत । गलति उग्र तपःसामर्थ्यदुदयमानीय जीर्यते । न पुनरास्रवी न पुनः कर्मणागमनम् सबर एव भवतीत्यर्थ: ।। २४६ ।। अर्थ-जिनका कर्म उदयमे आकार भी बिना फल दिये खिर जाते है बस योगी है। वह परम वीतरागी होते है। परन वीतरागी मुनी उरा Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप के माध्यम से भविष्य में उदय आने योग्य कर्म को गला देता है । उसी प्रकार मुनीश्वर को नवीन आश्रत्र या बन्ध नहीं होता है । उस परम वीतरागी मुनिस्वरों का राप एवं पुण्य स्वयमेव निष्फल होकर | खिर जाते है और उनको नवीन कस्स्रिव बन्ध नहीं होता है । उन्हीको परम निर्वाण को प्राप्ति होती है। ( आत्मानुशासनम् ) असुहाण पयहीण अणंत भागा रस्सस खंडाणि । सुह पयडीणं णियमा णाल्थि ति रसस्स खण्डाणि ।। ८० ।। अर्थ- अप्रशस्त अर्थात पाप प्रकृतियों के अनंत वहुभाग का घात नियम से नहीं होता है । बयोंकि विशद्धि के कारण प्रशस्त्र प्रकृतियों का अनुभाग उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है परन्तु घात नही होता है । तथा विशुद्धि के कारण पाप प्रकृतियों का अनुभाग उत्तरोत्तर हास को प्राप्त होता है परन्तु वृद्धिको प्राप्त नही होता है । पदमापुध्वरसावो चरिमे समये पअच्छइवराणं ।। रससतमणंत गुण अगंतगुण होणयं होदि ।। ८२ ।। अर्थ- अपूर्वकरण में प्रतिसमय अणंतगुणी विशुद्धि होने के कारण प्रशस्त प्रकृतियोंका अनंतगुणा वढता अनुभाग सब्ब है । तथा विशुदि के कारण अनुभाग काण्डक घात के महत्वसे अप्रशस्त प्रकृतियोंकी अनन्तवाँ भाग सत्व घरम समयमे होता है । इस कारण अर्य करण के प्रथम समय संबंधी प्रशस्त प्रकृतियोंका जो अनुभाग सत्त्व है उससे अश्वकरण के चरम समय में प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग तो अनंतगुणा बढ़ता हुआ सत्व में है । तथा अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग सत्व अपूर्वकरण के प्रथम समय में जितना है उससे अनंतगुणाहीन अपूर्वकरण के चरम समय ___ इससे सिद्ध होता है । आत्म विशुद्धि से पु'य कर्म चौदहवाँ गुणस्थाव के नीचे नीचे नाश नहीं होते है परतु वृद्धि को प्राप्त होते है । तथा पाप कर्म अत्म विशुद्धि से नाश होता है किंतु वृद्धि को प्राप्त नहीं होते है। (लब्धिसार) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० विशेषार्थः- चतुर्थ गुणस्थानमे आगे उत्तरोत्तर पापकर्मका संवर और निर्जरा वृद्धि हो जाती है । और पुण्य कर्मका आश्रव और बंध उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता है, इस प्रकार क्रिया सकषाय गुणस्थान नक (१० वे मुणस्थान तक) चलती रहती है। क्षीणकषाय आदि गणस्थान में पुण्यात्रव होता है फिर भी वन्ध नहीं होता है, परन्तु पुष्प कर्म तेरावे गुस्थान तक नष्ट नहीं होती बढता की रहता है। परन्तु परम योगी शैलेश अवस्था प्राप्त अयोगी केवली गुणस्थान में चरम समय और द्वोचरम समय में संपूर्ण पुण्य और पाप कर्मोका समूल विनाश होजाता हैं । पाप प्रकृती यथा योग्य द्वितियादि गुणस्थान मे संबर एव निजरा होती है । परन्तु विशिष्ट पृण्य कर्मोका संवर निर्जरा १४ बे गणस्थानके नीचे नीचे होती नहीं है । परंतु उत्तरोत्तर गुणस्थानमें अनुभाग शक्ति बढती जाती है। परन्तु परिनिर्वाण के पूर्ववर्ती सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाती है। किनके पुण्य हेय है ? पुणेण होड विहवो बिहवेण मओ भएण नइ-मोहो । मह मोहेगा य पाय ता पुण्णं अम्ह मा होउ ।। ६० ।।। अर्थ- पुण्यमे घरमे धन होता है और धनसे अभिमान, मानने बद्धिभ्रम होता है: बुद्धिके भ्रम होनेसे { अविबेकमे ) पाप होता है ! इसलिये ऐसा पुष्ट हमारे न होवे टोका- 'पुणेण इत्यादि । पुणगेण होइ बिहवो पुण्णण विभवो विभूतिर्भवति, बिहवेण मओ विभत्रेण भदोऽईकारो ग! भवति. मएण म इमोहो विजानाद्यष्टविधमदेव मलिमोहो मतिभ्रंशो विवेकमवन्द भवति । महमोहेण य पाच मति मूढत्वेन पापं भवति ता पुण्यं अह मा तस्मादित्थंभूतं पुण्यं अस्माकमाभूदिति । तया च इ. पूर्वोक्तं भेदाभेदर नयाराधनाहिसेन दृष्ट-, श्रुतानुभूत भोगाकांक्षारुप लिदानवन्ध परिणामसहितेन जीवेन यदुपाजित पूर्व भवे तदेव मदमहंकार जनर्यात बद्धिविनाशं च करोति । न च पुन सम्यक्त्वादि गुणसहित भरत-सगर राम पांडव आदि पुण्य बन्धवत् । यदि पुनः सर्वेषां मदम्जनयति तहि ने कथं पुण्य माजना सन्तो मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्ष गस': ।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थ ।। तथा चोक्तं चिरन्तनानां निरहंकारत्वम्"स यं वाचि मतो अतं हृदि क्या शौर्य मुजे विक्रम । लक्ष्मीनिमनूनथिनिधये मागें गतिनिवृतेः ।। प्राग्जनीइ सेऽपि निरहंकाराः श्रुतेगाँवराश्चित्रं संप्रति लेगतोऽपि न गुणास्तेषां तथा सुद्धताः ।।६।। भेदाभेद रत्नत्रयकी आराधनासे रहित देखे सुने, अनुभवे भोगोंको यांछारूप निदान बन्धके परिणामोंसे सहित जो मिथ्यादृष्टी संसारी अज्ञान जीव है। उसमें पहले उपार्जन किये भोगोंकी बांछ.रुप पुण्य उसके फल से प्राप्त हुयी घर में स. पदा होने से अभिमान, (घमड़ होता है, अभि मानसे बुद्धिभ्रष्ट होती है, बुद्धि भ्रष्ट कर पार कमाता है और पापसे भभव में अनंत दुःख पाता है । इसलिये मिथ्यादृष्टीयोंका पुण्य पापकाही कारण है। जो सम्यक्त्वादिगुणसहित भरत, राम, पाण्डवा के विवेकी जीव है उनको पुण्य बन्ध अभिमान उत्पन्न नही करता परम्पराये मोक्ष का कारण है । जैसे-अज्ञानीयों के पुण्यका फल विभूति गर्व कारण है, वैसे सम्यग्दृष्टीयोंके नहीं है । वे सम्यग्दा टी पूण्य के पात्र हये चक्रवर्ती आदिकी विभूति पाकर मद अहंकार आदि विकल्पोंको छोड़कर मोक्षको गये अर्थात सम्यग्दृष्टी जीव चक्रवर्ती बल भद्र पद में भी निरहंकार रहै । ऐसा ही कथन आत्मानुशासन प्रयमे श्री गण भद्राचार्य ने किया है कि पहले समयमें ऐसे सत्तुरूष हो गये है की जिनके वचन में सत्य बुद्धिम शात्र मनमें दया पराक्रम रूप भुजाबामें शूरवीरता याचकों में पूर्ण लक्ष्मीका दान और मोक्ष माग गमन है। वे निराभिमानी हुयं जिनके किसी गृण का अहंकार नहीं हुआ। उनके नाम शास्त्रों में प्रसिद्ध है । परन्तु अव वडा अचम्ब है की इस पंचम कालमें लेश मात्र भी गुण नहीं है तो भी शुद्धतापनर है, यानी गुण तो रंच मात्र भी नहीं और आमिमान में बुद्धि रहती है। (परमात्म प्रकाश-) पाप भी उपादेय है। अथ येन पापफलेन जीवो दुःखं प्राप्य दुःखविनाशार्थ धर्माभिमुखोभरती तत्पापमपि समीचीन मिति दर्शयति Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ घर जिय पावई सुन्दर णावई ताई भणति । जोवह दूषखइँ आणवि लहु सिवम. जाई कुति । ५६11 वर जीव पापानि सुन्दराणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति । जीवानां दुःखानि जनित्वा लघु शिवमति यानि कुर्वन्ति ।।५६।। टोका-वर जिय इत्यादि । वर जिय बरं किंतु हे जी पावर सुंदर इं पापानी सुन्दरा मि समीचीनानि भणंति कथयन्ति । के । णिय शानिनः तत्ववेदिनः । कानि । ताई तानिपूर्वोक्तानी यापानि । कथभूतानि । जीवहं दुक्ख इं जणिवि लहु सिबमई जाइ कुणती जीवानां दुःखानि । जनित्वा लय शीघ्रं शिवमति मुक्तियोयमति यानि कुर्वन्ति ।। अयमत्राभिप्राय: । यत्र भेदाभेदारत्नत्रयात्मक श्रो धर्म लभते जीवस्त - पापजनित दुःखमपि श्रेष्ठमिति कस्मादिति चेल | " आर्ता नरा धर्म- . पग भवन्ति " इति वचनात ||५६।। अर्थ-- आग जिस पापके फलसे यह जीव नरकादि में दुःख पाकर उम दुःख के दूर करने के लिए धर्म सन्मुख होता है, वह पाप का फल भा श्रेष्ठ (शंसा योग्य ) है । एसा दिखलाते है। हे जीव जो पापके उदय जीवको दुःख देकर शीघ्र ही मोक्षके जाने योग्य उपायोंप बुद्धि कर देवे, तो वे पाप भी बहुत अच्छ है, ज्ञानी ऐसे कहते है। कोई जीव पाप करके नरक में गया वहां पर महान दुःख भोग उसमें कोई समय किभी जीवके सम्यक्त्व की प्राप्ती हो जाती है क्यों की उस जगह सम्यक्त्वकी प्राप्तीके तीन कारण है । पहिला तो यह हैं कि तिसर नरक तक देवता उसे संबोधनको (चेताबनेको) जाते है। सो कभी कोई जीव धर्म सुननेसे सम्यक्त्व उत्पन्न हो जावे, दुसरा कारण-पूर्व भवका स्मरण और तिसरा नरकको पीडाकारी दुःखी हुआ नरकको महान दुःखका स्थान जा र नरकके कारण जो हिंसा, झूठ, सोरी, कुशोल, परिग्रह और आरंम्भादिक है उनको खराब जानके णपसे उदास हो । तिसरे नरक तक ये तीन कारण है । आगे के चौथे, पांचवे. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवे, सातवे न रकमें देवों का गमन न होने से धर्मश्नवण तो है ही नहीं लकीन जाति मर । है । तथा वेदना कर स्त्री के पापसे भयभीत होना व दोही कारण है । इन कारणों को पाकर किसी जीवके सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। इस नयसे कोई भव्य जीव पापके उदयसे खोटि गतिमें गया वहाँ जाकर यदि सुलट जावे तथा सम्यक्त्व पावे तो व कुगति भी बहुत श्रेष्ठ है, ग्रही योगीन्द्राचार्य ने मूलमें कहाँ है की जो पाप जीवोंको दुःख प्राप्त करा करके फिर शीघ्र ही मोक्ष मार्गमे बुद्धि को लगावे, तो वे अशुभ भी अच्छे है । तथा जो अज्ञानि जीव किसी समय अज्ञान तपसे देव भी हुआ और देवसे भरकर एकेन्द्रिय हुआ तो वह देवपना किस कामका । अज्ञानीक दवपना भी वृथा है । जो कभी ज्ञान के प्रसादसे उत्कृष्ट देव होके बहुत क ल तक सुख भोगके देवसे मनुष्य होकर मुनित्रत धारण करके मोक्षको पावे तो वह भी अच्छा है। ज्ञानी पुरुष उन पापियोंको भी श्रेष्ठ कहते है, जो पापके प्रभावमे दुःख भोगकर उस दुःख से डरके दुःख के मूल कारण पापको जानके उस पापम उदास होवे, बे प्रशंमा करने योग्य है, और पापि जीव प्रशंसाके योग्य नहीं है । क्यों की पाप क्रिया हमेशा निंदनीय हूं । भदाभेदरलत्रय स्वरुप श्री वीतराग देवके धर्म को जो धारण करते हैं वे श्रष्ठ है । यदि सुखी धारण करे तो भी ठीक और दुःखी धारण करे तब भी ठीक क्यों की शास्त्राका वचन है की कोई महाभाग दुःखी हूए ही धर्म में लवलीन हाते है ।। ५६ ।। ( परमात्म प्रकाश ) दुःख में सुमरन सब करे, सुःख में करे न कोय । जो सुख में सुमरन कर, दुःख काहेका होय ।। अर्थ- साबा गत ससारी जीव दुःखके समयमें धर्म का आचरण करता है । परन्तु धर्म के कारण किंचित सुख प्राप्त होनेसे धर्मको ही भल जाता है, पापादिक क्रियाओंमें लग जाता है, तब पुन: दुःख प्राप्त होता है। यदि जीव सुख के समयमे भी धर्म आचरण करने लगंगा तो कभी भ दुःख नही होगा | .. कृत्व. धर्मविघातं विषयसुखान्यनु भवन्ति ये मोहात् । आच्छिा तरुन मूलात् फलानो गृहन्ति ते पापा: ।।२४।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- जो मोही कामअंधा, विषयासक्त, जीव अज्ञानताने धर्म को नष्ट करके विषय मुखाका अनुभव करते वे पापी वृक्षाको जड़ से उखाड़कर फल को ग्रहण करना चाहते है । अर्थात पूर्व पुण्य कर्म के उदयसे जो कुछ वैभव मिला उस वेभव में लीन होकर जो केवल भोगासक्त होता है वह पूर्व उपाजित पुण्य को पूर्ण रूपमे भोग करता है। परन्तु नवीन पुण्यार्जन नहीं करता जिसमे पापहो र उसके पहले में रहता है। उसमें वह नरक निगोद में जाता है। इस लिये पूर्वाजिर पुण्यसे जो वैभव मिला उसके बिना त्याग भोग करनेसे उस दृपयसे उराको दुर्गती हुई इस प्रकार पुण्य हेय है । (झारमानुशासन ) । मिथ्यादष्टीको पापःनवन्धि पुण्य से जो वै मन की प्राात होती है उस वैभव में मिथ्यादृष्टी ल न होकर आसक्लि पूर्वक भोग करता है किन्तु त्याग नही करता उसका वैभत्र अर्थात पुष्यफल ससारका कारण है। इसलिये उमका पुण्य कर्म परम्परासे मोक्ष का कारण नहीं होत, है। किन्तु संसा का कारण होता है । अर्थात पुय फल रूप वैभवको प्राप्त कर जो असलि र्वक भोगता है वह मिश्यादृष्टी है। रागी बहिरात्मा है । सम्यग्दा टीका पुण्य पुण्यानुबंधी पृष्य है, सायग्दृष्टी पुण्य सप वैभव को प्रात कर उसमे वह आसक्ति पुर्वक लोन नहीं रोता है वह मांचता है । जानता है मानता है की यह चमत्र मेरे आम स्वरूप पथक है पुण्यक मंका फल है कुछ चान्त्रि मोहनीय कर्म के उदयसे आत्मिक शक्ति अभाव से रोगी जैसे तिक्त औषध सेवन करता है अनासक्त पूर्वक उसी प्रकार वह सम्यग्दृष्टी भोग को रोग मानकर निरूपाय होवार अनासात पूर्वक भोगता है । वह अनासक्त पूर्वक भोगते हये कर्म को बांधता हो है परन्तु जितने अंश में अनासक्त भाव है उत्तने अंशमे कर्म बंध नहीं होता है । परन्तु अन्तरंग में सतत भोगों की निंदा गहा करते हुए उन भोगोंमें छूटने के लिये रास्ता ढूंढता रहता है। अत्र तक सा पूर्ण भोग, आरंभ, परिग्रहोसे विरक्त नहीं हो पाता है तब तक स्वशक्तिनुसार दान, पूजा, गुरुसेवादि करते हुये पूर्व पुण्य का सदायोग करता है और अत में समस्त अन्तरंग-बहिरंग परिग्रहको त्याग कर निर्ग्रन्थ होकर व्यवहार-निश्चय रत्ननय को साधन कर Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष पदवी को प्राप्त करता है। इसलिए सम्यग्दष्टीका पुण्य परंपरासे मोक्षका कारण है तथा मिथ्यादृष्टी का पुण्य परंपरासे संसार काकारण है। " आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति- " पाप कर्मके उदयसे जीव को जब कष्ट उठाना पड़ता है उस समयमे वह पाप कर्मोका स्वरूप समझकर पापसे निवृत होकर धर्ममे लगता है । जैसे नरक में तीर्व वेदना अनुभव कर नारकी पाप फलों का चितवन करके सम्यग्दृष्टी हो जाता है, इसीप्रकार जीव पापकर्मके फलसे संतप्त होकर पापसे डर कर अधर्म छोडकर धर्म करने लगता है। इसीलिए संसार में विरवत होनेके लिए एवं धर्म में प्रवृत होने के लिए पाप कर्म भी निमित है। अर्थात जिस पाप फलसे दुःखोसे, संतापसे, संकटोसे जीव भयभित होकर धर्म में लगते है वह पाप भी आदेय है । इसलिये भव्य जीवोंको संबोधन करते हुये आचार्योने प्रेरणा दी है " सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म मय तब कार्य । सुखितस्य तद्भाभिवृध्दयं दुःख भुजस्तदुपघाताय ॥ १८ ॥ अर्थ- हे जीव तू चाहे मुख का अनुभव कर रहा हो, चाहे दुःखका अनुभव कर रहा हो, किन्तु संसार में इन दोनो ही आवस्था में एक मात्र कार्य धर्म ही होना चाहिये । कारण यह है की वह धर्म यदि तु सुखका अनुमव कर रहा है तो मेरे उस नुख की वृध्दिका कारण होगा। ओर यदि नू दुःख का अनुभव कर रहा है तो वह धर्म तेरे उस दुःख के विनाश का कारण होगा। ( आत्मानुशासनम् ) ध्यान अवस्था ___अप्रमत्तविरत गुणस्थान- मोक्षमार्गका पथिक जब मोक्षमार्ग के विपरीत जो अंतरंग व बहिरंग परिग्रह उसका त्याग करके मोक्षमार्ग पर अग्रसर होता है, अनादि कालिन संस्कार एवं अनभ्यासके कारण जो कुछ आत्म ध्यानके लिये बाधक कारण प्रमादसे उनको सतत ज्ञानवैराग्यरुपी शस्त्र द्वारा नष्ट करके स्वयं में लीन-स्थिर हो जाता हैं Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसको ध्यान कहते है । उस आत्मस्थ अवस्था विशेष को अप्रमत्त विरत गुणस्थान कहते है। गडा सेस पमाओ वयगुणसीलेहि मंडिओ गाणी । अणुष समओ अखपओ माणणिनीगो हुअधमालो । ( भा. सं. : पृष्ठ २८२ ) जिस समयमें मोक्षमार्ग ज्ञानी समस्त प्रमादों को नष्ट करके व्रत-गण-शीलसे मंण्डित होकर ध्यानभे लीन होता है, परन्तु उपगम या क्षषक श्रेणी आरोहण नहीं किया है उस समय में अप्रमत्त विरत आत्माबस्था होती है। अनादि कालिन संस्कार के कारण ज्ञानी मुनि ध्यानावस्था में सतत स्थिर नही होता है. इसलिए वह ध्यानावस्था से च्युत होकर प्रमत्तविरत अवस्था को प्राप्त होता है। पुनः शक्तिको संचय कर अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त होकर ध्यान मे लीन हो जाता है । इस प्रकार वह हजारों बार छदुवे से सातवें गुणस्थान में आता जाता रहता है। उत्तम संहननधारी क्षायिक सम्यग्दष्टी महाभुनि उपशमश्रेणी एवं क्षपक श्रेणी दोनो श्रेणी आरोहण करते हैं। परन्तु उपमम श्रेणीवाले अन्तर्मुहर्त काल पूर्ण होने पर एवं क्रोधादि अन्यतर कषायों के उदयसे ग्यारहवे गणस्थान से नीचे गिरकर यथायोग्य गणस्थानको प्राप्त कर लेते है । और बनवृषभनाराच संहननधारी क्षायिक सम्यग्दृष्टि तद्भव मोक्षगामी चरमशरीरी महामनि जब क्षपक श्रेणी आरोहण करते है तब सातिशय सातवे गणरथानसे निरालम्ब शुषलध्यान को जाते है। एवं धम्मज्माणं कहियं अपमत्तगुण समासेण । सालंबमणालंबं तं मुक्खं इत्यं वायव्वं ।। ६३१ ॥ एदम्हि गुणट्टाणे जस्थि आवासयाण परिहारो। झाणमणामि थिरतं णिरतरं अस्थि तं जमा ।। ६४० ॥ (RT. सं. । पृष्ट २९२ ) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ अप्रमत्त गुणस्थान मे धर्म ध्यान होता है यहां पर सालम्ब और निरालंब धर्मध्यान कि मुख्यता है उसने पूर्ववर्ती गुणस्थानो मे छट्टने, पांचवे चौथे में गौणरूप से धर्मध्यान होता है। श्रमेध्यान उत्तरवर्ती गुणस्थानों मे अर्थात् आठवे नवमे दसवे गुणस्थानो में होता है। इस गुणस्तानों मे महामुनि समस्त प्रमाद से रहित होकर बाच क्रियाओं से विरत होकर निरन्तर ध्यानमे स्थिर होने के कारण बाहा आवधकादि क्रियाओं का परिहार हो जाता है। इसके पहले पहले आवश्यक आदि क्रियाओं का पालन करना अनिवार्य हो जाता है । अपूर्वकरण गुणस्थान खवएसु उवसमेसु य अवणामेसु हव तिप्यारं । सुषकझाणं पियमा महुत्त सवियश्क सविकार ।। ६४३ ।। ( भा. मं. | पृष्ठ २९४ ) क्षपकश्रेणी वा उपशम श्रेणी आरोहण करने वाला जीव जब अपूर्वकरण गुणस्थान मे पदार्पण करता है तब वहाँ पर पृथक्त्व वितर्क नामक शुक्लध्यान प्रारंभ होता है । द्रव्य-गुण- पर्यायों की संक्रमण अपेक्षा पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान तीन प्रकार या अनेक प्रकारका होता है । अनिवृत्ति गुणस्थान - सुक्कं तत्थं पडतं जिर्णेहिं पुण्युत्तलक्षणं ज्ञानं । पत्थि नियत्ति पुणरत्र जम्हा अणियति तं तम्हा ।। ६५० १३ ( भा. मं. पृष्ठ २९७ ) इस गुणस्थानोमे पूर्वोक्त प्रथम पृथक्त्ववितर्क नामक बल म्यान होता है। यहां पर जीव के परिणाम विशुद्धि मे निवृत्ति नही होती है । इसलिए इस गुणस्थान को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते है । सूक्ष्म सांवराय गुणस्थान धुनको भयवत्थं, होदि जहा सुमयसंत्तं । एवं सुहुमकसाओ, सुहमसरागोत्ति णादण्यो ।। ५८ ।। ( गौ. जी. पृष्ठ १२१ ) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रेणी आरोहणकारी जीव आत्मिक विशेष विशुद्धि रो राग को कर्षण करता हुआ जिस समय में सूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त मूक्ष्मलोभ को बेदन करता है, उस समयमें वह सूक्ष्मसापराय गुणस्थानवर्ती होता है । जैसे कुसुम के रंग से रंगा हुआ वस्त्र सम्यक रूपसे बार बार धोनेपर बहुत कुछ निकल कर सूक्ष्म लाल वर्ण से युक्त होता है। उपशान्त मोह गुणस्थान कवकफन मुबदल वा सरए सरवाणिय व जिम्मलए । सयलो वसंत मोहो उपसंत कसायओ होधि ॥ ६१ ।। । गो. जी. | पृ. १२६ )। जैसे कनकफल के चूर्ण से युक्त जल निर्मल होता है अथवा मेघपदलसे रहित शरद ऋतु में जैसे सरोवर का जल ऊपर से निर्मल रहता है, वैसे ही पूर्ण रूपसे मोह को उपशांत करनेवाला उपशांत कषाय होता है । जिस ने कषाय नोकषायों को उपशान्त अर्थात् पूर्ण रूप से उदय के अयोग्य कर दिया हैं वह उपशान्त मोह गुणस्थानवर्ती होता है। क्षीणमोह गणस्थान हिस्सेस खीणमोही फलिहाभल भायणुवय सचित्तो। खीण कसाओ भण्णादि णिग्गयो वीयराहि ॥ १२ ॥ ( गो. जी. | पृष्ठ १२७ ) सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक अन्तिम समय मे चारित्र मोह की प्रकृति स्थिति. अनुभाग, और प्रदेशोंका बन्ध, उदय, उदीरणा तथा सत्ता के व्युच्छित्ति होने पर उसके अनतर समय में चारित्र मोहका भी पुण रूपसे विनाश होने पर जीव क्षीण कषाय होता है । उसका चित्र अर्थात भावमन विशुद्ध परिणाम अतिनिर्मल स्फटिक मात्र में भरे निर्मल जल के समान होता है । अर्थात जेसे वह जल कलुषित नही होता है, उसी प्रकार यथाख्यात चरित्र से पवित्र क्षीण कषाय का विशुद्ध परिणाम भी किसी कारण से कलुषित नहीं होता है। वहीं परमार्थ निग्रन्थ है क्यों कि उसके कोई भी अंतरंग और बहिरंग परिग्रह नहीं होता है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ इस गुपस्थान में द्वितीय एकत्व वितर्क विचार ध्यान होता है । जीधन मुक्त सकल परमात्मा केवलणाण दिवायर किरणकलापबप्पमासिय ण्णाणो। णव केवल लटुग्गम सुभणिय परमप्प ववएसो ॥ ६३ ।। ( गो. जी. । पृष्ट १२८ ) जिनने केवलज्ञान रूपी सूर्य के किरण समहरूप जो पदार्थो को प्रकाशित करने में प्रविण दिव्यध्वनि के विशेष उनके द्वारा, शिष्य जनों का अज्ञानान्धकार नष्ट कर दिया है । इससे सयोग केवली भगवान के भव्य जीवों का उपहार करने रूप परमार्थ पदार्थ सम्पदा कही है। तथा क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, केवलज्ञान, केवल दर्शन, दान. लाभ, भोग, उपभोग,वीर्य इन नौ केवल लब्धियोंके प्रकट होने में जिन्हों ने वास्तव में परमात्मा नाम को प्राप्त किया है। इस से भगवान् अर्हन्त परमेष्ठि के अनन्त ज्ञानादि रूप स्वार्थ सम्पदा दिखायी है । शैलेश अयोगी जिन-- सीलोरी संपत्ती, गिद्ध णिस्सेस आसयो जीवो । कम्मरय विप्पमुक्को गथजोगो केवली होदि ।। ६५ ।। जो अठारह हजार शीलों के स्वामी पने को प्राप्त है, समस्त आस्रवों के रूक जाने से जो नवीन बध्यमान कर्म रज से सर्वथा सहित है। तथा मनोयोग-वचनयोन-और काय योग से रहित होने से अयोग जिन है। इस तरह जिनके योग नहीं है। तथा केवलि भी है वे अयोग कैवली भगवान् परमेष्ठि है। हरहंत का विशेष वर्णन--- पुण्ण कला अरहता तेसि किरिया पुणो हि ओदइया । मोहाक्षहि बिरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा ॥ ४५ ॥ ( प्रवचन सा. । पृष्ठ १०४ ) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ دی ؟ पञ्च कल्याण पूजा जनकं त्रैलोक्य विजयकरं यत्तीर्थकरनाम पुण्य कर्म तत्फलभूता अर्हन्तो भवन्ति । तेषां सा दिव्यध्वनिरूप वचच व्यापारादि क्रिया सा निःक्रियशुद्धात्मतत्व विपरीत कर्मोदय जनितत्वासर्वाप्योदयिकी भवति हि स्फुटं । निर्मोह शुद्धात्मतत्व प्रच्छादकममकाराहङ्कारोत्पादन समर्थ मोहादि विरहितत्वाद्यतः । तस्मात् सा यद्यप्योदयकी तथापि निर्विकार शुद्धात्मतत्वस्य विक्रियामकुती सती क्षायिकी मता । ( प्र. सार. ना. व. | पृष्ठ तीर्थंकर अरहन्त भगवान पुण्यफल स्वरूप है अर्थात् पञ्चमहाकल्याण कि पूजा को उत्पन्न करनेवाला तथा तीन लोक को जीतनेवाला जो तीर्थंकर नामकर्म पुण्यकर्म उसके फल स्वरूप अरहन्त तीर्थंकर होते है । तथा उन अरहन्तों की दिव्यध्वनि रूप वचन का व्यापार तथा शरीरादि के व्यापार रूपक्रिया स्पष्ट रूप से औदयिक है । अर्थात निष्क्रिय निज शुद्धात्म तत्व से उस की क्रिया विपरीत है क्योंकि शुद्धात्मतत्व में कर्मोदय जनित किसी भी प्रकार कि क्रिया नहीं है । वह क्रिया मोहादि को से अर्थात मोह रहित निज आत्म तत्त्व रोकने वाले तथा ममकार अहंकार को पैदा करने को समर्थ मोहादि से रहित है । इसलिये क्षायिक है। वहाँ पर पुण्योंदय रूप तीर्थंकर नाम कर्म के अत्युताष्ठ उदय से समवशरण में स्थित होकर के उपदेश करना और विहार करने रूप लिया होते हुये भी मोहनीय कर्म के अभाव से कर्म बन्ध नहीं होता है । तथा साता वेदनीय कर्म का तीव्र उदय होते हुये भी वहाँ केवलज्ञानादि गुणों का घात नहीं होता है । इसमें सिद्ध होता है कि भले पुण्य प्रकृति के सद्भाव से साक्षात सब कर्म विनिर्मुक्त रूप द्रव्य मोक्ष नहीं है । परन्तु स्वात्मोपलब्धि रूप भावजीवन मुक्त होने में पुण्य प्रकृति बाधक नहीं है। घाति कर्म रूप पाप प्रकृतियों का सद्भाव रहते हुये भाव मुक्त - ( जीवन मुफ्त ) अवस्था प्राप्त हो नहीं सकती है । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ andha l ॥ १५१ सिद्धावस्था-- अविह कम्मबियला गिट्टिय कज्जा प टु ससारा । दिढ सयालत्थ सारा सिद्धा सिखि मम विसतु ।। १ ।। (ति. प. ! पृ. १) जो आठ प्रकारके कर्मों में विकल अर्थात् रहित है, करने योग्य कर्मोको कर चुके है अर्थात् कृतकृत्य हैं, जिनका जन्म-मरण रूप संसार नष्ट हो चुका है और जिन्हों ने सम्पूर्ण पदार्थों के मार को देख लिया है, अर्थात् जो सर्वज्ञ है ऐमे मिद्ध परमेष्ठि मेरे लिये सिद्धि प्रदान करे। णिरूवमरूवा गिट्टिय कज्जा गिच्चा णिरंजणा णिरूना । हिम्मल बोधा सिद्धा णिरुवं जागति हु एक्कसमएणं ॥ १७ । ( ति, प. अध्या . ९ । पृ. ८७५ } अनुमस स्वरूप से संयवत, कृतकृत्य, नित्य, निरंजन, निरोग, और निर्मल बोध से युक्त सिद्ध एक ही समय में समस्त पदार्थों को सबंव जानते हैं। जामोपादानसिद्ध स्वयमतिशयवीत धार्थ विशालं । वृद्धि न्हारा व्यपेत विषय बिराहितं निःप्रतिद्वन्द्व भायम् । अन्यद्रव्यानपेक्ष निरूपमममितं शाश्वतं सर्व कालम् । उत्कृष्टानन्त सारं परम सुखमत्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥ १७ ॥ ( सि. भक्ति । पृष्ठ ) सिद्ध भगवान का अलौकिक परमसुख आत्मा से ही उत्पन्न स्वध अतिशय सहित, संपूर्ण बाधाओ से रहित, विशाल, विस्तीर्ण, वृद्धि-झरा से रहित, संसारिक सुख से रहित, प्रतिद्वन्द्र से रहित, परद्रव्य निरपेक्ष उपमातीत अपरिमित, शाश्वतिक सर्वकाल स्थायी, परमोत्कर्णको प्राप्त अनन्त सार सहित महात्म्य से सहित है। उपसंहार--- अनादि काल से जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में कर्म कि तीव्रतासे Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ · अत्यन्त अशुभ या अशुभ भावों में रहते हुये अत्यन्त दारू दुःखोंण को देनेवाले आतं रौद्र ध्यान करता है । इस अत्यन्त आत्म पतनरूप निम्न श्रेणीय अवस्था में यह जीव द्रव्य तत्वादि के स्वभाव के बारे में अपरिचित रहता है । उस समय आत्म जागृति नहीं होती हैं । परत्तु सुप्तवस्था रहती है परन्तु जब कभी अंतरंग - बहिरंग समस्त कारणों के सद्भाव होनेपर सद्गुरूका उद्बोधन प्राप्त करके चिर मोह निद्रा से जागृत होकर स्वयं को, गुरू को, विश्व को, सत्य को तत्व को दर्शन करता है | ( सम्यग्दर्शन प्राप्ति ) आनंदामृत स्वरूप स्वयं के स्वरूप को प्राप्त करने कि भावना होनेपर भी गमन करने का अनाश्यास होने के कारण आगे गमन अर्थात चारित्र स्वरूप अपना अत्थान नहीं कर पाता है। जिस प्रकार नवजात शिशु गमन करने कि इच्छा होने पर भी आगे गमन नही कर पाता है। उससे वह असमर्थ यात्री ( असंयत सम्यग्दृष्टि ) अन्तरंग में बहुत ही दुःख हो जाता है। जब वह मार्ग के विषय में परिचय प्राप्त करके अल्प शक्ति संचय करता है, तब वह मंद गति से गमण करना प्रारंभ करता है। पूर्व अनभ्यास के कारण, अपरिचित यात्री होने के कारण, शक्ति कम होने के कारण समर्थ मार्ग जानने वाले पथिक- अहितादिओंका आलम्बन लेता है, लेना ही होता हैं। उनसे प्रेम-अनुराग रखता है । विशेष मागं परिचय प्राप्त करता है | उन्हीं के निर्देशन के अनुसार उन्हीं के पीछे पीछे, धीरे धीरे चलता है । 44 " नहि कृतमुपकार साधव विश्मरन्ति । स्याय के अनुसार उन्हीं की सेवा, भक्ति, वन्दना करता हूँ इससे उसकी आत्मा कृतज्ञता के कारण रोमांच हो उठतो है। मार्ग पर स्वयं आरूढ यती भी उसकी धमं प्रीति वात्सल्य को देखकर जानकर उस भव्यात्मा को आगे बढ़ने का चारित्र पर आरुढ होने का प्रोत्साहन देते है । आज तक जितने भी अनंत सुख को को प्राप्त कर चुके वे सभी चारित्र पर आरुढ होकर ही कोई बिना चारित्र के आत्मीक सुख की बांधा करता है, आत्मिक सुख हुये है । यदि वह स्वयं को Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोका दे रहा है । दीर्घ संसारी है, अनंत दुःख को भोगने वाला है। जो वास्तविक संसार के दुःखो से संवेग-वैराग्य को प्राप्त हुआ है। संसार के दुःखों को हेय त्याज्य समझा है। वास्तविक सुख चाहता है। बह निश्चित चारित्र, जो व्यवहार निश्चयात्म है उरो धारण करेगा । घारक पुरुषों में अनुराग करेगा । उन्हें प्रोत्साहन देगा । जिससे वह अल्प चारित्रधारी धर्मोत्मा यती बरों के सम्मग्दृष्टि वरोके सान्त्वना, सहाय, मार्गदर्शन पाकर उसकी आत्मिक शक्ति बढ़ती जाती है। धीरे-धीरे गमन करते हुए जब आत्म शक्ति बढती जाती एवंकुछ अभ्यास के कारण उन यात्रीओं के स्वरूप को धारण करके उनके साथ गमन करने का प्रयास करता है। अर्थात वह देशवृत्ती-देश चारित्र धारी यथाजात रूप को धारण करने वाले सकल महावत का परिपालन करने वाले मुनियों के साथ गमन करते हुये अनेक वन, नदी पर्वत, कान्तार को उपसर्ग-परिषहों को सहते हुए पार करते हुये आगे बढ़ते जाते है। वह जानता है, मानता है कि रास्ता, लक्ष नहीं ( मोक्ष नहीं ) तो भी उन सब साधन के बिना साध्यरूप स्वरूपमंजिल पर पहूंचा नहीं जा सकता। अतःएवं उन्हीं का अवलम्बन लेना अनिवार्य है । आज नही कल इस भव में नहीं दुसरे भव म अवलम्बन तो लेना ही होगा। कोई औषध सेवन किये बिना रोग ठीक होता है ऐसा कहते हुये साधनरूप बाह्य उपचारों का लोप ही करे तो मूर्खता शिवाय दूसरा क्या कहा जाय ? अतः साध्य कि सिद्धि के लिये सम्यक् साधन-बाह्य-अभ्यन्तर सामग्री आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। परन्तु वह गमन ( साधन ) रूप क्रिया भी स्वस्वरूप नहीं है। परन्तु जितना-जितना गमन होगा उतना-उतना लक्ष्य ( मंजिल ) समीप होगा । गमन करते-करते अर्थात् चारित्र पालन करते हुये आगे बढ़ेगें तब स्वयं ही पीछे का रास्ता छुढता जाता है । अर्थात् विकल्प अवस्था में करने योग्य क्रियाये स्वयं ही गौण हो जाते है,। जब वह पथिक लक्ष्य भूत स्वस्वरूप में पहूँच जाता है तब वह यात्रीक ज्ञानबन्द रूप अमृत में लीन होकर गमनागमन, रूप समस्त Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प-विकल्प से रहित होकर निर्विकल्प रूप स्वस्वरूप में शाश्वतिक अवस्थान करता है। शाश्वत धाम को प्राप्त करता है। वहाँ पर न रास्ता है, न गमन है, न गमन का कारण है। वह स्वयं अब साध्य-साधक के विचारों से कर्ता-हता पन से परे होकर कृतवात्त्य हो जाता है। स्वात्मोत्थ, निराबाध, अतीन्द्रिय सहज ज्ञानामतपान में सदा के लिये लीन हो जाता है। उस परम कृतकृत्य, ज्ञानामृतमय, अलौकिक, अपुनरागम पथ के पथिक को अनन्तानन्त त्रिकरण शुद्धिपूर्वक नमोऽस्तु । "वन्वे तद् गुण लब्धये " जयतु अपुनरागमस्य पथः ॥ जयतु अपुनरागमस्य पाक्षिकः ॥ जयतु अपुनरागम स्वरूपः ॥ मंगलं भगवान जिनः मंगलं श्री जिमवाणी । मंगलं आत्मसापक: मोक्षमार्गस्तु मंगलम ॥१॥ मंगलं देवादिवीर: भंगलं कुन्थुसरगरः । मंगलं चिन्मयरूप: जीवधर्मस्तु मंगलम् ।। २ ॥ जैन धर्मस्तु मंगलम् ।। वस्तु धर्मस्तु मंगलम् ॥ आत्म धर्मस्तु मंगलम् ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . A. ॐ श्री नीतगंगाय नम श्राचार्यवर्य श्री देवमेन विरचित -भाव-संग्रह भ्रमरना. गरम्बनी दिवाकर, पं. लालाराम मात्री द्वारा निर्मित हिन्दी भाषा टीका सहित - मंगलाचरण ) धन्दे शान्तिजिनेन्द्र श्रीजिनभक्तं 'समन्तभन' च । बन्दै शान्तिपयोधि रत्नत्रयलब्धये भक्त्या ।। में लालाराम शान्त्री रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए भक्तिपूर्वक श्रीशालिनाथ जिनेन्द्रदेव को वन्दना करता हूँ, परम जिनभक्त श्री ममन्तभद्रभ्यामी को बन्दना करता हूँ और आचार्यश्री शांन्तिसागर की वन्दना करता हूं। आचार्य विरचित-मंगलाचरण और प्रतिज्ञा पणमिय सुरसेणणुयं मुणिगणहरवंदियं महावीरं । वोच्छामि भावसंगह मिणमो भयप्पवोही ॥१॥ प्रणम्य सुरसेननुतं मुनिगणधरवन्दितं महावीरम् । वक्ष्ये भावसंग्रहमेतं भव्यप्रबोधनार्थम् ॥१॥ अर्थ- जो महावीर स्वामी आचार्य श्री देवसेन के द्वारा बन्दनीय Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह हैं तथा मुनि और गणधर देवों के द्वारा बन्दनीय हैं एने थी महावीर स्वामी को नमस्कार कर मैं (आचार्य श्रीदेवसेन) भव्य जीवों को आत्म ज्ञान प्राप्त करनेके लिये इस भाव संबह ग्रंथत्री रचना करता हूँ :: ।। जीवस्स हुंति भावा जीवा पुण दुबिह भेयसंजुत्ता। मुक्ता पुण संसारी, मुक्ता सिद्धा गिरवलेबा ॥ २ ॥ जीवस्य भवन्ति भावा, जोवाः पुद्विबिधभेदसंयुक्ताः । मुक्ता पुनः संसारिणो, मुक्ताः सिद्धा निरवलेपाः ॥ २ ॥ अर्थ- भाव सब जीवों के ही होते हैं अन्य अजीवादिक पदार्थोक भाव नहीं होते। तथा समस्त जीवों के दो भव है :-एक बात और दुसरे संसारी । जो जीव राग द्वेष मोह आदि समस्त विकास रहित है और समस्त कमांस राहत हैं एसे सिद्ध परमेष्ठी को मस्त जीव कहते लोयग्मसिहरबासी केवलणाणेण मणिय तइलोया । असरोरा गइरहिया सुणिच्चला सुखभावढा ॥ ३ ॥ लोकानशिखरवासिनः केवलज्ञानेन ज्ञातत्रिलोकाः । अशरोरा गतिरहिताः सुनिश्चलाः शुद्धभावस्थाः ।। ३ ।। अर्थ- वे सिद्ध परमेष्ठी बा मुक्त जीव लोक शिखरपर विराजमान हैं। अपने केवलज्ञान के द्वारा तीनों लोकों को एक ही सयमम साक्षात देखते और जानते हैं। तथा वे सिद्ध परमष्टीशनर रहिन हैं, चारों गतियों के परिभ्रमणसे रहित है, चारो गतियो में से किसी गतिमें भी नहीं है. अत्यन्त निश्चल है और अपने आत्मा के शुद्ध भावों में सदा लीन रहते है ।। ३ ।। जे संसारी जीवा चउगइपज्जायपरिणया णिज्च । ते परिणामे गिणबि सुहासुहे कम्भसंगहणे ।। ४ ।। ये संसारिणे । जीवाश्चतुर्गतिपर्यायपरिणता नित्यम् । ते परिणामान् गृहन्ति शुभाशुभान कर्म-संग्रहणे ।। ४ !! Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ___अर्थ- जो जीव सदा काल चारों गतियों की पर्यायों में परिणत होते रहते हैं ऐसे जीत्रों को संसारी जीव कहते हैं । तथा ऐसे संसारी जीव कर्मोंका का संग्रह करने के लिए शुभ अशुभ दोनों प्रकारके कर्मों को ग्रहण करते रहते है। भावार्थ- देवगति, मनुष्यगति, तिर्यश्चगति और नरकगति ये चार गतियां है । जो जीव इन चारों गतियों में परिभ्रमण करते रहने है वे जीव संसारी कहलाते हैं और ऐसे जीवों के शुभ परिणाम बा अशुभ परिणाम होते ही रहते है। उन्हीं शुभ या अशुभ परिणामों से समस्त कर्मों का संग्रह होता रहता है ।। ४ ।। भावेण कुणइ पाचं पृगणं भाग तहत मुक्खं बा । इयमंतर पाऊणं जं सेयं तं समायरहं ॥ ५ ॥ भावेन करोति पापं पुण्यं भावेन तथा च मोक्षं वा । इत्यन्तरं ज्ञात्वा यच्छयस्त समाचरत ॥ ५ ॥ अर्थ- यह जीत्र अगले ही परिणामों से पाप उपार्जन करता है, अपने ही परिणाम से पुण्य उपार्जन करता है और अपने ही परिणामों में मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार अपने ही परिणामों में इतना भारी अन्तर समझकर हे भव्यजीब ! आत्मा के जो परिणाम आत्माका कल्याण करनेवाले हों उन्हीं परिणामों का तु आश्रय ले । भावार्थ- शुभ अशुभ वा शुद्ध भाव अपने आधीन है । यह जीत्र किसी जीव को मारने के भाव भी कर सकता है और उसके बचाने के भी भाव उत्पन्न कर सकता है। दोनों प्रकारके भाव उत्पन्न करना उसीके आधीन है। तथा आत्मा का कल्याण जीवों की रक्षा करने गे होता है और उनके मारने के परिणामों में पाप होता है । यही समझकर जीवों को अशुभ भावों का-पापरूप भावों का त्याग कर देना चाहिय और शुभ भावों को धारण करना चाहिये । देखो-हिसा झूट चोरी कुशील और परिग्रह ये पांच पाप कहलाते है । इन्हीं पापोंके करने यह जीव नरक जाता है। परन्तु स्वयंभ रमण समुद्र में उत्पन्न होनेवाला Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह नन्दुल मत्स्य इन पांचों पापोंमें से कोई पाप नहीं करता परन्तु जीवों के हिसा करने के भाव करता रहता है। उन भावोंके ही कारण वह मातो. नरक जाता है । यही समझकर अपने भाब वा परिणाम सदा संभालते रहना चाहिए। पात्रों पापों के करने के भाव कभी नहीं करने चाहिए। पाप कर्म ना 'पुण्यकर्मों का होता है । इसलिए संसारी जोवों को नरकादिके दुःखों मे बचने के लिए पाप रूप अशुभ भावोंका त्याग करना ही आत्मा का कल्याण करनेवाला है। सेवो सुद्धो भावो तस्सुवलं भोप होइ गुणठाणे । पणदहपमादरहिए सयलवि चारित्तजुत्तस्स || ६ || सेव्यः शुद्धो भावः तस्योपलंभश्च भवति, गुणस्थाने । पंचदशप्रमावरहिते सकलस्यापि चारित्रयुक्तस्य || ६ || अर्थ- इन तीनों प्रकारके भावों में शुद्ध भाव ही सेव्य है, कारण करने योग्य है । तथा उस शुद्ध माद की प्राप्ति सकाल चारित्र को धारण करने वाले महामनियों के पन्द्रह 'प्रमादों से रहित हो सातवें अप्रमत्त गुगस्थान में होती है। भावार्थ- अशुभ भावतो त्याग करने योग्य है ही परन्तु शुभ भाव' भी त्याग करने योग्य है। क्योंकि जिस प्रकार अशुभ भावों से नरकादि दुर्गतियों का बन्ध्र होता है । उसी प्रकार शुभभावों से देवादि शुभ गतियों का बन्ध होता है । इस प्रकार शुभ अशुभ दोनों ही कर्म वन्ध करनेवाले हैं। केवल शुद्धभाव ही वार्मबन्धन मे लाकर मोक्षकी प्राप्ति कराने वाला है। इसलिए शुद्धभाव ही उपादेय और आत्माका कल्याण करने वाला है। शेष शुभ और अशुभ भाव दोनों ही त्याज्य है। वह शुद्ध भाव श्रेणी आरोहण करने वाले महामुनियों के ही होता है । शुद्ध भावों को धारण करने वाले निर्ग्रन्य प्रहामुनि ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। इसलिये कहना चाहिये कि मोशका कारण निर्घन्धलिंग ही है । अन्य किसी अवस्थासे मोक्षकी प्राति नहीं हो सकती। सेसर जे बे भावा सुहासुहा पुष्णपाय संजयणया । ते पचभाव मिस्सा होति गुणट्ठाणमासेज्ज ॥ ७ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह शेष यौ द्वौ भावी शुभाशुभ पुण्यपापसंजनको । तौ पंचभावमिश्रौ भवतो गुणस्थानमाश्रित्य || ७ अर्थ- शुद्धभावों को छोडकर शेष जो शुभ अशुभ भाव है वे दोनों ही पुण्य पापों को उत्पन्न करनेवाले है । तथा वे दोनों ही शुभ अशुभ भात्र औदयिक आदि पांचों भावों से मिलकर गुणस्थानों के आश्रयसे रहते है || ७ || अउवइउ परिणामउ लय उवसमिउ तहा उवसमो खइओ । एए पंच पहाणा भाषा जीवाण होंति जियलोए ।। ८ ।। औवयिकः पारिणामिकः क्षायोपशमिकस्तथौ पशमिकः क्षायिकः एते पंच प्रधाना भावा जीवानां भवन्ति जीवलोक ।। ८ । अर्थ- औदयिक, पारिणामिक क्षायोपशमिक, औपशमिक और कि ये पांच भाव समस्त जीवों के प्रधान वा मुख्य भाव कहलाते है । भावार्थ - ये पांच भाव मुख्य है। इन्हीं पांचो भावों में जब अशुभ शुभ शुद्ध भाव मिल जाते है तब गुणस्थानों की रचना वन जाती है ॥ ८ ॥ तेचिय पज्जाय गया चउदहगुणठाण णामगा भणिया । लहिऊण उदय उवसम खयउयमस खउ हु कम्मस || ९ || ते चैव पर्यागताश्चतुर्दशगुणस्थाननामका भणिताः । लब्ध्वा उदयमुपशमं क्षयोपशमं क्षयं हि कर्मणः ॥ ९ ॥ अर्थ- वे शुभ अशुभ और शुद्धभाव ही कर्मों के उदय होने पर उपशम होने पर, क्षयोपशम होने पर, वा क्षय होनेपर अनेक प्रकारकी को प्राप्त होजाते है और उन भावों की वे पर्यायें ही चौदह गुणस्थानों के नामसे कही जाती है । भावार्थ- कर्मों के उदय होने से औदयिक भाव होते है, कर्मों के उपशम होने से औपशमिकभाव होते हैं' कर्मके क्षयोपशम होनेसे क्षायोपशमिकभाव होते है, और कर्मोके क्षय होनेसे क्षायिक भाव होते है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मंत्रह इन्हीं भावोंमें शुम अशभ शुद्ध भाव मिलने से चौदह गुणस्थान वन जाते है। मिच्छो सासण मिस्सो अविरियसम्मो य देसबिरदो य । विरओ पमत्त इयरी अपुष्व अणियत्ति सुहमो य || १० ॥ उवसन्त खीणमोहो सजोइकेवलिजिणो अजोगी य । ए चउदस गुणठाणा कमेण सिद्धा य णायब्वा ।। १० । मिथ्यात्वं सासादनं मिश्र अविरतसम्यक्त्वं च देशविरतं च । विरतं प्रमत्तं इतरदपूर्वमनिवृत्ति सुक्ष्मं च ।। ११ ।। उपशान्तक्षीणमोहे सयोग केवलि जिने । अयोगो च । एतानि चतुर्दश गुणस्थानानि क्रमेण सिद्धाश्च ज्ञातव्याः ।११। [ अर्थ- मिथ्यात्व गणस्थान १ सासादन गुणस्थान २ मिश्र गणस्थान ३ अविरत सम्हदृष्टि गुणस्थान ४ देशविरत अथवा विरत विरत गुणस्थान ५ प्रमत्त विरत ६ इतर अर्थात् अप्रमत्त विरत ७ अपूर्व करण गुणस्थान ८ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान । ९ सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान १० उपशान्तमोह गुणस्थान ११ क्षीणमोह गुणस्थान १२ सयोगि केवली गुणस्थान १३ अयोगि केवली गुणस्थान १४ ये अनुक्रमसे चौदह गुणस्थान कहलाते है । जो जीव समस्त कर्मों को नष्ट कर इनमे पार हो जाते हैं उनको सिद्ध वा मुक्त समझना चाहिये । अब आगे अनुक्रमसे इन्ही गुणस्थानों का स्वरूप कहते है । मिच्छत्तस्सुदएण य जीवे सम्भवइ उदइयो भावो । तेण य मिच्छादिट्टी ठाणं पावेइ सो तइया || १२ ।। मिथ्यात्वस्योदयेन च जोवे संभवति औदयिको भावः । तेन च मिथ्यावृष्टिस्थान प्राप्नोति स तत्र ॥ १२ ।। अर्थ- मिथ्यात्व कर्म के उदय से इस जीवके औदयिकभाव प्रगट होते है । तथा मिथ्यात्व कर्म के उदय होनेसे प्रगट हुए औदयिक भावों से इस जीवके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह भावार्थ- आठ कम एक मोहनीय कर्म है जो सब कर्मों में प्रवल है। उसके अट्ठाईस भेद है । मोहनीय कर्मके मूलमें दो भेद है - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैमिथ्यात्व सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व इसी प्रकार चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद है । अनन्तानुवन्धी क्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध भान माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ संज्वलन क्रोध मान माया लोभ । हास्य, रति, अरति शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद पुंबेद, नपुंसकवेद । अनादि मिथ्थादृष्टि जीव के दर्शन मोहनीय का एक मिथ्यात्व कर्म का उदय रहता है, तथा सादि मिथ्यादष्टी के तीनों दर्शन मोहनीय कर्मों का उदय रहता है । इसका भी कारण यह है कि प्रथम औपमिक सम्यक्त्व होने के समय ही मिथ्यात्व कर्म तीन भागों में बट जाता है। इसके पहले वह एक मिथ्यात्व कप ही रहता है । इसलिये अनादि मिथ्यादृष्टी जीव के मिथ्या कर्म का उदय रहता है और उस मिथ्यात्व कर्म के उदय से पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । आग उस मिथ्यात्व कर्म के उदय से कैसे गाव होते है सो दिखलाते मिच्छत्तरस पत्तो जोधो विवरोय दंसणो होई । ण मुणइ यिंच अहियं पित्तज्जुरजुओ जहा पुरिसो ॥ १३ ॥ मिथ्यात्वरसप्रयुक्तो जीवो विपरीतदर्शनो भवति । न जानाति हितं चाहित पित्तज्वरयुक्तो यथा पुरुषः ।। १३ ।। अर्थ-- उस मिथ्यात्व कर्म 'के उदय होने से यह जीव विपरीत दृष्टी हो जाता है और पित्तज्वर वाले पुरुष के समान अपने हित अहित को नहीं जान सकता । कडवं मण्णइ महुर महुरं पि य तं भणेइ अइ कडुयं । तह मिच्छत्तपत्तो उत्तमधम्म ण रोचेई ॥ १४ ॥ कटुकं मन्यते मधुर मधुरमपि च तद् भणति अतिकटुकम् । तथा मिथ्यात्वप्रवृत्तः उत्तमधर्माय न रोचते ॥ १४ ।। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ - जिस प्रकार पिनज्वर वाला पुरुष व पदार्थ को मीठा कहता है और मीठे पदार्थ को कड़वा कहता है. इसी प्रकार मिथ्यात्व में प्रवृत्त हुआ यह जीत उत्तम वर्ष में नहीं करता: भावार्थ- यहां पर दर्शन अथवा दृष्टि ग्रह का अर्थ श्रद्धान करना है | श्रद्धान दो प्रकार का होता है-एक सम्यक श्रद्धान और दुसरा मिथ्या श्रद्धान 1 सम्यक् श्रद्धान आत्मा का एक गुण है जो मिथ्यात्व कर्म के उदय से विपरीत हो जाता है। इसी को मिथ्या श्रद्धान कहते है । जिस प्रकार पित्तज्वर वाले पुरुष को मोटा पदार्थ भी कडवा लगता है उसी प्रकार मिथ्यात्व कम के उदय से यह जीव यथार्थ धर्म में रुचि वा श्रद्धान नहीं करता और इसीलिये ही वह अपने आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता ! यही बात आगे दिखलाते हैं :– महरामोहेण मोहियो संतो । जड़ काय मज्ज को ण णय कज्जाकज्जं मिच्छादिट्टी तहा जीवो ॥ १५ ॥ यथा कनकमद्यकोद्रवमधुरमोहेन मोहितः सन् । न जानाति कार्याकार्यं मिथ्यादृष्टिस्तथा जीवः ।। १५ ।। अर्थ- जिस प्रकार धतूरा मद्य और कोदों की मधुरता के मोह से मोहित हुआ यह जीव कार्य अकार्य को नहीं जानता, अपना हित नहीं पहचानता उसी प्रकार मिथ्यादृष्टी जीव भी मिथ्यात्व कर्म के उदय से अपना हित अहित वा कार्य अकार्य नहीं जान सकता । विपरीत श्रद्धान होने के कारण वह अपने आत्मा का स्वरूप अथवा समस्त तत्त्वों का स्वरूप विपरीत ही समझता है और इसीलिये वह अपने आत्मा का अहित ही करता रहता है । आगे उसी मिथ्यात्व के भेद बतलाते हैं । तंपि हु पंखापयारं वियरो एयंतविणयसंजुत्तं । संसय अष्णाणमयं विवरीओ होइ पुण बंभो ॥ १६ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह तदपि हि पंचप्रकार विपरीतं एकान्तविनयसंयुक्तम् । संशयाज्ञानगत विपरीतो भवति पुनः ब्राह्मः ।। १६ ।। अर्थ- वह मिथ्यात्व पांच प्रकार है-बिपरीत मिथ्यात्व, एकान्त मिथ्यात्व, विनय मिथ्यात्न, मनय मिथ्यात्वं, अशागारा वा अज्ञान मिथ्यात्व । इन पांचो प्रयार के मिथ्यात्वा में में ब्राह्म मत विपरीत मिथ्याल है। माणइ जलेण सुद्धि तित्ति मंसेण पिसरवग्गस्स । पसुकयवहेण साग धम्मं गोजोणिफासेण ॥ १७ ॥ मन्यते जलेन शुद्धि तृप्ति मांसेन पितृवर्गस्य । पशकृतवधेन स्वर्ग धर्म भोयोनिस्पर्शनेन ।। १७ ।। अर्थ- जो लोग जल स्नान से आत्माकी शद्धि मानते हैं, मांस भअण से पितृवर्ग की तृप्ति मानते है, पशुओं का वध करने वा पशुओं का होम करने में स्वर्ग की प्राप्ति मानते हैं और गाय की योनि का म्पर्श करने मे धर्म की प्राप्ति मानते हैं. इन सब में धर्म को विपरीतता किम प्रकार है वह सब आगे दिखलावेंगे ।। १७ ॥ आगे जल से आत्मा की शुद्धि मानने वालों के लिये कहते हैं जइ जलण्हाणपउत्ता जीवा मुच्चेइ णिययपावेण । तो तत्थ बसिय जलयरा सम्ये पार्वति विवलोयं ॥ १८ ।। यदि जलस्थानप्रवृत्ता जीवा मुच्यन्ते निजपापेन । तहि तत्र वसन्तो जलचराः सर्वे प्राप्नुवन्ति छिलोकम् । १८ । अर्थ- यदि जल स्नान करने से ही वे जीव अपने पापोंसे छुट जाते हो तो जल में ही निवास करने वाले समस्त जलचर जीवों को स्वर्ग की प्राप्ति अवश्य हो जानी चाहिये । भावार्थ- स्वर्ग की प्राप्ति पापों के नाश हो जाने से होती है । तीर्थ स्नान करने से पापों का नाश नहीं होता, पापों का नाश तो जप तप ध्यान से होता है । जिस तीर्थ स्नान से लोग स्वर्गप्राप्ति मानते हैं उसी तीर्थ में अरबों खरबों मत्स्य Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह मछली, मगर, कच्छप, आदि जलचर जीव रहते हैं और वे सब एक दूसरे का भक्षण करते रहते है और इस प्रकार दे महा पाप उपार्जन करते रहते है । यदि तीर्थ स्नान से ही पापों को निवृत्ति मानी जाय तो प्रतिक्षण महापाप उपार्जन करने वाले उन समस्त जलचरों को स्वर्ग की प्राति हो जानी चाहिये परंतु यह असंभव बात है । इसलिये जल स्नान से पापों की शुद्धि मानना विपरीत श्रद्धान है । हमने फर्रुखाबाद में स्वयं देखा है कि कितने ही लोग गंगा स्नान कर उसी गंगा के किनारे गोमुखी में माला डालकर जप करते हैं और मछली मारने के लिये एक एक वंशी भी डाल देते हैं । इस प्रकार तीर्थ स्नान और जप करते हुए भी मछली मारने का महापाप उत्पन्न करते रहते हैं । यह सब उनका विपरीत धर्म है। आग-तीर्थ स्नान से पाप नष्ट क्यों नहीं होते यही वान दिखलाते हैं। जं कम्मं दिढवद्धं जीव पएसेहि तिविहजोएण । तं जलफासणिमित्ते कह फहहि तिथल्हाणेण || १९ ॥ यत्कर्म दृढवद्ध जीवप्रदेशस्त्रिविधयोगेन्न । तज्जलस्पर्शनिमित्ते कथं स्फुटति तोर्थस्नानेन ।। १९ ॥ अर्थ- जो कर्म मन वचन काय के योग से जीब के प्रदेशों के साथ दृढतारे बंधे हुए है वे कर्म तीर्थ-स्नान करने मात्र से केवल जल का स्पर्श करने से कैसे छूट सकते हैं ? भावार्थ- कर्मों का बंध योग और कषायों के निमित्त से होता है । इसलिये वह योगों का निग्रह करने से और कषायों का त्याग करने से ही छूट सकता है केवल जल के स्पर्श करने मात्र से वे कर्म कभी नहीं छूट सकते । कर्म के प्रदेश और कर्म सहित आत्मा के प्रदेश अत्यंत सूक्ष्म है। इससिय जल का स्पर्श वहांतक पहुंच ही नहीं सहता । फिर भला उस जल से आत्मा की शुद्धि कैसे हो सकती है ? कभी नही हो सकती। आग इसी बातको दिखलाते हैं । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह मणि देहो विं देही पुण णिम्मलो समा रुवी । को इह जलेण सुजाद तम्हा व्हाण नहि सुद्धी ॥ २० ॥ मलिनं देहं नित्यं देहो पुनः निर्मलः सदाऽरूपी । क इह जलेन शुद्धयति तस्मात् स्वानेन न हि शुद्धिः ।। २० ।। अर्थ - यह शरीर मल मूत्र से भरा हुआ है, रजोवीर्य से उत्पन्न हुआ है और रुधिर मांस आदि घृणित वस्तुमय है । इसलिये वह सदा मलिन ही रहता है। तथा इस शरीर में रहने वाला आत्मा सदा निर्मल रहता है और वह सदा अरूपी ही रहता है । ऐसी अवस्था में विचार करना चाहिये कि इस तीर्थ जल से किसकी शुद्धि होती है । आत्मा अरूपी है, इसलिये उसकी शुद्धि तो हो नहीं सकती तथा रुधिर मांस मय यह सरीर सदा अशुद्ध हो रहता है इसलिये वह भी शुद्धि नहीं हो सकता । इस प्रकार जल से आत्मा की शुद्धि कभी नहीं हो सकती । x गीता में लिखा है । अत्यंत मलिनो देहो देही चात्यंतनिर्मलः । उभयोरंतर दृष्ट्वा कस्य शौचं विधीयते || ११ अर्थ- शरीर अत्यंत मलिन है और आत्मा अत्यंत निर्मल है । आत्मा और शरीर इन दोनों में महान अंतर है। फिर भला तीर्थ स्नान से किसकी शुद्धि हो सकती है अर्थात् किसी की नहीं । और भी लिखा है - चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानंन शुद्धयति । शतशोपि जलधात मद्यभांडमिवाशुचि ॥ अर्थ- यह चित्त अंतरंग में अत्यंत दृष्ट है इसलिये वह तीर्थ स्तान से कभी शुद्ध नहीं हो सकता जिस प्रकार मद्य से भरा हुआ घडा सदा अशुद्ध ही रहता है यदि उसे सौ सौ बार जलसे धोया जायतो भी यह कभी शुद्ध नहीं हो सकता । इसी प्रकार यह मलिन हृदय तीर्थ स्नान से कभी शुद्ध नहीं हो सका । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अरण्ये निर्जले देशेऽशुचित्वाद् ब्राह्मणो मृतः । वेदवेदांगतत्वज्ञः कां गति स गमिष्यति ।। यद्यसौ नरकं याति वेदाः सत्र निरर्थकाः । अथस्वर्गमवाप्नोति जलशौचं निरर्थकम् ।। आग आत्मा की शुद्धि किस प्रकार होती है यही बात दिखलाते मुनाइ जीवो तवसा इंदियखल णिग्गहेण परमेण । रयणतयसंजुस्तो जह कणयं अग्गिजोएण ।। २१ ॥ शुवधति जीवस्तपसा इन्द्रियखल निग्रहेन परमेण | रत्नत्रय संयुक्तो यथा कनक अग्नियोगेन ॥ २१ ॥ -............. .--.. -.--- अर्थ- वेद वेदांग को जाननेगाला कोई एक ब्राह्मण कमी जल रहित वन में अथवा जल रहित किसी देश में पहुँच गया और वहां पर वह विना जल शद्धि किये ही मरगया। अव बतलाइये वह विस गति को प्राप्त होगा । यदि वह विना शद्धि के कारण नरक गति को प्राप्त होगा तो उसके सब वेद निरर्थक हो जाते हैं । उसने जो समस्त वेद वेदांग पड़े हैं उनका पढना जानना सब निष्फल हो जाता है। यदि वह वेद वेदांग पहने के कारण म्वर्ग को जाता है तो फिर जल शुद्धि व्यर्थ हो जाती है । इससे सिद्ध होता है कि आत्मा की शुद्धि जल से कमी नहीं हो सकती। आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा मत्यावहा शीलतटा घोमिः । तत्राभिषेक कृरु पाजुपुत्र न वारिणा शुद्धचति चान्तरात्मा ।। अर्थ- हे अर्जुन वह शुद्ध आत्मा एक नदी है जो संयम रूपी जल से भरी हुई है, सत्य वचन ही इसके प्रवाह हैं, शील पालन करना ही इसके किनारे हैं और दया करना ही इसकी लहरें हैं । हे अर्जुन तू ऐसी शुद्ध आत्मा में लीन हो तभी इस आत्मा की पूर्ण शुद्धि हो सकती है। - .- --..- अर्थ- जिस प्रकार अग्नि के संयोग से सोना शुद्ध हो जाता है : Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह उसी प्रकार यह रत्नत्रय मे मुशोभित होने वाला आत्मा तपश्चरण मे तथा इन दृष्ट इंद्रियों का परम निग्रह करने में ही शुद्ध होता है । यह अंतरात्मा जाल से कभी शुद्ध नहीं हो सकता। चित्तं समाधिमिः शुद्धं बदनं सत्यभाषणः । अम्हचर्यादिभिः काया: शुद्धो गंगा बिनापि सः ॥ ममाधि वा ध्यान धारणा करने से चित्त शुद्ध होता है, सत्य भाषण से मुख शुद्ध होता है और ब्रम्हचर्य आदि से शरीर शुद्ध होता है । इस प्रकार वे सव बिना गंगा स्नान के ही शुद्ध हो जाता है । कामरागमदोन्मत्ताः स्त्रीणां ये वावर्तिनः । न ते जलेन शुद्धयन्ति स्नात्वा तीर्थशतेरपि ।। अर्थ- जो पुरुष कामके रागसे मन्मित्त है और जो स्त्रियों के वशीभूत है से पुरुष सैकडों तीर्थों में स्नान करने पर भी उस जल मे पभो शुद्ध नहीं हो सकते । गंगातोयेन सर्वेण मद्भारैः पर्वतोपमः । आम्लरप्याचरन् शौचं भावदुष्टो न शुद्धयति ।। भावार्थ- इस आत्मा की शुद्धि रत्नत्रय से होती है इन्द्रियों का निग्रह करने से होती है और तपश्चरणा से होती है । तीर्थस्नानसे आत्मा की शुद्धि कभी नहीं हो सकती । ___ अर्थ-- जिन जीवों के भाव दुष्ट है वे पुरुष यदि समस्त गङगाके जलमे शुद्धि करे तथा अनेक पर्वतोंके समान मिट्टी के द्वेरम शुद्धि करें, उस मिट्टी को रगड 'रगडकर गङ्गाजलसे शुद्धि करें तथापि वे दुष्ट पार णामो को धारण करनेवाले पुरुष कभी शुद्ध नही हो सकते । मनो विशुद्ध पुरुषस्य तीर्थ वाचा यमरचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । एतानि तीर्थानी शरीरजानि, मोक्षस्य मार्ग परि दर्शयन्ति ।। अर्थ- पुरुषके लिये मनका विशुद्ध होना तीर्थ है वचनों का संयम धारण करना वा मौन धारण करना तीर्थ है, इन्द्रियों का निग्रह करना Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह तीर्थ है और तपश्चरणा करना तीर्थ है । य सव शरीर जन्म तीर्थ है जो जो मोक्षमार्ग की ओर संकेत करते है, मोक्षमार्ग को दिखलाते है । चित्तं रागादिभिर्दुष्टमलीकवचननर्मुखम् । जीवघातादिभिः कायस्तम्प गङ्गा पराङमुस्त्री ।। अर्थ- जिनका चित्त रागद्वेषसे दुष्ट है, जिनका मुख मिथ्या वचनों से दृष्ट है और जिनका शरीर जीवों का वध वा हिमा करने के कारण दृष्ट है ऐसे जीवों से गङगा भो प्रतिकूल रहती है। आगे तीर्थ स्नान से आत्मा को शुद्धि मानने वालों को कसा फल मिलता है यही बात दिखलाते हैं। पहाणाओ चिय सद्धि जीवा इच्छति जानेण । भमिहिति ते वराया बजरासो जोणि लक्खाइ ।। २२ ।। स्नानादेव शुद्धि जोषा इच्छन्ति ये जडत्वेन । भ्रमिष्यन्ति ते वराकाश्चतुरशीतियोनिलक्षाणि ।। २२ ।। अर्थ- जो जीव अपनी जड बुद्धिके कारण स्नान करनेमात्र से हो . आत्मा की शुद्धि मानते है वे तुच्छ पुरुष । चौरासीलाख योनियों में - परिभ्रमण करते रहते है। आगे कसे जीव कभी शुद्ध नहीं होते सो दिखलाते है : ४ चौरासीलाख योनियांणिच्चदरधादुसत्तय तस्दस विलिदियेसु छच्चेवं । मुरणरयतिरियचउरो चउदस मणुजे सदसहस्सा ॥ नित्य निगादवे सात लाख, इतरनिगोदके सात लाख, पृथिवी कायिक के सात लाख, जल कायिक के सात लाख, अग्नि कायिक के सात लाख, वायु कायिक के सात लाख, वनस्पति कायिक के दस लान्द को एन्द्रियके दो लाख, तेइन्द्रियके दो लाख, बौइन्द्रियके दो लाख, देवों के चार लाख, नारकियो के चार लाख, पंचेन्द्रिय तिर्थत्रों के चार लाख और मनुष्यों के चौदह लाख । इस प्रकार समस्त संसारी जीवों की चौरासी लाख योनियां है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माव-मंग्रह जे सियरमणासत्ता विसयपमत्ता कसायरसविसिया । एहता वि ते ण शुद्धा गियावासु बंदृता ।। २३ । ये स्त्रोरमपासक्ता विषयप्रमत्ता कषायरसयशिताः। स्तान्त अपि ते न शुखा गृहच्यापारेषु वर्तमानाः ।। २३ ॥ . अर्थ- जो जीव स्त्रियों के भोगो में सदा आसक्त रहते है, विषय भोगों में लगे रहते है और जो क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कपायों के वशीभूत रहते है ऐसे घर के व्यायार में लगे रहनेवाले पुरुष । स्नान करने मात्रसे कभी शुद्ध नहीं हो सकते । सवस्सेण ण लिसा मायापउरा य जायणसीला । कि कुणइ तेसु ण्हाणां अभंतर मयि पाषाणाम् ।। २४ ॥ सर्ववस्तुना न तप्ता माया प्रभुराश्च याचनाशीलाः । किं करोति तेषां स्नानमभ्यन्तर गृहीत पापानाम् ।। २४ ॥ अर्थ-- जिनको समस्त पदार्थों का दान दे दिया जाय तो भी जो कभी तृप्त न हो, जो सदा काल अनेक प्रकार की मायात्रारी करते रहते हो, जो सदा याचना करते रहते हो और जिन्होंने अपने आत्मामे अनेक पापों का संग्रह कर रक्स्त्रा हो ऐमे जीवों की शुद्धि के लिये मला स्नान क्या कर सकता है अर्थात् कुछ भी नहीं । भावार्थ- यद्यपि स्नान करने से अनेक जीवोंका घात होता है जलमें अनेक सूक्ष्म अस जीव रहते है बिना छने पानीसे स्नान करने से उन समस्त ब्रस जीवों का तथा जलमें रहनेवाले जल कायिक जीवों का घात हो जाता है। इसके सिवाय जिस फर्श पर वह जल गिरता है वहां भी मिट्टी जलके संयोग से अनेक जीव उत्पन्न होकर मर जाते है । इस प्रकार स्नान करने से अनेक प्रकार की हिसा होने पर भी भगवान अरहंत देव की पूजा करने के लिये और सुपात्र वा पात्रों को दान देने के लिये छने हुए पानी से स्नान करने का विधान है। गृहस्थ लोगों को ममस्त कामों मे छना हुआ पानी ही काममें लाना चाहिये । लिखा भी है " यः कुर्यात सर्व कर्माणि वस्त्रपूतेन वारिणा । स मुनिः स महासाधुः स योगी स महाव्रती ।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्रह अर्थात- जो गृहस्थ अपने सब काम छने हुए पानी में करता है वह गृहस्थ मुनी, साधु योगी महाव्रती के समान माना जाता है । इस यह वात सहन रीति से समझ में आ जाती है कि विना छने पानी में स्नान करने मे अनेक प्रकार के जीवों को हिसा होती है और हिसा होने से महा पापों का संग्रह होता है। इसलिये म्नान करने मात्र में पागों की निवृत्ती कभी नही हो सकती किंतु पापों की वृद्धि होती है । इसलिये स्नान करने मात्र से आत्मा को शुद्धि मानना तो बहुत दूर की बात है। वह तो कभी कभी नहीं हो सकती । आरो मुलता के कारण वाला। वणियमसोलजुता णिहय कसाया दयावहाजइगो व्हाणरहिया दि पुरिसा वभंचारो सपा सुद्धा ॥ २५ ॥ खतनियमशोलयुक्ता निहतकवाया दयापरा पतयः । — स्नानरहिता अपि पुरुषा ब्रम्हचारिणः सदा शुद्धा. ॥ २५ ॥ अर्थ- जो मनि पंच महा व्रत धारण करते हैं समिती गुप्ति आदि के समस्त नियम पालन करते हैं पूर्ण शीलवतों का पालन करते हैं, जिन्होंने अपने समस्त कषाय नष्ट कर दिये हैं जो सदा काल समस्त जीवों की दया पालन करने मे तत्पर रहते है और पूर्ण रीति से बिना किसी प्रकार का दोष लगाये पूर्ण ब्रम्हचर्य का पालन करते हैं ऐसे पूरुष बिना स्नान किये हो सदा शद्ध रहते है। भावार्थ- शरीर और आत्मा दोनों की शुद्धि का कारण पुरे अम्हचर्य है । यदि उसके मात्र व्रत नियम शील पालन किये जाये, आत्मा को अशुद्ध करने वाले समस्त कषायोंको नष्ट कर दिया जाय और समस्त जीवों को दया की जाय, कभी किसी जीव की हिंसा न की जाय तो फिर उस जीव के पूर्व संचित कर्म भी नष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार उस आत्मा की उत्तरोत्तर शुद्धि होती जाती है । इस प्रकार संक्षेप से स्नान के दोष बतलाये । अब आगे मांस भक्षण के दोष बतलाते है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माव-सग्रह मसेण पियरबगो पीणिज्जइ एरिसो सुई सि । लेहि मसेसं गोत्रं हणिऊण य भक्खियं णियमा ।। मांसेन पितृवर्गः तृप्यते ईदृशो श्रुतिर्येषाम् । तैरशषं गोत्रं हत्वा च भक्षिसं नियमात् ।। २६ ॥ अर्थ- जिन ब्राह्मणों के वेद और स्मृतियों में मांस भक्षण करने स पितर लोग तप्त होते हैं एमा लिखा है तथा जो लोग उन वेद और स्मृतियों को मानते हैं और उसके अनुसार चलते हैं । उनको समझना चाहिये कि वे लोग नियमसे अपने ही घरके बा गोत्रके समस्त जीवों को मारकर खा जाते हैं । -. मनुस्मृतिमें लिखा हैहा मासा मत्स्यमांसेन श्रीन् मासान् हरिणेन तु । और भ्रणथ चतुरः शाकुनेनाथपंच वै !! षण्मांश्च्छागमांसेन पार्षतेण च सप्त वै । अष्टावेणस्य मांसेन रोरवेण नवैव तु ।। दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषः । शश कूमेज मांसेन मासानेकादशैब तु । मंवत्सर तु गव्येत पयसा पायसेन च । बाधिणसस्य मांसेन तृप्तिर्वादशवार्षिकी ।। काल शाकं महाशकाः खड्ग लोहामिषं मधु । आनन्याय कल्प्यन्ते मुन्नन्यानि च सर्वशः ॥ ग्याज्ञवल्क्य मृति में भी ऐसा ही लिखा है --- यथा --- हविप्यान्नन वै मासं पायसेन तु वत्सरम्. । . मात्स्यहारिणकौरनशाकुनच्छामपार्षतैः ॥ ऐणरौरवबाराह शाशर्मासैर्यथाक्रमम् । मांसबृद्धयाभितृप्यन्ति दत्तैरिह पितामहै: ।। खङगामिषं महाशल्क मधुमुन्यन्नमेंव च । लोहामिपं महाशाकं मांसं वाधिणसष्य च ॥ यददाति गयास्थश्च सर्वमानन्त्यमश्नुते । तथा वर्षा प्रयोदश्यां मवासु च विशेषतः ।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रहः लगभग इनसे मिलने जुलते श्लोक मत्स्यपुराण अध्याय १में इलोक मंख्या तीस से पैतीस तक में है । संक्षपसे इन का अभिप्राय यह है कि मत्स्य के मांससे श्राद्ध करना अर्थात् ब्राह्मणों को श्राद्ध में मत्स्य का मांस खिलाने से पितर लोक दो महिने तक तप्त रहते हैं, हिरण के मांस रो तीन महिने तक, मेढाक मांस से चार महिने तक, पक्षियोंके मांस से पांच महिने तक, बकरी के मांस से छ: महिने तक, चितेरा मृगके मांस से सात महिने तक, पण जातिके हिरण के मांस से बाठ महिने तक. भुवारके मांस से नौ महिने तक, जंगली सुअर वा साके मांस मे दश महिने तक और खरगोश के मांस से ग्यारह महिने तक पितुर तृप्त होते हैं । गायके दूध की खीर में बारह महिने तक तृप्त होने है । वार्षीणासके मांस से बारह वर्ष तक पितर तृप्त होते हैं । गडा, महामत्स्य, कालनाक. लाल वर्ण का बकरा आदि से अनन्त तृप्ति होती है । इम प्रकार म्मुतियों में मांस खाने खिलाने का बीमत्स बर्णन है। शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है " राज्ञे वा ब्राह्मणाय वा महोज़ बा महाज वा पचेत् " अर्थात राजा वा ब्राह्मणके लिए वहा बैल बा बड़ा बकरा पकाना चाहिय । बशिष्ठम्मृतिमें भी यही बात लिखी है। आगे इस बातका समर्थन करते हैं। जे कयकम्मपत्ता सुपण हिवंती चउगई घोरे । संसारे गिण्हता संबधा सयल जीर्योह ।। २७ ।। ये कृतकर्मप्रयुक्ताः स्वजना हिण्डन्ते चतुगतिघोरे । संसारे गृह्यन्तः संबंन्धान सकलजीवः ॥ २७ ।। तिरियगई उवण्णा संपत्ता मच्छयाई जे जम्मं । हरिऊण अवरपक्ले सेसि मसेहि विविहिं ।। २८ ।। तिर्यग्गतात्पन्नाः सम्प्राप्ता मत्स्यादि ये जन्म । हत्वा अपरपझे तेषां मांसविविधः ॥ २८ ।। कुण सराहं को पियरे संसारतारणत्येण । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह सो तेसि मंसाणि य तेसि णामेण खावेइ ।। २९ ॥ करोति धाद्ध कश्चित्पितुः संसारतारणर्थम् । रूपा मांसति चलेष नाना खादयति ।। २९ ॥ अर्थ- जो अपने माता पिता भाई-बन्धु आदि मरकर अपने कर्मोके उदय के अनुगार चारों गतियों में परिभ्रमण करने फिरते हैं और इस प्रकार इस संसार में परिभ्रमण करते हुए समस्त जीवों के साथ यथा योग्य संबंध ग्रहण करते रहते हैं। उनमेमे वे माता-पिता के जीव तिर्य च गति में भी उत्पन्न होते हैं, हिरण, बकरा, मत्स्य आदि योनि में भी उत्पन्न होते हैं तथा पूर्व जन्म की उन्ही की संतान श्राद्धपक्षमें उन्ही माता-पिताओं के जीव को इस संसारसे पार करने के लिए श्राद्ध करते हैं और उस श्रद्धा में उन्ही के जीवोंको जो मरकर बकरा, मत्स्य, हिरण आदि की योनियों में उत्पन्न हुए हैं मारकर खिलाते हैं और स्वय खाने है । इस प्रकार श्राद्ध करनेवाले वे लोग अपने माता-पिताओं को स्वर्ग में पहुंचाने के लिय वा सारनेके लियं श्राद्ध करते हैं उस श्राद्धमे वे लोग उन्हीं माता-पिताओं के जीवों की माग्बार उसका मांस उन्हीं के नाम से खाते हैं वह कितने आश्चर्य की बात है ? आगे इसी वातको उदाहरण देकर बतलाते हैं बंकेण जह सताओ हरिणो हणिऊण तणिमित्तण । पइ अण सोत्तियाणं दिण्णो खद्धोसयं चैव ॥ ३० ॥ वकेन तथा स्वतातो हरिणो हत्वा तन्निमित्तेन । प्रोणयित्वा श्रोत्रियेभ्यो दत्तः भक्षितः स्वयं चैव ।। ३० ।। अर्थ- जिस प्रकार एक बकनें अपने पिता के श्राद्ध मे अपने ही पिता के जीव हरिण को मारकर श्रोत्रियों को खिलाया था और म्वयं भी खाया था । भावार्थ- एक धक नामका व्यक्ति था उसका पिता मरकर हरिण हआ था । जब उस बक में अपने पिताका श्राद्ध किया तो उस श्राद्धमें अपने पिताके जीव हरिण को ही मारकर पकाया और श्रोत्रियों खिला- . कर स्वयं भी खाया था । इस प्रकार उसने अपने पिता को तृप्त करने के लिये वा उसे तारने के लिये अपने ही पिता के जीव हरिण को मारा था और उसका मांस श्रोत्रियों को खिलाकर स्वयं ने खाया था । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आगे मांस से होने वाले श्राद्ध के दोष बतलाते है । मांसासिणो ण पत्तं मंसं ण ह होइ उत्तम दाणं । कह सो तिप्पड़ पियरो परमुहगसियाई भुजतो ॥ ३१ ॥ मांसाशिनो न पात्रं मांस न हि भवति उत्तम दानन् । कथं स तृप्यति पिता परमुखग्रसितानि भुज्जानः ।। ३१ ॥ अ.. हली का तो यह है कि नांत खाने वाले पुरुष कभी भी दान देने के पात्र नहीं माने जा सकते । दूसरी बात यह है कि मांस का दान देना कभी भी दान नहीं कहला सकता । फिर मला उसको उत्तम दान तो कह ही कसे सकते है ? तीसरी बात यह है कि दूसरे के मखमें ग्रास देकर भोजन कराने से पितरों की तृप्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् कभी नहीं हो सकती । आगे भी इमी वात को दिखलाते है अण्णम्मि भुजमाणे अग्णो जइ धाइएत्थ पच्चक्ष । तो सग्गम्मि वसंता पिवरा तित्ति खु पाति ।। ३२ ।। अन्यस्मिन भुंजमाने यदि तृप्यत्यत्र प्रत्यक्षम् । ततः स्वर्ग वसन्तः पितरस्तृप्ति खलु प्राप्नुवन्ति ।। ३२ ।। अर्थ- इस लोक में यदि किी एक को भोजन कराने से दुसर्ग मनष्य तृप्त हो जाता हो, तब ही स्वर्ग में रहने वाले पितर लोग भी तुप्त हो सकते है। भावार्थ- देवदत्त के भोजन करने से यक्ष दत्त का पेट कभी नहीं भरता । फिर भला किसी के खालेनेसे स्वर्गमें रहने वाले पित्तर लोग कैन तृप्त हो सकते है. कभी नहीं हो सकते । इसलिये श्राद्धमें पितरों को तप्त करने के लिये किसी को खिलाना बिडम्बना मात्र है. इसके मित्राय और कुछ नहीं । आगे और भी इस के दोष दिखलाते है अप सविण्णदाणे पियरा तिप्पंति चउगइ गया वि। सो जष्णहोमण्हाणं जब तव बेयाई अफियत्था ॥ ३३ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाय-संग्रह यदि पुत्रदत्तवानेन पितरः तप्यन्ति चतुति गता अपि । हि यज्ञहोमस्नान जयः तपो वेवादय अकृतार्थाः || ३३ ।। अर्ध - जो पितर लोग मरकर अपने २ कर्मके अनुसार चारों गतियों में से किसी एक गति में प्राप्त हो चुके है वे यदि पुत्र के द्वारा दिय हुए दानसे ही तृप्त हो जायं तो फिर यज्ञ, होम, स्नान जप-तप वेद आदि मब व्यर्थ हो जाते है । भावार्थ- स्वर्ग नरक आदि की प्राप्ति अपने आप किये हुए पुण्य पापसे होता है । जो स्वयं जप तप करता है, दान देता है इसे स्वर्ग की प्राप्ति होता है और हिमा झूठ चोरी आदि कयने से नरकादिक की प्राप्ति होती है । माता पिता भाई बन्धु आदि जीवों ने जैसा कर्म किया होगा उनको बैसे ही नरक स्वर्ग आदि की गति प्राप्ति हुई होगी। फिर भला पुत्र के द्वारा दिये हुए दान से उन पितरों का उद्धार कसे हो सकता है ? यदि फिरभी थोडी दरके लिय मान लिया जाय कि पूत्र के दानमे ही पितरों का उद्धार हो जाता है तो फिर जो लोग जप करते है, तपश्चरण करते है स्वयं दान देते है वा और भी अनेक प्रकारके पुण्य क्रमं करते हैं उनका वह जप तप दान आदि सव व्यर्थ हो जाता है। फिर नो स्वर्ग को प्राप्ति पुत्र के द्वारा दिये हुये दान पर ही निर्भर रही। परन्तु ऐसा होना सर्वथा असम्भव है। कयपावो णरय गओ णिज्जय पुत्रोण पियरु सग्गम्मि । पिंड दाऊण फुड हाइ व तिथ्याई मणिऊण ॥ ३४ ॥ कृतपापो नरके गतो नीयते पुत्रेण पिता स्वर्गे । पिड दत्या स्फुटं स्वाति ध तीर्थानि भणित्वा ॥ ३४ ।। जइ एवं तो पियरो सग्गं पत्तो वि जाइ णरम्भि । पुत्तेण कए दोसे बंभ हच्चाइगरुएण ॥ ३५ ॥ यद्येवं हि पिता स्वर्ग प्राप्तोपि जायते मरके । पुत्रेण कृतेन दोषेण ब्रह्महत्यावि गुरुकेन ॥ ३५ ॥ अर्थ- जो माता पिता अपने अनेक पाप करने के कारण नरक Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ भाव-संग्रह योनि में उत्पन्न हुए थे वे माता पिता के जीव यदि पुत्र के द्वारा पिण्डदान देने से बा तीर्थस्नान करने से स्वर्गमें जा सकते है तो फिर जो माता पिता पुण्य कम करन हो, कारण स्वर्गम उत्पन्न हुए थे ते माता । पिताओ जीव यदि उसके पुत्र द्वारा कोई ब्रह्महत्या आदि महा पाप किये जाते है तो उस पुत्रके उस दोष से उस पापसे व स्वर्ग में उत्पन्न हुए माता पिता के जीव नरक में भी जा सकते है। भावार्थ- यदि पुत्रके दान आदि से माना पिताके जीव नर्क में से म्बर्ग भी जा सकते है तो फिर स्वर्ग में भी उत्पन्न हुए माता पिता जीव भी पुत्रके पापम नरक में भी जा सकते है । परन्तु एसा होना सर्वथा असम्भव है। आग इसी विषय को फिर दिखलाते हैं। अण्णकए गुण दोसे अण्णो जइ जाइ सग्ग गरयम्मि । जो कणइ पुण्ण पावं तस्सफलं सो ग वेएइ || ३६ ॥ अन्यकृताम्यां गुणदोषाभ्यामन्यो यदि याति स्वर्गनरकेषु । यः करोति पुण्यपापं तस्य फलं स न वेदयति !1 ३६ ॥ अर्थ- यदि किसी एक पुरुषके गुण बा दोष में कोई दूसरा जीव म्वर्ग नरक जाता है तो फिर कहना चाहिये कि जो पुरुष स्वयं पुण्य बा - पाप करता है उसका फल उसको नहीं मिल सकता । वह भी किसी दूसरे को मिल सकता है । णहु वेयइ तस्य फलं कत्ता पुरेसो हु पुण्ण पावस्स । जइ तो कह ते सिद्धा भूयग्गामा हु चत्तारि ।। ३७ ।। न हि वेदयति तस्य फलं कर्ता पुरुषः हि पुण्यपापयोः । यदि तहिं कथं ते सिद्धा भूतग्रामा हिं चत्वारः ।। ३७ ।। अर्थ-- जो पुरुष पुण्य करता है वा पाप करता है यदि उसका फल जसको नहीं मिलता तो फिर मनुष्य तिर्यच्च देव नारकी इन चार प्रकार के जीवों की सिद्धि कैसे हो सकगी? भावार्थ- जो पुरुष पुण्य करता है उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह जो पाप करता है उसको नरक की प्राप्ति होती है। जो पुण्य अधिक करता हे साथ में थोड़ा 'पाप भी करता है उसको मनुष्य यति की प्राप्ति होती है और पाप अधिक करता है और साथ में थोडा पुण्य भी करता है उसका नियंत्रन गाँच का प्राप्ति होती है। यह सब तभी सिद्ध हो सकता है जब कि यह जोब स्वयं किये हुए पुण्य-पाप का फल स्वयं भोगता है । यदि पुत्र के किये हुए पुण्य पाप से माता-पिताओं को सुख दुःख भोगना माना जाय तो इन चारों गतियों की सिद्धी कभी नहीं हो सक्राती । तथा विना पुत्र बालों को फिर क्या गति होगी ? इस प्रकार विचार करने से सिद्ध होता है कि पुत्रके किये दानसे माता-पिताओंका उद्धार कभी नही हो सकता न पुत्रके पापसे माता-पिता नरक मे जा सकते हैं । जो जीव स्वयं जैसा पुण्य या पाप करता है उसका फल उसो को मिलता है । एक के द्वारा क्येि हुए पुण्य पापका फल दूसरे को कभी नहीं मिल सकता । आग निश्चित सिद्धान्त बतलाते हैं। जो कुणइ पुण्णपायं सो चिय भुजेइणत्यि संदेहो । साग वा णरयं वा अप्पाणो णेई अप्पाणं ॥ ३८ ॥ यः करोति पुण्यपापं स एव भुनक्तो नास्ति संदेहः । स्वर्ग या नरकं वा आत्मना नयति आत्मानम् ॥ ३८ ॥ अर्थ- जो जीव जसा पुण्य वा पाप करता है उसका फल वही भोगता है इसमे किसी प्रकार का संदेह नहीं है । इस प्रकार यह आत्मा अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मा को स्वर्ग वा नरक में ले जाता है। भावार्थ- यह आत्मा पुण्य वा पाप अपने ही आत्मा के द्वारा वा अपने ही आत्मा के भावों से उपार्जन करता है और फिर उसी पुण्य मे वह अपने आत्मा को स्वर्ग में पहुँचाता है । और अपने किये हुए पाप से नरक में पहुंचाता है। किसी अन्य के द्वारा किये हुए दान पुण्य से दूसरा आत्मा न तो स्वर्ग जा सकता है और न किसी दूसरे के द्वारा किये पाप से किसी अन्य जीब का आत्मा नरक मे जा सकता है। इसलिये पितरों के उद्धार के लिये श्राद्ध करना व्यर्थ है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव संग्रह एवं भणंति केई जल थल गिरीसिहर अग्गिफुहरेसु । चहुविह भयग्गामे वसइ हरी पत्थि संदेदो ।। ३९ ।। एवं भणन्ति केचिज्जलस्थलगिरिशिखराग्निकुहरेषु । चतुर्विधभूतमामेंषु वमति हरि म्ति सचेतः !! ३१ : अर्थ- कोई कोई मतबाले ऐसा कहते हैं कि जलमे स्थलमे पर्वता में शिखरपर अग्नि में गफा वा छिद्रों में तथा सब प्रकार के जीवों में भगवान हरि रहते हैं इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है । लिखा भी ज लेविष्णुः स्थले विष्णुविष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामालाकुले विष्णुः सर्व विष्णु मयंजगच ।। अर्थात- जल मे भी विष्णा है स्थल में भी वि है है पर्वत के मस्तक पर भो विष्ण है अग्नि जल आदि सब मे विष्णु है । कहां तक कहा जाय ग्रह समस्त मंसार और समस्त जीव विष्णमय है । एसा कोई कोई मानने हैं। आग ऐसा मानने वालों के लिये कहते है ।। सखगओ अद्द विण्डू णिवसइ देहम्मि सव्व देहिणं । तो रुखाइहष्ण सो णिहओ होइ णियमेण ।। ४० ।। सर्वगतो यदि विष्णुः निवसति बेहे सर्वदेहेनाम् । तहिं वृज्ञावि घातेन स निहतों भवति नियमेन ॥ ४० ।। अर्थ- यदि विष्णु समस्त संसार मे व्याप्त हे नो विष्णु समस्त संसारी जीवों में भी रहता है, और यदि वह विष्णु समस्त संसारी जीवों मे रहता है तो फिर किसी वृक्ष को काटनेसे वह विष्ण भी काटा गया ऐसा समझना चाहिये । लिखा भी है। मत्स्यः कमों वराहश्व नरसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्व बुद्धः कलकीच से दश ।। मत्स्यः कूमौ वराहाच विष्णुः संपूज्य भक्तितः । मत्स्यादीनां कथं मासं भक्षितुं कल्प्यते बुधः ।। अर्थात्- मत्स्य, कूर्म वा कच्छप, कृष्ण, बुद्ध, कल्की, नरसिंह Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-ग्रह वामन, राम, परशुराम बराह वा शकर ये सब दश विष्णु के अवतार माने हैं । इनमें से सबक्री मूर्ती बनाकर भक्ति पूर्वक पूजा करते हैं फिर भला बुद्धिमान पंडीत लोग इन्हीं मत्स्य आदि के मांस खानेका विधान क्ष्यों करते हैं। आगे इसी बात को दिखलाते हैं । किडिकुम्म मच्छरूवं परिमं काऊण विणहु मणिऊण । अच्देयाम्म पुज्जइ गंधक्खयधूवविवेहिं ।। ४१ ॥ किटिकर्ममत्स्यरूपा प्रतिमां कृत्वां विष्णुं मणित्वा । अचेतनां पूजयंति गंधाक्षतधूपदीपः ।। ४१ ।। जो पुण चेयणवतो विण्हू पच्चरव मच्छ किडिरयो । सो हणिऊण य खद्धो दिण्णो पियण्णा पाहिं ॥ ४२ ।। यः पुनः चैतन्यवान् विष्णुः प्रत्यक्ष मत्स्यकिटिरूपः । स हत्वा च भक्षितो दत्तः पितृभ्यः पापैः ॥ ४२ ॥ अर्थ- सुअर कच्छप मत्स्य इन सबकी प्रतिमा बनाकर और विष्ण मानकर गंध, अक्षय, दीप, धूप आदी मे उस अचेतन प्रतिमा की पूजा करते हैं। फिर भला मत्स्य, ऋच्छप, मूअर आदि चैतन्य जीवोंमें प्रत्यक्ष विष्णु विद्यमान है फिर भी उन मत्स्यादिक को और उनमें रहनेवाले भगवान विष्णु को मारकर वे पापी अपने पितरों को खाने के लिये देते हैं । यह कंसी बिपरित और आश्चर्य की बात है। आगे भी यही बात दिखलाते हैं । अइ देवो हणिऊणं मंसं गणिऊण गम्मए सग्गं । तो परयं गंतब्ध अवरेणिह केण पावेण ॥ ४३ ।। यवि देवं हत्वा मासे ग्रसिस्था गम्यते स्वर्गम् । सहि नरकं गन्तव्यं अपरेगेह केन पापेम 11 ४३ 11 अर्थ- यदि अपने देवको ही मारकर और उसका मांस खाकर यह जीव स्वर्ग में जाता है तो फिर अन्य ऐसे कौन से पाप हैं जिनसे यह जीय नरक जायगा । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान-संग्रह भावार्थ- अपने साक्षात् देव को मारवार उसका मांस खा जाना सव मे बड़ा पाप है इससे बढकर और कोई पाप नहीं हो सकता । यदि ऐसे महा पाप से भी यह जीव म्बर्ग में चला जाता है तो फिर नरक में जाने योग्य संसार भर में कोई महा पाप नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि जीवों को मारने और मांस खाने से स्वर्ग की प्राप्ति कभी नही हो सकती। ये दोनों ही काम नरक के कारण हैं । लिखा भी है - अल्पायुषो दरिद्राश्च नीचकर्मोपजीविनः । वुष्कुलेषु प्रसूयन्ते ये नराः मास मोजिनः ।। येत्ति मनुष्यो मांसं निर्दयचेताः स्वदेहपुष्ट्यर्थम् । याति स नरकं सततं हिंसापरिवृत्तचित्तत्त्वात् ।। अर्थात्- जो पुरुष मांस भक्षण करते हैं वे मनुष्य मरकर नीच कुल में उत्पन्न होते हैं । नीच कर्म करने वाले होते हैं दरिद्री होते हैं और अल्ल माधु बाले होते है। य अनुष्य अपने शरीर को पुष्ट करने के लिये मांस भक्षण करता है उसक। चित्त सदाकाल हिंसा करने मे ही लगा रहता है और इसलिये वह जीव बार बार नरक में ही उत्पन्न होता है । आगे फिर भी यही बात दिखलाते है हणिऊण पोढछेलं गम्मइ सग्गस्स एस वेयत्थो । तो सणारा सम्वे सम्ग णियमेण गच्छति ।। ४४ ।। हत्वा प्रौढछागं गच्छति स्वर्ग एष वेदार्थः । हि सूनकारा: सर्व स्वर्ग नियमेन गच्छन्ति ॥ ४४ ।। अर्थ- यदि बेदका अर्थ यही है कि मोटाताजी बकरा मारकर खा जाने से यह जीव स्वर्ग में चला जाता है तो फिर संसार में जितने पाप कर्म करने वाले है वे अवश्य ही स्वर्ग में चले जायेंगे। सन्दगओ जइ विण्हु छागसरीरम्मि कि पप सो अस्थि । जं णिताणो वहियो बडप्फडंतो मिकस्सासो ।। ४५ ।। सर्वगतो यदि विष्णुः छागावि शरीरे कि न सोस्ति । यद् निस्त्राणः हतः संतप्यमानो निःश्वासः ॥ ४५ ।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ - यदि विष्णु सर्व व्यापक है तो क्या वह उस मोटे ताजे बकरे के शरीर में नहीं है ? अवश्य है । फिर भी ग्रोत्रिय लोग जिस बकरे का कोई रक्षक नहीं है, जो तडफ रहा है और श्वासें छोड़ रहा है ऐसे उस बकरे को मार ही डालते है । यह कितनी विपरीत बात है लिखा भी है I अन्ये चैर्व वदत्येके यज्ञार्थ यो निहन्यते । तस्य मांसाशिनः सोपि सर्वेयान्ति सुरालयम् ॥ तत्कि न क्रियते यज्ञः शास्त्रज्ञस्तस्य निश्चयात् । पुत्रवध्वादिभि: सर्वे प्रगच्छन्ति दिवं यथा ॥ २७ अर्थात् कोई कोई लोग ऐसा कहते है कि यज्ञ में जो पशु मारा जाता है और जो लोग उसका मांस खाते है वे सब और वह पशु सब स्वर्गं मे जाकर उत्पन्न होते है। परंतु ऐसा कहने वालों को समझना चाहिये कि यदि उनका ऐसा निश्चय है तो फिर वे लोग अपने पुत्र भाई आदि का होम क्यों नहीं करते जिससे वे सब लोग अनायास ही स्वर्ग मे जा पहुंचे और भी लिखा है I नाहं स्वर्गफलोपभोग तृषितो नाभ्यथितस्त्वं मया संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं हंतुं न युक्तं तव, स्वर्गे यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो यज्ञं कि करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बांधवं ॥ अर्थात् जिस पशु को यज्ञ मे मारना चाहते है वह पशु उन त्रियों से कहता है कि हे भाई! तू जो मुझे मार कर स्वर्ग पहुंचन चाहता है सो भाई मुझे तो स्वर्ग के फल भोगने की लालसा नहीं है. न मैं आप लोगों से स्वर्ग पहुंचाने की प्रार्थना करता हूँ मैं तो सदा काल तृण भक्षण करने मे ही संतुष्ट रहता हूं इसलिये मुझे मारना सर्वथा अनुचित है । यदि यह बात निश्चित है कि इस यज्ञ मे मारे हुये प्राणी सब स्वर्ग में चले जायंगे तो फिर आप लोग अपने माता पिता पुत्र भाई आदि कुटुंबियों का ही इस यज्ञ में होम क्यों नहीं करते ? जो वे सब अनायास ही स्वर्ग मे पहुंच जायं ? Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आगे अन्य प्रकार में भी ऐसी हिंसा का निषेध करते है। अण्णं इयणि सुणिज्जइ सत्य हरिवं मरुद्दभत्ताणं । सम्बेसु जीवरासिसु अंगे वेधा हु णिवसंति ॥ ४६ ॥ अन्यवितिथूयते शास्त्रे हरिव्रम्हरुवभक्तानाम् । सर्वेषां जोय राशीनां अंगे सुवा हि निवसन्ति ॥ ४६ । अर्थ-- इन के मः' में यह भी लिखा है कि ब्रह्मा विष्णु महादेव ममस्त जीवों के अंगों में निवास करते है यथा नाभिस्थाने बसेद ब्रम्हा विष्णुः कठे समाश्रितः । तालुमध्ये स्थितो रुद्रो ललाटे व महेश्वरः ।। नासाग्रे च शिवं विद्यात्तस्यान्ते च परोपरः । परात्परतरं नास्ति इति शास्त्रस्य निश्चयः || अथात्- समस्त जीव राशियों की नाभि में ब्रह्मा निवास करते है, विष्णु कंठ में निवास करते है, ताल के मध्य भाग में रुद्र निवास करते है, ललाट पर महेश्वर रहते है, नाक के अग्र भाग पर शिव रहते है तथा नासिका के अंत में अन्य देवता रहते है। आगे किसी भी जीव के मारने से इन ब्रह्मा विष्णु महादेव की भो हिमा होनी है, ऐसा दिखलाते है। सज्वेसु मीवरासिसु ए ए णिवसंत पंच ठाणेसु । नइ सो किं पसु बहणे मारिया होंति ते सखे ।। ४७ ।। सर्वेषु कोबराशिषु एते निवसन्ति पंचस्थानेषु । यदि तहि कि पशुवधेम न मारिता भवन्ति ते सर्षे ॥ ४७ ।। अर्थ- इस संसार में रहनेवाले समस्त ससारी जीयों के नाभि कंड तालु ललाट और नासिका इन पांचो स्थानो में ब्रह्मा विष्णु महेस्वर रहते हैं फिर भला किसी भी प्राणी से मारने से उनकी मान्यतानुसार इन ब्रह्मा विष्णु महेश का भी घात अवश्य हो जाता है। इस प्रकार किसी भी जीव की हिंसा करने से इन देवों की भी हिंसा अवश्य होती है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह भागे इमी बात को स्पष्ट कहते हैं - धे बहिऊण गुण लगभइ जइइत्य उत्तमा केई । तो रुक्ख वंदणया अवरे पारदिया सम्वे || ४८ ।। देवान् बुद्धध्या गुणात लभन्ते यद्यत्रोत्तमाः केचित तहि वृक्षवन्दनया अपरे पारधिका सर्वे ॥ ४८ ॥ अर्थ- इस संसार में यदि उत्तम पुरुष देवों को मारकर ही गुण प्राप्त करना चाहते हैं, स्वर्गादिक की प्राप्ति करना चाहते हैं तो वे सब लोग हत्यारे पारधी हैं जो लोग वृक्षों की वंदना करके भी प्रसन्न होते है अर्थात् वृक्ष वा पोधों तक को नही तोडते ऐसे लोगों को छोड़कर शेष जीवों को मारनेवाले सव पारधी हैं । लिखा भी है नहि हिंसाकृते धर्मः सारंभे नास्ति मोक्षता । स्त्री संपर्क कुतः शौचं मांसभक्षे फुतो दया ।। अर्थात्- हिंसा करने पर कभी धर्म नहीं हो सकता, घर के वा व्यापार आदि के आरंभ कार्य करते हुए कभी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते, स्त्री समागम करने पर कभी पवित्रता नहीं हो सकती और मांस भक्षण करनेपर कभी दया नहीं हो सकतो । तिलसर्षपमानं वा यो मांस भक्षयेतद्विजः। स नरकान भिवर्तेत यामचन्द्रदिवाकरौ ।। अर्थात- जो ब्राह्मण तिल वा सरसों के समान भी मांस भक्षण करता है वह जीव जबतक सुर्य चन्द्रमा विद्यमान रहेंगे तब तक कभी नरक मे नहीं निकल सकता। आकाशगामिनो विनाः पतिता मांसभक्षणात् । विप्राणां पतन वृष्टवा तस्मान्मास न भायेत् ॥ अर्थात्- ब्राह्मण लोग पहले आकाश गामी थे परंतु मांस भक्षण करने से वे पतित हो गये और पृथ्वी पर चलने लगे। इस प्रकार उक के पतन को देखकर कभी भी मांस भक्षण नही करना चाहिये । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आगोपालं कित्सिद्धं धान्यं मांसं पृथक् पृथक् । मांसमानय इत्युक्तेन कश्चिद्धान्यमानयेत् ॥ अर्थात् - धान्य वा अझ अलग पदार्थ है और मांस अलग पदार्थ है । इस बात को बालक वृद्ध आदि सब जानते हैं। क्योंकि मांस लाओ ऐसा कहने पर कोई भी बालक वा वृद्ध अम्न वा धान्य नहीं लाता । स्थावर जंगमाश्चैव द्विधा जोवाः प्रकीर्तिता । जंगमेषु भवेन्मासं फलं तु स्थावरेषु च ।। अर्थात्- संसार मे दो प्रकार के जीव है । एक स्थावर और जंगम वा बस | इनमे से बस जोवोंमें मांस उत्पन्न होता है तथा स्थावर वृक्षादिकों पर फल लगते हैं । मासं तु इन्द्रियं पूर्ण सप्तधातुसमन्वितम् । यो नरो भक्षते मांसं स भ्रमेत्सागरान्तकम् ॥ ३० अर्थात् - मांस समस्त इन्द्रियों में पूर्ण होता है और रुविर मज्जा आदि सातों धातुओं से मिला रहता है। इसलिये जो मनुष्य मांस भक्षण करता है वह अनंत सागरों तक इस संसार में परिभ्रमण करता रहता है | संस्कर्ता दोपहर्ता च खादकश्चैव घातकः || उपदेष्टानुमंता ज बडेते समभागिनः || मांस को लाने वाला, पकाने वाला, खाने वाला जीव को मारने वाला और उसकी अनुमोदना करने वाला इन छहों जीवों को समान पाप लगता है । मांसाशनातिसक्के क्रूरनरे नसं निष्ठते सुदया । निर्दयमनसि न धर्मो धर्मविहोते च नंब सुखिता स्यात् ।। जो क्रूर मनुष्य मांस भक्षण करने में अत्यंत आसक्त रहता है उसके हृदय में कभी कभी उत्तम दया नही हो सकती तथा जिसका हृदय अत्यंत निर्दय है उस हृदय में कभी कभी धर्म नहीं ठहर सकता और धर्म रहित मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह न कर्दमे भवेन्मांस न काष्ठेषु तणेषु च । जीवशरीराद् भवेन्मासं तस्मान्मांस न भक्षयेत् ।। न तो कीचड़ में मांस है न काठ बा लकड़ी में मांस है और न तुगो मे घास फूस में मांस है । मांस सदा जीवों के शरीर से ही उत्पन्न होता है । इसलिये मांस भक्षण कभी नहीं करना चाहिये। सर्व शुक्र भवेद ब्रम्हा विष्णुसिं प्रवर्तते । ईश्वरोप्यस्ति संघाते तस्मान्मांस न भक्षयेत् ।। संसार में शुक्र वा वीर्य सब उत्पत्ति के कारण होने से ब्रह्मा कहलाते है । तथा पुष्टी वा पालन करने के कारण मांस की विष्णु संज्ञा है इस प्रकार इन जीवों का धान करने से ईश्वर का भी धात होता है । इसलिये मांस भक्षण नहीं करना चाहिये । मासं जीवं शरीरं भवेन्नवा मांसम् | यद्वनिम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेनवा निम्बः ।। मांस जितना है वह सब जीवों के शरीर से ही उत्पन्न होता है परन्तु जितमे जीवों के शरीर हैं वे सब मांस नहीं होते उनमें से कुछ जीवों के शरीर मांस रूप होते है और कुछ जीवों के शरीर मांस रूप नहीं होते। जैसे चलने फिरने वाले मत्स्य आदि के शरीर मांस रूप होते है और वृक्षादिक के शरीर मांस रूप नहीं होते । जैसे नीमका वृक्ष वृक्ष ही होता है परन्तु जितने वृक्ष है वे सव नीम के वृक्ष नहीं होते क्योंकि कोई वृक्ष आमके होते है कोई नीबूके होते है । इसी प्रकार समझ लेना चाहिये। कश्चिदाहेति यत्सर्व धान्यपुष्पफलादिकम् ।। मांसात्मकं न तरिक स्याज्जीवांगत्वप्रसंगतः ॥ .. कोई कोई यह कहते है कि संसार में जितने धान्य फल-फूल आदि है वे सब जीवके शरीर के ही अङग है इसलिये वे मांस रूप ही क्यों नही कहला सकते । परन्तु उनका यह कहना सर्वथा अनुचित है। . क्योंकि Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह जोवत्वेन हि तुल्या चे यश्चप्यते भवन्तु ते । स्त्रीत्वे सति यथा माता अभक्ष्यं जंगम तथा ।। बंद्याप जी होने के कारण जंगम और स्थावर दोनों प्रकार के जीव समान है परन्तु मांस उत्पन्न होने के लिये समान नहीं है । स्थावर जीवों के शरीर में कभी मांस उत्पन्न नही हो सकता है । जिस प्रकार स्त्री पना हो परने भी माता माता है यह स्त्री नहीं हो सकती इसी प्रकार जंगम जीवो का शरीर कमी भी भक्षण करने योग्य नहीं हो सकता । यद्वद्गरुडः पक्षी पक्षी न तु एव सर्व गरुडोस्ति । रामेव चास्ति माता माता न तु साविका रामा ।। जिम प्रकार गरुड तो पक्षी होता है परन्तु जितने पक्षी हैं वे सब गरुड़ नही हो सकते । इसी प्रकार स्त्री ही माता है परन्तु माता मव रूप से स्त्री नहीं हो सकती। शुद्धं दुग्धं न गोमांसं वस्तुवैचिश्यमीदृशम् । विषघ्नं रत्नमादेयं विषं च विपक्ष मम् ।। जिस प्रकार रत्न और विष दोनों ही समुद्रसे उत्पन्न होते है नयापि रत्न विषको दूर करनेवाला है इसलिये उपादेय है और विष विपत्तिका कारण है इसलिये तज्य है। इसी प्रकार दूध भी गायसे उत्पन्न होता है और मांस भी गायसे उत्पन्न होता है परन्तु दूध' शुद्ध है और मांस शुद्ध नहीं है । यह केवल वस्तु को विचित्रता है। हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे । विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मृतये स्मृतम् ।। यद्यपि दूध और मांस दोनों की उत्पत्ति का समान कारण है गायसे ही दोनों उत्पन्न होते है तथापि मांस त्याज्य है और दूध पीने योग्य है । देखो विष वृक्षके पत्ते आयु बढाते है और उसकी जड मृत्युका कारण है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह पचगव्यं तु तैरिष्टं गोमांसे कापथः कृतः । सविसजा युपादेका प्रतिवादिषु रोचना ।। ब्राह्मण लोग पंचगव्य मानते है परन्तु गोमांस इसमें भी वजित है लथा उसी गाय के पित्त से उत्पन्न हुआ गोरोचन वे लोग अपने प्रतिष्ठादिक के काम में ले आते है। इति हेतोन वक्रव्यं सादृश्यं मांसधाग्ययोः ।। मांसं निन्द्यं न धान्यं स्यात् प्रसिद्धवं श्रुतिर्जनः ।। उन सब कारणों को समझ कर यह कभी नहीं कहना चाहिये कि मांस और दोनों समान है। मांस और धान्य कभी समान नहीं हो सकते। मांस महा निध है और धान्य नहीं है । यह वान गब लोग जानते है । इसमें किसी प्रकार का मंदेह नहीं है। इस प्रकार संक्षेप से मांस के दोष बतलाये है। आग मोयोनि बन्दना के दोष दिखलाते है। बंदइ गोजोणि सया तुपडं परिहरइ भणिवि अपवित्तं । षिवरीयामिणिबेसो एसो फुट होई मिच्छोवि ॥ ४९ ।। वन्दते गोयोनि सा तुण्डं परिहरति भणित्वाऽपवित्रम् । विपुरोताभिनिवेश एष स्फुटं भवति मिथ्यात्वमपि ।। ४९ ॥ अर्थ-- जो लोग गायके मुखको अपवित्र कहकर छोड़ देते है और उनकी योनि की वंदना करते है यह उनका विपरीत श्रद्धान है इसीको प्रगट वा साक्षात् मिथ्यात्व कहते है। धागे योनि वन्दना के दोष दिखलाते है। पावेण तिरियजम्मे उम्वण्णा तिणयरो पसू गायो | अविवेया विट्ठासी सा कह देवत्तणं पत्ता ॥ ५० ॥ पापेन तिर्यग्जन्मनि उत्पन्ना तृणचारिणी पशुः गी । अविवेफिनी विष्ठाशिनी सा कथं देवत्वं प्राप्ता ।। ५०॥ अर्थ- जो गाय अपने पाप कर्मके उदयसे तिर्यच्च योनि मे पशु Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह पर्याय में उत्पन्न हुई है जो पशु कहलाती है. घारा मस खाती हैं जो विवेक रहित है. हित-अहित का कुछ विचार नहीं कर सकती और विष्टा भी भक्षण करली है ऐसी गाय भला देवता कैसे हो सकता है अर्थात् कभी नहीं हो सकती। अहवा एसो धम्मो विट्ट भनखंतया वि णमणीया । तो कि वज्झइ दुज्मइ ताउिज्जय दोहदंडेन ॥ ५१ ।। अथवष धर्मो विष्ठां भक्षयन्त्यपि नमनीया । तहि कि वध्यते दुह्यति ताउचते दीर्घदण्डेन ।। ५१ ।। अर्थ- यदि आप लोगों ने गड़ी मान लिया है कि गार वाहे भिष्टाभक्षण करती रहे तथापि वह वन्दनीय है तो फिर उसे क्यों बांधते हो, क्यों दुहते हो और बडी लकडी लेकर क्यों उसे मारते हो । भावार्थ- जो देवताके समान वन्दनीय है तो फिर उसे कती नहीं बांधना चाहियं, कभी नहीं मारना चाहिये और कभी नहीं दुहना चाहिये । आगे और भी दिखलाते है । सुरही लोयस्सागे वक्खाणय एस देषि पञ्चक्खा । सम्धे देवा अंगे इमिए णिवसंति पिश्यमेण ॥ ५२ ॥ सुरभिः लोकस्याने कथ्यते एषा देवी प्रत्यक्षा । सर्वे देवा अंगे अस्या निवसन्ति नियमेन ॥ ५२ ।। पुण रवि गोसवजणे मंसं भक्खंति सा वि मारित्ता । तस्सेव बहेण फुडं ण मारिया होति ते देवा ॥ ५३ ॥ पुनरपि गबोत्सवयज्ञे मांस भक्षयन्ति तामपि मारयित्वा । तस्या एवं वधेन स्फुटं न मारिता भवन्ति ते देवाः ॥५३ ।। अर्थ- जो लोग सब लोगों के सामने यह कहते है कि यह गाय प्रत्यक्ष देवता है इसके शरीर में नियम रूपसे सब देवता निवास करते है । ऐसा कहते हुए भी वे लोग गवोत्सव यज्ञ में वा गो यज्ञमें उसी गाय को मारकर उसका मांस खा जाते है । क्या उस गायके मारने से समस्त देवों का वध नहीं हो जाता ! अवश्य हो जाता है । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मंग्रह भावार्थ- गवाला गो बत्र का विषय वेदादि शास्त्रों में प्राय अनेक स्थलमें आता है । कृष्ण यजुवदीय तैत्तिरीय ब्राह्मण अप्टक ३ अध्याय ५ अनबाक नवम में लिावा है कि ।। अज जातीय अविजातीय और आरण्य में पशु मुख्य नहीं है किन्तु गो जातीय पशुको ही सर्व पशुके स्नान में प्रयोग करना । इसलिये उत्तम दिन में मो जातीय पशुका आलंभन करना । तथा च तत्पाठः तदाहः-अपशवो वा एते यदजावयश्चारण्याश्च एते व सर्व पशवः यद्नव्या इति । गठ्यानपशनुत्त मेहन्याल भते । तेन वा भयान पशुगर इशि : इसी का अर्थ मायण भाज्य में इस प्रकार लिखा है तत्र पशु विषय रहस्याभिजा एबमाहुः । अजजातीय । अविजातीया आरण्याश्च | सन्ति ते मुख्याः पशवो न भवन्ति । किन्तु गो जातीया एत एवं मर्वे पशत्रः सर्वपशुस्थाने प्रयोक्तव्या इति । तस्मादुत्तमेऽहनि गो जातीयान् पशूनालभेत । तेनैव गवालभनेन ग्रान्यानारण्यांश्चोभयान प्राप्निोति ।। खदिर गृह्यसूत्र पटल ३ खण्ड ४ में भी गाय का हवन करना लिखा है। आगे श्रोत्रिय लोगों के लिए कहते हैं । सोत्ति य गमधुब्बुढा मंस भक्खंति रमिहि महिलाओ । अपवित्ताई अशुद्धादेहच्छिदाइ वदति ।। ५४ ॥ श्रोत्रिया गर्वोत्कटा मांस भक्षयन्ति रमन्ते महिलाः । अपवित्राणि अशुखानि देहच्छिद्राणि बन्वन्ते ।। ५४ ।। अर्थ- अपने अभिमानसे मदोन्मत्त हुए य श्रोत्रिय लोग मांस भक्षण करते है, स्त्रियोंके साथ संभोग करते है तथा गोयोनि ऐसे अपवित्र और अशुद्ध ऐसे शरीर के छिद्रों की वदना करते है । आगे श्रेत्रियका यथार्थ लक्षण कहते हैं । हो सोसियो भणिज्जइ णारीकडिसोत्त वज्जिओ जेण । जो तु रमणासतो ण सोत्तिओ सो जडो होई ॥ ५५ ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ स श्रोत्रियो भव्यते नारीर्काटिस्रोतो वजितं येण । यस्तु रमणासक्को न श्रोत्रियः स जडो भवति ॥ ५५ ॥ अर्थ- जिस मदापुरुषने स्त्री के कटिभाग के स्रोतका सर्वथा त्याग कर दिया है अर्थात् जो कभी स्त्री सेवन नहीं करता, सदाकाळ ब्रह्लाचारी रहता है उसको श्रोत्रिय कहते हैं। जो पुरुष स्त्री सेवन करने में आसक्त रहता है वह कभी पोषिय नहीं हो सकता उसे जड़ कहना चाहिए । श्रोत्रिय का आजकाल क्या अर्थ करते है -- भात्र-संग्रह या दिवाने है । अहवा पसिद्धिवयणं सोत्त सेवए जेण । मुत्तप्पवहणदारं सोत्तियओ तेण सो उत्तो ।। ५६ ।। अथवा प्रसिद्ध वचनं स्रोतो नारिणां सेव्यते येन । मूत्रप्रवाहद्वारं श्रोत्रियः तेन स उक्कः ॥ ५६ ॥ अर्थ- आज कल श्रोत्रियों के लिये प्रसिद्ध बाल यह देखी जा रही हैं कि जो पुरुष स्त्रियों के स्त्रोतका सेवन करता है वही श्रोत्रिय माना जाता है । भावार्थ- वास्तविक श्रोत्रिय का लक्षण तो ऊपर लिखा है । श्रोत्रिय सर्वथा ब्रह्मचारी होता है । मद्य मांस आदि निद्य पदार्थोंका सेवन कभी नहीं करता और न कभी किसी जीव की हिंसा करता है। परन्तु जो लोभी है, लालची है ठग है, मद्य मांस भक्षण का अभिलाषी और स्त्री सेवन में आसक्त है वही पुरुष बनावटी श्रोत्रिय है तथा मांस भक्षण के लिये पशुयज्ञ का विधान करना है अथवा श्राद्ध आदि में पशु हत्या का विधान करता है। इस प्रकार वह स्वयं भी नरक जाता है और अन्य यजमानों को भी ले जाता है । आगे ऐसे विपरीत मिथ्यात्व का फल दिखलाते हैं । इय विवरीयं उस मिच्छतं पावकारणं विसमं । सेण पत्तो जीवो णरय गई जगह नियमेण ॥ ५७ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह इति विपरित उक्त मिथ्यात्वं पापका रणमं विषमम् । तेन प्रयुक्तो जीवो नरकति याति नियमेन ॥ ५७ ॥ अर्थ-- इस प्रकार जो मिथ्यात्व महा पारका कारण है और अत्यन्न विषम है मे बिपरित मिथ्यावा म्बल कहा । जो पुरुष इम ' विरित मिथ्यात्वमें प्रवृत्त होता है वह नियममें मग्कर नरक में जाता अवि सहइ तत्थ दुक्खं सक्करपमुहणयविवरेसु । कह सो सम्ग पावइ णिहा पसू खद्धपलगासो ॥ ५८ ॥ अपि सहते तत्र दुःखं शर्कराप्रमुखनरकविवरेषु । कथं स स्वर्ग प्राप्नोति निहत्य पशून् खादितपलग्नासः ।। अर्थ- नरक में जाकर वह प्राणी रत्नप्रभा, शकरा प्रभा आदि मानों नरकों की भूमियों में चा किमी एक भूमि अत्यन्त महा दुःख सहन करता है सो ठीक ही है। क्योंकि जो पशुओं को मारता है और उनका मांस भक्षण करता है उसको स्वर्ग की प्राप्ति भला कैसे हो सकती है ? अर्थात कमी नहीं हो सकती । उसको तो नियमसे नरक की प्राप्ति होगी। जह कहब तत्थ णिगई उत्पज्जइ पुणु वि तिरियजोणिसु । मारियह सोत्तिएहि णित्ताणो पुण वि अण्णम्मि ।। ५९ ।। यदि कथमपि ततो निर्गच्छति उत्पद्यते पुनरपि तिर्यग्योनिष मार्यते श्रोत्रियः निस्त्राणः पुनरपि यो ।। ३९ ॥ अर्थ- यदि किसी प्रकार वहां से निकलता भी है तो फिर उमी तिर्यात्र योनि में उत्पन्न होता है और अन्य श्रोत्रियों के द्वारा यज्ञ में मारा जाता है वहां पर उसकी कोई रक्षा नही कर सकता। णियभासाए जंप में मंतो कहइ आसि मे रइयं । एवं वेयबिहाणे संपत्ता दुग्गई तेण ॥ ६० ॥ निज भाषायां जल्पति मे मे कथयति आसीत् मया रचितम् । एवं वेदविधानेम सम्प्राप्ता दुर्गतिः तेन || ६० ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ भाव-संग्रह अर्थ जब वह श्रोत्रियों के द्वारा मारा जाता है तब वह अपनी भाषा मे शब्द कहता है अर्थात वह कहता है कि यह सब मेरा ही बनाया हुआ है मैंने ही पहले किसी यज्ञ में पशुओं को मारा था इसलिये ऐस ही यज्ञ में अब मैं मारा जाता हूँ। इस प्रकार बेद के कहे अनुसार यह जीव अनेक प्रकार की दुर्गतियों मे प्राप्त होता है और फिर फिर मर कर नरक जाता है । इस प्रकार वह इस संसार में महा दुःख भोगता रहता है। इय विलवंतो हृष्णह गलयं मुहनासरंध संधिता । भक्ति सोत्तिएहि विहिण बहुवेय वतेहि ॥ ६१ ॥ इति विलपन् हन्यते गलितं मुखनासिकारन्धं बुध्वा । भक्ष्यते श्रोत्रियः विधिना बहुवेदविद्भिः ।। ६१ ।। पशु अर्थ - इस प्रकार अनेक वेदों को जाननेवाले श्रोत्रिय लोग उस के नाक और मुख के छिद्रों को बंद कर देते हैं और फिर जो पशु विलाप करता है और उसके मुख नाक के छिद्रों से रुधिर निकलता है ऐसे उस पशु को वे लोग कथित की विधि के अनुसार मार कर खा जाते हैं । अस विदरीयं कहियं मिच्छत पावनारणं विसमं । जो परिहरइ मनुस्सो सो पावइ उत्तमं ठाण ।। ६२ ।। इति विपरितं कथितं मिथ्यात्वं पावकारणं विषमम् । यः परिहरति मनुष्यः स प्राप्नोति उत्तमं स्थानम् ।। ६२ ।। अर्थ - इस प्रकार जो यह विपरित मिथ्यात्व महा पाप का कारण है और अत्यन्त विषम है उसका स्वरूप कहा । जो मनुष्य इस विपरित मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग कर देता है वही जीव स्वर्गादिक के उत्तम स्थान प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार विपरित मिथ्यात्व का स्वरूप कहा | एयंतमिच्छविद्विषद्धो एयंत जय समालको । एयंते खणियसं मण्णव जं लोय मज्भम्मि || ६३ || Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह एकान्तमिभ्यादष्टि बुद्धः एकान्तनयसमालम्बि ! एकांतेन क्षणिकत्वम् मन्यते यल्लोकमध्ये ।। ६३ ।। अर्थ- एकान्त वादी बुद्धी हे वह केवल एकांत नयको मानता है तथा संसार में जितने पदार्थ है उन मवको एकांत नयसे क्षणिक मानता है । भावार्थ :- समस्त पदार्थ क्षणिक है जो उत्पन्न होकर एक क्षण ठहरते है दूसरे क्षग मे नष्ट हो जाते है । इस प्रकार बौद्ध मानते है । आग ऐसा मानने में अनेक दोष दिखलाते है । जइ खणियतो जीवो तरिहि भवे कस्य कम्मसंबन्धो । सम्बन्ध विण ण घडई देहग्गहणम् पुणे तस्स ।। ६४ ।। यदि क्षणिको जीवस्तहि भवेत्कस्थ कर्मसम्बन्धः । सम्बन्धम् विना न घटते वेस्रङ्गम् पुनः तस्य ।। ६४ ।। अर्थ- यदि यह जीव क्षणिक है एक हो क्षण रहकर नष्ट हो जाता है तो फिर कर्म का संबंध किसको होगा और कौन उसका फल भोगेगा । तथा विना कर्मों के संबंध के यह जीव आग के शरीर को किस प्रकार धारण कर सकेगा। भावार्थ- यह जीव जमा कर्म बंध करता है वैसा ही फल भोगता है, कर्म बंध के अनुसार ही नया शरीर धारण करता है । कर्म बंध के सुव्वयतित्थे उज्झो खोर कादंबुत्ति सद्ध सम्मत्तो। सीसो तस्स य दुट्टो पुत्तोविय पन्वओ वक्को । विणरीयमयं किच्चा विणसियं सव्व संजयं लोए । तत्तो पत्ता सव्चे सत्तम णरयं महाघोर ।। दर्शनसार ॥ भगवान् मुनिसुव्रत नाथ के समय मे एक क्षीर कदंव नाम के उपाध्याय शुद्ध सम्यक्त्वी थे । उसका पुत्र पर्वत और उनक: शिप्य बसु दोनों ही कुटील परिणामी धे । इन दोनो ने विपरीत मिथ्यात्व की कल्पना की थी तथा लोगों के समस्त संयय का नाश किया था। इस लिये वे दोनों मरकर महाबोर सातवें नरक मे उत्पन्न हुए थे । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अनुसार ही नरक स्वर्ग मे जाता है तथा कर्म बंध के अनुसार ही अनेक प्रकार के सुख दुख भोगता है । यदि ज व को क्षणिक माना नायगा तो फिर वह जिस प्रकार कर्म बंध कर सकेगा और किस प्रकार उसका फल भोग सकेगा । विना कर्मबंध और उसका फल भोग नया शरोग भी वह धारण नहीं कर सकता । सो अवम्बामे वह कोई पदार्थ ही ठहर सकता है। आगे इस जीव को क्षणिक मानने मे और भी दोब बतलाते है। तक्षयरण बयधरणं लीवरगरणं च सोसमडलयं । सत्तहडियासु भिक्खा खणियत्ते णेव सभवई ।। ६५ ।। तपश्चरणं व्रतधारण चीवरग्रहणं च शिरोण्डनम् । सप्तहटिकासु भिक्षा क्षणिकत्वे नंव सम्भवति ।। ६५ ।। अर्थ- यदि जीव को क्षणिक माना जायगा तो फिर तपश्चरण करना कभी संभव नहीं हो सकता है, न अत धारण करना संभव हो सकता है, न वस्त्र धारण करना सभव हो सकता है, न मस्तक मंडाना संभव हो सकता है और न सात घरों में भिक्षा मांगना संभव हो सकता है। भावार्थ- जीव को क्षणिक मानने से संसार में कोई भी काम संभव नहीं हो सकते । जब यह जीव दूसरे ही क्षण में नष्ट हो जाता है, तो वह कोई भी कार्य नहीं कर सकता । आग ज्ञानको क्षणिक मानने में दोष दिखलाते हैं। गाणं जइ खणभंसी कह सो वाल तववसिय मुणइ । तह बहिरगा संतो कह आवा पुदि णियगेहं ।। ६६ ।। ज्ञान यदि क्षणध्वंसि कथं तत् बालत्वलसितं जानाति । तथा बहिर्गतः सन् कथमागच्छति पुनरपि निजगहम् ।। ६६ ।। ___ अर्थ- यदि ज्ञानको क्षणिक माना जाय, ज्ञान भी दूसरे क्षण में नष्ट हो जाता है ऐसा माना जाय तो वह अपने वालकपने में किये हुए कामों को कैसे जान सकेगा, और यदि उसका ज्ञान दूसरे ही क्षण में नष्ट हो जाता है तो फिर घर से निकल कर बाहर गया हुआ जीव Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह फिर लाटकर अपने घर को आ मकेगा ? नावार्थः- स्मरण ज्ञान बना रहने ने बालकपन की बातें म्मरण रहती है और म्मग्ण जानसे ही बाहर गया हुआ जीर घाग याला है। ___ आगे चेतना शक्ति को क्षणिक मानने से उत्पन्न हुए दोष दिवलाते ।। जई चेयणा अणिच्चा तो कि चिरजाय वाहि समराई। बहराइ वि मिचाइ वि कह जाणइ दिमित्ताई ॥ ६७ ।। यदि चेतना अनित्या तहि कथं चिरजातव्याधि स्मरति । वैरिण अपि मित्राण्यपि कथ जानाति दुष्टिमात्रेण ।। ६७ ।। अर्थ- बदि आत्मा को चेतन्य शक्ति गी अनित्य वा क्षणिक है तो यह जीव अपने शरीर में उत्पन्न हुई चिरवाल की व्याधि का स्मरण केसे करता है तथा देखने मात्रमे ही अपने शत्रु बा मित्रों को कैसे पहिचान लेता है। भावार्थ- जीवादिक समस्त पदार्थ कभी किसी कालमें भी क्षणिक मिद्ध नहीं हो सकते । यह जीव चिरकालकी व्याधिको भी स्मरण कर. लेता है और देखते ही शत्रु वा भित्रको पहचान लेता है । उस जीवको चेतना में बिना नित्यता माने य दोनों ही काम कभी नहीं हो सकते । आगे सर्वथा क्षणिव मानने वाले में और भी दोष दिखलाते है । पत्त पडियं ण दूसइ खाइ पलं पियइ मज्जु णिल्लज्जो । इच्छइ सरगरगमणं मोक्खामणं च पायेण ।। ६८ ॥ पात्रे पतितं न दूषयति खादति पल पिबति मद्यं निर्लज्जः ! इच्छति स्वर्गगमनं मोक्षगमनं च पापेन ॥ ६८ ।। अर्थ - क्षणिकवादी लोग अपने पात्र में (वर्तन में) आये हुए भक्ष्य अभक्ष्य आदि पदार्थों में कोई दोष नहीं मानते । वे लोग निर्लज्ज होकर मांस भी खाते हैं और मद्य भी पीते है । तथा इस प्रकार महा पाप करते हुए भी उस पापके फलसे स्वर्ग प्राप्त होजाने की बा मोक्ष Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात्र-मंग्रह प्राप्त हो जाने की इच्छा करते है 1 परन्तु एसे पापों से स्वर्ग वा मोक्षकी प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है। आगे इसी बातको दिखलाते है । असिऊण मंसगासं मज्ज पविऊणगम्मए सग्गं । जड़ एवं तो सुंडय पारद्धिय चेव गच्छन्ति ।। ६९ ।। अशित्वा मांसग्रास अचं पीत्वा गम्यते स्वर्गम् । यद्येवं तहि शौण्डाः पालिकाश्चंव गच्छन्ति ॥ ६९ ।। अर्थ-- यदि मांस भक्षण करने से वा मद्य पीनेसे ही वे जीव स्वर्ग चले जाते हों तो संसार मे मद्य पीने वाले और मांस भक्षण करने बाल हत्यारे पारधी आदि सबको स्वर्ग की प्राप्ति हो जानी चाहिये । परन्तु एसा होना सर्वथा असंभव है । मांस और मद्य दोनों ही अत्यन्त निन्द्र और घणति पदार्थ है तथा इनका सेवन करने वाले किन्या हे माते । फिर भला उनको स्वर्ग की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? कभी नहीं हो सकती। इम एयंतविडिओ बुद्धो ण मुणेइ वत्थुसदभावं । अण्णाणी कपपावो सो दुग्गइ आय णियमेण ।। ७० ।। इति एकान्तविनटितो बुद्धो न मनुते वस्तुस्वभावम् । अज्ञानी कृतपापः स दुर्गात याति नियमेन ॥ ७० ॥ अर्थ- इस प्रकार एकान्त मिथ्यात्व को मानता हुआ जीव वस्तुका स्वभाव नहीं समझता । वह अत्यन्त अज्ञानी है और इसी लिये अपने किये हा पापों के कारण नियममे दुर्गति को प्राप्त होता है । आग पदार्थों का यथार्थ रवभाव दिखलाते है। णिच्चाणिचं दवं सच्वं इह अस्थि लोयममम्मि । पज्जाऐण अणिज्चं णिच्चं फुड होड़ बब्वेण ।। ७१ ॥ नित्यमनित्यं द्रव्यं सर्वमिहास्ति लोकमध्ये । पर्यायणानित्यं नित्यं स्फुटं भवति द्रव्येण ॥ ७१।। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्रह अर्थ- इस लोकाकंश में जितने द्रव्य भरे हुए है वे सब नित्य भी है और अनित्य भी है । पर्यायाथिक नयसे वे सब द्रव्य अनित्य है अर्थात् उनकी पर्याय सदा बदलती रहती है इसलिय अनित्य है और द्रव्यार्थिक नयसे वे सब द्रव्य नित्य है । भावार्थ- एक बालक बा एक पौधा प्रतिक्षण वढता रहता है। यह उसका बढ़ना ही पर्यायका बना है। इस प्रकार उ वालक को वा पौधा अनित्य भी कह सकते है परन्तु उस बालक के माता पिता बा उस पोधा को लगानेवाला कोई पुरुष बड़ा होने पर भी उसको “यह वही बालक है जो पन्द्रह वर्ष पहले उत्पन्न हुआ था" ऐसा समझता है तथा पौधा लगानेवाला भी "यह वही वृक्ष है जो मैनें दश वर्ष पहले लगाया था" ऐसा समझता है और ऐसा ही कहता है । इसलिये वह बालक वा पौधा नित्य भी माना जाता है । इस प्रकार वस्तुका स्वभाव नित्य अनित्य उभय स्वरुप है। वह सर्वथा क्षणिक वा सर्वथा नित्य कभी नही हो सकता। आग इसका उपसंहार कहते हैं । इय एयंत कहियं मिच्छतं गुरुयपापसंजणयं । एसो उद्धं बोच्छं वेणइयं णाम मिच्छत्तं ।। ७२ ।। इप्ति एकान्तं कथितं मिथ्यात्वं गुरुकपापसजनकम् । इत उर्व वक्ष्ये वैनयिक नाम मिथ्यात्वम् ॥ ७२ ।। अर्थ - इस प्रकार महापाप उत्पन्न करनेवाले एकान्त मिथ्यात्वका स्वस्प कहा X । अब आगे वैयिक नाम के मिथ्यात्त्र का स्वरूप कहते इस प्रकार दुसरे एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप जानना । x सिरि पासणहतित्थे सरयू तीरे पलासयरत्थे । पिहियासवस्स सीसो महासुओ बुद्धकित्ति मुणि 11 तिमिफरणासणोण हि अगहिय पब्वज्जओ परिभट्ठो । रत्तंबरं धरिसा पबढियं तेण एयतं ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ भाव-संग्रह आगे वैनयिक मिथ्याल का म्वरुप कहते हैं। वेणइयमिच्छादिछी बइ फुडं तापसो हु अण्णाणी । णिग्गुणजम्मि विणओ पत्रं जमाणो हु गर्यायवेओ ।। ७३ ।। बनयिकमिथ्यावृष्टिः भवति स्फुटं तापसो [ज्ञानी । निर्गुणजने विनयं प्रयुज्जमानो हि गतविवेकः ॥ ७३ ॥ अर्थ- ननयिक मिथ्यादृष्टी नापसी होते हैं वे अज्ञानी होने हैं और रहित होते हैं तथा निर्गुण लोगों को भी विनय किया करते हैं । मंसस्य पत्थि जीवो जह फले दुद्ध दहियसकारए । तस्हा तं बंछित्तो नं मक्खंतो ण पाविट्ठी ।। मज्ज ण वज्जिणिज्जं दब दव्वं जह जलं तदा पदं । इय लोए घोसित्ता पट्टियं सच सावज्ज ।। अपणो करेइ कम्म अण्णो तं भजईह सिद्धतं । परिकपिऊण णू णं बसिकिच्चाणिरय मुबवण्णो ।। ( दर्शनसार ) --अर्थ श्री पार्श्वनाथके तीर्थ के समय सरयू नदी किनारे एक पलाश नामका नगर था। उसमें पिहिताधव मुनि का शिष्य बद्धकीति नामका मुनि अनेक शास्त्रों का जानकार था । वह विना दीक्षा लिये ही मनि हो गया था और मत्स्य का मांस खा खा कर भ्रष्ट हो गया था । भ्रष्ट होकर उसने लाल वस्त्र पह्न लिए थे तथा रक्तम्बर नामसे उसने इस एकान्त मत को वृद्धी की थी । उसने इस मंसार में घोषणा की थी कि जिस प्रकार फल दूध दही शक्कर आदि में जीव नहीं है उसी प्रकार मांस में भी जीव नहीं है । इसलिये जो लोग मांस खाने की इच्छा करते है बा मांस भक्षण करते हैं वे पापी नहीं कहला सवाते । इसी प्रकार मद्य का भी त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य है, पतला पदार्थ है। उसी प्रकार मद्य भी द्रव द्रव्य है, एक पतला पदार्थ है । इस प्रकार घोषणा कर उसने समस्तपाप कर्मों की प्रवृत्ती की थी । इसके सिवाय उसने यह भी घोषणा की थी कि Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह विणयादो इह मोक्खं किज्जद्द पुणु तेण गद्दहाईणं । अमुनिय गुणगुणेण य विषयं मिच्छतं गाडियेण ॥ ७४ ॥ विनयतः इह मोक्षः क्रियते पुनस्तन गर्दभाविनाम् । अज्ञानतगुणागुणेन च विनयः मिथ्यात्वनटेन ॥ ७४ ॥ ४५ अर्थ- जो लोग गुण अवगुण को नहीं जानते ऐसे मिथ्यादृष्टी नटों को समझना चाहिये कि यदि विनय करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है तो उनको गया चांडाल आदि सवका विनय करनी चाहिये । परन्तु वे लोग उनका विनय नहीं करते । यह जीव क्षणिक है उत्पन्न होकर दूसरे ही क्षणमें नष्ट हो जाता है इसलिये जो जीव पाप करता है वा पुण्य करता है उसका फल बह नहीं भोगता वह तो दूसरे ही क्षणमें नष्ट हो जाता है इसलिये उस पाप वा पुण्य का फल कोई दूसरा ही जीव भोगता है । यही रक्तांबर वा एकान्त मत वा सिद्धांत है। इस प्रकार कल्पना कर उसने बहुतसे लोगों को वश कर लिया था और फिर अन्तमें मरकर वह नरक में उत्पन्न हुआ था | जक्लय णायाईणं दुग्गाखंधाइ अण्णदेवाणं । जो णवइ धम्मजं जो विय हे च सो मिच्यो ।। ७५ ।। यक्षनागादीन् दुर्गास्कन्धाद्यन्यदेवान् । यो नमति धर्महेतोः योपि च हेतुश्च स मिथ्यात्वम् ।। ७५ ।। अर्थ- जो लोग धर्म समझकर यक्ष नाग आदि अन्य देवों को नमस्कार करते हैं उसका कारण भी मिध्यात्व ही समझना चाहिये । भावार्थ- मिथ्यात्व कर्म के उदयसे ही इनकी देव समझकर पूजा करते हैं । पुत्तत्थ माउसत्थं कुणइ जनो देवि चण्डियाविणयं । मारइ छलयसत्यं पुज्जइ फुलाई मज्जेण ॥ ७६ ॥ पुत्रार्थमायुष्यायं करोति जनो देवीचण्डिकाविनयम् | मारयति छागसायं पूजयति कुलानि मद्येन ॥ ७६ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ- बहुत से लोग पुत्र उत्पन्न होनेके लिये वा अपना आयु वढाने के लिये चण्डी मुण्डी आदो देवी देवताओं की विनय करते है, उनके सामने बकरे आदि का वध करते है तथा मद्य में अपने कूलकी पूजा करते है। णवि हाइ तत्थ पुण्णं किज्जति णिकिट्टरुद सम्भाधा । णय पुत्ताई दाउ सरका ते सत्तिहिणां जे ।। ७७ ।। नापि भवति तत्र पुण्यं कुर्वन्ति निकृष्ट रुद्रस्वभावान् । न च पुत्रादि दातुं शत्कास्ते शक्तिहीना ये ॥ ७७ ।। अर्थ- चण्डी मुण्डी आदि देवता आदर्श देवता नहीं हैं और उनके स्वभाव क्रूर है इसलिये उनकी विनय करने से वा उनकी पूजा करने से पुण्य की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती । इसके सिवाय वे सब चण्डी मुण्डी आदि देवता पुत्र देने के लिए वा आयु बढ़ाने के लिये कभी समर्थ नहीं हो सकते । क्योंकि वे सत्र शक्ती से हीन है। जइ ते होंती समत्था कस्थ गया पंडवाइया पुरिसा । कत्थगया चमकेसा हलहरणारायणा कत्थ ।। ७८ ॥ यदि ते भवन्ति समर्थाः कुत्र गताः पाण्डवायाः पुरुषाः । कुत्र गताश्चक्रेशा हलधरनारायणाः कुत्र ।। ७८ ।। अर्थ- यदि वे चण्डी मुण्डी आदी देवता पुत्र देने वा आयु बढ़ाने के लिये समर्थ होते तो फिर पाण्डव आदि महा पुरुष कहां चले गये, चक्रवर्ती कहां चले गये तथा नारायण प्रति नारायण हलधर आदि सब कहां चले गये। भावार्थ- चक्रवर्ती नारायण, हलघर आदि महापुरुष होते है, अनेक देव इनके आधीन और सेवक होते हैं। फिर भी वे देवता अपर्ने स्वामी की आयु न बढ़ा सके और आयु समाप्त होने पर वे लोग स्वर्ग मोक्ष वा नरक में चले ही गये। इससे सिद्ध होता है कि 'उन देवों मे कोई इस प्रकार की शक्ती नहीं है । वे इन बातों के लिये सर्वथा असमर्थ है। इसलिये इस निमित्त उनकी पूजा का बिनय करना सर्वथा व्यर्थ है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह। जइ देवयं देइ सुर्य तो किं रुदेण से विया गउरी । दिवं वरिस सहस्सं पुत्तत्थं तारय एण ॥ ७९ ॥ यदि देको ददाति सुतं हि कि रुवेग सेविता गौरी । दिव्यं वर्षसहस्त्रं पुत्रार्थ तारकमयेन ।। ७९ ।। अर्थ- यदि देव लोग किसी को पत्र दे सकते होते तो फिर महा - देवजो तारक के भयो पुत्र उत्पन्न करने के लिये दिव्य सहस्त्र वर्ष तक पार्बती सम्पर्क क्यों करते रहते। भावार्थ- पुत्र उत्पन्न करने लिये ही महादेव ने पार्वती के साथ समागम किया था और देवताओं के हजार वर्ष तक किसी एकांत वनमें जाकर समागम करते रहते । तम्हा सयमेव सुओ हवेइ मिठणण रइपउत्ताणं । अण्णाण मूढलोओ वाहिज्जइ धृत्तपणुरहिं ।। ८० ।। तस्म स्वयमेव सुतो भयेत् मिथुनानां रतिप्रवृत्तानाम् । अजानो मूढलोको वाध्यते घूर्तमनुष्यैः ॥ ८ ॥ अर्थ- इससे सिद्ध होता है रति कर्म में प्रवृत्त होनेवाले स्त्री पुरुषों के अपने आप पुत्र उत्पन्न हो जाता है । तथापि धूर्त लोग अज्ञानी मल लोकों को चंडी मुंडी आदि देवताओं का विनय करने के लिये वाधित करते रहते है। संते आउसि जोवइ मरणं गलयम्मि ण त्य संदेहो । णव रक्खइ कीवि तहि संतं सोसेइ ण कोई ॥ ८१ ।। सति आयुषि जीवति मरणं गलिते नास्ति सन्देहः ॥ न च रक्षति कोपि तस्मात् सत् शोषयति नहि कश्चित् ॥ अर्थ-- जब तक आय कर्म बना रहता है तबतक यह जीव जीवित रखता है तथा आयु कर्म पूर्ण हो जाता है, खिर जाता वा नष्ट हो जाता है तब यह जीव मर जाता है । इसमे किसी प्रकार का संदेह नहीं है 1 जिस समय आयु कर्म पूर्ण हो जाता है उस समय कोई भी देव उस जीव की रक्षा नहीं कर सकता । इसी प्रकार जव लक आयु कर्म रहता है तबतक उस आयु कर्म को कोई भी देह नष्ट नहीं कर सकता। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ भाव-संग्रह भावार्थ- कोई भी देव आय पूर्ण होने पर किसी की भी रक्षा नहीं कर सकता तथा आप रहते हुए किसी को मार नहीं सकता । यह निश्चित सिद्धांत है । इसी बात को उदाहरण देकर बतलाने है। जइ सब्व वेवयाओ मणुयं रक्खंति पुज्जियाओ य । तो कि सो वहवयणो ण रक्खिओ बिज्जसहस्सेण ॥ ८२ ।। यदि सर्वदेवता मनुजं रक्षयन्ति पूजिताश्च । तहि कि स दशवदनो न रक्षतो विद्यासहस्रेण ।। ८२ ॥ अर्थ- यदि पूजा वा बंदना किये हुए समस्त देवता मनुष्यों की रक्षा कर सकते है तो फिर राव के पास हजारों सिकाएँ थीं, फिर उन विद्याके अधिपति देवताओं ने उस रावण को रक्षा क्यों नहीं की ? रावण के पास जो चक्र था उसकी भी एक हजार देवता रक्षा करते थे, परंतु आयु पूर्ण होने पर उसी चक्र से वह रावण मारा गया । इमसे सिद्ध होता है कि कोई देव न किसी की रक्षा कर सकता है और न किसी को मार सकता है। आगे किनकी पूजा विनय करनी चाहिये, सो कहते है। इस गाउं परमप्या अट्टारसदोसवज्जिओ देवो । पविज्जइ मत्तीए जइ लभइ च इच्छियं वत्थु ।। ८३।। इति ज्ञात्वा परमात्मानं अण्टादशदोषजितो देवः । प्रणम्यते भक्त्या येन लभ्यते इच्छितं वस्तु ।। ८३ ।। अर्थ- यही समझकर अठारह दोषों से रहित जो अरहंत परमात्मा है उन्हीं को 'भक्ति पूर्वक नमस्कार करना चाहिये । भगवान अरहंत देवको नमस्कार करने से समस्त इच्छित पदार्थों की प्राप्ति होती है । भावार्थ- भगवान अरहंत देव वीतराग है । अठारह दोषों मे रहित है और सर्वज्ञ है। इसलिये वे ही नमस्कार करने से कुछ देते नहीं है क्योंकि वे तो वीतराग है फिर भी उनका आस्मा समस्त दोषों से Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्रह रहित होने के कारण अन्यन्त ऋद्ध और निर्मल है। इसलिये उनको भक्ति करने से, पूजा नमस्कार करने गे विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। तथा रस विशेप पण्य में इच्छिन पदार्थों की प्राप्ति होती है । इसके सिवाय शुद्ध निमल श्रात्मा की भक्ति पूजा करने में अपने आत्माको शुद्ध और निर्मल करने की भावना उत्पन्न होती है तथा उम भावना के अनमार बह जीव अपने आत्माको बेमा ही बनाने का प्रयत्न करता है और इस प्रकार अपने आत्मा का कल्याण करता हुआ स्वयं अरहंत अवस्था को प्राप्त कर लेना है 1 वेणइयं मिच्छसं कहिये म्याण वजण तु । एसो उड्ड वोच्छ मिच्छतं संसर्य णाम ॥ ८४ ।। चैनयिकं मिथ्यात्वं कथितं मध्यानां वर्शनार्थ तु । इत अर्ध्व वक्ष्ये मिथ्यात्वं संशयं नाम ।। ८४॥ अर्थ- इस प्रकार अत्यन्त संक्षेप मे वनयिक मिथ्यात्व का स्वरूप कहा। इन सब मिथ्यात्वा का स्वम् । भव्य जीवों को त्याग करने के लिये कहा है । भव्य जीवों को इन समस्त मिथ्यात्वों का त्याग कर देना मधमु य तित्थेमु य श्रेण इयाणं समुभवो अस्थि । मजदा मुडियसीसा मिहिणो जग्गाय केई य ।। दुटुं गुणवंते वि य ममया भत्तीय सचदेवाणं । गामणं दडुब्व जणे परिकलियं तेहि मूढहि ॥ अर्थ- बैन यिफ मिथ्यात्व की उत्पत्ति समस्त तीर्थंकरों के समय मे होती है । इन वनयिक मिथ्यादृष्टी लोगों में कोई जटा धारी होते है, कोई अपने मस्तक को मुंडा लेने है, कोई चोटी रख लेते है और कोई नग्न होते है। उन लोगों ने यह कल्पना कर रक्खी है कि चाहे दुष्ट हो चाहे गुणी हो सबकी पूजा भक्ति करनी चाहिये । सब देवों को __ नमस्कार वा दंडवत करना चाहिये, सब की पूजा भक्ति करनी चाहिये । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह चाहिये । अब आग सशय मिथ्यात्व का स्वरूप कहते है। इस प्रकार तोसर वैनायक मिथ्यात्व का स्वरूप कहा । अब संशय मिथ्यात्व का स्वरूप कहते है। संसय मिच्छादिट्ठी णियमा सो होई जत्थ सग्गंयो । णिग्गंयो वा सिज्झइ कंवलगहणेण सेवडओ ।। ८५ ।। संशायमिथ्यादृष्टिनियमात्स भवति यत्र सग्रन्थः । निग्रन्थो या सिद्धति कंवलग्रहणेन श्वेतपटः ।। ८५ ॥ अर्थ- संशय मिथ्यादृष्टी श्वेतपट होते है जिनके मन में यह संशय नियम से बना ही रहता है कि मोक्षकी प्राप्ति निग्रंथ लिंग से दिगम्बर अवस्था से ) होती है अथवा सग्रंथलिंग से (परिग्रह सहित अवस्था से) इसीलीये ये लोग बस्त्र कंवल आदि बहुत सा परिग्रह रखते आगे यही बात दिखलाते हैं । दंडं दुद्धिय चेलं अण्णं सव्यं पि धम्म उवयरणं । मण्णइ मोक्खणिमित्तं गंथे लुखो समायरइ ।। ८६ ।। दण्डं दुग्धिकं चेलं अन्यत्सर्व हि धर्मोपकरणम् । मन्यते मोक्षनिमिस ग्रन्थे लुब्धः समाचरति ।। ८६ ॥ इत्थी गिहथवगे तम्हि भये चेव अत्यि णिन्याणं । कवलाहारं च जिणे गिद्दा तण्हा य संसइओ ।। ८७ ॥ स्त्रीगृहस्थवर्ग तस्मिन् भवे चैव अस्ति निर्वाणम् । कवलाहारं च जिने निद्रा सृष्णा च संशयितम् ।। ८७ ।। अर्थ - वे जो लोग परिग्रह में बहुत ममत्व रखते है. दंड कुंडी वस्त्र आदि अपने काम आने वाले समस्त पदार्थों को मोक्ष के कारण भूत धर्मोपकरण मानते हैं. इसके सिवाय अपने गृहस्थ धर्म में रहती हुई श्री मोक्ष प्राप्त कर लेती है अरहंत भगवान के निद्रा तंद्रा भी होती है। इस प्रकार की मान्यता बास्तविक धर्म के विरुद्ध है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह 1 आगे अनुक्रममे इन सबमें दोष दिखलाते हैं । जइ सगन्धो मुक् तित्थयरो कि मुंचहि गियरज्जे । रयण णिहाणेहि समं किं णिवसइ णिज्जरे रण्णो ।। ८८ ।। ५१ यदि सग्रन्थो मोक्षः तीर्थंकरः किं मुञ्चति निजराज्यम् । रत्ननिधानैः कतिनि ॥ ८४ ॥ : अर्थ यदि परिग्रहों के रखते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तो फिर तीर्थकरों को अपना राज्य छोड़ने की क्या आवश्यकता थी, अनेक प्रकार रत्न तथा निधियों के छोडने को भी क्या आवश्यकता थो और फिर सबको छोड़कर निर्जन वनमें जाने की क्या आवश्यकता थी । और भी देखो रयण णिहाणं ठंड सो कि गिण्हेहि कंवली खण्डं । दुद्धिय दंडंच पडं गिह्त्यजोगं पि जं कि पि ॥। ८९ ।। रत्ननिधानं त्यजति स कि गृहण ति कम्वलखण्डम् । दुग्धिकं वण्डं च पटं गृहस्थयोग्यमपि यत् किमपि ॥ ८९ ॥ अर्थ - यदि परिग्रह रखते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती तो तीर्थकर रत्न और निधियों को छोड़कर अन्य परिग्रह क्यों ग्रहण करते है ? वस्तु स्थिति यह है कि समस्त पदार्थों का त्यागकर निर्ग्रन्थ अवस्था धारण करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । सग्रन्थ अवस्थासे मोक्ष की प्राप्ति कभी नही हो सकती । और भी गेहे गेहे मिक्वं पतंगहिऊण जाइए कि सो | कि तस्स रयणबिट्ठी घरे घरे विडिया तत्थ ।। ९० || गृहे गृहे भिक्षा पात्रं गृहीत्वा याचते किं सः । कि तस्व रत्नवृष्टिः गृहे गृहे निपतिता तत्र ।। ९० ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ-. जिन तीर्थंकरों ने मोा की प्राप्ति के लिये समस्त राज्य का त्याग कर मुनि अवस्था धारण की वे ही तीर्थकर मुनि होकर भी फिर हाथ में पाश लेकर पर सरोजा गाने के लिये नयों जाते हैं? क्या रत्नवृष्टि भी घर घर बरगी थी। भावार्थ- जब गृहस्थ अवस्था से ही मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है तो फिर राज्य और समस्त परिग्रह के त्याग करने की क्या आवश्यकता थी और यदि त्याग ही किया तो फिर वस्त्र दण्ड आदि क्यों धारण किये और हाथमें पात्र लेकर घर घर मिक्षा क्यों मांगी । इसलिये त्याग कर फिर ग्रहण करना सर्वथा मिथ्यावाद है। आगे इस सबका सारांग दिखलाते हैं । ण हु एवं जं उत्तं संसमिच्छत्तरसियचित्तेण । णिगंय मोक्खमग्गो किंचण यहिरंतण चरण || ९१ ।। न हि एवं यदुक्तं संशयमिथ्यात्वरसिकरित्तेन । निग्रंथमोक्षमार्ग: किचन वाह्यान्तरत्यागेन ।। ९१ ॥ अर्थ- जिसका हृदय संशय मिथ्यात्व के रस से रसिक हो रहा है। उसका यह सब ऊपर कहा हुआ मस ठीक नहीं है । क्योंत्रि मोक्षका मार्ग निर्गन्थ अवस्था ही है। जिसमें वस्त्र दंड आदि समस्त बाह्य परिब्रहों का भी त्याग हो जाता है। ऐसी दीवगग निर्गन्य अवस्था ही मोक्ष का मार्ग है | सग्रन्थ अवस्था मोक्ष का पार्ग कभी नहीं है। आगे स्त्री मुक्ति का निषेध करते हैं । जइ तप्पइ उगतवं मासे मासे य पारणं कुणह । तइ वि ण सिज्मइ इयो कुष्टिलिंगस्स दोसेण ॥ ९२ ।। यदि तप्यते उग्रतपः मासे मासे च पारणं करोति । तथापि न सिद्धनि स्त्री कुत्सिलिंगस्य दोषेण ।। ९२ ॥ अर्थ- स्त्री लिंग कुत्सित लिंग है अर्थात् स्त्री का शरीर वा स्त्री की पर्याय निन्द्य है। इसलिये चाहे कोई स्त्री उग्रसे उम्र तपश्चरण करती रहे और चाहे प्रत्येक महीनेका उपवास कर प्रत्येक महीने के Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अन्त में पारणा करती रहे तथापि स्त्री को मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। आगे इसका कारण बतलाते हैं - मागापमायपउर पडिमासं तेसु होइ पक्खलणं । णिच्च जो णस्साओ पुण दाङलुस्थि चित्तस्स ।। ९३ ॥ मायाप्रमादप्रचुराः प्रतिभासं तासु भवति प्रस्खलनम् । नित्यं योनिस्तावः पुनःवाढर्य नास्ति चित्तस्य ॥ ९३ ॥ अर्थ- स्त्री को मोक्षकी प्राप्ति क्यों नहीं होती इसका कारण यह है वि स्त्रियों में मायाचार की मात्रा अधिक होती है तथा प्रमाद भी अधिक होता है । इसके सिवाय प्रत्यत्रा महोने में उनके रजा बालन होता रहता है, योनिमे रजःस्राव होता रहता है और इसलिये उनका चित्त कभी भी स्थिर नहीं रह सकता । भावार्थ- चित्तकै स्थिर न रहने से उनमे कभी ध्यान नहीं हो सकता । बिना ध्यान के कर्मों का नाश नहीं हो सकता और विना कर्मों के नाश किये मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार स्त्रियों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती ।। आगे स्त्रियों के शरीर के दोष बतलाते हैं। सुहमापज्जत्ताणं मणुआणं जोणिणा हि फक्खेसु । उपत्ती होइ सआ अण्णो सु य तमुपएसेसु ॥ ९४ ॥ सूक्ष्मापर्याप्ताना मनुष्याणां योनिनाभिकक्षेषु । उत्पत्तिर्भवति सवा अन्येषु च सनुप्रदेशोषु ॥ ९४ ॥ अर्थ- स्त्रियों की योनि में, नाभि में, काख में तथा और भी कितने ही शरीर के प्रदेशों में सदा काल मूक्ष्म अपर्याप्तक मनुष्यों की उत्पत्ति होती रहती है। भावार्थ- स्त्रियों की योनि, नाभि, कांख में सम्मर्छन मनुष्य उत्पन्न होते रहते है 1 वे जीव भनुष्य के आकारके पंचेन्द्रिय होते है अत्यन्तसूक्ष्म Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माय-ग्रह होते है और अपर्याप्तक होते है। यही कारण है कि स्त्रिया मे जीयो की हिंसा का सर्वथा त्याग कभी नहीं हो सकता । वयंाकि वे जीत्र उत्पन्न होते रहते है और मरते रहते है । इसलिय स्त्रियां केवल संकल्पी आरम्भी, उद्यमी आदि हिमा का त्याग कर सकती है। मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे समस्त जीवों की सर्वश्रा हिसा का त्याग उनसे नहीं हो सकता । इलिया गाद,र: मी कर सत्राती। आगे इमी वातको दिखलाते हैं। ण हुँ अस्थि तेण तेसि इस्थिणं बुधिह संजमोद्धरणं । संजमधरणेण विणा हु मोक्खो तेण जम्मेण ॥ ९५ ॥ न ह्यस्ति सेन तासां स्त्रीणां द्विविधसंयमधारणम् ।। संयमधारणेन विना नहीं मोक्षस्सेन जन्मना ।। ९५ ।। अर्थ- संयम दो प्रकारका होता है एक प्राणिमयम और दुसरा इन्द्रिय सयम । असत स्थावर समस्त जीवों की रक्षा करना किसी भी जीव का घान न करना प्राणिमयम है और समस्न इन्द्रियों को वश में चक्रिसूहलभत कृष्णप्रमत्कटभूभताम् । म्कन्धावारसाहेषु प्रस्रवोच्चार भूमिषु ।। शुक्रसंघाणकश्लेष्मकर्णादन्तमलेषु च । अत्यन्ताशुचि देहेपु सद्यः सम्मूर्छयन्ति ये ।। भूत्वा धनांगुलासंख्यभागमात्रशरीरकाः । आशु सश्यन्त्यपर्याप्तास्ते स्युः सम्मच्छिमा नराः ।। अर्थ-- चक्रवर्ती, हलधर नारायण आदि वडे २ राजाओं के स्कन्धा वार में मलमूत्रके स्थानों में शुक्र (वीर्य) कफ, नाकका मल, कर्ण दन्त आदिक मलमे तथा अत्यन्त अपवित्र शरीर में शीघ्र ही सम्मर्छन जीव उत्पन्न हो जाते है। उन जीवों का शरीर घनांगल के असंख्यातवें भाग मात्र होता है 1 वे अप्राप्तिक होते है तथा सम्मन्छेन मनुष्य होते है वे उत्पन्न होकर शीघ्र ही मर जाते है । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मंत्रह रखना इन्द्रिय संयम है । ये दोनों प्रकार के संयम पूर्ण रूप से स्त्रियों के नही पल सकते । कोकि मन वचन काप्न कृत कारित अनुमोदना से समस्त प्राणियों की हिता का त्याग होना चाहियं परंतु उसके शरीर से सम्भूर्छन मनुष्यों की हिंसा होती है इसलिये पूर्ण संयम उनसे कभी नहीं हो पा सकता है । तथा विना मुंयम के मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिये स्त्रियों को उसी जन्म में उसी स्त्री पर्याय मे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। स्त्रियां अपने योग्य आर्यिका के व्रत धारण कर स्त्री लिंग को छेद कर देव हो सकती है और फिर वहां से आकर मनुष्य पर्याय में उत्तम मनुल्य हो सकती है और फिर तपश्चरण कर उस मनुध्य पर्याय मे मोक्ष जा सत्राती है । सोला का जीव वा अन्य कितनी ही स्त्रियों के जं व इसी प्रकार मोक्ष प्राप्त करेंगे । आगे इस शंकाकार इस विषय में प्रश्न करते हैं - अहवा एयं वयणं तेसि औधो ण होइ कि जीवो। कि पत्थि गाणदसण यवओगो चेयणा तस्स ॥ ९६ ।। अथवा एतद् बचनं तासां जोवो न भवति कि जोवः । कि नास्ति ज्ञानदर्शनं उपयोगः चेतना तस्य ।। ९६ ।। अर्थ- कदाचित् काई यह प्रश्न करते हो कि क्या स्त्रियों का जीव जीव नहीं है ? क्या उन स्त्रियों को ज्ञान दर्शन नहीं है ? अथवा उनके क्या उपयोग नहीं है अथवा चेतना नहीं है ? स्त्रियों के क्या नहीं है जिससे कि वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती । भावार्थ- मनुष्यों के समान ही उन स्त्रियों के भी जीव है उनके भी मान दर्शन है उपयोग है चेतना है। इसलिये वे भी मनुष्यों के समान ही मोक्ष जा सकती है। आगे इसी का उत्तर देते है। जइ एवं तो इत्यि धीवरि. कल्लालि वेसमईणं । सम्वेसिमवि जीवो सयलाओ तरिहि सिज्मति || ९७ ॥ याध तहि स्त्री धोवरी कल्लारिका वेश्यादीनाम् । सर्वासामस्ति जीवो सकलास्तहि सिहयन्ति ।। ९७ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह । अर्थ- यदि शंकाकार इस प्रकार कहते हो तो इसका उत्तर यह में फि यदि मनु के समान ही स्तियों का जीव है तो धीवरी वेश्याएं आदि महा हिंसा करने वालो स्त्रियों के भी जीव है इसलिय बे समस्त स्त्रियां भी मोक्ष प्राप्त कर लेगी। भावार्थ- यदि जीव होने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसा मानते हो तो फिर महा पाप करने वाले जीव भी मोक्ष प्राप्त कर लेंगे नथा स्त्रियों को भी जीव होने से ही मोक्ष की प्राप्ति मानते हो तो धीवरी वेश्याएँ आदि दिन रात महा पाप उत्पन्न करने वाली स्त्रियां भी मोक्ष प्राप्त करलेंगी 'परंतु ऐसा होना असंभव है । आगे यही बात दिखलाते हैं । तम्हा इत्थी पज्जय पडुच्च जोबस्स पडि दोसेण 1 जाओ अमब्ज कालो तम्हा तेसि ण णिस्वाणं ।। ९८॥ तस्मात्स्त्रीपर्यायं प्रतीत्य जीवस्य प्रकृतिदोषेण | जातः अभव्यकाल: तस्मात्तासां न निर्वाणम् ।। ९८ ॥ अर्थ- अतएव स्त्री पर्याय को लेकर प्रकृति के दोषसे जीवका अमव्यवाल प्राप्त हो जाता है इसलिय स्त्री को मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती। - भावार्थ- रत्नश्रय के व्यक्त होने की योग्यता को भत्र्यकाल बहते हैं। स्त्रियों के शरीर में अनेक समच्छेन मनुष्य प्रति समय उत्पन्न होते और मरने है इसीलिय स्त्रियों के पूर्ण संयम की प्राप्ति नहीं होती और इसलिये उनको मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। आगे म.क्ष की प्राप्ति किन्हें होती है सो दिखलाते हैं। अइ उच्चमसंहणणो उसमपुरिसो कुलग्गओ संतो। मोक्लस्स होइ जग्गो णिग्गत्थो धरिय जिलिंगो ।। ९९ ।। अत्युत्तमसंहननः उत्तम पुरुषः कुलागतः सन् । मोक्षस्य भवति योग्यो निर्ग्रन्थो धृतजिनलिंगः ॥ ९९ ।। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ- जिस पुरुष का उत्तम संहनन हो, जो उत्तम गुरु हो सत्कुकदमें उत्पन्न हुआ हो, वह पुरुष जिन लिंग निर्ग्रन्थ अवस्था को धारण कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मात्रार्थ- बिना उत्तम मंहनन के मोक्ष की प्राप्ति नहीं, स्त्रियों का उत्तम मंहनन नहीं होता इसलिये उनको मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती। इसके सिवाय स्त्रियों का पर्याय निद्य पयर्धा है उत्तम पर्याय नहीं है। स्त्रियों के शरीर में अनेका सम्मू छन मनष्य उत्पन्न होते और मरते रहते है, प्रतिमास रजःस्राव होता रहता है, इसलिये भी उनको मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । इसके मिवाय जिन लिंग निर्ग्रन्थ अवस्था धारण नहीं कर सकती इसलिये भी वे मोक्ष प्राप्त करने योग्य नहीं है । स्त्रियों को ऋद्धियाँ भी प्राप्त नहीं हो सकती तो फिर भला मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? अर्थात कभी नहीं हो सकती । इसलिय मोक्ष की प्राप्ति सज्जाति उत्तम कूलम उत्पन्न हा चरम शरीरी महा पुरुषा को ही होती है। वह भी निर्ग्रन्थ लिन धारण करने, उत्तम ध्यान धारण करनेवाले पुरुषों की ही होती हैं। आगे महस्थ अवस्था में मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, ऐसा दिखलाते हैं। गिलिगे वटुं तो गिहत्थवावार गयितिधजोओ। अतरउद्दारूतो मोक्खं ण लहेहि कुलजो वि ॥ १०० ।। गृहस्थलिंगे वर्तमानः गृहस्वव्यापारगृहीतत्रियोगः । आर्तरौद्रारूतः मोक्षं न लभते कुलजोपि ॥ १०० ॥ अर्थ- जो मनुष्य उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ है वह भीजब तक गहस्थ लिंग में रहता है, अर्थात् गृहस्थी में रहना है । गृहस्थी के व्यापार में मन वचन काय तीनों योगों को लगता रहता है तथा अर्तध्यान और रौद्रध्यान में लगा रहता है तबतक वह उत्तम पुरुष भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। भावार्थ - ग्रस्थावस्था में ध्यान बा रौद्र ध्यान इन दोनों में से कोई न कोई ध्यान लगा ही रहता है और गृहस्थी के व्यापार मे आरंभी उद्योगी आदि हिंसा होती ही रहती है, परिग्रह रहता है। ऐसी अवस्था मे मला कर्मोका नाश कैसे हो सकता है। ऐसी Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अवस्था में तो कर्मों आम्रव ही होता है और वह भी अधिकतर अशुभ कर्मों का आस्रव होता है। इसलिये यह निश्चित सिद्धांत हैं कि गृहस्थ लिंग से मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। आगे फिर भी यही दात दिखलाते है । वमन्भंतरगर्थ बटुंतो इंदियत्थपरिकलिओ । जइवि हु सगवंतो तहा वि ण सिझेड तम्हि भवे ॥१०॥ बाह्याभ्यन्तरग्रन्थे वर्तमानः इन्द्रियार्थपरिकलितः । यद्यपि हि दर्शनवान् तथापि न सिद्धयति तस्मिन् भवे।।१०१।। अथ- जा सद्गृहस्थ उत्तम पुरुष शुद्ध सम्यग्दर्शन सहित हो तथापि वह यदि वाह्य आभ्यंतर परिग्रहों को धारण करता है और इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता है तो बह लस भर में उस अवस्था से कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता । भावार्थ- मिथ्यात्व कषाय आदि अंतरंग परिग्रहों वे, धारण करने से चित्त की शुद्धता नहीं हो सकती तथा विना मन के शुद्ध हुए धर्म्यध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती। फिर भला शुक्लध्यान की बात तो बहुत दूर हो जाती है । ऐसी अवस्थामें भला मोक्षकी प्राप्ति कसे हो सकती है। इसी प्रकार वस्त्र आदि बायपरिग्रह रखने से अनेक प्रकार के दोष आते है 1 वस्त्र मैले होनेपर घोने पड़ते है, वस्त्र धोने में अनेक जीवों की हिंसा होती है. न धोनेपर उन में अनेक जीव उत्पन्न हो जाते हैं । यदि वस्त्र फट जाय वा उनको कोई ले जाय तो आतध्यान होता है तथा याचना करनी पड़ती है। इस प्रकार केवल वस्त्र रखने में ही महा पाप होता है फिर मला समस्त परिग्रहों के रखने में तो अनेक महा पाप होते ही है । इसी प्रकार इन्द्रियों के विषयों को सेवन में अनेक महा पाप होते ही है। इसके सिवाय इन्द्रियों की लंपटता बढ़ती है और इस प्रकार उसके इंद्रिय संयम कभी नहीं हो सकता । इसलिये गृहस्थ अवस्था में वा परिग्रह सहित अवस्था में मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। आगे और भी दिखलाते है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह जइ गिहवंतो सिज्झइ अगहिय णिग्गंलिंग सग्गयो। तो कि सो सिस्थयरो णिस्संगो तबइ एगागी ।। १०२ ॥ यदि गृहवान् सियति अगृहीतनिलिंगः सग्रन्थः । तहिं कि स तीर्थकरो निःसंगस्तपति एकाको ।। १०२ ॥ अर्थ- यदि गृहस्थ अवस्था में ही बिना निग्रंथ लिंग धारण किय सग्रंथ अवस्था में ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तो फिर तीर्थकर देव समस्त परिग्रहों का त्याग कर अकेले एकांत स्थान में जाकर तपश्चरण क्यों करते है। भावार्थ- भगवान ऋषभदेव ने भी समस्त परिग्रहों का त्याग कर निर्जन वनमें जाकर तपश्चरण किया था। इससे सिद्ध होता है कि सग्रंथ अवस्था मे कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। आगे कवलाहार का निषेध करते है । केवलभुत्तो अरहे कहिया जा सेवडेण तहि तेण । सा पत्थि तस्स गूणं णियमणो परमजोईणं ॥ १०३ ।। कवलभुक्तोः अर्हति कथिता या श्वेतपटेन तस्मिन् तेन । सा नास्ति तस्य नूनं निहतमनः परमयोगिनः ॥ १०३ ।। अर्थ- श्वेतपट लोग कहते है कि भगवान अरहंत देव समवशरण में विराजमान होते हुए भी कवलाहार करते हैं अर्थात् आहार को हाथसे उठाकर मुंहमें देकर भोजन करते है। परन्तु ऐसी मान्यता तर्कसंगत नहीं है । क्योंकि भगवान अरहत्तदेव परम योगी है । उनका मन भी नष्ट हो गया है, केवल द्रव्य मन है जो बिना भाव मनके कुछ काम नहीं करता 1 इसके सिवाय यह भी समझने की बात है कि अरहन्त भगवानके मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव हो गया है तथा विना मोहनीय कर्म के उदय के वेदनीय कर्म कुछ काम नहीं कर सकता । इसलिये भगवान अरहन्त देव के न क्षुधा पिपासा आदि दोष है और न वे कबला हार करते है। ___ आगे अरहन्त अवस्था किस प्रकार प्राप्त होती है यही दिखलाते Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह गुत्तितजुत्तस्स य इन्दियवावाररहियचितस्स | भाविदियमुक्खस्स xय जीवस्स य णिक्कलं झाणं ।। १०४ ॥ गुप्तित्रययुक्तस्य च इन्द्रियव्यापाररहितचिसस्य । भावेन्द्रियमुख्यस्य च जीवस्य निश्चलं ध्यानम् ।। १०४ ।। अर्थ- जो निग्रंथ मुनि मन, वच, काय के समस्त व्यापारों को रोककर, मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुपित इन तीनों गुप्तियों का पालन करते है तथा जिनका चिन इन्द्रियों के व्यापार से सर्वथा रहित होता है और जिनके भावेन्द्रिा की मुख्यता रहती है ऐसे योगी पुरुषों के निश्चल ध्यान होता है। झाणेण तेण तस्स हु जीव मणस्साण लमरसोयरणं । समरसभावेण पुणो संचित्ती होड़ णियमेण ।। १०५ ।। ध्यानेन तेन तस्य हि जीव मनाणसमरसीकरणम् । समरसभावेन पुनः संवित्ति भवति नियमेन ।। १०५ ।। अर्थ- उस ध्यान के द्वारा उन योगि का आत्मा और मन दोनों एक रुप हो जाते है, दोनों समान रसरुप परिणत हो जाते है तथा उस समरसी भावसे उन योगी के नियममे मंबित्ती हो जाती है। भावार्थ- अपने आत्माका अपने ही आत्मामें लोन हो जाना विनी कहलाती है । वह संवित्ती निश्चल ध्यान से ही होती है । आगे फिर भी यही दिखलाते हैं । संवित्तीए वि तहा तण्हा णिहा य छुहा य तस्स जस्संति ! णट्ठसु तेसु पुरिसो खवयस्णि समारुहइ ।। १०६ ॥ संवित्तापि तथा तृष्णा निवाक्षुधा च तस्य नश्यति । नष्टेषु तेषु पुरुषः क्षपकणि समारोहति ।। १०६ ।। ___ x भावेंन्द्रिय का अर्थ चेतना है। यह केवल ध्यान का लक्षण है । केवल ज्ञान के पहली अवस्था का है। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात्र-मंग्रह अर्थ- जब यह आत्मा निश्चल ध्यानके द्वारा अपने आत्मा में लीन हो जाता है उस समय उस योगी के तन्द्रा, निद्रा, क्षुधा पिपामा आदि सब नष्ट हो जाते है तथा नन्द्रा, निद्रा, क्षुवा आदि के नष्ट होने मे फिर वह योगी भनक थगी में आरुह हो जाता है। भावार्थ- श्रेणी दो प्रकार की है एक उपशम श्रेणी और दूसरी क्षपक धेगी। उपशम श्रेणी चढनेवाला योगी अपने चारित्र मोहनीय कर्मों का उपशम करना जाता है परन्तु ग्यारहवें गुणस्थान में जाकर उन कमो का उदय होने से नाच का गुमन्यानों में आ जाता है । क्षपक श्रेणी चढ़नेवाला योगी अपने चारित्र मोहनीय कर्मों का क्षय करता जाता है और फिर दशवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान मे पहुँच जाता है तथा वारहवें गणरथान के अंत में ज्ञानावरण दर्शनाकरण अन्तराय कोका नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त करलेता है और इस प्रकार वह तेरहवें गुण म्थान में पहुंच कर अरहन्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यही बात आगे दिखलाते हैं । खवएसु य आरुढो णिवाईफारणं तु जो मोही । जाइ खत्रं हिस्सेसो तक्खीणे केवलं गाणं ॥ १०७ ॥ क्षपकेषु च आरुढो निद्रादिकारणं तु यो मोहः । याति क्षयं निःशेषः तत्क्षये केवलं ज्ञानम् || १०५ ।। अर्थ- जब वह योगी अपने निश्चल भ्यान के द्वारा क्षपक श्रेणी में आरूढ हो जाता है तब उसका निद्रा तन्द्रा क्षघा आदिका कारण मोहनीय कर्म सर्वथा पूर्ण रुपसे नष्ट हो जाता है । और उस मोहनीय कर्म के सर्वथा नष्ट होने से उस महा योगी के केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है। तं पुण केवल गाणं सहदोसाण वह पासम्मि । ते दोसा पुण तस्सहु छुहाइया णत्यि केलियो ।। १०८ ॥ तत्पुनः केवलनानं दशाष्टदोषाणां भवति नाशे । ते दोषाः पुनस्तस्य हि क्षुधाविका न सन्ति केवलिनः ।। १०८ ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ- यह केवल ज्ञान क्षुधा पिपासा आदि अठारह दोषोंये नाश होने पर ही होता है । इसलिये उन केवली भगवान के वे क्षुधा, नपा आदि अठारह दोष कभी नहीं होते । भावार्थ- क्षुधा, तृषा, बुढापा, “य, जन्म, मरण, रोग, शोक, रति, अरति विस्मय, स्वेद ( पसीना) खेद, मद, निद्रा. राग, द्वेष, मोह ये अठारह दोष कहलाते हैं । जब इनका सर्वथा नाश होजाता है तभी केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। बिना इनका नाश हुए केवल ज्ञान कभी नहीं हो सकता । इससे सिद्ध होता है कि केवली भगवान के क्षुधा तुषा कोई रोग नहीं है और इसीलिये उन्हें कवलाहार की आवश्यकता ही नहीं हो सकती । यदि केवली भगवान के भी आहार की आवश्यकःता मानी जायगी तो फिर उनके अनन्त शक्ति का भी सर्वथा अभाब मानना पड़ेगा । यही वात आग दिखलाते हैं। जइ सति तत्स दोसा केत्तियमिता छुहाइ जे भगिया । पा हवद सी परमप्पा अणंतविरिओ हु सो अहवा ।। १०९ ॥ यदि सन्ति तस्य दोषाः कियन्मात्राः क्षुधाविका ये भणिताः । न भवति स परमात्मा अनन्तवीर्यो हि सोऽथवा || १०९ ॥ अर्थ- यदि उन केवली भगवान के क्षुधा तृषा आदि दोष थोड से भी माने जायेग तो फिर वे भगवान न तो परमात्मा हो सकते हैं और न बे अनन्तवीर्य को धारण करनेवाले कहे जा सकते हैं। भावार्थ- जो लोग क्षुधा-तृषासे पीडित रहते है वे हम आप लोगों के समान न. तो परमात्मा हो सकते है और न अनन्तवीर्य वा अनन्त शक्ति धारण कर सकते हैं। इसी प्रकार केवली भगवान भी गदि क्षुधा स पोडित होते हैं तो वे भी परमात्मा नहीं हो सकते और क्षुधा से पीडित होने के कारण अनन्त सुखी वा अनन्त वीर्यवान भी नहीं हो सकते । इसलिये केवली भगवान के क्षुधा, तृषा आदि दोष मानना सर्वथा मिथ्या है । परमात्मा होने पर भी यदि उन्हें भूख प्यास लगती है तो फिर उनमें और हममें कोई अन्तर ही नहीं रहता है । इसके सिवाय यह भी समझना चाहिये कि जो मनुष्य आहार लेते है Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह उनको नींद भी आती है तथा और आकुलताएं प्रकट होती है । इसलिये परमात्मा भगवान अरहन्त देवकै क्षुधादिक दोष मानना और कवलाहार मानना तर्क संगत प्रतीत नहीं है । आगे भगवान अरहन्त देव के शरीर की स्थिति बिना आहार के किम प्रकार रहती है सो दिखलाते हैं । णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पहारो य । उज्जमणो विय कमसो आहारो छविहो ओ ॥ ११० ॥ नोकर्मकर्माहारौ कवलाहारश्च लेपाहारश्च । ओजो मनोपि च क्रमशः आहारः षड्विधो शेयः ।। ११० ।। अर्थ- नोकर्म अहार, कर्माहार, कवलाहार लेपाहार, ओजाहार और मानसिक आहार इस प्रकार अहारके छह भेद हैं । गोकम्मकम्महारो जीवाणं होइ चउगह गयाणं । कवलाहारो गरयसु रुक्खेसु य लेप्पमाहारो ।। १११ ॥ नोकर्मकर्माहारौ जीवानां भवतः चतुर्गति गतानाम् । कवलाहारो नरपशूनां वृक्षेषु च लेपाहारः ।। १११ ।। अर्थ- इन छह प्रकारके अहारो में से नौकर्माहार और कर्माहार चारों गतियों मे परिभ्रमण करनेवाले समस्त जीवों के होते है, कवलाहार मनुष्य तथा पशुओं के होता है और वृक्षों के लेपाहार होता है । पक्खीणुज्ज्जाहारो अंडयमजसु वट्टमाणाणं । देवेसु मणाहारो चाउविहो पत्थि केबलिणो ।। ११२ ।। पक्षिणामोज आहारः अण्डमध्येषु वर्तमानानाम् । देवेषु मन आहारः चतुविधो नास्ति केवलिनः ॥ ११२ ॥ अर्थ-- अंडे के भीतर रहने वाले पक्षियों के ओजाहार होता है और देवों के मानसिक अहार होता है । इस प्रकार छहों प्रकार के आहार की व्यवस्था है। इनमे से चार प्रकार का अहार केवली भगवानके नहीं होता 1 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ भाव-संग्रह भावार्थ- प्रत्येक जीवके जो तीन शरीर और छह पर्याप्ति के योग्य जो मुद्गल वर्गणा आती रहती है उनको नो कर्महार कहते हैं । ज्ञानवरण आदि आठों कर्मों के योग्य जो पुद्गल वर्गणा आती है उनको महार कहते है । मुंहमें रखकर जो खाया जाता है उसको कवलाहार कहते है, लेप कर देना लेपाहार है. अंडों के ऊपर बैठकर जो मुर्गी आदि पक्षी अंडों के भीतर गर्मी पहुंचाती है वह ओजाहार है तथा देवों के जो नियत समय पर क्षुधा लगने पर मनसे अमृत झरता है उसको मानसिय आहार कहते है । इनमें से कवलाहार, लेपाहार, ओजाहार और मानसिक आहार भगवान केवली के कभी नहीं होते । णोकम्प्रकम्महारो उवयारेण तस्य आयमे भणिओ । fe सो वि स वीयराओ परो जम्हा ।। ११३ ।। नोकर्मकर्माहारौ उपचारेण तस्य आगमे भणितौ । न हि सोहि सनात्। ११३ ॥ अर्थ यद्यपि केवली भगवान् के तो कर्म आहार और कर्म आहार आगम मे वतलाया है परंतु वह भी उपचार से बतलाया है। निश्चय नय में देखा जाय तो वह भी नहीं है। इसका भी कारण यह है कि केवली भगवान् परम वीतरागी है। इसलिये उनके आहार की कल्पना हो ही नहीं सकती है । भावार्थ - यद्यपि केवली भगवान् के प्रत्येक समय में कर्म वर्गणा आती है तथापि वे ठहरती नहीं है, उसी समय खिर जाती है। इसलिये भगवान के उपचार मे ही नोकर्म वा कर्म आहार माना है तथा उपचार से ही आस्रव माना है। इसलिये वास्तव में वह नहीं के समान है। भगवान के कषायों का सर्वथा अभाव है और बिना कषायों के कर्म ठहर नहीं सकते । इसलिये भगवान के कर्म बंध का भी सर्वथा अभाव माना है। घातिया कर्मों के नष्ट होने से भगवान के अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाते है, अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य प्रगट हो जाते है । ऐसी अवस्था में क्षुधा लगने और कवलाहार लेने की कल्पना करना सर्वथा व्यर्थ हैं और असत् है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आग कबलाहार के दोष बतलाते है । जो जेमइ सो सोवइ सुत्तो अग्णे विविसयमणुहवइ । विसए अणुहबमाणो स बीयराओ कह णाणी || ११४ ॥ यो जेमति स स्वपिनि सुप्तो अन्यानपि विषयानुभवति । विषयाननुभवमानः स वीतरागः कथं ज्ञानी ।। ११४ ।। अर्थ- जो पुरुष कवलाहार करता है वह सोता भी है, जो मोता है वह पुरुष अन्य अनेक इन्द्रियोंके विषयों का अनुभव करता है तथा जो इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करता है वह वीतराग और सर्वज कैसे हो मकता है? भावार्थ- इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करना और वीतराग हाना दोनों परस्पर विरोधी है। जो इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करता है बह पाभः पतिरा नहीं हो सकता, क्योंकि विषयों का अनुभव राग से ही होता है, बिना राग के विषयों का अनुभव कभी नहीं हो सकता । यदि केवली भगवान कबलाहार लेकर सोते है और विषयों का अनुभव करते है तो वे कभी वीतराग नहीं हो सकते और जो वीतराग नहीं है वे कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकते । इसलिये मानना चाहिये किसम्हा कवलाहारो केवलिणो णात्य दोहि वि णएहि । मण्णति य आहारं जेते मिच्छाय अण्णाणी ॥ ११५ ॥ तस्मात्कवलाहारः केवलिनो नास्ति द्वाभ्यामपि नयाभ्यां । मन्यन्ते चाहारं घे मिथ्याज्ञानिनः ।। ११५ ॥ अर्थ- इसलिये यह सिन्द्वात निश्चित रुप से सिद्ध है कि केवली भगवान के निश्चय नय और व्यवहार नय दोनों नयों से कवलाहार नहीं है। फिर भी केवली भगवान के कवलाहार मानना अज्ञानता ही आगे और कहते है - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अण्णं जं इय उत्तं संसयमिच्छत्तकलियभावेण । अहं नि थतिरकपणे भाव-वग्रह णहु दोसो || १४६ ।। अन्यद्यदित्युक्तं संशयमिथ्यात्वकलितभावेन । अस्माकं स्थविरकल्पः कम्बलग्रहणेन न हि दोषः ।। ११६ ।। अर्थ- जिन के परिणाम संशय मिथ्यात्व में भरे हुए है वे कहते है कि हम तो स्थविर करनी है, इसलिये हमको केवल ग्रहण करने में कोई दोष नहीं लगता । कंबली वत्थं दुद्धिय दंड कणयं च रयणभंडाई | सग्गग्ग मणणिमित्तं मोक्खस्स य होइ वित्तं ॥ ११७ ॥ कम्बलं वस्त्रं पुग्धिकं दण्डं कनकं च रत्नभाण्डादीनि । स्वर्ग गमननिमित्तं मोक्षस्य च भवति निभ्रान्तम् ॥ १२७ ॥ अर्थ- ऐसा कहा जाता है कि कंबल, वस्त्र, कुंडी, दंड सोना रत्नों के वर्तन ये सब स्वर्ग मोक्ष के कारण है इसमें किसी प्रकार की भांन्ति नहीं है । पर ऐसी मान्यता उचित नहीं है क्योंकि ण उ होइ थविरकप्पो निहत्थकप्पो हवेइ फुड ऐसो । इय सो धुर्तोह कओ विश्वकप्पल भग्गे ॥ ११८ ॥ न हि भवति थविर कल्पो गृहस्थकल्पो भवति स्फुटमेषः ॥ इति भूतैः कृतः स्थविरकल्पस्थ भग्नः ॥ ११८ ॥ अर्थ- आचार्य कहते है कि कंवल दंड वस्त्र कुंडी सोना रत्नों के बर्तन रखना आदि स्थविर कल्प नहीं है किंतु यह तो गृहस्थ कल्प है । इस गृहस्थकल्प को स्थविर करूप मानने की कल्पना स्थविर कल्प से च्युत लोगों ने की है । भावार्थ- वस्त्र, कंवल, दंड सोना आदि रखना गृहस्थों का काम है। मुनियों के लिये तो इन सबका त्याग बतलाया है । फिर जो लोग मुनि होकर भी वस्त्र दण्ड आदि रखते है और उनको मोक्ष का साधन I Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग-संग्रह बतलाते है वह कैसे ? यह परिग्रह तो सर्व पापों का कारण है, स्वर्ग मोक्ष का कारण कभी नहीं हो सकता। आग जिन कल्प और स्थविर कल्पका बास्तविक स्वरूप कहते दुबिहो जिणेहि कहिओ जिणकप्पो तह य थविर कप्पो य । सो जिणकप्पो उत्तो उत्तमसंहणणधारिस्स ॥ ११९ ।। द्विविधो जिनः कथितो जिनकल्पस्तथा च स्थविरकल्पाच । स जिन कल्प उक्त उत्तमसंहननधारिणः ।। ११९ ॥ अर्थ-- भगवान जिनेन्द्रदेवने जिन कल्प और स्थविर कल्प ऐसे द्वानों प्रकार के मार्ग दिखलाये हैं। इनमें से जो उत्तम संहनन का धारण करनेवाले महा मुनि है वे जिन कल्पी मुनि कहलाते है। आगे जिनकल्पी का और भी स्वरूप कहते हैं। जत्थ ण कदयभग्गो पाए णयाम्म रय पविट्टम्मि । फेडति सयं मुणिणो परावहारे य तुहिक्का ।। १२० ।। यत्र न कंटकलग्नं पावे नयनयो रजः प्रविष्ट ।। स्फोटयन्ति स्वयं मुनयः परापहारे च तूष्णीकाः ।। १२० ।। अर्थ- यदि जिनकल्पी महा मुनियों के पैर में कांटा लग जाता है अथवा नेत्रों मे धूलि पड जाती है तो वे महा मुनि अपने हाथ से न कांटा निकालते है और न अपने हाथ से नेत्रों से धुलि निकालते है । यदि अन्य कोई दूसरा मनुष्य उस कांटे को वा धुलि को निकालता है तो बे चुप रहते है। भावार्थ- वे महा मुनि अपने पैर के काटे को वा नेत्रों की लि को न तो स्वयं निकालते है और न निकालने के लिये किसी अन्य से कहते है । यदि जान लेने पर कोई पुरुष उनको निकालता है तो भी चुप ही रहते है । कांटा लगने पर विषाद नहीं करते और निकल जाने पर हर्ष नहीं करते । वे दोनों अवस्थाओं में समान वीतराग रहते है। आये और भी कहते हैं। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान-संग्रह जल बरिसणबा पाई गमणे भगे य जम्म छम्मासं । अच्छंति णिराहारा काओस्सग्गेण छम्मासं ॥ १२१ ।। जलवर्षायां जातायां गमने भग्ने च यावत् षण्मासम् । तिष्ठन्ति निराहाराः कार्योत्सर्गेण षग्मासम् ॥ १२१ ।। अर्थ- जब वर्षा ऋतु आ जाती है और मुनियों का गमन करना बंद हो जाता है उस समय बे जिन कल्पी महा मनि छह महीने तक निराहार रहते है और छह महीने तक कायेंत्सर्ग बारण कर किसी एक ही स्थानपर खडे रहते है। भावार्थ- उनका उत्तम संहनन होता है । अस्थि आदि सब बनमय होती है । इमलिये उनमे इतनी शक्ती होती है। एयारसंगवारी एआई धम्मसुक्कझागी य । 'वत्तासेस कसाया मोण बई कंदरावासी ।। १२२ ।। एकादशांगधारिणः एते धर्म शुक्ल ध्यानिनश्च । त्यक्ताशेषकषाया: मौनव्रताः कन्दरावासिनः ।। १२२ ॥ अर्थ-वे जिन कल्पी महामनि ग्यारह अंग के पाठी होते है, धर्मध्यान वा शक्लध्यान मे लीन रहते है, समस्त कषायों के त्यागी होते है मौनव्रत को धारण करनेवाले होते है और पर्वतों की गुफा कंदराओ में बहिरंतरगंथचुवा णिपणेहा णिप्पिहा य जइबइणो । जिण इव विहरति सदा ते जिगकप्पे ठिया सवणा || १२३ !! वाह्याम्सन्तरप्रन्थस्युत्ता निःणे हा निस्पृहाश्च यतिपतयः । जिना इव विहरन्ति सदा ते जिनकल्पे स्थिताः श्रमणाः ।। १२३ ।। अर्थ- वे जिन कल्पो महा मुनि वाहय आभ्यंतर समस्त परिग्रहों के त्यागी होते है, स्नेह रहित परम वीतराग होते है और समस्त इच्छाओं से सर्वथा रहित होते है। ऐसे बे यतीश्वर महामुनि भगवान जिनेन्द्र देव के समान सदा काल विहार करते रहते है। इसलिये वे जिन कल्पी मुनि कहलाते है। . आगे स्थविर कल्पी मुनियों का स्वरूप कहते है । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह पविरकप्पो वि कहिओ अणयाराणं जिणेण सो एसो। चंगच्चेलच्याआ अकिवणतं च पालिहरणे ।। १२४ ।। स्थविरकल्पोपि कथितः अनगाराणां जिनेन स एषः । पंचचेलत्यागोऽकिचनत्वं च प्रतिलेखनम् ।। १२४ !! अर्थ-- भगवान जिनेंद्र देव ने मुनियों के लिये स्थविर कल्पी मुगियों का भी स्वरूप कहा है । जो मुनि पांचो प्रकार के वस्त्रों का सर्वथा त्याग कर देते है अकिंचन व्रत धारण करते है और पीछी ग्यत' है ऐसे मुनि स्थविर कल्पी कहलाते हैं। आगे स्थविर कल्पी मुनियों का स्वरूप और भी कहते हैं । पंचमहन्वयधरणं ठिविभोयण एयभत्त करपत्तो । भत्तिभरण यवत्तं काले य अजायणे भिक्खं ।। १२५ ।। दुविहतवे उज्जमणं छठियह आवासएहि अणवरयं । खिदिसयणं सिरलोओ जिणवर पडिल्य पष्टिगहणं ।। १२५॥ पंचमहावतधारणं स्थितिभोजनं एकभक्तं करपात्रम् । भक्ति भरेण च दत्तं काले च अयापना भिक्षा || १२६ ।। अंडजबुंडजरोमज चर्मज वल्कज पंच चेलानि । यरिहत्य तणजचेलं यो गृह्णीयान्न भवेत्स यतिः । रजसेदाण मगहणं महव सुकुयालदा लहुत्त ज । 'नत्थे दे पंच गुणा ते पहिलिहणं पसेसेति ।। अर्व- सूत के वस्त्र, रेशम के वस्त्र, ऊन के वस्त्र चर्म के वस्त्र और वृक्षों की छाल के बने वस्त्र ये पांच प्रकार के वस्त्र कहलाते है । इन सब प्रकारके वस्त्रों का जो त्याग कर देता है तथा तण से वने वस्त्रों को भी जो ग्रहण नहीं करता वही मुनि कहलाता है । जो पीछी मदु हो कोमल हो, छोटी हो, धूलि मिट्टी को ग्रहण न कर सकती हो ऐसी ही पीछी प्रशंसा करने योग्य है । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ भाव-संत्रह द्विविधतपसि उद्यमनं षडविधावश्यक: अनवरतम् । क्षितिशयनं शिरोलोचः जिनवर प्रतिरूप प्रतिग्रहणम् ।। १२६ ॥ अर्थ- वे स्थविर कल्पी मुनि पांचों महाव्रतों का धारण करना है खड़े होकर आहार लेते है. दिन में एक ही बार आहार लेते है. बार पात्र में ही आहार लेते है, तथा विना याचना कियं भक्ति पूर्वक जा कोई समय पर दे देता है वही भिक्षा भोजन कर लेते है। वे मुनि वाहा और आभ्यंतर दोनों प्रकार के तपश्चरण करने मे सदा उद्यमी रहते है। छह आबश्यकों प्रतिदन निरंतर पालन करते है, पश्वीपर शयन करते है मस्तक दाढ़ी मूछ के वालों का लांच करते हैं और जिनेंद्रदेव के समान ही माने जाते है। भावार्थ- स्थविर कल्पी मुनि की अट्ठाईस मूलगुणों का पालन . करते है, पांच महाव्रत, पांच समिति, छह आवश्यक, पंचेन्द्रियोंका दमन खड़े होकर आहार लेना, दिनमें एक ही बार करपात्र में आहार लेना. भूमिशयन, कैशलोच, दन्तधावन, स्नान, त्याग और समस्त वस्त्रों का वा समस्त परिग्रहों का त्याग कर मग्नरूप धारण करना इस प्रकार ये अट्टाईस मूल गुण हैं । स्थविर कल्पी मुनी इनका पूर्ण रूपसे पालन करते है तथा यथासंभव उत्तर गुणों का पालन करते है । वे स्थविर कलपी मुनि बारह अनुप्रंक्षाओं का चिन्तवन करते है, दश वर्मों का पालन करते हैं, परिषहों को सहन करते है, चरित्र का पालन करते है तथा तपश्चरण धारण करते है । इस प्रकार के स्थविर कल्पी मुनि पूर्णरूपसे जिनदेव समान ही मुनि होते हैं। आगे स्थविर कल्पियों के लिये और भी कहते है। संहणणस्स गुणेण य दुस्समकालस्स तय पहावेण । पुर णयर गामवासी विरे कप्पे ठिया आया ।। १२७ ।।। संहननस्य गुणेन च दु:खमकालस्य तपः प्रभावेन । पुरनगरग्रामवासिनः स्थविरे कल्पे स्थिता जाताः 11 १२७ ।। अर्थ- इस दुषम कालमे शरीर के संहनन बलबान नहीं होते, Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह इसलिये वे मुनि किसी नगर गांव वा किसी पुर में रहते हैं और अपने तरश्चरण ये प्रभावा स्थविर कल्पी कहलाते हैं । उवयरण तं गहियं जेण ण भंगो हवे चरियस्य । गहियं पुत्थयदाणम् जाम जस्स सं तेग १९८ ।। उपकरणम् तद्गृहीतं येन न भंगो म यहि चर्यायाः । गृहीतं पुस्तफदान योग्य यस्य तत्तेन ।। १२८ ।। अर्थ- वे मुनि अपने उपकरण भी ऐसे रखते है जिनसे किसी प्रकार वे चारित्र बा भग न होता हो । तथा वे मुनि अपनी २ योग्यता • अनसार किसी के द्वारा दिये हुए शास्त्र वा पुस्तक भी ग्रहण कर लेते है। समुदाएण विहारो धम्मस्स पहावणं ससत्तीए । भवियाणं धम्मसवणं सिरसाणं य पालणं गणं ।। १२९ ॥ समुदामेन विहारो धर्मस्य प्रभावनं स्वनावस्या। भट्यातां धर्मभ्रषणं शिष्यानां च पालनं ग्रहणम् ॥ १२९ ।। अर्थ - इस पंचम काल में ये स्थविर कल्पी मनि समदाय रूप से बिहार करते हैं, अपनी शक्ती के अनुसार धर्म की प्रभावना करते है। भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देते है तथा शिष्यों को ग्रहण करते है और उनका पालन करते है । भावार्थ-- जो भब्य जिस दीक्षा के योग्य है उसको वैसी ही दीक्षा देते है, किसी को श्राधकों के योग्य ग्यारह स्थानों में से किसी भी स्थान की ( ग्यारह प्रतिमाओं में से किसी प्रतिमा की ) दीक्षा देते है और किसी परम विरक्त भव्य जीव को मुनि की दीक्षा भी देते है | जिन को दीक्षा दी है उनसे यथायोग्य अपने अपने पद के अनुसार चारित्र का पालन कराते है. धर्म श्रवण कराते है, धर्म की प्रभावना करते है और सबको धर्म मे दृढ कराते रहते है । आगे ऐसे स्थविर कल्पी मुनियों की प्रशंसा करते है । संहणणं अइण्णिचं कालो सो दुस्समो मनो चवलो । सह वि हु धौरा पुरिसा महन्वयभरधरण-उच्छहिया ॥ १३० || Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह - - - - संहननमतिनीचं कालः स दुःषमो मनश्चपलम् । तथापि हि धोराः पुरुषः महाव्रतभारधारणोत्साहाः ।। १३० ।। अर्थ- यह काल दुःषम है इस काल में गरीर के संहनन अत्यन्त मीत्र होने है और मन अत्यन्त चंचल रहता है तथापि धीर वीर पुरुष महाव्रतों का भार धारण करने में अत्यन्त उत्साहित रहते है, यह भी एक आश्चर्य की बात है। वरिससहस्सेण हु पुरा जं कम्म हणइ तेण कारण । ते संपइ वरिसेण हु णिज्जरयइ होणसंहणणो || १३१ ।। वर्षसहस्रेण पुरा यत्कर्म हन्यते तेन कायेन । सत्संप्रति वर्षेण हि निर्जरयति होनसंहननेन ।। १३१ ।। अर्थ- पहले समय में जिन कर्मों को मुनिलोग अपने शरीर से हजार वर्ष मे नष्ट करत थ उन्ही कर्मों को आज कर के म्यविर कल्पी मुनि अपने हीन सहनन से ही एक वर्ष में ही क्षय कर डाल सकतं है । एवं पुविहो कप्पो परम जिगंदेहि अक्खियो पूर्ण । अण्णो पासंडिकओ गिहकप्पो गंथपरि कलिओ ॥१३२॥ एवं विविधः कल्पः परमजिनः कथितो नूनम् । अन्यः पाण्डिकृतो गृहस्थकल्पो ग्रंथपरिकलितः ।। १३२ ।। अर्थ-- इस प्रकार भगवान जिनेन्द्र देव ने जिन कल्प और स्थविर कल्प एगे दो प्रकार के मुनि बतलाये है । इन दो प्रकार के मुनियों के सिवान जो वस्त्र आदि परिग्रहों मे परिपूर्ण गृहस्थ कल्पको कल्पना की हैं वह पावंडियों ने को है, एसे गृहस्थ कल्प की कल्पना भगवान जिनेंद्र देव ने नहीं बतलाई है। बुद्धरतमस्स मग्गा परिसह विसरहिं पोखिया जे य । यो गिहकप्पो लोए स थविरकप्पो को तेहि ।। १३३ ।। बुर्धरतपसः भग्नाः परीषविषयः पीडिता ये च । यो गृहकल्पो लोके स स्थविरकल्पः कृतः तैः ।। १३३ ॥ अर्थ- जो मुनि मुनि होकर भी दुर्धर तपश्चरण धारण करने में Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सह समय हो गये थे और इगलिये जो तपश्चरण मे भ्राट हो गये थे तथा जा परिषह सहन करने म दुःख का अनुभव करते थे, दुखी होते थे ऐमे उन लोगाने गृहस्थ कल्पको ही विरकल्प मान लिया है । जिग्गंयो जिणवसहो णिगंथं पवयण कयं तेण । तस्साणुमागलग्गा सत्वे णिग्गंथमहरिसिणो ।। १३४ ।: निर्गन्यो जिनवृषभो निग्रंथं प्रवचनं कृतं तेन । तस्यानुमागंलग्नाः सर्वे नियमन । १३४।। अर्थ- भगवान ऋषभ देव दीक्षा धारण कर निर्गथ मुनि हुए थे तथा कवल केवल ज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर उन्हाने मुनियों का स्वरुप निग्रन्थ ही बतलाया था। अपनी दिव्यध्वनी में मुनियों को निर्ग्रन्थ अवस्था ही बतलाई थी जो शास्त्रों मे आज तक विद्यमान है। उन्ही शास्त्रों के अनुसार वर्तमानके निर्ग्रन्थ मुनि भी उसी मार्ग के अनुसार निर्गन्ध होते चले आ रहे है ।। जे पुण भूसिय गंथासियणि गंलिंगवयभट्टा । तेहि सगंथं लिंगं पायडियं तित्थणाहस्स ॥ १३५ ।। ये पुनभूषितग्रन्था दूषितनिर्ग्रन्थलिंग-वतभ्रष्टाः । तेः सनग्य लिग प्रकटित तीर्थनाथस्य ॥ १३५ ॥ अर्थ- जो लोग मुनि होकर भी परिगृहसे सुशोभित रहते है। जिन्होंने पवित्र निर्गन्थ लिंगको दुषित कर रक्खा है तथा जो निग्रंथ लिंगसे और अपने मुनिन्नत मे भ्रष्ट हो गये है ऐसे लोगों ने तीथंकर पर देव के इस निर्गथ लिंग को भी सग्रन्थ लिंग प्रगट कर रक्खा है । भावार्थ- तीर्थकर परमदेव मार्ग तो निग्रंथ ही है । परन्तु जो लोग अपने व्रतोंसे भ्रष्ट हो गये है कोई प्रकार का कष्ट सहन न करते हुए सब प्रकार से सुखी रहकर ही स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करना चाहते है ऐसे लोग तीर्थकर के निर्ग्रन्थ मार्ग को सग्रन्थ बतलाते है । जं अं सपमादरियं तं तं णिरूयायमेण अलिएण। लोए वखणिता अण्णाणी धन्विआ तेहिं ।। १३६ ।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात्र-मगह यत् यत् स्वयमाचरितम तत्तत् निरागमैनालीकेन । लोके व्याख्याय अज्ञानिनो वन्चितास्तैः ॥ १३६ ।। अर्थ- ऐसे लोग जिन २ आचरणों को स्वयं पालन करते हैं उन्हीं आवरणों को अपने बताये हुए मिथ्या आगमों से निरूपण करते है तथा संसार में वे लोग उसी प्रकार व्याख्यान कर अज्ञानी लोगों को ठगते है । यह एक दुःख की बात है। आग श्वेतपट मत कब, कहां और किरा प्रकार उत्पन्न हुआ. यहीं बात दिखलाते है। छत्तोले बरिससये विस्कमरायस्स मरणपत्लस्स | सोरट्टे उप्पण्गो सेवइसन्चो हु वलहोर :: १३७ ।। षत्रिशतिवर्षशते विक्रमराजस्य मरणप्राप्तस्य । सौराष्ट्र उत्पन्नः श्वेतपटसंघो हि वल्लभीके ।। १३७ ।। अर्थ- राजा विक्रम के मरने के एकसौ छत्तीस वर्ष बाद सोरठदेश के बलभी नगर में श्वेतपट संव की उत्पत्ति हुई थी। उसकी कथा इस प्रकार है। असि उज्जेणिणवरे आइरिओ पहवाहुणामेण । जाणिय सुणिमित्तधरो भणिओ संघोणिओ लेण ।। १३८ ।। आसिदुज्जयिनीनगरे आचार्य: भन बाहुः नाम्ना । ज्ञात्वा सुनिमित्तरधरः भणितः संघो निजस्तेम ।। १३८ ।। अर्थ- उज्जयिनी नगरी में भद्रबाहु नामके आचार्य थे । वे निमित्तशास्त्रको जानते थे । उन्होने अपने निमित्त शास्त्रसे जानकर अपने संघ से कहा था कि-. हो हइ इह दुभिक्खं बारह वरणाणि जाम पुग्णाणि । देसतराइ गच्छद णिणिय संघण संजता ॥ १३२, ।। भविष्यतीह बुभिक्ष द्वादशवर्षाणि यावत्पूर्णानि । देशान्तराणि गच्छत निजनिजसंघेन संयुक्ताः ।। १३९ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्ग-- इस देशमे बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष पडेगा । इसलिये आप लोग अपने दोन संवके साथ दूसरे देशों में चले जाओ। सोऊण इयं धयणम् णाणावेसेहिं गणहरा सम्वे । णिय णिय संघ पउत्ता विहीआ जस्थ सुविभक्खं ।। १४० ।। श्रस्वेदं वचनं नानावशे गणधराः निजनिजसंघप्रयुक्ता विहृता यत्र सुभिक्षम् ।। १४० ।। अर्थ- आचार्य श्री भद्रबाहु से इन वचनों को सुन कर समस्त गगाधर व आचार्य अपने २ संघको लेकर जहां २ सुभिक्ष था सुकाल था उन २ देशों के लिये विदार कर गये । एक्कं पु सन्ति गामो संपतो बलहि णाम णएरीए । बहुसीससंपउत्तो विसए सोरदुए रम्मे ।। १४१ ॥ एकः पुनः शान्ति नामा संप्राप्तः वल्लभोनामनगर्याम् । बहुशिष्यसंप्रयुक्त: विषये सौराष्ट्र रम्ये ।। १४१ ।। अर्थ- उन आचार्यों में एक शांति चन्द्र नाम के आचार्य थे, वे आचार्य अपने अनेक शिष्यों के साथ मनोहर सोरठ देश के वल्भी नाम के नगर मे विहार करते हुए पहुंचे। तत्थ वि मयस्स जायं दुभिक्खं वारुणं महाघोरं । जस्थ वियारिय उयरं खदो रंकेहि कूरति ॥ १४२ ।। तत्रापि गतस्य जातं दुभिक्षं दारुणं महाघोरम् ।। यत्र विदार्योदरं भक्षितः रंकः क्रूर इति ॥ १४१ ।। अर्थ- जब वे आचार्य शांति चन्द्र अपने संघ सहित वल्मी नगर मे पहुंचे तब वहां भी महा भयानक महा दुःखदायी दुभिक्ष पडा तथा ऐसा दुर्भिक्ष पड़ा कि क्रूर निधन भिक्षुक आदि दूसरों के पेट को विदीर्ण कर उसमे का खाया हुआ अन्न खा जाते थे। तं लहिऊण णिमितं गृहीयं सम्वेहि कंबली वर । बुद्धियपन्तं च तहा पावरणं सेयवत्थं च ॥ १४३ ।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्र तल्लकहना निमितं हितं सर्वः कवलं बइम् . दुन्धिकपात्रं च तथा प्राबरगं श्वेतवस्त्रं च ।। १४३ 11 अर्थ- इसी निमित्त को लेकर उन आचार्य शांति चन्द्र के समस्त मंघने कंवल दंड कुंडी और ओढ़ने के लिये सफेद बल्न धारन कर लिया। चत्तं रिसि-आयरणं गड़िया सिखा म दोपवित्तीए। उवविसिय जाइऊणं भुत्त वसहीसु इच्छाए ॥ १४४ ।। त्यक्तं ऋष्याचरणं गृहीता मिक्षा च दोनवृत्या । उपविश्य याचयित्वा मुक्तं वसतिष्वया ॥ १४४ ।। अर्थ- इस प्रकार अन आचार्य मांति चन्द्रो संघने मुनियों के आचरण सन लोड़ दिये और वे हीनति घग्घरभिक्षा मांगकर अपनी अपनी वसतिका मे लाने लग तथा अपनी बसतीका में बैठकर इनछानसार भोजन करने लगे। एवं बटुंताणं किसिय कालम्मि चावि परियलिए । संजायं सुरिभक्खं जपइ ता संति आइरिओ ।। १४५ ।। एवं वर्तमानानां कियत्काले चापि परिचलिते । संजात सुभिक्षं जल्पति तान् शान्त्यासाय: ।। १४५ ।। अर्थ-- इस प्रकार उन शान्तिचद्र आचार्यके संघने अपना कितना ही समय व्यतीत विया । कुछ समय के अनन्तर वहां पर भी सुभिक्ष हो गया। तब आचार्य शान्तिचन्द्रने अपने संघस कहा । आवाहिऊण संघं भणियं छडेय कुत्थियावरणं ।। णिदिन गरयि गिहाइ पुणरवि चरियं मुगिदाणं ।। १४६ ।। आहूय संघ भणितं त्यजत कुत्सिताचरणम् । निन्दत गर्हत गृह्णत पुणरपि चारित्रं मुनिन्द्राणाम् ।। १४६ ।। अर्थ- आचार्य शान्तिचन्द्रने अपने समस्त संघ को बुलाकर उनस कहा कि अब इस देश में भी सुभिक्ष होगया है । इसलिये अब इन कुत्सित आचरणों को छोड़ो । अव तक जो ये कुत्सित आचारण किये हैं उनकी निन्दा करो और फिरसे मुनि दीक्षा लेकर मुनियों के शास्त्रोक्त आचरण पालन करो। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह तं वयणं सोऊणं उस सोसेण तत्थ पढ़मेण । को सक्कइ धारे एयं अइदुखरायरणम् ।। १४७ ।। तद्वचनं श्रुत्वा उक्तं शिष्येन तत्र प्रथमेन । कः शक्नोति धत् एतदतिदुर्धराचरणम् ।। १४७ ।। अर्थ- आचार्य शान्ति चन्द्र के इन वचनों को सुनकर उनके मुम्य शिम्य जिनचन्द्र ने कहा कि अव ऐसे इन अत्यन्त कठिन दुर्धर आचरणों को कौन धारण कर सकता है। भावार्थ- अन्न : दुर्वर बरा का न करना अत्यन्त कदिन है इसलिये अब इन आचरणों को कोई नहीं पाल सकता। उबवासो य अलाभे अण्णे दुसहाई अन्तराइ । एयट्ठाणमचेलं अज्जायण वंभचेरं च ।। १४८ ॥ उपवासं चाला. अन्यानि दुःसहानि अन्तरायाणि । एफस्थानमचेलं अयाचनं ब्रम्हचर्य च ॥ १४८ ।। भूमोसपनं लोचो वे वे मासेहि असहणिज्जो ह । बावीस परोसहाई असहणिज्माई णिच्चंपि ॥ १४९ ।। भूमिशयनं लोजो द्विद्विमासेन असहनीयो हि। द्वाविंशतिपरीषहा असहनीया नित्यमपि || १४९ ।। अर्थ- यदि चर्या में किसी दिन आहार न मिला तो उस दिन उपवास करना पड़गा, इसके सिवाय चर्या के अनेक कठिन कठिन अंतराय है । विना मांगे किसी भी एक ही स्थान पर आहार लेना पडेगा । नन्त व्रत धारण करना पडेगा, ब्रह्मचर्य पालन करना पड़ेगा, भूमिपर शयन करना पडेगा, दों दो महिने बाद केशों का लोच करना पड़ेगा, यह जोशों का लोच अत्यन्त असह्य होता है और अत्यंत असह्य ऐसी चाईंस परिषह सहन करनी पड़गी। जं पुण संपइ गहियं एय अम्हेहि किपि आपरणं । इह लोए सुक्खयर ण छडिमो हु तुस्समे काले ।। १५० ।। यत्पुनः सम्प्रति गृहीतं एतत् अस्माभिः किमप्याचरणम् 1 इह लोके सुखकर न त्यजामो हि दुःषमे काले ॥ १५० ।। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव मगह अर्थ- उन जिनचंद्र शिष्य ने इतना कहकर फिर उन आचार्य शांतिचन्द्र से कहा कि हम लोगों में इस समय जो कुछ आचरण ग्रहण कर रखखा है इस लोक में वहीं सुखकर है । इसलिये हम सब इस दुःषम काल में इन धारण किये हुए आचरणों को छोड़ नहीं सवाते । ता संतिणां पउत्तं चरियपभट्टेहिं जीषियं लोए । एयं ण हु सुंदरियं दूसणयं जैणमग्गस्स ।। १५१ ।। तावत शान्तिना प्रोक्तं चारित्रभ्रष्टानां जीवितं लोके । एतन्नहि सुन्दर दूषणकं जैनमार्गस्य ॥ १५१ ॥ नार्थ- अपने मुम्य शिष्य जिनचन्द्र की बात सुन कर आचार्य शांतिचन्द्र ने फिर भी बड़ा है कि जो लोग अपने चरित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं, इस लोक में उनका जीवित रहना निंदनीय है, सुंदर बा शोभा युक्त नहीं है। ऐसा आचरण जन मार्ग को दुषित करने वाला है, जिद--- नीय है। णिगत्थं पध्वयणं जिणवरणाहेण अक्खियं परमं । त छडिऊण अएणं पवत्तमाणेण मिच्छत्तं ॥ १५२ ।। निम्रन्थं प्रवचनं जिनयरनाथेन कथितं परमम् । तत त्यक्त्वा अन्यत्प्रवर्तमानेन मिथ्यात्वम् ॥ १५२ ।। अर्थ- आचार्य शांतिचन्द्र ने उस प्रथम शिष्य जिनचन्द्र से कहा कि भगवान जिनेन्द्र देव ने मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट मार्ग निग्रंथ मार्ग ही बतलाया है । एमे इस निर्मथ मार्ग को छोड़कर जो अन्य किसी भी मार्ग की प्रवृत्ति करता है तो उसका बह मिथ्यात्व कहलाता है । ता रुसिऊण पहओ सीसे सोसेण दोहबंडेण । । विरो घाएण मुओ जाओ सो वितरो देवो ॥ ११३ ।। तावत् रुषित्वा प्रतः शिरसि शिष्येण दोघण्टेन | स्थधिरो धातेन मुतो जातः स ध्यन्तरो देवः ॥ १५३ ॥ अर्थ- आचार्य शांतिचन्द्रकी यह बात सुनकर उनका मुख्य शिष्य जिनचन्द्र बहुत ही क्रोधित हुआ और कोधित होकर उसने आचार्य Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह शांतिचन्द्र के मस्तक पर एक दीर्घ दण्ड मारा । उस दीर्घ दण्ड के धातसे के आचार्य शांतिचन्द्र मर गये और मरवर व्यंतर देव हुए। इयरो संझाइबइ पडिय पासंड सेवडो जाओ । अक्खुइ लोए धम्म सग्गत्थे अस्थि णिवाणं ।। १५४ ।। इतरः संघातिपतिः प्रकटय पाखण्ड: श्वेतपटो जातः । कथयति लोके धर्म सग्रंथास्ति निर्वाणम् ।। १५४ ।। अर्थ- तदन्तर उस जिनचन्द्र ने अपने को संधाधिपति घोषित किया अर्थात् वह स्वयं संघाधिपति बन गया और उसने यह श्वेतांबरों का मत चलाया इसने लोगोस कहा कि परिग्रह सहित होनेपर भी मोक्ष मानरुप धर्म की सिद्धी होती है तथा परिग्रह सहित होनेपर भी मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है 1 सत्थाई विरइयाई णिणियपासंडगयिसरिसाई। वक्खाणि ऊण लोए पवित्तिओ तारिसायरणो ॥ १५५ ।। शास्त्राणि विरचितानि निजनिजपाखण्डगृहीतसदृशानि । व्याख्याय लोके प्रवर्तितं तादृशाचरणम् ।। १५५ 11 अर्थ- तदनन्तर उस जिनचन्द्रने अपने अपने जो पाखण्ड ग्रहण कर लिये थे तथा जिन जिन आचरणों को उसने धारण कर लिया था उन्ही के समान आचरणों को कहने वाले शास्त्रों की रचना कर ली । तथा वैसे ही आचरण पालन करनेका वह उपदेश देता था। णिग्गंथं दृसित्ता णिदिता अप्पणां पसंसित्ता । जोवेइ मूढलोए कयमाम गहिह बहुदव्यं ।। १५६ ।। निर्ग्रन्थं दूषयित्वा निवित्वा आत्मानं प्रशस्य । जीवति मूढलोके कृतमायं गृहीत्या बहु द्रव्यम् ।। १५६ ॥ अर्थ- इस प्रकार उनने निम्रन्थ लिंग को दूषित किया उसकी निन्दा की और अपनी प्रशंसा की । इस प्रकार बहुतसे द्रव्यों को ग्रहण करते हुए जीवित रहते हैं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह इयरायितर देवो संतो लग्गो उपहवं काउं । जप्पइ मा मिच्छसं गच्छह लाहऊण जिणधम्नं ।। १५७ ।। इतरो व्यन्तरदेवः शान्तिः लानः उपनवं कर्तुम । जल्पति मा मिथ्यात्वं गच्छत लब्ध्वा जिनधर्मम् ।। १५७ ।। अर्थ- इधर आचार्य शांतिचन्द्र का जीव जो ब्यंतर देव हुआ था बह अनेक प्रकार के उपद्रव करने लगा और कहने लगा कि तुम लोग जिनधर्मको धारण करके मिथ्यात्व को ग्रहण मत करो । भावार्थ- तुम लोग इस मिथ्याल्ब को छोडकर फिरसे जनधम धारण करो । इस प्रकार वह व्यन्त र देव कहने लगा। भोहि तस्स पुआ अट्टविहा सयलदन्यसंपुण्णा | जा जिणचन्दे रइया सा अज्जवि दिण्णिया तस्स ।। १५८ ।। भोलेर पूमा आशातित महान व्यसम्पूर्णा । या जिनचन्द्रेण रचिता सा अद्यापि दीयते तस्मै ॥ १५८ ।। अर्थ- व्यन्तरदेवकी यह बात सुनकर और उसके किये हुए उपवों को देखकर जिनचन्द्र ने समस्त आठों द्रव्यों से उसकी पुजा की । वह पूजा इन श्वेतांवरों में आज तक की जाती है । अजवि सा बलिपूआ पढमयर विति तस्स णामेण 1 सो कुलदेवो उत्तो सेवउसंघस्स पूज्जो सो 11 १५९ ।। अण्णं च एव माई आयम दुवाइ मिच्छ सन्थाई । विरदत्ता अम्पाणां परिणवियं पढ़माए णरय ।। इस प्रकार उस जिनचन्द्रने आगम में दुष्ट वा निद्य कहलाने वाले मिथ्यात्वकी रचना की और उन दुष्टताके कारण वह मरकर पहले नरक गया । रूदेण यन शिवमंगिगणः प्रयाति, तद्रूपमेव मनुजेः परिपूज्यतेऽत्र । मिद्धिर्यदि प्रभवतीह नितम्बिनीनां, तद्रूपिणः कथममी न जिना भवन्ति ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मंग्रह अद्यापि सा बलिपूजा प्रथमतरं दीयते तस्य नाम्ना । त कुलदेव उक्तः श्वेतपटसंघस्य पूज्यः सः ॥ १५९ ।। अर्थ- जिनचन्द्रने जिस प्रकार उस व्यन्तरदेव की पूजा की थी उसी प्रकार सबसे पहले आज तक उसीके नामसे पूजा की जाती है । श्वेतांवर संघ आज तक उसको कुलदेवता मानकर उनकी पूजा करता भावार्थ- आठ अंगुल लम्बा चौडा चौकोर काठ का टुकड़ा बनाकर उसको शान्तिचन्द्र मानते है और उसीके नामसे उसकी पूजा करते इय उच्यत्तो कहिया सेवजयाणं च मग्मभट्टाणं । एतो उड्ढे बोच्छं णिसुय अण्णाणमिच्छतं ॥ १६० ।। एषा उत्पत्तिः कथिताः श्वेतपटानां च मार्गभ्रष्टानाम् । इत ऊर्ध्व वक्ष्ये नि: श्रुणुत अज्ञानमिथ्यात्वम् ।। १६० ।। अर्थ- इस प्रकार निर्ग्रन्थ मार्ग से च्युत श्वेतपट लोगों की उत्पनि बतलाई। अब इसके आगे अज्ञान मिथ्यात्व का स्वरूप कहते है खसे सुनो। अयं... वे मनुष्य जिस रुपसे मोक्ष जाते है उसके उसी रूपको अन्य मनान पूजा करते है । यदि मोक्ष की प्राप्ति स्त्रियों को होती है तो फिर उस रुपमें ( स्त्री रुपमे ) जिनेन्द्र देव क्यों नहीं होते अथवा स्त्री को पर्यायस्वरुप कुच योनि विशिष्ट प्रतिमा क्यों नहीं होती। इससे सिद्ध है स्त्रियों को मोक्ष की प्राप्ति कभी नही होती। गग्गो हरु अरहतो रत्तो बुद्धो पियंवरो कण्हो । कच्छोटियामा वंभो को देवो कंवलावरणो ।। भमवान अरहंत देव नान है, रक्तांवर बौद्ध है, पीतांबर कृष्ण है कच्छ पहने हुए वेदांती है परंतु ये कंवल ओढने वाले कौन से देव हैं मो आजतक किसी के समझ नहीं आया है भावार्थ ये कंबल बाले देव किसी गिनती में नहीं है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह इस प्रकार संशय मिथ्यात्व का स्वरूप निरूपण किया तथा उसका निराकरण किया अव आगे अजान मिथ्यात्व का स्वरूप कहते है । मसय पूरण रिसिणा उप्पणो पासणाह तिम्मि । सिरि वीर समवसरणो अगहिय झुणिणा णियत्तेण ।। १६१ ।। मस्करिपूरणऋषिरुत्पन्नः पार्श्वनाथतीर्थे । श्री वीरसमवसरणे अगृहोतध्वनिना निवृत्तेन ।। १६१ ॥ अर्थ- भगवान पाश्वनाथ के समय में मस्करीपुरण नाम के एक मनि थे । वे भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में आये थे परत गणधर न होने में दिव्य ध्वनी हो नहीं रही थी । जब इन्द्र गौतम को ले आया था तथा आते ही गौतम ने दीक्षा धारण कर ली तथा उसे ज्ञान मनःपर्याय अवधि ज्ञान हो गया था उसो समय गणधरके स भाव होने से भगवान की दिव्य ध्वनी खिरने लगी थी। यह सब देखकर वह मस्करी पूरण मुनि बाहर निकल आया था । मस्करी पूरण ने भगवान की दिव्य ध्वनी सुनी नहीं थी। वह पहले ही समवसरण से बाहर निकल आया था। वहिणिग्गएण उत्तं मज्जा एयारसंगधारिस्स । णिग्गइ शुणो ण अरुहो विणिग्गया सा ससी सस्स ।। १६२ ।। वहिनिगतेन उक्तं महर्ष एकादशांग धारिणे । निगच्छत्ति ध्वनि न अर्हन् विनिर्गतः स स्वशिष्याय ॥ १६२॥ अर्थ- समवशरण के बाहर आकर उस मस्करी पूरण ने लोगों से कहा कि देखो में ग्यारह अंगी का पाठी था, मैं समवशरण में बैठा रहा तथापि गवान महावीर स्वामी की दिव्य ध्वनी प्रगट नहीं हुई । जब उनके शिष्य गौतम आगये तब वह दिव्य ध्वनी प्रगट होने लगी। ण मुणई जिणकहियसुर्य संपट्न दिक्खा य गहिय गोयमओ । विप्पो वेयम्भासी तम्हा मोक्षं ण णाणाओ ॥ १६३ ।। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह न जानाति जिनकथितश्रुतं सम्प्रति वीक्षां च गृहीतवान् गौतमः । विप्रो बेदाभ्यासी तस्मान्मांझी न ज्ञानतः ।। १५३ ॥ अर्ज - वर गौतम ऋषि भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए शास्त्रों को नहीं जानता । वह तो वेद शास्त्रों का अभ्यास करने वाला है। उसने आकार दीक्षा ली थी । इसीलिये भगवान की वाणी खिरने लगी थी । इससे सिद्ध होता है कि मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान से नहीं होती अज्ञान ये ही होती है। यदि ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती तो ग्यारह अंग के जानकर ने मेरे होते हुए दिव्यध्वनि अवश्य प्रकट होनी चाहिये थी । मेरे होते हुए दिव्यध्वनि प्रगट नहीं हुई। इससे जान पडता है कि मोक्ष की प्राप्ति अज्ञान से होती हे ज्ञान से नहीं । अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु । देवो ण अस्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए !! १६४ ॥ अज्ञानतो मोक्ष एवं लोकान प्रकटमानो हि । वेयो नास्ति कश्चिच्छून्यं ध्यायत इच्छया ।। १६४ ।। अर्थ- वह मस्करी पूरण समवशरण के बाहर आकर कहने लगा कि मोक्ष की प्राप्ति अज्ञानता से होती है ज्ञान से नहीं होती । इस संसार में देव कोई नहीं है । प्रत्येक जीवको अपनी इच्छा के अनुसार शून्य का ही ध्यान करना चाहिये इस प्रकार मस्करी पूरण ने प्रकट कर अज्ञान मिथ्यात्व को प्रकट किया। आगे ऊपर लिखे पांचों मिथ्यात्वों का त्याग करने के लिये कहते एवं पंचपयार मिल्छतं सुग्गइणिधारणयं । दुक्खसहस्साबासं परिहरियव्वं पयत्तेण ।। १६५ ।। एवं पंचप्रकार मिथ्यात्वं सुगसिनिवारणकम् । दुःखसहस्रावासं परिहर्तव्य प्रयत्नेन ॥ १६५ ।। अर्थ- इस प्रकार विपरीत मिथ्यात्व, एकांत मिथ्यात्व, बैनयिक मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व और अज्ञान मिथ्यात्व ये पांचों मिथ्यात्व शुभ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ देनेवाले है । गति के निवारण करनेवाले तथा हजारों प्रकार के दुःख इसलिये भव्य जीवो को प्रयत्न पूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिये । आगे मिथ्यात्व से होने वाली हानियां दिखलाते है । मिच्छणाच्छण्णी अगाइ कार्ल बजगाईभुवणे । भमिओ दुक्खभकं तो जीवो बोयइ गिव्हतो || १६६ ।। मिथ्यात्वेनाच्छन्नोऽनादिकालं चतुर्गतिभुवने । भ्रमितो दुःखान्तो जीवो देहान ग्रह न् ॥ १६६ ॥ अर्थ- मिध्यात्व से आक्रांत हुआ यह जीव अनादि काल से चारों गतियों में अनेक प्रकार के शरीर धारण करता हुआ और अनेक प्रकार के दुःखो को भोगता हुआ इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है । भाव-संग्रह एवंदियाइ पहह जावय पंचक्तविहिजोणीसु । मिह भविस्सयाले पुणरवि मिच्छतपच्छदओ ।। १६७ ।। एकेन्द्रियप्रभृतिषु यावत्पंचाक्षविविधयोनियु | भ्रमिष्यति भविष्यत्काले पुनरपि मिथ्यात्वप्रच्छादितः || || १६७ || अर्थ - एकेन्द्रिय से लेकर पंचेद्रियतक चौरासी लाख योनियां है । वन सव मे यह जीव मिथ्यात्व के कारण ही परिभ्रमण करता रहता है अनादि काल मे आज तक परिभ्रमण करता रहा है और फिर भी मिध्यात्व का सेवन करता है इसलिये भविष्य काल में अनंत काल तक परिभ्रमण करता ही रहेगा | अ अत्तरउद्दारुढो विसमे काऊण विहिपावाई | अभियाणतो धम्मं उपज्जर तिरियणरएसु ।। १६८ ।। आर्ताको विषमाति कृत्वा विविधपापानि । अज्ञानतः धर्म उत्पद्यते तिर्यम् - नरकेषु ॥ १६८ ॥ अर्थ - मिथ्यात्व कर्मके उदय होने से ये जीव सदाकाल आर्तध्यान और रौद्रध्यान करते रहते हैं और इस प्रकार अनेक प्रकार के महा भयानक पाप उपार्जन करते रहते है। ऐसे लोग धर्म का स्वरूप समझते Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह नहीं और इसीलिय वे जीव मरकर नरक गति वा तिथंच गति में जाकर जन्म लेते है। अहवा जह कहव पुणो पावद मणुपत्तणं च संसारे । जु असमिला संजोए लहइण वेसोकुलं आऊ । अथवा यथाकथमपि पुनः प्राप्नोति मनुष्यत्वं च संसारे । . . . . . . संयोगे लभसे न देशं कुलं आयुः ॥ १६१ ।। अर्थ- यदि किसी प्रकार इस संसार में परिभ्रमण करते हुए मनुष्य योनि भी प्राप्त हो जाती है तो अशुभ कर्मों के उदय होने से श्रेष्ठ देश, श्रेष्ठ कुल और उत्तम आयु प्राप्त नहीं होती। पउरं आरोपत्तं इंदियपुण्णतणं जोन्वणियं । सुन्दररुवं लच्छो अश्छइ दुक्खेण तप्यतो ।। १७० ॥ प्रचुरमारोग्यत्व इन्द्रियपूर्णत्वं च यौवनम् । सुन्दररुपं लक्ष्मी अयंते दुःखेन तप्यमान: 11 १७० ।। अर्थ-- इस प्रकार क्षुद्र मनुष्य होकर भी बह अनेक प्रकार के दुःखों मे दुःखी होता हुआ अपनी अधिक आरोग्यता की प्रार्थना करता रहता है, इन्द्रियों की पूर्णता की प्रार्थना करता रहता है, यौवन को प्रार्थना करता रहता है और सुन्दर रुप और लक्ष्मी की प्रार्थना करता रहता जइ कह वि हु एयाई पाबई सम्वाइं तो ण पावेई । धम्म जिणेण कहियं कुचिछयगुरुमागलग्गाओ ॥ १७१ ॥ यदि कथमपि हि एतानि प्राप्नोति सर्वाणि हि न प्राप्नोति । धर्म जिनेन कथितं कुत्सितगुरुमार्गलग्नः ।। १७१ ।। अर्थ- यदि किसी प्रकार वह जीव उत्तम देश, उत्तम कुल, उत्तम आयु, आरोग्य शरीर इन्द्रियों की पूर्णता, यौवन और सुन्दर रूप भी प्राप्त कर लेता है तो भी कुत्सित वा मिथ्यादृष्टियों के मार्ग में लगा हुआ वह जीव भगवान जिनेन्द्रदेव के कहें हुए धर्म को प्राप्त नहीं कर सकता है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह भावार्थ- इस संसार में रूप यौवन धन लक्ष्मी आदि समस्त पदार्थों की प्राप्ति होना सुलभ है परंतु यथार्थ धर्म की प्राप्ति होना अत्यंत कठिन है। इसलिये यदि शुम कर्मा के उदय से भगवान जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ धर्म प्राप्त हो जाय तो उसके पालन करने मे कमी प्रमाद नहीं करना चाहिये । मन वचन काय से उसका पालन करना चाहिये । इस प्रकार अज्ञान मिथ्यात्व का स्वरूप कहा तथा उसका निराकरण किया। अब आगे चार्वाक मत का निराकरण करते हैं । कउलायरिओ अक्खड़ अस्थि ण जोवो हु कस्स तं पाबं । पुणे वा कस्स भवे को मच्छह णरय सगं वा ।। १७२ ।। कौलाचार्यः कथयति अस्ति न जोबो हि कस्य तत्पापम् । पुण्यं वा कस्य भवेत को गच्छति नरक स्वर्ग वा || १७२ ।। अर्थ- कौलाचार्य कहते है कि इस संसार में जीव ही कोई नहीं है। जब जीव कोई है ही नहीं तो फिर किसको पाप लगता है, किसको पुण्य लगता है कौन नरक जाता है और कौन स्वर्ग में जाता है। भावार्थ- जीव कोई है ही नहीं, फिर न किसी को पुण्य लगता है न पाप लगता है, न कोई नरक जाता है और न कोई स्वर्ग में जाता है। आगे फिर भी चार्वाक कहते हैं। जइगुडधावह जोए पिठरे जाएइ मज्जिरा सत्ती । तह पंच भूय जोए चेयणसत्ती समुभवई ।। १७३ ।। यया गुडधातकोयोगे पिठरे जायते मदिरा शक्तिः । तथा पंचभूतयोगे चेतनाशक्ति: समुद्भवति ।। १७३ ।। अर्थ-- जिस प्रकार किसी थाली वा पात्र में गुड और घाय के फूल मिलाकर रख देने से उसमें मद्य की शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसो प्रकार पृथ्वी जल तेज वायु आदि पंच भूत मिल जाने से चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह गभाई मरणतं जीवो अथिति तं पुणो मरण । पंचभयाण णासे पच्छा जीवत्तणं णस्थि ।। १७४ ।। गर्भाविमरणान्तं जोवोऽस्तीति तस्य पुनः मरणम् । पंचभूतानां नाशे पश्चाज्जीवत्वं नास्ति || १७४ ॥ अर्थ- इस प्रकार पंच भनों में मिलकर चैतन्य शक्ति उत्पन्न होने थे। कारण गर्भ से मरण तक जीवकी सत्ता रहती है। तदनंतर जब वह जीव मर जाता है तब पंच मतों का भी नाश हो जाता है इसलिये फिर जोब की मत्ता सर्वथा नष्ट हो जाती है । फिर जीव नहीं रहता। लिखा भी है। देहात्मिका देहकार्या वेहस्य च गुणो मतिः। ____ मतत्रयमिहाश्रित्य जीवाभावो विधीयते ।। अर्थात्- शरीर का स्वरूप, शरीर के कार्य और शरीर के गुण इन तीनों का आश्रय लेकर जीव का अभाव निरूपण किया जाता है । भावार्थ-- शरीर पंच भूत है, शरीर के कार्य का सब पंच भूत रूप है और शरीर के गुण सब पच भूत रुप है। इसलिये यह चैतन्य शक्ती भी पंच भूत रूप है। वास्तव मे चैतन्य शक्ति वा जीव पदार्थ कोई अलग नहीं है इस प्रकार जीव का अभाव होता है। ऐसा चार्वाक कहता इस सम्बन्ध में और कहा जाता है - तम्हा इंदिय सुक्खं भुंज्जिा अप्पणाई इच्छाए । खज्जइ पिन्जाइ मज मस सेविज्ज परमहिला ॥ १७५ ॥ तस्मादिन्तिपसौख्यं भुज्यतां आत्मनः इच्छया । खापतां पोयतां मद्यं मांस सेव्यतां परमहिलाः ।। १७५ ।। अर्थ- जब इस संसार मे जीव कोई पदार्थ है ही नहीं और इसलिये स्वर्ग नरक भी नहीं है तो फिर अपनी इच्छानुसार खूब इंद्रियों के सुखों को भोगो, खूब मांस खाओ, खूब मद्य पीओ, और खूब स्त्रियोंका Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ भाव-संग्रह सेवन करो । ऐसा करने से कोई किसी को नहीं लगा। । योनि वह जीव ही कोई पदार्थ नहीं है। जो ईदियाई दंड विसया परिहर खवइ णियदेहं । सो अप्पाणं बंचई गहिओ भूएहि पुवुद्धो ॥ १७६ ।। यः इन्द्रियाणि दण्उयति विषयानपरिहरति क्षपति निजवेहम् । स आत्मानं वंचयति गृहीतो भूतैः दुर्बुद्धीः ॥ १७६ ।। अर्थ-- जीव का अभाव सिद्ध कर वह चार्वाक फिर कहता है कि को पुरुष अपनी इन्द्रियों का निग्रह करता है, इन्द्रियों के विषयों के सेबन का त्याग करता है और अपने शरीर को व्यर्थ कृश करता है वह दुर्बुद्धि मुर्ख पुरुष अपने आत्मा को ठगता है । समझना चाहिये की ऐसा पुरुष अनेक पूतों द्वारा घेर रखा है इसलिये वह मुखों का अनुमंत्र नहीं करता । लिखा भी है - यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । _____मस्मीभूतस्य कायस्य पुनरागमनं कुतः ।। अर्थात्- जबतक जीओ तव तक सुख पूर्वक जीओ। ऋण करके भी प्रतिदिन घी दूध पीओ। क्योंकि मरने पर यह पत्र भूत से बना हुआ गरीर भस्म हो जाता है । जीव कोई पदार्थ है नहीं फिर भला आवागमन कंगे हो सकता है, अर्थात नही । बिना आवागमन के नरक आदिक को प्राप्ति भी कभी नहीं हो सकती । ऐसा चार्वाक मानता है। परंतु उसका यह कहमा मर्वथा मिथ्या है । पंचभूत अचेतन है वे जीव के उपादान कारण नहीं हो सकते । गोवर में बीछू उत्पन्न हो जाते है परंतु गोबर उन जीवोंका उपादान कारण नही है, भरार का उपादान कारण है। इसके सिवाय मै सुखी हूँ ऐसा स्वसंवेदन समस्त जीवों को होता है। इससे भी जीव की सिद्धो अवश्य होती है। देखो इस शरीर में जबतक जोव रहता है तबतक ही शरीर की वृद्धी होती रहती है । जीव के निकल जाने पर फिर शरीर कभी नहीं बढ़ता है। इससे भी जीव की सिद्धि माननी पड़ती है । इस शरीर में जब तक जीव रहता है तबतक ही बह गमनागमन करता रहता है, जीव के निकल Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भान-गंग्रह ८२ जनपर उसका गमनागमन श्वास उच्छ्वास आदि सब बंद हो जाता है । अमक जीव मरकर व्यंतर हुआ, भाई हुआ, पिता हुआ आदि वातें असत्य नहीं है क्योकि किमी जीवको जाति स्मरण भी होता है उस जाति स्मरण में पहले जन्मको भी बहुत सी बात मालूम हो जाती हैं। इसके सिबाय सब जीवों का आकार रूप आदि भिन्न भिन्न है । इससे भी जीवकी सिद्धिय माननी पड़ती । इलिये लीन नहीं है ऐसा जो लोग कहते है वह भी मिथ्यात्व है। भव्य जीवों को उचित है कि उनको अपन सम्यग्दर्शन के वल से ऐसे मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग कर देना त्राहिये । इस प्रकार अज्ञान मत का निरूपण कर निराकरण किया । अब आगे सांग्य मत को कह कर उसका निराकरण करते हैं। संखो पुण मणइ इयं जीवो अस्थित्ति किरियपरिहीणो । देहम्मि णिवसमाणो ण लिप्पए पुण्णपावेहिं ।। १७७ ।। सांख्यः पुनः भणति एवं जोदोऽस्तीति क्रियापरिहीनः । बेहे निवसमानो न लिप्यते पुण्यपापैः ।। १७७ ।। अर्थ- सांस्यमत बाला कहता है कि जीव तो है परंतु वह क्रिया रहित है इसलिये वह शरीर मे निवास करता हुआ भी पुण्य वा गपों से लिप्त नहीं होता। आगं फिर वह कहता हैछिज्जइ भिज्जद पयडी पयढी परिभमस दोहसंसारे । पघडो करेइ कम्मं पयडी भजेइ सुह दुक्खं ॥ १७८ ।। छिद्यते भिचसे प्रकृतिः प्रकृति: परिभ्रमति दीर्घसंसार । प्रकृतिः करोति कर्म प्रकृति भुनक्ति सुखदुःखम् ।। १७८ ।। अर्थ- प्रकृति ही छिन्न भिन्न होती रहती है और प्रकृति ही इस संसार समुद्र में परिभ्रमण करती है। प्रकृति ही पुण्य पाप रू! कर्म उपार्जन करती हे और प्रकृति ही सुख दुःख का अनुभव करती है । भावार्थ- सांख्य मत वाले प्रकृति और पुरुष दो पदार्थ मानते Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह हैं। पुरुष जीव को कहते है और प्रकृति उसमे भिन्न मानने है । पुरुष को वा जीव को वे लोग कर्ता भोक्ता नहीं मानते यही वात आगे दिखलाते है। जीवो सया अकत्ता मुत्ता ण है होइ पुण्ण पाचस्स । इथ पडिऊण लोए गहिया वहिणी सधूया वि ।। १७९ ।। जीवः सवा अकर्ता भोक्ता नहि भवति पुण्यपापयोः । इति प्रकटय लोके गृहीता भगिनी स्वसुतापि ।। १७९ ।। अर्थ- यह जीव वा पुरुप सदा काल अकर्ता रहता है न बह पुण्य करता है और न पाप करता है । इसी मान्यतानुसार पाप के फल का भोक्ता भी नहीं है । इस प्रकार प्रगट करता हआ तो अपनी बहिन और बेटी को भी ग्रहण कर लता है। आगे आचार्य सांख्य मान्यता के प्रति कहते है। एए विसयासत्ता करगुम्मुत्ता य जीवदयरहिया | परतियधणहरणरया अगह्यि अम्मा दुरायारा ॥ १८० ॥ एते विषयासक्ताः फगुमत्ताश्व जीवदयारहिताः । परस्त्रीधनहरणरता अगृहीतधर्मा दुराचाराः ।। १८० ।। अर्थ- आचार्य कहते है कि ऐसे लोग सदा काल विषयों में आसक्त रहते है, काम सेवन के लिये उन्मत्त रहते है, जीवों की दया पालन नहीं करते, परस्त्री और पर धन हरण करने में सदा लग रहते है, अत्यंत दुराचारी है और यथार्थ धर्म का स्वरूप कभी स्वीकार नहीं करन । ण मुगति सयं धम्मं अनुणिय तच्चत्थयार पठभट्टा । पउरकसाया माई कह अण्णेसि फुडं वित्ति ॥ १८१ ।। न जानन्ति स्वयं धर्म अज्ञाततत्त्वार्थाचार प्रभ्रष्टाः । प्रचुरकषाया मायाविनः कथं अन्यान् स्फुटं युवन्ति ।। १८१ ॥ अर्थ- आचार्य कहते है जो सांख्य लोग स्वयं धर्म का स्वरूप नहीं जानते न तत्वों का अर्थ वा स्वरूप समझते है वे स्वयं सदाचार से Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव -संग्रह भ्रष्ट होते हे क्रोध मान माया लोभ इन चारों कषायों की तीव्रता को धारण करते हैं अत्यंत मायाचारी होते है फिर न मालूम के दूसरों के लिये धर्म का उपदेश कैसे देते है । भावार्थ- वे दूसरों लिये भी अपने समान ही उपदेश देते है। धर्म का उपदेश कभी नहीं दे सकते । रंडा मुंडा थंडी सुंडी दिविखदा धम्मवारा । सीसे कंता कामासत्ता कामिया विचारा मज्जं मसं मिटु भवखं पक्खियं जीवसोक्खं च । कउले धम्मेसियमोज्मे तं जिहो सम्मसेक्वं ।। १८२ ॥ ५१ रण्डा मुण्डा स्थंडो झौंडो दीक्षिता धर्भदाराः । शिष्या कान्ता कामासक्ता कामिता सविकारा । मयं मांस मिष्टं भव्यं भक्षितं जीवसुखं च । कपिले धर्मे विषये रम्ये तेनैव भवतः स्वर्गमोक्षौ ॥ १८२ ॥ अर्थ- जो स्त्री विधवा हो, मस्तक मुंडायें हो, चंडी वा मद्य पीने चाली हो, दीक्षित हो, किसी की धर्मपत्नी हो, शिष्या हो, कांता हो, काम सेवन की लालसा रखती हो, कामासक्त हो, अनेक प्रकार के विकार वाली हो, उसे सबको सेवन कर लेना चाहिये, खूब मद्य पीना चाहिये, खूब मांस खाना चाहिये, सब प्रकार से सुख देना चाहिये, ऐसा सांख्य मत वाले कहते है। इस प्रकार सांख्य मत विषयों के सेवन से भरपूर मनोहर है और वे लोग उसीसे स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति मानते है । रता मत्ता कंत्तासत्ता दूसिया धम्ममग्गा । हट्टा कट्टा चिट्ठा मुद्राणिदि जो मोक्खममा || अवखे सुक्खे अम्मोक्ले मिसरं विष्णचित्ता | रइयाणं दुक्खद्वाणं तस्स सिस्सा पत्ता || १८३ ॥ रक्तमत्ताः कान्तासक्ता दूषितधर्ममार्गाः । दुष्टा कष्टा घृष्टा अनृतवादिनः निन्विमोक्षमार्गाः || आक्षे सुखे अग्रे दुःखे निर्भ्रान्तं दत्तचिताः । नारकाणां दुःखस्थानं तस्य शिष्याः प्रोक्ताः || १८३ || Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात्र-संग्रह अर्थ- सांख्य मतबाले रक्त पी पी कर उन्मत्त हो जाते है, स्त्रियों में सदा आसक्त रहते है, धर्म समस्त मार्गों को दूषित करने रहते है, दुष्ट होते है, दुःखदायक होते है, घृष्ट होते है, मिथ्यावादी होते है, मोक्ष मार्ग की निंदा करते रहते है, वे लोग इन्द्रियों को सुखी बनाते रहते है । परंतु आग के लिये वे लोग बिना किसी संदेह के महा दुःख भोगने के लिये दत्त चित्त रहते है। तथा इसीलिये उस मांख्य मत को मानने वाले उनके समस्त शिष्य नरक के महा दुःख के स्थानों को प्राप्त होते है। आगे फिर भी कहते है। मज्जे धम्मो जोय हिसाई धम्मो । राई देवो दोसी देवो माया सुण्ण पि देवो ।। रत्ता मत्ता कत्तासत्ता में गुरु तेवि य पुज्जा । हा हा कट्टं णटो लोओ अहमहं कुणंतो ।। १८४ ।। मधे धर्मो मांसे धर्मो जीव हिसायां धर्यः ॥ रागोवेवो दोषीदेवो माया शून्यमपि देवः ।। रक्तमत्ताः कान्तासक्ता ये गुरव स्तेति य पूज्याः । हाहा कष्टं नष्टो लोकः अहमहं कुर्वन् ॥ १८४ ॥ अर्थ- सांस्य लोग कहते है कि मद्य पीने में भी धर्म है, मांस खाने में भी धर्म है, जोबों की हिंमा करने मे भी धर्म है, राग करनेवाला नी देव है द्वब करनेवाला भी देव है, माया रहित भी देव है, जो गुरु रक्त मांस आदि के सेवन करने में मदोन्मत्त है और स्त्रियों में आसक्त है ए में गुरु भी पूज्य माने जाते है इस प्ररार सांख्य लोग कहते है । इस पर आचार्य कहते है कि यह बड़े दुःख की बात है । इन सांख्य मतवालो ने महा अनर्थ करते हुए समस्त लोक को नष्ट कर दिया ! धुया मायर बहिणी अण्णादि पुलस्थिणि आयतिय वासवयण पपडे वि विप्पे । जा गिय कामाउरेण वेसगने उप्पण्णदप्पे Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव संग्रह वं भणि छिपिणि डोंवि नरिय बडि रज्जइ चम्मारि कबले समइ समागमेह तह भुत्ति य परणारि ।। १८५ ।। दुहिता मातृभगिनी अन्या अपि पुत्राथिनी आयाति च व्यासषधन प्रकटनीयं विप्रेण । यथारभिता कामातुरेग वेवगर्वणोत्पन्नदर्पण । ब्राम्हणी डोम्बी नटी विरुटो रजको चर्मकारी कपिले समये समागच्छन्ती तथा भुक्ता च परनारी ।। १८५ ।। अर्थ- यदि पुत्र की इच्छा करनेवाली पुत्री माता बहिन आदि कोई भी आवे तो ब्राम्हगों को न्यास के वचन ही प्रगट कर दिखाने त्राहिये । जिस प्रकार वेद ज्ञान से उत्पन्न हुए अभिमान से मदोन्मत्त कामसक्त ब्राम्हण ने आगी, भरि जिी मोहित वणति जरिन आदि मव के साथ रमण किया था उसी प्रकार सांख्य मत मे अपने पास आई हुई पररात्री का सेवन करना चाहिये । ऐसा सांख्य मत है । हम सिबाय सांख्य मत में यहां तक लिखा है किस्वयमेवागत नारों यो न कामयते नरः ।। ब्रम्हाहत्या भवेत्तस्य पूर्वग्रम्हाऽवबोदिवम् ।। अर्थात् - जो स्त्री अपने पाम स्वयमेव आत्रे और वह मनाय जाके साथ संभोग न करे तो उस मनुष्य को ब्रम्ह हत्या का महान महादोष लगता है। ऐसा पूर्व ब्रम्हा ने कहा है। आगे सांख्य का यह मत महा पाप और महा दुःत्रो का कारण है एना दिखलाते है। अण्णाण धम्मलग्गो जीवो दुक्खाण पूरिओ होइ। चउगइ गईहिणियडई संसारे भमिहि हिडतो ॥ १८६ ॥ अज्ञानधर्मलग्नो जीवो दुःखः पूरितो भवति । चतुर्गती गतिभिः निपतति संसारे भ्रमति हिण्डन् ।। १८६ ।। अर्थ- इस प्रकार सांस्य मत को माननेवाले अज्ञान धर्म में लगे हुये जीव अनेक महा दुःखो से पूरित हो जाते है । तथा चारों गतियों में Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह परिभ्रमण करते हुए दोधं कालतक ससार में पड़े हुए महा दुःस्त्र भोगा करता है - जइ पाहाण नरदे लग्गो पुरिसो हु तरिणी तोये । खुड्डइ विगयावारी णिव महणावत्त । १८७ ।। यथा पाषाणतरएडे लानः पुरुषो हि तोरिणीतोये । गुइति विगताधारः निपति महाणवावर्ते ॥ १८७ ।। अर्थ- जिस प्रकार पाषाण की नाव में बैठा हुआ पुरुष बिना किसी आशर के नदी के पानी में डूब जाते है उसी प्रकार अज्ञान धर्म में लगे हुए जीव इस संसार रूपी महा समुद्र मे पडकर अनंत कालतक परिभ्रमण करते रहते है। गुच्छियगुरुकयसेवा विधिहावइपउरदुक्खआवत्ते । तह पणिमज्जइ पुरिसो संसार महोवही भोमे || १८८ ।। कुत्सित गुरुकृतसेवा विविधातिप्रचुर दुःखावते । तथा च निमज्जति पुरुषः संसार महोवधभीमे ।। १८८ ।। अर्थ- जिस प्रकार कुत्सित वा नीचगुरु की सेवा करने से अनेक प्रकार के दुःखरूपी समुद्र में पड़ जाता है उसी प्रकार कुगुरु की सेवा करने से यह पुरुष भी इस संसार रुपी महा भयानक समुद्र में पड़कर अनंत काल के लिये डूब जाता है । वयभव कुंठ रुहि णि र णिविकट्टचिट्ठीहि । अप्पाणं णासिभो अण्णेवि य णासिओ लोओ ।। १८१ ।। प्रतभ्रष्ट कुण्ठरुद्रः निष्ठुरनिकृष्टयुष्टचेष्टः । आस्मान नाशयिस्था अन्योपि च नाशितो लोकः ।। १८९ ॥ अर्थ- जितने कुगुरु है बे सब व्रतों से प्रष्ट है अत्यंत क्रूर परिणामों को धारण करनेवाले हैं अत्यंत निष्ठूर है निकृष्ट है, और दुष्ट चेष्टाओं का करने वाले हैं। इसलिये ऐसे कुगुरु अपने आत्मा का भी नाम करते है और अन्य अनेक जीवों का भी नाश करते है । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह इय अगागी पुरिसा कुच्छियगुरुकायमग्गसंलग्गा । पावंति गरय तिरयं णाणा दुहसंकर्ड भीमं ॥ १९० ।। इति अज्ञानिनः पुरुषाः कुत्सितगुरुकथितमार्गसंलग्नाः । प्राप्त यति नरकं तिर्यचं नाना दुःखसकटं भोमम् ।। १९० ॥ अर्थ- इस प्रकार जो पुरुष निकृष्ट कुगुरुओं के द्वारा कहे हुए मिध्या भार्ग में ला रहते है वे पुरुष नरक वा तीयंच योनि में पडकर यंत भयानक मे अनेक प्रकार के महा दुःख भोगा करते है। एवं णाऊण फुड सेविजई उत्तमो गुरु कोई। वहिरंतरगंथचुी तिरियणवतो सुणाणो य || १९१ ।। एवं ज्ञात्वा स्फुट सेव्यतां उत्तमो गरुः कश्चित । वाह्याभ्यन्तवनथच्यतः तरणवान् सुज्ञानी च ॥ १९१॥ अर्थ- आचार्य कहते है कि इस प्रकार कुगुरुओं के कहै अनुसार महा दुःख भोगने पड़ते है। ऐसा समझ कर एसे उत्तम मुरु की सेवा करनी चाहिये जो बाह्य आभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित हों स्वयं तरनेवाला और भव्य जीवों को तारनेवाला हो, और सम्यग्ज्ञान को धारण करनेवाला हो । जड़ जाय लिंगधारी विसविरत्तो य णिहयसकसाओ । पालयविठवधओ सो पावट् उत्तमं सोक्खं ।। १९२ ॥ यथाजात लिंगधारी विषयविरक्तश्च निहतस्वकषायः । पालितद व्रह्मवतः स प्राप्नोति उत्तम सौख्यम ॥ १९२ ।। अर्थ- जो गुरु जात लिंगधारी हो अर्थात् जिस प्रकार उत्प होता है उसी प्रकार समस्त परिग्रहों से रहित नग्न अवस्था को धारण करनेवाला हो, इन्द्रियों के समस्त विषयों से विरक्त हो, जिसने अपनी समस्त कषायें नष्ट कर दी हों और जो ब्रह्मचर्य व्रत को पूर्ण रीति से दृढता के साथ पालन करता हो, ऐसे परमगुरु की सेवा करने से ही यह जीव निराकुल सुख की प्राप्ति कर सकता है । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ते कहिय धम्म लग्गा पुरिसा डहिऊण सकयपावाई | पार्वति मोक्खं सोक्ल केई विलसंति सोसु १९३ ॥ मात्र-संग्रह तेन कथितधर्मे लग्नाः पुरुषा वग्ध्वा स्वकृतपपानि । प्राप्नुवन्ति मोक्षसौल्यं केचिद् विलसत्ति स्वर्गेषु || १९३ ।। अर्थ - जो पुरुष एस निग्रंथ परम गुरु के कहे हुए धर्म का सेवन करते है वे पुरुष अपने समस्त पापों को नाश कर मोक्ष के अनंत सुख प्राप्त करते हैं तथा उनमें से कितने पुरुष स्वर्ग के सुख भोगते है । एवं मिच्छदिट्टि ठाणं कहि मया समासे । एत्तो उड़ढ बोच्छ विदियं पुरा सामणं णामं ॥ १९४ ॥ एवं मिथ्यादृष्टिस्थानं कथितं मया समासेन । इस ऊर्ध्वं वश्ये द्वितीय पुनः सासादनं नान ।। १९४ ।। अर्थ - इस प्रकार अत्यंत सक्षन से मिय्यात्वगुणस्थान का स्वरु कहा । अब आगे दूसरे सासादन नाम के गुणस्थान का स्वरूप कहते है । इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान का स्वरूप वा मिथ्यात्व गुणस्थान में होनेवाले परिणामों का स्वरूप कहा । अब आगे सासादन गुणस्थान का स्वरूप कहते है । एयवरस्स उदयं अनंतवधिस्स संपरायस्स । समयाइ छविलिति य एसो कालो समुद्दिठ्ठो । १९५ एकतरस्योदयेऽनन्तानुबन्धिनः साम्परायस्य । समयादि षडावलानि च एषः कालः समुद्दिष्टः । १९५ ।। अर्थ- किसी भव्य जीव के काल लब्धि के निमित्त से प्रथम उपकाम सम्यक्त्व को प्राप्ति होती है। उस उपशम सम्यक्त्व का काल अंत महूर्त है । जब उस अतर्मुहूर्त काल के समाप्त होने में कम से कम एक समय और अधिक म अधिक छह आवली शेष रह जाती है तब अनन्ना नुबंधो को मान माया लोभ मे से किसी एक प्रकृति का उदय हो जाता है । उस प्रकृति के उदय होने से सम्यग्दर्शन छूट जाता है परन्तु मिथ्यात्व प्रकृति का उपशम होने से मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं होता | Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाव मंत्रह उपटाम सम्यक्त्व की स्थिती में जितना काल शेष रहा है उसके समाप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय होता है और उस समय बह मिथ्यात्व गुणस्थान में पहुंच जाता है । सम्बग्दर्शन के छूट जाने के अनंतर से लेकर जबतक मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त होता है तब तक का इस सागादन गुणन का काल है और काले का एक समय है और अधिक में अधिक छह आवली है। एयम्मिगुपट्टाणे कालो णस्थित्ति तित्तिओ जम्हा । तम्हा वित्थाणे ण हि संखेओ तेण सो उत्तो ।। १९६ ।। एतस्मिन् गुणस्थाने कालो नास्ति तावन्मात्रः यस्मात् । तस्माद्विस्तायो नहि संक्षेपेण तेन स उक्तः ।। १९६ ।। अर्थ- इस दूसरे सासादन गुणस्थान का कुछ समय वा काल नहीं है । ऊपर जितना बतलाया है केवल उतना ही काल है इसीलिये इस गुणस्थान का स्वरूप विस्तार से नहीं कहा है अत्यंत संक्षेप से ही उम्मका म्वरूप कहा है। परिणामिय भावमयं विवियं सासायणं गुणट्ठाणं । सम्मत्त सिहर पड़ियं अपत्त मिच्छत भूमितलं ॥ १९७ ॥ पारिणामिक भावगतं द्वितीयं सासादन गुणस्थानम् । सम्यक्त्व शिखरपतितं अप्राप्तमिथ्यात्वभूमितलम् ।। १९७ ।। अर्थ- जिस प्रकार कोई पुरुष किसी पर्वत से गिरता है और जव नक पृथ्वीपर नही आजाता तबतक वह न तो पवंतपर माना जाता है और न पृथ्वी पर कितु मध्य में माना जाता है । इसी प्रकार जिस जीवके उपशम सम्यग्दर्शन छूट गया है और मिथ्यात्व गुण स्थान प्राप्त नहीं हुआ है तब तक उसके सासादन गुणस्थान कहलाता है। इस दूसरे गुणस्थान मे पारिणामिक भाव माने जाते हैं। भावार्थ- यद्यपि इस गुणस्थान मे मिथ्यात्व प्रकृति का उपशम है और अनन्तानुबंधी की किसी एक प्रकृति का उदय है इसलिये इसमें क्षायोपशमिक भाव मी कहे जा सकते है तथापि इसकी मुख्यता न रखते Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए पारिणामिक भाव बतलाये हे | यह सासादन गणस्थान न तो अ.. पर्याप्तक नारकी जीवों के होता है और न समस्त लब्ध्यपर्याप्तब, जब के होता है। सासादन गुणस्थान वाला न तो आहारक प्रकृति का बंध करता है, न आहारक मिश्र प्रकृति का बंध करता है और न तोयंकर प्रकृति का बंध करता है । उसका सम्बग्दर्शन नष्ट हो दुका है इसलिये वह ऊपर लिखी प्रकृतियों का बंध नहीं कर सकता । सासादन गुणस्थान वाले जीवके एक बार सम्यग्दर्शन प्रगट हो चुका है इसलिये यह भव्य अवश्य है और सम्मान के पट होने के बाद ही लाल में मोक्ष प्राप्त कर लेता है । देखो सम्यग्दर्शन का माहात्म्य केसा है जो थोड ही काल के लियं उत्पन्न होकर भी थोडे ही समय में मोक्ष पहुंचा देता है। इस लिये आचार्य कहते है कि इस सम्यग्दर्शन के प्रकट होने का भावना भव्य जीवों को हर समय करते रहना चाहिये । इस प्रकार दूसरे सासादन गुणस्थान का स्वरूप कहा । अब आगे तीसरे मिश्र गुणस्थान का स्वरूप कहते है । सम्मामिच्छुदएण य सम्मिस्सं णाम होइ गुणठाणं । खयउवसमभावगयं अंतरजाई समुट्वि ।। १९८ ।। सम्यक्त्व मिथ्यात्वोदयेन च संमिश्रं नाम भवति गुणस्थानम् । क्षयोपशम मावगत अन्तर्जाति समुद्दिष्टं ।। १९८ ।। अर्थ- दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियां है:- मिथ्यात्व, सम्य. ग्मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृति । इनमें से सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिश्रगुण स्थान होता है । इसमें क्षायोपमिक भाव होते है 1 तथा वे परिणाम सम्यवत्व और मिथ्यात्व इन दोनों से संम्मिलित रूप होते है। भावार्थ- इस गुणस्थान में रहने वाले जीवों के भाव न तो सम्यवत्व प होते है न मिथ्यात्व रूप होते है किंतु इन दोनों से मिले हुग और इस दोनों में निम्न तीसरे ही प्रकार के परिणाम होते है। आगे इसी बात को उदाहरण देकर बतलाते हैं। वडवाए उप्पण्णी खेरण जइ हवा इत्थ बेसरी। तह तं सम्मिस्स गुणं अमहिय गिह सपल संजमणं ।। १९९ ।। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह घडवायां उत्पन्तः खरेण यथा भवसि अत्र वैसरः । सम्मिश्रगुणः अगृहीतगृहिसकल संयमः ॥ १९९ ॥ तथा अर्थ- जिस प्रकार खच्चर जाति का गधा घोडी से उत्पन्न होता है परंतु गधे से होता है घोड़ा से नहीं होता । घांडी गया दोनों से उत्पन्न होने वाला एक तीसरी जाति का जीब है । इसी प्रकार इस तीसरे मिश्रगुणस्थान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों से मिले हुए एक तीसरी जाति के परिणाम होते हैं । इस तीसरे गुणस्थान में रहने वाले जीव न तो गृहस्थों का एक देश संयम धारण कर सकते हैं और न सकल संयम धारण कर सकते है । तत्थ ण बंधइ आउं कुणइ ण कालो हु तेण भावेण । सम्मं वा मिच्छं वा पडिवज्जिय मरइ नियमेन || २०० ।। ९९ तत्र न बध्नाति आयुः करोति न कालो हि तेन भावेन । सम्यक्त्वं वा मिथ्यात्वं वा प्रतिपद्म म्रियते नियमेन ॥ २०० ॥ अर्थ- इस तीसरे गुणस्थान में रहने वाला जीव न तो आयु का बंध कर सकता है और न मर सकता है । तीसरे गुणस्थान के भावों से ये दोनों बाते नहीं कर सकता। वह जीव या तो सम्यग्दर्शन धारण कर मर सकता है अथवा मिथ्यात्व गुणस्थान मे जाकर मर सकता है। आगे इस गुणस्थान में कैसे परिणाम होते हैं सो दिखलाते है अट्टरउद्दं झापइ देवा सब्बे वि हुति णमणीया । धम्मासच्चे पदरा गुणाणं किं पि ण विणिए इ ॥ २०१ ॥ आतंरौद्रं ध्यायति देथाः सर्वेपि भवन्ति नमनीयाः । धर्माः सर्वे प्रवरा गुणागुणों किमपि न विजनाति ॥ २०१ ॥ अर्थ - इस तीसरे गुणस्थान मे रहनेवाले जीव के आर्तध्यान और रौद्रध्यान होता है अर्थात् वह इन्हीं दोनों का चितवन करता रहता है। इसके सिवाय वह समझता है कि संसार मे जितने देव है वे सब नमस्कार करने योग्य है और जितने धर्म है वे सब उत्तम है। इस प्रकार समझता हुआ वह जीव गुण वा अवगुण किसी को नही जानता, इस देव Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह में अवगुण है इसमें गुण है इस बात को वह नहीं समझता वह सब का समान समझता है । आगे उसके भाव और कैसे होते हैं सा दिखलाते हैं: • अस्थि जिणमि कहिय वेए कहियं च हरिपुराणे य । सइयागमेण कहित तच्चं कविलेण कहिथं च ।। २०२ ।। अस्ति जिनागमे कथितं वेदे कथितं च हरिपुराणो वा । शैवागमेन कथितं तत्त्वं कपिलेन कथितं च ।। २०२।। वंभी करेइ तिजयं किण्हो पालेइ उपरि छुहिऊण । रुद्दो संहरइ पुणो पलयं काऊग णिस्सेस ॥ २०३ ।। ब्रह्मा करोति त्रिजगत् कृष्णाः पालयति उपरि स्पृष्ट्वा । रुद्रः संहरति पुनः प्रलयं कृत्वा निः शषम् ।। २०३ ।। अर्थ- वह तीसरे गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्रदेव ने भी कहा है शवो के आगम में भी कहा है ओर कपिल ने भी कहा है । इन सबके कहे हुए तस्व ठीक है, ऐसा समझकर वह सबको मानता है। इसके मिवाय वह समझता है कि ब्रह्मा तीनों लोकों को उत्पन्न करता है, कृष्ण कार से हो स्पर्श कर उन तीनों लोकों का पालन करता है और महादेव उन समस्त तीनों लोकों का प्रलय कर सत्र वा संहार बा नान कर देता है । इसके सिवाय वह चंडी मुंडी महालक्ष्मी आदि सब देव देवि योंकी पुजा करता है. पितरों को तप्त करने के लिये श्राद्ध करता है, अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये अन्य प्रकार के ढोंग करता है । ऐसें रोन अनेक प्रकार के भाव इस तीसरे गुणस्थान में होते हैं। आग ब्रह्मा विष्णु महेश के इन कार्यों का सिराकरण करते हैं। जइ भो कुणइ जयं तो कि सग्गिदरज्ज कण । बहऊण बंभ लोयं उगतवं तवणरलोए । २०४ ।। यदि ब्रह्मा करोति जगतहि किं स्वर्गेन्द्रराज्यकार्येण । सयुत्वा ब्रह्मलोकं उग्रतपः तप्ते नरलोके ।। २०४ ।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ - यदि ब्रह्मा तीनों लोकों को उत्पन्न करता है तो फिर वह स्वर्ग के इन्द्रका राज्य लेने के लिये ब्रह्मलोक को छोड़कर और मनुष्य लोक मे आकर घोर तपश्चरण क्यों करता है ? १०१ भावार्थ- जब तीनों लोकों को उत्पन्न कर सकता है तो बढ़ दूसरा स्वर्ग भी बना सकता है और उसका राज्य स्वयं कर सकता है तो फिर उसे स्वर्ग के राज्य के लिये तपश्चरण करने की क्या आवश्यकता श्री : आगे और भी कहते है। जरउसे अंडय सव्वे एयाई भूयगामाई | णारय गर तिरिय सुरा णिवंदियं वणिसुद्दपहुईया || २०५ || जरायु जोद्वित्स्वेदाण्डजान् सर्वान् एतान् भूतग्रामान् । नारकनरतिर्यक सुरान् वंदिनः वाणिशूद्रप्रभृतीन् । २०५ ।। चंडाल डूंब घविरा वरुडा कहलालछिप्पिया चेव । हृय गय गोमहिसि खरा वग्घ किडो सीह हरिणाई ॥ २०६ ॥ चाण्डालडोम्ब धीवर वरुट कलवारखिपकांश्चैव । हयगजगोमहिषीखरान् व्याघ्रकीटिसिंह हरिणान् ॥ २०६ ॥ जाणा कुलाई जाई णाणा जोणी य आउ विहवाई । णा देह गवाई यण्णा रुवाई विविहाई । २०७ ।। नाना कुलानी जाती; नाना योनींश्च आयुविभवादीनि । नाना बेगतान् वर्णान् रूपाणि विविधानि ।। २०७ ।। गिरि सरि सायर दीयो गामा रामाई धरणि आयासं । जो कुण खणद्वेणं चित्तियमित्तेण सव्वाई ।। २०८ ।। गिरिसरित्सागरद्वीपान् ग्रामारामान् धरणीमाकाशम् । यः करोति क्षणार्धन चिन्तितमात्रेण सर्वान् ।। २०८ ।। किं सो रज्यणिमित्तं तवसा तावेइ णिच्च णियदेहं । तिहुवण करण समत्यो कि ण कुणइ अध्पणो रज्जं ।। २०२ ।। कि सा: ज्यनिमित्तं तपसा तापयति नित्यं निजवेहम् | त्रिभुवनकरणसमर्थः किं न करोति आत्मनो राज्यम् । २०९ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाब-संग्रह अर्थ- मनुष्य पश के शरीर पर जो मांस को जाली आती हैं उसको जरायु कहते है, ऐसी जरासहित जा उत्पन्न होने है उगको जरायुज कहते है । पृथ्वीपर जो घास आदि उत्पन्न होते है उनको द्भिज्ज कहते है अंडों से उत्पन्न होने वाले अंडज कहलाते हैं जो ब्रह्मा इन सब जीवों को उत्पन्न करता है, नारकी मनुष्य पशुपक्षी देव ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्रों को उत्पन्न करता है. चांडाल, डांब, श्रीवर, धोबी. कलार, छीपी, हाथी, घोडा, गाय, भैस, गधा, व्याघ्र, मुअर, सिह. हरिण आदि समस्त जीवों को उत्तपन्न करता है, अनेक कूलों को उत्पन्न करता है, अनेक जातियों को उत्पन्न करता है, अनेक योनियों को उत्पन्न करता है, समस्त जीवों को आयु वैभव आदि उत्पन्न करता है. अनेक प्रकार के रूप उत्पन्न करता है, पर्वत नदी सागर द्वीप गांव नगर बाग वगीमा पृथ्वी आकाश आदि समस्त पदाथों को समस्त जीवों को चितवन करने मात्र ही आधे क्षण मे ही सबको उत्पन्न कर लेता है ऐसा वह ब्रह्मा केवल स्वर्ग का राज्य लेने के लिये घोर तपश्चरण क्यों करता है ? व्यर्थ ही अपने शरीर को क्यों संतप्त करता है ? वह तो तीनों लोकों के उत्पन्न करने में समर्थ है फिर भला वह अपने लिये राज्य उत्पन्न क्यों नहीं करलेता है। जिस प्रकार उसमे तीनों लोक उत्पन्न किया है उसी प्रकार उसको एक स्वर्ग और उत्पन्न कर लेना चाहिय और स्वय उसका राज्य करना चाहिये। उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखते हुए भी दुस- राज्य को छीनने के लियं तपश्चरण करना कितने आश्चर्य और विडंबना की बात है । इससे सिद्ध होता है कि यह जगत् ब्रह्मा वा अन्य किसी का का बनाया हुआ नहीं है किंतु स्वय सिद्ध अनादि काल से चला आ रहा है। इसका का कोई नहीं है। आग और भी कहते है। अच्छतिलोत्तमाए पट्टे वट्टण रायरस रसिओ । तवमट्टो चउपयणो जाओ सो मयणवस चिसो ।। २१० ॥ अप्सरस्तिलोसमाया नत्यं दृष्टया रागरसरसिकः । तपोभ्रष्टः चतुर्ववनः जासः स मरनवाशचिसः ॥ २१० ।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-पग्रह अर्थ- जब वह ब्रह्मा स्वर्गका राज्य लेने के लिये घोर तपश्चरण कर रहा था तब इन्द्र को भी अपने गज्य की चिता हई और उसका तपश्चरण प्रप्ट करने के लिय तिलोत्तमा नाम की अप्सरा भेजी । वह तिलोत्तमा उम ब्रह्मा के गामने आकर नृत्य करने लगी : जिसका मन कामसेवन के लिये आसक्त हो रहा है और राग के रससे रसिक हो है गंसा वह ब्रह्मा उस नृत्य को देखता देखता अपने तपश्चरण से भ्रष्ट हो गया और नृत्य देखने के लिये उसने अपने चार मुख बना लिये । भावार्थ- यह आसरा बहुत देर तक तो ब्रह्मा के सामने नृत्य करती रही । और ब्रह्मा उसे देखता रहा । ब्रह्मा को आसक्त देखकर वह तिलात्तमा उसके बगल में नृत्य करने लगी। तब उस नृत्य को देखने के लिये बगल में भी एक मुख बना लिया । जब वह तिलोत्तमा पीठ पीछे नृत्य करने लगी। तब ब्रह्माने उधर भी एक मुख बना लिया । जब वह दूसरं बगल में नृत्य करने लगी तव उघर भी चौथा मुख बना लिया । इस प्रकार ब्रह्मा ने चार मुख बनाये । परन्तु जब वह तिलोत्तमा ऊपर आकाश में नत्य करने लगी तव ब्रह्मा ने ऊपर भी एक मुख वना लिया। छंडिय णियवडतं पहुत्तणं देव वत्तणं तबोचारियं । कामाउरो अलज्जो लामो मग्गेण सो तिस्स ।। २११ ।। त्यक्त्वा निज वृद्धत्वं प्रभुत्वं देवत्वं तपश्चर्यम् । कामातुरः अलज्जः लग्नः मार्गेण स तस्याः ।। २११ ॥ अर्थ- इस प्रकार उस ब्रह्माने अपना बड़प्पन छोड़ दिया, अपना प्रभुत्व छोड़ दिया, अपना देवपना छोड दिया और अपना तपश्चरण छोड दिया, कामासक्त होकर जिस मार्ग से वह तिलोत्तमा चलने लगी उसी मार्ग से उसके पीछे पीछे चलने लगा। हसिओ सुरेहिं कुद्धो खरसोसो मक्खिाउं पउत्तो सो! सकरकरकंडिसिरो विरहपलित्तो णियत्तो य ॥ २१२ ॥ हसितः सुरैः कुखः खरशोष भनितुं प्रवृतः सः । शकरकरखण्डितशिरः विरहोपलिप्तो निवृत्तश्च ।। २१२ ।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ- ब्रह्मा की इस कामामक्ति को देख कर देवलोग सब इसने लगे तब ब्रह्माने क्रोधित होकर अपने गये वाले मुख से उन देवों को भक्षण करने का उद्यम किया । यह देखकर देव लोग सब महादेव को शरण में गये तब महादेव ने अपने हाथ से उस ब्रम्हा का ऊपर का गधेका मस्तक काट डाला । इस प्रकार जव उस ब्रम्हाका ऊपर का मस्तक कट गया तब वह ब्रम्हा उन्म तिलोत्तमा के बिरह से संतान होकर पीछे लौट आया । पविसेवि णिज्जणांवणं पिच्छिरिछी विरहगो तत्थ । सेवइ कामासत्तो तिलोत्तमा चित्ति धरिऊणं !! २१३ ।। प्रविश्य निर्जनवनं दृष्ट्वा ऋक्षों विरहगतः तत्र । सेवते कामासक्तः तिलोत्तमा चेतसि धृत्वा ॥ २१३ ।। अर्थ- तदनंतर बह ब्रम्हा तिलोत्तमा के विरह से संतप्त होकर एक निर्जन वनमें चला गया । यहां पर उसने एक रीछिनी देखी। और जम रीछिनी को अपने मनमें तिलोत्तमा मानकर कामदेव के वशीभत होकर उस रीछिनी के साथ संभोग करने लगा। तस्सुप्पण्णो पुत्तो जवउ णामेण लोय विक्खाओ । रिच्छापई जाओ भिच्चो सो रामदेवस्त ।। २१४ ॥ तस्योत्पन्नः पुत्रः जम्बू: नाम्ना लोक विख्यातः । ऋक्षाणां पति: जातः भृत्यः स रामदेवस्य ।। २१४ ।। अर्थ- जब ब्रम्हाने उस रीछिनी के साथ संभोग किया नब उस गछिनी से एक पुत्र हुआ उसका नाम जंबू था । जो जंबू के नाम से संसार में प्रसिद्ध है। वह जंबू समस्त रोगों का अधिपति था और रामचंद्रका सेवक था । जो कुणइ जयमसेसं सो कि एक्का दि तारिसो महिला । सक्कद ण विरइऊणं सेवइ णिग्धिगो रिच्छिी ।। २१५ ॥ यः करोति जगवशेष स कि एका मपितादशी महिलाम् । शक्नोति न विरचयितुं कि सेवते निधृणा ऋक्षोम् || २१५ ।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ-- आचार्य कहते हैं कि देखा जो अम्हा समस्त जगत को उत्प कर सकता है वह क्या एक तिलोत्तमा ऐसी स्त्री नहीं बना सकता था । फिर क्यों उसने अत्यंत घृणित रोछिनी का सेवन किया ? जो तिलोत्तम जो तिलोत्तम णियवि गच्चंति, धम्मह सरजरजरिउ चत्तणियम चउवयणु जायउ । बणि णिवसइ परिभट्टतउ रमइ रिच्छि सुरयाण रायउ ।। सो बिरंचि कह संभवई नयलोयज कत्तारु । जो अप्पाण उत्तरइ फेडउ विरह वियारु ।। २१६ ।। यः तिलोत्तमा या तिलोत्तमां दृष्ट्वा नृत्यन्तीम् । अम्हा स्मर जर्जरितः त्यक्त नियमः चतुर्वदनः जातः वने निवसति परिभ्रष्टतपाः रमते ऋक्षी सुराणां राजा । स विरंचिः कथं संभात त्रिलोकस्य कर्ता । यः आत्मानं न हि तारयति स्फोटयति विरविकारम् । २१६ । ____ अर्थ- जो ब्रह्मा नृत्य करती हुई तिलोत्तमा को देखकर कामदेव के वशीभत होकर जर्जरित होगया था। उसने अपने सब नियम व तपश्चरणों को त्याग कर दिया था और उस तिलोत्तमा मे आसक्त होकर अपने चार मुख बना लिये थे अपने तपश्चरण से भ्रष्ट होकर नया बन में जाकर रीछिनी से संभोग करने लगा था वह ब्रह्मा तीनों लोकों को उत्पन्न करने वाला कैसे कहा जा सकता है : जो ब्रह्मा अपने आत्मा का भी उद्धार नहीं कर सकता और इस प्रकार विरह अवस्था को ब्रगट करता है यह ब्रम्हा कभी देब नहीं हो सकता । आग और भी दिखलाते है । त्थि धरा आपास पवणाणल तोय जोय ससि सूरा । जइ तो कत्य ठिदेणं वंभो रइयं तिलो ओत्ति ।। २१७ ।। न सन्ति घरा आकाशं पवनानल तोय ज्योतिः शशिसूर्याः । यदि तहि कुत्र स्थितेन ब्रम्हणा रचितः त्रिलोक इति । २१७ । अर्थ- यदि ब्रम्हाने इन तीनों को बनाया तो उसके पहले न पृथ्वी Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह थी, न आकाश था, न वायु थी. अग्नि थी, न जल था, न प्रकाश या न चंद्रमा था न सूर्य था तो फिर यह भी तो बतलाना चाहिये कि जरा अम्हा ने कहां बैठकर यह तीनों लोक बनाये । कत्तित्तं पुण दुविहं वत्थुअ कत्तित्त तह य विक्किरियं । घडपड गिहाई पढम विक्किरियं देवया रइयं ।। २१८ ॥ कर्तृत्वं पुन: विविध वस्तुनः कर्तृत्वं तथाच येक्रियिकम् । घट पट गृहादि प्रथम वैक्रियिक देवता रचितम् ।। २१८ ॥ अर्थ-- कापन दो प्रकार है एक तो यथार्थ कर्मापन और दुसरा वक्रियिक । घट पट घर को बनाना यथार्थ कर्तापन है और जो देवों के द्वारा बनाया जाता है बह बंक्रियिक कहलाता है । जइ तो वत्थनभूओ रइओ लोओ विरंचिणा तिविहो । तो तस्स कारणाई कत्थुव लखाई दध्वाहं ॥ २१९ ।। यदि स वस्तुभूतो रचितो लोको बिरंचिना त्रिविधः । तहि सस्य कारणानि कुत्र लब्धानि द्रव्याणि ।। २१९ ।। अर्थ- यदि उस ब्रम्हा ने यथार्थ रूप से तीनों लोकों को बनाया है तो यह बताना चाहिये कि ब्रम्हा ने तीनों लोकों को बनाने के कारण भत द्रव्य कहां से प्राप्त किये । भावार्थ- जिस प्रकार घर बनाने के लिय ईट, चूना, राज आदि कारण सामग्री की आवश्यकता होती है। तब घर बन सकता है उसी प्रकार तीनों लोक बनाने के लिये सव सामग्री कहां थी । क्योंकि विना सामग्री के तो लोक वन ही नहीं सकता था। जइ विविझरिओ रइओ विज्जाथामेण तेणवभेण । कड़ थाइ दोहकाले अवस्थुभूओ अणिज्चेत्ति ।। २२० ।। अथ विक्रिया रचितो विद्यास्थाम्ना तेन ब्रम्हणा। कथं तिष्ठति वीर्घकालं अवस्तुभूतोऽनित्य इति ।। २२० ।। अर्थ- यदि इस ब्रम्हा ने अपनी विद्या से वेक्रियिक रूप तीनों Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १०७ लोक बनाया है तो वह तीनो लोक अधिक कालनक नहीं ठहर सकता। क्योंकि जो पदार्थ विक्रिया से बने होते हे गे सारा होतो है और अनित्य होत है इसलिये वे अधिक काल तक कभी नहीं ठहर सकते। तम्हा ण होइ कतवं भो सिरछेय विनइणं पत्तो। छलिओ तिलोत्तमाए सामण्पुरि सुन्न असमत्थो ।। २२१ ।। तस्मान्न भवति कर्ता ब्रह्मा शिरच्छेदविनटनं प्राप्तः । छलितस्तिलोत्तमया सामान्य पुरुष इवा समर्थः २२१ ।। अर्थ- इसलिये कहना चाहिये कि इस लोक का कर्ता ब्रह्मा कभी नहीं हो सकता । भला विचार करने की बात है कि जिसका मस्तक छेदा गया जिसको तिलोमत्ता न ठग लिया ऐसा वह ब्रह्मा सामान्य पुरुष के समान तीनों लोकों के बनाने में असमर्थ है। जिस प्रकार सामान्य पुरुष बिना सामग्री आदि के कोई कार्य नहीं कर सकता। जो पर महिला कज्जे छंडइ बहुत्तणं तओ णियमं सण हवइ परमप्पा कह देवो हबइ पुज्जो य ॥ २२२ ।। यः पर महिला कार्येण यजति बृहत्त्वं तपो नियमम् । स न भवति परमात्मा कथं देवो भवति पूज्यश्च ।। २२२ ।। अर्थ- विचार करने की बात है कि जिस ने एक पर स्त्री के लिय अपना बडप्पन छोड दिया, अपना तपश्चरण छोड दिया, और अपने सव नियम छोड दिये वह परमात्मा कैसे हो सकता है अर्थात् कभी नहीं हो सकता तथा जब वह परमात्मा ही नहीं हो सकता है तब वह पूज्य देव भी किस प्रकार हो सकता है, अर्थात् कभी नहीं हो सकता । सुपरिस्त्रिऊण तम्हा सुगबेसह को वि परम भाणो । वह अदुवोस रहिओ बीयराओ परणाणि ।। २२३ ।। सुपरीक्ष्य तस्मात् सुगवेषय कमपि परम ब्रह्माणम् । वशाष्टदोष रहितं वीतराग परं जानिन् ।। २२३ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ माव-सग्रह अर्थ- इसलिये अच्छी तरह परीक्षा कर किसी परमब्रहम् ब्रम्हा को ढढ़ना चाहिये कि जो अठारह दोषों मे रहित हो, वीतराग हो और सदोत्कृष्ट ज्ञानीरावेज्ञ हो। ___ भावार्थ- जो बीतगग सर्वज्ञ हो और अठारह दोषों से रहित हो वही ब्रम्हा या परमात्मा हो सकता है । इस प्रकार इन लोगों के माने हुए ब्रम्हा का निराकरण कर यथार्थ ब्रम्हा का स्वरुप बतलाया । अब आगे कृष्ण के विषयों मे कहते हैं। किण्हो जइ धरइ जयं सूवरूरयेण दाढअग्गेण । तासो कहिं ठवइ पए कुम्मे कुम्मो वि कहिं ठाई ।। २२४ ।। कृष्णो यदि पारयति जगत् शूकररूपेण दंष्ट्राग्रेण । तहि स कुत्र तिष्ठति पदे कम कूर्मोपि कुत्र तिष्ठति ॥ २२४ ।। अर्थ- यदि वृक्षण इन तीन लोंको का धारण करते है तथा सूअर का रुप धारण कर अपनी दाढ़ के अग्रभाग पर रखकर इस जगत को जटाये हुए है तो फिर बताना चाहिये कि वे मुअर का रूप धारण किय हा कृष्ण स्वयं कहां ठहरे हुए है ? यदि कहो कि वे कछवाके ऊपर हो हार है तो फिर यह बताना चाहिये कि वह कच्छप काहां टहरा हुआ है। अह हिऊण तउअरो तिजयं पालेह महमहो णिच्चं । कि सो तिजय बहित्यो तिजयवाहित्थेण कि जाओ ।। २२५ ॥ अथ स्पशित्वाकरं त्रिगगत् पालयति मधुमद : नित्यम् । कि स त्रिजगदहिस्थः त्रिजगढहिःस्थेन किं जातम् ।। २२५ ।। अर्थ-- यदि कृष्ण उस सूअर को छ्कर सदावाल इस तीनों लोकों का पालन करता है तो क्या वह कृष्ण तीनों लोकों से बाहर है? अश्वा क्या वह तीनों लोक तीनों लोकों के बाहर बनाया गया है ? जइ या वहइ पुनो रामो णिवसेइ दंडरइणम्मि । लंकाहि वेण छलिओ हरिया भज्जा पवंचेण ।। २२६ ।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह यत्र च दशरथ पुत्रो राम्रो निवसति दण्डकारण्ये । लंकाधिपतिना छलितः हृता भार्या प्रपंचेन ॥ २२६ ॥ अर्थ - और भी देखो राजा दशरथ के पुत्र रामचन्द्र जव दंडकारण्य ( दंडकवन ) में निवास करते थे तव लंका के अधिपति रावण ने अपनी मायाचारी कर रामचन्द्र को ठग लिया था और उनकी स्त्री मीना को हर ले गया था । विरहेण as faलवद्द पडेइ उठ्ठ इ गियइ सोएह 1 उ पुणइ केन जाया पुच्छद्द वणसावया मूढो ।। २२७ ।। विरहेण रोदिति विलपति पतति उतिष्ठति पश्यति स्वपिति । नहि मनुते तेन ज्ञातः पृच्छति बनशावकान् मूढः ॥ २२७ ॥ १०९ अर्थ - उस समय वे रामचन्द्र सीता के बिरह में रोते थे, तडफते थे, गिर पड़ते थे फिर उठते थे, चारों ओर देखते थे, सोते थे, तथा ज्ञान रहित वे रामचंद्र वन के पशुओं के बच्चों से पूछते थे कि क्या तुमने कही सीता देखी है। इस प्रकार ईश्वर होकर भी रामचन्द्र को मोता की कुछ खबर नहीं थी । जइ उवत्यं तिजयं ता सो कि तत्थ वाणरा रिच्छा | मेलाविण उवहि बंधहि सेलेहि सेउत्ति ॥ २२८ ॥ afar उपरि स्थितः त्रिजगतः तहि किं तत्र वानरान् ऋक्षान् । मेलापयित्वा उदधे बध्नाति शैलः सेतुमिति ॥ २२८ ॥ अर्थ- यदि वे विष्णू वा रामचन्द्र तीनों जगत के ऊपर विराजमान है सब के ईश्वर है तो फिर उन्होंने रीछ और बंदरों को इकट्ठा कर पत्थरों से समुद्रका पुल क्यों बनवाया था ? ft पटुवेद्द दूवं जंप कि सामभेयदंडाई | अलहंतो कि जुज्जह कोवं काऊण सत्येहि ।। २२९ ।। कि प्रस्थापयति व्रतं जल्पति कि साममेवदण्डानि । अलभमानः कि युद्धति कोपं कृत्वा शस्त्रं ।। २२९ ।। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह अर्थ- इसके सिवाय उसने रावण के पास दूत क्यों भजा ? साम दाम दंड भेद के अनसार वातचीत क्यों की तथा इस प्रकार भी जय मीता नहीं मिली तो फिर क्रोध कर शस्त्रों के द्वारा रावण से क्यों लड । कि दहवयगो सीया गहिऊण उवर बहिरे थक्को : ज हेलाई ण तरइ रिउ हणिलं आणि भज्जा ।। २३० । कि दशवदनः सीता गहीत्वा उपरि वहि: स्थितः । तत् ऐलया न शक्नोति रिपुं हत्वा आनेतुं भार्याम् ॥ २३० ।। अर्थ- क्या सीता को लेकर राब। कहीं तीनों लोकों के बाहर जाकर रहा था जो ईश्वर और तीनों लोकों के पालन करने वाले होकर भी सहज रीति से रावण को न मार सका और अपनी स्त्री सीता को न ला सका । जइ तिजयपालणत्थे संजाया तस्स एरिसो सत्तो। तो कि तिजयं बड्ढे हरेण सं पिच्छमाणस्स ।। २३१ ।। यदि त्रिजगत्पालनार्थे संआता तस्यतादृशो शक्ति: । तहि कि जगद्दग्धं हरेण संप्रेक्षमाणस्य ।। २३१ ।। अर्थ- यदि विष्णु भगवान में तीनों लोकों को पालन करने की नाक्ति है तो फिर उनके देखते देखते ही महादेव में तीनों लोकों को क्यों जला डाला ? जो ण जाणइ जो ण जाणइ हरिय णियभज्ज । पुच्छइ वणसावयई अह मुणेइ अाणउं ण सक्कइ । बंधेइ सायरू गिरिहि पेसिऊण तहि पवरभिच्चाई तासु उवीर णारायणहो किम तिवणु णिवसेई । जो वारवइ विणासियहो रक्खहु णा हि तरेइ ।। २३२ ।। यो न जानाति यो न जानाति हरिं निजभार्यायाः । पक्ष्छतिवनशावकान् अथ जानाति आनेतुं न शक्नोति । बध्नाति सागरं गिरिभिः प्रेषयित्वा तत्र प्रवर भुत्यान् । तस्योपरि नारायणस्य कि त्रिभुवन निवसति । यो रिपुं विनाश्य रक्षितुं नहि शन्कोति ।। २३२ ।। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ___ अर्थ- जो रामचन्द्र ईश्वर होकर भी अपनी स्त्री को हरण करने वाले को भी नहीं जानते और बन में रहने वाले पशुओं के बच्चों से पूछते है तदनंतर यदि वे जान भी लेते है तो भी वे अपनी स्त्री को ला नहीं सकत । तया पत्थरों से समद्र का पुल बनवाते हैं और अनेक सेवकों को भजते है | क्या से नारायण के ऊपर ही यह तीनों लोक ठहरा हुआ है जो अपने शत्रु को भी नहीं मार सकते और अपनी स्त्री की रक्षा नहीं कर सकते । नारायण भला तीनों लोकों की रक्षा केस कर सकते है । अर्थात् कभी नहीं कर सकते । जो देओ होऊणं माणुस मतेहि पंडुपुत्तेहिं । सारइ वोलाइतो जुझे जेउं कओतेहिं ।। २३३ ।। यो देवो भूत्वा मनुष्यमात्रः पाण्डुपुत्रः । सारथि कथयित्वा कथयित्वां युद्धे जेतुं कथितः तैः ।। २३३ ।। अर्थ- जो नारायण ईश्वर होकर भी साधारण मनुष्य पांडवों के सारथी बने और इस प्रकार उन्होंने युद्ध में पांडवों को जिताया । तम्हा ण होई कत्ता किण्हो लोयस्स तविह भेयस्स । मरिऊण वार वारं दहावयारेहि अवयरइ ।। २३४ ।। तस्मान्न भवति कर्ता कृष्णो लोकस्य त्रिविधवस्य । मृत्वा पुनः पुनः दशावतारै; अवतरति ॥ २३४ ।। अर्थ- इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि कृष्ण न तो तीनों लोकों के कर्ता है न उसके पालन करने वाले है । वे तो बार बार मरकर अवतार धारण किया करते है तथा अनुक्रमसे दश अवतार धारण करते है। एवं मणति केई असरीरो णिक्कलो हरी सिद्धी । अवयरइ यश्चलोए देसं गिण्हेह इच्छाए ।। २३५ ।। • - -. भो भो भुजंगतरुपल्लव लोलजिहव, । बंधूकपुष्पदलसन्निभ लोहिताक्ष ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ एवं भगन्ति केचित् अशरीरी निष्कलो हरिः सिद्धः । अवतरति मत्यलोके देहं गृह्णातीच्छया ।। २३५ ।। साव-सग्रह अर्थ - इस विषय में कोई कोई लोग यह कहते है कि विष्णु का कृष्ण शरीर रहित है, सब दोषों से रहित है और सिद्ध है ऐसे वे कृष्ण मनुष्य लोक में आकर अपनी इच्छानुसार शरीर को ग्रहण करते हैं । आगे इसी बातका निराकरण करते है 1 जइ तुप्पं णवणीयं णवणीयं पुर्णावि बोइजइ बुद्धं । तो सिद्धिगओ जोवो पुणरवि देहाई गिण्हेइ ॥ २३६ ॥ यदि घृतं नवनीतं पुनरपि भवेद्यदि दुग्धम् । तहि सिद्धगतो जीवः पुनरपि देहाविकं गृह्णाति ।। २३६ ।। अर्थ- यदि घी बदल कर फिर भी मक्खन वन जाय और मक्खन बदल कर फिर दूध बनजाय तो समझना चाहिये कि सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए जीव भी फिरसे शरीर धारण कर सकते है । भावार्थ- जब समस्त कर्मों का नाश हो जाता है तब सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है तथा कर्मों के नाश होने पर उन कर्मों से बना हुआ शरीर भी नष्ट हो जाता है। ऐसी अवस्था में सिद्ध जीव फिर कभी भी शरीर धारण नहीं कर सकते। जिस दूधका दही बन गया वा घी मक्खन बन गया या घी मक्खन वा दही फिर कभी भी दूध नहीं पृच्छामि ते पवनभोजिन् कोमलांगो, 1 काचित्त्वया शरदचन्द्र मुखी न दृष्टा ? ।। अर्थ - रामचंद्र वन में किसी सर्प से पूछते है कि हे सर्प तुम्हारी चंचल जिह्वा वृक्ष के पत्ते के समान चंचल है। तुम्हारे लाल नेत्र बंधूक के पुष्प के दल के समान बहुत ही लाल है तथा तुम सदाकाल वायु का ही भक्षण करते रहते हो, ऐसे हे सर्प ! क्या तुमने शरद ऋतु के चंद्रमा के समान सुंदर मुख को धारण करने वाली और अत्यन्त कोमल शरीर धारण करने वाली ऐसी कोई स्त्री देखी है ? Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह रद्धो को पुणरवि खितं खितो य होइ अंकूरो । जड़ तो नोक् यता जीया पुण हंति संसारे ॥ २३७ ॥ रः क्रूरः पुनरपि क्षेत्रे क्षिप्तश्च भवेदंकुरः । यदि तहि मोक्षं प्राप्ताः जीवाः पुनरायान्ति संसारे ।। २३७ ।। ११३ अर्थ- यदि रंधा हुआ धान्य खेत में बोने से अंकुर वृक्ष रूप हो भगाता है तो समझना चाहिये कि मोक्ष मे प्राप्त हुए जीव भी फिर संसार में जा सकते है । भावार्थ - जिस प्रकार रंधा हुआ बान्य खेत में बो देने पर भी नहीं उगता उसी प्रकार मोक्ष में प्राप्त हुए जीव फिर कभी भी संसार मे नहीं आ सकते । आगे और भी दिखलाते हैं । as freesो महप्पा विष्हू णिस्सेसकम्ममलचत्तो । किं कारण मध्याण संसारे पुणे वि पाडेइ ॥ २३८ ॥ यदि निष्कलो महात्मा विष्णुः निःशेषस्वकर्ममलच्युतः । किं कारणमात्मानं संसारे पुनरपि पातयति ॥ २३८ ॥ अर्थ- यदि ये विष्णु वास्तव मे शरीर रहित है महात्मा है और समस्त कर्ममल कलंक से रहित है तो फिर किस कारण से अपने आत्मा को फिर से ससार मे गिराते है वा संसार में परिभ्रमन कराते है । भावार्थ- संसार में तो दुःख ही दुःख है । रामचन्द्र भो संसारी धं इसीलिये उनकी सीता के वियोग का दुःख सहना पडा । यदि विष्णु वास्तव मे सिद्ध है तो फिर कोई ऐसा कारण नहीं है कि वे दुःख भोगने के लिये फिर संसार में आवे । सिद्ध अवस्था में तो अनन्त सुख रहता है फिर ऐसा कौन बुद्धिमान है जो अनंत सुख को छोड़कर अनेक प्रकार के दुःखों से भरे हुए इस संसार में जन्म मरण धारण करता फिरे, अर्थात् कोई नहीं । अहवा जइ कलसहिओ लोयबावार दिष्णणियचित्तो । तो संसारी नियमा परमप्पा हवइ ण हु विष्णू ।। २३९ ।। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ भाव-संग्रह अथवा यदि कलासहितो लोकव्यापारवत्तनिचित्तः । तहि संसारी नियमात् परमात्मा भवति न हि विष्णु अर्थ- अथवा यदि विष्णु बास्तव में शरीर सहित है और इनका वित्त लोक के व्यापार मे लगा रहता है तो फिर कहना चाहिये कि वह विष्णु नियम से संसारी है वह परमात्मा कभी नहीं हो सकता । इम जाणिऊण पूर्ण पवणय दोसेहि वज्जिओ विण्ह । सो अक्खइ परमप्पा अणतणाणि अराई य ।। २४० ।। इति ज्ञात्वा नूनं नवनवदोष विवजितो विष्णः । स कथ्यते परमात्मा अनन्तज्ञानी अरागी च ॥ २४० ।। अर्थ- ये ऊपर लिखी सब बाते समझ कर कहना चाहिये कि जो विष्णु अठारह दोषो से रहित है अनंत ज्ञानी है और वीतराग है वहीं परमात्मा हो सकता है। इन गुणों के बिना कोई भी परमात्मा नहीं हो सकता। आगे महादेव के लिय कहते है। एवं भणति केई रुद्दो संहरइ तिहवणं सयलं । जितामित्तेण फुड पर णायरतिरियसुरसहियं ।। २४१ ।। एवं भणन्ति केचित् रुद्रः संहरति त्रिभुवन सकलम् । चिन्तामात्रेण स्फुटं नरनारकतियंक्सुरसहितम् ॥ २४१ । अर्थ- कोई कोई लोग ऐसा कहते है कि महादेव मनुष्य तिर्यच देव नारकी आदि समस्त जीवों सहित इन समस्त तीनों लोकों को चितवन करने मात्र से ही शरण भरमें सहार कर डालते है । भावार्थ- क्षण भर में समस्त जीवों का संहार कर डालते है । 8 असेसलोए पच्छा सो कत्थ चिट्टदे रुद्दो । इषको तमंधयारो गोरी गंगा गया कत्थ ।। २४२ ।। मष्टेऽवशेष लोके पश्चात्स कुत्र तिष्ठति रुद्रः । एकस्तमोऽधकारः गौरी गंगा गता कुत्र ।। २४२ ।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ-- जब महादेव समस्त लोक का महार कर डालते है तो फिर समस्त लोक के. नाट हो जाने पर वे महादेव स्वयं कहां ठहरते है ? फिर तो एक महा अंथकार ही रह जाना होगा तथा उस समय गौरी और गंगा कहां चली गई होमी । कुछ तो समझना चाहिये । सो लहइ एमगाम पावी लोऐहि वरचदे सो हु । जो पुण डहइ तिलोयं सो कह देवत्तणं पत्तो ॥ २४३ ।। यो दहति एकग्रामं पापो लोकरुच्यते स हि । यः पुनः दहति त्रिलोक स कथं देवत्वं प्राप्तः ॥ २४३ ।। अर्थ- इस संसार में जो कोई पुरुष किसी एक छोटे से गांव को भी जला देता है वह इस संसार में महा पापी कहलाता है । फिर भला जो तीनों लोकों को जला डालता है वह महादेव देव कैसे हो सकता है उसे तो महा पापीयों से भी बढ़कर महापापी समझना चाहिये । जो हणइ एय गाव विप्पो वा सोवि इत्थ लोएहि । गो बभहच्चयारी पमणिब्जह पावकारी सो ।। २४४ ॥ यः हन्ति एकां मा वि वा सोपि अत्र लोके ।। गोब्रह्महत्याकरो प्रमण्यते पापकारी सः ॥ २४४ ।। अर्थ- देखों इस संसार में जो पुरूष किसी एक गाय को मार दालता है अथवा किमी एक ब्राह्मण को मार डालता है वह गाय की हत्या करनेवाला और ब्रह्महत्या करनेवाला तो महापापी गिना जाता है जो पुण गोणारि पमुहे वाले बुड्डे असंखलोयत्थे । संहारेइ असेसं तस्सेव हि फि भणिस्सामो ॥ २४५ ।। यः पुनः गोनारी प्रभुखान् वालान् बुद्धान् असंख्य लोकस्थान् । सहरति अवशेषान् तमेवहि कि भणिष्यामः ।। २४५ ।। अर्थ- फिर भला जो महादेव देव कहलाकर भी असंख्यात लोकों मे रहनेवाले गाय स्त्रियां वालक वृद्ध आदि समस्त जीवों का संहार कर डालता है उसे क्या कहना चाहिये ? वह तो महा पापियों से भी बढ़कर महा पापी हो सकता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आग और भी कहते है। अहंवा जइ भणइ इयं सो देवो तस्स ण हु पावं । तो वंम्ह सोसछेए बंभहमचा कह जाया ।। २४६ ।। ।। अथवा यदि भणतीदं स देवः तस्य भवति नहि पापम् । तहि ब्रह्म शिरश्छेदे ब्रह्म हत्या कथं जाता ।। २४६ ।। अर्थ- यदि कदाचित् कोई यह कहे कि महादेव देव हे सब से बड देव है इसलिये तीनों लोकों का नाश करने पर भी उनको हत्या का पाप नहीं लगता । परंतु गंगा बहना भी सर्वथा मिथ्या है । क्योंकि जब महादेवजी को इतनी प्रबल हत्या करने पर भी पाप नहीं लगता तो फिर जब उन्होंने ब्रह्मा के नस्तकपर का गधे का मस्तक काट डाला था उस समय उसको ब्रह्म हत्या का पाप कसे लग गया था ? भावार्थ- ब्रह्मा का मस्तक काटने पर महादेव को ब्रह्म हत्या का महापाप लगा या । तदनंतर कि हट्ट मुंडमाला कंधे परिवहइ धूल धूसरिओ। परिभमिओ तित्थाई णरह कवालम्मि भुजंतो ।। २४७ ।। कि अस्थिमुंडमालां स्कंधे परिवहति धूलिधूतरितः । परिभ्रमित स्तीर्थानि नरस्य कपाले मुंजानः ।। २४७ ।।। अथे- उस ब्रह्म हत्या के पाप को नाश करने के लिये उसने अपने गले में हड्डियों की माला और मुंडमाला डाली थी, अपना शरीर लि मे धूसरित कर लिया था और मनुष्य के कपाल में भोजन करता हुआ समस्त तीर्थों में परिभ्रमण करने लगा था। सह वि ण सा व हच्चा किट्टा रुदस्स जामतागामे । थसिओ पलासणगामे सा विप्पो णियवलद्देण ।। २४८ ।। तथापि न सा ब्रह्महत्या स्फिटति रुद्रस्य यावत् ग्रामे । उषितः पलाश नाम्नि तत्र विप्रः निजवलत्वेन ।। २४८ ।। णिहो सिंगेण मुओ क्सहो सेओ वि कसणु संजाओ। बाणारसि च पत्तो नहोवि य तस्स मम्गेण || २४९ ।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह निहतः श्रृंगेण मृनः वृषभः श्वेतः कृष्ण: संजातः । भागारसों प्राप्त: रुडोपि च तस्य मार्गेण । २४९ ।। गंगाजलं पविट्ठा चत्ता ते दोयि यमहरुचाए। रुदस्स करय लागो लयं पडियं कवालोसि ।। २५० ।। गंगा जले प्रविष्टी त्यक्ती तो वापि ब्रह्महत्यया । न रुद्रस्य करे लग्नं तत्र पतितं कपाल मिलि ।। २५० ।। अर्थ - इस प्रकार उस महादेवने अनेक तीर्थों मे परिभ्रमण किया तथापि उन महादेव की ब्रह्म हत्या छूट नहीं सकी थी। जब वह महादेव इस प्रकार परिभ्रमण करताहुआ पलाश नाम के एक गांव में पहुंचा तब उस गांव में उपवास किये हुए एक ब्राह्मण को उसी के एक बेल ने अपने सीगों मार डाला था । इस ब्रह्म हत्या के पाप से बह सफेद बल उसी समय काला हो गया था । तदनंतर बह बैल अपना ब्रह्म हत्या का पाप दूर करने के लिये बनारस नगरी में पहुंचा। वह बैल भी पलाश गांव का था और वहीं पर महादेव पहुंच गया था। इसलिये उस कृत्य को देखकर महादेव भी उस बैल के पीछे पीछे बनारस मे जा पहंचा था। बनारस जाकर उन दोनों ने गंगा जल में प्रवेश किया तब कहीं जाकर वे दोनों ही ब्रह्म हत्या से मुक्त हुए । तथा ब्रह्म हत्या के कारण महादेव का हाथ मे जो कपाल लग गया जो त्रिपक गया था वह भी उस ममय गंगा जल मे गिर पडा । आगे आचार्य समझा कर कहते है । जस्स गुरू सुरहिसुओ गं तोएण फिट्टए हच्चा । सो देवो अण्णस्स य फेडइ कह संचियं पावं ।। २५१ ।। यस्य गुरुः सुरभिसुतः गंगातोयेन स्फिटयते हत्या । स देवोऽन्यस्य च स्फोडयति कथं संचितं पापम् ॥ २५१ ।। अर्थ- आचार्य कहते है कि देखो जिस महादेव ने अपनी ब्रह्म हत्या दूर करने के लियं बेल को तो गुरु बनाया और गंगा के जल से उसकी ब्रह्म हत्या दूर हुई वह महादेव अन्य संसारी जीवों के चिर काल Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भाव-सग्रह में संचित हुए पापों को कैसे दूर कर सकते हैं ? अर्थात् कभी दूर नही कर सकते। आग आचार्य इसी बात को और दिखलाते है । जो ण तरइ णियपावं गहियवओ अप्पणस्स फेडेउं । असमत्थो सो णूणं कत्तित्त विणामणे रुद्दी ॥ २५२ ।। यो न शक्रोति निजपापं गृहीतततः आत्मन: स्फोटयितुं । असमर्थः स नूनं कर्तृत्वविनाशने रुद्रः ।। २५२ ॥ अर्थ- जो महादेव व्रतों को ग्रहण करके भी अपने आत्मा के भी अपने पापा का नाश नहीं कर सकता वह महादेव इस ब्रह्मा के वनाय हुए लोक का विनाश भी नहीं कर सकता । इमलिये निश्चित सिद्धांत यह है कि णो वभा कुणइ जयं किम्हो ण धरेइ हरद्द ग उ रुद्दो । एसो सहावसिद्धो णिश्चो दस्वेहि संछण्णो || २५३ ।। न ब्रम्हा करोति जगत् कृष्णः न धरति हरति न च रद्रः । एषः स्वभावसिद्धः नित्यः द्रव्यः संछन्नः ।। २५३ ।। अर्थ- न तो इस जगत् को ब्रम्हाने बनाया है, न कृष्ण वा विष्ण इसको धारण करता है और न महादेव इसका मंहार करले। यह जगत् स्वभाव से ही सिद्ध है, अनादि है, और अनिधन है तथा जिवादिक द्रव्यों में भाग हआ है। भमइ जग्गउ भमइ णग्गज वसहि सुमसाणि । पर रुंडसिर मंडयउ गरकवालि भिक्खाई भुंजेइ । सह कारिउ गरियहिदुक्खभाल अप्पहो णिउज्जइ । जो घणेहं सिर कमले खुडिए न फेडइ दोसु । सो इसरू कह अवहरइ तिवणु करइ असेसु ॥ २५४ ।। भ्रमति नगे अमति नगे वर्गात श्मशाने । नररुण्डशिरोमण्डितः नरमपाले भिक्षा भुनिक्ति ।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह सहकृत: गौरीभिः दुःखभारे आत्मानं नियुक्ते । यो ब्रह्मण: शिर:कमले खण्डिते न स्फोटयति दोषम् । स ईश्वरः कथगपहरति त्रिभुवनं करोति' अशेषम् ।। २५४ ।। अर्थ- जो महादेव नग्न होकर पर्वतोंपर घूमता फिरता है इमशान में रहता है, मनुष्यों के रुंड मंडो मे अपने मस्तक की शोभा अहाता है. मनुष्य के कपाल में भिक्षा भोजन करता है, पार्वती को सदा साथ रखता है, अपने आत्मा को सदाकाल अनेक दुःखो के समूह मे डालता रहता है, जिसने ब्रह्मा का मस्तक काट डाला और फिर उस हत्या से लगी हई ब्रह्महत्या के महापाप को दूर नहीं कर सका वह महादेव मला ईश्वर को हो सकता है और किस प्रकार इन समस्त तीनों लोकों का नाश कर सकता है । अर्थात् कभी नहीं कर सकता | उत्तरंतज उत्तरंतज पवर सुरसरिहि । पारासुर चलिउ मणुम एलज्जकेवह दिणि । आलिकिय तपहेउ वरिवास जाउ तावसुमहामुणि भारउ पुण हउदो वहिं केसग्गह पन्वेण । जिणु मल्लिवि के केण जगिणियडय चवल मणेण ॥ २५५ ॥ अर्थ- पराशर मुनि गंगा के पार होने के लिये गंगा नदी के किनारे पहुंचे वहां पर मल्लाह की लडकी नाव चला रही थी इसलिये वे पाराशर ऋषी उसी को आलिंगन करने लगे। अण्णाणि य रइयाई एत्थ पुराणाई अघडमाणाई। सिद्धतेहि अजुतं पुयावरदोससंकिण्णं ।। २५६ ।। अन्यानि च रचितान्यत्र पुराणानि अघटमानानि । सिद्धांतरयुक्तं पूर्वापरदोषसकोणम् ।। २५६ ।। अर्थ- और भी ऐसे बहुत से पुराण बने हुए है जो कभी संभव नहीं हो सकते, तथा जो सिद्धांत के सर्वथा विरुद्ध है, और पूर्वापर अनेक दोषों से भरे हुए है। एए उत्ते देवो सब्वे सद्दहइ जो पुराहि । अरिहंता परिचाए सम्मा मिच्छोत्ति णायथ्यो । २५७ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह एतानुक्तान् बेवान् सर्वान श्रद्दधाति यः पुराणैः । अहंतः परित्यज सम्यग्मिथ्यात्वं इति ज्ञातव्यम् ।। २५७ ।। अर्थ- जो पुरुष बीतराग सर्वज भगवान अरहंत देवको छोड़कर ऊपर लिख इन समस्त देवों का श्रद्धान करना है तथा पुराणों में कहे हार अन्य समस्त देवो का श्रद्धान करता है उसे सम्यग्मिथ्या दाटी तीसरे गुण स्थान वाला समझना चाहिये । एसो सम्मामिच्छो परिहरियखो हवेइ णियमेणः । एत्तो अधिरइ सम्मो कहिज्जमाणो णिसामेह ।। २५८ ।। एतत्सम्यग्मिथ्यात्वं परिहर्तमं भवति नियमेन । इतः अविरतसम्यक्त्वं कथयिष्यमाणं निश्रृणुत ।। २५८ ।। अर्थ- इस प्रकार जो तीसरे सम्यम्मिश्यादृष्टी गुणस्थान का स्वरूप कहा है उसका सर्वथा त्याग नियम पूर्वक कर देना चाहिये । अव इसके आगे चौथे अविरत सम्यग्दृष्टी नाम के गुणस्थान का स्वरुप कहते है, उसे सुनी। इस प्रकार तीसरे गुणस्थान का स्वरुप कहा । -- -- . ब्रह्मा अल्पायुषोऽयं हरिविधि प्रशाद्वोपतिर्गर्भवास, चन्द्रा, क्षीणः प्रतापी भ्रमति दिनकरो देवमिथ्याभिमानी । कामः कायेनहीनश्चलयति पवनो विश्वकर्मा दरिद्री, इन्द्राद्या दुःख पूर्णाः सुखनिधि सुभगः पातुनः पार्श्वनाथः ॥ अर्थ- ब्रह्मा का आयुष्य थोड़ा है, कर्मों के उदय स कृष्णा ग्बाल के यहां हुए, चन्द्रमा का प्रताप क्षीण, जो देव पने का मिथ्या अभिमान करता हुआ सदा परिभ्रमण किया करता है। कामदेव शरीर रहित है वायु की गति सदा चंचल रहती है, विश्वकर्मा दरिद्री कहलाता है और इन्द्रादिक देव सब दुःखो से भरे हुए है । अतएवं अनंत सुख से सुशोभित होनेवाले भगवान पार्श्वनाथ हम लोगों की सदा रक्षा करें। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-गंग्रह आग अविरत सम्यग्दृष्टी नाम के चौथ गुणस्थान का स्वरूप कहते हवइ च उत्थं ठाणं अविरइ सम्मेति णाम पणियं । तत्थह खइओ भावो खय उपसमिओ समोवेव ।। २५९ ।। भवति चतुर्थ स्थानमविरतसम्यक्त्वमिति नाम: भणितत् । सहि क्षायिको भावः क्षायोयमिकः शमश्चैव ।। २५९ ।। अर्थ- चौथ गणस्थान का नाम अविरल मम्यग्दष्टी है। इस गुणभ्या। में क्षायिक भाव होने हैं, क्षायोपशमिक भाव होते है और ओपशमिक भात्र होते है। एए तिषिण वि भावा दसणमोहं पडुच्च भणिआ हु 1 चारितं णत्धि जदो अविरिय-अंतेसु ठाणेसु ।। २६० ।। एते त्रयोपि भावा दर्शनमोहं प्रतीत्य भणिता हि । चारित्रं नास्ति यतः अविरतान्तेषु स्थानेषु ।। २६० ।। अर्थ- इस गुणस्थान में जो तीनों प्रकार के भाव वतलाये है वे दर्शन मोहनीय के क्षय, क्षयोपशम और उपशम को लेकर बतलाये है। इसका भी कारण यह है कि पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान नक चारित्र का सर्वथा अभाव रहता है। भावार्थ- यद्यपि इस चौथे गुणस्थान में चारित्र मोहनीय का उदय है इसलिय चौथे गुणस्थान वाले औदयिक भाव भी कहे जा सकते है परंतु चौथे मुणस्थान तक चारित्र होता ही नहीं है इसलिय यहां पर चारित्र मोहनीय की अपेक्षा ही नहीं रक्खी है । दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय की अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभ इन प्रकृतियों का उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व इस गुण गुणस्थान में होता है । इन्ही प्रकृतियों का क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व होता है और इन्ही प्रकृतियों का क्षयोपक्षम होने से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । इस गुणस्थान में ये तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन हो सकते है इसलिये दर्शन मोहनीय के क्षय क्षयोपशम या उपशम की मुख्यता को लेकर तीनां Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ भाव-मंग्रह प्रकार के पात्र बतलाये है। अनंतानुबंधो कपायों का भयोपशमादिक दर्शन माहनीय के साथ हो जाता है परंतु चारित्र मोहनीय वी शंष प्रवातियों का उदय ही रहता है इसलिये इस गुणस्थान में चारित्र मोइनीय को मुस्यता नहीं रक्स्त्री है। केवल दर्शन मोहनीय की अपेक्षा से . ! ही तीनों प्रकार के भाव बतलाय है । __ आग इम गणस्थान का स्वरूप अथवा इस गणस्थान में रहने वाले जीवों के भाव बतलाते है: जो इंदिएसु विरओ यो जीवेथावरे तसे वावि । जो सद्दहइ अविर सम्पोनि णायन्यो ।। २६१ ।। नो इन्द्रियेषु विरतो नो जीवे स्थावरे असे वापि । यो श्रद्दधाति जिनोक्त अविरत सम्यक्त्वइति ज्ञातव्यमः ।२६१ अर्थ- इम गुणस्थान में रहने वाला जीव न तो इन्द्रियों से विरक्त रहता है न अस स्वावर जीवों की हिंसा का त्याग करता है । वह प्रमवान जिनेंद्र देव के कहे हुए बचनों पर गाढ श्रद्धान करता है। इस प्रकार उसके यथार्थ देव शारत्र गुरु के श्रद्धान करने को अथवा जीवादिक तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान करने को चौथा अविरत सम्यग्दृष्टी गणस्थान कहते है । भावार्थ- यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टी जीव इंद्रियों में विरक्त नहीं होता और न त्रस स्थावर जीवों की रक्षा करने का नियम लेता है तथापि सम्यग्दर्शन के प्रगट होने से उसके मंबेग वैराग्य अनुकंपा आदि आग लिखे हुए गुण प्रगट हो जाते है इसलिये त्याग न होने पर भी चित्त में बैराग्य उत्पन्न होने के कारण वह अभक्ष्य भक्षण नहीं करता और अनुकंपा होने के कारण जीवों की हिंसा नहीं करता । यदि वह अभक्ष्य भक्षण करता है और जीवों की हिंसा करता है तो उसके संवेग बराग्य और अनुकंपा आदि गुण नहीं हो सकते । तथा विना इन गुणों के उसके सम्यग्दर्शन नहीं रह सकता । और विना सम्यग्दर्शन को यह चाथा गुणस्थान नहीं हो सकता । इसके सिवाय यह भी समझ लेना चाहिये कि अविरत सम्यग्दृष्टी पुरुष देव शास्त्र गुरु का यथार्थ श्रद्धान Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह करता है गवान अरहंत देव के कहे हए वचनोंपर अर्थात् जैन शास्त्रों पर पूर्ण विश्वास करता है। शास्त्रों में अभक्ष्य नक्षण का त्याग और हिंसा का निषध लिवा ही है अदि वह शास्त्रों का श्रद्धान करता है तो भी वह अभश्य पक्षण नहीं कर सकता तथा जी वों की हिंसा नहीं कर सकता। वतमान समय में बहुत से विद्वान् पा विद्वान् त्यागी शास्त्रों के विरुद्ध उपदेश देते है, अयोग्यों को जिन मंदिर में जाने का उपदेश देते है. मुनि होकर भी दम्साओं के यहाँ आहार लेते हैं शास्त्रों में कही हुई भगवान् जिनेंद्रदेव की पूजा की विधि का निषेध करते है अपनी इच्छानसार ही शास्त्रों मे कही हुई पूजा की विधि के प्रतिकुल मन मानी विधि का प्रतिपादन करते है, वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था को मानते नहीं, वर्णसंकर वा जातिसंकर अथवा बीर्यसंकर संतान उत्पन्न करने का उपदेश देते है वे सबसम्यग्दृष्टी नहीं कहला सकते, क्योंकि वे भगवान् जिनेन्द्रदेव के कहे हुए वचनोंपर श्रद्धान नहीं करते किंतु उसके विपरीत श्रद्धान करते है । आगे फिर भी सम्यग्दर्शन का लक्षण कहते हैं। हिसा रहिए धम्मे अट्ठारह बोस वज्जिए देवे । णिगथे पध्वयणो सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।। २६२ ॥ हिंसा रहिते धर्म अष्टावा दोषजिते वेवे । निर्जन्थे प्रवचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ।। २६२ ।। अर्थ- धर्म वही है जो हिंसा से सर्वधा रहित हो, देव वही है जो अठारह दोषों से रहित हो, और गुरू वा मुनि वे ही है जो वाह्य अभ्य तर परिग्रहो से रहित सर्वथा निर्ग्रन्थ हो। इस प्रकार देव शास्त्र गुरु का यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । आगे सम्यग्दर्शन के गुण कहते है। संदेओ णिन्वेओ णिहा गरहाई उपसमो भत्तो । चच्छल्लं अनुकंपा अटगुणा होति सम्मते ॥ २६३ ।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भात्र-सह संवेगो निगो निंदां गहो उपशमो भक्तिः वात्सल्यं अनुकंपा अष्टौ गुणा भवन्ति सम्यक्त्वे ।। २६३ ।। अर्थ- संवेग निर्वेद निंदा गर्दा उपशम भक्ति वा अनुकंपा में सम्यग्दर्शन के आठ गुण होते है। संसार के दुःखों से भयभीत होने तथा धर्म में न होना संवेग है, संसार शरीर और भोगों से बिरक्तता धारण करना निवेंद है, अपने किये हुए पापों को निंदा अपने आप करना निंदा है, गुरु के समीप जाकर अपने दोषों का निरा करण करना गर्दा है। कोचादि पच्चीसों कषायों का त्याग करना उपशम है, दर्शन ज्ञान चारित्र और तप का वा इनको धारण करनेवालों का विनय करना भक्ति व्रतों के धारण करने में अनुराग धारण करना वा व्रतियों में अनुराग धारण करना वात्सल्य है, त्रस स्थावर इन छहों प्रकार के जीवों की रक्षा करना उनपर दया धारण करना अनूकंपा है । सम्यग्दर्शन के ये आठ गुण कहलाते है । सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होने पर ये आठ गुण अवश्य प्रगट हो जाते है । जिसके ये गुण प्रगट न हो, समझना चाहिये उसके सम्यग्दर्शन भी नहीं है । आगे सम्यग्दर्शन के भेद बतलाते है । दुहि तं पुण भणियं अहवा तिविहं कति आयरिया | अण्णाय अधिगमे वा सद्दहणं जं पयस्थाणं ॥ २६४ ॥ द्विविधं तत्पुनः भणितं अथवा त्रिविधं कथयन्त्याचार्याः । आज्ञया अधिगमेन वा श्रद्धानं यत् पदार्थानाम् ।। २६४ ।। अर्थ- आचार्यों ने उस सम्यग्दर्शन के दो भेद बतलाये हैं अथवा तोन भेद बतलाये है। भगवान जिनेंद्र देव के कहे हुए पदार्थों का जो श्रद्धान भगवान की आज्ञा प्रमाण कर लिया जाता है उसको आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं और किसी के उपदेश द्वारा जो पदार्थों का श्रद्धान किया जाता है उसको अधिगमन सम्यग्दर्शन कहते है। इसके सिवाय सम्यग्दर्शन के निसर्गज और अधिगमज ये भी दो भेद है। जो सम्यग्दafari fear उपदेश के प्रगट हो जाता है उसको निसर्गज सम्यग्दगंन कहते है और जो सम्यग्दर्शन किसी के उपदेश से प्रगट होता है अधिवास कहते है। इस प्रकार निमित्त कारण के भेद से दो Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह भेद हो जाते है । आगे सम्यग्दर्शन के तोन भेद दिखलाते है । वडवण ं च पाहणं पुणु व उद्दिदु । अविर विश्याण पि य विरयाविरयाण ते हुति ।। २६५ ।। क्षयोपशमं च क्षाधिकं उपशमं सम्यक्त्वं पुनश्चोद्दिष्टम् | अविरतानां विरतानामपि च विरताविरतानां तानि भवन्ति । २६५ १२५ अर्थ- क्षायिक क्षयोपशमिक और औपशमिक ये तीन सम्यग्दगंत के भेद है। ये तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन अविरत सम्यग्दृष्टी विरताविरत और त्रिरत इन सबके होते हैं 1 आगे सम्यग्दर्शन किस प्रकार प्रकट होता है, सो दिखलाते है । कोह चक्क पढमं अनंत बंधीणिणामयं भणियं । सम्मतं मिच्छत्तं सम्मा मिच्छत्तयं तिष्णि ।। २६६ ।। strचतुष्कं प्रथमं अनन्तानुबन्धिनामकं भणितम् । सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं त्रीणि ।। २६६ ।। एएल सत्तएहं उवसन करणेण जयसमं भणियं । खयओ स्वइयं जायं अञ्चलत्तं णिम्मलं सुद्धं ॥ २६७ ॥ एतेषां सप्तनामुपशमकरणेन उपशमं भणितम् । क्षयतः क्षाधिकं जातं अचलत्वं निर्मलं शुद्धम् ॥ २६७ ॥ अर्थ - अनन्तानुबंधी कोध मान माया लोभ ये चारित्र मोहनीय की चार प्रकृतियां तथा मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व ये तीन दर्शन मोहनीय की प्रकृतियां ये सात प्रकृतियाँ सम्यदर्शन को घात करने वाली है। इन सातों प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम सम्यग्दर्शन होता है तथा इन्हीं सातों प्रकृतियों के अत्यंत क्षय होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । यह क्षायिक सम्यग्दर्शन अचल है अर्थात् फिर कभी नष्ट नहीं होता सदा अनंतानंत कालतक विद्यमान रहता है तथा अत्यंत निर्मल है और अत्यंत शुद्ध है । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आगे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को कहते है। उदयाभाओ जत्थ य पयडीणं ताण सववादोणं । छण्णाण उवसमो विय उदओ सम्प्रतं पयडोर ।। २६८ ।। उदयाभावो यत्र च प्रकृतीनां तासां सर्वधातिनोनाम् । षष्णां उपशमोपि च उदयः सम्यक्त्व प्रकृतेः ।। २६८ ।। खय उवसम पउतं सम्मत्तं परम वोयराएहि । उपसमिय पंक सरिस णिच्चं कम्मक्खवण हेज ।। २६९ ।। क्षयोपशमं प्रोक्तं सम्यक्त्वं परम वीतरागैः । उपशात पंक सदृशं नित्यं कर्म क्षपण हेतुः ।। २६९ ।। अर्थ-- सम्यग्दर्शन को घात करने वाली सात प्रकृतियां जो ऊपर वतलाई है -7 में ग अनंतानुलंगी मधमान | लोभ और मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व ये छह प्रकृतियां सर्वघाती है और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व नाम की एक प्रकृति देश पाती है। ऊपर लिखी छह प्रकृतियां सम्यग्दर्शन को घात करने वाली है इसलिये वे सर्वघानी कहलाती है और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व नामकी प्रकृति सम्यग्दर्शन का घात नहीं करती किंतु उसमे चल मलिन और अगाढ इन दोषों को उत्पन्न कर देती है। परिणामों मे चंचलता होने को चल दोष कहते है, मलिनता होने को मलिन कहते है और अत्यंतगान श्रद्धान नहीं होना अगाढ दोप है। जब ऊपर लिखी हुई सर्वघाती छह प्रकृतियों का उदया भावी क्षय हो जाता है अर्थात् छहों प्रकृतियों का उदय नहीं रहता तथा आगे उदय होने वाली इन्हीं छह प्रकृतियों के उपशम होने से और देश घाती सम्यक प्रकृति मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होने से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। ऐसा भगवान वीतराग सर्वज्ञ देवने कहा है। जिस प्रकार किसी वन मे मिट्टी मिला पानी रक्खा हो तथा उसमें फिटकरी डाल दी जाय तो उसकी मिट्टी नीचे बैठ जाती है पानी निर्मल हो जाता है । इसी प्रकार जिस जीव के ऊपर लिखी हुई सानों प्रकृतियों का उपशम हो जाता है उसके औपशमिक सम्यग्दर्शन हो जाता है परन्तु जिस प्रकार हवा चलने पर वह निर्मल पानी फिर गदला हो जाता है उसी Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १२७ प्रकार अन्तर्मुहुर्त के अनंतर ही उन सातों प्रकृतियों का उदय हो जात हैं और वह शमिक सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार जिस वर्तन का पानी निर्मल होगया है मिट्टी पूर्ण रूप से नीचे बैठ गई है उसका पानी यदि किसी दूसरे बर्तन मे ले लिया जाय तो उस निर्मल पानी में थोड़ा सा भी गदलापन नहीं रहता वह पानी पूर्ण रूप से निर्मल हो जाता है इसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दर्शन पूर्ण रूप से निर्मल होता है ! उसमें फिर कभी भी गदलापन वा अशुद्धता नहीं आती। जिस गंदले पानी की अधिकतर मिट्टी नीचे बैठ गई है और थोडासा गदलापन उस पानी में रहगया है उसी पानी को दूसरे वर्तन में लेलिया जाय तो उसमें थोडा गदलापन रहताही है इसी प्रकार क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन अत्यंत निर्मल और शुद्ध नहीं होता किंतु उसमें चल पलिन अगाढ दोष रहते है । सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होने से ये दोष हो जाने है । तथापि इस क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन के प्रगट हो जानेपर सदाकाल कर्मों का क्षय होता ही रहता है । अन्य सम्यग्दर्शनों के समान यह सम्यग्दर्शन भी कर्मों के क्षय होने का कारण है । आगे जो इस क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को नहीं मानता वह अज्ञानी है ऐसा दिखलाते है । जो ण हि मण्णइ एयं वय उवसम भावजो य सम्मत्तं । सो अण्णानी मूढो तेण ण णायं समयसारं ॥ २७० ॥ यो नहि मन्यते एतत् क्षयोपशम भावजं च सम्यक्त्वम् । स अज्ञानी मढस्तेन न ज्ञातं समयसारम् ॥ २७० ॥ जम्हा पंच पहाणा भावा अस्थिति सुत्त णिहिठ्ठा । तम्हा खथ उचसमिए भावे जायं तु तं जाणे ॥। २७१ ।। यस्मात्पंच प्रधाना भावाः सन्तीति सूत्र निविष्टाः तस्मात्क्षयोपशमेन भावेन जातं तु तत् ज्ञातव्यम् ।। २७१ ।। अर्थ- जो पुरुष इस क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होने वाले परिणामों को नहीं मानता, समझना चाहिये कि वह अज्ञानी और मूर्ख है, तथा वह पुरुष आत्मा के स्वरूप को भी नहीं जानता । इस का Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह भी कारण यह है कि सिद्धांत सूत्रों में अथवा उमास्वामी कृत तत्त्वार्थ मुत्र में बा उसकी समस्त टीकाओं में जीवो के प्रधान भाव पांच प्रकार के बतलाये है । औपशमिक शायिक क्षायोपशमिक औदायिक और पारिगामिक ये पांच भाव बतलाये है । इसलिये क्षायोपमिक सम्यग्दर्शन के विना पांचों भावों को पूर्ति हो नहीं हो सकती। इसलिये क्षायोपसमिक भाव और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन मानना अत्यावश्यक है। आगे सभ्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाते है। तं सम्मतं उत्तं जस्थ पयत्थाण होई सद्दहणं । परमप्पह कहियाणं परमप्षा दोसरिचितो ॥ २७२ ।। तत्सम्यक्त्वमक्तं यत्र पदार्थानां भवति श्रद्धानम् । परमात्म कथितानां परमात्मा दोष परित्यक्तः ।। २७२ ।। अर्थ- परम परमात्मा वीतराग सर्वज्ञ देव श्रीजितेंद्र देव है उनके कह हुए समस्त तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । वह परमात्मा वा श्रीजिनेंद्रदेव ममस्त दोषों से रहित ही होते है । दोसा छुहाइ भणिया अट्ठारस होति तिविह लोयम्मि । सामाण्णा सयल जणे तेलि अहावेण परमप्पा ॥ २७३ ।। दोषा क्षधादयो भणिता अष्टादश वन्ति त्रिविधलोके । सामान्या सकलजने तेषामभाबेन परमात्मा ।। २७३ ।। य कहे हुए क्षुधादिक अठारह दोष सामान्य रीति से तीना लाकों के समस्त जीवों में रहते है । जव इन समस्त दोषों का नाश हो जाता है तभी यह जीव परमात्मा हो सकता है। भावार्थ- परमात्मा वही हो सकता है जो वीतराग और सर्वज्ञ हो। नया बीतराग वही हो सकता है जो अठारह दोषों से रहित हो और विना वीतराग हुए सर्वज्ञ नहीं हो सकता । इसलिये जो अठारह दोषों मे रहित होता है वही परमात्मा होता है। आये परमात्मा के भेद बतलाते है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात्र-मत्रह १२२ सो पुण बुबहो मणिओ सपलो तह णिकलोत्ति णायथ्यो । सयलो अरुह सरूवो सिद्धो पुण णिक्कलो भगिओ || २७४ ।। स एषः द्विविधः भणित: सकल: तथा निष्कलः ज्ञातव्यः । सकलः अहंत्स्वरूपः सिद्धः दुनः निष्कलः भणितः ।। २७४ ।। अर्थ- वह परमात्मा दी प्रकार का है । एक सकल परमात्मा और दूसरा निकल परमात्मा । यहा पर कल शब्द का अर्थ शरीर है जो शरीर सहित हो ऐम अरहंत भगवान को सकल परमात्मा कहते है तथा शरीर रहित सिद्ध भगवान को निकल परमात्मा कहते है। जस्स ण गोरी गंगा काबालं व विसहरो कठे। ण य दप्पो कंदप्पो सो अरुहो भण्णए रुहो ।। २७५ ।। यस्य न गौरी गंगा कपालं नैव विषधरः कण्ठे । न च दर्पः कंदर्पः सोर्हन् भण्यते रुद्रः ।। २७५ ।। अर्थ- जिसने साथ न गौरी गंगा पार्वती है न गग्डा है न हाथ में कपाल है न कण्ठ में सप है न जिनको अभिमान है और न जो कामासक्त है ऐसे मगवान अरहंत देव को ही महादेव कहना चाहिये । जस्स ण गया ण चक्क णो संखो णेय गोविसंघाओ । वयरइ बह्वयारे सो अरुहो भण्णए विण्हू ।। २७६ ।। सस्य न गदा न चक्र न शंखः नव गोपीसंघातः । नावतरति दशावतारे सोऽहन भण्यते विष्णुः ।। २७६ ।। अर्थ- जिनके हाथ में न गदा है, न चक्र है, न शंख है, न जिनक साथ अनेक गोपियों क समुदाय है और न जो दश अवतार लेने है ऐसे भगवान अरहंत देव को ही विष्णु समझना चाहिये । ण तिलोत्तमाय छलिओ णय वयमहो म चउमुहो जादो । ण य रिच्छोए रत्तो सो अरुहो वुच्चए वंभो ।। न तिलोत्तमया छलितः न च वतभ्रष्टो न चतुर्मुखो जातः । न ऋक्ष्यां रक्त: सोऽहन उच्यते ब्रह्मा ॥ २७७ ।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह अर्थ- जो भगवान न तो तिलोनमा के द्वारा टग जाते है न अपने तपश्चरण से कभी भ्रष्ट होते है न कामसवत होकर चार मग्य बनाते है और न रीछिनी के साथ कामासक्त होते है एसे वे अरहत दद हो ब्रह्मा कहलात है। भावार्थ- भगवान अरहंत देव ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहलाने है वे भगवान मोक्ष मार्ग का उपदेश देते है इसलिये ब्रह्मा कहलाते । अपने केवल ज्ञान के द्वारा लोक अलोक सबमें व्याप्त रहते हैं, अपने ज्ञान के द्वारा सबको जानते है इसलिये विष्णु कहलाते है और वे सदात्कृष्ट देव है इन्द्रादिक देव भी आकर उनको नमस्कार करते है इसलिय वे महादेव कहलाते है । अरहंत देव के सिवाय और कोई भी ब्रह्मा विष्णु महादेव नहीं है। आग अरहंत देव के कहे हुए पदार्थों को कहते है । तेणुत्त पवपयत्या अण्णे पंचस्थिकाय छद्दष्वा । आणाए अधिगमेण य सदहमाणस्स सम्मत्तं ।। २७८ ।। तेनोक्तनव पदार्थान अन्याति पंचास्तिकायषड़वध्याणि । आजयाधिगमेन च श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥ २७८ ।। अर्थ- भगवान जिनेंद्र देव ने ना पदार्थ बतलाये है पांच अस्तिकाय बतलाये हैं और छह इव्य बतलाय है इन समस्त पदार्थों को जो भगवान की आज्ञा प्रमाण श्रद्धान करता है अथवा इन सबका म्वरूप जानवार श्रद्धान करता है उस श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं । भावार्थ- ये सब पदार्थ भगवान जिनेंद्र देव ने कहे हैं । तथा इनका स्वरूप भी भगवान जिनेंद्र देव ने कहा है भगवान जिनेंद्र देव वीतराग सर्वज है । जा वीतराग सर्वज्ञ होता है वह कभी मिथ्या उपदेश नही देता । इस प्रकार भगवान की आज्ञा प्रमाण जी तत्वों का श्रद्धान करता है उसको आज्ञा सम्यक्त्व कहते है तथा तत्वो का यथार्थ स्वरूप समझकर श्रद्धान करता है वह अधिगम सम्यक्त्व है। आग सम्यग्दर्शन का और भी स्वरूप कहते हैं । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह संकाइदोसरहियं हिस्संकाईगुणज्जुअं परमं । कम्णिज्जरणहेउं तं सुद्धं होइ सम्मत्तं ।। शंफादि दोषरहित निःशंकादिगुणयुतं परमम् । कमनिर्जराहतु तच्छुई भवात सम्यवस्थन् ।। २७९ ॥ अर्थ - जो सभ्यग्दर्शन शंधःा आदि आठ दोषों से रहित होता है और निःशंकित आदि आठ गुगों सुशोभित होता है उसको परम शुद्ध सम्यग्दर्शन कहते है । ऐसा परम शुद्ध सम्यग्दर्शन कर्मों को निर्जरा का कारण होता है। भावार्थ- शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढ दृष्टि, अनुपगहन अस्थिति करण अबात्सल्य और अनवभाना ये आठ दोष है तथा इनके विपरीत वा इनका त्याग करने से निःशंकित. निकांक्षित, निविचिकित्सा अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थिति करण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ गुण प्रगट होते है । भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए मोक्ष मार्ग में बा देव गुरु शास्त्र के स्वरूप में वा तत्त्वों मे " यह सत्य है या नहीं " इस प्रकार की शंका करना दोष है । तथा एसी शंका कभी नहीं करना उस पर अटल श्रद्धान रखना निःशंकित गुण है इसको निःशंकित अंग कहते है। धर्म से बन कर वा भगवान की पूजा कर वा दान देकर किसी प्रकार की इच्छा करना आकांक्षा दोष है तथा ऐसी आकांक्षा न करना निःकांक्षित गुण है ! किसी मुनि के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि करना विचिकित्सा दोष है और ग्लानि न करना किन्तु उनके गुणों में अनुराग रखना निर्विचिकित्सा गुण है । सब देवों को वा सब साधुओं को मानना मूढदृष्टि दोष है और भगवान जिनेन्द्र देव के सिवाय किसी को देव नहीं मानना, निग्रंथ गरु के सिवाय अन्य किसी को गुरु नहीं मानना, भगवान जिनेन्द्र देव के बचनों को ही शास्त्र मानना अमढ दष्टि गुण है । किसी बालक वा अशवत पुरुष के द्वारा धर्म कार्य में कोई दोष भी आ जाय तो उसको प्रगट वार देना अनुपगहन दोष है और प्रगट न करना उपगृहन अंग वा गुण है । यदि कोई धर्मात्मा अपने कार्यों से श्रद्धान वा चारित्र से गिरता हो उसे छोडता हो तो उसे गिरने देना अस्थिति करण दोष है और उसको धर्म में लगा देना चारित्र वा श्रद्धान Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह मे भ्रष्ट न होने देना स्थिति करण गण वा अंग है । धर्मात्मा पुस्थों में रत्नत्रय धारण करनेवाले पुरुषों में अनुराग न रखना दोष है और अनुराग रखना वात्सल्य नाम का गण वा अंग है। धर्म की प्रभावना नहीं करना दोष है और धर्म को प्रभावना करना प्रभावना गण है। इस प्रकार संक्षेप से आठ दोष और आठ गुण बतलाये । यही आठ गण सम्यग्दर्शन के आठ अग कहलाते है। इसके सिवाय सम्यग्दर्शन में आठ मद तीन मूढता और छह अनायतन य सत्रह दोष और तथा इनका त्याग सत्रह जण हो जाते है इस प्रकार सम्यग्दान पन्नीस दोष और पच्चीस गण कहलाते है। संक्षेप से इनका स्वरूप इस प्रकार । ज्ञान का अभिमान करना, अपने वड़प्पन का मद करना, कुल का मद, जाति का मद, बल का मद, ऋद्धि वा विभूतियों को मद करना, तपश्चरण का मद करना, और अपने गरीर का मद करना ये मद दोष है तथा इन आठों का मद न करना आठ गण हो जाते है । देव महता गुरु मढ़ता और लोक महता य तीन मूढता है । कुदेवों की मेवा करना बालू पत्थर के ढेर लगाकर पूजना देव मुढता है, निग्रंथ मुनियों को छोडकर अन्य रागी द्वेषी गुरुओं को मानना गुरु मूढ़ता है और नदी समुद्र में नहाना, पर्बत में गिरकर नदी में डूबकर मर जाना मनी होना आदि सब लोक मुढता है । इन तीनों महताओं का त्याग कर देना तीन गुण हो जाते है । कुदेव कुशास्त्र और गहओं को मानना नथा उनकी सेवा करने वालों का मानना छह अनायतन है और इन छहों का त्याग कर देना छह आयतन सम्यग्दर्शन के गुण हो जाते है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष और पच्चीस गुण बतलाये । आगं सम्यग्दर्शन के आठ अंगो मे प्रसिद्ध होनेवाले पुरुषों के नाम कहते है। रामगिहे णिस्सको चोरो गामेण अंजणो भणिओ । चंपाए णिक्कखा वणिधूबाणंतमहणामा || राजगृहे निःशंकश्वोरो नाम्ना अंजनो भणित: ।। सम्पायां निष्कांक्षा वणिक्सुताऽनन्तमती नाम्नी ।। २८० ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह अर्थ- राजगृह नगर मे एक अंजन नाम का चोर था वह निशकित अंग मे प्रसिद्ध हुआ है । तथा चंपापुर नगर में एक सेठ की पुत्री अनंतमती थी वह निःकांक्षित अग मे प्रसिद्ध हुई है। णिविदिगिछो नाग रद्दश्यणो णाम रखर गयरे । रेषद महुराणथरे अमूढ दिट्ठो मुयश्वा ।। २८१ ॥ निविचिकित्से राजा उद्दायनो नाम रौरवे नगरे । रेवती मथुरा नगरे अमूढदृष्टिमन्तध्या ।। २८१ !! अर्थ- रौरव बा रुद्रवर नगर का उदायन नाम का राजा निविचिकित्मा अंग में प्रसिद्ध हुआ है और मयुरा नगर मे रेवती रानी अमूढष्टि अंग में प्रसिद्ध हुई है। ठिदिकरणमुणपउत्तो मगहा गयरन्मि वारिसेणो हु । हस्थिणिपुरम्मिणयरे वच्छल्लं बिरहुणा रइयं ।। २८२ ॥ स्थितिकरणगुणप्रयुक्तो मगधनगरे वारिषेणो हि । हस्तिनापुरे नगरे वात्सल्यं विष्णुना रचितम् ।। २८२ ।। अर्थ-- मगध नगर में वारिषेण नाम का राज पुत्र स्थिति करण अंग मे प्रसिद्ध हुआ है । हस्तिनापुर नगर में विष्णुकुमार मुनि वात्सल्य अंग में प्रसिद्ध हुए है। उवगृहणगुण जुत्तो जिणदत्तोणाम तामलिसिणधरीए । वज कुमारेणकया पहावणा चेव महराए ।। २८३ ॥ उदहन गुणयुक्तो जिनदत्तो नाम ताम्रलिप्स नगर्याम् । वनकुमारेण कृता प्रभावना चैय मथुरायाम् ।। २८३ ।। अर्थ- ताम्रलिप्त नगर का रहने वाला सेठ जिनदत्त उपगहन अग मे प्रसिद्ध हुआ है और मथुरा नगर में वज्रकुमार मुनि ने जैन धर्म की प्रभावना कराकर प्रमावना अंग में प्रसिद्ध पाई थी इन सब महापुरुषों की सुन्दर कथाएं अन्य शास्त्रों से जान लेनी चाहिये । एरिस गुण अदछ जुयं सम्मत्तं जो बरेइ विचित्तो । सो हवद सम्मदिछी सद्दहवाणोपपत्थाचं ॥ २८४ ।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह . अर्थ - इस प्रकार ऊपर जो सम्यग्दर्शन के आठ गुण बतलायें है उनके साथ चिन की दृढ़ता पूर्वक सम्यग्दर्शन भारत करता हुआ भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए पदार्थों का श्रद्धान करता है वह जीव सम्बग्दुष्टी कहलाता है । आगे नौ पदार्थों के नाम कहते हैं । १३४ ते पुण जीवा जीवा पुष्णं पावो य आसबो व तहा । संवर णिज्जरणां पिय बंधो मोक्यो य णाम होंति ।। २८५ ।। ते पुण: जीवाजीव पुण्यं पापञ्च सवश्च तथा । संवरो निर्जराऽपि च वंधो मोक्षश्च नव भवन्ति ।। २८५ ।। अर्थ- जीव अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य पाप नाँ पदार्थ है । आगं जीवका स्वरूप कहते हैं । जोवी अuts freat उथओग संजुदो देहमित्तो य । कत्ता भोत्ता चेत्ता ण हु मुक्तो सहाब उद्ङगई ॥ २८६ ॥ जीवोऽनादिः नित्यः उपयोगसंयुतो देहमात्रश्च । कर्ता मोक्ता चेतयता न तु मूर्तः स्वभावोर्ध्वगतिः ॥ २८६ ॥ अर्थ- यह जीव अनादि है. अनिधन है, उपयोग स्वरूप है शरीर के प्रमाण के समान है, कर्ता है भोक्ता है चेतना सहित है अमूर्त है और स्वभाव से ही ऊर्ध्व गमन करने वाला है । पाणचक्कपउतो जीवस्सइ जो हु जीविओो पुव्वं । जीवेइ बद्माणं जीवत्त गुण समावण्णो ॥ २८७ ॥ प्राण चतुष्क प्रयुक्तः जोविष्यति यो हि जीवसः पूर्वम् । जीवति वर्तमाने जीवत्वगुणसमापनः ।। २८७ ।। : अर्थ- इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण कहलाते हैं ये चारों प्राण बाह्य प्राण है और इस संसारी जीव के चारों प्राण रहते है । जो जीव पहले जीवित था अब जीवित है और आगे जीवित रहेगा वह जीव कहलाता है। इस प्रकार जो ऊपर लिखे चारों Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह प्राणों से जीवित रहता है वह जीवत्वगुण सहित जीव कहलाता है । पज्जाएगाच तस्स हु दिट्टा आवत्ति बेगहणम्भि | अधुवतं गुण दिट्ठ देहस्स विणासणे तस्म || १३५ पर्यायेनापि तस्य हि दृष्टा आवृत्तिः देहग्रहणे । अध्रुवत्वं पुनः दृष्टं देहस्य विनाशने तस्य ॥ २८८ ॥ अर्थ- यह संसारी जीव अनेक पर्याय धारण करता रहता है उसी के समान उसको आकार होजाता है । इस जीव में संकोच विस्तार होने की शक्ति है । जैसे दीपक घड़ में रख दिया जाय तो उसका प्रकाश उतना तथा उसे ही कमरे में रखने पर बढ कर उस कमरे के समान हो जाता है । इसी प्रकार जीव छोटा शरीर धारण करता है तब संकुचित होकर छोटे आकार वाला उसी छोट शरीर के समान हो जाता है और जब वडा शरीर धारण करता है तो विस्तृत होकर उस बड़े शरीर के समान हो जाता है । यद्यपि जीव नित्य है कभी नष्ट नहीं होता तथापि शरोत के नाश होने से तथा दूसरा शरीर धारण कर लेने से वह अनित्य कहा जाता है इसके सिवाय इतना और समझ लेना चाहिये कि ऊपर जो चार प्राण बतलाये है उनके दस भेद हो जाते है क्योंकि स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और कर्ण के पांच इन्द्रियों के भेद है तथा आयु और श्वासोच्छवास को मिला कर दश भेद हो जाते हैं । इनमें से एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय कायवल आयु और श्वासोच्छवास में चार प्राण होते है । दो इन्द्रिय जीव के स्पर्शन रसना ये दो इन्द्रियां तथा कायबल वचनवल और आयु श्वासोच्छवास ये छह प्राण होते है । तेइन्द्रिय जीव के स्पर्शन रसना घ्राण ये तीन इन्द्रियां कायवल वचनवल आयु श्वासोच्छवास में सात प्राण होते है चौइन्द्रिय जीव के एक चक्षु इन्द्रिय और अधिक होती है इसलिय आठ प्राण होते हैं । अनी पंचेन्द्रिय जौव के पांचों इन्द्रियां कायबल वचनबल आयु श्वासोच्छवास ये नौ प्राण होते है तथा सैनी पंचेन्द्रिय जीव के दशों प्राण होते है । मन सहित जीवों को सैनी कहते हैं और मन रहित जीवों को असेनी कहते है । यह सब जीवों का स्वरूप व्यवहारं नय से बतलाया है। निश्चय नय से ! Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह जिसके ज्ञानदर्शनरूप चेतना गुण हो उसको जीव कहते है। यह वेतना गुण संसारी मुक्त दोनों प्रकार के जीवों मे रहता है । आगे जीव के उपयोग गुण को कहते हैं। सायारो अणयारो उवओगो दुविह भेय संजुत्तो। सायारो अट्ठविहो चउप्पयारो अणायारो ।। २८९ ।। साकारोऽनाकार उपयोगो विविध भेदसंयुक्तः । साकारोऽष्टविधः चतुः प्रकारोऽनाकारः ।। २८९ ।। अर्थ- आत्मा ये, ज्ञान दर्शनरून भावों को उपयोग कहते है । उस उपयोग के दो भेद है एक साकार उपयोग दूसरा अनाकार उपयोग । साकार उपयोग के आठ भेद है और अनाकार उपयोग के चार भंद है। आगे साकार उपयोग को कहते है। मइ सुई उचहि विहंगा अण्णाण जुदाणि तिष्ण णाणाणि । सम्मण्णाणाणि पुणो केवल क्ट्ठाणि पंचेव ।। २९० ॥ मतिश्रुतावधि विभंगानि अज्ञानयुक्तानि श्रीणि ज्ञानानि । सम्यग्ज्ञामानि पुनः केवलदृष्टानि पंचत्र ।। २९० ॥ अर्थ - कुमति ज्ञान कुश्रुत ज्ञान और कुअवधि ज्ञान बा त्रिभंगा वधि ज्ञान यं तीनों ज्ञान मिथ्या ज्ञान कहलाते है । तथा भगवान जिनेद्र देव ने सम्यग्ज्ञान के पांच भेद बतलाये है। आगे मम्यग्ज्ञान के पांच भेद बतलाते है। मइणाणं सुयणाणं उवही मणपज्जय च केवलयं । तिण्णिसया छत्तीसा मई सुयं पुण वारसंगगयं ।। २९१ ।। मतिमाम श्रुतज्ञानमधि: मनः पर्ययं च केवलम् । श्रोणि शतानि षट्त्रिंशत् मतिः श्रुतं घुमः द्वोदशांगगसम् ।२९१॥ अर्थ- मति ज्ञान श्रुत शान अवधि ज्ञान मनः पर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान ये पांच ज्ञान' सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं इनमे से मति जान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं तथा श्रुत ज्ञान के बारह अंग कहलाते हैं। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १३७ भावार्थ - मति ज्ञान के अवग्रह ईहा अवाय धारणा से चार भेद है। किसी पदार्थ को जानने के लिये सबसे पहले किसी भी इंद्रिय से उसका दर्शन होता है उस दर्शन के अनन्तर जो प्रथम ज्ञान होता है उसको अवग्रह कहते हैं । जैसे दूर से देखकर यह पुरुष है ऐसा जान होना अवग्रह है: अवग्रह होने के अनन्तर उसके विशेष जानने की इच्छा को ईहा ज्ञान कहते है जैसे यह पुरुष दक्षिणो होना चाहिये। यह ईहा ज्ञान है । फिर यह दक्षिणी ही है ऐसे निश्चय रूप ज्ञान को अवाय कहते से और फिर उसको न भुलना धारणा है । यह चारों प्रकार का ज्ञान बहुत से पदार्थों का होता है, बहुत प्रकार के पदार्थों का ज्ञान होता है. एक पदार्थ का होता है, एक प्रकार के पदार्थों का होता है, देखने मात्र से शीघ्र हो जाता है, देर से होता है, किसी एक भाग को जानकर शेष छिपे पदार्थ का ज्ञान होता है। प्रगट पदार्थ का होता है विना कहे हुए ( बिना सुने) पदार्थ का ज्ञान होता है कहे हुए का ज्ञान होता है ध्रुव स्वरूप ज्ञान होता है और अध्रुवरूप ज्ञान होता है। इस प्रकार बारह प्रकार से होता है और इस प्रकार मतिज्ञान के अडतालिस भेद हो जाते है । ये अडतालिस भेद पांचों इन्द्रियों से तथा मन से होते है इस प्रकार दो सौ अठासी मंद हो जाते है । अवग्रह के अविग्रह और व्यंजनाग्रह ये दो भेद है । पदार्थों के स्पष्ट ज्ञान को अर्थाविग्रह कहते है और स्पष्टता रहित ज्ञान को व्यजनावग्रह कहते है। किसी मिट्टी के सकोरे में एक दो तीन बूंदे डालने से स्पष्ट नहीं होती उनका ज्ञान होना व्यंजनावग्रह है और और चौथी का पांचवी बूंद के स्पष्ट होने पर अर्था वग्रह है । उपर दो सौ अठासी भेद अर्थावग्रह के है । ऊपर व्यंजनावग्रह के ईहा अवाय धारणा नहीं होते तथा बहुत पदार्थों का वा एक पदार्थ का ज्ञान आदि बारह प्रकार का ज्ञान होता है और वह ज्ञान नेत्र और मन से नहीं होता केवल चार इन्द्रियों से होता है । इसलिये उसके अड तालिस भेद होते है। इस प्रकार दो सौ अंधासी अर्थावग्रह के भेद और अडतालिस व्यंजनावग्रह के भेद मिल कर तीनस छत्तीस मंद होते है । श्रुतज्ञान के बारह अंग इस प्रकार है । आचारांग, सूत्र कृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंतकृदृशांग, अनुत्तरोपेपादिक Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ भाव-संग्रह दशांग, प्रश्न व्याकरणांग, विपाक सूत्रांग और दृष्टि वादांग । य बारह अंग कहलाते है। प्राग अवधिज्ञान के भेद बतलाते है । देसावहि परमावहि सरुवावहि अवहि होइ तिम्भया । भव गुण कारणभूया णायन्या होइ णियमेण || देशावधिः परमावधिः सर्वावधिः अवधिः भवतिः त्रिभेदः । भवगुण कारण भूतः ज्ञातव्यो भवति नियमेन ।। २६२ ।। अर्थ- देशावधि परमावत्रि और सविधि इस प्रकार तीन प्रकार का अवधिज्ञान होता है । इनमें उत्तरोत्तर जानने की शक्ति अधिक होती है । देगावधि के और परमावधि के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य ये तीन तीन भेद है। सर्वावधि का कोई भेद नहीं है । देशाबधि के वर्षमान होयमान अवस्थिस अनवस्थित अनुगामी अननुगामी अप्रनिपाति प्रतिपाति इस प्रकार आठ भंद होते है । सर्वावधि के अवस्थित अनुगामी अननुऔर अनिपातो ये चार भेद होते है । आये मनःपर्यय ज्ञान को कहते है । मणपज्जयं च बुयिहं रिउ विउलमइ तहेवाणायन्वं । केवलणाणां एक्कं सम्वत्थ पयासयंणिस्य । मनः पर्ययश्च द्विविधः ऋविपुलमतो तथैव ज्ञातव्यः । केवलज्ञानं एक सर्वथ प्रकाशकं नित्यम् ।। २६३ ।। अर्थ- मनः पर्यग्रज्ञान के दो भेद है । एक ऋजुर्मान और दूसरा बिजुलमति । जो दूसरे के मन में ठहरे हुए सूक्ष्म बा स्थूल पदार्थों को प्रत्यक्ष जाने उसको मनःपर्यय शान कहते है। जो सरल मन में ठहरे हा पदार्थों को जाने वह ऋजुमति है और जो कुकील मन में ठरर हुए पसार्या कामी जान ले वह विपुलमति है। अर्थ... ऋजुमति मे विपुलमति अधिक और अधिक शुद्ध है । केवल जान एक है । वह नित्य है अनंत काल तक रहता है और लोक अलोक सय को प्रकाशिस करता है सब को जो जानता है । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह एसो अट्ठपयारो णाणुवओगो हु होइ सायारो । जक्खु अवक्खू ओही केवलसहिओ अणायारो ।। एषोष्टप्रकारो ज्ञानोपयोगो हि भवति साकारः । चक्षुरचक्षुरवधिः केवल सहितोऽनाकारः ॥ २९४ ॥ अर्थ- इस प्रकार ज्ञानोपयोग आठ भेद है और वह ज्ञानोपयोग साकार है। अनाकार वा आकार रहित उपयोग के चार भंद है अनाकार उपयोग दर्शन को बाहते है । दर्शन के चार भेद है । चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन । किसी पदार्थ को चक्षुओं ने देखने को चक्षुदर्शन करते है । चक्षु के सिवाय अन्य इन्द्रियों से देखना अचक्षुदर्शन है अबधि ज्ञान के साथ अवधि ज्ञान से पहले होने वाले दर्शन की अवधि दर्शन कहते है और केवल ज्ञान के साथ होने वाले दर्शन को केवल दर्शन कहते है। इस प्रकार उपयोग के बारह भेद बतलाये । आग आत्मा का आकार बतलाते है। जम्हि भवे जे वेहं तम्हि भवे तापमाणओ अप्पा । संहार वित्थर गुणो केवलणाणीहि उद्दिद्यो । यस्मिन् भवे यो देहः तस्मिन भवे तत्प्रमाण आत्मा । संहार विस्तारगणः केवलज्ञानिभिः उद्दिष्टः ॥ २९५ ।। अर्थ- इस संसारमें परिभ्रमण करता हुआ यह आत्मा अनेक योनियों मे अनेक प्रकार के छोटे बड़े शरीर धारण करता है । जिस भाव में जैसा छोटा या बड़ा शरीर धारण करता है उस शरीर के प्रमाण के समान ही आत्मा का आकार हो जाता है। इसका कारण यह है कि इस आत्मा में संकोच और विस्तार होने की शक्ति है। इसलिये छोटे शरीर में जाता है तो संकुचित होकर छोटा आकार हो जाता हे और बड़े शरीर में बड़ा हो जाता है। आगे यह जीव कर्ता भोक्ता है यह दिखलाते है । जो कसा सो मुसा यवहार गुणेण सोइ कम्मस्स । ण हुणिन्छएण भणिओ कत्ता भोत्ता य कम्मापं ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० यः कर्त्ता सभोक्ता व्यवहार गुणेन भवति कर्मणाम् । न तु निश्चयेन भणितः कर्त्ता भोक्ता च कर्मणाम् ।। २९६ ।। भाव-संग्रह 1 अर्थ - यह जीव व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्त्ता है और यही आत्मा अपने आप किये हुए उन कर्मों के फलका भोक्ता है निश्चय नय से न तो वह कर्मो का कर्ता है और न उन के फलका भोक्ता है । निश्चय नय से वह अपने शुद्ध स्वभावों का कर्ता है और उन्हीं शुद्ध स्वभावका भोक्ता है । आगे और भी कहते है । कम्ममलछाइओवि पण सुग्रह सो चेयण गुणं किपि । जोणी लवलगओ वि य जहि कणय कद्दमे खित्तं ॥ कर्मलच्छावतोय न जानाति गुण मि योनिलक्षगतोपि च यथा कर्दमे क्षिप्तम् ।। २९७ ।। अर्थ - यह संसारी आत्मा बौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता हुआ कर्म रूपी मलसे आच्छादित हो रहा है इसलिये जिस प्रकार कीचड मे पडा हुआ सोना जाना नहीं जा सकता उसी प्रकार यह संसारी आत्मा अपने शुद्ध चेतना के स्वरूप को भी नहीं जानता है । आगे और भी कहते है । सुमो अमुत्तित्तिवंती यष्णगंधाइकासपरिहीणी । पुग्गल मजिसगओ वि य गय मिलइ निययसम्भावं ॥ सूक्ष्मोऽमूर्तिमान् वर्णगंधावि स्पर्श परिहीनः । पुद्गलमध्यगतोपि च न च मुंचति निजकस्थ भावम् ।। २९८ ।। अर्थ - यह आत्मा अत्यंत सूक्ष्म है अमूर्त है वर्ण रसगंध स्पर्श इन पुद्गलों के चारों गुणों से रहित है । यद्यपि वह पुद्गलमय शरीर में रहता है पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्मों से मिला हुआ है तथापि वह अपने स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता है। भावार्थ- आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप है यद्यपि वह ज्ञान दर्शन स्वभाव कर्मों से ढका हुआ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-प्रह है । मद्यान व नष्ट नहीं होता, बना ही रहता है । अथवा आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप है वह भी आत्मा में बना रहता है। कमों के उदय मे उसको विभाव परणति हो जाति है तथापि वास्तविक शुद्धता बनी ही रहती है। आग और भी कहते है। सम्भावे गुड्ढगई विविसं परिहरिय गह बउक्केण । गल्छेद कम्मजुसो सुद्धो पुण रिज्जुगइ जाई ।। स्वभावेनोर्ध्वगतिः विदिशां परिहृत्य गतिचतुष्केन । गच्छति कर्मयुक्ताः शुद्धः पुनः ऋजुगति याति ।। २९९ ।। अर्थ- इस जीव का स्वभाव स्वभाव से ही ऊर्ध्व ममन करना है। परंतु जी कर्म सहित जीव है वे विग्रह मति में चारों विदिशाओ को छोडकर शेष छहों दिशाओं में गमन करते है । तथा जो शुद्ध जीव है वे ऋजुमति से. ऊर्ध्व गमन ही करते है । भावार्थ- आकाश के प्रदेशों की पंक्ति ऊपर से नीचे पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिणा इस प्रकार छहों दिशाओं मे है तथा विग्रह गति मे जीवों की गति आकाश के प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार होती है इसलिये बह छह दिशाओं में ही होती है विदिशाओं में नहीं होती । आग विग्रह मति में होनेवाली गति को दिखलाते है । पाणि विमुत्ता लंगलि बंकगई होइ तह य पुण तइया । कम्माण काय जुत्तो वो तणि य कुणइ बकाइ ।। पाणिबिमुक्ता लांगलिका वऋगतिः भवति तया च पुनः तृतीया । कार्मणकापयुक्ताः द्वित्रीणि करोति वक्राणि ।। ३०० ॥ अर्थ-- पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका इस प्रकार वझ गति के तीन भेद है। विग्रह गति में इस जीव के कार्मण शरीर रहता है केवल कार्मण शरीर को धारण करनेवाले जीब एक दो वा तीन मोड लेते है । भावार्थ- एक शरीर को छोडकर जब यह जीव दूसरा शरीर धारण करने के लिये जाता है तब उसकी उस गति को विग्रह गति Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ भाव-संग्रह कहते है । उस समय जो वाणके के समान पोधो गति होती है, उसको इष गलि बा ऋजगति कहते है । हाथमे फेंके हुए पत्थर के समान जिसमें एक माइ लेनी पड़ती है उसको पाणिमुक्ता गति कहते है हलके मांड के समान जिसमें दो मोड लेनी पड़ती है उसको लांगलिका गति काहते हैं और चलते हुए बल के मूत्र के समान जिसमें तीन मोड लेनी पड़े उसको गोमुत्रिका गति कहते है। ऋजुगति वाला जींब जिस समय में निकलता है उसी समय में दूसरा शरीर प्राप्त कर लेता है। पाणिमुक्ता गति बाला जीव दूसरे समय मे पहुंचता है। एक समय उसका मोड लेने में लग जाता है । लांगलिका मति' वाला तोसरे समय मे पहुंचता है उसको दो समय दो मोड लेने मे लगजाते है । गोमुश्रिका जीव चौथ समय मे शरीर प्राप्त करता है उसको तीन समय तीन मोड लेने में लग जाते है । विग्रह गति ऋगति वाला जीव निराहार नहीं रहता जिस समय निकलता है उसी समय पहुंचकर आहार ग्रहण कर लेता है। पाणिमुक्ता गति वाला एक समय निराहर रहता है । चौथे समय में पहुंच कर आहार वर्गणाऐं ग्रहण कर लेता है ।। तइए समए गिण्हइ चिरकयकम्मोदएण सो देहं । सुरणर गारवयाणं तिरियाणं चेव लेसवसो । तृतीय समये गृणाति चिरकृत कर्मोदयेन स वेहम् । सुरनरनारकाणां तिरश्चां चैव लेश्यावशः ।। ३०१।। अर्थ- अपनी अपनी लेश्याओं के निमित्त से देव मनुष्य तिर्यच देव आदि गतियों में अपने चिरकाल से उपाजित कियं कर्मों के उदय से जैसा शरीर धारण करना है वह शरीर पहले ही समय में वा दुसर समय में या तीसरे समय में अथवा चौथे समय में धारण कर लेता है। सुह दुक्खं भुंजतो हिडवि जोणीसु सयसहस्सेसु । एविय विर्यालदिय सलिदिय पण्ज पज्जत्तो ।। सुखदुःखं भुजानः हिण्डते योनिषु शतसहस्वेषु । एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय सकलेन्द्रिय पर्याप्त्तापर्याप्तः ।। ३०२ ।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ- ग्रह ससारी जीव इस प्रकार एकेन्द्रिय दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय पंचेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक आदि चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता हुआ अनेक प्रकार के सुख और दुःख भोगता रहता है । इस प्रकार अत्यंत संक्षेप से जीव तत्त्व का निरूपण किया । आगे अजीव पदार्थों का कहते है । होंति अजीव दुबिहा रूवा हवा य रूवि चउ भेया । खंच तहा देसो खंधपदेसो य परमाणु ॥ १४३ भवन्ति अजीवा द्विविधा रूपरूपाश्च रूपिणचतुर्भेदः । Fare तथादेशः स्कंध प्रदेशावच परमाणुः || ३०३ || अर्थ - अजीव पदार्थों के दो भेद है एक रूपी और दूसरा अरूपी उनमें रूपी पदार्थ एक पुद्गल है शेष सब अरूपी है। रूषी पुग्दल द्रव्य के भी दो भेद है एक परमाण और दूसरा स्कंध । स्कंध के फिर तीन भेद होते है। स्कंध स्कंध देश और स्कंधप्रदेश | पुद्गलका सबसे छोटा भाग परमाण कहलाता है, उसके फिर टुकड़े नहीं होते । वह इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता है । वह एक प्रदेशी ही कहलाता है उसमें और प्रदेश नहीं होते । वही एक प्रदेश आदि है वहीं मध्य है और वही अंत हं । उसमे एक रस रहता हे एक गंध रहता है एक वर्ण रहता है और दो स्पर्श रहते है । वह अत्यंत सूक्ष्म होता है और अन्य स्कंधादिकों का कारण भूत होता है । अनंतानंत परमाणु मिलकर जब बंत्ररूप परिणत हो जाते है तब उसको स्कंध कहते हैं । स्कंध के आधे भागको देश कहते है और देश के आधे भागको प्रदेश कहते हैं। जिसको पकड़ सके कहीं रख सके फेंकसके इस प्रकार काम में आनेवाले पृथ्वी जल वायु अग्नि आदि सब स्कंध पुद्गल हैं बहुत से ऐसे भी स्कंध है जो सूक्ष्म होते है पकड़ने में नहीं आते परंतु अनंत परमाणुओं के समूह से बने होते है । यही बात आगे दिखलाते है । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ णिहिला वपं च खधा तस्स य अद्धं च वुच्चदे देसो | अद्भुद्धं च पदेसो अविभागोहोद परमाणु ॥ निखिला बहवश्च स्कन्धः तस्यचक्षर्थ उच्यते वेशः । अर्थं च प्रदेशोऽविभागी भवति परमाणुः ।। ३०४ ।। भाव-सग्रह अर्थ- समस्त परमाणुओं का पिंड बहलाता है उसका आधा देश कहलाता है, उसका भी आधा प्रदेश कहलाता है और जिसका फिर विभाग न हो सके ऐसे सबसे छोटे भाग को परमाणु कहते है । जागे अन्य अजीव पदार्थों को कहते है । धमाधम्मागासा अरूविणो होंति तह य पुण कालो । इ ठाण कारणावय उग्गहण वत्तणा कमसी ॥ धर्माधर्माकाशाः अरुषा भवन्ति तथा च पुनः कालः । गतिस्थान कारणमपि चावगाहनस्य वर्तनायाः क्रमशः || ३०५ || पदार्थ अरूपी है और अर्थ - धर्म अधर्म आकाश और काल ये इसीलिये ये अमूर्त है । इनमें से व द्रव्य जीव पुद्गलों की गति में कारण है, अधर्म द्रव्य जीव पुद्गलों की स्थिति में कारण है, आकाश द्रव्य समस्त द्रव्यों को अवकाश देने में कारण है और काल द्रव्य द्रव्यों की पर्याय बदलने में कारण है । आगे इसी बातको विशेष रूप से दिखलाते है । जीवाण पुग्गलाणं गद्दप्पव ताण कारण धम्मो । जह मच्छाणं तोयं थिरभूया जेवसी गई ।। जीवानां पुद्गलानां गति प्रवृतानां कारणं धर्म : । यथा मत्स्यानां तोयं स्थिरोभूतान् ब स नयति ॥ ३०६ ॥ अर्थ- गमन करने की शक्ति जीव और पुद्गल इन दोनों पदार्थो . में है जिस प्रकार गमन करने की शक्ति मछली में है तथापि वह बिना पानी के गमन नहीं कर सकती । उसकी गति में पानी सहायक है उसी प्रकार गमन करने में प्रवृत्त होनेवाले जीव पुद्गलों को धर्म Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्रह द्रव्य सहायक होता है धर्म द्रव्य एक अमूर्त पदार्थ हैं और वह बह समस्त लोकाकाश में व्याप्त होकर भरा हुआ है । वह आकाश के समान एक अखंड द्रव्य हे और मछलियों को पानी के समान जीव पुद्गलों को गमन करने में सहायक होता है। परंतु जो जीव पुद्गल ठहरे हुए हैं उनको न तो चलाता है न चलने की प्रेरणा करता है । यदि वे चलते है तो सहायक हो जाता है। आग अधर्म द्रव्य को कहते हैं। विदो कारणं अधम्मो विसामठाणं च होई नह छाया । यहियाणं रुक्खस्स य गच्छंतं व सो घरई ।। स्थिति कारणं अधर्मः विश्रामस्थानं च भवति यथा छाया ।।३०७।। पथिकानां वृक्षस्य च गच्छतः नय से धरति ।। ३०७ ।। अर्थ- धर्म द्रव्य के समान ही अधर्म द्रव्य है अरूपी और समस्त लोकाकाश में व्याप्त है | बह जीव जो पुद्गलों को ठहरने में सहायक होता है। जिस प्रकार ममन करते हुए पथिकों के लिये विश्राम स्थान में ठहरने के लिये वृक्ष की छाया सहायक होती है उसी प्रकार जो जीव पुद्गल गमन करते हुए ठहर जाते हैं । वा ठहरे हुए उनको ठहरने मे अधर्म द्रव्य सहायक हो जाता है । जिस प्रकार छाया गमन करने वाले पथिक को रोकतीं नहीं उसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी गमन करने वाले जीव पुद्गलों को रोकता नहीं । आगे आका ा द्रव्य को कहते है । सम्वेसि दवाणं अवयास देइ तं तु आया । तं पुणु दुविहं भणियं लोयालोयं च जिणसमए । सर्वेषां द्रव्यानामबकाशं ददाति तत्त्वाबकाशम । तत्पुनः द्विविधं भणितं लोकालोकं च जिनसमये ।। ३०८ ।। अर्थ- जो जीव अजीव आदि समस्त पदार्थों को अवकाश देने मे समर्थ है उसको आकाश कहते है । भगवान श्री जिनेन्द्र देव ने उसके दो भेद बतलाये हैं एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश 1 भावार्थ-आकाश Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ भाव-संग्रह एक अखंड अरूनी द्रव्य है तथा वह सर्वत्र व्याप्त है । उसम मे आकाश के मध्य भाग में लोकाकारा है । जिनने आकाश में धन अधर्म द्रव्य भरे हा है उतने आकाश को लोका काश कहते है। लोकाकारा और अलो. काकाश विभाग करने वाला धर्म द्रव्य ही है। जितने आकाश म द्रव्य है उतना ही आकाश लो काकाश है। उसी लोकाकाश में जीव पुद्गल धमं अधर्म काल आदि समस्त द्रव्य भरे हुए है । जितने आकाश में जीवादिक पदार्थ दिखाई पडे उतने आकाश को लोकाकाश नाहते है। आग काल द्रव्य को कहते ।। वतणगण जनाणं बव्याणं हाइ कारणं कालो । सो दुविह भय भिणो परमत्यो होइ ववहारो ।। वर्तनागुणयुक्ताना द्रव्याणां भवति कारणं का: । स द्विविधभेदभिन्नः परमार्थो भवति व्यवहारः ।। ३०९ ।। अर्थ- जो जीवादिक द्रव्य प्रति समय परिवर्तन स्वरूप होते है उनके उस परिवर्तन में काल द्रव्य कारण है । उस काल के दो पंद है एक परार्थ काल और दूसरा व्यवहार काल । आगे परमार्थ काल को कहते हैं । परमस्थो कालाण लोयपदेसु हि संठिया णिच्चं । एक्के के एक्केका अपएसा रयण रासिव्य ।। परमार्थ: कालाणवः लोकप्रवेश हि संस्थिता नित्यः । एककस्मिन् एकैका अप्रदेशा रत्लानां राशिरिष ।। ३१० ।। अर्थ- काल के जो अणु है उनको परमार्थ काल कहते है । वे कालाण लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु ठहरा हुआ है। इसलिये लाकाकाश के जितने प्रदेश है उतने ही कालाणु है बे आपसमें मिलते नहीं है किंतु रनों की राशिके समान अलग अलग ही रहते है। इन्ही कालाओं को परमार्थ काल कहते है। इन्हीं कालागुओं से व्यवहार काल प्रगट होता है । पुद्गल का एक परमाणु जितने समय में एक प्रदेश में दूसरे प्रदेन तक पहुंचता है उतनी देर को एक समय कहते है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह यही बात आगे कहते है । ट्टण कालो समओ पुमालपरमाणु वाण संजाओ । ववहारस्य मुक्खो उप्पणो तोद भावो स || वर्तन कालः समयः पुद्गलपरमाणूनां संजातः । व्यवहारस्य च मुख्यः उत्पद्यामानोऽतोतो भावी ॥ ३११ ॥ १४७ अर्थ- वर्तना काल जो मुख्य काल है। उस से व्यवहार काल उत्पन्न हो जाता है । कालागू अशु रूप है इसलिये उससे उत्पन्न हुआ व्यवहार काल भी सबसे छोटा समय रूपी ही होता है । तथा वह व्यवहार काल पुद्गल परमाणुओं के निमित्त मे होता है । अर्थात् एक पुद् - गल का परमाणु जितनी देर में एक कालाणु से दूसरे कालाणु तक जाता है तथा मंद गति से जाता है तब एक एक समय होता है। ऐसे समय अनंतानंत बीत गये और आगे अनंतानंत समय होंगे। इस प्रकार भूत वर्तमान और भविष्य के भेद से उस व्यवहार काल के तीन भेद हो जाते है । आगे व्यवहार काल के और भी भेद कहते है । तेसि पि य समयाणं संखारहियाण आवली होई । संखेज्जा बलि गुणिओ उस्सासो होइ जिणबिट्ठो ॥ तेषामपि च समयानां संख्यारहितानां आवलो भवति । संख्यातावली गुणित उच्छवासो भवति जिनवृष्टः ॥ ३१२ ।। अर्थ - असंख्यात समयों की एक आवली होती है तथा संख्यात आवलियों का एक उच्छवास होता है ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है । सत्तु सासे थोओ सत्त त्योएहि होइ लअ इक्को । अट्ठत्तीसद्ध लवा णाली वेणालिया मुहुप्तं तु || सप्तोच्छ्वासेन स्तोकः सप्तस्तोकं भवति लव एकः । अष्ट त्रिंशवर्धरुवा नाली द्विनालिका मुहूर्तस्तु ।। ३१३ || Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ भाव-संग्रह अर्थ- सात उच्छवागों का एक स्तोक होता है । सात स्तोकों का एक लब होता है। साडे अडतीस लबों की एक नाली है और दो नालियों का एक मुहूर्त होता है। तीस मुहत्तो दिवसो पणवह दिवसेहि होइ पक्वं तु | विहि पक्षेहि य मासो रिउ एका वेसि मासेहिं ।। त्रिशन्मुहूर्त विवसं पंच दशदिवसः भवति पक्षस्तु । द्वाभ्यां पक्षाभ्यां च मासः ऋतुरेको द्वाभ्यां मासाभ्याम् ।३१४॥ अर्थ- तीस मुहुर्त का एक दिन होता है, पंद्रह दिन का एक पक्ष होता है दो पक्ष का एक महीना होता है और दो महीने की एक ऋतु होती है। रिज तिय भूयं अयणं अयण जुवलेण होइ वरिसोक्को । इय ववहारो उत्तो कमेण विद्धि गओ विविहो ।। ऋतु त्रिभूतमयनं अयन युगलेन भवति वर्ष एकः । एष व्यवहार उक्तः क्रमेण वृद्धिंगतो विविधः ॥ ३१५ ॥ अर्थ- तीन ऋतु का एक अयन होता है और दो अयनों का एक वर्ष होता है । इस प्रकार अनुक्रम से वृद्धि को प्राप्त हुआ अनेक प्रकार का व्यवहार काल कहा है। एवं तु बम्बकमक जिणेहि पंचस्थिकाइयं मणियं । धज्जिय कायं कालो कालस्स पएसय पत्थि ।। एतत्तु द्रव्य पदकं जिनःपंचास्ति कायिक भणितम् । वर्जयित्वा कायं कालं कालस्य प्रदेशो नास्ति ।। ३१६ ।। अर्थ- इस प्रकार भगवान जिनेद्रदेव ने छह द्रव्यों का स्वरुप कहा है । इम छहां द्रव्यों मे से काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते है । जिनकी ससा हो उनको अस्ति कहते है और जो काय वा शरीर के समान अनेक प्रदेश वाले हो उसकी काय कहते है । जीव गुद्गल धर्भ अधर्म आकाश ये पांचों द्रव्य बहु प्रदेशी है इसलिये अस्तिकाय कहलाते है। काल के प्रदेश नहीं है वह एक ही प्रदेश है इसलिय Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह उसको अस्तिकाय नहीं कहते है । रुपी बब्बं गंधरफास ऋष्ण संजुतं । लहि ऊण जीव बिट्टा कारण कम् S पुण गुनः रुपि द्रव्यं गंधर सस्पर्शवर्णसंयुक्तम् । लब्ध्वा जीवस्थितं कारणं कर्मबंधस्स ।। ३१७ ।। अर्थ- स्पर्श रस गंध वर्ण इन चारों गुणों सहित जो रूपी पुद्गल द्वन् है वह जीव में रहनेवाले शुभ अशुभ भावों को पाकर कर्म बंध का कारण हो जाता है । भावार्थ- पुद्गल का एक भेद कर्मव है । समस्त संसार में फैली हुई है । जब यह जीव अनेक शुभ वा अशुभ भाव करता है तभी वे वर्गणाएं उन शुभ अशुभ भावों की निमित्त पाकर कम रूप परिणत हो जाती और इस प्रकार के ही कर्म वर्गणाएं कर्म तंत्र का कारण बन जाती है। इस प्रकार अजीव पदार्थ का निरूपण किया । अत्र आगे पुण्य पाप को कहते है । सम्मतसुववएहि य कसाय उवसमण गुणसमाउसो । जो जीयो सो पुष्णं पादं विवरिय वोसाओ || १४९ सम्यत्कभु तव्रतैः कषायोपशमनगुणसमायुक्तः । यो जोवा स पुण्य पाप विपरीत दोषतः ।। ३१८ ।। अर्थ -- जब यह जीव सम्यग्दर्शन को धारण कर लेता है, भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए शास्त्रों को जान लेता है, व्रतों को धारण कर लेता है और जिसकी कषायें सब शांत हो जाती है उस समय वह जीव पुण्यरूप कहलाता है अर्थात् ऊपर लिखे सब कारणों से पुण्य कर्म की प्राप्ति होती है तथा उसके विपरीत हिंसा आदि पाप करना मिथ्यात्व चारण करना मिथ्या शास्त्रों का अध्ययन करना आदि पाप कहलाते है आठ कर्मों मे से साता वेदनीय, शुभ नाम, ऊंच गोत्र, और शुभ आयु ये पुण्य कर्म है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, असाता वेदनीय, अशुभ नाम, अशुभ आयु और नोंच गोत्र ये पाप कर्म है। इस प्रकार संक्षेप से पुण्य पाप का स्वरुप कहा Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० भाव-संग्रह आग आस्रव संवर का स्वरूप कहते है। मिमि गिर पद हो पनिसद सीप लहाणपरयं । लहिऊण जीव चिठ्ठा तह कम्मं भावि आवसई ।। गिरि निर्गत नदी प्रवाहः प्रविशति सरसि यथानवरतम । लध्या जीवस्थितं तथा कर्म भावि आत्रवति ॥ ३१९ ॥ अर्थ- जिस प्रकार किसी नदी का प्रवाह किसी पर्वत से निकलता है और वह किसी सरोवर में निरंतर प्रवेश करता रहता है, उसी प्रकार जीव के शुभ अमान परिणामी को पाकर आगामी काल के लिये कर्मों का आस्रव होता रहता है। आसवइ सुहेण सुहं असुहं आसबह असुह जोएण । जई ण इजलं तलाए समलं वा णिम्मलं विसई ।। आस्त्रयति शुभेन शुभ अशुभमास्रवति अशुभ योगेन । यथा नदी जलं तडागे समलं वा निर्मलं विशति ।। ३२५ ।। अर्थ- कमों का आस्रव मन वचन काय इन तीनों योगों से होता है । अशुभ योगो से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है और शुभ योगों से शुभ कमों का आस्रव होता है । मन बचन काय की प्रवृत्ति को योग कहते है । जो प्रवृत्ति सम्यत्त्क रुप होती है व्रत चारित्र रुप होती है वह शुभ प्रवृत्ती कहलाती है इसी को शुभ योग कहते है । शुम बोगों से पुण्य कर्मों का आस्रव होता है तथा जो प्रवृत्ति हिंसा झूठ चोरी कुशील परिग्रह रूप होती है, राग द्वष मोह रूप होती है वह अशुभ प्रवृत्ति कहलाती है इसी को अशुभ योग कहते है, और ऐसे अशुभ योगों से पाप कर्मों का आस्रव होता है। आगे संबर को कहते है। आसबह जं तु कम्मंण वय काएहि रायदोसेहि । ते संवरइ णिरुत्तं तिगुत्तिगुत्तो णिरालयो ।। आंत्रवति यत्त कर्म मनोवचन कार्य रागद्वेषः । तत्संयणोति निरुक्तं त्रिगुप्ति गुप्तो निरालम्ब: ।। ३२१ ।। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ - रागद्वेष पूर्वक होने वाली मन वचन काय की क्रियाओं में जिन कर्मों का आम्रव होता है वे कर्म उन मन बचन काय की क्रियाओं को रोक देने से फिर नहीं आते । इस का भी कारण यह है कि कर्मों के आने के लिये मन वचन काय की क्रियाएं ही कारण होती है यदि दे क्रियाएं सर्वथा रोक दी जाय तो फिर उन कर्मों के आने के लिये कारण वा आलंवन ही नहीं रहता है । विना आलवन वा कारण के वे कर्म आही नहीं सकते। इसी को संवर कहते है । वह संबर तीनों प्रकार की गुप्तियों से होता है । मन की क्रिया को सर्वथा रोक देना मनो गुप्ति, वचन गुप्ति और काय की क्रिया को सर्वथा रोक देना काय गुप्ति है । जा संकप्पवियप्पो ता कम्मं असुइ सुह य दायारं । लखे सुद्ध सहावे सुसंवरो उह्यकम्मस्स ।। यावत्संकल्पविकल्पः तावत्कर्म अशुभशुभदातृ । लम्बे शुद्धस्थभावे सुसंवर: उभयकर्मणः ॥ ३२२ ।। अर्थ- इस जीव में जब तक सकल्प विकल्प होता है तब तक शुभ कर्म वा अशुभ कर्म आते ही रहते है । शुभ संकल्पों से शुभ कर्म आते है और अशुभ संकल्प से अशुभ कर्म आते है। जब दोनों प्रकार के के संकल्प विकल्प नष्ट हो जाते है तव शुभ अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का संवर हो जाता है। पो मणलंकप्पे इंपियवाधारवज्जिए जोवे । लद्धे सुद्ध सहावे उभयस्स य संवरो होई ।। नष्टे मनः संकल्प इन्द्रियव्यापारवजिते जीवे । लध्धे शुद्ध स्वभावे उभयस्स संवरो भवति ।। ३२३ ।। अर्थ- जिस जीव के मन के समस्त सकल्प विकल्प नष्ट हो जाते है, समस्त इंद्रियों के व्यापार नष्ट हो जाते है तथा आत्मा का शुद्ध स्वभाव प्रगट हो जाता है तब दोनों प्रकार के शुभ अशुभ कर्मों का मंवर हो जाता है । इस प्रकार संक्षेप में संबर का स्वरूप कहा । आये बंध का स्वरूप कहते है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह जीव कम्माण उहयं अण्णोपणं जो पएस पवेसो हु । जो निणरहिं बंधो भणिओ इय विगयमोहेहि ॥ जीवकर्मणोरुभयोरन्योन्यः धः प्रदेशप्रवेशस्तु । स जिनबरैः बन्धो भणित इति बिपत मोहः ।। ३२४ ।। अर्थ- जीव के प्रदेश और कम से प्रदेश दोनो ही जब एक दुसरे के साथ परस्पर मिल जाते है उस को मोह रहित भगवान जिनेंद्र देव बंध कहते है। जीवपएलेक्कक्के कम्मपएसा हु अंअपरिहोणा। होति घणा णिविभूया सो बंधो होइ गायब्धो ।। जीवप्रदेशे एकैकस्मिन् कर्मप्रदेशा हि अन्तपरिहोनाः । भवन्ति घना निविडमसाः स बधो भवति ज्ञातव्यः ।। ३२५ ।। अर्थ- जीव के एक एक प्रदेश के साथ अनंतानंत कर्मवर्गणाए बंधी हुई है और वे सब वर्गणारं घनीभूत अंघकार के समान इकट्ठी होकर आत्मा के प्रदेशों के साथ बंधी है । इस प्रकार जो आत्मा और कमों के प्रदेश परस्पर मिले हुए है उसको बंध समझना चाहिये । आगे यह कर्म बंध इस जीव के साथ कबसे है और कैसे होता है मो कहते है । अस्थि है अणाइभ या बधो जीवस्स विविह कम्मेण । नस्सोदएण जायइ भावो पुण रायदोसमओ । अस्त्यनादि भतो बन्यो जीवस्य विविधकर्मणः । तस्योदयेन जायते भाव: पुना रागद्वेषमयः ।। ३२६ ।। भावेण तेण पुणरवि अण्णो बहु पुग्गला हु गग्गति । जह तुपियपत्तस्स य णिविडा रेणुल्क लग्गति ।। भावेन तेन पुनरपि अन्ये बहवः पुद्ग ना हि लगन्ति । यया घतपात्रस्य च निविड़ा रेपवो लगान्त ।। ३२७ ।। अर्थ- इस संसारी जीव के साथ अनेक प्रकार के कर्मों का बंध अनादि काल से लगा हुआ है जब उन कर्मों का उदय होता है तब इस Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह जीव पे. परिणाम गग इंघ म्प हो जाने है । तब राग द्वंप रूप परिणामी के निमित्त न कर अनेक अन्य पुद्गल क्रर्म वर्गणाएं जीव के साथ कम Qाम पनि हो जाती हैं। जिस प्रकार घी के चिकने वर्तन पर चल आ आ कर चिपक जाती है इसी प्रकार राग द्वेष परिणामों के होने हो भन ३चन बाय की क्रियाओं का हाथ फिर अनेक प्रकार के कर्मों का बंब हो जाता है । इस कार पूर्व संचित कर्मों के उदय मे राग द्वेष रुप परिणाम होने है और राग द्वेष प परिणामों से फिर कमों का बंध जाता । सः परंपग मोक्ष प्राप्त होने तक बगवर चलती रहती है। एक्कसमएण बद्धं कम्मं जीवेण सत्तभेहि । परिणवई आयु कम्म भूयाउ सेसेण ।। एक समयेन बद्धं कर्म जोवेण सप्तभेदैः : परिणति आयुः कर्मबद्धं भूतायुःशेषेण ।। ३२८ ।। अर्थ- जीव के साथ प्रत्येक समय में बंधे हुए कर्म सात भेदों मे बंट जाते है । ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय नाम गोत्र अंतराय इन सातों कर्मों में बट जाते है 1 आयु कर्म का बंध विभाग में अर्थात् आय के दो भाग बीत जाने पर होता है तथा उस समय भी आय कर्म का बंध हो अथवा और भी आगे हो वा अंत समय में हो । जब आयु क्रम का बंध हो जाता है तब उसको गी भाग मिलने लगता है। इस प्रकार कर्मों का बंटवारा होता है। आगे बंध के भेद बतलाते है। पो बंधो चउभेओ गायन्वो हो। सुत्तर्णािट्छो । पयडि छिदि अणुभागो पएसबंधो पुरा कहिओ ॥ ल बन्धश्चतुर्भदो ज्ञातव्यो भवति सुत्र निविष्टः । प्रकृति स्थित्यनुभाग प्रदेश बंधः पुरा कथितः ।। ३२६ 11 अर्थ- भगवान जिनेन्द्रदेव के हुए सिद्धांत शास्त्रों में वह बंध चार प्रकार का कहा है । तथा प्रकृतिबघ स्थितिबंध अनुभाग बंध और प्रदेश बंध ये अंध के चार भेद है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माव-संग्रह णाणाण दसणाणं आवरण वेयणीय मोहणियं । आउस्स णाम गोदं अंतरामाणि षयडीओ ।। ज्ञानाना दर्शनाना आवरणं वेदनीयं मोहनीयम् । आयुष्क नाम गोत्रं अन्तरायः प्रकृतयः ।। ३३० ।। अर्थ- ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय ये आठ प्रकृतिबंध के भेद है। आगे इनके भेद कहते है । णाणाबरणं कम्मं पंचविहं होइ सुत्तणिहिट्ठ । जह पडिमोवरि खितं छायणयं होइ कप्पडयं ।। ज्ञानावरणं कर्म पचविधं भवति सूत्र निदिष्टम् । यथा प्रतिमोपरि क्षिप्तं छावनकं भवति कर्पटकम ।। ३३१ ।। अर्थ- जिस प्रकार किसी प्रतिमा के ऊपर कपडे का आच्छादन डाल देने में प्रतिमा ढक जाती है उसी प्रकार जो आत्मा के जान गण को ढक लेता है उसको ज्ञानावरण कर्म कहते है । उस ज्ञानावरण कर्म के पांच भेद है। मतिज्ञानावरण, धुतज्ञानावरण, अबधि ज्ञानावरण, मनः पर्यय ज्ञानावरण, और केवल ज्ञानावरण । ऐसा सिद्धांत सूत्र में वसण आवरणं पुण जद्द पडिहारो विणिवह वारम्नि । तं णविहं पउत्तं फुडत्थवाएहि सुत्तम्मि । वर्शनावरणं पुनः यथा प्रतिहारो वारयति द्वारे । तन्नवविधं प्रोक्तं स्फुटार्थवादिभिः सूत्रे ॥ ३३२ ।। अर्थ- जिस प्रकार प्रतिहार वा द्वारपाल द्वारपर बैठा रहता और राजा के दर्शन नहीं होने देता । जाने बालों को द्वारपर रोक देता है उसी प्रकार जो आत्मा के दर्शन गुण को प्रकट न होने दे, उसको ढकले, उसकों दर्शनावरण कर्म कहते हैं। उस दर्शना वरण कर्म के नौ भंद है। इस प्रकार स्पष्टवादी भगवान जिनंद्रदेव ने अपने सिद्धांत सुत्रों में कहा है । चक्षुदर्शनाबरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा-राग्रह १५५ केवदर्शनावरण. निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, और स्त्यान गृद्धि ये नौ भेद दर्शनावरण के है । मोहेइ मोहणीयं जह महरा अब कोद्दमा पुरिस । तह अडवोस विभिण्णं णायन्वं जिणुवएसेण ।। मोहयति मोहनीयं यथा मदिरा अथवा कोद्रवं पुरुषम् । तथा अष्टाविंशति विभिन्नं झातव्यं जिनोपदेश ।। ३३३ ।। अर्थ- जिस प्रकार मद्य पुरुषों को मोहित कर देता है, अथवा कोदों पुरुषों को मोहित कर देता है उसी प्रकार जीवों को जो मोहित कर देता है उसको मोहनीय कर्म कहते है । उस मोहनीय के अट्ठाईस भेद भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहे है । मोहनीय के दो भेद है दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के तीन भेद है । मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व । चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद है । अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोम, प्रत्याख्यानाबरण क्रोध मान माया लोभ, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ । हास्य, रति, अति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुंसक वेद । इस प्रकार मोहनीय कर्म के अट्ठाईस भेद है। महुलित्त स्वग्ग सरिसं दुविहं पुण होइ वेयणीयं तु । सायासाय विभिणं सुह वुक्खं देइ जोषस्स ॥ मधुलिप्त खंगसदृशं द्विविधं पुनः भवति वेदनीयं तु । सातासात विभिन्नं सुखदुःखे ददाति जीयाय ॥ ३३४ ।। अर्थ- जिस प्रकार शहदलपेटी तलवार की धार चाट लेने पर मीठी लगती है परंतु जीभ कट जाने से दुःख अधिक होता है उसी प्रकार जो कर्म जीवों को सुख दुःख देता है उसको वेदनीय कर्म कहते है । उसके दो भेद है साता वेदनीय और असाता वेदनीय 1 साता वेदनीय जीवों को सुख देता है और असाता वेदनीय दुःख देता है । आऊ चउम्पयारं सुर णारय मणुय तिरिय गइबद्धं । हडिलिस पुरिस तुल्लं जीवे भवधारण समत्थं ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मात्र-मत्रह आयु श्चतुःप्रकार सुरनारक मनुष्य तियंगतिवद्धन् । हलि लिप्त पुरुष तुल्यं जीवे भयधारणम् समर्थम् ।। ३३५ ।। अर्थ- जिस प्रकार जिसका पांव । पैर ) काठ मे फंसा हुआ है, वह काठ उस पुरुष को कहीं जाने नहीं देता, वहीं शेख रखता है हम प्रकार जो कर्म एक ही शरीर मे रोक रबखे उसको आयु कर्म कहते : उसके चार भेद हैं देवाय, नरकाग्रु, मनुष्य आयु और तिर्यंच आयु । यः आय कम ही भव धारणा कराना हरता है । चित्तपडवविचित्तं गाणा णाहि बलणं णाम । तेणवइ संखगुणियं गइ जाइ सरोर आईहि ।। चित्रपटवत् विचित्रं नानानामभिः वर्तन लाम । त्रिनवति: संख्यगुणितं गतिजातिशरीरादिभिः ।। ३३६ ।। अअर्थ- जिस प्रकार किसी वस्त्रपर अनेक प्रकार के चित्र बनाने है उसी प्रकार जो गति जाति रीर आदी अनेक नामों को जो बनावे उसको नाम कर्म कहते हैं। उसके तिरानवे भद है। देवगति, नरक गति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, दोइन्द्रिय जाति, तेइन्द्रिय जाति, चौइन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक मारीर, वैक्रियिक मरोर, आहारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण गरीर, औदारिक शरीगंगोपांग, वैक्रियक शरीरांगोपांग, आहारकशरीगंगापांग, स्थान निर्माण प्रमाण निर्माण, आहारक शरीर बंधन आदि पांचों शरीरो के पांच बंधन, औदारिकशरीर संचात आदि पांचों शरीरों के पांच सांवत, समचतुरस्त्र संस्थान, न्यग्रोध परिमंडल संस्थान, स्वातिक संस्थान, अवज्जन संस्थान, वामन संस्थान, हुंडक संस्थान, बज वापभ नाराच संहनन, बज़ नागच संहनन, नाराच संहनन, अद्धं नाराच संहनन, कोलक मनन, असंप्राप्तासृपाटका संहनन, कर्कश, मदु, गुरु, लघु स्निाग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण ये आठ पश, तिक्त, कटुक कषाय, आम्ल, मधुर में पांच रस, मुर्राम, असुरभि, दो गंध कृष्ण, नोल, रक्त, पीत, शुल्क ये पांच वर्ण नरक गत्यानु पूर्वी तिर्यग्गत्यानुपूर्वी मनुष्यगत्यानुपूर्वी देव गत्यानूपूर्वी अगुरुलघु, उपघात, परधात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोगति, प्रत्यक शरीर, सादारण, स, स्थावर, सभेग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माव-संग्रह १५७ शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, वादर पर्याप्तक, अपर्याप्तक, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनोदय यशस्वीति, अयशकिति तीर्थकरत्व ये तिरानवें प्रकृतियां नाम कम की है । गोदं कुलाल सरिसं णिच्चुच्च कुलेसु पायणे दस्छ । घड़ रंजणाई करण कुंभयकारो जहा णिउणो ।। गोत्रं कुलाल सदशं नीचोच्चकुलेषु प्रापणे वर्तम् । घट रंजनादि करणे कुम्भकारो यथा निपुणः ॥ ३३७ ।। अर्थ- जिस प्रकार कुंभार छोटे वा बड घड बनाने में निपुण होता है उसी प्रकार जो ऊंच गोत्र में उत्पन्न करे बह ऊंच गोत्र है और नीच कुल में उत्पन्न करें वह नीच गोत्र है। गोत्र कर्म के ये दो भेद है । जइ भंडयारि पुरिसी घणं णिवारेइ रायमा दिण्णं । तह अंतराय कम णिवारणं कुणइ लोणं ॥ यथा भाण्डागारी पुरुषः धनं निवारयति राजा बत्तम् । तथान्सराप कर्म निवारणं करोति लम्धोनाम् ।। ३३८ ।। तं पंचभेद उत्तं वाणे लाहे य भोइ उवभोए । तह बीरि एण भणियं अंतराय जिणिदेहि ॥ तत्पंच भेद युक्तं वाने लाभे च भोगे उपमोगे । तथा वोर्येण भणितं अन्तराय जिनेन्द्रः ॥ ३३९ ॥ अर्थ - जिस प्रकार राजा के दिये हुए धन को भंडारी (खजांची) पुरुष देने नहीं देता उसी प्रकार अंतराय कर्म पांचो लब्धियों को प्राप्त नहीं होने देता, देने से निवारण कर देता है। उस अंतराय कर्म के पांच भेद है। दानांतराय लाभांतराय भोगान्दराय उपभोगांतराय और बीयाँतराम । इस प्रकार भगवान जिनेंद्रदेव ने अंतराय कर्म के पांच भेद वतलाये है । इस प्रकार आठ कमों के एकसो अडतालीस भेद होते है । आमे अनुभाग बंध को कहते है । एसो पयडीवंधों अणुमागो होइ तस्स सताए । अणुभवणं च सोवे तिन्वं मंदे मंदाणु रूवेष ।। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ भाव-संग्रह एषः प्रकृतिबन्धोऽनु भागो भवति तस्य शताः । अमुभवनं यत्तीव तोयं मन्दे मंदानुरूपेण ।। ३४० ॥ अर्थ- इस प्रकार प्रकृति बध का स्वरूप कहा । इन प्रकृति बंध कों में जो फल देने की शक्ति है उसको अनुभाग बंत्र कहते हैं । यदि उन कर्मों में तीव फल देने की शक्ति है तो उसका अनुभव बा उदय तीवता के साथ होता है और यदि मंद फल देने की शक्ति है तो उसका अनुभव वा फल मंदता के साथ होता है । आग स्थितिबंध बतलाते हैं । एह खलु पठमाण उक्स्सं अंतराइयस्सेव । सं कोडाकोडो सायरणामाण मे व ठिदी ॥ तमणां खल प्रथमाना मुस्त्कृष्ट मन्तरायस्य च । त्रिशत्कोटाकोटि सागर नाम्ना मेव स्थितिः ।। ३४१ ।। म हस्स सत्तरी खलु वीस पुण होई नाम गोत्तस्स । तेतीस सागराणां उवभाओ आउसस्सेव ।। मोहस्य सप्ततिः खलु विशपिः पुन भवति नामगोत्रयोः । त्रयस्त्रिशत्सागराणां उपमा आयुष एव ॥ ३४२ ।। अर्थ- मानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय इन चार कर्मों को उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है मोहनीय कम की स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण है, नाम गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागर है और आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति नेतीस सागर है। आगे जघन्य स्थिति बतलाते है। वारसय बेयणोए जामा गोदे य अ य महता। भिष्ण मुहुतं तु ठिबी सेसाणा सावि पंचम्ह ।। द्वादश वेवनीये नाम गोत्रयोश्च अष्टौ मुहूर्ताः । भिन्न महसंस्तुस्थितिः शेषाणां सापि पंचामाम् ।। ३४३ ।। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ- वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति वारह मुहुर्त है, नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है और शंष पांचों कर्मो की जघन्य स्थिति अंतर्मुहुर्त है । इस प्रकार स्थिति बंधका स्वरूप कहा । आगं निर्जरा का स्वरुप कहते है। पुटव कय कम्म सडणं णिज्जरा सा पुणो हवे दुविहा । पठमा विवायाया विदिया आंधवाय जाया य ।। पूर्वकृतकर्मसटनं निर्जरा सा पुन: भवति द्विविधा । प्रथमा विपाक जाता द्वितीया अविपाकजाता व ॥ ३४४ ।। अर्थ- पहले संचित हुए कर्मों का सङना है छूटना है आत्मा से उनका संबंध हट जाना है उसको निर्जरा कहते है । उम निर्जरा के दो भेद है । एक विपाकजा और दुसरी अविपाकजा । आग दोनों निर्जराओं का स्वरुप कहते है। कालेणउवाएण पति जहा वणफ्फई फलाई । तह कालेण तवेण य पञ्चति कयाइ कम्माइ ।। काले नोपायेन च पचन्ति यथा बनस्पतिफलानि । तथा कालेन तपसा च पचन्ति कृतानि फर्माणि ।। ३४५ ।। अर्थ- जिस प्रकार वनस्पति के आम आदि फल एक तो अपने समय के अनुसार पकते है और दुसरे पाल में देकर वा अन्य किसी उपाय से पकालिये जाते है उसी प्रकार जो कर्म अपने समय के अनुसार स्थितिबंध पूर्ण होने पर अपना फल देकर खिर जाते है नष्ट हो जाते है उसको विपाकजा निर्जरा कहते हैं । विपाक का अर्थ फल देना है । फल देकर जो कर्म खिरते है उसको विपाक निर्जरा कहते है । तथा जो कर्म विना फल दिये तपश्चरण के द्वारा नष्ट कर दिये जाते है वह अविपाक निर्जरा कहलाती है। इस प्रकार निर्जरा के दो भेद है। इस प्रकार निर्जरा का स्वरुप कहा । अब आये मोक्ष का स्वरूप कहते है । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माव-संग्रह गिस्सेस कम्म मुक्को सो मुक्खो जिणवहि पएणतो। रायद्दोसाभावे सहाव थक्करण जीवस्त ।। नि:शेष कर्म मोक्षः स मोक्षः जिनवरैः प्रज्ञप्तः । रागद्वेषाभावे स्वभाव स्थितस्य जीवस्य ।। ३४६ ।। अर्थ- जो जीव राग द्वेष का सर्वथा नाश कर देता है और अपने शुद्ध स्वभाव में स्थिर हो जाता है उस समय जो समस्त कर्मों का सर्वश्रा नाश हो जाता है उसको भगवान जिनेद्रदेव मोक्ष कहते है । मोक्ष बद्ध का अर्थ छूटना है । यह आत्मा जो अनादि काल से कर्मों से बंधा हुआ है वह जब राग द्वेष के अभाव होने पर और शुद्ध स्वभाव में बीन हीन पर समस्त कर्मों से छूट जाता है तब उसको मुक्त जोत्र कहते है । मुक्त होने पर कर्मों के साथ साथ शरीर भी नष्ट हो जाता है। सो पुण दुविहो भणिओ एक्कदेसो य सवमोक्खो य । देसो चउघाइखए सब्यो णिस्सेस णासम्मि ।। स पुनः द्विविधो भणितः एकवेशश्च सर्वमोक्षश्च । देशः चतुर्घातिक्षये सर्वः नि:शेषणाशे ।। ३४७ ।। अर्थ- वह मोक्ष दो प्रकार है । एक देश और सर्वदेश । चारों प्रातिया कर्मों का नाश हो जाना एक देश मोक्ष है और समस्त कर्मों का नाश हो जाना सर्वदेश मोक्ष है । भावार्थ- इन समस्त कर्मों में धानिया कर्म सब में प्रबल है । इन का जब नाश हो जाता है तब शव कर्मों का नाश अवश्य ही होता है। इनमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। तथा घातिया कर्मों के नाश होने पर यह जीव वीतराग सबज्ञ हो जाता है। अनंत दर्शन अनत ज्ञान अनंत सुख और अनंत वीर्य ये चार अनंत चतुस्टचय प्रगट हो जाते है और फिर वे अनंत चतुष्टया अनंतानंत काल तक रहते हैं। इन्ही कारण से वे भगवान एक देशमुक्त कहलाते है । जब तक आयु कर्म रहता है तब तक वे उस अवस्था में रहते है आयु कम. पूर्ण होने पर वे अवश्य मुक्त हो जाते है। इस प्रकार मोक्ष का स्वरुप कहा। अब आगे अंत मे फिर सम्यग्दर्शन का स्वरुप कहते है । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव - संग्रह ए सत्तपयारा जिणदिट्ठा मासिया मए तरचा । सहइ जो हु जीवो सम्माइट्ठी हवे सो हु ।। एतानि सप्त प्रकाराणि जिन दृष्टानि भणितानि मया तत्त्वानि । श्रद्दधाति यस्तु जीवः सम्यग्दृष्टिः भवेत स तु ॥ ३४८ ।। १६१ अर्थ - इस प्रकार भगवान जिनेन्द्रदेव के कहें हुए सात तत्वों का स्वरूप अत्यंत संक्षेप से मैंनें कहा । जो जीव इन सातों तत्त्वों का श्रद्धान करता है वही सम्यग्दृष्टी पुरुष है । अविरय सम्मादिट्ठी एसो उत्तो भया समासेण । एतो उ वोच्छ समासदो देस विरदो य ॥ अविरत सम्यग्दृष्टिः एष उक्तः मया समासेण । इत ऊध्वं वक्ष्ये समासलो देश विरतं च ॥ ३४९ ॥ आगे - इस प्रकार मैंने अत्यंत संक्षेप से अविरत सम्यग्दृष्टी नाम के चौथे गुणस्थान का स्वरुप कहा | अब इससे आगे संक्षेप से ही देश विरत अथवा विरताविरत नाम के पांचवे गुणस्थान का स्वरुप कहते है । इस प्रकार अविरत गुणस्थान का स्वरूप समाप्त हुआ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आगे पांचवें विरताविरत गुणस्थान का स्वरुप कहते है । पंचमयं गुणठाणं विरयाविरजत्ति णामयं भणियं । तत्थवि खय उवमिओ खाइओ उपसमो चेव ।। पंचमक गुणस्थानं विरताविरत इति नामक भणितम् । तत्रापि क्षायोपशमिक: क्षायिकः औपशमिकरच ॥ ३५० ।। अर्थ- भगवान जिनेंद्रदेव ने पांचबे गुणस्थान का नाम दिरताविरत बतलाया है । तथा उसमे औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते है। आगं विरताविरत का अर्थ बतलाते है । जो तसवहाउ विरओ णो विरओ तह य थावरबहाओ। एक्क समयम्नि जीवो विरयाविरउत्ति जिणु कहई । यस्त्रसयघाहिरतो पो बिरसा = मात् । एक समये जीवो विरताविरत इति जिनः कथयति ।। ३५१ ॥ अर्थ- जो जीव श्रस जीवों की हिंसा त्याग कर देता है और स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग नहीं करता वह जीव एक ही समयमें बिरत और अविरत वा विरताविरत कहलाता है ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है। इलयाइथावराणं अस्थिपवित्तित्ति बिरदि इयराणं । मूलगुणछ पउत्तो बारह वयभूसिओ हु देसनई ॥ इलादि स्थावराणा मस्ति प्रवृत्तिरिति विरतिरितरेषाम् । मूलगुणाष्ट प्रयुक्तो हादसवतभूषितो हि देशयतिः ।। ३५२ ।। अर्थ--. पांचवे मुण स्थान मे रहने वाले विरताविरत जीवों की प्रवृत्ति पृथ्वी जल अग्नि वायु वनस्पति आदि स्थावर जीवों के घात करने में होती है इसलिये वह इन स्थावर जीवों के घात का त्याग नहीं कर सकता, शेष अस जीवों के घात का त्याग कर देता है इसलिये एक देश यति अथवा विरताविरत श्रावक कहलाता है वह श्वावक आठों Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह मुलगणों को धारण करता है और बारह बतों से विभूषित रहता है । मद्य का त्याग, मास का त्याग, शहद का त्या त्रिभोजन का त्याग, वडफल, पीपलफल, गूलर, पाकर फल, अंजीर फल इन पांचों उदंबरो का त्याग, प्रतिदिन प्रातः काल पंच परमेष्ठी को नमस्कार करना, जीवों की दया पालन करना और पानी छान कर पीना ये आठ मूल गुण कहलाते है । श्रावकों के लिय इनका पालन करना अत्यावश्यक है। आग अनुक्रम में बारह वतों का स्वरूप कहते है । हिसाविरई सच्चं अद्दत्तपरिवजणं व यलबयं । परमहिलापरिहारो परिदमाणं परिग्गहस्सेव ।। हिंसाविरतिः सत्यं अदलपरिवर्जनं च स्थूलनतम् । पर महिलापरिहारः परिमाणं परिग्रहस्येव ॥ ३५३ ।। अर्थ- स जीवों की हिंसा का त्याग करना, सत्य बोलना, बिना दिये हुए पदार्थ को कभी ग्रहण न करना, परस्त्री सेवन त्याग और परिग्रह का परिमाण करना ये पांच अगुवत कहलाते है। विसिविदिसि पच्चखाणं अणत्यदंडाण होइ परिहारो। भोओपभोयतंखा ए एह गुणश्वया तिण्णि ।। दिग्विदिक प्रत्याख्यानं अनर्थदण्डानां भवति परिहारः । भोगोपभोगे संख्या एतानि हि मुणवतानि त्रीणि ।। ३५४ ।। अर्थ-- दिशा विदिशाओं में आने जाने का नियम धारण कर उनकी सीमा नियत कर शेष हिशा विदिशा में आने जाने त्याग करना, पांचो प्रकार के अनर्थ दंडों का त्याग करना, भोगोपभोग पदार्थों की संख्या नियत कर शेष भोगोप भोग पदार्थो का त्याग कर देना ये तीन गुण प्रत कहलाते है । भावार्थ-चार दिशाएं, चार विदिशाएं, ऊपर नीचे ये दश दिशाए कहलाती है इनकी सीमा की मर्यादा नियतकर उसके बाहर नहीं जाना चाहिये 1 पाप रूप कार्यों का उपदेश देना, हिंसा करने के उपकरणों या दान देना, दूसरे का बुरा चितन करना, मिथ्याशास्त्रों का पढना सुनना और पंच स्थावरों को व्यर्थ हिंसा करना ये Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह पांच अनर्थ दंड कहलाते है, इनमें पारा तो अधिक लगता है। परंतु लाभ कुछ नहीं होता एसे इन अनर्थ दंडो का त्याग कर देना चाहिये । जो एक बार काम में आमें ऐसे भोजनाविक, भोग है। और जो बार बार काम आबे एने वस्त्रादिक उपभोग है । इन सब की संख्या नियत कर लेनी चाहिये । ये तीन गुणवत कहलाते है। इनसे अणुव्रतों के गण बढ़ने है इसलिये इनको गुणब्रत कहते है। देवे थुवइ सियाले पठवे पच्ने सुपोसहोवास । अति हीण संविभागो मरणते कुणइ सल्लिहणं ।। देवान् स्तौति त्रिकाले पर्वणि सुप्रोषघोपवासः । अतिथोना संविभागः भरणान्ते करोति सल्लेखनाम् ।। ३५५ ।। अर्थ- प्राप्तः काल मध्यण काल संध्याकाल इन तीनो समय में पंचमेंष्ठी की स्तुति करना, प्रत्येक महीने की दो अष्टमी दो चतुर्दशी इन चारों पर्यों में प्रोषवपयास करना, प्रति दिन अतिथियों को दान देना और सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षावृत कहलाते हैं । इस प्रकार पांच अणुव्रत तीन गुणवृत और चार शिक्षावत ये बारह अणुव्रत कहलाते है । देश व्रती श्रावक को आठ मुलगुण और ये बारह वृत अवश्य धारण करने चाहिये । इन बारह नतों को उत्तर गुण भी कहते है । १. मित्र कलरे विभवे तनूजे सौख्ये गृहे यत्र विहाय मोहें । संस्मर्यते पंचपदं स्वचित्ते सल्लेखना सा विहिता मुनीन्द्रः ।। अर्थ- मित्र स्त्री विभूति पुत्र मुख गृह आदि सबसे मोहका त्याग कर अपने हृदय में पंच परमेष्ठी का स्मरण करना सल्लेखना है। ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है । आगे मूलगुण वतनाते है। महमज्जमंस विरई चाओ पुण उयंवराण पंखाहं । अछेदे मूलगुणा हवंति फुल देश विरयम्मि । मधुमद्यमांस विरति: त्यागः पुनः उवम्बराणा पंचानाम् । अष्टावेते मूलगुणा भवन्ति स्फुटं देशविरते ॥ ३५६ ।। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ज - मय मांस मधु का त्याग और पांच उदंबरों का त्याग ये देववितियों के आठ मूलगुण कहलाते है। आग इम गुणस्थान में होने वाले ध्यान बतलाते है । अट्टर जई झाणं भई अस्थिति तम्हि गुणठाणे । वह आरंभपरिजगह जुत्तस्स य णस्थि तं धम्म । आर्त रौद्रं ध्यान र अस्तीति अम्मिन गणस्थाने । बहुवारम्भ परिग्रह युदतस्य च नास्ति तद्धय॑म् ।। ३५७ ।। अर्थ- इस पांचवे गुपारथान मे अर्तध्वान रौद्रध्यान और भद्रध्यान ये तीन प्रकार में ध्यान होते : इस गुणस्थान वाले जीव के बहुतसा आरंभ होता है और बहुतमा ही परिग्रह होता है इसलिये इस गुणस्थान में धर्मध्यान नहीं होता । धम्मेवएण जीवो असुहं परि चयइ सुहगई लेई । कालेण सुक्ख मिल्ला इंदियवल कारणं जाणि || धर्मोदयेन जोवोऽशमं परित्यजति शुमति प्राप्नोति । कालेन सुखं मिलति इन्द्रियवलि कारणं जानीहि ॥ ३५८ ।। अर्थ-- धर्म सेवन करने से इस जीव के अशुभ परिणाम और अशुभ गतियां आदि नष्ट हो जाती है । और शुभ गति प्राप्त होती। तथा समयानुसार इन्द्रियों को बल देने वाला सुख प्राप्त होता है । आगे आर्तध्यान को वतलाते है। इठ विओए अट्ट उप्पजद्द तह अणिठ्ठसंजोए । रोय पकोवे तइयं णियाण करणे चउत्यं तु ॥ इष्ट वियोगे आंत उत्पद्यते तथा अनिष्ट संयोगे । रोगप्रकोप तृतीयं निदानकरणे चतुर्थ तु ॥ ३५९ ।। अर्थ- किसी इष्ट पदार्थ के वियोग होने पर उसके संयोग का चितवन करना पहला आर्तध्यान है । किसी अनिष्ट पदार्थ के संयोग होने पर उसके वियोग होने का बार बार चितवन करना दूसरा आतं-- Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ध्यान है । किसी रोग के प्रकोप होने पर उसको दूर करने के लिये बार बार चितवन करना तीसरा आर्तध्यान है और निदान करना चौथा आर्तध्यान कहलाता है। अदज्माण पउत्तो बंधइ पावं पिरंतरं जीयो । मरिएण य तिरियगई को विणरो जाइ तज्माणे ।। आसध्यान युक्तो बध्नाति पापं निरंतर जीवः । मृत्वा च तिर्यगति कोऽपि नरो यातितयाने ॥ ३६० ।। अर्थ-. इस जान कर, में पर भी कि पाप कर्मा का बंध करता रहता है । तथा कोई कोई मनुष्य इस आध्यान के कग्ने से लियंच गति को प्राप्त होता है । रुई कसाय सहियं जीवो संभवइ हिंसयाणंदं । मोसाणंदं विदियं थेयाणदं पुणो लइयं ।। छद्रं कषाय सहित जीवः संभवति हिंसानन्दम् । मषानन्दं द्वितोयं स्तेयानन्दं पुनस्तृतीयम् ॥ ३६१ ।। हवइ चउत्थं शाणं रुदं गामेण रक्षणाणंदं । अस्स य माहप्पेण य णरयगई भायणो जीवो ।। भवति चतुर्थ ध्यान रौद्रं नाम्ना रक्षणानन्दम् । यस्य च माहात्म्येन नरगतिभाजनो जीवः ।। ३६२ ।। अर्थ- जिनजीब की पाये अत्यन्त तीव्र होती है उसके रौद्रध्यान होता है। उस रौद्र ध्यान में चार भेद है। हिंसा में आनन्द मानना १. जिनेज्या पात्रदानादिस्तन कालोचितो विधिः । भद्रज्यानं स्मृतं तद्धि गृहधर्माश्रयात् बुधैः ।। अर्थ- भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, पात्रदान देना, तथा समयानुसार पूजा और दान की विधि करना भद्रध्यान कहलाना है। एसा ध्यान यथोचित गहस्थ धर्म में ही होता है । इसीलिये विद्वान लोग इस धर्मध्यान कहते है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १६७ हिसानन्द रौद्रध्यान है । झूठ बोलने मे आनंद मानना मृषानंद आर्तध्यान है । चोरी में आनन्द मानना स्तेयानंद नाशक तीसरा आर्तध्यान है । तथा बहुतसे परिग्रह की रक्षा में आनंद मानना रक्षणानंद वा परिग्रहानंद नाम का चौथा आर्तध्यान है। इस रौद्रध्यान का चितवन करने से यह जीव नरक का पात्र होता है । गिहवाबाररयाणं गेहोणं इंदियस्थ परि कलियं । अट्टज्झाण जायइ रुद्रं वा मोह छण्णाणं । गृहन्यापार रतानां गेहिनामिन्द्रियार्थ परिकलितम् । आतध्यानं जायते शैनं वा मोहच्छन्नानाम् ।। ३६३ ।। अर्थ- जो गृहस्थ घर के व्यापार में लगे रहते है और इन्द्रियों के विषयभूतपदार्थों में संकल्प विकल्प करते रहते है उनके आर्तध्यान होता है तथा जिनके मोहनीय कर्म का तीव्र उदय होता है उनके रौद्रध्यान होता है। शाणेहि तेहि पाच उप्पण्णं तं खबइ भद्दझाणेण । जीवो उसप जुत्तो देस जई माणसंपण्णो ॥ ध्यान स्तः पापं उत्पन्नं तत्क्षपयति भवघ्यानेन । जीवः उपशम युकतो देशयति: ज्ञानसम्पन्नः ।। ३६४ ।। अर्थ- इन आर्तध्यान और रौद्रध्यान से जो पाप उत्पन्न होता है उसको यह उपशम परिणामों को धारण करने वाला और सम्यग्ज्ञान का धारण करने वाला देश व्रती श्रावक अपने भद्रध्यान से नाश कर देता है। आगे भद्रध्यान को कहते है। ... भहस्स लक्षणं पुण धम्मं चितेइ भोयपरिमुषको । चितिय धम्म सेवइ पुणरवि भोए जहिच्छाए ॥ भद्रस्स लक्षणं पुनः धर्म चिन्तयति भोग मरिमुक्तः । चिन्तयित्वा धर्म सेवते पुनरपि भोगान यथेच्छया ।। ३६५ ।। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भाव-संग्रह अर्थ- जो जीव भोगों का त्याग करता हम ब. बिन भारता है. और धर्म का चितवन करता हुआ भी फिर भी अपनी इच्छानुसार भौगों का सेवन करता 'उसो भद्रध्यान रामझना चाहिये । भावाश.. भोगों का सेवन करता हुआ भी जो धर्मध्यान धारण करता है जमें भद्र ध्यान समझना चाहिये । आगे धर्मध्यान के भेद बतलाते है। धम्मज्झाणं भणिय आपापायायियाय विचयं च । संठाणं विषयं तह कहिय झाणं समासेण ।। धर्मध्यानं भणितं आज्ञापायविपाकविचयं च । संस्था, बिजयं मा सहित भाग माग !' ३६६ ॥ अर्थ- आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक बिचय और संस्थान विचय ये चार अत्यंत सक्षेप से धर्मध्यान के भेद है। आगे आज्ञावित्रय घHध्यान का स्वरुप कहते है। छहत्वणधपयत्था सत्तवि सच्चाई जिणावरएपण । चिथइ विसय विरत्तो आणा विचयं तु तं भणियं ॥ षड्द्रव्यनवपदार्थान सप्तापि तत्त्वानि जिनवराज्ञया । चिन्तयति विषयविरक्तः आज्ञादिघयं तु तद् भणितम् ।।३६७।। अर्ब- जो मनुष्य इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर भगवान् की आज्ञा प्रमाण छह द्रव्य, नौ पदार्थ और मात तत्वों का चितवन करता है उसको आज्ञा विचय नाम का पहला वर्मध्यान कहते है । आग अपाय विचय को कहते है। असुह कम्मात जाणो सुहस्स या हवेइ केणुवाएण । झ्य चितंतस्स हवे अपाय विषय पर झागं ।। अशुभकर्मणः नाशः शुभस्य वा भवति केनोपायेन । एतच्चिन्तयतः भवेदपायविषय पर ध्यानम् ॥ ३६८।। अर्थ- अपाय शब्द का अर्थ नाश है । इन अशुभ कर्मों का नाश Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्रह किस उपाय से होगा अथवा शुभ कर्मों का आस्रव किस उपाय से होगा इस प्रकार जो जीव चितवन करता है उसका वह ध्यान अपाय विजय नाम का दूसरा उत्तम धर्मध्यान कहलाता है । आग विपाक बित्रय को कहते है । असुह सुहस्स विवाओ चितइ जीवाण चडगइययाणं । विवाविचय झाणं भणियं तं जिणवरिदेहि ।। अ शुभस्त्र दिया हाल जीदान चतुर्गति गतानाम् । विपाक विचयं ध्यानं भणितं सज्जिनवरेन्द्रः ।। ३६९ ।। अर्थ- चारों गतियों मे परिभ्रमण करने वाले जीवों के शुभ कमों के उदय को तथा अशुभ कर्मो के उदय को जो चितवन करता है उसका बह श्यान विपाकविचय कहलाता है । ये जीव अपनें अपने शुभ अशुभ कर्मों के उदय मे ही सुख दुःख भोगते है ऐसा चितवन करना और इन दुखी जीवों का दुःख किस प्रकार दूर हो, ये श्रेष्ठ मार्ग में किस प्रकार लगें इस प्रकार का चितवन करना अपाय विचय नाम का तीसरा धर्मध्यान है। आगे संस्थान विचय को कहते है । अह उढतिरिय लोए चितेइ सपज्जयं सप्तंठाणं । विचयं सेठाणस्स य भणियं झाणं समासेण ।। अध ऊर्ध्व तिर्यग्लोक चित्तयन्ति सपर्ययं ससंस्थानम् । विचयं संस्थानस्य च भणितं ध्यान समासेन ।। ३७० ।। अथ- संस्थान आकार को कहते है। लोक के तीन भाग हे अधो लोक, मध्य लोक, वा तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक इनका चितवन करना तथा इनमे भरे हुए पदार्थों का उनकी पर्यायों का उन सबके आकारों का चितवन करना अत्यन्त संक्षेप से संस्थान विचय नाम का चौथा धर्मध्यान कहलाता है। आगे यह धर्मध्यान कहां होता है सो कहते है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० भाव-संग्रह मुक्खं धस्मज्माणं उत्तं तु पमाविरहिए ठाणे । देस विरए पमत्ते उवयारेणेव णायध्वं ॥ मुख्य धर्मध्यानमुक्तं तु प्रमादविरहिते स्थाने । देश विरते प्रमत्ते उपचारेवणव ज्ञातव्यम् ।। ३७१ ।। अर्थ- यह धर्मध्यान मुख्यता से प्रमादरहित सातवें गुणस्थान मे होता है तथा देश विरत पांचवे गुणस्थान मे और प्रमत्त संयत छठे गुण स्थान में भी यह धर्मध्यान उपचार से होता है। एसा समझना चाहिये । आगे दूसरे प्रकार से धर्मध्यान का स्वरुप कहते है । वहलक्खण संजुतो अहवा धम्मोति पण्णिओ सुते । चिता जो तस हवं मणिय त धम्मक्षाणुस । वशलक्षणसंयुक्तोऽथया धर्म इति वणित: सूत्रे । चिन्ता या तस्य भवेत् भणितं तबर्मच्यानमिति ।। ३७२ ।। अर्थ- अथवा सिद्धांत सूत्रों में उसमक्षमा आदि दश प्रकार का धर्म वतलाया है उन दशों प्रकार के धर्मों का चितवन करना भी धर्म्यब्रहलाता है। अहया वत्थुसहायो धम्म वस्थ् पुणो न सो अप्पा । झायताण कहिय धम्मशाण मुणिदेहि ॥ अथवा वस्तुस्थभावो धर्मः वस्तु पुनश्च स आत्मा । ध्यायमानाना त कथितं धन्यध्यानं मुनीन्द्रः ॥ ३५३ ॥ अर्थ- वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते है तथा वस्तुओं मे वा पदाथों में मुख्य वस्तु वा मुख्य पदार्थ आत्मा है । इसलिये उस आत्मा का ध्यान करना तथा जिसके शुद्ध स्वरुप का ध्यान करना घHध्यान है। गोमा जिनेंद्रदेव में कहा है। आग इस अHध्यान के दूसरे प्रकार के भेद बतलाते है। तं फुड दुविहं भणियं साल तह पुगो अणालयं । मालनं पंचाहं परमेठीणं सरुवं तु ।। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह तत्स्फुटं द्विविध भणितं सालम्ब तथा पुनः अनालम्बम् । सालम्वं पंचानां परमेष्ठिना स्वरूप तु ।। ३७४ ।। अर्थ- वह धर्म्यध्यान दो प्रकार है एक आलंवन सहित और दूसरा आलंबन रहित । इन दोनों में से पंच परमेष्ठी के स्वरूप का चितवन करना है उसका सालंत्र ध्यान कहते है। आग अनुक्रमम पच परमेष्ठियों का स्वरूप कहते है। हरिरइय समवसरणो अट्ठमहापाडिहेर संजुत्तो । सिकिरणविष्फुरंतो झाघवो अरुहपरमेष्ठी ।। हरिरचितसमवशरणाऽष्ट महाप्रातिहार्य संयुक्तः । सितकारणेन विरपुरन् यसह परमेटी !' ३७५ ।। अर्थ- जो इन्द्र के द्वारा बनाये हुए समवसरण में विराजमान है तथा आठ महा प्रतिहार्यों से सुशोभित है और जो अपनी प्रभाकी श्वेत किरणों से देदीप्यपान हो रहें है ऐम भगवान जिनेंद्रदेव को अरहंत परमेंष्ठी का ध्यान करना चाहिये । गठ्ठट्ठ कम्मबंधो अट्ठगुणट्ठो य लोयसिहरस्थो । सुद्धो णिच्यो सुहमो सायन्यो सिद्ध परमेष्ठी ।। नष्टाष्ट कर्यबन्धोऽष्ट गुणस्थश्च लोक शिखरस्थः । शुबो नित्यः सूक्ष्म; ध्यातव्यः सिद्धपरमेष्ठो ॥ ३७६ ।। अर्थ- जिन के आठों कर्म सर्वथा नष्ट हो गये है, जो सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सुशोभित है, लोक शिखर पर विराजमान है, जिनका आत्मा अत्यंत शुद्ध है, नित्य , और सूक्ष्म है एसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये ।। छत्तीस गुणसमग्गो णिच्चं आयरइ पंच आयारो ! सिस्साणुग्गह कुसलो भणिओ सो सूरिपरमेट्ठी ॥ षत्रियागुणसमनः नित्यं आचरति पंचाचारम् । शिष्यानुग्रहकुशलः भणितः स प्रिपरमेष्ठी ।। ३७७ । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ- जो छत्तीस गुणों से सुशोभित हो जो जाना वार, दर्शना-- चार, चारित्राचार, वीर्याचार, लष आचार इन पांचों आचारों का प्रति दिन पालन करते है तथा जो शिष्यों के अनुग्रह करने में अत्यंत कुशल होते है उनको आचार्य परमेष्ठी कहते है। १.- बारह तप, दश धर्म, पान आचार, छह आवश्यक तीन गुप्ति यं छत्तीस गुण आचार्य परमेष्ठी के है । अथवा आचार्य परमेष्टी के ये भी उनीस गुण है। पंचाचार * पालन करमा २ आघारबत्त्व ३ व्यवहारिव '४ प्रकारकत्व ५ अपायोपायोपदेशकत्व ६ उत्पीलक ७ अपरिश्राविता ८. निर्वापक ९ नग्नत्व १० उद्देशिकाहारत्यागत्व ११ शय्याध राशनविबजितवृत्तिता १२ राजपिडग्रह्णविजितवृत्तिता १३ कृतिकर्मनिरतन्त्र १४ व्रतारोपणयोग्यत्र १५ सर्वज्येष्ठता १६ प्रतिक्रमणपद्विताचार्यता १७ मासकवासिता १८ वार्षिकयोगयुक्तत्व १९ अनशनतपोः युक्तत्व २० अवमौदर्यतपोपुक्तता २१ वृत्तिपरिसंख्यानसहितन्व २२ रसपरित्यागपरिपुष्टता २३ विविक्तशय्यामनतपोयुक्तता २४ कायका तपोयुक्तता २५ प्रायश्चित्ताचार्यता २६ विनयनिरतत्त्व २७ बयावृत्तिसंयुक्ता २४. रवाध्यायधारकता २९ व्युत्सर्गसहितता ३० ध्याननिष्ठता ३१ सा. मायिकमाहितत्व ३२ स्तवननिरतता ३३ बंदनानिरतता ३४ प्रतिक्रमणनिग्नता ३५ प्रत्याख्याननिरतता ३६ कायोत्सर्गसंगन्छ । आचार्य परमेष्ठी के छत्तीस गुण १ पंचाचार गुण- जो दर्शना चार, ज्ञाना चार, चरित्रा चार, तप अचार, और बीर्याचार इन पांचों आचारों को स्वयं पालन करें और अन्य मुनियों से पालन करावें । २ आधारवत्व गुण- जो ग्यारह अंग नौ पूर्व अथवा दश पूर्व अथवा चौदह पूर्व श्रुतज्ञान को जानने वाले वा धारण करने वाले हो । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १७३ परिहार ३ व्यवहारित्व गुण- जो सामायिक, छेदो प्रस्थापना, त्रिशुद्धि: सूक्ष्म मांपराय और यथाख्यात इन पांच प्रकार के चारित्र को पालन करें तथा अन्य मुनियों से पालन करावें । ४ प्रकारकत्व गुण- समाधि मरण धारण करने वाले क्षपक साघु के लिये परिवार का काम करना उनकी परिचर्या करना प्रकारकता गुण है । ५ आपायापायोपदेकत्व गुण- आलोचना करने वाले मुनियों के चित्त में यदि कुछ कुटीलता भी हो तो भी उनके गुण दोष दोनों को प्रकट कर दोषों का स्पष्ट कर लेना । ६ उत्पीलक गुण - जिन मुनियों के हृदय में कुछ कुटिलता हो और उन्होंने अपने अतिचारों को अपने मन में छिपा रक्खा हो उन अतिचारों को भी अपनी कुशलता से बाहर प्रकट करा लेना । ७ अपरिस्राविता गुण- जिस प्रकार पीया हुआ रस बाहर नहीं निकलता उसी प्रकार किसी क्षपक मुनिने अपनी आलोचना में जो दोष कहे हैं उनको कभी प्रकट नहीं करना | ८ निर्वाचक गुण जो समाधिमरण धारण करने क्षपक साधु, क्षुधा तृषा आदि परीषहों से दुखी हो रहे हो उनके उस दुःख को अनेक प्रकार की कथा सुनाकर दूर करना और इनको समाधिमरण में दृढ करना । २ नग्नत्व गुण सूती ऊनी रेशमी वृक्ष के पत्ते छाल आदि सव प्रकार के वस्त्रों का त्याग कर नग्न वा दिगम्बर अवस्था धारण करना । १० उद्देशिकाहारत्याग गुण- जो उद्देशयुक्त आहार के त्यागी हो एवं अन्य श्रमणों के लिये किये हुए आहार के भी त्यागी हों । ११ शय्याधरासन विवर्जित गुण- जो शय्या पृथ्वी आसन सबके त्यागी हों उनका संस्कार आदि भी न करते हों । १२ राज पिंड ग्रहण विवर्जित गुण- जो राजा मंत्री सेनापति कोतवाल आदि का आहार न ग्रहण करते हों । १३ कृति कर्म निरत गुण- जो छहों आवश्यकों को स्वयं पालन करते हो तथा अन्य मुनियों से कराते हों । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १४ व्रतारोपण योग्य गुण- उद्देशयुक्त आहार का त्याग करने वाले दिगम्बर अवस्था धारण करनेवाले और पज परमेष्ठी की भक्ति करने वाले आचार्य स्वयं व्रत पालन करने और अन्य मुनियों को दीक्षा देकर महावतों को धारण कराने की योग्यता रखना।। १. सर्व ज्येष्ठत्व गुण- जो आर्यिका क्षुल्लक साधु उपाध्याय आदि सब से अधिक श्रेष्ठता धारण करते हों । १६ प्रतिक्रमण पंडीतत्व गण- जो आचार्य मन वचन काय से किसी भी प्रकार का अपराध हो जाने पर उसकी शुद्धि के लिये प्रति क्रमण करने की दक्षता घारण करने वाले हों। १७ मासकवासित्व गुण -- जो मोह और सुख का त्याग करने के लिये किमी भी स्थान पर एक महीने से अधिक न रहते हो। १८ वार्षिक योग युक्तत्व गुण- जीवों की रक्षा के लिय वर्षा ऋतु में चार महीने तक एक ही स्थान पर रहना। १९ अनगन तपोयुक्तता मुण - इन्द्रियों को जीतने के लिये चारों प्रकार के आधार का त्याग कर उपवास धारण करना । २० अवमोदर्य तपोयुक्तता गुण- प्रमाद दूर करने के लिये वत्तीस ग्रास न लेकर दो चार दश आदि ग्रास हो लेकर अल्प आहार लेना । २१ वृत्ति परिसंस्यान गुण- आशा का त्याग करने के लिये किसी धर का अन्न आदि का संकल्प कर ( यदि ऐसा घर होगा वा ऐसा दाता होगा या एसा अन्न होगा तो आहार लूंगा नहीं तो ऐसा मंका कर आहार के लिये निकलना । २२ रसपरि त्याग- दूध दही घी मीठा आदी रसों का त्याग करना । २३ विविक्तशय्यासन तप- जन्तुओं से रहित, स्त्रियों से रहित' मनमें विकार उत्पन्न करने वाले कारणों से रहित गुफा सूना घर आदि एकान स्थान मे शय्या आसन आदि धारण करना । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात्र-संग्रह १७५ २४ काय क्लेशत्व गुण - ग्रीष्म ऋतु में पर्वत पर जाई के दिनों में वन में वा नदी के किनारे, वर्षा मे वृक्ष के नीचे ध्यान धारण कर सुख की मात्रा दूर करने के लिये शरीर को कष्ट पहुंचाना । २५ प्रायश्चित्ताचारत्त्व गुण - लगे हुए दोषों को शोधन करने के लिये प्रायश्चित्त लेना और व्रतों को शुद्ध रखना । २६ विनय निरतत्त्व गुण - सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को धारण कर उनका विनय करना उपचार विनय करना रत्नत्रयको धारण करने वालों का विनय करना । २७ वैयावृत्तित्व गुण - आचार्य उपाध्याय साधु आदि दश प्रकार के मुनियों की शरीर जन्य पीडा को दूर करने के लिये उनकी सेवा सुश्रुषा करना | २८ स्वाध्याय धारकत्वगुण-वाचना, पृच्छना अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के द्वारा जिनागमका स्वाध्याय करना । २९ व्युत्सत्व गुण - वाह्याभ्यंतर परिग्रहो का त्याग करना' गुप्तियों का पालन करना । ३० ध्यान निष्ठत्व गुण- • आर्त रौद्र दोनों व्यानों का त्याग कर धर्म्यध्यान वा शुक्लध्यान को धारण करना । ६. ३१ सामायिकत्व गुण - रागद्वेष को दूर करने के लिये छह प्रकार का सामायिक करना | ३२ स्तव निरतत्त्व गुण- प्रति दिन चौबीस तीर्थकरों की स्तुति करना । ३३ वंदना निरतत्त्व गुण- किसी एक तीर्थंकर की स्तुति करना ३४ प्रतिक्रमण निरतत्त्व गुण - ईयापथ शुद्धि के लिये प्रतिक्रमण करना | देवसिक प्रतिक्रमण करना पाक्षिक मासिक चातुर्मासिक वार्षिक प्रतिक्रमण करना | ३५ प्रत्याख्यान निरतत्त्वं गुण- पूर्वोपार्जित क मोंको नावश करने Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्रह को, उदय में आये हुए कर्मों का नाश करने के लिय समम्त विकारों का त्याग करना। ३६ कायोत्सर्ग संगतत्व गुण- निद्रा तंद्रा आदि दूर करने के लिय स्वग्डासन से योग धारण कर शरीर से ममत्व का त्याग करना , अज्झावयगुण ज भो धम्मोवदेसयारि चरियट्ठो। हिस्सेसागम कुसलो परमेटठी पाठओ माओ ।। अध्यापनगुणयुक्तो धर्मोपदेशकारो चर्यास्थः । निःशेषागमकुशल: परमेष्ठी पाठको ध्येयः :। ३७८ ।। अर्थ- जो मुनि अध्यापन कार्य मे शिष्यों को पढ़ाने में अत्यंत निपुण है जो सदा काल धर्मोपदेश देते रहते है जो अपने चारित्र में स्थिर रहते हैं और जो समस्त आगम में कुशल होते है अथवा जो द्वादशांग के पाठी होते हैं उनको उपाध्याय परमेष्ठी कहते है, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये। उगतवतधिय गत्तो तियाल जोएण गमिय अहरत्तो । साहिन मोक्खस्स पओ माओ सो साहु परमेट्ठी ॥ उग्नतपस्तपितगात्रः त्रिकालयोगेन गमिताहोरात्रः । साधितमोक्षपदः ध्येयः स साधुपरमेष्ठी ।। ३७९ ।' अर्थ- जो प्रतिदिन तीव्र तपश्चरण करते है प्रतिदिन त्रिकाल पांग धारण करते है और सदा काल मोक्ष मार्ग को सिद्ध करते रहते हैं उनको साधु परमेष्ठी कहते है । ऐसे साधु परमेष्ठी ध्यान करने योग्य आग इन के ध्यान करने का फल कहते है । एवं तं सालवं धम्ममाण होइ नियमेण । झायंताणं जायइ पिणिज्जरा असुहकम्माणं । आचार्य परमेष्ठी अपने शिष्यों को प्रायश्चित्त देकर उनके प्रतों को निदोष कहते है यह शिष्यों का सब से बड़ा उपकार है। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह एवं तत्सालम्वं धर्मध्यानं भवति नियमेन । आयमानानां जायते विनिर्जरा अशुभकर्मणाम् ।। ३८० !! अर्थ- आर लिन इन पांचों परमेष्ठियों का ध्यान करना नियम पूर्वक आलंबन सहित धबध्यान कहलाता है। इन पांचों परमेष्ठियों का ध्यान करने में अशभ कमों को विशेष निर्जरा होती है। आगे निरालंब ध्यान के लिये कहते है । जे पुणु वि निराध संहाणं गागाय गुणठाणे । चलेगहस्स जायइ धरियं जिणलिंगरुवस्स ।। यत्पुनरपि निरालम्वं तध्यानं गतप्रमादगणस्थाने । त्यक्त गृहस्य जायते घृजिलिंगपुरुषस्य ।। ३८१ ।। अर्थ- जो गृहस्थ अवस्थाको छोडकर जिनलिंग धारण कर लेता है । अर्थात् दीक्षा लेकर निग्रंथ मुनि हो जाता है और जो मुनि होकर भी अनमन्त नाम के सातवें गुणस्थान मे पहुंच जाता है तब उसीके निरालंब ध्यान होता है । गृहस्थ अवस्था में निरालंब ध्यान कभी नहीं हो सकता । जो भणइ को वि एवं अस्थि मिहत्थाण णिन्धलं नाणं । सुद्धं च णिरालंबं ग मुणइ सो आयमो अइणो ।। यो भणति कोप्येवं अस्ति गृहस्थानां निश्चलं ध्यानम् । शुद्धं । निरालम्वं न मनुते स आगमं यतीनाम् ।। ३८२ ।। अर्थ- यदि कोई पुरुष यह कहै कि गृहस्थों के भी निश्चल, निरा लव और शुद्ध ध्यान होता है तो समझना चाहिये कि इस प्रकार कहने बाला पुरुष मुनियों के शास्त्रा को ही नहीं मानता है। कहियाणि रिठिवाए पजुच्च गुणठाण जाणि माणाणि | तम्हा स देस विरओ मुक्खं धम्म ण झाएई ।। कथितानि दृष्टिवावे प्रतीत्य गुणस्थानानि जानीही ध्यानानि । सस्मात्स देशविरतो मुल्य धर्म न ध्यायति ।। ३८३ ।। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ भाव-संग्रह अनं- दृष्टिबाद नाम के बारहवे अंग मे गुणस्थान को लेकर ही ध्यान का स्वरूप बतलाया है जिससे सिद्ध होता है कि देशबिरती गृहस्थ मुख्य धार्यध्याग का ध्यान नहीं कर सकता। आगे इसका कारण बतलाते है। कि जं सो गिहवंतो बहिरतरगंथपरमिओ पिच्चं । बहु आरंभपउत्तो कह शायइ सुद्धपप्पाणं ।। किं यत् स गहवान् वाह्याभ्यन्तरग्रन्थपरिमितो नित्यम् । वहुवारम्भप्रयुक्तः कथं ध्यायति शुद्धमात्मानम् ।। ३८४ ।। अर्थ- गृहस्थों के मुख्य धर्म्यध्यान न होने का कारण यह है कि गृहस्थों के सदाकाल दाह्य आभ्यंतर परिणः परिमित रूप मे रहते हैं तथा आरंभ भी अनेक प्रकार के बहुत से होते है इसलिय वह शुद्ध आत्मा का ध्यान कभी नहीं कर सकता : घर बाबारा केई करणोया अस्थि ते ण ते सव्ये । झागछियस्स पुरओ चिठ्ठति णिमीलियच्छिस्स | गृह व्यापाराणि कियन्ति करणीयानि सन्ति तेन तानि सर्वाणि | ध्यान स्थितस्य पुरतः तिष्ठन्ति निमोलिताणः ।। ३८५ ।। अर्थ- गृहस्थों को घर के कितने ही व्यापार करने पडले हैं। जब व, गहस्थ अपने नेत्रों को बंद कर ध्यान करने बैठता है तब उसके सामने घर के करने योग्य सब व्यापार आ जाते हैं। अह ढिकुंलियां नाणं झायइ अहया स सोथए झाणी । सोचतो मारवं ण ठाइ चित्तम्मि वियलम्मि ॥ अथ विकुलिक ध्यानं ध्यायप्ति अथवा स स्वपिति ध्यानो । स्वपसः ध्यातम्मन तिष्ठति चिसे विकले ।। ३८६ ।। अर्थ - जो कई गहस्थ शुद्ध आत्मा का ध्यान नरना चाहता है तो जसका वह ध्यान ढेकी के समान होता है | जिस प्रकार ढेकी धान कुटने मे लगी रहती है परंतु उससे उसका कोई लाभ नहीं होता उसको Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह तो परिश्रण मात्र ही होता है इसी प्रकार गृहस्थों का निरालंब ध्यान श्री शुद्ध आस्मा का ध्यान परिश्रम मात्र होता है । अथवा शुद्ध आत्मा का ध्यान करने वाला वह गृहस्थ उस ध्यान के बहाने सो जाता है । जब वह सो जाता है तब उसके व्याकुल चित्त में वह ध्यान करने योग्य शुद्ध आत्मा कभी नहीं ठहर सकता इस प्रकार किसी भी गृहस्य के शुद्ध आत्मा का निश्चल ध्यान कभी नहीं हो सकता । झाणाणं संताणं अहूबा जाएइ तस्स क्षाणस्स आलंदण रहियत य ण ठाइ चित्तं थिरं जम्हा || ध्यानाना सन्तानं अथवा जायते तस्य ध्यानस्य । आलम्बन रहितस्य च न तिष्ठति चितं स्थिरं यस्मात् ||३८७|| १७९ अर्थ - अथवा यदि वह सोता नहीं तो उसके ध्यानों की संतानरुप परंपरा चलती रहती है। इसका भी कारण यह है कि निरालंच ध्यान करनेवाले गृहस्थ का चित्त कभी भी स्थिर नहीं रह सकता । भावार्थगृहस्थ का चित्त स्थिर नहीं रहता इसलिये उसके निरालंब ध्यान कभी नहीं हो सकता । यदि वह गृहस्थ निरालंब ध्यान करने का प्रयत्न करता है तो निरालंब ध्यान तो नहीं होता परंतु किसी भी ध्यान की संतान परंपरा चलती रहती है । अब आगे गृहस्थों के करने योग्य ध्यान बतलाते हैं । तम्हा सो सालंबं झायज झाणं पि गिवई णिच्चं । पंच परमेट्ठिरूवं अहवा मंतक्खर तेसि || तस्मात् स सालम्वं ध्यायतु ध्यानमपि गृहपतिनित्यम् । पंच परमेष्ठिरुपमथवा मंत्राक्षरं तेषाम् ।। ३८८ ।। अर्थ - इसलिये गृहस्थों को सदा काल आलंबन सहित ध्यान धारण करना चाहिये । या तो उसे पंच परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिये अथवा पंच परमेष्ठी के वाचक मंत्रों का ध्यान करना चाहिये । जय मणइ को वि एवं मित्राबारेसु बट्टमाणो वि । पुणे अम्हण कज्जं जं संसारे सुवाई | Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह यदि भणति कोप्पेवं गृहन्यापारेषु वर्तमानोऽपि । पुण्येनास्माकं न कायं यत्संसारे सुपात्यति ।। ३८९ ।। अर्थ--कदाचित् कोई गृहम्थ बह कहे किं. यद्यपि हम गृहस्थ व्यापारों में लगे रहते हैं तथापि हमे लावलंब ध्यान कर पुण्य उपाजन करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि पुण्य उपार्जन करने को भी तो इस जीव को मंसार में ही पडना पडगा । ऐसा कहने वाले के लिये आवाय उत्तर देते हैं। मेहुणसण्णारूढो मार गवलक्ख सुहम जीवांई । इय जिणवरेहि भणियं बझंतरणिपाथरूकेहि । मैथुनसंज्ञारूढो मारयति नवलक्षयसूक्ष्म जीवान् । एतज्जिनवरैः भणितं वाह्याभ्यन्तरनिन्थरूप: ।। ३९० ।। अर्थ- आचार्य कहते हैं कि देखो जो पुरुष मंजुन संज्ञा को धारण करता है अपनी स्त्री का गबन करता है वह गुहस्थ नौ लाग्न सूक्ष्म जीवों का घात करता है । ऐसा बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित भगवान् जिनेंद्रदेवने कहा है। इसके सिवाय गेहे बदतस्स य वावारसयाई सया कुणंतस्स । आसबइ कम्म मसुहं अब रउद्दे पयत्तस्स ॥ गेहे वर्तमानम्य च व्यापारघातानि सदा कुवंतः । आत्रवति कर्भाशुभं भातरोगप्रवृत्तस्य ॥ ३९१ ।। अर्थ- जो पुरुष घरमें रहता है और सदाकाल गृहस्थी के मैकड़ों व्यापार करता रहता है वह आतध्यान और रोद्रध्यान में भी अपनी प्रवृत्ति करता रहता हैं इसलिये उसके सदा काल अशुभ कर्मों का ही आम्रव होता रहता है। अइ गिरिणई तलाए अणवरयं पयिसए सलिल परिपुण्णं । मण वयतणु जोएहि पविस असुहेहि तह पाबं || यथा गिरिनदी तलागेऽनपरतं प्रविशति सलिलपरिपूर्णे । मनवचनतनुयोगः प्रविशति अशुभैः तया पापम् ॥ ३९२ ।। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १८१ अर्थ- जिस प्रकार किसी पर्वत में निकलती हुई नदी का पानी किमो जल म भरे हुए तालाब मे निरंतर पड़ता रहता है उसी प्रकार गम्धी के व्यापार में लगे हुए पुरुष के अशुभ मन बचन काय इन तीनों अशुभ योगों द्वारा निरंतर पाप कार्यों का आस्रव होता है। इसलिच एसे गृहस्थों के लिये आचार्य उपदेश देत है-- जाम ण छंद गेहं ताम ण परिहरइ इंतयं पात्र । पावं अपरितो हेओ पुण्णस्स या चयउ ।। यावन्न त्यजति गृहं तावन्न परिहरति एतत्पापम् । पापम परिहरन हेतुं पुण्यस्य मा त्यजतु ।। ३९३ ।। अर्थ- इस प्रकार यं गृहस्थ लोग जब तक घर का त्याग नहीं करते गृहस्थ धर्म को छोड कर मुनि धर्भ धारण नहीं करते तब तक उनसे ये पाप छट नहीं सकते । इसलिये जो गहस्थ पापों को नहीं छोड़ ना चाहते उनको कम से कम पुण्य के कारणों को तो नहीं छोडना चाहिये । भावार्थ-गृहस्थों को सदा काल पाप कर्मों में ही नहीं लगे रहना चाहिये किंतु साथ में जितना कर सके उतना पुण्य कर्मों का भी उपार्जन करते रहना चाहिये । तथा पुण्य उपार्जन करने के लिये सावलंबन घ्यान वा भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा अथवा सुपात्र दान देते रहना चाहिये । आगे आचाय फिर भी कहते है। सा मुक्क पुण्णहेउं पावस्सासवं अपरिहरतो य । पजाइ ऊवेण णरो सो दुग्गइ जाड मरिउणं ।। मा स्यजपुण्य हेतुं पापस्यात्रवं मपरिहरंबच । वध्यते पापेन नरः सदुर्गति याति मृत्वा ।। ३९४ ।। अर्थ- जो गृहस्थ पाप रुप आस्रवों का त्याग नहीं कर सकते अर्थात् गृहस्थ धर्म छोड नही सकते उनको पुण्य के कारणों का त्याग कभी नहीं करना चाहिये । क्योंकि जी मनुष्य सदाकाल पापों का बंध करता रहता है वह मनुष्य मर कर करकादिक दुर्गति को ही प्राप्त होता है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ भाव-सग्रह आगे कैसा पुरुष पुण्य के कारणों का त्याग कर सकता है सा कहते है। पुण्णस्स कारणाई परिप्तो परिहरउ जेण णियचि नं ! विसय कसाय पउक्त णिाि हयपमाएण || पुण्यस्य कारणानि पुरुषः परिहरतु यंन निजचित्तम् । विषकषायप्रयुक्त निगृहीतं हतप्रमादेन । ३९५ ।। अर्थ- जिस पुष्य ने अपने समस्त प्रमाद नष्ट कर दिये है तथा इन्द्रियों के विषय और कयाय में लगे हुए अपने चित्तको जिमने मर्वथा अपने वशमें कर लिया है ऐसा पुरुष अपने पुण्य के कारणों का त्याग कर सकता है । भावार्थ- पुण्य के कारणों का त्याग मातवे गुणस्थान में होता है । इस से पहले नहीं होता इसलिये गृहस्थों को तो पुण्य के कार कभी नहीं छोड़ने चाहिये । आगे यही बात दिखलाते है। गिहवावारत्तो गहियं जिसिंग रहियपसपाओ। पुण्णस्स कारणाई परिहरज सया वि सो पुरिसो ।। गृहव्यापारविरक्तो गहीतजिलिंगः रहितस्वप्रमादः । पुण्यस्य कारणानि परिहरतु सदापि स पुरुषः ।। ३९६ ।। अर्थ- जिस पुरुष ने गृहस्थ के समस्त व्यापारों का त्याग कर दिया है जिसने भगवान जिनेन्द्र देव का निग्रंथ लिंग धारण कर लिया है तथा निग्रंथ लिंग धारण करने के अनंतर जिसने अपने समस्त प्रमादों का त्याग कर दिया है । ऐसे पुरुष को ही सदा के लिये पुण्य के कारणों का त्याग करना इनित है, अन्यथा नहीं | भावार्थ-प्रमादों का त्याग सातवे गुणस्थान में होता है । सातवे गुणस्थान मे ही वे मुनि उपशम श्रेणी में अथवा क्षपक चहते है । उपशम श्रेणी में कर्मों का उपशम होता रहता है । और क्षपक श्रेणी में कर्मों का क्षय होता रहता है । इसलियं वहांपर पुण्य के कारण अपने आप छूट जाते है । गृहस्थों को पुण्य के कारण कभी नहीं छोडने चाहिये । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र गंग्रह सशुहस्स कारणेहि थ कम्म छकेहि णिच्चं वट्टतो । पुण्णस्स कारणाई बंधस्स भयंण णिच्छंतो ।। अशभस्य कारणे च कर्मषट्के नित्यं वर्तमानः । गुण्यस्य कारणानि बंधस्य भयेन नेच्छन् ॥ ३९७ ।। ण मुणइ इय जो पुरिसो जिण कहिय पयस्थ णवसरूवं तु । अप्पाणं सुयण मझे हासस्स य ठाणयं कुणइ ॥ न मनुने एहत् स. पुरुषो जिनकथित पदार्थ नवस्वरूपं तु। आत्मानं सुजनमध्ये हास्यस्य च स्थानकं करोति ।। ३९८ ।। अर्थ-- यह गृहस्थ अशुभ कर्मों के आने के कारण ऐसे असिमसि कृषि वाणिज्य आदि छहो कर्मों में लगा रहता है अर्थात् इन छहों कर्मों के द्वारा सदा काल अशुभ कर्मो का आस्रव करता रहता है तथापि जों केवल कर्मबध के भय से पुण्य के कारणों को करने की इच्छा नहीं करता, कहना चाहिये कि वह पुरुष भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए नो पदार्थों के स्वरूप को भी नहीं मानता, तथा वह पुरुष अपने को सज्जन पुरुषों के मध्य में हंसी का स्थान बनाता है । भावार्थ- वह हंसी का पात्र होता है। इसलिये किसी भी गृहस्थ को पुण्य के कारणों का त्याग कभी नहीं करना चाहिये । आग पुण्य के भंद बतलाते है - पुण्णं पुवायरिया दुविहं अक्खंति सुत्तउत्तीए । मिच्छ पउत्तेण क्रयं विवरियं सम्म जुत्तेण ।। पुण्यं पूर्वाचार्या विविध कथयन्ति सूत्रोक्त्या । मिथ्यात्व प्रयुक्तेन कृतं विपरीतं सम्यकत्वयुक्तेन ॥ ३९९ ॥ अर्थ- पूर्वाचार्यों ने अपने सिद्धांत सूत्रों के अनुसार उस पुण्य के दो भेद बतलाये है । एक तो मिथ्यादृष्टी पुरूष के द्वारा किया हुआ पुण्य और दूसरा इसके विपरीत सम्पग्दृष्टी के द्वारा किया हुआ पुण्य । ___ आगे मिथ्यादृष्टी के द्वारा किये हुए पुण्य को और उसके फल को बतलाते है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह मिच्छाविट्ठोपुण्णं फलइ कुदेयेसु कुणर तिएि सु । कुच्छिय भोग घरासु य कुच्छ्यि पत्तस्स दाणेण ।। मिसावृष्टिपुण्यं फलति कुदेवेषु कुनरतिर्यक्षु । कुत्सित भोगधरासु च कुत्सित पात्रस्थ दानेन :) ४०० ॥ अर्थ- मिथ्या दष्टो पुरुष प्रायः कृत्सित पात्रों को दान देता है इसलिये वह पुरुष उस कृत्सित दान के फल से कुदेवों में उत्पन्न होता है, कुमनुष्यों में उत्पन्न होता है, वोचे तिर्यंचों में उत्पन्न होता है, और कुभोग भूमियों में उत्पन्न होता है । जद वि सुजाय वीयं ववसाय पउत्तओ बिजइ फसओ । कुच्छिय खेत्ते ण फलइ तं वोय जह तहा दाणं । यद्यपि सुजातं योजं व्यवसायप्रयुक्तो बपति कृषकः । कुत्सित क्षेत्रे न फलति तदीजं यता तथा दानम् ॥ ४०१ ।। अर्थ- यद्यपि किसान किसी उत्तम जाति के बीज को विधिपूर्वक (भूमि को अच्छी तरह जीत कर ) बोता है तथापि कुत्सित खेत में बोने से उस पर फल नहीं लगते इसी प्रकार कुत्सित पात्रों को दान देने से उसका कुछ भी फल नहीं मिलता है। जइ फलइ कह वि दाणं कुच्छिय जाईहिं कुच्छिय सरोरं । कुच्छिय भोए बाउं पुणरवि पाडेइ संसारे । यदि फलति कथमपि वान कुत्सित नातिषु कुत्सितशरीरम् । कुत्सित भोगान् वत्वा पुनरपि पातयति संसारे ।। ४०२ ।। अर्थ- यदि किसी प्रकार कुत्सित पात्रों को दिये हुए दान का फल मिलता भी है तो कुत्सित जाति मे उत्पन्न होना, कुत्सित शरीर धारण करना और कुत्सित मोगोपभोगों का प्राप्त होना आदि कुत्सित रूप ही फल मिलता है तथा कुत्सित पात्रों को दिया हुआ वह दान जीवको चतुर्गसि रूप इस संसार में ही परिभ्रमण करता रहता है । संसार चक्कयाले परिम्ममतो हु जोणि लमखाई। पावइ विविहे दुखे विरयंतो विविह कम्माई ।। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारसग्रह संसार चक्रवाले परिभ्रमन् हि योनिलक्षाणि । प्राप्नोति विविधान दुःखाग विरचयन् विविधकर्माणि ।। ४०३।। -- कुपात्रों को दान देने वाला पुरुष त्रौरासी लाख योनियों में र हुए इस संसार चक्र में परिभ्रमण करता हुआ अनेक प्रकार के वार्मों का उपार्जन करता रहता है और उन अशुभ कर्मों के फल से अनेक प्रकार के दुःखों को नोगता रहता है । इस प्रकार मिथ्य दृष्टियों के द्वारा विय हुए गुण्य का स्वरुप और उसका फल कहा। अब आगे सम्यग्दृष्टि के द्वारा किये हुए गुण्य का फल बतलाते हैं। सम्मादिदो गुज म होइ संसार कारणं णियमा | मोक्खस्स होइ हेउं जइ बि पियाणं गा सो कुणइ ।। सम्सम्वृष्टेः पुण्यं न भवति संसारकारणं नियसमात् । मोक्षस्य भवति हेतु: यदि च निवानं न स करोति ।। ४०४ ।। अर्थ- सम्यग्दृष्टी के द्वारा किया हुआ पुण्य संसार का कारण कमी नहीं होता यह नियम है । यदि सम्यग्दृष्टी पुरुष के द्वारा किये हए पुण्य में निदान न किया जाय तो वह पुष्य नियम से मोक्ष का ही कारण होता है। भावार्थ- कोई भी पुण्य कार्य कर उससे आगामो काल के भोगो की इच्छा करना या और कुछ चाहना निदान है, निदान नरक का कारण है । इसलिये उत्तम पुरुषों को मिदान कभी नहीं करना चाहिये। अकइयणियाणसम्मो पुष्णं काऊण पाणचरमट्ठो । उप्पाज्जइ दिनलोए सुहपरिणामो सुलेसो वि ।। अकृतनिदान सम्यग्दृष्टिः पुण्यं कृत्वा शामवरणस्थः । उत्पद्यते विवि लोके शुभपरिणामः सुलेश्योप ।। ४०५ ।। अर्थ- जिस सम्यग्दृष्टी पुरुष के शुभ परिणाम है, शुभ लेश्याएं हैं तथा जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को सारण करता है, ऐसा अभ्यग्दृष्टी पुरूष यदि निदान नहीं करता है तो वह पुरूष मरकर स्वर्ग लोक में ही उत्पन्न होता है । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अंतरमहुत्तमज्ये देहं चऊण माणसं कुणिमं । गिरहद्द उत्तमदेहं सुचरिय कम्माणु भावेण अन्तर्मुहुर्तमध्ये देह त्यक्त्वा मानुषं कुणिमम् । गृह्णाति उसमें देह सुचरितकर्मानुभावेन ।। ४०६ ।। अर्थ- ऊपर लिखा हुआ सम्यग्दृष्टी पुरुष अपने पुण्य कार्य के प्रभाव से इस घृणित मनुष्य शरीर का त्याग कर अंतर्मुहूर्त में ही स्वर्ग में जाकर उत्तम शरीर प्राप्त कर लेता है । चम्मं रुहिर मंसं मेज्जा आठ च तह बसा सुत्रकं । सिम्मं पित्तं अंतं मृत्तपुरौस व रोमाणि || चर्म रुधिर मांसं मेदोऽस्य व तथा वतां शुक्रम् । श्लेष्म पित्तं अत्रं मत्रं पुरीषं च रोमाणि ॥ ४०७ ।। अहं दंत सिरहा साली सेड्यं च मनिस आलास | गिद्दा तव्हा य जरा अंगे देवरण ण हि अस्थि || भाव-संग्रह नल दंत शिरानालालाः स्वेदकं च निमेषं आलस्यम् । निद्रा तंद्रा च जरा अंगे देवानां न हि सन्ति ॥ ४०८ ॥ अर्थ- चर्म ( चमडा ) रूधि, मांस, मेदा, हड्डी, चर्बी, शुक्र, (बी) कफ, पित्त, आंतें मल, मूत्र, रोम, नख, दांत, शिरा (नाडी नये । नाम, लार, परीना, नेत्रों को टिमिकार, आलस्य, निद्रा, तंद्रा और बुढ़ापा ये सब देवों के शरीर में कभी नहीं होते । सुइ अमलो वरवण्णो देहो सुह फास गंधसंपण्णो । वाल रवि तेयसरिसो चारुरूयो सदा तरुणो || शुचिः अमलो बरवर्णः देह: शुभस्पर्शयसम्पन्नः वालरवितेजः समृश: चारुस्वरुपः सदा तरुणः ।। ४०९ ।। अणिमा महिमा लहिमा पावइ पागम्स त य ईसत्तं । सयत कामरूवं एसियाई गुणो हि संजुतो ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १८७ अणिमा महिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं तथा चेशित्वम् । वशित्वं कामरूपं एतैः गुणैः संयुक्तः ॥ ४१० ॥ देवाय होय होणराण संपुष्णो । सहजाह्रण णिउतो अइरम्मो होइ पुणेण ।। देवाना भवति देहोऽत्युत्तमेन पुग्दलेन सम्पूर्णः । सहजा मरणनियुक्तोऽतिरम्योभवति पुण्येन || ४११ ॥ I अर्थ- देवों का शरीर पुण्य कर्म के उदय से अत्यंत पवित्र होता है, अत्यंत निर्मल होता है, अत्यंत सुंदर वर्ग होता है. उनके शरीर का स्पर्श गंध अत्यंत शुभ होता है, उगते हुए सूर्य के तेज के समान उनका तेज होता है, उनका शरीर अत्यंत सुंदर और सदा काल तरूण अवस्था को धारण करता है, अणिमा महिमा लघिमा प्राप्ति प्राकाम्य ईशत्व वशित्व कामरूप इन आठों गुगों से सुशोभित रहता है । अत्यंत उत्तम पुद्गलों से बना होता है । सब प्रकार से पूर्ण होता है । अत्यंत मनोहर होता है और अपनी स्थिती के अनुसार नियत समय पर हृदय से उत्पन्न हुए अमृत से परिपुष्ट होता है । देवों को ऐसा उत्तम शरीर पुण्य कर्म के उदय से ही प्राप्त होता है । ऊपर जो अणिमा महिमा आदि देवों के, शरीर के गुण बतलाये है उनका अर्थ इस प्रकार है। छोटे से छोटे शरीर को बना लेने की शक्ति होना अणिमा है, मेरु पर्वत से भी बड़ा शरीर बनाने की शक्ति होना महिमा है, वायु से भी हलका दारीर बनाने की शक्ति होना लघिमा है. पृथ्वी पर ठहर कर भी अपनी जंगली के अग्रभाग से मेरु पर्वत के शिखर को भी स्पर्श करने की शक्ति होना प्राप्ति है, जल में भूमि के समान गमन करने की शक्ति होना तथा भूमि मे जल के समान डूबना उछलना आदि की शक्ति होना प्राकाम्य हैं, तीनों लोकों की प्रभुता प्राप्त कर लेने की शक्ति होना ईशित्व है. समस्त जीवों को वश करने की शक्ति होना वशित्व है, तथा एक साथ अनेक रूप धारण कर लेने की अनेक शरीर बना लेने की शक्ति होना कामरूपत्व है । इस प्रकार देवों के शरीर में आठ ऋदियां होती है । :: उप्पण्णी कणयभए कायक्कतिहि भासिये भवणे : पेच्छतो रयणमयं पासायं कर्णय दितिल्लं ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ उत्पन्नः कनकमये कायकान्तिभिः भासिते भवने । पश्यन् रत्नमयं प्रासादं कनक दीप्तिम् ॥ ४१२ ॥ भाव - संग्रह अर्थ - इस प्रकार अपने पुण्य कर्म के उदय से वह जीव स्वर्ग ने अपने शरीर की कांति से सुशोभित होने वाले सुवर्णमय भवन में बहु देव उत्पन्न होता है। वहां पर वह सुवर्ण की कांति मे सुशोभित रत्नमय भवनों को देखता है । अणुकूलं परियणयं तरलियगयगं च अच्क्रराणिवह । मिच्छतो गमिय सिरं सिर कइय करंजली देवे || अनुकूलं परिजनकं तरलितनयनं च अप्सरोनिवहम् । पश्यन् नमित शीर्षान् शिरः कृतकरांजलीन् देवान् । ४१३ ।। अर्थ- वहां पर वह अपने परिजनों को अपने अनुपुल देखता है, जिनके सुंदर नेत्र अत्यंत चंचल है, ऐसी अप्सराओं के समूह के देखता है तथा जिन के मस्तक नभीभूत हो रहे है और जिन्होंने अपने हाथ जोड कर अपने मस्तक पर रख लिये है ऐसे देवों को देखता है । णिसुणंतो यो तसए सुर वर सत्येणविरइए ललिए । तुं गुरु गाइयगीए वीणासद्देण सुद्दमुहए || निःश्रृण्वन् स्तोत्रशतान् सुर वर सार्थेन विरचितान् ललितान् । तुम्बुरु गीतगीतान् वीणा शङ्खेन श्रुति सुखदान ।। ४१४ ।। अर्थ- इसके सिवाय यह उत्पन्न हुआ देव अनेक उत्तम देवों के द्वारा बनाये हुए सैकड़ों सुंदर स्तोत्रों को सुनता है तथा कानों को सुख देने बाले और तुंबर जाति के देवों के द्वारा बीणा के साथ गाये हुए गीतों को सुनता है । चितs किं एव मज्जन पत्तं इमं पि किं जायं । कि ओ लग्गइ एसो अमरगणो विण्य संपण्णो || चिन्तयति किमेतावत् समप्रभुत्वं इदमपि कि आतम् । किमुत लगति एषः सगणः विनयसम्पन्नः || ४१५ ।। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १८९ अर्थ- तदनंतर वह उत्पन्न हुआ देव अपने मन में चितवन करता कि क्या यह सब मेरा प्रभुत्व है अथवा यह सब क्या है ? अथवा ऐसा मालूम होता है कि विनय को धारण करने वाले ये सब देव गण है । कोहं इह कसावोकेण विहाणेण इयं गहं पत्तो । विओ को उगतबो केरिसियं संजमं विहियं ॥ कोई इह प्राप्तः । तति किमुतपः कीदृशं संयमं विहितम् ।। ४१६ ।। ? अर्थ - तदनंतर वह देव फिर चितवन करता है कि मं कौन हूं मैं इस भवन में क्यों आ गया और किस प्रकार आ गया । मैंने ऐसा कौनसा उग्र तपश्चरण धारण किया था अथवा कौनसा संयम पालन किया था जिससे कि मैं यहां आकर उत्पन्न हुआ हूँ । कि दाणं मे दिष्णो केरिसपत्ताण काय सु भत्तीए । जेणाहं कयपुरण्णो उप्पण्णो देवलोयम्मि || किं दानं मया वत्तंकीवृश पात्राणं क्या सुभक्त्या । येनाहं कृतपुण्य उत्पन्नो देवलोके ॥ ४१७ ।। अर्थ- वह देव फिर भी चितवन करता है कि क्या मैंने पहले भवमें दान दिया था और दान भी दिया था तो कैसे पात्रको दिया था और किस उत्तम भक्ति से दिया था। जिससे मैं उपार्जन कर इस देव लोक में आकर उत्पन्न हुआ हूं । पुण्य इम चिततो पसरइ ओहीणाणं तु भवसहावेण ! जाणइ सो आइयभव विहियं धम्मप्पहावं च | इति चिन्तयन् प्रसारयति अवधिज्ञानं तु भवस्वभावेन । जानाति स अतीत सवं विहितं धर्मप्रभावं च ॥ ४१८ ।। अर्थ - इस प्रकार चितवन करता हुआ वह देव अपने साथ उत्पन्न हुए भवप्रत्यय अवधि ज्ञान को फैलाता है और उस अवधि ज्ञान से वह अपने पहले भवको जान लेता है तथा पहले भवमे उसने जो धर्म प्रभा Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रन वना की थी जिससे कि वह देव हुआ था, उसको भी जान लेता है। पुणरवि तमेव धम्म मणसा सद्दहइ सम्मदिट्ठी सो । वंदेइ जिणावराणं गंदिसर पहुइ सच्याई ।। पुनापि तमेव धर्म मनसा श्रद्दधाति सम्यग्दृष्टिः सः । वन्दते जिनवरान् नन्दीश्वरप्रतिसर्वान् ।! ४१९ !। अर्थ- तदनंतर बह सम्यग्दृटी देव फिर भी अपने मन में उसी धर्म का श्रद्धान करता है और पंच मेरु नंदीश्वरद्वीप आदि वो अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करता है, उनमें विराजमान जिन प्रतिमाओं को वंदना करना और विदेह क्षेत्र के जिनेन्द्र देव की भी वंदना करता है। इह बहुकालं सगे भोगं भुजंतु विविह रमणीयं । चइऊण आउस खए उष्यज्जइ मच्च लोयम्मि ।। इति बहुकालं स्वर्ग भोगं भुंजान: विविधरमणीयम् । च्यत्वा आयु: क्षये उत्पद्यते मर्त्यलोके ।। ४२० ।। अर्थ- इस प्रकार वह जीव स्वर्ग से जाकर वहत काल तक अनेक प्रकार के सुन्दर भोगों का अनुभव करता है । तदनंतर आयु पूर्ण होने पर वहां से च्युत होता है और इस मनुष्य लोक मे आकर जन्म लेता उत्तम कुले महंतो वहुजण णमणीय सपयापउरे । होऊण अहियरुबो बल जोवण रिद्धिसंपुष्णो ।। उत्तम कुले महति बहुजन नमनीय सम्पदाप्रचुरे । भूत्वा अधिकरूपः कल यौवनधिसम्पूर्णः ।। ४२१ ।। अर्ध- मनुष्य लोक में भी आकर वह बहुत महत्व शाली उत्तम कुल में उत्पन्न होता है तथा एसे कुल में उत्पन्न होता है जिसको बहुत म लोग मानते है नमस्कार करते है और जिसमे बहुतसी संपदा होती है । एसो, सिवाय उसका बहुत सुन्दर रुप होता है और वह बल ऋद्धि योनम आदि से परिपूर्ण होता है । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ____ १९१ तत्यवि विविहे भोए परखेतभवे अणोवमे परमे । भुज्जिता णिविण्णो संजमयं तेव गिण्हेई ।। तोपि विविधान् भोगान् नरक्षेत्र भवाननुपमान् परमान् । भुक्त्वा निविष्णः संयमं चैव गृह्याति ॥ ४२२ ॥ अर्थ- उस मनुष्य लोक में भी उत्पन्न होकर वह जीव मनुष्य क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले सर्वोत्कृष्ट अनुभव नशा अनेक प्रकार के भोगों का अनुपम करता है और फिर संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर संयम धारण कर लेता है। लद्धं जइ चरम तणु चिरकय पुग्णण सिझए णियमा । पाविय केवल णागं जह खाइय संजम सुद्धं ।। लग्धं यदि चरमतनं चिरकृतपुण्येन सिद्धयति नियमात् । प्राप्य केवलज्ञानं यथाल्यात संयमं शुद्धम् ।। ४२३ ।। अर्थ- यदि वह जीव अपने चिर काल के संचित किये हुए पुण्य कर्म के उदय से चरम शरीरी हुआ तो वह जीव यथाख्यात नाम के शुद्ध चारित्र को धारण कर तथा केवल ज्ञान को पाकर नियम से सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है । तम्हा सम्मादिट्ठी पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवई । इय पाऊण गिहत्यो पुणं चायरउ असेण ।। तस्मात्सम्यदृष्टः पुण्यं मोक्षस्य काकणं भवति । इति ज्ञात्वा गृहस्थः पुण्यं चार्ययतु यत्नेन ।। ४२४ ।। अर्थ- इस ऊपर लिखे कथन से यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टी का पुण्य मोक्ष कारण होता है यही समझ कर गृहस्थों को यत्नपूर्वक पुण्य का उपार्जन करते रहना चाहिये । आगे पुण्य के कारण बतलाते हैं । पुण्णस कारणं फुट पडम ता हाइ देवपूया य । कायम्बा भत्तोए सावयवग्गेण परमाय ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह पुण्यस्य कारणं स्फुट प्रथमं ला भवति देवपूजा च । कर्तव्या भकत्या श्रावक वर्गण परमया ।। ४२५ ।। अर्थ- पुण्य के कारणों में सबसे प्रथम भगवान् जिनेंद्रदेव की पूजा करना है, इस लिये समस्त श्रावकों को परम भक्ति पूर्वक भगवान जिनेंद्र देव की पूजा करना चाहिये । अब आगे पूजा की विधि कहते है: फासुय जलेण व्हाइय णिवसिय वत्थाइ गपि तं ठाणं । इरियावहं च सोहिय उवविसिय पडिमआसेण ।। प्रासुक जलेन स्नात्वा निवेश्य वस्त्राणि गन्तव्य तत्स्थानम् । ईपिथं च शोधयित्वा उपविश्य प्रतिमासनेन ।। ४२६ ।। अर्थ- पूजा करने वाले गृहत्य को सबसे पहले प्रासुकः जल में म्नान करना चाहिय मुद्ध वस्त्र पहनाना चाहियं फिर पूजा करने के स्सान पर जाना चाहिये तथा जाने समय ईयापथ शुद्धि से जाना चाहिये और वहां जाकर पद्म, सन से बैठना चाहिये । पुजाउवयरणाइ य पासे सण्णिहिय मंतपुब्वेण । ण्हाणेणं व्हाइत्ता आचमणं कुणउ मंतेण ।। १. पद्मासनसमासीना नासाग्रन्यस्तलोचन: । ___ मौनी वस्त्रावृतास्योऽयं पूजां कुर्याज्जिनेशिनः ।। अर्थात्- पूजाकरने बाला पद्मासन से बंठ कर पूजा करे अपनी दृष्टि नासिक पर रक्स्खे, मौन धारण करे, और वस्त्र से अपना मुख ढक लवे । २- ओं ही अमृते अमृतो वे अमृत वार्षिणि अमृतं श्रावय श्रावय स. मं ल्की ल्कों वल भलं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय हं झं झवी ६वीं ह् स: असि आ उ सा हूँ नम: स्वाहा । यह अमृत स्नान मंत्र है । ओं ही झ्वी श्वी वं में हं सं तं पं द्रां द्रीं ह सः स्वाहा यह आचमन मंत्र है । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १९३ भूजोपकरणानि च पाश्र्व सनिघाय मंत्रपूर्वेण । स्नानेन स्नात्वा आचमनं करोति मंत्रेण ।। ४२७ ।। अर्थ... तदनंतर पूचा के समस्त उपकरण अपने पास रखना चाहिव फिर मंत्र स्नान करना चाहिये और फिर मंत्र पुर्वक आचमन कारना चाहिय । आसपठाणं किच्चा सम्मत्तयुष्य तु झाइए अप्या। सिखि मंडल मज्झत्थं जालासयजलियणियदेहं । आसनस्थानं कृत्वा सम्यकपूर्व तु ध्यायतु आत्मानम् । शिखिमण्डलमध्यस्थं ज्वालाशतज्वलितनिजदेहम् ।। ४२८ ।। - अगि साल में अपना आसन लगा कर बेठे और फिर सम्यक् रीति से परमात्मा का ध्यान करे । उस ध्यान मे अग्निमंडल मे निकलती हुई सौ ज्वालाओं से अपना शरीर जल रहा है ऐसा चितवन करना चाहिये । सबसे पहले अग्निमंडलका चितवन बारना चाहिये एक त्रिकोण आकार का यंत्र बनाना चाहिये उसके तीनों ओर सो रेफ या रकार वनाना चाहिये । उन रकारों के ऊपर आधे रकार का आकार और जनाना चाहिये : इसको बर्द्ध रेफ की ज्वाला कहते है। ऐसे रेफों से व्याप्त अग्निमंडल के मध्य में अपने शरीर को स्थापन करना चाहिये तथा ध्यान कर अपने शरीर के मल को दग्ध करना अर्थात जलाना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार है " ओं हों अर्ह भगवते जिनभास्कराय बोधसहस्र किरणर्मम किरणन्धनस्य द्रव्यं शोषयामि घे घे स्वाहा।" दाभ के छोटे पूले को दीपक से सेक लेना चाहिये और फिर उस दाभ को अग्निमंडल में भस्म कर देना चाहिये । सो ही लिखा है अग्नि मंडलमध्यस्थं रेफलिाशताकुलः । सर्वांगदेशध्यात्वा ध्यान दग्धं वपुर्मलम् ॥ अर्थात- अग्निमंडल के मध्य में बैठ कर सौ रेफ ज्वालाओं से व्याप्त होकर तथा सब शरीर से ध्यान के द्वारा शरीर के मल को जलाना चाहिये । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह पूजा करने वाले को दर्मासन पर बैठकर ऊपर लिखा मंत्र पड़ कर अपने पाप संबंधी पाप मल को जलाने के लिये दाभको दोपको जला नर अग्नि मंडल पर रखना चाहिये । फिर ओं ही अर्ह श्रीजिनप्रभुजिनायकर्मभस्मबिधू, र कुरु :-वाहा ' इसमें को प. ५.५ उस जली हुई दाभ की भस्म पर जल बारा देकर उसको बुझा देना चाहिय फिर पंच परम गुरु मुद्रा धारण करनी चाहिये । फिर अ सिं आ उ सा इनका न्यास करना चाहिये अर्थात्-इनको स्थापन करना चाहिये । फिर जल मंडल यंत्र बनाकर उसके ऊपर झं वं हवः प: इन अमृत बीजों को स्थापन कर अपने मस्तक पर जल छोडना चाहिय । उसकी विधि इस प्रकार है-किसी तांबे के पात्र में (गोल कटोरा आदि में) जल भर बार उसमें अनामि का तीसरी जंगली) जंगलो से जल मंडल यंत्र लिखना चाहिये । सो हि लिखा है-" झालं स्वररावृतं तोयं मंडल द्वयवेष्टितम् ।" फिर उस जल मंडल में आचमनी (छोटी चमची। रखकर प ओं म्ही अमृते अमृतो दधे अमृत स्रावय साबय सं सं बलीं क्लीं ब्लू ब्लू द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्राबब हं झं झ्वी क्ष्वी हं स: अ सि आ उ सा अर्ह नमः स्वाहा " पह मत्र पढ़ कर आचमनी से जल लेकर मस्तक पर डालना चाहिये और इस प्रकार तीन बार करना चाहिये । यह अमत स्नान है। फिर अपने दोनों हाथों की कनिष्ठा (सबसे छोटी) अंगुली से लेकर अनुक्रम से अंगूठे पर्यंत मूल की रेखा से ऊपर की रेखा तक पंच नमस्त्रार का न्यास करना अर्थात- स्थापन करना चाहिये । उसकी विधि उस प्रकार है- ओं न्हीं णमो अरहताणे कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ओं हों गमी सिद्धाणं अनामिकाभ्यां नमः, ओं हीं णमो आइरिआणं मध्यमाभ्यां नमः, ओं न्हीं णमो उबज्झायागं तजिनीभ्यां नमः, ओं न्हीं णमो लोए सब्बसाहूणं अंगुठाभ्यां नमः, इस प्रकार अलग अलग मंत्र पढ़ कर दोनों ही हाथों की उंगलियों की मूल रेखा से लेकर ऊपर के पर्वतक अंगूठा लगाकर अलग अलग नमस्कार करना चाहिये । इसको कर न्यास कहते फिर “ओं न्हीं अहं वं में सं तं पं असि आ उ सा हस्त संपुटं करोमि स्वाहा " यह मंत्र पढकर दोनों हाथ मिलाकर कमल की कणिका Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सह के समान संपुट रूप करना चाहिये अर्थात् हाथ जोडना चाहिये तथा दोनों हाथों के अंगूठों को ऊंचा खडा रस्त्रना चाहिये । फिर नीचे लिखें मंत्र पढ़ कर ग न्यास करना चाहिये उसकी विधि इस प्रकार है। 'ओ ही गमो अरहताणं स्वाहा हृषि. यह मंत्र पढकर उन जुडे हुए हाथों के खडे अंगूठो को हृदय से लगाना चाहियं । ओं न्हीं णमो सिद्धांणं स्वाहा ललाटे, ओं न्हीं णमो आयरिया स्वाहा शिरसी, ओं न्हीं णमो उवज्झायाणं स्वाहा शिरोदक्षिण भागे, ओं -हीं णमो लोए सच साहूणं स्वाहा शिरोपश्चिमदेशे, इन मंत्रों को पट कर दोनों हाथों के अंगूठो को अनुक्रम से हृदय, ललाट, मस्तका, दाई और वाईं ओर नमस्कार पूर्वक स्पश करना चाहिये, उस समय हाथ जुड़े ही रखने चाहिये । यह अंग न्यास है, अर्थात् अपने शरीर और हाथों में मत्र पूर्चक पंचपरमेष्ठी का स्थापन करना है। इसके बाद इस विधि से और इन्ही ऊपर लिखें मंत्रों से दूसरा अंग त्यास करना चाहिये । उसके स्थान ये है - ओं ही णमो अरहताणं स्वाहा शिरो मध्ये, ओं न्हीं णमो सिद्धांणं स्वाहा शिरो अग्नभागे, ओं न्हीं मो आइरोयाणं स्वाहा शिरो नैऋत्यां, ओं न्हीं णमो उबज्झायाणं स्वाहा शिरो वायव्याम्, ओं -हीं णमो लोए सव्व साहणं शिरो ईशानो । इस प्रकार शिर के मध्य मे, शिर के आगे, शिर की मैऋत्य दिशा में, शिर की वायव्य दिशा में और शिर की ईशान दिशा में अंगन्यास करे । फिर तीसरा अंगन्यास ऊपर लिने मंत्र पढकर अनुक्रम के दाहिनी भुजा, नाभि, बाई कांख और बाईं कांख मे करे । यथा ओं न्हीं णमो अरहंतागं स्वाहा दक्षिण भुजायाम, ओं न्हीं णमा सिद्धांण वाम भुजायां. ओं न्हीं णमो आयरीआणं नाभौ, ओं नहीं णमो उवज्झायाण दक्षिण कुक्षी, ओं हीं णमो लोए सव साहर्ण वामकुक्षौ । तदनंतर बाये हाथ की तर्जनी अंगूली में पंच' मंत्र को स्थापन कर पूर्व दिशाको आदि लेकर दशों दिशाओं में नीचे लिखे मंत्र पढ कर सरसो क्षेपण करनी चाहिये । ओं क्षों स्वाहा पूर्वस्या, ओं क्षीं स्वाहा आग्नेय, ओं धुं स्वाहा दक्षिणे, ओं झै स्वाहा नैऋत्ये, ओं क्षों स्वाहा पश्चिमे, ओं क्षों स्वाहा वायव्ये, ओं क्षौं उत्तरे, ओं क्षं स्वाहा ईशाने, ओं क्षः स्वाहा अघः ओं क्ष। स्वाहा ऊवं । इस प्रकार दशां दिशाओं में सरसों स्थापन करनी चाहियें । फिर ओं, हां, ही, हू, हे, हौं हे,हं, हः स्वाहा' इस मंत्र को Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह पढ कर दरों दिशाओं में सरसों क्षपण करनी चाहिये यह शुन्य बीज है, इस प्रकार दसों दिशाओं का बंधन करना चाहिय । फिर मंत्र को जाननेवाले श्रावक को मंत्र पूर्वक कान और कर न्यास करना चाहिये। इसकी विधि इस प्रकार है- ओं -हीं दनाय नमः शिरसि, आंनटों निखाय वषट् कवचाय हुं अस्राय फट यह मंत्र पाठ कर पथक पथक मंत्रां में मस्तक का स्पश करना चाहिय । चटो का पक्ष वार चाटी ने गांठ बांधनी चाहिये । फिर कंधे से लेकर समरत शरीर को दानाहायों में स्पश कर फिर दोनों हाथों से ताली बजाकर शब्द करना चापिं । फिर परमात्मा का ध्यान करना चाहिये । पान के मंत्र हैं- ओ श्री गमों अरहताण अहंदभ्यो नमः इसका इकई बार अपना चाहिय । ओं न्हों णमो सिद्धां सिद्धेभ्यो नमः स्वाहा इसको भी इकईस बार जपना चाहियं 1 इन मत्रों के द्वारा पशासन से कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार सकली करण विधान के द्वारा अपना मन शद्ध करना चाहिय । शौच दो प्रकार है एक वाह्य और दुसरा आभ्यंतर । जल मिट्टी आदि से तो बाह्म सौच करना चाहिब और मंत्र से आभ्य - तर शौच करना चाहिये यह सकलो करण विधि है। पावेण सह संदेह झाणो उज्झतयं खु चिततो । रंधज संतीनदा पच परभेट्ठिणामाय ।। पापेन सह स्वदेहं ध्याने दह्यमान खलु चिन्तयन् । बध्नातु शान्तिमुद्रां पंच परमेष्ठि नाम्नीम् ।। ४२९ ।। अर्थ- उस ध्यान में " मेरा शरीर मेरे पापों के साथ जल रहा है " एसा चितवन करना चाहिये और फिर पांचा परमेष्ठियों को वाचक एसो शांत मुद्रा बनानी चाहियं । अमयक्सरे णिवेसउ पंचसु ठाणेसु सिरसि परिक्रण । सा मुद्दा पुणु चितउ धाराहि समवयं अमयं ।। अमृताक्षरं निवेशयतु पंचसु स्थानेषु शिरसि धृत्वा । ता मुद्रां पुनः चिन्तयतु भारामिः सववमृतम् ।। ४३० ।। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १९७ अर्थ - उस गुरु मुद्रा को मस्तक पर रख कर पांचों स्थानों में अमृ ताक्षरों का निवेश करो। जिसकी धारा मे अमृत झर रहा है इस अकार उस गुरु मुद्रा को फिर चितवन करो । पावेण सह सरीरं बढ जं आसि झाण जळणेण । तं जायं जं छारं पवखालउ तेण मंतेण ॥ पापेन सह शरीरं पात्रं यत् आसीत् ध्यानज्वलनेन । तज्जातं यत्क्षारं प्रक्षालयतु तेन मंत्रेण ।। ४३१ ।। अर्थ - उस ध्यान को ज्वाला से जो पापों के साथ शरीर जल गया था और उससे जो क्षार वा राख उत्पन्न हुई थी उसको उसी मंत्र से धो डालो | पडिदिवस अं पानं पुरिसो आसवइ तिविह जोग । तं निद्दहरु णिरुत्तं तेण ज्माण संजुत्तो ॥ प्रति दिवस यन्यावं पुरुषः आश्रवति त्रिविध योगेन । तन्निर्दहति निःशेषं तेन ध्यानेन संयुक्तः || ४३२ ।। अर्थ- यह पुरुष अपने मन वचन काय तीनों योगों से जो प्रति दिन पाप कर्मों का आस्रव करता है उस आस्त्रव से आने वाले समस्त पाप कर्मों को वह पुरुष ऊपर लिखे अनुसार ध्यान धारण कर शीघ्र ही नाथ कर देता है । जं सुद्धो तं अच्या सकायरहिओ य कुणइ बहु कि पि । ते पुणो यिदेहं पुण्णाण्णवं चितए हाणो ॥ यः शुद्धः आत्मा स्वकावरहितश्च करोति न हि किमपि । तेन पुननिजदेहं पुण्यार्णवं चिन्तयेत् ध्यानी ।। ४३३ ।। अर्थ - इस प्रकार जो अपनी आत्मा अपने शरीर से रहित होकर अत्यंत शुद्ध हो चुका है वह कुछ भी कार्य नहीं कर सकता इसलिये उस ध्यान करने वाले पुरुष को अपना शरीर एक पुण्य के समुद्र रूप चितबन करना चाहिये । भावार्थ- उस ध्यान करने वाले पुरुषने जो अपने शरीर को पाप सहित दग्ध करने रूप चितवन किया था उससे शरीर I Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ भाव-सह और पाप नष्ट हो जाने पर वह आत्मा शुद्ध और शरीर रहित चितवन में आगया । तथा शरीर हित शुद्ध आत्मा कुछ कर नहीं सकता । इसलिये बह फिर अपने शरीर को एक पुण्य के सागर के समान चितवन करता है। उहाधिऊण देह संपुण्णं कोडि चंब संक्रातं । पच्छा सयली करण कुणओ परमेट्ठिमंतेण ।। उत्थाप्य देहं सम्पूर्ण कोटि चन्द्र संकाशम् । पश्चाच्छकलीकरणं करोतु परमेष्ठिमत्रेण ।। ४३४ । अर्थ- तदनंतर करोड़ों चन्द्रमाओं के समान निर्मल और बेदीप्यमान अपने शरीर को चितवन करता हुआ तथा शरीर को पूर्ण रूप से चितवन करता हुआ उस ध्यान से उठ बैठना चाहियं और फिर पंच परमेष्टी वाचक मंत्रों से उस पुरुष को सकली करण करना चाहिये । सकली करण की विधि पहले लिख चुके है ।। अहवा खिप्पउ साहा णिस्सेज करंगुलीहिं थामेहि । पाए णाही हियए मुहे ये सोसे य ठविकणं । अथवा क्षिपतु शेषां निवेशयतु करांगुलैः वामः । पादे नाभ्यां हृवये मुखं च शिरसि च स्थापयित्वा ।। ४३५ ।। अर्थ- अथवा दशों दिशाओं में सरसों स्थापन करना चाहिम तथा बाय हाथ की अंगुलियों से करन्यास करना चाहिये अर्थात् पैरों में नाभि में हृदय में मुख में और मस्तक पर बांये हाथ की उंगलियों को रख कर पाची स्थानों मे पंच परमेष्ठी की स्थापना करना चाहिये । यदि साहा के स्थान में सेहा पाठ है तो सरसों के स्थान में शेषाक्षत लेना चाहिये । यह सब विधि तथा आगे लिखा अंग न्यास सव पोछ सकली करण में लिखा है। अंगे णास किच्चा इंवो हं कप्पिऊण पियकाए । कंकण सेहर मुद्दो कुणओ अण्णोपयीयं च ।। अंगे न्यानं कृत्वा इन्द्रोऽहं कल्पयित्वा निजकाये । कंकणं शेखरं. मुद्रिका कुर्यात् यज्ञोपवीतं च ।। ४३६ ।। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह १९९ 3 अर्थ- तदनंतर अंगन्यास करना चाहिये। फिर अपने शरीर में में इन्द्र हूं ऐसी कल्पना करनी चाहिये और कंकण मुकुट मुद्रिका और यज्ञोपत्रीत पहनना चाहिये । पीढ मेरुं कप्पिय तहसोवरि ठाविऊण जिणपडिमा । पञ्चवलं बरहंत चिसं भावे भावेण || पीठ मेरुं कल्पयित्वा तस्योपरि स्थापयित्वा जिनप्रतिमाम् । प्रत्यक्षं अर्हन्तं चित्तं भावयेत् भावेन || ४३७ ॥ अर्थ - तदनंतर स्थापन किये हुए सिंहासन में मेरु पर्वत की कल्पना करनी चाहिये, उस सिंहासन पर भगवान जिनेंद्रदेव की प्रतिमा विराजमान करना चाहिये और फिर अपने चित्त में अपने निर्मल भावों से य साक्षात् भगवान् अरहंत देव है ऐसी भावना करनी चाहिये । फलस उक्कं ठाविय चउसु वि कोणेसु गोरवरिपुवणं । घय बुद्ध बहिय भरियं णव सयदलछष्णमुहकमलं ॥ कलश चतुष्कं स्थापयित्वा चतुर्ष्वपि कोणेषु नीरपरिपूर्ण । घृतग्वदविभृतं नवशदलच्छन्न मुखकमलम् ।। ४३८ ।। अर्थ - तदनंतर चारों कोनों में जल से भरे हुए चार कलश करने चाहिये तथा मध्य मे पूर्ण कलश स्थापन करना चाहिये । इनके सिवाय घी दूध दही इनसे भरे हुए कलश भी स्थापन करने चाहिये । इन सब कलशों के मुख पर नवीन सौ दल वाले कमल रखने चाहिये । आवाहिऊण देवे सुरवर सिहिकाल पेरिए वरुणे । पवणे जस्ले ससूली सपियसवाहणे ससत्ये य || आहूय देवान् सुरपतिशिखिकालनैऋत्यान् वरुणान् । पवनान् यक्षान् सशूलिनः सप्रियसवाहनान् सशस्त्रांश्च ।। ४३९ ।। अर्थ- तदनंतर इन्द्र अग्निं यम नेॠत वरुण पवन कुबेर ईशान धरणीन्द्र और चन्द्र इन दश दिक्पालों की स्थापना कर अर्घ्य चढाना चाहिये | इन दश दिक्पालों को उनकी पत्नी वाहन और शस्त्रों सहित स्थापना करनी चाहिये । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० माव-संग्रह दाऊण पुज्जश्व बलि अरुय तह य जपणभायं च । सवेसि मंते हि य बोयक्खर णाम जुत्तेहिं ।। दत्वा पूजाद्रव्यं वलि चहक तथा च यज्ञभाग च । सर्वेषां मंत्रश्च बीजाक्षरनामयुक्त: ।। ४४० ।। अर्थ- इन सब दिक्पालों को पूजा द्रव्य वलि नैवेद्य यज्ञभाग देना चाहिये । सवका बोजाक्षर सहित अलग अलग नाम लेकर मन पूर्वक आहवानन स्थापन सन्निधीकरण कर यज्ञ भाग प्रजा द्रव्य और नेवेद्य देना चाहिये । इनके स्थापन करने आदि के मत्र ये है । ओं नहीं आं क्रौं प्रशस्त वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायघ वाहन यवती सचिन्ह सहित इन्द्र देव अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट, अत्र तिष्ठ तिष्ठठिः ठः. अब मम सन्निहितो भव भव वषट् ओं आं क्रों -हीं इन्द्र देवाय इद्र अर्घ्य पाद्यं गंध पूष्पं दीपं धूपं चरुं बलि स्वस्तिकं अक्षतं यज्ञभागं च यजामहे यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा । यह मंत्र पढ कर अलग अलग देवों को स्थापन करना चाहिये । इन्द्र को पूर्व दिशा में स्थापन कर बांई ओर से आठों दिशाओं मे आठ देव अबो दिशामे धरणीन्द्र ऊर्ध्व दिशा में चन्द्र को स्थापन करना चाह्येि । शेष विधि अभिषेक पाठ मे से कर लेनी चाहिये । उपचारिऊण मंते अहिसेयं कुणउ देवदेवस्स । णीर घय सोर दहियं खिबउ अणुक्कमेण शिणसीसे ।। उच्चार्य मंत्रान् अभिषेक कुर्यात् देववेवस्य । नोरघृतक्षोरवधिकं क्षिपेत् अनुक्रमेण जिनशीः ।। ४४१ ।। अर्थ- तदनंतर देवाधिदेव भगवान् अरहंत देव का अभिषेक करना चाहिये । वह अभिषेक अनुक्रम से जल घी दुध दही आदि पदाथों से मंत्रों का उच्चारण करते हुए भगवान् के मस्तक परसे करना चाहिये । म्हवणं फाऊण पुणो अमलं गंधोदयं च वंदित्ता। सबलहणं च जिणिदे कूण: कस्सोर मलएहि ।। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्रह स्नपन कारयित्वा पुनः अमलं गन्धोदकं च वन्दित्वा । उद्वर्तनं च जिनेन्द्र कुर्यात काश्मीरमलय : ॥ ४४२ ।। अर्थ- इस प्रकार अभिषेक कर निर्मल गंधोदक की बंदना करनी चाहिये और फिर काश्मीर केसर तथा चंदन आदि मे भगवान् का उद्वर्तन करना चाहिये । अभिषेक के अनन्तर चन्दन केसर आदि द्रव्या को धप बना बार उससे प्रतिमा का उबटन करना चाहिये । फिर कोण कलशों तथा पूर्ण कलश से अभिषेक करना चाहिये। यह विधि अत्यंत मक्ष ने कही है । इसकी पूर्ण विधि अभिषेक पाठ में जान लेनी चाहिये । आलिहउ सिद्धधनकं पट्टे पञ्चेहि शिरुसुगहिं । गुरु उवएसेण फुडं संपएणं सब्बमंतेहिं ।। आलिखेत् सिद्धचक्र पट्टेद्रव्यः निसुगन्धः । गुरुपदेशेन स्फुटं संपन्नं सर्वमंत्रः ।। ४४३ ॥ अर्थ- तदनंतर किसी वस्त्र पर या किसी थाली में वा किसी पाट पर अत्यंत सुगंधित द्रव्यों से सिद्ध चक्र का मंत्र लिखना चाहिय । तथा गुरु के उपदेश के अनुसार उसे स्पष्ट रीति से सर्व मंत्रों से पूर्ण रूप देकर लिखना चाहिये ।। आगे उसमें बनाने की विधि बतलाते है । सोल दल कमल मन अरिहं विलिहे इबिंदुकलमाहियं । वंभेण वेढइत्ता उरि पुणु माय बीएण ।। षोडशबल कमल मध्ये अहं विलिखेत् वियुकलसहितम् । ब्रह्मणा देष्टयित्वा उपरि पुन: मायाबीजेन ॥ ४४४ ॥ सोलस सरेहि वेबउ देह वियप्पेण अठ्ठ बग्गा वि । अङ्केहि दलेहि सुपयं अरिहंताणं णमो सहियं ।। षोडश स्वरः वेष्टय देहविकल्पेन अष्टवर्गानमि । अष्टभिर्दलैः सुपर्व आर्हम्यो नमः सहितम् ।। ४४५ ।। • मायाए तं एवं तिउणं बेडेह अंकुसारूढ़ कुणह बरामंडलयं बाहिरयं सिद्धचक्कस्स . Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माव-संग्रह मायया तत्सर्वं त्रिगुणं वेष्टयेत् अंकुशारद्धम् । कुर्यात् धरामण्डलकं बाह्यं सिद्धचक्रस्य ।। ४४६ ।। अर्थ-- एक सोलह दल का कमल बनाना चाहिय इसके मध्य में कणिका पर विदु और कला सहित ह लिखना चाहिये । फिर उसको ग्रह न स्वरों से बेष्टित करना चाहिये । अर्थात रमसे चारों ओर मोलद स्वर लिखना चाहिये। फिर उन सवको माया बीज से वेष्टित करना चाहिये अर्थात् तीन रेखाओं से वेष्टित करना चाहिये । तदनंतर सोलह दल का कमल बनाना चाहिये जिसमें आठ दल हो और आठ वर्ग हो । आठौं वर्गों में सोलह स्वर तथा कवर्ग चत्रर्ग आदि अक्षर हों तथा आठों दलों में · अर्ह झ्यो नमः' लिखना चाहिये । इन सवको तीन माया रेखाओं से बेष्टित करना चाहिये । ऊपर की ओर अंकुश से आरुद्ध' करना चाहिये । तथा फिर चारों ओर वाहर घरा मंडल बना देना चाह्यि । सिद्ध चक्र का विधान पूजा में इस प्रकार लिखा है - ऊर्वोघोरयुतं सबिंदुसपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं । वर्गापूरितदिग्गताम्बुजदलं तत्संधितत्त्वान्वितम् ।। अंतःपत्र टेष्वनाहतयुतं ही कार सवेष्टितं । देवं ध्यायति यः स मुक्ति सुभगो वरीभकंठीरवः ।। अर्थात्-जिसके ऊपर और नीचे दोनों स्थानों में 'र' कार है तथा जो विदु' अर्थात् अर्धचंद्रकार कला सहित ऐसा 'स' से आगे का अक्षर 'ह' कार मध्य में लिखना । जिस ह कार के ऊपर र कार हो नीचे र कार हो और अर्द्ध चन्द्र वा अर्घ विदु ऊपर हो ऐसा नहीं मध्य में लिखना चाहिये । उस ही के चारो ओर वह न स्वर अर्थाथ् सोलह स्वर लिखना चाहिये । इतना सब तो वी चकी कणिका में लिखना चाहिये। फिर उस वणिका के चारों दिशाओं में और चारों विदिशाओं में आठ संधियां बना कर उन संधियों के मध्य में अष्ट दल आकार का कमल बनाना चाहिये। उन अष्ट दलो में अनुक्रम से अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २०३ इय संखेवं कद्वियं जो पूय गंध दीव धूवेहिं । कुसुमेहि जवइ जिचं सो हणइ पुराणयं पावं || इति संक्षेप कति यः पूतिगन्धवरेप धूपैः । कुसुमैः जपति नित्यं स हन्ति पुराणकं पापम् ।। ४४७ ।। अर्थ - इस प्रकार संक्षेप से सिद्ध चक्र का विधान कहा। जो पुरुष गंध दीप धूप और फूलों से इस यंत्र की पूजा करता है तथा नित्य इसका जप करता है वह पुरुष अपने संचित किये हुए समस्त पापों का नाश कर देना है। जो पुणु वड्डद्वारों सब्बो भणिओ हु सिद्धचक्कल्स । सो एइ ण उद्धिरिओ इव्हि सामगि ण हु तस्स ॥ त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स हृल्ल नः इस क्रम से लिखना चाहिये । तथा इन्हीं दलों में सोलह स्वरों में से प्रत्येक दल में दो स्वर लिखना चाहिये तथा इन्हीं दलों के अंत भाग में अनाहत मंत्र लिखना चाहिये । तथा उन आठ दलों के मध्य में जो आठ संधियां है उनको तत्त्व से सुशोभित करना चाहिये । " णमो अरहंताणं " इस मंत्र को तस्व कहते है । अर्थात् आठो संधियों में णमो अरिहंताणं लिखना चाहिये | फिर तीन वलय देकर मंडल से वेष्टित करना चाहिये फिर क्षिति बीज और इन्द्रायुध लिखना चाहिये । इस प्रकार यंत्र रचना कर सिद्धचक्र का ध्यान करना चाहिये । १ जो जीव इस सिद्ध चक्र का ध्यान करता है वह श्रेष्ठ मोक्ष पदको प्राप्त होता है । यह सिद्ध चक्रदेव शत्रुरूपी हाथियों को जीतने के लिये सिंह के समान है । अनाहत का लक्षण उ विन्द्वाकार हरोर्ध्वरेक विद्वानवाक्षरं । मालाः स्पन्दिपीयूष विन्दु विदुरनाहृतम् ॥ उ, अनुस्वार, ईकार, ऊर्ध्व रकार, हकार, हकार, निम्न रकार अनुस्वार ईकार इन दो अक्षरों से अनाहत मंत्र बनता है । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAX चः पुनः वृहद्दुद्धारो सर्वो भणितो हि सिद्धचऋष्य । सोऽत्र न उद्धर्त्तव्यः इवानों सामग्री न ख तस्य ॥१४४८ ।। भाव-संग्रह ' अर्थ - इसके सिवाय एक सिद्ध चक्र का बृहत् उद्धार और भी है महा उद्धार वा महा पुजा है जो अन्य शास्त्रों में कही है परंतु उसक उद्धार वा महा सिद्ध चक्र पूजा इस समय नहीं करना चाहिये 1 क्योंकि इस समय उसकी पूर्णं सामग्री प्राप्त नहीं होती । आगे शान्ति च विधान कहते है । जय पुज्जइ को वि णरो उद्घारिता गुरुबएसेा । अट्ठ दल विजण तिजणं चउग्गुणं वाहिरे क यदि पूजयति कोपि नर उचार्य गुरूपदेशेन | अष्ट दल द्विगुण त्रिगुणं चतुर्गुणं वाह्येकजे ॥ ४४९ ।। मझे अरिहं देवं पंचपरमेट्ठिमंतसं तुतं । लहि ऊण कण्णियाए अट्ठदले अट्ठवेवीओ || मध्ये अहं देवं पंचपरमेष्ठि मंत्रयुक्तम् । लिखित्वा कणिकाया अष्टवले अष्टवेवोः ॥ ४५० ।। सोलह बलेसु सोलह विज्या वेबीज मंतसहियाओ । चडवीसं पत्ते सु य जक्ता जन्खी य चडवीसं ।। षोडश दलेषु षोडश विद्यादेवी: मंत्र सहिताः । चतुविशति पत्रेषु च यज्ञान् यशश्च चतुविशतिम् ।। ४५१ ।। बत्तीला अमरिंदा लिह बत्तीस कंज पत्तेसु । यि निय मंस पडत्ता गहर वलयेण वेढे द्वात्रिशलममरेन्द्रान लिखे विशत्जपत्रेषु । निज निज मंत्र प्रयुक्तान् गणधर वलयेनः वेष्टयेत् ।। ४५२ । सत्तपयारा रेहा सतवि बिलिह बजजसजसा । चरंसो च दारा कुपण पयसे जुतीए । . सतप्रकाराः रेखाः सप्तापि बिलियेत् या संयुक्ताः । चतुरंगांवरान् कुर्यात् प्रमानेन युत्तथा ॥ ४५३ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २०५ शान्ति चक्र यंत्रोद्धार: मध्य मे कणि का लिखना चाहिये फिर वलय देकर उसके बाहर चार दिशा और चारों विदिशाओं मे अष्टदलाकार कमल बनाना चाहिये। फिर उसके बाहर बलय देकर सोलह दल का कमल बनाना चाहिये । फिर उसके बाहर वलय देकर चौवीस दलका कमल बनाना चाहिये । फिर उसके बाहर वलय देकर वत्तीम दल का कमल बनाना चाहिय । उसके बाहर वलय देकर पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर इन चारों दिशाओं मे भद्र के आकार चार द्वार वा दरवाज बनाना चाहिये। फिर एक एक द्वार के दोनों ओर तीन नीन त्रिशुलाकार बन लिखना चाहिये । इस प्रकार चारों ओर के उन आठ त्रिशूलों के चौवीस शोभ (यक्षों के स्थान) करने चाहिये । फिर नारों विदिशाओं के स्खल के बाहर दो दो अलग अलग क्षिति मंडल के लिय त्रिशलाकार बन्न बनाना नाहिये और उसके आठवन लिखना चाहिये । इस प्रकार क्षिति मंडल माहित शांति चक्र यंत्र का उद्धार करना चाहिये । सबसे पहले कणिका के मध्य भाग से - ओं ही अर्हद्भ्यो नमः। लिखना चाहिये । फिर उसी कणि का मे इस मंत्र के पूर्व की ओर 'ओं न्हीं सिद्धभ्यो नमः' यह मत्र लिखना चाहिये । फिर उसकी दक्षिण दिशा में ‘ओं हीं मूरिभ्यो नमः' लिखना चाहियं । पश्चिम को ओर ओं हों पाठकेभ्यो नमः' लिखना चाहिय । उत्तर की ओर के दल में 'ओं न्हीं साधुभ्यो नमः लिखना चाहिये । तदनंतर उसी कणिका में चार विदिशाओं के चार दलों में से अग्नि कोण के दल में " ओं ही सम्यग्दर्शनाय नमः " नैऋत कोण में "ओं -हीं सम्यग्ज्ञानाय नमः " वाय कोण मे 'ओं न्हीं सम्यक् चारिथाय नमः' और ईशान कोण में “ओं न्हीं सम्यकतपसे नम:" लिखना चाहिये । यह कणिका मे बने हुए नौ कोठों का उद्धार है। इस कणिका के बाहर जो अष्ट दलाकार कमन है उसमें से पूर्व के दल मे 'ओं न्हीं जयाय स्वाहा' दक्षिण के दल में 'ओं ही विजयाये स्वाहा' पश्चिम के दल मे ' ओं ही अजितायै स्वाहा' उत्तर के दल में ओं ही अपराजितायै स्वाहा' लिखना चाहिये। फिर अग्नि Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ भाव-संग्रह अर्थ - इसके सिवाय गुरु के उपदेश से शांति चक्र का उद्धार कर उसकी भी पूजा करनी चाहिए। जो इस प्रकार है:- बीच में कि का रखकर वलय देकर उसके बाहर आठ दल का कमल बनावे फिर वलय देकर सोलह दल का कमल बनाये फिर वलय देकर उसके बाहर चौबीस दल का कमल बनावे फिर बलब देकर बत्तीस दल बा कमल बनावे | उसके मध्य में कणिका पर मंत्र सहित अरहंत परमेष्ठी लिखे | चारों दिशाओं में अन्य परमेष्ठियों को लिखे विदिशाओ में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप लिखे । बाहर आठ दलों में जया आदि 1 r · कोण में 'ओं न्हीं जंभायै स्वाहा, नैऋत कोण में ओं न्हीं मोहाय स्वाहा' वायव्य कोण में ओं न्हीं स्तंभायै स्वाहा' तथा ईशान कोण में ओं नहीं स्तभिन्यै स्वाहा' लिखना चाहिए इन सब मंत्रों को प्रणब माया बीज पूर्वक होमांत लिखना चाहिए। इस प्रकार कणिका के बाहर का अष्टदल कमल भर देना चाहिए । उसके बाहर वलय के बाहर सोलह दल का कमल हैं उसमे पूर्व दिशास प्रारंभ कर अनुक्रम से सोलह विद्या देवियों के नाम लिखना चाहिए। यथा- ओं नहीं रोहिण्यै स्वाहा १ ओं नहीं प्रज्ञप्त्यै स्वाहा २ ओं नहीं वज्रशृंखलायें स्वाहा ३ ओं न्हीं वज्रांकुशायै स्वाहा ४ ओं नहीं अप्रतिचक्रायं स्वाहा ५ ओं न्हीं पुरुषदक्षायै स्वाहा ६ ओं नहीं काल्यै स्वाहा ७ ओं नहीं महाकाल्यै स्वाहा ८ ओं नहीं गाय स्वाहा ९ ओं नहीं गोस्वाहा १० ओं नहीं ज्वालामालिन्यै स्वाहा ११ ओं न्हीं बराइय स्वाहा १२ हीं अच्युताय स्वाहा १३ ओं नहीं अपराजितायै स्वाहा १४ ओं न्हीं मानसी देव्ये स्वाहा १५ ओं नहीं महा मानसी देव्य स्वाहा १६ इस प्रकार सोलह कमल दल भर देने चाहिए । तदनंतर सोलह दल कमल के बाहर चौबीस दल का कमल है उसमे पूर्व दिशा से प्रारंभ कर अनुक्रम से चौबीस शासन देवियों का स्थापना करना चाहिये । यथा- ओं न्हीं चक्रेश्वरी देव्यं स्वाहा १ ओ नहीं रोहिण्यै स्वाहा २ ओं नहीं प्रज्ञप्त्यै स्वाहा ३ ओं न्हीं वज्रशृंखला स्वाहा ४ ओ ह्रीं पुरुषदत्ताये स्वाहा ५ ओं नहीं मनोवेगायै स्वाहा ६ ओं Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह म्ही काल्यं स्वाहा ७ ओं नहीं महाकाल्यै स्वाहा ८ ओं -हीं ज्वाला मालिन्यै स्वाहा ९ ओं न्हीं मानव्य स्वाहा १० ओं न्हीं गौर्यै स्वाहा ११ ओं -हीं गांवाय स्वाहा १२ ओं -ही नैराटचे स्वाहा १३ ओं न्हीं अनन्त मत्यै स्वाहा १४ ओं नहीं मानसी देव्यै स्वाहा १५ ओं न्हीं महा मानसी देव्य स्वाहा : शाहीं त्याय नाहा १४ ओं म्ही विजयाय स्वाहा १८ ओं न्ही अपराजितायै स्वाहा १९ ओं ही बहुरूपिण्यै स्वाहा २० ओं -हीं चामुंडाय रवाहा २१ ओं न्हीं कूष्मांडिन्यै स्वाहा २२ ओं व्ही पद्मावत्यै स्वाहा २३ ओं न्हीं सिद्धायिन्यै स्वाहा २४ इस प्रकार चौवीस दल कमल को भर देना चाहिये । चीवीस दल कमल के बाहर वलय के वाद बत्तीस दल कमल है। उसमे भी पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर अनुक्रम से बत्तीस इन्द्रों को ब्रह्म माया बीज से प्रारंग कर हामांत लिखना चाहिये अर्थात् जिसके आदि मे ओं न्हीं यह ब्रह्म और माया वीज हो तथा मध्य मे चतुर्थी विभक्ति सहित देवी वा इन्द्र का नाम हो और अंत में होमात अर्थात् होम के अंत मे कहे जाने वाला स्वाहा शब्द हो इस प्रकार सब देव देवियों को स्थापन करना चाहिए । यथा ओं -हीं असुरेन्द्राय स्वाहा १ ओं ही नागेन्द्राय स्वाहा २ ओं न्हीं विद्युदिन्द्राय स्वाहा ३ ओं न्हीं सुपर्णेन्द्राय स्वाहा ४ ओं न्हीं अग्नीन्द्राय स्वाहा ५ ओं नहीं बातेन्द्राय स्वाहा ६ ओं म्ही स्तनितेन्द्राय स्वाहा ७ ओं ही उदधीन्द्राय स्वाहा ८ ओं न्हीं डीपेन्द्राय स्वाहा ९ ओं हीं दिगिन्द्राय म्बाहा १० ओं न्हीं किन्नरेंद्राय स्वाहा ११ ओं ही किंपुरुषेन्द्राय स्वाहा १२ ओं न्हीं महोरगेन्द्राय स्वाहा १३ ओं -हीं गंधर्वेन्द्राय स्वाहा १४ ओं -हीं यक्षेन्द्राय स्वाहा १५ ओं रहीं राक्षसेन्द्राय स्वाहा १६ ओं न्हीं भूतेन्द्राय स्वाहा १७ ओं ही पिशाच्चेन्द्रीय स्वाहा १८ ओं न्हीं चन्द्रेन्द्राय स्वाहा १९ ओं न्हीं आदित्येन्द्राय स्वाहा २० ओं न्हीं सौधर्मेन्द्राय स्वाहा २१ ओं ही ईशानेन्द्राय स्वाहा २२ ओं न्हीं सानत्कुमारेन्द्राय स्वाहा २३ ओं न्हीं माहेन्द्राय स्वाहा २४ ओं न्हीं ब्रह्मेन्द्राय स्वाहा २५ ओं न्हीं लांतवेन्द्राय स्वाहा २६ ओं न्हीं शुक्रेन्द्राय स्वाहा २७ ओं न्हीं शसारेन्द्राय स्वाहा २८ ओं ही आनतेन्द्राय स्वाहा २१ ओं न्हीं प्राणतेन्द्राय स्वाहा ३० ओं ही आरणेन्द्राय स्वाहा Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ भाव-संग्रह आठ देवियों का लिख | सोलह कमलों में मंत्र सहित सोलह विद्या देवियों को लिखे, चौबीस कमलों में चौवीस यक्षियों को लिखे, वत्तीम कमलो में बत्तीस इन्द्रों को लिखे । इन सबको अपने अपने मंत्र सहित लिखना चाहिये । इस प्रकार सात रेखाओं से बेष्टित करना चाहिये तथा सातों हो देवा व रहित होनी चाहिये । चारों ओर चार द्वार करना चाहिये | बाहर प्रत्येक दिशा में छह छह यक्षों का निवेश करना चाहिये । इस प्रकार इस यंत्र का उद्धार करना चाहिये । ३१ ओं नहीं अच्युतेन्द्राय स्वाहा ३२ इस प्रकार बत्तीस दल कमल को भर देना चाहिये । तदनंतर चारो दिशाओं के चारों द्वारों के ओर लिखे हुए चौबीस वज्रों मे गोमुख आदि चोवीसो यक्षों को बेद शक्ति बीज सहित होमांत लिखना चाहिये । इन सबका पूर्व दिशा से प्रारंभ कर पश्चिम की ओर होते हुए अनुक्रम से लिखना चाहिये । इस प्रकार एक एक दिशा में छह छह यक्ष लिखना चाहिये । यथा ओं न्हीं गोमुखाय स्वाहा १ ओं नहीं महायज्ञाय स्वाहा २ ओं ही त्रिमुखाय स्वाहा ३ ओं नहीं यज्ञेश्वराय स्वाहा ४ ओं नहीं बुरखे स्वाहा ५ ओं न्हीं कुसुमाय स्वाहा ६ ओं न्हीं बरंनंदिने स्वाहा ७ ओं न्हीं विजयाय स्वाहा ८ ओं नहीं अजिताय स्वाहा ५ ओं नहीं ब्रह्मेश्वराय स्वाहा १० ओं न्हीं कुमाराय स्वाहा ११ औं न्हीं पण्मुखाय स्वाहा १२ ओ हीं पाताळाय स्वाहा १२ ओं नहीं कराव स्वाहा १४ ओं नहीं ऋिपुरुषाय स्वाहा १५ ओं नहीं गरुडाय स्वाहा १६ आम्ही गंधर्वाय स्वाहा १७ ओं नहीं महेंन्द्राय स्वाहा १८ ओं न्हीं कुवे राय स्वाहा १९ ओं नहीं रुद्राय स्वाहा २० ओं नहीं विद्युत्प्रभाय स्वाहा २१ ओ नहीं सर्वाल्हाय स्वाहा २२ ओं नहीं घरणेन्द्राय स्वाहा २३ ओं नहीं मातंगाय स्वाहा २४ इस प्रकार चारों दिशाओं में चौबीस यक्षों को लिखना चाहिये । तदनंतर पूर्वादिक चारों दिशाओं में तथा चारों विदिशाओं में तथा पूर्व और पश्चिम में प्रणव माया बीज आदि होमांतयुक्त इन्द्रादिक दशदिक्पालों की स्थापन करना चाहिये । तथा ओं नहीं इन्द्राय स्वाहा Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २०१ १ पूर्वे, ओं नहीं अग्नीन्द्राय स्वाहा २ आग्नेय्याम्, ओं नहीं यमाय स्वाहा ३ दक्षिणे, ओं नहीं नैऋत्याय स्वाहा ४ नेऋत्य दिशायां, ओं नहीं वरुणाय स्वाहा ५ पश्चिमे, ओं नहीं पवनाय स्वाहा ६ वायव्याम्, ओं नहीं कुबेराय स्वाहा ७ उत्तरे, ओं न्हीं ईशानाय स्वाहा ८ ईशाने, ओ हीं धरणीन्द्राय स्वाहा ९ पूर्वे, ओं नहीं सोमाय स्वाहा १० पश्चिमे । तदनंतर - पूर्वादिक चारों दिशाओं यथा चारों विदिशाओं में और दुबार पूर्व दिशाओं में इस प्रकार नौ स्थानों में प्रणवपूर्वक स्वाहा पर्वत आदित्यादिक नव ग्रहों को लिखना चाहिये और उनको पूर्व दिशा से प्रारंभ कर अनुक्रम से पश्चिम की ओर घूमते हुए पूर्व दिशा तक लिखना चाहिये । यथा ओं नहीं आदित्याय स्वाहा १ ओं नहीं सोमाय स्वाहा, ओं नहीं भीमाय स्वाहा, ओं नहीं बुधाय स्वाहा, ओं नहीं बृहस्पतये स्वाहा, ओं नहीं शुक्राय स्वाहा ओं नहीं शनैश्चराय स्वाहा ओं न्हीं राहवे स्वाहा, ओं नहीं केतवें स्वाहा । एवं जंतुद्धारं इथं मइ अक्वियं समासेण । से ऋिपि विहाणं गायध्वं गुरु पसाएण || एवं यंत्रोद्वारं इत्यं मया कथितं समासेन । शेषं किमपि विधानं ज्ञातव्यं गुरु प्रसादेन || ४५४ ।। अर्थ - इस प्रकार मैंने यह यंत्रोद्वार का स्वरूप अत्यंत संक्षेप से कहा है। इसका शेष विधान वा विस्तार गुरुयों के प्रसाद मे जान लेना चाहिये । अट्ठ विह अरणाए पुज्जेयब्वं इमं खु नियमेण । सुअंधेहि लिहियवं अपवित्तहिं || अष्टविधाचंनया पूजितव्यं इदं खलु नियमेन । द्वन्यः सुगन्धैश्च लेखितव्यं अति पवित्रः ।। ४५५ । अर्थ - इन यंत्रों को पवित्र धातुओं पर अत्यंत पवित्र और सुगंधित द्रव्यों से लिखना चाहिये । तदनंतर नियमपूर्वक आठों द्रव्यों से प्रति दिन पूजा करना चाहिये । आगे इसका फल बतलाते है । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह जो पुज्जइ अणवरयं पावं णिहहइ आसिभत्र वद्धं । पडिदिणकय च विहुणइ अंधइ पउराई पुण्णाई ।। यः पूजयति अनबरतं पापं निर्दहति पूर्वभववद्धम् । प्रतिदिनंकृतं च विद्धिनोति वनाति प्रचुराणि पुण्यानि ॥४५६।। अर्थ- जो पुरुष इन यंत्रों की प्रतिदिन पूजा करता है वह अपने पूर्व भवों में संचित किये हुए समस्त पापों को जला देता है नष्ट कर देता है । तथा प्रति दिन के पापों को भी नष्ट कर देता है । इसके साथ ही वह बहुत अधिक मात्रा मे पुण्य कर्मों का संचय करता है । इह लोए पुण मता सन्वे सिज्मंति पढिय मिसेण : विज्जाओ सव्याओ हवंति फुड साणुकूलाओ |: इह लोके पुनर्मंत्राः सर्वे सिध्यन्ति पठितमात्रेण । विद्याः सर्वा भवन्ति स्फुटं सानक्ला: ।। ४५७ ।। अर्थ- इसके पठन करने मात्र से पाठ करने में इस लोक में भी समस्त मंत्र सिद्ध हो जाता है तथा जितनी विद्याएं है वे सब स्पष्ट गोति से अपने अनुकूल हो जाती है। गह भूय डायणीओ सच्चे णस्सति तस्स णामेण | णिन्यिासयरणं पयडष्ट्र सुसिद्ध चक्कप्पहावेण ।। प्रहभूतपिशाचिन्यः सर्वा नश्यन्ति तस्य नाम्ना । निविषीकरणं प्रकटयति सुसिद्ध चक्रप्रभावन ।। ४५८ ॥ अर्थ- ग्रहमत डाकिनी पिशाच्च आदि सिद्ध चक्र का नाम लेने से ही सब नष्ट हो जाते है । तथा इसी सिद्ध चक्र के प्रभाव से समस्त प्रकार के चित्र दूर हो जाते हैं । निर्विषीकरण प्रकट हो जाता है । फिर सबके वाहर ‘ओं नहीं आं क्रों अनावृताय स्वाहा ' यह मंत्र लिख कर अनावृत यक्ष को स्थापन करना चाहिये तदनतर भमंडल देकर अप्ट बज सहित क्षिति बीज और अष्ट इन्द्रायुध के बीजकर सहित लिखना चाहिये । इस प्रकार यह यंत्र विधि है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मयह २११ चसियरणं आइट्टी थं में गेहं च मंति कम्माणि । नानाजराणां हरणं कुणेइ तं माणजोएण || वशीकरण आकृष्टि स्तम्भनं स्नेहं शान्ति कर्म । नानाजराणां हरणं करोति तद्ध्यासयोगेन ।। ४५९ ।। अर्थ- इन यंत्र मंत्रों का ध्यान करने मे वशीकरण आकर्षण स्तंभन मांति कर्म स्नेह आदि सब मंत्र सिद्ध हो जाते है । इन्हीं मंत्रों का ध्यान करने से वशीकरण हो जाता है जिसको आकर्षण करना चाहो वह आकर्षित हो जाता है जिसका स्तंभन करना चाहो इसका स्तंभन हो जाता है रुवा जाला है जिसको शांत करना चाहो वह शांत हो जाता है बुढापा दूर हो जाता है तथा और भी अनेक प्रकार के लाभ हो जाते है। पहरति । तस्स रिउणा सत्त मित्तत्तण च उबयादि । पुज्जा हवेह लोए सुबल्लहो परवरिदाण || प्रहरन्ति न तस्य रिपषः शत्रुः मित्रत्वं च उपयाति । पूजा भवति लोके सुवल्लभो नरवरेन्द्राणाम् ।। ४६० ।। अर्थ- इस यंत्र मंत्र का ध्यान करने वाले पुरुष को उसका कोई भी शत्रु मार नहीं सकता, उसके सब शत्रु मित्र के समान हो जाते है, संसार में उसकी पूजा प्रतिष्ठा होतो है और वह पुरुष राजा महाराजाओं का तथा इन्द्रों का भी प्रिय वा वल्लभ होता है। कि यहणा उत्तेण य मोक्खं सारखं च लभई जेण । केत्तिय मेत्तं एवं सुसाहियं सिद्ध चक्केण ।। कि बहुना उक्तेन च मोक्षः सौख्यं च लभ्यते येन । फियन्मात्रमेतत् सुसाधितं सिद्धचक्रेण ।। ४६१ ॥ अर्थ- अथवा बहुत कहने से क्या ? जिस सिद्ध चक्र के प्रताप से इस मनुष्य को मोक्ष के अनंत सुख प्राप्त होते है फिर भला ये संसारिक लाभ उसके सामने क्या पदार्थ है अर्थात् कुछ भी नहीं । आगे पंच परमेष्ठी चक्र को कहते है । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अह्वा जइ असमत्यो पुज्जह परमेट्ठिपंचकं । तं पाय खु लोए इषिय फलदायां परमं । माव-संग्रह अथवा यद्यसमर्थः पूजयेत्परमेष्ठिपंचकं चक्रम् | तत्प्रकट खलु लोके इच्छित फलदायक परमन् ॥ ४६२ ।। अर्थ- अथवा जो कोई पुरुष इन मंत्रों के बनाने में वा पूजा अर्चा करने में असमर्थ हो तो उसको पंच परमेष्ठी चक्र की पूजा करनी चाहिये । वह पंच परमेष्ठी चक्र भी इस लोक में सर्वोत्कृष्ट इच्छानुसार फलको देने वाला है । आगे पंच परमेष्ठी चक्र का यन्त्रोद्वार बतलाते है । सिररेह भिष्ण सुष्णं चंदकला विदुएण संजुत्तं । मत्ता हिय उबरगयं सुवेदियं कामबीएण || शिरोरेफभिन्नशून्यं चन्द्रकला विन्दुकेन संयुक्तम् । मात्राधिकोपरिगतं सुवेष्टितं कामवीजेन ॥ ४६३ ।। चामदिसाइणयारं मयार सविसम्म वाहिणे माए । बहि अट्ट पत्र कमलं तिउणं वेढेइ मायाए || वाम दिशायां नकारं मकार सविसर्ग दक्षिणे भागे । बहिष्टपत्रकमलं त्रिगुणं वेष्टयेत् मायया ।। ४६४ ।। पणमंत मुत्तिमे अरहंत पयं बलेसु सेसेसु । धरणीमंडल मझे शाह सुरच्चियं चक्कं ॥ प्रणव इति मतिमेकस्मिन् अर्हत्पदं वयेषु शेषेषु । धरणीमंडलमध्ये ध्यायेत्सुराचितं चक्रम् ।। ४६५ ।। अह एउणवण्णा से कोते काकण विउलरेहाहि । अरोह अक्वराहं क्रमेण विष्णिसहं सवाई || १ बहुत तलाश करने पर भी दक्षिण उत्तर में कही भी इसका यन्त्र नहीं मिला तथा बिना यन्त्र के इन पद्यों का अर्थ भी नहीं लग सका इसके लिये हम क्षमा प्रार्थी है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अथवा एफोनपंचाशान् कोष्ठान् कृत्वा विपुलरेखाभिः । अतिरोच्यक्षराशि क्रमेण विनिवेशय सर्वाणि ॥ ४६६ ।। ता णिसवं जहयारं मजिसम ठाणेसु ठाइ जुत्तीए । बेढई बीएण पुणो दलमंडल उयरमजात्यं ।। तावत् निवेशय यथाकारं मध्यमस्थानेषु स्थापत्य युक्त्या । वोटय बीजेन पुनः इलामण्डलोदरमध्यस्थम् ।। ४६७ ।। अथवा अनेक रेखाओं से एक उनचास कोठे का यन्त्र बनाना चाहिये । मध्य में पंच परमेष्ठी का नाम देना चाहिये । तथा फिर अनुक्रम से अम्ल वधू आम्ल ब! इस प्रकार समस्त अक्षरों के मन्त्र लिखना नायि । जैसा कि यन्त्र में लिखा है । फिर तीन रेखाओं से घरा मण्डल लिखना चाहिये । इस प्रकार यन्त्र बनता है । एए जंतुद्धारे पुज्जइ परद्विपंच अहिहाणे । इच्छइ फलदायारो पावघणपउलहंतारो ।। एतान् यंत्रोद्धारान् पूजयेत् परमेष्ठिपंचाभिधानान् । इच्छित फलदातून पापधनपटलहन्तन ।। ४६८ ।। अर्थ- ये यंत्रोद्वार पंच परमेष्ठी वाचक है इनकी पूजा करने से इच्छानुसार फल की प्राप्ति होती है, तथा पाषरुपी घने बादलों के समूह सब नष्ट हो जाते है। इसलिये इन यंत्रों के द्वारा पंच परमेष्ठी की पूजा प्रति दिन करनी चाहिये । अविहच्चण काउं पुख्य पउत्तम्मि ठावियं परिमा । पुज्नेह तग्गयमणो विधिहहि पुज्जाहिं भत्तोए ।। अष्टविधाचनां कृत्वा पूर्वप्रोक्ते स्थापिता प्रतिमाम् । पूजयेत् तद्गतमनाः विविधाभिः पूजाभिः भक्त्या ।। ४६९ ।। अर्थ- इस प्रकार अष्ट द्रव्य मे यंत्रों के द्वारा पंच परमेष्ठी की पूजा करके पहले अभिषेक के लिये विराजमान की हुई प्रतिमा में अपना मन लगाकर भक्ति पूर्वक अनेक प्रकार के द्रव्यों से अभिषेक बाद उन प्रतिमाओं की पूजा करनी चाहिये । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ भाव-संग्रह आगे अष्ट द्रव्यों के नाम और उनसे होनेवाली पूजा का फल बतलाते है । पसमाइ रथं जिषु ि भिंगारणाल णिग्गइ भतभति कबुरिया ॥ प्रशमति रजः अशेषं जनपद कमलेषु दत्तजलधारा । भंगारनाल निर्गता श्रमव मुंगेः कर्तुरिता ॥ ४७० || अर्थ- सबसे पहले जल की धारा देकर भगवान की पूजा करनी चाहिये । वह जल की धारा शृंगार ( झारी ) की नाल से निकलनी चाहिये तथा वह जल इतना सुगंत्रिय होना चाहिये कि उस पर भ्रमरः आजाय और जल धारा के चारों ओर घूमते हुए उन भ्रमरों से वह जल की धारा अनेक रंग की दिखाई देने लगे ऐसी जल की धारा भग वान के चरण कमलों पर पड़नी चाहिये। इस प्रकार जल की धारा से भगवान की पूजा करनेसे समस्त पाप नष्ट हो जाते है अथवा ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म शांत हो जाते है । चंदणसुअन्य ले ओ खिणवर भरणेसु जो कुणि भविओ । लहs त विक्कि रिय सहावसुगंधयं अमलं ॥ चन्दन सुगंध लेप जिणधर चरणेषु यः करोति भव्यः । लमते तनुं वक्रयिकं स्वभावसुगन्धकं अमलम् ॥ ४७१ ।। अर्थ- जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों पर जिन प्रतिमा के चरण कमलों पर ) सुगंत्रित चन्दन का लेप करता हैं उसको स्वर्ग में जाकर अत्यन्त निर्मल और स्वभाव से ही सुगंधित वैकिकि शरीर प्राप्त होता है । भावार्थ- चन्दन से पूजा करने वाला भव्य जीव स्वर्ग में जाकर उसम देव होता है । पुष्णाण पुर्व में हि य अक्खए जेहि देवपयपुरओ । तणाव जहाजे सुखए चक्कयतितं ॥ पूर्णः पूजयेच अक्षतपुंजे देवपद पुरतः । लभ्यन्ते नव निधानानि सु अक्षयानि वर्षातित्वम् ।। ४७२ ।। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! २१५ अर्थ- जो भव्य जीव भगवान जिनेंद्रदेव के सामने पूर्ण अक्षतां के पुंज चढाता है अक्षतों से भगवान की पूजा करता है वह पुरुष चक्रवर्ती का पद पाकर अक्षय रूप नव नित्रियों को प्राप्त करता है । चक्रवर्ती को जो विवां प्राप्त होती है उनमें से चाहे जितना सामान निकाला जाय निकलता हो जाता है कम नहीं होता । भाव-संग्रह अलि चुंविएहि पुज्जद्द जिणपयकमलं च जाइमल्लीहि । सो हवइ सुरवरदो रमेइ सुरतरुबर वर्णो || अलि चुम्बितैः पूजयति जिनपद कमल व जातिमल्लिकैः । सभवति सुरवरेन्द्रः रमते सुरतरुवरवनेषु ॥ ४७३ ॥ अर्थ- जो भव्य पुरुष भगवान जिनेंद्रदेव के चरण कमलों की जिन पर भ्रमर धूम रहे हैं ऐसे चमेली मोगरा आदि उत्तम पुष्पों से पूजा करता है वह स्वर्ग में जाकर अनेकों होता है और वह वहां पर चिरकालतक स्वर्ग में होने वाले कल्प वृक्षों के वनों में ( बगीचों मे ) क्रीडा किया करता है । दहिखोर सप्पि संभब उसम चरुरगहि पुज्जए जिणवरपाय पओरुह सो पावद्द उक्तमे मोए ॥ जो I दधि क्षीर सर्पिः सम्भवोत्तम चहकः पूजयेत् योह | जिनवर पादपयोरुहं से प्राप्नोति उसमान् भोगान् ।। ४७४ ।। अर्थ- जो भव्य पुरुष दही दूध घी आदि में बने हुए उत्तम नैवेद्य से भगवान जिनेंद्रदेव के चरण कमलों को पूजा करता है उसे उत्तमोत्तप भोगों की प्राप्ति होती है । कप्पूर तेल्ल पर्यालय मंद मरुपह्यणडिदीहि । पुज्जर जिण पय पोमं ससि सूरवि सम तणुं लहई || कर्पूर तेल प्रज्वलित मन्द मरुत्प्रहतनटितदीपैः । पूजयति जिन पद्मं शशिसूर्यसम तनुं लभते ॥ ४७५ ।। अर्थ- जो दीपक कपूर घी तेल आदि से प्रज्वलित हो रहा है औ मन्द मन्द बार से नाच ला रहा है ऐसे दीपक से जो भव्य पुरुष Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है वह पुरुष सूर्य चन्द्रमा के समान तेजस्वी शरीर को धारण करता है । सिल्लारस अयय मिस्सिय णिगगइ धूवेहि बहल धूमेह । धूवइ जो जिण चरणेस लहई सुबत्तणं तिजए ॥ मात्र-संग्रह शिलारसागुरुमिश्रित निर्गतधूपैः वहलघु । धूपयेद्रयः जिनचरणेसलम्यते शुभवर्तनं त्रिजगति ॥ ४७६ ॥ अर्थ- जिससे बहुत भारी धुआं निकल रहा है और जो शिलारस ( शिलाजीत ) अगुरु चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से बनी हुई है ऐसी धूप अग्नि में खंकर भगवान जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों को धूपित करता है वह तीनों लोकों में उत्तम पद को प्राप्त होता है। धूप को अग्नि में रखना चाहिये और उसमें निकला हु धुंआं दायें हाथ से भगवान की ओर करना चाहिये । पक्के रसड्ढ समुज्जलेहिं जिणचरणपुरओ । णाणा फलेहि पावइ पुरिसो हिय इच्छियं सुफलं ।। पक्वः रसायः समुज्वलः जिनवरचरणपुरः | नानाफलैः प्राप्नोति पुरुषः हृदयेप्सितं सुफलम् ॥ ४७७ ।। अर्थ - जो भव्य पुरुष अत्यंत उज्वल रससे भरपूर ऐसे अनेक प्रकार के पके फलों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों के सामने समर्पण कर पूजा करता है वह अपने हृदय अनुकूल उत्तम फलों को प्राप्त होता है । इर्ष अभय अच्चण काऊं पुण जवद्द मूलविज्जा य । जा जत्थ जहा उत्ता सयं च अठोत्तरं आवा | इति अष्टभेदानं कृत्वा पुनः जपेत् मूलविद्यां च । यां यत्र यथोक्तां शतं चाष्टोसरं जाप्यम् ।। ४७८ ।। अर्थ - इस प्रकार अष्ट द्रव्यों से भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा करनी चाहिये तदनंतर मूल मन्त्र का जप करना चाहिये। जिस पूजा में जो मूल मन्त्र बतलाया है उसी मन्त्र को एक सौ आठ बार जपना चाहिये । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह आग किस रुप से भगवान का ध्यान करना चाहिय सो बतलार किच्चा काउस्सगं देवं झारह समवसरणत्यं । लख पाडिहेरं णवकेवल लद्धि संपुष्णं ।। कृत्वा कायोत्सर्ग देव घ्यायेत् समवसरणस्थम् । लम्धाष्ट प्रातिहार्य नवकेबललब्धिसम्पूर्णम् ।। ४७९ ।। अर्थ- नदनन्तर कायोत्सर्ग कर भगवान जिनेन्द्र देव का ध्यान करना चाहिय । आगे किस रूप से ध्यान करना चाहिये सो बतलाते हैं। भगवान समवसरण में विराजमान है आठों प्राति हार्यों से सुशोभित है यथा नी केवल लब्धियों से परिपूर्ण है । अशोक वृक्ष का होना देवों के द्वारा पुष्प वृष्टी का होना, देवों के द्वारा बाजे बजना, सिंहासन, समर, छत्र भामंडल का होना दिव्य ध्वनी का होना ये आठ प्राति हार्य कहलाते है । अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान क्षायिक ज्ञान क्षायिक लाभ क्षायिक भोम क्षायिक उपभोग क्षायिक वीर्य क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ये नौं लब्धियां कहलाती हैं । आगे और भी बतलाते है । गट चउ घाइ कम्म केवल णाणेण मुणिय तियलोयं । परमेठी अरिहंत परमत्थं परम माणत्थं ।। नष्ट चतुर्धाति कर्माणं केवल ज्ञानेन ज्ञातत्रिलोकम् । परमेष्टिनमहन्तं परमात्मानं परमध्यानस्थम् ।। ४८० ।। अर्थ- जिनके चारों धातिया कम नष्ट हो गये है जो अपने फेवल ज्ञान से तीनो लोकों को प्रत्यक्ष जानते है जो अरहंत पद में विराजमान है, परम परमेष्ठी है परमात्मा है और परम वा सर्वोत्कृष्ट ध्यान में लीन है । ऐसे भगवान अरहंत देव का ध्यान करना चाहिये । माणं झाऊण पुणो ममाणिय बंदणस्थ काऊण । उपसंहरिय विसजे जे पुष्यावाहिया देवा ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ध्याने ध्यात्वा पुनः माध्यानिक वंदनामत्र कृश्वा । उपसंहृत्य विसर्जयेत् यान् पूर्वमाहूतान् देवान् ।। ४८१ ।। अर्थ - इस प्रकार अरहंत भगवान का ध्यान कर माध्यान्हिक वंदना करनी चाहिये । तदनंतर उपसंहार कर पहले आव्हान किये हुए देवों का विसर्जन करना चाहिये । आगे पूजा का फल कहते है । एण विहाणेण पुडं पुज्जर जो कुणइ भति संजुत्तो । सो ss णियं पार्श्व बंधइ पुण्णं तिजय खोहं ॥ भाव-संग्रह एतद् विधानेन स्फुटं पूजां यः करोति भक्तिसंयुक्तः । सहति निजं पापं बध्नाति पुण्यं त्रिजगत्क्षोभम् ।। ४८२ ।। अर्थ- इस प्रकार जो भव्य पुरुष भक्ति सहित ऊपर लिखी विधि के अनुसार भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करता है वह अपने समस्त पापों को नाश कर देता है तथा तीनो लोकों को क्षोभ उत्पन्न करने बाले पुण्य का बंध करता है । उप्पज्जई दिवलोए भुंजइ भोए मणिच्छिए इठे । बहुकालं चत्रिय पुणो उत्तम मणुयत्तणं लहुई || उत्पद्यते स्वर्गलोके मुंक्ते भोगान् मन इच्छितान् इष्टान् । बहुकालं व्युत्वा पुनः उत्तममनुष्यत्वं लभते || ४८३ || अर्थ - तदनंतर आयु पूर्ण होने पर वह स्वर्गलोक में उत्पन्न होता है, वहां पर अपने मन की इच्छानुसार अनेक प्रकार के इष्ट भोगों का अनुभव करता है तथा चिरकाल तक उन भोगो का अनुभव करता रहता है। आयु पूर्ण होनेपर वहां से च्युत होता है और मनुष्य लोक मे आकर उत्तम मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है । होऊण चक्क वट्टी चउदह रयणेहि णव णिहाणेह पालिय छखंडधरा भुजिय मोए गिरिठ्ठा । भूत्वा चक्रवर्ती चतुर्वशरत्नर्नय निधानैः । पालयित्वा घट्खण्डधरां भुक्त्वा भोगान् निर्गरिष्ठान् ॥ ४८४ ॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २१९ अर्थ- उत्तम मनुष्य शरीर को पाकर वह चक्रवर्ती पद प्राप्त करता है चौदह रत्न और नौ निधियों को प्राप्त करता है छहों खंड पृथ्वी का पालन करता है और उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करता है । संपत्त बोहि लाहो रज्जं परिहरिय भविय णिग्गंथो । लहिकण सयलसंजम धरिकण महत्वया पंच ॥ संप्राप्तबोधिलाभः राज्यं परिहृत्य भूत्वा निग्रंथः । लब्ध्वा सफलसंयमं धृत्वा महाव्रतानि पंच ॥ ४८५ ।। अर्थ - तदनंतर वह संसार शरीर और भोगों से विरक्त होकर रत्नत्रय को धारण करता है. राज्य का त्याग कर दीक्षा लेकर निर्ग्रन्थ अवस्था धारण करता है सकल संयम को धारण करता है और पंच महाव्रती को धारण करता है । लहिऊण सुक्कझाणं उप्याइय केवलं वरं गाणं । सिझे णडुकम्मो अहिसेयं लहिय मेरुम्मि || लब्ध्वा शुक्लध्यानं उत्पाद्य केवलं वरं ज्ञानम् । सिध्यति नष्टकर्मा अभिषेक लब्ध्वा मेरौ ॥ ४८६ ॥ अर्थ - पंच महाव्रत धारण कर वह शुक्ल ध्यान को धारण करता है चारों घातिया कर्मों को नाश कर मोक्ष प्राप्त करता है। यदि वह फिर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ तो वहां से आकर तीर्थंकर होकर मेरु पर्वत पर अपना अभिषेक कराता है और फिर तपश्चरण कर केवल ज्ञान प्राप्त कर अनेक जीवों को मोक्षमार्ग में लगाकर मोक्ष प्राप्त करता है । इय पाउण विसेसं पुण्णं आयरइ कारणे तस्स । पावहणं जाम समलं संजमयं अप्पमत्तं च ॥ इति ज्ञात्वा विशेषं पुण्यं अभ्येत् कारणं तस्य । पापघ्नं यावत् सकलं संयम अप्रमत्तं च ॥ ४८७ ॥ अर्थ - यह सब पुण्य की विशेष महिमा समझकर जबतक सकल संयम प्राप्त न हो जाय तब तक समस्त पापों को नाश करने वाले और Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सह मोक्ष के कारण भूत ऐसे विशष पुण्य का उपार्जन करते रहना चाहिय । आग विशेष पुण्य के लिये और क्या क्या करना चाहिये मो कहते है भावह अणुन्वयाई पालह सोलं च कुणह उववासं । पम्वे पन्चे णियमं विज्जह अणवरय दाणाई ॥ भावयेत् अणुव्रतानि पालयेत् शोलं च कुर्यादुपवासम् । पर्वणि पर्वणि नियमं दद्यात् अनवरतं दानानि ।। ४८८ ॥ अर्थ- ऐसे विशेष पुण्य को उजन करने के लिये अगुव्रतों को पालन करना चाहिये, गुणव्रत शिक्षात्रत रूप शीलों का पालन करना चाहिये । प्रत्येक पर्व के दिन उपवास करना चाहिए और नियम पुवक निरन्तर दान देना चाहिये । अभय पयाणं पढम विवियं तह होइ सत्थ दाणं च । तइयं ओसह दाणं आहारदाणं चउत्थं च ।। अभयप्रदानं प्रथम द्वितीयं भवति शास्त्रदानं च । तृतीयं त्वौषदानं आहारदानंचतुर्थ च ॥ ४८९ ॥ अर्थ- दान के चार भेद है पहला अभयदान, दुखरा शास्त्रदान, तीसर। औषधदान और चौथा आहार दान । आग इन दानों का फल बतलाते है । सम्वेसि जोवाणं अभयं जो वेव मरणभोकाएं। मो णिभओ तिलोए उत्तस्सो होइ ससि ।। सर्वेषां जीवानां अभयं यो ववाति मरण भीक्षणाम् । स निर्भयः त्रिलोके उत्कृष्टो भवति सर्वेषाम् ।। ४९० ।। अर्थ- जो जीव अपने मरने से भयभीत हो रहे है ऐसे समस्त जीवों को जो अभयदान देता है वह पुरुष तीनो लोकों में निर्भय होता है और सब मनुष्यों में उत्कृष्ट होता है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह दाणेण पलभर मह सुइ जाणं व ओहिमनगाणं । तिवेय सहियं पच्छा वर केवलं जाणं || श्रुतदाणेण च लभते मतिज्ञानं च अवधि मनोज्ञानम् । बुद्धि तपोभ्यां च सहित पश्चारकेवलं ज्ञानम् ।। `४९१ ।। अर्थ- जो पुरुष शास्त्रदान देता है, जिनागम को पढ़ाता है वह पुरुष मति ज्ञान श्रुतज्ञान दोनों को पूर्ण रूप से प्राप्त करता है, बुद्धि और तपश्चरण के साथ साथ अवधि ज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान को प्राप्त करता है । ओहदाण गरी अतुलिम बलपरक्कमोमहासत्तो । याहि विभुक्क सरीरो चिराउ सो होय तेयो || औषधानेन नरोऽतुलितबलपराक्रभो महोसत्यः | व्याधि विमुक्त शरीरशिवरायु: स भवति तेजस्थ: ।। ४९२ ।। २२१ अर्थ- जो पुरुष औषघ दान देता है वह अतुलित वा सर्वोत्कृष्ट बल और पराक्रम को धारण करता है महाशक्ति को धारण करता है, वह चिरायु होता है, तेजस्वी होता है और उसका शरीर समस्त रोग व्याधियों से रहित होता है । दाणसाहारं फलं को सक्कइ वण्णिऊण भूवणयले । दिणेण जण भोओ लग्भति मणिच्छिया सब्बे ॥ दानस्य आहारस्य फलं कः शक्नोति वर्णयितुं मुखमतले । दत्तं येन भोगा लभ्यन्ते मन इच्छिताः सर्वे ।। ४९३ ।। अर्थ- इन तीनों लोकों में आहार दान के फल को वर्णन करते के लिये भला कौन समर्थ है। भावार्थ- आहार दान के फल को कोई ज्ञानवान् ज्ञानदानेण निर्भयोऽभय दानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजाद्भवेत ॥ अर्थ- यह जीव ज्ञान दान से ज्ञाती होता है, अभयदान से निर्भय होता है अन्नदान से सुखी होता है और औषधदान से निरोग होता है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह कह ही नहीं सकता क्योंकि आहार दान के देने से अपने मन को इन्ह नुसार समस्त उत्तम भोगों को प्राप्ति होती है । २२२ दायाशेवि य पत्तं दाण विसेसो तहा विहाणं च । एए चत्र अहियारा णायच्या होति भव्वेण || दातापि च पात्रं दानविशेषस्तया विधानं च ! एते चतुरधिकारा ज्ञातव्या भवन्ति भव्येन || ४९४ ।। अर्थ - भव्य जीवों को सबसे पहले दान देने के चार अधिकार समझ लेने चाहिये । दाता, पात्र, दान देने योग्य द्वय और देने की विधि से चार अधिकार है । दान देने वाले को दाता कहते है जिसको दान दिया जाता है वह पात्र कहलाता है, दान में जो द्रव्य दिया जाता है वह दान विशेष है और दान देने के नियमों को विधि कहते हैं । वायारो उवर्सतो मणवय कारण संजुओ दच्छो । दाणे कच्छाहो पयड वर छग्गुणो अमये | दाता उपशान्तो मनीवबल कायेन संयुक्लो दक्षः | दाने कृतोत्साहः प्रकटित बरवगुणः अभय: ।। ४९५ ।। अर्थ- जो भव्य जीव ज्ञांत परिणामों को धारण करता है, जो मन वचन काय से दान देने में लगा हो अत्यन्त चतुर हो, दान देने में जिसका उत्साह हो, जो मद वा अभिमान रहित हो और दातां के छह गुणों से सुशोभित हो एसा भव्य जीव दात गिना जाता है । भत्ती तुट्ठी य खमा सद्धा सत्तं च लोहपरिचाओ । विणाण तक्काले सत्तगुणा होंति दायरे || भक्तिः तुष्टिः क्षमाश्रद्धा सत्यं च लोभपरित्यागः विज्ञानं तत्कालै सप्तगुणाः भवन्ति वातरि ।। ४९६ ।। अर्थ- जिनको दान देना है उनमें जिसकी भक्ति हो, दान दने में जिसको संतोष हो, क्षमा को धारण करने वाला हो, देव शास्त्र गुरु में Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २२३ . १ बतलात है ! बा पात्र में श्रद्धा रखता हो, दान देने की शक्ति रखता हो, जिसके लोभ का त्याग हो और दान देने में क्या क्या करना चाहिये इस बात का जिसको पूरा ज्ञान हो वही उत्तम दाता कहलाता है । भावार्थ-दाता मे ये सात गण अवश्य होने चाहिये । आगे पात्रों के भेद बतलाते है । तिविहं भणंति पत्तं मझिम तह उत्समं जहणं च । उत्तम पत्तं साहू मझिमपत्तं च सायया भणिया । त्रिविध भणन्ति पात्रं मध्यम तथोत्तमं जघन्यं च । उत्तमपात्रं साधुः मध्यमपात्रं च श्रावका भणिताः ।। ४९७ ।। अविरइ सम्मादिछी जहण्ण पसं तु अक्खियं समये । गाउण पत्तविसेस बिज्ज दाणाइ भत्तीए ॥ अधिरत सम्यग्दृष्टि: बि.या दुकन्धित : ज्ञात्वा पात्रविशेषं दद्यात् दानानि भक्त्या ।। ४९८ ॥ अर्थ- पात्र तीन प्रकार के है उत्तम पात्र मध्यम पात्र और जघन्य पात्र | इनमें उत्तम पात्र रन्नत्रय को धारण करने वाले निर्गन्ध मुनि है मध्यम पात्र अणुव्रती श्रावक हे और जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुष है । ऐसा शास्त्रों में निरूपण किया है । इसलिये भव्य जिवों को इन पात्रों के भेद और विशेषता समझकर भक्ति पूर्वक दान देना चाहिये । आगे जैसा पुरुष जैसे पात्र को दान देता है उसको वैसा ही उत्तम फल मिलता है यही दिखलाते है। मिछावठी दुरिसो दाणं जो देइ उसमे पत्ते । सो पावइ घर भोए फुड उत्तम भोय भूमीसु ।। मिथ्यावृष्टिः पुरुषो शनं यो ददाति उत्तमे पात्रे । स प्राप्नोति घर भोगान स्फुटं उत्तमभोग ममीषु ॥ ४९९ ।। अर्थ- यदि कोई मिथ्यादृष्टी पुरुष किसी उत्तमपात्र को दान Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ भाव-संग्रह देता है तो वह पुरुष उतम भोगभूमि के उत्तम मोगों को प्राप्त होता है। मझिम पत्ते मशिम भोयभूमीसु पावए गोए । पावइ जहष्ण भोए जहण्ण पत्तस्स पाणेण ।। मध्यमपत्रे मध्यमभोगभूमिषु प्राप्नोति भोगान् । प्राप्नोति जघन्यभोगान् जघन्यपात्रस्य दानेन ।। ५०० ।। अर्थ- यदि मिथ्या दृष्टि पुरुष किसी मध्यम पात्र को दान देता है तो वह मध्यम भोग भूमि के भोगों को प्राप्त होता है और यदि वहाँ मिथ्या दृष्टि पुरुष किसो जघन्य पात्र को दान देता है तो यह जघन्य भोग भूमि में जन्म लेकर वहां के भामों का अनुभव करता है । आगे फलों में यह न्यूनाधिकता क्यों होती है सो बतलाते हैं। उत्तम छित्ते वीयं फलइ जहा लक्ख कोडि गुहि । दाणं इसम पसे फलइ तहा किमिच्छ भणिएण ।। उत्तम क्षेत्रे बीजं फलति यमा लक्षकोटि गुणः । दानं उत्तमपारे फलति तथा किमिच्छाणितेन || ५०१ ॥ अर्थ- जिस प्रकार उत्तम पृथ्वीपर बोया हुआ बीज लाखों गुणा या करोड़ों गुणा फलता है उसी प्रकार उत्तम पात्र को दिया हुआ दान इच्छानुसार फलको देता है। समादिछी पुरिसो उत्तम पुरिसस्स विण्ण दाणेण । उपवज्जइ विव लोए हबइ स महदिसओ देओ ।। सम्यग्दष्टिः पुरुषः उत्सम युग्धस्य वन दानेन | उत्पद्यते स्वर्गलोके भवति स महद्धिको देवः ॥ ५०२ ।। अर्थ-- यदि कोई सम्यग्दृष्टी पुरुष उत्तम पात्र को दान देता है लो वह स्वर्ग लोक में जाकर महा ऋद्वियों को महा विभूतियों को धारण करने वाला उत्तम देव होता है। जह पोरं उसछुगयं कालं परिणवा अमिय स्वेण । तह वाणं पर पत्ते फलेइ भोएहि विविहे हि ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाद-संग्रह यथा नोरभिक्षुगतं काले परिणमति अमृतरूपेण । तथा दानं परपात्रे फलति भोगः विविध : ॥ ५०३ ॥ अर्थ- जिस प्रकार ईख के खेत में दिया हुआ पानी अपने समय पर अमृतरुप ( मोठे रसरुप ) परिणत हो जाता है उसी प्रकार उत्तम पात्र को दिया हुआ दान अपने समय पर अनेक प्रकार के भोगों से उतमरयणं खु जहा उत्तम पुरिसासियं च बहुमुल्लं । तह उत्तम पत्तगयं दाणं णिउणेहि णायत्वं ।। उत्तमरत्न खलु यथा उत्तम पुरुषाश्रितं च बहुमूल्पम् । तथोत्तमपात्रगतं वानं निपुणः ज्ञातव्यम् ।। ५०४ ।। अर्थ- जिस प्रकार कोई उत्तम रल किसी उत्तम पुरुष के आश्रय मे बहूमूल्य माना जाता है उसी प्रकार किसी उत्तम पात्र को दिया हुआ दान विद्वान लोगों के द्वारा सर्वोत्तम माना जाता है ऐसा समझना चाहिये । किचिवि बेयमयं पत्तं किंचिति पसं तवोभयं परमं । तं पत्तं संसारे तारकर्य होइ णियमेण ।। किं किंचिदपि वेदमयं किंचिदपि पानं तपोमयं परमम् । तत्पात्रं संसारे तारकं भवति नियमेन ॥ ५०५ ॥ अर्थ- अन्य प्रकार से पात्रों के और भी दो भेद है। एक तो थोड वा वहत वेद को जानने वाले को वेदमय पात्र और दूसरे थोडा वहुत परमोत्कृष्ट तपश्चरण करने वाले को तपोमय पात्र ऐसे पात्र के दो भेद है, ये दोनों प्रकार के पात्र नियम पूर्वक संसार से पार कर देने वाले होते है। आगे वेद क्या है और वेदभय पात्र कैसे होते है सो दिखलाते है। वेओ किल सिद्धंतो सस्सठ्ठा णवपयत्य छद्दब्बं । गण मम्गणठाणाबिय जीवट्ठामाणि सष्याणि ॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ भाव-सग्रह वेवः किल सिद्धातः तस्योर्थानःव पवार्थ षा व्रव्याणि । गुणमार्गणा स्थानात्यपि च जीवस्थानानि सर्वाणि ।। ५०६ ।। परमप्ययस्स एवं जीव कम्माण उहय सम्भावं । जो जाणइ सविसेस बेयमयं होइ तं पतं ।। परमात्मनो रुपं जोधकर्मणोरुभयोः स्वभावम् । यो जानाति सविशेष वेदमयं भवति तत्पात्रम् ।। ५०७ अर्थ- बेद शब्द का अर्थ सिद्धांत शास्त्र है. जो पुरुष सिद्धांत शास्त्रों को तथा उसकें. अ को जानता है, ना पदायों के स्वरूप का छहों द्रव्यों के स्वरूप को जानता है, समस्त गुणस्थान, मार्गणा स्थान और जीबस्थानों को जानता है, पममात्मा के स्वरुप को जानता है, जीवों का स्वभाव कर्मों का स्वभाव और कर्म विशिष्ट जोत्रा का स्वभाव जानता है तथा इन सबका स्वरुप विशेष रीति से जानता है उसको वेदमय पात्र कहते है। वहिरमंतर तवसा कालो परिखवइ जिणोयएसेण | विद बंभचेर पाणी पत्तं तु तवोमयं भणियं ।। बाह्याभ्यन्तरतपसा कालं परिक्षिपति जिनोपवेशन । दृढब्रह्मचर्यों ज्ञानी पात्रं तु तपोमयं भणितम् ।। ५०८ ॥ अर्थ- जो पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए बाह्य और अभ्यतर तमश्चरण के द्वारा अपना समय व्यतीत करता है तथा जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को दृढता के साथ पालन करता है और सम्यग्ज्ञान को धारण करता हे उसको सपोमय पात्र कहते है । इस प्रकार वेदमय और तपोमय दो प्रकार के पात्र बतलाये । आगे उदाहरण देकर पात्रदान का फल बतलाते है। जह णावा णिच्छिदा गुणमइया विविह रयण परिपुण्णा । तारइ पारावार बहु जलयर संकले भोमे ॥ यथा नौः निविण्छन्डा गुणमया त्रिविधरत्न परिपूणा । तारयति पारावारे बहुजलचर संकटे भीमे ।। ५०९॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव संग्रह तह संसार समद्दे जाई जरामरण जलयरा किणे । दुश्ख सहस्साबत्ते तारेइ गुणाहियं पतं ॥ ५१० ॥ तथा संसार समद्रे जातिजरामरणजलचराकीणे । वुःखसहला वर्ते तारयति गुणाधिक पात्रम् ॥ ५१० ॥ अर्थ- जिस प्रकार अनेक प्रकार के रत्नों से भरी हुई और नाव में होने वाले अनेक गुणों को धारण करने वाली बिना छिद्रवाली नाव अनेक जलचर जीवों मे भरे हुए और अत्यंत भयानक एसे समुद्र से पार कर देती है उसी प्रकार अधिक अधिक गुणों से सुशोभित होने वाला पात्र जो जन्म जरा मरण रूपी विकट जलचर जीवों से भरा हुआ है और जिसमें हजारों दुःवरूपो भंवर पड रहे है ऐसे इस संसार समद्र से भव्य जीवों को पार कर देता है । इस प्रकार संक्षेप से पात्रों का स्वरूप बतलाया। आगे दान देने योग्य द्रव्य को बतलाते है । कुच्छिगयं जस्सउणं जोर तबझाणवंभ चरिएहि । सो पत्तो णित्यारइ अप्पाणं चेत्र कायारं ॥ ५११ ।। कुक्षिगतं यस्यान्नं जीयते तपो ध्यान ब्रह्मचर्यः । तत्पात्रं निस्तारयति आत्मानं चैव दातारम् ।। ५११ ।। अर्थ- जिसका जो अन्न पेट में पहुंचने पर तपश्चरण ज्यान और ब्रह्मचर्य रादि के द्वारा सुखपूर्वक जीर्ण हो जाय पच जाय वही अन्न पात्र को भी संसार से पार कर देता है और दान देने वाले दाता को भी संसार से पार कर देता है। एरिस पत्तम्मि वरे विज्जा आहारदाणमणबज्ज । पासुय सुद्धं अमलं जोगं मणदेह सुषणयरं ।। ५१२ ।। एनादश पात्रे बरे दद्यात आहारदान मनवनाम । प्रासुकं शुखं अमलं योग्यं मनोबेहसुसारम् ।। ५१२ ।। अर्थ- इस प्रकार कहे हुए उत्तम पात्रों को निरन्तर आहार दान देना चाहिये । वह आहार निर्दोष हो प्रासुक हो, शुद्ध हो, निर्मल हो, Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावमय योग्य हो और मन तथा शरीर को मुख देने वाला हो । कालस्स य अणुरूवं रोयारोयनणं च पाऊणं । वायध्वं जह जोग्गं आहारं गेहवतेण ।। ५१३ ।। कालस्य चानुरूपं रोगारोगत्वं च ज्ञात्वा । दातव्यं यथायोग्य आहारं गेवता ।। ५१३ ।। अर्थ- गृहस्थों को यथा योग्य एसा आहार दान देना चाहिये जो समय वा ऋतुओं के अनुकूल हो, तथा जिसमे रोग वा नीरोगता का भी बिचार हो । पत्तस्सेस सहायो में दिग्णं दायगेण भत्तीए । तं कर पत्ते सोयि गहियन्यं विगइरायेण ॥ ५१४ ।। पात्रस्यैष स्वभावो यहत्तं दायकेन भक्त्या । तस्कर पात्रे शोधियित्वा गृहीतव्यं विगतरागण ।। ५१४ ।। अर्थ- पात्रका भी यह स्वभाव होना चाहिए कि दाता ने जो भक्तिपूर्वक दान दिया है उसको कर पात्र में लेना चाहिये और उसको शोधकर विना किसी राग द्वष के ग्रहण कर लेना चाहिये । आग दाता का भी स्वभाव बतलाते है। दायारेण पुणो विय अप्पाणी सुक्ल मिच्छमाणेण । वेच उत्तम दाणं विहिणा बरणीय सत्तीए ।। ५१५ ।। वात्रा पुनरपि च आत्मनः सुखमिच्छता । देयं उत्तमदानं विधिना वाणितशक्त्या ।। ५१५ ।। अर्थ - जो दाम देने वाला दाता अपने आत्मा को सुख पहुँचना चाहता है उसको विधि पूर्वक ऊपर कही हुई शक्ति के अनुसार उत्तम दान देना चाहिये । आगे लोभी दाता के लिये कहते है । जो पुण हंसद धण कणइ महिं कुभोयण देइ । जम्मि मम्मिदालिदाहण पुट्टिण सहो छंडेइ ।। ५१६ ॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह य: पुनः सतिधन फनके मुनिभ्यः कुभोजनं ददासि । जन्मनि जन्मनि वारिद्रय दहनपृष्ठं न तस्य त्यति ।। ५१६ ॥ अर्थ- जो पुरुष अन्न घन आदि के होते हुए भी मुनियों को कुमका देशा उनको दरिद्रता अनेक जन्मों तक भी नहीं छीनी अर्थात् वह अनेक जन्म तक दरिद्री बना रहता है। आगं आहार दान के लाभ वतलाते हैं । देहो पाणा हवं विज्जा धम्म तवो सुहं मोक्खं । सव्वं दिगणं णियमा हवेइ आहारदाणेण ।। देहः प्राणा: रुपं विद्या धर्म: तपः सुखं मोक्षः । सर्व दत्तं नियमात् भवेत् आहारदानेन ।। ५१७ ।। अर्थ- शरीर, प्राण, रुप, विद्या, धर्म, तप, सुख और मोक्ष ये सब आहार के ऊपर निर्भर है । इस लिये जो भव्य पुरुष यतियों को आहार दान देता है वह नियम से शरीर, प्राण, रुप, विद्या, धर्म, तप, सुख मोक्ष आदि सबका दान देता है ऐसा समझना चाहिये। भुक्खं समा गहु वाही अण्णसमाणं य ओसहं गस्थि । तम्हा अहार दाणे आरोगत्तं हवे दिण्णं ।। वभुक्षासमो नहि ध्याधि: अन्नसमाण च औषधं नास्ति । - तरमादाहारदानेन आरोग्यत्वं भवेद्दत्तम् ।। ५१८ ॥ अर्थ- इस संसार में भूख के समान अन्य कोई व्याधि नहीं है और अन्न के समान कोई औषधि नहीं है। इस लिये जो भव्य आहार दान देता है वह पुरुष आरोग्य दान भी देता है ऐसा अवश्य समझना चाहिये। आहार मओ वेहो आहारेण विणा पडेइ णियमेण । तम्हा जेणाहारो दिण्णो देहो हबे तेण ॥ आहार मयो देहः आहारे बिना पति नियमेन । तस्मात्येता 5 हारो दत्तो बेहो भवेत्तेन ।। ५१९ ।। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अर्थ- यह शरीर आहार मय है अन्न का कीडा है । यदि इसको आहार न मिले तो नियम से शिथिल होकर गिर पडता है । इस लिये जिसने ऐसे शरीर के लिये आहार दिया उसने उस शरीर को ही दिया ऐसा समझना चाहिये । २३० ता देहो ता पाणा ता रुवं साम णाण विष्णाणं । जामा हारो पविसs देहे जीवाण क्यरो ॥ तावद्देहस्तावत्प्राण स्तावद्रूपं तावद्ज्ञान विज्ञानम् । यावदाहारो प्रविशति देहे जीवानां सुखकरः ।। ५२० ।। अर्थ - इस संसार मे जब तक जीवों को सुख देने वाला आहार इस शरीर में रहता है तब तक ही यह शरीर है तब तक ही प्राण रहते है तबतक ही रूप रहता है, तबतक ही ज्ञान रहता है और तब तक हो विज्ञान रहता है। बिना आहार के ये सब नष्ट हो जाते है । है । आहारसणे वेहो देहेण तवो तवेण रय सडणं । रय शालेण य णाणं णाणे मुक्खो जिणोभणई || आहाराशने देहो बेहन तपस्तपसा रजः सटनम् । रजोनाशेन च ज्ञानं ज्ञाने मोक्षो जिनो भणति ।। ५२१ ।। अर्थ - आहार ग्रहण करने से शरीर की स्थिति रहती है, शरीर की स्थिती रहने से तपश्चरण होता है, तपश्चरण से ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मों का नाश होता है, ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मों के नाश होने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान की प्राप्ति होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है । आगे आहारदान से चारों दानों का फल मिलता है ऐसा कहते चविषाणं उत्तं जे तं सयलमवि होइ इह विष्णं । सविसेस दिष्णेय इक्केणाहारवाणेण || चतुविधवानं उक्तं यत् तत् सकलमपि भवति इह दत्तम् । सविशेषं दत्तेन च एकेनाहार वानेन ।। ५२२ ॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्नह अर्थ- जो पुरष विशेष रीति से एक आहार दान को ही देता है पंह उस एक आहार दान से ही समस्त चारों दान दिये. ऐसा समझा जाता है। आम यही बात दिखलाते है । भुक्खा कय मरणभयं पासइ जीवाण तेण तं अभयं । सो एव हणइ बाही उसहं फुउत्थितेण आहारो ।। ५२३ ॥ बुभुक्षाकृत मरण भयं नाशयति जीवानां तेन तदभयम् । स एवं हन्ति व्याधि औषधं स्फुटमस्ति तेनाहारः ।। ५२४ ।। अर्थ- देवो भूख की पीडा अधिक होने से मरने का भय होता है इसलिय आहार दान देने से अभयदान की भी प्राप्ति होती हैं। तथा भूख ही सबसे प्रबल व्याधि है । और वह आहार दान से नष्ट होती है। इसलिए आहार दान देने से ही औषध दान समझना चाह्यि । आयाराई सत्यं आहारवलेण पर णिस्सेस । सम्हा तं सुयदाणं दिण्णं आहारदाणेण ॥ ५२४ ।। आचारादि शास्त्रं आहारवलेन पठति निःशेषम् ।। तस्मात तच्छ तवानं दत्तं आहार बानेन ।। ५२४ ।। अर्थ- इस आहार के ही वलसे आचार आदि समस्त शास्त्रों का पठन पाठन होता है इसलिये एक आहार दान देने से ही शास्त्र दान का भी फल मिल जाता है । इस प्रकार एक आहार दान से चारों के फल मिल जाते है । आगे आहार दान का और भी महत्व बतलाते है । हय गयगो बाणाई धरणीरय कणय आण बाणाई। सित्ति ण कुणंति सया जह तित्ति कुणइ आहारो || ५२५ ।। हयगज गोदानानि धरणी रत्नकनक यानदानानि । तृप्ति न कुर्वन्ति सदा यथा तृप्ति करोति आहारः ।। ५२५ ॥ अर्थ- घोडा हाथी और गायों का दान, पृथ्वी, रहन, अन्न, वाहन Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह आदि का दान देने से दान लेने वालों को उतनो तप्ति नहीं होतो जितनी तृप्ति सदाकाल आहार दान देने से होती है । आगे और भी कहते है। जह रयणाण बइर सेलेसु य उत्तमो जहा मेरू । तह दाणाणं पवरो आहारो होइ णायचो ॥ ५२६ ।। यथा रस्नानां वनं शैलेषु च उसमो यथा मेरुः । तथा दानानां प्रवरः आहारो भवति ज्ञातव्यः ।। ५२६ ।। अर्थ- जिस प्रकार समस्त रत्नों में बन रत्न उत्तम है, और ममम्त पर्वतों में मेरु पर्वत उत्तम है उसी प्रकार समस्त दानों में आहादान सबसे उत्तम है ऐसा समझना चाहिये । आगे आहार दान देने की विधि बतलाते है। सो दायवो पत्ते विहाण जुत्तेण सा विही एसा । पडिगह मच्चठ्ठाणं पादोदय अच्चणं पणामं च ।। ५२७ ।। तत् वातव्य पात्रे विधान युक्तेन स विधिरेषः । प्रतिग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमसनं प्रणामं च !! ५२७ ।। मणवयण कायसुद्धी एसणसुखी य परम कायव्वा । होइ फु आपरणं णविहं पुण्य कम्मेण ॥ ५२८ ।। मनो वचन काय शुद्धि रेषण शुद्धिश्च परमा कर्तव्या । भवति स्फुटमाचरणं नवविध पूर्वकर्म णा ।। ५२८ ।। अर्थ- वह आहार दान पात्र को ही देना चाहिये और विधिपूर्वक ही देना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार है ! प्रतिग्रह उच्चस्थान, पादोदक, अर्चन, प्रणाम, मन शुद्धि, बचन्त शुद्धि काय और आहार शुद्धि इस प्रकार नवधा (नौ प्रकार) भक्ति पूर्वक आहार देना चाहिये । जब मुनि अपने समय पर वा ष.बकों के घर भोजन वन जाने के समय पर चर्या के लिये निकलते है तब वे प्रायः श्रावकों के घर के सामने होकर निकलते हैं। जिससमय मुनि अपने घर के सामने आ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २३३ उस समय श्रावक को कहना चाहिये कि हे स्वामिन् नमोस्तु नमोस्तु विष्ठ तिष्ठ आहार जलं शुद्धं वर्तते अर्थात् हे स्वामिन् नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु इस प्रकार तीनवार हाथ जोडकर मस्तक झुकाकर नमस्कार करना चाहिये कि महाराज यहां ठहरिये उहरिये आहार जल शुद्ध है। इतना कहने पर जब वे खड़े होजांय तो तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिये और फिर कहना चाहिये कि महाराज घर पधारिये । इतना कहकर उस श्रावक की आगे चलना चाहिये । इसको प्रतिग्रह कहते हैं। घर जाकर उनको किमी ऊंचे स्थान पर पाटा या कुरर्सी पर बिठाना चाहिये । महाराज इस पर विराजो ऐसा कहकर विलाना चाहिये । इसको उच्चस्थान कहते हैं । तदनंदतर प्रासुक गर्म जलन किसी थाली में उनके पैर धोने चाहिये और चरणोदक को मस्तक पर एक अर्ध्य देकर उन मुनि की पूजा करनी चाहिये इसको जवन कहते है उसके अन्तर ग चाहिये कि महाराज मेरा मन शुद्ध है वचन शुद्ध है शरीर शुद्ध है और आहार शुद्ध है। आप चौका में पधारिये । इतने कहने पर वे चौका में चले जाते है। मुनि खडे होकर आहार लेते है इसलिये उनको खड़े होने के लिए एक पाटा बिछा रखना चाहिये जो हिले नहीं तथा उसके सामने किसी छोटी सी ऊंची चौकी पर या छोटी मेजपर एक बडा भगोना या तसला रखाना चाहिये जिसमे थोडी सूखी घास रक्खी हो यदि आहार लेते समय हाथ से पानी गिरे तो उसी में गिरे और घास रखने से इधर उधर छींटे नहीं जाते यह नववा भक्ति है और यथा योग्य सब ही पात्रों के लिये होती है । L एवं विहिणा त्रुत्तं देयं वाणं तिसुद्ध भत्तीए । वज्जिय कुच्छित्रपतं तह व अपतं च णिस्सारं ।। ५२९ ।। एवं विधिना युक्तं देयं वानं त्रिशुद्धि भक्तया । वर्जयित्वा कुत्सितपात्रं तथा चापात्रं च निसारम् ॥। ५२९ ।। अर्थ - इस प्रकार नवधा भक्ति पूर्वक तथा मन वचन काय की शुद्धता पूर्वक पात्रों को दान देना चाहिये, तथा कुत्सित पात्र वा कुपात्र Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात्र संग्रह और अपात्र इन दोनों का कभी दान नहीं देना चाहिये । क्योंकि इन दोनों को दान देना नि:सार ।। आगे कुत्सित पात्रों को कहते है । जे रयणत्तय रहियं मिच्छमय कहियधम्म अणुलग्गं । जई बिहु तबइ सुधोरं तहावितं कुच्छ्यिं पत्तं ।। ५३० ।। तद्रलत्रयरहितं मिथ्यामत कथित धर्मानुलग्नम् । यद्यपि हि तप्यते सुधोरं तथापि तत् कुत्सितं पात्रम् || ५३० ।। अर्थ- जो पुरुष रत्नत्रय से रहित है और मिथ्या मत में कहे हुए धर्म में लीन रहता है ऐसा पुरुष चाहे जितना घोर तपश्चहरण करे तथापि बह कुत्सित पात्र वा कुपात्र ही कहलाता है । आगे अपात्र को कहते है। जस्स ण तवो ण चरणं ण चावि जस्सत्यि वर गुणो कोई। तं जाणेह अपतं अफलं दाणं कयं तस्स ।। ५३१ ।। यस्य न तपो न चरणं न चापि यस्यास्ति घरगुणः कोऽपि । सज्जानीयावपात्रमफलं वानं कृतं तस्य ।। ५३१ ॥ अर्थ- जो न तो तपश्चरण करता है, न किसी प्रकार का चारित्र पालन करता है और न उसमें कोई अन्य श्रेष्ठ गुण है ऐसा पुरुष अपात्र वाहलाता है ऐसे अपरात्र को दान देना सर्वथा व्यर्थ है। उसका कोई फल नहीं होता है। ऊसर रिवत्तं वीर्य सुस्खे रुखे य पीर अहिसेओ। जह तह दाणमपसे दिण्णं खुणिरत्ययं होई ।। ५३२ ।। ऊपर क्षेत्र वीजं शके वृक्षे छ नीराभिषेकः । यथा तथा दानमपात्रे दत्तं खलु निरर्थकं भवति ॥ ५३२ ॥ अर्थ- जिस प्रकार ऊसर पृथ्वीपर बोया हुआ वीज व्यर्थ जाता है और सके हए वृक्ष में पानी देना व्यर्थ जाता है उसी प्रकार अपात्र को दिया हुआ दान पर्वथा व्यथं जाता है । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ___२३५ आगे कुपात्रों को दिये हुए दान का फल बतलाते है । कुच्छिय पत्ते किंचि वि फलइ कुदेवेसु कुणरतिरिएसु । कुच्छिय भोयघरासु य लवणंवुहि कालउवहोसु ।। ५३३ ।। कुत्सितपात्रे किंचिदपि फलति कुदेवेषु कुनरतिर्यक्षु । कुत्सित भोग धरासु च लब णाम्बुधि कालोबधिषु ॥ ५३३ ।। अर्थ-- कुत्सित पात्रों को दिये हुए दान का कुत्सित ही फल मिलता है और वह उस कुपात्र दान के फलसे कृदेवों में उत्पन्न होता . कुमनुष्यों में उत्पन्न होता है खोटे तिर्यंचों में उत्पन्न होता है और लवणोदधि तथा वालोदधि समुद्र में होने वाली कुभोग भूमियों में उत्पन्न होता है। आगे उन कुमोगभूमियों को और उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को कहते है। लवणे अडयालीसा काल समद्दे य तित्तियाचे व । अंतरदीवा भणिया कुभोग भूमीय विषखाया ॥ ५३४ ।। लवणे अष्ट चत्वारिंशत् कालसमुद्रे च तावन्त एव । अन्तर्वीपा भणिता; कुभोग भूम्यः विख्याताः ॥ ५३४ ।। अर्थ-- लवण दिधि समुद्र में अड़तालीस अंतर्वीप है और कालोदधि समुद्र में भी अडतालीस अंतर्वीप है। इस प्रकार इन छियानवें अंतीपों मे कुभोग भूमियां है। उप्पज्जति मणुस्सा कुपत्तवाणेण तत्थभूमोसु । जुयलेण गेहरहिया गाग्गा तरुमूलिणिवसति ।। ५३५ ।। उत्पद्यन्ते मनुष्याः कुपात्रदानेन तत्र भूमिषु । युगलेन गृहर हिता नग्नाः तरुमूले निवसन्ति ।। ५३५ ।। अर्थ- जो मनुष्य कुपात्रों को दान देता है वह मनुष्य इन कुभोग भूमियों में मनुष्य होकर उत्पन्न होता है । वहां पर सब मनुष्य युगलिया (स्त्री पुरुष दोनों साथ साथ) उत्पन्न होते है, उनके रहने के लिये घर Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह नहीं होते वृक्षों के नीचे रहा करते है और नग्न रहते है। पल्लोबम आउस्सा वत्थाहरणेहि वज्जिया णिच् । तरुपल्लव पुस्करतं कलापस लेब भरलंति ।। ५३६ ।। वल्योपमायुषः वस्त्राभरणेन वजिता नित्यम् । तरुपल्लव पुष्परसं फलानां रसं चंद्र भक्षयन्ति ।। ५३६ ।। अर्थ- इन मनुष्यों की आयु एक पल्य की होती है तथा ये लोग सदा काल वस्त्राभरण से रहित होते है और वृक्षों के पत्ते, सलों का रस और फलों का रस भक्षण करते रहते है। वोवे कहिं पि मणु या सक्कर गुड खंड सणिहा भूमी । भक्खंति पुट्ठि जणया अइसरसा पुख्न कम्मेण ।। ५३७ ।। द्वोपे कुत्रापि मनुजाः शर्करा गुरखण्डसन्निभां भूमिम् । भक्षयन्ति पुष्टिजनका अतिप्तरसां पूर्वकर्मणा ।। ५३७ ।। किसी किसी द्वीप की भूमि गुड शक्कर और खांड के समान मीठी होती है, पौष्टिक होती है और अत्यन्त सरस होती है । इसलिये उन द्वीपों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य अपने पूर्व वामं के उदय से उसी भूमि की मिट्टी को खाकर रहते है । केई गय सीह मुहा केई हरि महिस कवि कोल मुहा । केई आवरिस मुहा केई पुण एम पाया य ।। ५३८ । केचित् गर्जासह मुखाः केचिद्धरिमहिष केपि कोलूकमुखा । केचिदादर्शमुखाः केचित्पुनः एकपात्राश्च ।। ५३८ ।। अर्थ- उन द्वीपों में रहने वाले मनुष्यों मे कितने ही मनुष्यों के ... मुख हाथी के मुख के समान होते है कितने मनुष्यों के मुख सिंह के मख के समान होते है, कितने ही मैंसा के से मुखवाले होते है कितने ही सूअर के से मुखवाले होते है और कितने ही मनुष्य बंदर के से मुख वाले होते है और कितने ही मनुष्य' दर्पण के समान मुखवाले होते है । इसके सिवाय कितने ही मनुष्य एक पैर वाले होते है । तथा Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मग्रह २३७ सससुक्कलि कण्णाविय कण्णद्यावरण वीह कण्णा य । लांगूलधरा अपरे अपरे मणुया अमासा य ।। ५३९ ।। शश शाकुलिकर्णा अविच कर्णप्रथरर्णा दीर्घ कर्णाश्च । लांगूलधरा अपरे अपरे मनुप्या अभाषकाश्च ।। ५३९ ।। अर्थ- उन मनुष्यों में से कितने ही मनुष्य खरगोश कसे कान वाले होते है, कितने ही पूरी के से कान वाले होते है कितने ही मनुष्यों के चौडे कान होते है और कितने ही मनुष्यों के लम्बे कान होते है । इनके. शिवाय कितने ही मनुष्यों के पूंछ होती है और कितने मनुष्य किमी गी प्रकार की भाषा नहीं बोलते। ए ए णरा पसिद्धा तिरिया वि हबंति कु भोय भूमोसु । मणुसुतर वाहिरेसु अ असंख दीवेसु ते होंति । एने नराः प्रसिद्धाः नियंचोपि भवन्ति कुभोग भूमिषु । मानषोत्तर बाह्येषुच असख्य द्वीपेषु ते भवन्ति ।। ५४० ।। अर्थ- इन सव कुभोग भूमियों में मनुष्य ही होते है, तथा इनके सिवाय मानुषोत्तर पर्वत के बाहर असंख्यात द्वीपों में होने वाली कुभोग भूमियों लियंत्र भी होते है । सब्वे मंद कसाया सध्ने णिस्सेस बाहि परिहोणा। मारऊण वितरा बिहु जोइसु भवणेसु जायंति ।। सर्वे मन्दकषायाः सर्वे निःशेषशाधिपरिहीनाः । मृत्वा व्यन्तरेष्वपि हि ज्योति भवनेषु जायन्ते ।। ५४१ ।। अर्थ- ये सब मनुष्य और तिर्यन्च मंद कषायी होते है और सबके संपूर्ण व्याधियों से रहित होते है। वे सब मरकर कितने व्यंतर देवों में उत्पन्न होते है, और कितने ही ज्योतिषी और भवन वासी देवों में उत्पन्न होते है। तस्थ चुया पुण संता तिरियणरा पुण हवंति ते सम्थे । काऊण तत्थ पावं पुणोवि णिरयापहा होति ।। ततस्थुताः पुनःसन्त: तिर्यग्नराः पुनः भवंति ते सरें। कृत्वा तत्र पापं पुनरपि नरकपथा भवन्ति ।। ५४२ ।। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ माव-संग्रह अर्थ- कुपात्र दान देने वाले मनुष्य जो मरकर कुभोग भूमि में उत्पन्न होते हैं और वहां से आकर भवन वासी व्यंतर ज्योतिषियों में उत्पन्न होते है वहां की भी आयु पूर्णकर वे फिर मनुष्य वा तिर्यच होते है और वहां भी अनेक प्रकार के पापकर नरकमे जाकर पडते हैं । घंडालभिल्ल छिपिय डोंब य करलाल एव माईणि | दीसंति सिल पत्ता कुछिय पत्तरस दाणण ।। चांडालभिल्लाछपक डोम्ब फलवारा एवमादिकाः । दृश्यन्ते ऋद्धिप्राप्ताः कुत्सितपात्रस्य दानेन ।। ५.३ ।। अर्थ- वर्तमान में जो चांडाल मील छोपो दाग कलालादि निम्न थंगी के लोग धन और विभूती आदि से परिपूर्ण दिखाई दी है वे सब कुत्सित पात्रों को दान देने में ही बनी होती है । भावार्थ-- निम्न श्रेणी के लोगों में धन विभूति का होना कुपात्र दान' का ही फल ।। केई पुण गय तुरया गेहेरायाण उग्णई पत्ता । दिस्सति मञ्च ल.ए कुच्छिय पसस्स वाण ।। केचित्पुनः गजतुरगा गृहे राज्ञां उन्नति प्राप्ताः । दृश्यन्ते मर्त्यलोके कुत्सित पात्रस्य दानेन ।। ५४४ ।। अर्थ- इस मनुष्य लोक में राजाओं के घर जो कितने ही हाथी घोडे आदि उन्नति को प्राप्त हुए दिखाई देते है बहुत सुखी दिखाई देते है वह सब कुपात्र दान देने का फल समझना चाहिए । केई पुण विव लोए उपक्षण्णा बाहणतणेण ते माया । सोसंति जाइ दुक्खं पिच्छिय रिद्धी सुदेवाणं ।। केचित्पुनः स्वर्गलोके उत्पन्ना वाहनरवेन ते मनुजाः । शोचन्ति जाति दुःखं प्रेक्ष्य ऋद्धि सुदेवानाम् ॥ ५४५ ।। अर्थ- कुपात्रों को दान देने वालों में से कितने ही मनुष्य स्वर्गलोक में भी उत्पन्न होते है परन्तु वहां पर दे वाहन रूपसे उत्पन्न होते है अन्य वडे देवों के वाहन बनकर रहते है । इसलिये वे बडे देवों की ऋद्धियों को देखकर अपनी बात रूम जाति के दुःख का शोक करते रहते है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह णाऊण तस्स दोस सम्माणह मा कया विसधिणभिम । परिहरह सया दूरं वुह्यिाण वि सविस सप्पं व ।। ५४६ ॥ ज्ञात्वा तस्य दोष सम्मानयेन्मा कदाविपि स्वप्ने । परिहरेत्सदा दूरं ज्ञात्वा सविषसर्पवत् ॥ ५४६ ।। अर्थ- कुपात्रों को दान देने में अनेक प्रकार के दोष होते है उन सबको समझकर स्वप्न में ी उनका सन्मान नहीं करना चाहिये, तथा कभी किसी अवस्था में भी उनका सम्मान नहीं करना चाहिये । विषधर सप के समान पात्रों का त्याग ती दूर स ही कर देना चाहिय । पत्थर मया वि दोणी पत्थर मप्पाणयं च वोलेई । जह तह कुच्छिय पत्तं संसारे चेव बोलेई ॥ ५४७ ।। प्रासर मायन मोग प्रालामामानं च निमज्जयति । यथा तथा कुत्सितपात्र संसारे एव निमम्जयति ।। ५४७ ।। अर्थ- जिस प्रकार पत्थर की बनी हुई और पत्थरों से भरी हुई नाव उन पत्थरों को भी डुबो देती है और स्वयं भी डूब जाती हे उसी प्रकार कुपात्र भी मंसार समुद्र में डूब जाता है और दूसरों को भी डुबा देता है 1 णाया जह सच्छिद्दा परमप्पाणं च उहि सलिलम्मि । वो लेन तह कुपतं संसारमहोवही भीमे ।। ५४८ ॥ नौर्यथा सछिद्रा परमात्मानं चोदधिसलिले । निमज्जयति तथा कुपानं ससारमहोवधौ भीमे ।। ५४८ ।। अर्थ- जिस प्रकार छिद्र सहित नाव समुद्र के जल मे अपने आप डूब जाती है उसी प्रकार कुपात्र भी इस संसार रूपी भयानक महा समुद्र मे अपने आप डूब जाता है | . लोहमए कुतरंडे लग्गो पुरिसो हु तारिणो वाहे । बुड्ढइ जह तह बुड्ढइ कुपत्त सम्माणओ पुरिसो । ५४९ ।। लोहमये कुतरण्डे लग्नः पुरुषो हि तारिणीवाहे । मज्जति यथा सथा मज्जति कुपात्रसम्मानक: पुरुषः ॥ ५४९ ।। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सर अर्थ - जिस प्रकार लोहे की बनी नाव में अवश्य डूब जाता है उसी प्रकार कुपात्रों का सन्मान करने वाला पुरुष भी इस संसार रूपी समुद्र मे अवश्य डूबता है। गलहंति फलं गरुयं कुच्छिय पहुबिस सेविया पुरिसा । जह तह कुच्छ्यि पत्ते विष्णा दाणा मुणेयन्वा ।। ५५० ।। न लभन्ते फलं गुरुकं कुत्सितप्रभुत्व सेवकाः पुरुषाः । यथा तथा कुत्सितराने दत्तानि वानानि मन्तव्यानि ।। ५५० ।। अर्थ- जिस प्रकार किमी कुत्सित स्वामी के आश्रित रहने वाले सेवक पुरुष को उसकी मेवा का अच्छा श्रेष्ठ फल नहीं मिलता इसी प्रकार कुत्सित पात्रों को दिया हुआ दान समझना चाहिये । भावार्थकुत्सित पात्रों को दिये हुए दान का फल भी श्रेष्ठ फल कभी नहीं मिल सकता। णत्थि वय सील संजम झाणं तब नियम बंभचेरंच । एमेव भगद पत्तं अप्पाणं लोय मामिम ।। ५५१ ।। नास्ति बलशीलसंयम ध्यानं तपोनियमब्रह्मचर्य च । एवमेव भणति पात्र आत्मानं लोकमध्ये ॥ ५५१ ।। अर्थ- जो न तो व्रतों को पालन करते है न शीलों को पालन करते है, जिनके न संयम है न ध्यान है जो न किसी प्रकार का तपश्नकरने न किसी नियम का पालन करते है और न ब्रह्मचर्य का पालन करते है ऐसे लोग भी इस लोक में अपने को पात्र कहते है। आगे और भी कहते है। मय कोह लोह गहिओ उड्डिय हत्थाय जायणा सोलो । गिह वाबारासत्तो जो सो पत्तो कहं बइ ।। ५५२ ।। मदक्रोध लोभमभित उत्थितहस्तश्च याचनाशीलः । गृहव्यापारासक्ल: यः स पात्रं कथं भवति ।। ५५२ ।। अर्थ- भला विचार करने की बात है कि जो झूठमूठ ही अपने Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २४१ बडापन का अम्मिान करते है जो क्रोधी है लोभी है साथ उठाकर मत्रत्र मागते मांगते फिरते है और जो गृहस्थी के व्यापार में सदा लगे रहते है एसे लोग पात्र कैसे हो सकते है अर्थात् कभी नहीं हो सकते । हिंसाइदोस कुत्तो अत्तरउद्देहि गमिय अहरत्तो । ऋय विक्किय वदतो इंदिय विसएसु लोहिल्लो ।। ५५३ ।। हिसादिदोषयुक्त आरौिद्रेः गमिताहोरात्रः । क्रयविक्रयवर्तमानः इन्द्रिय विषयेषु लुब्धः ।। ५५३ ।। उत्तम पल णितिय गुरुठाने अप्ययं पकुव्यतो । होउं पावेण गुरू वुड्डइ पुण कुगइ उवहिम्मि ।। ५५४ । उत्तमपात्रं निन्दित्वा गुरुस्थाने आत्मानप्रकुर्वन् । भूत्वा पापेन गुरुः गुडति पुनः कुगत्युदधौ ।। ५५४ ॥ अर्थ- जो पुरुष हिंपा झूठ चोरों आदि पापों में लगा रहता है, रातदिन आतुंध्यान अथवा रौद्र ध्यान में लगा रहता है, संसार भर के सामानों को खरीदने और बेचने में लगा रहता है, और इद्रियों के विषयों मे अत्यन्त लोलुपता धारण करता है, इसके सिवाय जो उत्तम पात्रों की सदा निन्दा करता रहता है और गुरुओं के स्थान में अपनी आत्मा को नियुक्त करता है अर्थात् अपने आप स्वयं गुरु बन बैठता है। इम प्रकार जो अपने ही पापों में अपने को गुरु मानता है वह मनुष्य नरक निगोद रूपी कुगतियों के समुद्र में अवश्य डूब जाता। जो बोलइ अप्पाणं संसार महष्णवम्मि । सो अणं कह तारइ तस्सणुमग्गे जणे लागं ।। ५५५ ॥ . य: निभज्जयति आत्मानं संसारमहार्णवे गुरुके । स अन्यं कथ तारयति यस्यानमार्गे जनलग्नम् ॥ ५५५ ।। . अर्थ- इस प्रकार अपने को गुरु मानने वाला पुरुष इस संसार रूपी महा भयानक समुद्र में अपने आत्मा को डुबा देता है । वह मिथ्या गुरु उस मिथ्या गुरु के पीछे पीछे लग हुए मनुष्य को भला पार कैसे कर सकता है अर्थात् ऐमें गुरु के पीछे जो मनुष्य लगता है वह भी उसके Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह साथ साथ अवश्य डूबता है । एवं पत्तविसेसं पाऊणं देह दाणमणवरयं । णिय जीव सग्गमोक्खं इच्छयमो पयत्तेण ।। ५५६ ।। एवं पात्र विशेष ज्ञात्वा वहि दानमनधरतम् । निज जीव स्वर्गमोक्षाविच्छन् प्रयत्नेन ।। ५५६ ।। अर्थ- जो पुरुष अपने आत्मा को स्वर्ग मोक्ष में पहुँचाना चाहते है उनको चाहिये कि वे ऊपर लिये अनुसार पात्र अपायों के भदों को अच्छी तरह समझ कर प्रयत्न पूर्वक सदाकाल उत्तम पात्रों को दान देते रहे। आगे समर्थ होकर भी जो दान नहीं देता उस लिये कहत है । लहिण संपया जो देइणबाणाई मोह संछण्णो । सो अप्पाणं अप्पे बचेइ य त्थि संदेहरे ।। लध्या सम्पत् यो वदाति न दानादि मोहसंच्छन्नः । स आत्मानं आत्मना वंचति च नास्ति सन्देहः ।। ५५७ ।। अर्थ- जो पुरुष धन संपदा पाकर भी उसमे अत्यन्त मोह करता है और पात्रों को भी जान नहीं देता वह अपने ही आत्मा के द्वारा अपने ही आत्मा को ठगता है इसमे किसी प्रकार का संदेह नहीं है। जय देव णेय भुंजइ अत्थं णिखणेइ लोहसंछण्णो । सो तणकय पुरिसो इव ररूषइ सस्सं परस्सस्थे ।। न च ददाति नव गुंक्तेऽर्थ निक्षिपति लोभ संच्छन्नः । स तणकृत पुरुषः इस रक्षति सस्य परस्यार्थे ।। ५५८ ।। अर्थ- जो धनी पुरुष न तो किसी को दान देता है न अपने भोगोपभोगों मे धन को लगाता है केवल तीव्र लोभ में पडकर उसकी रक्षा करता रहता है वह पुरुष घास-फुस के बने हुए पुरुषाकार पुतले के समान केवल दूसरों के लिये खेतों की रक्षा करता है । भावार्थ- बहुत से लोग घासफुस का पुतला बनाकर खेतों में गाड देते है उसको देखकर Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २४३ तथा उसको मनग्य समझकर इस खेत में जानवर आकर नहीं खाते । इस प्रकार बह पुतला न तो दूसरों को खाने देता है और न स्वयं कुछ खाता है। उसी प्रकार जो न तो दान देता है और न स्वयं खाता पोता है वह पुरुष फुस के पुतले के समान दूसरों के लिय धनका रक्षा करता रहता है। किविणेण संचयधणं ण होई उवयारियं जहा तस्स । महरि इव संचियमहु रंति अण्णे सपाहि ।। कृपणेन संचित धनं न भवति उपकारकं यथा तस्य । मधुकरेण इव संचितमधु हरन्यि अन्ये सपाणयः ।। ५५९ ।। अर्थ- जिस प्रकार मधुमक्खी अपने छत्ते मे मधु वा शहद को इकट्ठा करती है परन्तु वह स्वयं उसका उपभोग नहीं करती । इसलिये दुसरे मनुष्य आकर उस छत्त को तोडकर उसका इकट्ठा किया हुआ शहद भी ले जाते है और सैकड़ों हजारों मक्खियों को मार भी जाते है इसी प्रकार जो कृपण मनुष्य केवल धन को इकट्ठा करता रहता है उसका धन उसके काम में कभी नहीं आता । वह दूसरे के ही काम आता है। आगे कृपण के लिये और भी कहते है । कस्स थिरा इह लच्छि कस्स थिर जुवणं धणं जीयं । इय मुणिऊण सुपुरिसा दिति सुपत्तेसु दाणाई । कस्य स्थिरेह लक्ष्मीः कस्य स्थिरं यौवनं धनं जीवितम् । इति ज्ञात्वा सुपुरुषा ददति सुपात्रेषु वानानि ॥ ५६० ॥ अर्थ- इस संसार मे लक्ष्मी किसके यहां स्थिर रही है, यौवन किसका स्थिर रहा है, धन किसका स्थिर रहा है और अर्थात् लक्ष्मी यौवन धन जीवन कभी किसी का स्थिर नहीं रहता। यही समझकर श्रेष्ठ पुरुषों को श्रेष्ठ पात्रों को सदा काल दान देते रहना चाहिये । आगे इसका कारण बतलाते है । दुक्खेण लहान वित्तं वित्ते लद्धे वि दुल्लहं चित्तं । लखे चित्ते वित्ते सुदुल्लहो पत्तलंभो व ।। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ भाव-संग्रह दुःखेन लभते वित्तं वित्त लब्धेऽपि दुर्लभ चित्तम् । लब्धे चित्ते वित्ते सुवुर्लभः पात्रलाभश्च ।। ५६१ ।। अर्थ- इस संसार मे धन की प्राप्ति बड़े दुःख से होती है यदि कदाचित क्रिमी भाग्य विशेष से धन की प्राप्ति हो भी जाय तो चित्त में दान देने की उत्सुकता होना अत्यन्त कठीन है। कदाचित त्रिन ग दान देने की उत्सुकता भी प्राप्त हो जाय और धन भी प्राप्त हो जाय नां दान देने के लियासी पात्रका लाम होना अत्यन्त कठीन । चित्त वित्तं पत्तं तिडिअ वि गवेइ कयि जइ पुरिसो। तोर लहान अनुकूलं सपने पुतं कलतं च ।। चित्तं वित्तं पात्रं त्रीच्यपि प्राप्नोति कथमपि पवि पुरुषः । तहि म लभतेऽनुकूलं स्वजन पुत्रं कलत्रं च ।। ५६२ ।। अर्थ- यदि किसी शुभ कर्म के उदय से धन भी मिल जाय, चित्तमें दान देने को उत्सुकता भी प्राप्त हो जाय और पात्र मिलने का भी संयोग प्राप्त हो जाय तो दान देने के लिये अपने स्वजन परिजन पुत्र स्त्री आदि अपने अनुकूल नहीं होते है। पडिकूल माइ काऊं विधं कुन्चति धम्म दाणस्स । उवएति पुबुद्धि दुग्गइगम कारया असुहा ।। प्रतिकूलमारि कृत्वा विघ्न कुर्वन्ति धर्मदानस्य । उपदिशन्ति दुर्बुद्धि दुर्गतिगमनकारकामशुभाम् ।। ५६३ ।। अर्थ-- यदि स्त्री पुत्र स्वजन आदि अपने प्रतिकूल हो जाते है, तो फिर वे लोग धर्मस्थानों में दान देने में विघ्न करते है। तथा नरकादिक दुर्गतियों के कारण भूत और अत्यन्त अशुभ दुर्बुद्धि का उपदेश देते है। . भावार्य- प्रतिकूल होने से पुत्रादिक धर्मस्थानों में तो दान का निषेध कर देते है और नरकादिक, दुर्गतियों में लेजाने वाले दान का वा ऐसे कारों का उपदेश देते है । आगे और भी कहते है । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मद्रह सो कह सयणो भण्णाइ बिग्घं जो कुणइ धम्मदाणस्स । दाऊण पाव बुद्धी हाडइ दुक्खायरे णरए ।। स कथं स्वजनो भण्यते विघ्न यः करोति धर्मवामनाय । दत्वा पाप गाजयति गुलाकरे नर ।। ५ ।। अर्थ- विचार करने की बात है कि स्वजन होकर भी जो धर्म कार्यों में दिये हुए दान का निषेध करता है और पाप रूम बुद्धि का उपदेश देकर अनेक दुःखों से भरे हुए नरक में डालना चाहता है वह अपना स्वजन कैसे हो सकता है । भावार्थ- उसे तो पूर्ण शत्रू समझना चाहिये। सो सयणो सो बंधू सो मित्तो जो सहिज्जओ धम्मे । जो धम्म बिग्धग्रारो सो सन स्थि संदेहो ।। स स्वजन: स बंधुः स मित्र यः सहायकः धर्मे । यो धर्म विघ्नकारी स शत्रुः नास्ति सन्देहः ।। ५६५ ॥ अर्थ- इस संसार में जो पुरुष अपने धर्म का पालन करने मे सहायक होता है उसीको स्वजन समझना चाहिय उसीका वन्ध समझना चाहिये और उसीको मित्र समझना चाहिये । जो पुरुष धर्मकार्यों में विश्न करता है धर्म पालन करने मे विघ्न करता है वह पुरुष शत्रु ही है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। ने प्रणा लोयत तेहि णिरुद्धाई कुगई गमणाणि । वित्त पत्तं चित्तं पाविवि जहि दिण्ण दाण.ई ।। ते धन्या लोक त्रये तैः निरुद्धानि कुगति गमनानि । वित्त पात्र चित्त प्राप्यापिः दत्तदानानि ।। ५६६ ।। अर्थ- जिन पुरुषों को यथेष्ट धन वा प्राप्ति हुई है चित्तमे दान दान देने की बुद्धि प्राप्त हुई है और सुपात्रों का लाभ भी प्राप्त हुआ है । इन तीनो संयोगो को पाकर जो सुपात्रों को दान देते रहते है वे पुरूष तीनो लोकों में धन्य समझे जाते है और एसे ही नरकादिक दुर्ग - तियों को सदा के लिये रोक देते है । मुणिभोयणेण दव्वं जस्स गयं जुटवणं च तवयरणे । सण्णासेण य जीवं जस्स गयं कि गयं तस्स 11 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ माव-सह मुनि भोजनेन द्रव्यं यस्य गतं यौवन च तपश्चरण । सन्यासेन तु जीवितं यस्य गतं किं गतं तस्य ।। ५६७ ।। अर्थ- जिस महापुरूष का धन मुनियों के भोजन कराने मे चला गया जिसकी युवावस्था तपश्चरण करने में चली गई और जिसका जीव' सन्यास ( समाधिमरण ) धारण कर चला गया उसका क्या गया ? अर्थात उसका तो कुछ भी नहीं गया । भावार्थ- जिसने अपना घन पात्र दान में लगा दिया उसने आग के जन्म के लिये अनन्त गणों सम्पत्ति वा स्वर्ग सम्पदा प्राप्त करने का साधन बना लिया । तपश्चरण करते हुए जिसको युवावस्था चली गई उसने उत्तम सुगन्धित देवों के शरीर को प्राप्त करने का या मोक्ष प्राप्त करने का साधन बना लिया तथा जिसने समाधि मरण पूर्वक मरण किया उसने अजर अमर पद प्राप्त करने का साधन बना लिया । इस प्रकार ऐसे जीवों को थोडी सी विभूति के बदले अतुल विभूति प्राप्त होती है। आगे और भी दान देने की प्रेरणा करते है। जह जह बढइ लच्छी तह तह दाणाई देह पत्तंसु । अवा होयइ जह जह देह विसेसेण सह तह यं ।। यथा यथा वर्तते लक्ष्मी तथा तथा दानानि देहि पात्रेषु । अथवा हीयते यथा यथा देहि विशेषेण तथा तथाएव ।। ५६८ ।। अर्थ- इसलिय श्रावकों का उचित है कि यह धन जितना जितना बढता जाय उतना उतना ही सुपात्रों को अधिक दान देता जाय । यदि कदाचित घन घटता जाय तो जितना जितना घटता जाय उत्तना उतना ही विशेष रूपसे अधिक दान' देता जाय । भावार्थ- लक्ष्मी के बढ़ने पर तो अधिक दान देना स्वाभाविक ही है । परन्तु जव लक्ष्मी घटने लगे तब समझना चाहिये कि यह लक्ष्मी अब ती जा रही है और चली ही जायगी इसलिये इमको और कामों में क्यों जाने दिया जाय इसको तो सुपात्र दान में ही दे देना चाहिये । यही समझकर लक्ष्मी के घटने पर भी विशेषरीति से सुपात्रों को अधिक दान देना चाहिये । आग जिनपूजा और पात्रदान न देनेवालों की दुर्गतियों का वर्णन करते है। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा.संग्रह जेहि पर दिगं वाणं ण चावि पुज्जा किया जिगि दस । ते होणदोण दुग्गय भिक्खंण लहंति जायंता ।। ये न दत्तं वान न चापि पूजा कृता जिनेन्द्रस्य । ते होन, दीन, दुर्गत, भिक्षा न लभन्ते याचमानाः ।। ५६९ ॥ अर्थ- जो पुरुष न तो कभी ममवान जिनेन्द्र देव की पूजा करते और न कभी सुपात्रों का दान देते व पुरुष अत्यन्त दीन हीन हो जाते हैं उनकी जबरथा अत्यन्त दुर्गति रूप में परिणत हो जाती है और मांगने पर भी उनको ख नहीं मिलती । पर पेसगाइ गिच्च कति भतीए लह य णिय देहं । पूति ण णियय घरे परवस गासेण जीवति ।। पर पेषणादिकं नित्यं कुर्वन्ति भक्तया तथा च निजोदरम् । पूरन्ति न जिनगृहे पर वशनासेन जोवान्ति ।। ५७० ।। अर्थ- जिन जीवों ने कभी जिनेन्द्रदेव की पूजन नहीं की है और न कभी पात्रों को दान दिया है ऐसे जीव भक्ति पूर्वक दूसरों का अन्न पीस पीस कर अपना पेट भरते है। तो भी उनको पेट भरने योग्य अन्न अपने घर में नहीं मिलता है। वे पर वश होकर दूसरों के अन्न के टुकड़ों से ही जावित रहत है खंधेण वहति परं गासत्थं दीह पंथ समसंता । सं चेव विष्णवंता मुहकय कर विणय संजुत्ता।। स्कंधेन वहन्ति नर ग्रासार्थ दीर्घ पथ समासक्ताः । तमेव विनमन्तः मुखकृत कर विनय संयुक्ताः ।। ५७१ ।। अर्थ-- जो पुरुष जिन पूजा और पात्र दान नहीं करते वे जीव परलोक में जाकर अन्न के टुकडों के लिए मनुष्यों को अपने कंधों पर रहकर (पालकी डोली पीनस आदि मे बिठाकर) बहुत दूर दूर तक ले जाते है तथा अपने मुख की दीन आकृति बनाकर और हाथ जोड़कर उसकी बहुत वडी विनय करते जाते है। पहु तुम्ह समं जार्य कोमल अण्णाइ सुनु, सुहियाई । हर मह पियाई काऊ मलति पाया सहत्थेहि । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ भाव-संग्रह प्रभो युष्माभिः समं जातानि कोमलांगानि सुष्टु सुभगानि । __इति मुखप्रियाणि कृत्वा संवहन्ते पादान स्वहस्ताभ्याम् ।५७२। अर्थ- जिन पूजन और पात्र दान न करने वाले पुरुष परलोक मे अपने हाथ से दूसरों के पैर दाबते फिरते है और मुह से बडे मधुर गद्वों के द्वारा प्रिय शद्धों के द्वारा कहते जाते है कि हे प्रभो आपके शरीर के अंग बड़े ही कोमल है, बडे ही श्रेष्ठ और वहत ही सुन्दर है। रक्खंति गोगवाई छेलयखर तुरय छ । खलिहाणं । वर्णति कप्प बाई घडंति पिडउल्लयाई च ।। रक्षन्ति गोगवाविकं अजास्त्ररतुरग क्षेत्रवलिनान् । कुर्वन्ति कर्पटादिकं घटते पिठराविकानि ॥ ५७३ ।। अर्थ-- दान पूजा न करने वाले पुरुष परमव में गाय भैस नकरी गधा घोडा खेत खलिहान आदि की रखवाली करते रहते है और कितने ही लोग खाट पीढी आदि बढई के छोटे छोटे काम किया करते घावंति सत्यहत्था उपहं च गणसि तह य सोयाई । तुरय मह फेण सित्ता रयलिता गलियपायेसा ।। धावन्ति शस्त्र हस्ता उष्णं न गणयन्ति तथा च शोतादि । तुरग मुख फेन सिक्ता रजो लिप्ता गलित प्रस्वेदाः ।। ५७४ ।। अर्थ- दान पूजा न करने वाले कितने ही जीव हायमें शम्त्र कार द्रौइते है राजा महाराजाओं की सवारी के आग आगे दीडते है उस समय न तो वे धूप बा गर्मी को गिनते है और न शीत वा ठंडक को गिनते है। उस समय उनका शरीर घोड़ों के मुख से निकलते हुए फस मे भर जाता है, धूल उनके शरीर पर लिपट जाती है और पसीने की धार बंध जाती है। पिच्छिय पर महिलाओ घणमण मय णयण चंद वयणाई। ताजेइ णियंसीस सूरइ हिययम्मि वीण महो ।। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह प्रेक्ष्य परमहिलाः धनस्तन मदनयन चन्द्रवदनानि । ताडयति निजं शीर्ष सूरयति हृदये दीनमुखाः ॥५७५ ।। पर संपया गिएक पमणइ हो कि मया ण विष्णाई | बागाई पर पत्ते उसमस भत्ती य जुत्तण || पर सम्पदः दृष्टवा प्रणमति हाकिं मया न दत्तानि । वनानि प्रवर पात्रे उत्तम भक्त्या युक्तेन ॥ ५७६ ।। अर्थ- जिन पूजन और पात्र दान न देने वाले पुरुष परभव में जाकर इतने दीन दुखी होते है कि वे लोग जिनके स्तन अत्यन्त कठिन है जिनके नेत्रों मे मद छाया हुआ है और चन्द्रमा के समान जिनका सुन्दर मुख हैं ऐसी पर स्त्रियों को देखकर अपने मस्तक को धुना करते है और दीन मुख होकर अपने हृदय में रोया करते है । इसके सिवाय दूसरों की संपत्ति को देखकर वे लोग रो रो कर कहते हैं कि हाय हाय क्या हमनें पहले उत्तम क्तिपूर्वक उत्तम पात्रों को दान नही दिया था । यदि पहले भव में हमने भी पात्र दान दिया होता तो हमे भी ऐसी संपत्तियां अवश्य प्राप्त होती । एवं पाऊण फुड लोहो उवसानिऊण नियचिते । for वित्ताणुस्वारं दिज्जह दाणं सुपसेसु || एवं ज्ञात्वा स्फुटं उपशम्य निज चिते । निज विसा नुसारं देहि दानं सुपात्रेषु ।। ५७७ ।। २४९ अर्थ - इस प्रकार पात्र दान के फल को जानकर और पात्र दान न देने के फल को जानकर अपने हृदय मे लोभ को दबाना चाहिये, लोभ नहीं करना चाहिये और अपने घन संपत्ति के अनुसार सुपात्रों को अवश्य दान देना चाहिये । आगे कमाये हुए द्रव्य को किस प्रकार खर्च करना चाहिये सो कहते है । जं उप्पज्जई बव्यं तं कायव्यं व बुद्धिवंत्तेण । छहणाथगयं सव्यं पढमो भावो हि धम्मस्स !! Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० माव-सन अनुत्पाद्यते द्रव्यं तत्कर्तव्यं च बुद्धिमता। षड्भागगतं सर्व प्रथमो भागो हि धर्मस्य ।। ५७८ ।। त्यर्थ- नहिपाल माशों को उनिन । कि वे जितना धन उत्पन्न करें उसके छह भाग करें। उसमे से पहला भाग धर्म के लिय निकाल वीओ भावो गेहे दायवक्षो कुडव पोसणस्थेण । तइओ भावो भोए चउत्थओ सयण वगम्मि ।। द्वितीयो भागो गहे दातव्यः कुटम्ब पोषणार्थम् । तृतीयो भागो भोगे चतुर्थः स्वजण वर्गे ॥ ५७९ ।। अर्थ- दुसरा भाग अपने कुटुम्ब के भरण पोषण के लिये अपने घर वालों को देना चाहियं । तीसरा भाग अपने लोगों के लिये रखना चाहिये और चौथा भाग अपने स्वजन परिबार आदि के लिये रखना चाहिये। सैसा जे वे भावा डायब्वा होति से वि पुरिसेण । पूज्जा महिमा कज्जे अदबा कालावकालस्स ।। शेषौ यो द्वौ भागौ स्थापनीयौ भअतः तावपि पुरुषेण । पूजामहिमा कार्य अथवा कालापकालाय ।। ५८० ॥ अर्थ- इस प्रकार ऊपर लिने अनुसार चार भाग तो काममे लाने चाहिये । और शेष बचे हुए दा भाग उस पुरुष को जमा रखना चाहिये के बचे हुए दोनों भाग भगवान जिनेंद्रदेव की विशेष पूजा करने में लगाना चाहिये अथवा किसी प्रभावना के कार्य में धर्म की महिमा बढाने के कार्य में लगाना चाहिय । अथवा वे बचे हुए दोनों भाग किसी आपत्ती काल के लिये रख छोड़ना चाहिये। भागे लोभी पुरूषों के लिये आचार्य फिर समझाते है। अहवा णियं विद्वत्त कस्स वि मा देहि होइ लोहिल्लो । सो को पि कुण उवाऊ अह तं व सम जाई ।। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह अथवा निजं वित्तं कस्यापि मा देहिं भव लुब्धः । स कमपि कुरु उपायं तथा तव द्रव्यं समं याति ॥ ५८१ ॥ अर्थ - अथवा प्रत्येक गृहस्थ को अपना द्रव्य किसी को भी नहीं देना चाहिये और अत्यंत लोभी बनकर कोई भी ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे कि वह द्रव्य मरने के बाद भी अपने साथ चला चले | आगे कौनना द्रव्य अपने साथ जाता है और कनिला नष्ट हो जाता है सो कहते है । तं दव्वं जाइ समं जं खोणं पुज्ज महिम दाणेह | जं पुण धरा हि णट्टे ते जाणि नियमेण || २५१ तद्द्रव्यं याति समं यत् क्षीणं पूजा महिम दानैः । यत्पुनः घरानिचितं नष्टं तज्जानीहि नियमेन ।। ५८२ ।। अर्थ- जो द्रव्य भगवान जिनेन्द्रदेवकी पूजा में खर्च होता है, जो द्रव्य धर्म की महिमा बढाने में, धर्म की प्रभावना करने मे खर्च होता है और जो द्रव्य पात्र - दान में खर्च होता है वही द्रव्य परलोक मे अपने साथ जाता है । तथा जो द्रव्य पृथ्वी से गाढ़ कर रख दिया जाता है । उसको नियम पूर्वक नष्ट हुआ समझो । आगे पृथ्वी मे गढा घन कैसे नष्ट होता है सो कहते हैं । सह ठाणाओ मुल्लह अह्वा भूसेहि णिज्जए तं पि । अह भाओ अह पुस्तो चोरो तं लेई अह राओ || स्वयं स्थानं विस्मरति अथवा मूषकैः नीयते तदापि । अय भ्राता अथ पुत्रः चोर स्तत् गृणाति अब राजा || ५८३ ।। अर्थ- जो पुरुष पृथ्वी में धन गाढ कर रखता है वह या तो स्वयं उस स्थान को भूल जाता है अथवा चुहे उस द्रव्य को लेकर दूसरे ले स्थान पर रख देते है, अथवा उसे भाई बन्धु ले जाते है अथवा पुत्र जाता वा चोर ले जाते है और इनसे भी बच रहता है तो उसे राजा ले लेता है । अथवा - Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अहया तरुणी महिला जायइ अण्णेण जार पुरिसेण । सह तं गिरिहय दव्वं अण्णं देनंतर दुठ्ठा ॥ अथवा तरुणी महिला याति अन्येन जारपुरुषेण सह तद् गृहीत्वा ब्रव्यं अनन्यद्देशान्रं दुष्टा ।। ५८४ ।। अर्थ - अथवा अपनी दुष्ट तरुण स्त्री उस समस्त द्रव्य को लेवान किसी अन्य जार पुरुष के साथ दुर देशांतर को भाग जाती है । इस प्रकार अनेक प्रकार से बह गढा हुआ धन नष्ट हो जाता है। आगे द्रव्य का सदुपयोग बतलाते हैं । इय जाणिकण णूणं बेह सुपत्लेसु चहुविहं दाणं । जह कय पावेण सया मुच्येह लिथेव् सुपुण्णेण ।। इतिज्ञात्वा नूनं हि सुपात्रेषु चतुविधं दानम् । यथाकृतपान मुक्त लिप्पेत सुपुष्येन ।। ५८५ ।। अर्थ - इस प्रकार निश्चय रीति से समझ कर सुपात्रों के लिये चारों प्रकार का दान देना चाहिये । जिससे कि किये हुए पापों का नाश हो जाय और श्रेष्ठ पुण्य का उपार्जन हो । आगे दान से उत्पन्न होने वाले पुण्य का फल बतलाते हैं । पुणेण कुलं विजलं कित्ती पुष्णेण भम तियलोए । पुण्ण रूपमतुलं सोहागं जोवणं तेयं ॥ भात्र-संग्रह पुण्येन कुलं विपुलं कीर्तिः पुण्येन भ्रमति त्रिलोके । पुष्पेन रूपवल सौभाग्यं तेजः ॥ ५८६ ।। अर्थ-- इस संसार में पुण्य के उदय से उत्तम कुल की ओर बहुत मे कुटुम्ब की प्राप्ति होती है, पुष्य के ही उदय से इस मनुष्य की कार्ति तीनों लोकों में फैल जाती है पुण्य से ही सर्वोत्तम उपमा रहित प प्राप्ति होती है, पुण्य से ही सुहाग की प्राप्ति होती है पुण्य से ही युवावस्था प्राप्त होती है और पुण्य से ही तेज की प्राप्ति होती है । पुण्णव लेणुब बज्ज कहयबि पुरिसोय भोय भूमीसु । मुंजे तत्थभोए वह कम्पतभवे हिच्वे ।। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भान-संग्रह पुग्यवनोत्पद्यते कथमपि पुरुषश्च भोगभूमीयू | भुं तत्र भोगान् दशकल्पतरुद्भवान् दिव्यान् ॥ ५८७ ॥ अर्थ - पुण्य कर्म के उदय से ही यह जीव किसी प्रकार भोग भूमि में भी उत्तम पुरुष उत्पन्न होता है और वहां पर दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए दिव्य भोगों का अनुभव करता है । २५३ गिह तरुवर बरगेहे भोयण रुक्खाय भोयणे सरिसे । कणमय भायणाणिय भायण रुक्खा पयच्छन्ति || गृहतश्वरा बरगृहानपि भोजन वृक्षाश्च भोजनानि सरसेनि । कनकमने भाजनानि च भाजन वृक्षा प्रयच्छन्ति ॥ ५८८ ॥ अर्थ- वहां पर दश प्रकार के कल्पवृक्ष है। उनमें से गृह जाति के कल्पवृक्ष उत्तम उत्तम घर देते है भोजन जाति के वृक्ष सरस भोजन देते है और भाजन जाति के वृक्ष सुवर्णमय पात्र वा वर्तन देते है । कुसुम वत्यंगा वर वेत्थे कुसुमंगा दिति मालाये | दिति सुगंध विलेवण विलेयगंगा महारुक्त्वा || वस्त्रांगा वर वस्त्राणि कुसुमांगा ददाति कुसुमसालाः । वदति सुगंध विलेपनं विवेपनांगा महावृक्षाः । ५८९ ।। अर्थ- वस्त्रांग जाति के वृक्ष अनेक प्रकार के सुन्दर वस्त्र देते है पुष्यांग जाति के वृक्ष पुष्प वा पुष्पो की मालाएं देते है और विलेपनांग जाति के वृक्ष सुगंधित विलेपन उबटन आदि देते है । तुरंगा वर तुरे मजगादिति सरस मज्जाई । आहारगंगा बितिय आहरणे कणमर्माणि जडिए । सूर्यागा वर तौर्याणि मद्यांगा ददाति सरस मद्यानि 1 आवरणांगा ददति व आभरणानि कनकमणि जटितानि ||५९० ।। अर्थ- वाद्यंग जाति के वृक्ष तुरई आदि अनेक प्रकार के बाजे देते है, मद्यांग जाति के वृक्ष सरस पौष्टिक मद्य ( एक प्रकार का रस जो केवल पोष्टिक होता है ) देते है और आभरणांग जाति के वृक्ष अनेक प्रकार के मणियों से जडे हुए सुवर्णमय आभूषण देते है । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सरह वयणिविणं ससि सूरा जह तह दीवंति जोइसाक्खा । पायव दसप्ययारा चितिययं दिति मणुयाणं ।। रजमी दिनयोः शशिसूरा तथा तथा दोश्यन्ते ज्योतिर्वशाः । पावपा दशनकाराः चिन्तितं वदति मनुष्येभ्यः ।। ५९१ ।। अर्थ- ज्योतिष जाति के वृक्ष मय चन्द्रमा के समान शत दिन प्रकाश करते रहते है । इस प्रकार भोगभूमिमों मे दश प्रकार, कल्पवक्ष होते है जो मनुष्यों को चितवन करने मात्र से अपनी इच्छानुसार पदार्थ देते है 1 जरसोय वाहि वेअण कासं सासं च जिभणं छिक्का । ए ए अण्णे दोसा णहवंति हु भोय भूमोसू ।।। जरा शोक व्याधि बेदना कासं ३वासनं जमणक्षाम् । एते अन्ये दोषा न भवन्ति हि भोग भूमिषु ।। ५९२ ।।। अर्थ- बुढापा, व्याधि, वेदना, काम, श्वास, जंभाई, छींक आदि कितने ही दोष भोग भूमियों में नहीं होते है। सध्वे भोए दिव्वे मुंजिता आउसाव साणम्मि । सम्माविट्टी मणुया कप्या वासेसु जायंति ॥ सर्वान् भोगान् दिव्यान् भुत्का आयुरवसाने । संम्यग्दृष्टी मनुजाः कल्प वासिषु जायन्ते ।। ५९३ ।। अर्थ- इन भोग भूमियों मे जो सभ्यग्दृष्टि पुरुष उत्पन्न होते है वे सब दीर्घ काल तक वहां के दिव्य भोगों को भोगते रहते है और फिर आय पूर्ण होने पर वे लोग मर कर कल्प वासी देव होते है। जे पुणु मिच्छादिट्टी वितर भवने सुजोइसाहोति । जम्हा मंद कसाया तम्हा देवेसु आयंति ।। ये पुन मिच्या दृष्टयः व्यन्तर भावनाः सुज्यातिष्का भवन्ति । यस्माद् मन्वकषायास्तस्माद्देवेषु जायन्ते ।। ५९४ ।। अर्थ- जो इन भोग भमियों मे मिथ्या दृष्टि पुरुष उत्पन्न होते Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २५५ है वे वहां के भोगों को भोग कर आय के अन्त मे भवन वासी व्यन्तर या दयोतिष्क देवों में उत्पन्न होते है । भोग भूमियों में उत्पन्न होने वाले जीव सत्र मंद कषाय वाले होते है इसलिये वे मर कर देव ही होते है । केई समवसरणगया जोइस भावेण सुचितरा देवा । कहिऊण सम्भवंसण तस्य चुया हुंति वा पुरिसा ।। केचित्सनवसरणागता ज्योतिष्क भावनाः सुन्यन्तरा देवाः । गृहीत्वा सम्यग्दर्शन ततश्च्युता भवन्ति या पुरुषाः ।। ५९५ ॥ अर्थ- उन भवन वासी व्यन्तर ज्योतिषी देवों में से कितने ही देव भगवान के समब सरण मे जाकर सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते है और फिर वहां से आयु पूर्ण होने पर उत्तम सनुष्य होते है। लहिऊण देस मंजम सयल वा होइ सुरोत्तमो सरगे । भोत्तूण सुहे रम्मे पुणोवि अवयरइमणुयते ।। लकवा देश संयम समजा भतिलोतमः हो । भुत्का शुमान् रम्यान् पुनरपि अवतरति मनुजत्वे ।। ५९६ ।। अर्थ- मनुष्य होकर वे जीव देश संयम धारण करते है अथवा सकल संयम धारण कर स्वर्गों में उत्तम देव होते होने है । वहां पर वे मनोहर सुखों का अनु - व कर आयु के अन्त में फिर भी मनुष्य भव धारण करते है । तत्मवि सुहाई भुत्तं दिक्खा गहिजण भविय णिग्गंयो । सुक्कज्माणं पाषिय कम्म हणिऊण सिज्मेई ।। सत्रापि शुभान् भुत्का दीक्षा गृहीत्वा भूत्वा निग्रंथः । शुल्लध्यान प्राप्य कर्म हत्या सिद्धति ।। ५९७ ।। अर्थ- उस मनुष्य भव मे भी अनेक प्रकार के सुखों का अनुभव करता है। तदनन्तर दीक्षा धारण कर निर्गथ अवस्था धारण करता है तथा शुक्ल ध्यान को धारण कर समस्त कर्मों का नाश करता है और अन्त में सिद्ध प्राप्त कर लेता है। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ भाष-संग्रह सिद्धसरूवरूवं कम्म रहियं च होइ झाणेण । सिद्धावासी य णरो ण वह संसारिओ जीवो ।। सिळ स्वरुपरुपं कर्म रहितं च भवति ध्यानेन । सिद्धावासो च नरो न भवति संसारी जीवः ।। ५९८ ।। अर्थ- सिद्धों का म्वरूप शुद्ध आत्मस्वरूप होता है तथा जय ध्यान के द्वारा समस्त कमी से रहित हो जाता है । सिद्धम्यान मे रहने वाले समस्त सिद्ध परमेष्ठी जीव फिर कभी भी संसार नहीं आते हैं। पंचमयं गुणठाणं एय कहिय मया सभासेण । एत्तो उजुडं वोच्छं पमत्तविरयं तु छमयं 11 पंचमं गुणास्थानं एतत्कथितं मया समासेन । इत्त अवं वक्ष्ये प्रमविरतं तु षष्ठमकम् ।। ५९९ ।। अर्थ-- इस प्रकार मैंने अत्यंत संक्षेप से पांचबे गुण स्थान का स्वरूप कहा । अव इस के आगे प्रमत्तविरत नाम के छठे गुणस्थान का म्वरूप कहता हूँ। इस प्रकार विरता विरत नाम के पांचवे गुण स्थान का स्वरूप समाप्त हुआ आगे छठे प्रमत्त संयत गण स्थान का लक्षण कहते है। इत्थेव तिपिण भावा खय उय समार होति गणठाणे । पणदह हुँति पमाया पमत्त विरलो हवे तम्हा ।। अत्रैव ऋयो भानाः क्षयोयक्षमावयः भवन्ति गुणस्थाने । पंचपदश भवन्ति प्रमादा प्रमत्तविरतो भवेत्तस्मात् ।। ६०० ।। अर्थ- इस प्रमत्त विरत नाम के गुण स्थान मे औपसमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक तीनों प्रकार के भाव होते है, तथा पंद्रह प्रमाद भी इसी गुण स्थान तक होते है इसलिये इम गुण स्थान को प्रमन विरत कहते है । भावार्थ-यद्यपि प्रमाद सब नीचे के गुण स्थानों में ली रहते है परन्तु नीचे के गुन स्थानों में पापों का सर्वथा त्याग नहीं Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ई इलिये उन पापों के साथ प्रमाद भी रहते ही है । परन्तु इम छर गण स्थान मे पापों का मर्वथा त्याग हो जाता है पंच महाव्रत धारण किये जाते है तथा उनके साथ प्रमाद भी रहते है पापों का त्याग होने पर भी प्रमादों का त्याग नहीं होता इसलिये इस गुण स्थानको प्रमत्त विस्त कहते है । आगे इस गुण स्थान का लक्षण कहते है। वत्ताबत्त पमाए जो णिवसइ पमतसंगदो होइ । सयल गुण सील कलिओ बबई चित्तलायरणो ॥ व्यक्ताध्यक्त प्रमादे यो निवसति प्रमत्त संयतो भवति । सकल गुणशील कलितो महाव्रतो चित्रलापरणः ६०१ ।। अर्थ- जो मुनि अट्ठाईस मूल गुणों को पालन करते है शील वा उत्तर गुणों को पालन करते है महायतों का पालन करते है ऐसे मुनि अब व्यक्त वा अव्यका का प्रमाद से निास है तमालपत संयत वा प्रमत्त संयमी मुनी कहलाते है । ऐसे मुनियों का चारित्र अत्यंत शुद्ध नहीं होता किन्तु अनेक रंगों से बने हुए चित्र के समान होता है। भावार्थ- प्रमाद के होने से कुछ ना कुछ दोष उसमें लगे ही रहते है । आगे प्रमादो को कहते है। चिकहा तय कसाया इंदियणिद्दा तहय पणओ य । चउ चउ पण भेगेगे हुंति पमाया हु पण्णरसा ।। विकाथास्तथा च कषायर इन्द्रियाणि निद्रा तथा च प्रणधश्च । चतस्त्रः अत्वारः पंच एका एकः भवन्ति प्रमाहि पंचदशा ।६०२। अर्थ- चार विकथा चार कषाय पांत्र इन्द्रियां निद्रा और प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद कहलाते है। भावार्थ- राजकथा, मोजन कथा, देश कथा, और चोर कथा ये चार विकथाएं कहलाती है । इन कथाओं के सुनने से वा कहने से पाप का बंध होता है इसलिये इनको विकथा कहते है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ भाव-संग्रह क्रोध मात्र माया लोभ यं चार कषाय है । से भी पाग बन्द के कारण है। पांचों इंद्रियों के विषय भी पाप बंध के कारण है निद्रा पाप वन्ध का कारण है हो । तथा स्नेह वा प्रणय भी पाप बन्ध का कारण है इसलिये इन सब को प्रमाद कहते है तथा इन्ही प्रमादों के कारण चारित्र की अत्यन्त शुद्धता' नहीं होती । प्रमादों के कारण उनमें दो बा अशी उत्पन्न हो ही जाती है। आगे इस गुण स्थान मे कौनसा ध्यान होता है सो बतलाते हैं । झायइ धम्मज्ञाणं अहं पि य णो कसाय उवयाओ । समाय भावणाए उवसामइ पुणु वि झाम्मि । ध्याति धर्म्य ध्यानं आतमपि नो कषायो क्यात् । स्वाध्याय भावनाभ्यां उपशाम्यति पुनरपि ध्याने ।। ६०३ ।। अर्थ- छठे गुण स्थान मे रहने वाले मुनि धर्मध्यान का चितवन करते है । तथा नो कषाय के उदय होने से उनके आतध्यान भी हो जाता है । तथापि स्वाध्याय और रत्नत्रय की भावना के कारण उसी ध्यान में वे उस आर्तध्यान का उपशम कर देले है । भावार्थ- मनियों के आर्तध्यान कभी कभी होता है तथा तीन ही प्रकार का आर्तध्यान होता है निदान नाम का आतध्यान नहीं होता। यदि किसी मनि के निदान नामका आर्तध्यान हो जाय तो फिर उस मुनि का छठा गुण स्थान ही छूट जाता है। तज्माण जाय कम्म खवेह आवासहिं परिपुण्णो । णिदण गरहण जुत्तो पडिक्कमण किरियाहि ।। तद्ध्यान जातकर्म क्षिपति आवश्यक परिपूर्णः । निन्दनगर्हण युक्तो युक्तः प्रतिक्रमण क्रियाभिः ।। ६०४ ।। अर्थ- छठे गुण स्थान में रहने वाले वें मुनि' अपने छहों आवश्यको को पूर्ण रीति से पालन करते है । तथा उन्ही आवश्यकों के द्वारा उस स्वल्प आर्तध्यान में उत्पन्न हुए कर्मों को नाश कर देते है । इसके सिवाय वे मुनि उस आर्तध्यान के कारण अपनी निन्दा करते रहते हैं और अपनी गहीं करते रहते है प्रतिक्रमण करते रहते है और अपनी समस्त क्रियाओं का पालन करते रहते है। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २५९ जाव पमाए वदुइ जाथिरं थाइ णिञ्चल झाणं । णिदण गहण जुतो आवसइ कुणइ ता भिक्खू ।। यावत्प्रमादे वर्तते पावन स्थिर तिष्ठति निश्चल ध्यानम् । निन्दन गर्हण युक्तः आवश्यकानि करोति तावद् भिक्षुः ।।६०५।। अर्थ- ये छठे गुणस्थान में रहने वाले मुनि जबतक प्रमाद सहित रहते हैं जबतक उनका निश्चल ध्यान अत्यंत स्थिर नहीं होता है तब तक वे मुनि अपनी निन्दा करते रहते है नहीं करते रहते है और छहों आवश्यक्रां को पूर्ण रीति से पालन करते रहते है । छट्ट मए गुणठाणे वदंतो परिहाइ छावासं । जो साहु सोण मुणई परमायम सार संदोहं ।। षष्ठमके गुणस्थाने वर्तमानः परिहरसि षडावश्यकानि । य: साधुः स न जानाति परमागमसारसन्दोहम् ।।६०६ ।। अर्थ- जो साधु छठे गुणस्थान में रहकर भी छहों आवश्यकों को नहीं करता वह साघु परमागम के सार को नहीं समझता ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ- छठे गुणस्थान में रहने वाले मुनियों को छहों अबश्यक अवश्य करने चाहिये और प्रतिदिन ही करने चाहिये । इनको कभी नहीं छोड़ना चाहिये । आगे जो साधु आवश्यक नहीं करता उसके लिये कहते है। अहब मुशंतो छडइ सव्यावासाई सुत्तबद्धाई। तो तेण होइ चत्तो सुआयमो जिणवावस्स ।। समता बन्दना स्तोत्रं प्रत्याख्यानं प्रतिक्रिया। व्युत्सर्गश्चेति कर्माणि भवन्त्यावश्यकानि षट् ॥ समता धारण करना, बन्दना करना, स्तुति करना, प्रत्याख्यान वा त्याग करना' प्रति क्रमण करना और व्युत्सर्ग करना ये छह आवश्यक कहलाते है । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० भाव-सग्रह अथवा जानन् त्यजति सर्वावश्यकानि सुत्रबद्धानि । हितेन भवति त्यस्तः स्वागमो जिनवरेन्द्रस्य । आयमचाए चत्तो परमप्पा होइ तेण पुरिसेण । परमप्पय चायेण य मिच्छत्तं पोखियं होई ।। आगमे त्यक्ले त्यक्तः परमात्मा भवति तेन पुरुषेग । परमात्मनः त्यागेन मिथ्यात्वं पोषिस भवति ।। ६०८ ।। अर्थ- अथवा जो साधु जान बूझ कर सिद्धांत सूत्रों में बाह हुए आइसों का कर देता है। आरश्यकों को नहीं करता वह साधु भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुए आगम का ही त्याग कर देता है एसा समझना चाहिये तथा यह बात भी निश्चित है कि जिसने आगम का त्याग कर दिया उसने परमात्मा का भी त्याग कर दिया और पर. मात्मा का त्याग करने से वह पुरुष मिथ्यात्व की ही पुष्टि करता है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है । भावार्थ- आगम सब भगवान जिनेन्द्र देवका कहा हुआ है इसलिये जो पुरुष आगम को नहीं मानता वह पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव को भी नहीं मानता वह पुरुष मिथ्या दष्टि ही समझा जाता है । इसलिये आगम की अवहेलना करना महा. पाप माना जाना है। एवं णामण सया जावण पावेहि णिवलं मागं । मण संकप्प विमुक्कं तावासय कुणह वयसहियं ।। एवं ज्ञास्वा सदा यावन्न प्राप्नोति निश्चलं ध्यानम् । मनः संकल्पधिमुक्तं तावदावश्यक कुर्यात् नासहितम् ।।६०९।' अ- यही समझ कर मुनियों को उचित है कि जबतक मनके गंवाल्य विकल्पों से रहित होकर निश्चल ध्यान की प्राप्ति नहीं हाती तव तक उनको छहों आवश्यक प्रतिदिन अवश्य करते रहना चाहिय तथा अपने अन्य समस्त व्रतों का पालन करते रहना चाहिये आगं आवश्यक आदि कार्यों का फल बताते है । आवासयाइ कम्म विज्ञावच्छ व बाण पूजाई । जं कुणइ समविट्टी तं सरवं णिज्जर णिमित्तं । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आवश्यकादि कर्म वैयावृत्यं च दान पूजादि । यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्व निर्जरा निमित्तम् ॥ ६१० ॥ जो सम्यग्दृष्टी पुरुष प्रतिदिन अपने आवश्यकों का पालन करता है, व्रत नियम आदि का पालन करता है वैयावृत्य करता है, पात्र दान देता है और भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करता है उस पुरुष का वह सब कार्य की निर्जरा का कारण माना जाता है । जस्सण हगामित्तं पायविलेयो ण ओसही लेवो । सो नावाइ समुद्दे तरेइ किमिच्छ भणिएण || यस्य न नभोगामित्वं पादविलेपो न औषधिलेपः । स नौरिव समुद्रं तारयति किमिच्छ भणितेन ।। ६११ ।। २६१ अर्थ- जिनके न तो आकाश गामिनी ऋद्धि है, न पैरों को स्थिर कर आकाश मे चलने की वृद्धि है और न औषधि लेप ऋद्धि है तथापि वह नाव के समान भव्य जीवों को संसार समुद्र से पार कर देता है । भावार्थ- जिन मुनियों के कोई किसी प्रकार की वृद्धि नहीं है ऐसे साधारण मुनि भी अपने रत्नत्रय स्वरुप शरीर से अपने धर्मोपदेश से अनेक भव्य जीवों को संसार समुद्र से पार कर देते है मुनियों की महिमा अपार वचनातीत है । जा संकप्पो चित्ते सुहासुहो भोयणाइ किरियाओ । ताकुण उसोविकिरियं पडोकमणाईय णिस्सेस | ६१२ ॥ यावत्सकल्पचित्ते शुभाशुभ: भोजनादि क्रियातः । तावत्करोतु तामपि क्रियां प्रतिक्रमणादिकां च निःशेषाम् ।६१२) अर्थ - इस छठं गुणस्थान मे रहने वाले मुनियों के हृदय में जबतक शुभ संकल्प वा अशुभ संकल्प विकल्प होते रहते है और जब तक भोजनादिक क्रियाओं की प्रवृत्ति होती रहती है, तब तक उन मुनियों को प्रतिक्रमण आदि समस्त क्रियायें करते रहना चाहिये । एसो पमत्त विरओ साहू मए कहिउ समासेण । एतो उड़ढं बोच्छं अप्पमत्तो णिसामेह || Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ माव-सा एषः प्रमत्त विरत: साधुमया कथितः समासेन : इतः कवं वक्ष्येऽप्रमसं निशाभयत् ।। ६१३ ।। अर्थ- इस प्रकार मैने प्रमत्त विरत नाम के छठे गुण स्थान का स्वरुप अत्यंत संक्षेप मे कहा । अव इसके आगे अप्रमान विरत नाम के सातवे गुणस्थान का स्वरूप कहता हूँ, उगे मुदो । इस प्रकार प्रमत्त गुणस्थान का स्वरुप समाप्त हुआ । पछासेसपमाओं वय गुणसोलेहि मंडिओ गाणी ! अणुव समुओ अखवओ माणणिलोणोहु अप्पमती सो ।। नष्टाशेष प्रमादो व्रतंगुण शोलमण्डितो ज्ञानी। अनुपशमकोऽसपको ध्यान विलीनोहि अप्रमत्तः ।। ६१४ ।। अर्थ- जिनके ऊपर लिखे त्रमाद सब नष्ट हो गये है जो व्रत शील गुणों से सुशोभित हे जो सम्यग्ज्ञानी है, और ध्यान मे सदा लीन रहते है तथा जो न तो उपशम श्रणी मे चढ़ रहे है और न क्षपक श्रेणी में चढ़ रहे है ऐसे मुनि अप्रमत्त कहलाते है । भावार्थ- सातवे गण स्थान' वर्ती मुनि पांचों महाव्रतों को पालन करते है अट्टाईस मूल गुणों को पालन करते है उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी में चढ़ने के लिय सन्मुख रहते है तथा ध्यान में ही लीन रहते है । पुवत्ता जे भावा हवंति पिण्णेव तत्थ नायचा । सुक्खं धम्मरमाणं हवेइ णियमेण इत्येव ।। पूर्वोक्ता ये भावा भवन्ति अय एव तत्र ज्ञातव्याः ।। मुख्यं धम्र्य ध्यानं भवेत् नियमेन अत्रैव ।। ६१५ ॥ अर्थ- इस सातवे गुणस्थान में पहले कहे हए औपशमिक भाव शायिक भाव और क्षायोपशमिक भाव तीनो भाव होते है । तथा इस जगन्थान में नियम पुर्वक मुख्य रीति से धर्म ध्यान होता है । मायारो पुण माण मेंय तहवफलं च तस्सेव । ए ए चउ अहियारा गायन्या होंति णियमेण ।। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ध्याता पुननि ध्येयं तथा बा फल च तस्सैव । एते चतुरधिकारा ज्ञातव्या भवन्ति नियमेन ।। ६१६ ।। अर्थ- इस गुण स्थान में बार अधिकार वतलाये है ध्यान करने वाला ध्यास, चितवन करते रूप त्र्यान, जिसका चितवन किया जाय एसा आत्म। ध्येय और उस ध्यान का फल । यं चार अधिकार नियम पूर्वक इस गुण स्थान में होते है ।। आने ध्यान का लक्षण कहते है। आहारासणणिहा विजओ तह इंदियाण पंचण्हं । बावीस परि सहाणं कोहाईणं कसायाणं ॥ णिस्संगी हिम्मोहो णिग्गय बावार करण सुत्तड्ढो । विढकाओ थिरचित्सो एरिसओ होइ मायारो ॥ ६१७ ।। आहारासननिद्राणां विजयस्तथा इन्द्रियाणां पंचानाम् । द्वाविंशति परिषहाना कोषाविना कषायाणाम् ।। निःसंगो निर्मोही निर्गतव्यापार करण सूत्राव्यः । दृढकायः स्थिरचित्तः एतादृशो भवति ध्याता ।। ६१८ ।। अर्थ- जिने आहार का विजय कर लिया है निद्रा का विजय कर लिया है, पांचों इन्द्रि में का विजय कर लिया है, जो बाईस परिषहों के विजय करने में समर्थ है, जिसने क्रोधादिक समस्त कषायों का विजय कर लिया है दश प्रकार के बाह्य परिग्रह और चौदह प्रकार अन्तरंग परिग्रहों का सर्वथा त्याग कर दिया है, मोह का सर्वथा त्याग कर दिया है, जिसने अपने समस्त इन्द्रियों के व्यापार का त्याग कर दिया है, जो सिद्धांत सूत्रों का जानकार है, जिसका शरीर अत्यंत दुर * खेत धन घर धान्य सोना चांदी दासी दास वर्तन कुप्य (वस्त्रादिक) देश वाह्य परिग्रह है। हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा मिथ्यात्व स्त्रीवेद पुवेद नपुंसक वेद कोध मान माया लोभ ये चौदह अन्तरंग परिग्रह है। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाब-संग्रह है और जिसका चित्त अत्यन्त स्थिर है, ऐसा साधु घ्यान करने योग्य ध्याता कहलाता है। आगे ध्यान का स्वरूप कहते है। चितणिरोहे झाणं चहुवियभेयं च तं मणेयत्वं । पिडत्थं च पयत्थं रुवत्थं कववज्जियं चेव ।। चित्त निरोधे घ्यानं चतुर्विध मेद च तन्मन्तव्यम् । पिण्डस्थं च पदस्थं रूपस्थं रूप बजितं चैव ।। ६१२ ।। अर्थ- चित्त का गिरोध करना ध्यान है अर्थात् चित्त मे अन्य समस्त चितवनों का त्याग कर किसी एक ही पदार्थ का चितवन करना उस एक पदार्थ के सिवाय अन्य किसी पदार्थ का चितवन न करना ध्यान कहलाता है। उस ध्यान के चार भेद है पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ पातीत । आगे पिंडस्थ ध्यान को कहते है । पिडो चुच्चइ देहो तस्स मज्झठिओ हु णियअप्पा | झाइज्जइ अइसुद्धो निष्फुरिओ सेय किरणटो ।। पिण्ड उच्यते देहस्तस्य मध्यस्थितो हि निजात्मा । ध्यायते अति शुद्धो विस्फुरितः सित किरणस्थ: ।। ६२० ।। अर्थ- यहां पर पिड शब्द का अर्थ शरीर है, उस शरीर के मध्य में विराजमान अपने आत्मा का ध्यान करना चाहिय । तथा वह अपना आत्मा अत्यंत शुद्ध है, उगमे में सफेद किरणें निकल रही है और वह अत्यन्त दैदीप्यमान हो रहा है ऐसे अपने आत्मा का चितवन करना चाहिय । देहत्थो झाइज्जइ देहस्संबंध विरहिलो णिसचं । जिम्मल तेय फुरंतो गयणतले तर विवेव ।। ६२१ १ जीवापसपचयं पुरिसायारं हि विययवहत्थं । अमलगणं हायंत माणं पिबत्य अभिवाणं ।। ६२२ ।। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह देहस्थो ध्यायते देह सम्बन्ध विरहितो नित्यम् । निर्मल तेजसा स्फुरन गगनतले सूर्य बिम्ब इव ।। ६२१ ।। जोब प्रदेश प्रचयं पुरुषाकारं हि निज देहस्थम् । अमल गुणं ध्यानम् ध्यानं पिण्डस्थामिधानम् ।। ६२२ ।। अर्थ- बह अपना शुद्ध आत्मा अपने शरीर में विराजमान है नयानि उसका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है, वह आत्मा अत्यंत निर्मल है और जिस प्रकार आकाश में सूर्य दैदीप्यमान होता है उसी प्रकार बद आत्मा भी अपने तेज मे दैदीप्यमान हो रहा है उस आत्मा के प्रदेशों का प्रलय वा समूह पुरुषाकार है वह प्रदेशों का समूह अपने ही शरीर में ठहरा हुआ है और उसमे अनेक निर्मल गुण भरे हुए है। इस प्रकार जो शरीर में स्थित अपने आत्मा का ध्यान किया जाता है उसको पिडम्थ ध्यान कहते है। आगे पस्थ ध्यान का स्वरुप कहते है । यारिसओ देहत्थो झाइज्जइ देह बाहिरे तह य । अप्पा सुद्ध सहायो तं रुवत्थं फुडं प्राणं ।। यादृशो देहस्थो ध्यायते देह वाही तथा परगतं च । आत्मा शुद्धस्वभावस्त रुपस्थं स्फुटं ध्यानम् ।। ६२३ ।। अर्थ- ऊपर लिग्ने पिस्थ ध्यान मे अपने ही शरीर में स्थित अपने ही शुद्ध निर्मल और अत्यन्त दैदीप्यमान आत्मा का ध्यान करना बतलाया है उसी प्रकार शरीर के बाहर अपने ही शुद्ध निर्मल अत्यन्त दैदीप्यमान और शुद्ध स्वभाब आत्मा का ध्यान करता रुपस्थ ध्यान कहलाता है। रूवत्थं पुण बुविहं सगर्य तह परगयं च जायस्वं । संपरगयं भणिज्जइ झाइज्जइ जत्थ पंच परमेठठी ।। रूपस्थं पुनः द्विविध स्वागत तथा परगतं च ज्ञातव्यम् । तत्परगतं भव्यते ध्यायते यत्र पंच परमेष्ठी ।। ३२४ ।। अर्थ- इस रूपस्थ झ्याल के दो भेद है एक स्वागत आत्मा का Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा-सए? ध्यान और दुसरा परगत आत्मा का ध्यान । जहां पर पंच परमेष्टों का ध्यान किया जाता है उस ध्यान' को परगत रूप ध्यान कहते है । पंच परमेष्ठी का आत्मा अत्यंत शुद्ध है परन्तु वह अपने आत्मा मि है इसलियं उसको परगत रूपस्थ ध्यान कहते है। सगयं तं स्वस्थं झाइज्जई जाथ अप्पणो अप्पा । णियवेहस्स बहित्थो फुरंत रवितेय संकासो ।। स्वगतं तु रुपस्थं ध्यायते यत्र आत्मना आत्मा । निज देहाढहिःस्थः स्फुरद् रवितेजः संकाशः ।। ६२ ।। अर्थ- जो अपना आत्मा सूर्य के तेज के समान अत्यन्त देदीप्यमान है अत्यंत शुद्ध है निर्मल है ऐसा अपना आत्मा अपने ही आत्मा के द्वारा अपने शरीर के बाहर ध्यान किया जाता है उसको स्वागत रूपस्य ध्यान कहते है। इस प्रकार रुपस्थ ध्यान का स्वगत स्वरूप कहीं । अब आगे पदस्थ ध्यान को बाहते है । देवच्चणा बिहाणं जं कहिय तं देसविरयठाणम्म । होइ पयस्थं झाणं कहियं सं बरजिणंर्दोह ।। देवार्चना विधानं यत्कथित देश विरत स्थाने । भवति पदस्थं ध्यानं कथितं तवरजिनेन्द्रः ।। ६२६ ।। अर्थ- पहले देश विरत वा विरता विरत गण स्थान के स्वरूप में जो भावना जिनेन्द्रदेव की पुजन करना समवसरण में विराजमान अष्ट प्रतिहार्य सहित अनन्त चतुष्टय सहित भगवान अरहंत परमेष्ठी का ध्यान करना आदि बतलाया है वह सव पदस्थ ध्यान है ऐसा भगवान जिनेंद्रदेव ने कहा है । एक पय मक्खरं वा अवियह जं पंचगुरुवसंबंध । तं पिय होइ पयस्थ झाणं कम्माण णिहहणं ।। एक पद मक्षरं वा जाप्यते यत्पंच गुरु सम्बन्धम् । तदपि च भवति पदस्थं ध्यान कर्मणां निर्वहनम् ।। ६२७ ।। अर्थ- पंच परमेष्ठी के बाचक एक पद के मन्त्र का जप करना Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह aaumn -wido वा एक अक्षर मन्त्र का जप करना वा अधिक अक्षरों के मंत्र का जप करना भी पदस्थ ध्यान कहलाता है। यह पदस्थ ध्यान कर्मों के नाश करने का सावन है। भावार्थ- पणतीस सोल छप्पण चद् दुग मेगं च जवह झापट ! परमेट्रि वागणं अगणं च गरु वएसेण । अर्थात्-णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहणं यह तीस अक्षर का मंत्र है । अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्व साधुभ्यानमः यह सोलह अक्षर का मंत्र है । अ सि आ उ सा यह पांच अक्षर का मंत्र है । अरहंत यह चार अक्षर का मंत्र है। सिद्ध यह दो अक्षर का मंत्र है यह एक अक्षर का मंत्र है । अ अरहंत का पहला अक्षर है, सि सिद्ध का पहला अक्षर है. आ आचार्य का पहला अक्षर है। ज उपाध्याय का पहला अक्षर है और सा साधु का पहला अक्षर है । इसी प्रकार ओं भी पंच परमेष्ठी का याचक है। अरहंसा असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो । पदम क्खर णिप्पणो ओंकारो पंच परमेष्ठी ।। अर्थ- अरहंत अशरीरा अर्थात् सिद्ध आचार्य उपाध्याय और मुनि इन पांचों परमेष्ठियों का पहला अक्षर लेकर संधि करने स पंच परमेष्ठी का वाचक ओं सिद्ध हो जाता है । यथा अ-अ.आ, आ = आ । आ+ उ ओ । ओ-म्... ओम् । इस प्रकार ओं पंच परमेष्ठी का वाचक है। इस प्रकार पदस्थ ध्यान का स्वरूप कहा । अब आगं रूपातीत ध्यान का स्वरूप कहते है। णीय चितइ बेहत्थं देह वहित्यं ण चितए कि पि । ण सगय परगयरूबं तं गमहवं णिरालेवं ॥ मच चिन्तयति बेहस्थं वेह बाह्यस्यं न चिन्तयेत् किमपि । न स्वागत परगत रूप तद्गतरूपं निरालम्बम् ।। ६२८ ॥ अर्थ- जोन तो शरीर में स्थित शुद्ध आत्मा का चितवन करता ने शरीर के बाहर शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है न स्वगत आत्मा का Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ध्यान करता है और न परगत पंच परमेष्ठी का ध्यान करता है किन्तु बिना किसी आलम्बन के किसी पदार्थ का ध्यान करता है अपने चित्त को अन्य समस्त चिनवनों से हटाकर किसी एक पदार्थ में लगता है वह रूपातीत ध्यान कहलाता है । जत्थ ण करणं चिता अक्खर रूवं ण धारणा धेयं । ण य वावारो कोई चितस्सय तं णिरालेवं ।। यत्र न करणं चिन्ता अक्षर रूपं न धारणा ध्येयम् । न च ध्यातारः कश्चिाच्चत्तस्य च तन्निरालम्बम् ।। ६२९ ।। अर्थ- जिस ध्यान में किसी विशेष पदार्थ का चितवन नहीं करना पडता न किसी शब्द वा अक्षर वा चितवन करना पड़ता है, जिसमें न धारणा है न ध्येय है और न जिसमें मन का कोई ब्यापार होता है। ऐसे ध्यान को निराबलम्ब ध्यान कहते है । भावार्थ- निरालंब ध्यान करने वाला योगी अपने आत्मा को अपने ही आत्मा में लीन कर लेता है। अपने आत्मा के द्वारा उसी अपने शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है। वही निरालंब ध्यान कहलाता है। इंदिय विसय वियारा जत्थ खयं जति राय दोसं च । मण धावारा सब्वे त गयारूबं मुणेयब्ध ।। इन्द्रिय विषम विकास यत्र क्षयं यान्ति रागद्वेषौच । मनो व्यापाराः सर्वे तद्गतरूपं मन्तब्यम् ।। ६३० ।। अर्थ- जिस ध्यान में इन्द्रियों के समस्त विकार नाश हो जाने है जिसमें राग द्वेष सब नष्ट हो जाते हैं। और भन के व्यापार मव नष्ट हो जाते है उसको रूपातीत ध्यान कहते है। इस प्रकार रुपातीत ध्यान का स्वरूप है। आगे ध्येय वा ध्यान करने योग्य पदार्थ को कहते है । धेयं तिमिह पयारं अक्खरहवं तह अरूवंच ।। रुवं परमेद्वियं अक्खरयं तेसि मुच्चार ।। गयरुवं जंज्ञेयं जिणेहि भणियं पितं णिरालंछ । सुषणं पि त ण सुषणं जम्हा रयणत्तयाइण्णं ।। ६३२ ।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ध्यय विविध प्रकारं अक्षर रुपं तथाऽरुपं च । रुपं परमेष्ठिगतं अक्षरकं तेषामुच्चारणम् ।। ६३१ ॥ गतरुप पद्ध्येयं जिनर्भणितमपि तन्निरालम्वम् शून्यमपि सन्न शून्यं यस्माद् रत्नत्रयाकीर्णम् ।। ६३२ ।। अर्थ- जिसका ध्यान किया जाता है उसको ध्येय कहते है वह यय तीन प्रकार का है । अक्षर, रुप और अरूपी जो पंच परमेष्ठी का ध्यान करना है तथा उन पर मेष्ठी के बाचक अक्षरों का उच्चारण करना हैबह अक्षर रूप ध्यान कहलाता है तथा जी रत्नत्रयस्वरूप निरालंच ध्यान किया जाता है जो रत्नत्रय से ओतप्रोत भरा हआ है और इसीलिये जो शून्य होकर भी शून्य नहीं कहलाता उस ध्यान को भगवान जिनेन्द्र देव ने रूपातीत ध्यय बतलाया है । आगे ध्यान का फल बतलाते है। शाणस्स फलं तिविहं कहंति पर जोइणो विगयमोहा । इह भव पर लोय भवं सव्वं कम्मक्लए तइयं ।। ध्यानस्य फलं निविधं कथयन्ति वर योगिनो विगतमोहाः । इह भव परलोक भवं सर्व कर्मक्षये तृतीयम् ।। ६३३ ।। अथ.. राग द्वेष और मोह रहित परम योगी पुरूषों ने ध्यान का इन्द्रियाणि विलीयन्से मनो यत्र लयं व्रजेत। ध्यानं ध्येय विकल्पेन तद्ध्यान रूप जितम् ।। अमूर्तमजमव्यक्तं निर्विकल्पं चिदात्मकम् । स्मरेद्यत्रात्मनात्मान रूपातीतं च तद्विदुः ।। जहां पर इन्द्रियों की प्रवृत्ति नष्ट हो जाय मन की प्रवृत्ति नष्ट हो जाय जहां पर ध्यान और ध्येय का अगल अलग विकल्प न हो. जो ध्यान अमृत आत्मा का किया जाय जो ध्यान अव्यक्त हो, विकल्प रहित हो शुद्ध चैतन्य स्वरूप हो । इस प्रकार जो अपने आत्माके द्वारा अपने ही शुद्ध आत्मा का चितवन करना रूपातीत ध्यान है । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૦ भाव - संग्रह फल तोन प्रकार बतलाया है । पहला इसो भव मे होनेवाला फल दूसरा परलोक में होने वाला फल और तीसरा समस्त कर्मों का नाश होना । इस प्रकार ध्यान के फल तोन प्रकार के होते है । झाणस्स य सत्तीए जायंति अइसयाणि विविहाणी । दूरालोयण पहुई झाणे आएस करणं च ॥ ध्यानस्य च शक्त्या जायन्ते अतिशयानि विविधानि । दूरालोकन प्रभूतीनि ध्याने आवेश करणं च ।। ६३४ ।। अर्थ - ध्यान की शक्ति से अनेक प्रकार के अतिशय प्राप्त हो जाते है, हजारों कोस दूरके पदार्थ देख लेना, दूरके शब्द सुन लेना आदि रूप से इन्द्रिय ज्ञान की वृद्धी हो जाती है तथा आदेश करने की शक्ती प्रगट हो जाती है 1 महसुइ ओहीना मगरज्जय केवलं तहां पानं । रिद्धीओ सजाओ जइपूजा इह फलं झाणे || afar तावधि ज्ञानं मनः पर्ययः केवलं तथा ज्ञानम् । ऋद्धयः सर्वाः पतिपूजां वह फलं ध्याते ।। ६३५ ।। अर्थ- मति ज्ञान श्रुत ज्ञान की वृद्धि वा पूर्णता हो जाती है अवधि ज्ञान मनः पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाता है तथा केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है, समस्त ऋद्धियां प्राप्त हो जाती है और यति पूजा भी होने लगती है अथवा केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर जिन पूजा भी होने लगती है । यह इतना फल तो इस लोक में मिल जाता है । आगे परलोक सम्बन्धी फल बतलाते है सक्काई इंदत्तं अहमिदत्तं च सग्गलोयाम्मि । लोयंति य देवत्तं तं परभवगयफलं झाणे || शादन्द्रत्वं अहनिन्द्रत्वं च स्वर्ग लोके । stefos daci तत्परभवगत फलं ध्याने ।। ६३६ ।। अर्थ- स्वर्गी मे जाकर इन्द्र पद की प्राप्ति, अहमिन्द्र पद की प्राप्ति होना और लीकान्तिक पद की प्राप्ति होना आदि ध्यान क परलोक सम्यन्त्री फल समझना चाहिये । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आगे ध्यान का तीसरा फल बतलाते है । तणुषंचस्सय णामो सिद्धसरुवस्स चेव उप्पत्ती। तिहुयण पहुत्त लाहो लाहो य अणेत विरियस्स ।। ६३७ ।। अठगुणाणं लद्धी लोयं सिहरग्गखे तसंवासो।। तय फलं कहिय मिणं जिणधरचंवेहि झाणस्स ।। ६३८ ।। तनुपंचानां नाश: सिद्धस्वरुपस्य चैवोत्पत्तिः । त्रिभुवन प्रभुत्वलामो लामश्चानन्त वीर्यस्य ।। ६३७ ॥ अष्टगुणानां लब्धिः लोक शिखरानक्षेत्र संवासः । तृतीय फलं कथितमिदं जिनवरचन्द्र ध्यानस्य ।। ६३८ ।। अर्थ- औदारिक आदि पांचों शरीरों का नाश हो जाना, सिद्ध स्वरूप को प्राप्ति हो जाना तीनों लोकों का प्रभत्व प्राप्त हो जाना अनन्त वीर्य की प्राप्ति हो जाना सम्यकत्व, ज्ञान, वीर्य, मूक्ष्मत्व अगुरुलघुत्व अव्यावाध दर्शन इन आठ गगों को प्राप्ति हो जाना और लोक शिखर के अग्रभाग पर झाकर स्थिर हो जाना यह सब ध्यान का तीसरा फल भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है । आम इस गुण स्थान के स्वरूप का उपसंहार करते है। एवं धम्मज्माणं कहियं अपमस्त गुण समासेण । सालंय मणालंव तं मुक्ख इत्थं गायब्वे ।। एवं धर्माध्यानं कथितं अप्रमत्त गुणे समासेन । सालम्बमनालम्ब तन्मुल्य अत्र ज्ञातव्यम् ।। ६३९ ॥ अर्थ- इस प्रकार इस सातवे अप्रमत्त गुण स्थान में होने वाले धर्म ध्यान वा स्वरूप अत्यंत संक्षेप से कहां । इस गुण स्थान में अवलम्बन सहित धर्म घ्यान भी होता है तथा इस गुण स्थान में दोनों ही ध्यानों की मुख्यता रहती है । ऐसा समझना चाहि । एबम्हि गुणट्ठाणो अस्थि आवासयाण परिहारो। साण मणम्मि घिरत्तं णिरंतर अस्थितं जम्हा ।। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ एतस्मिन् गुणस्याने अस्ति आवश्यकानां परिहारः । ध्यान मनसि स्थिरत्वं निरन्तरं अस्ति तथ् यस्मात् ।। ६० ।। माव-सग्रह - अर्थ - इस सातवे गुणस्थान में छहो आवश्यकताओं की आवश्यकता नहीं होती और इसलिये ध्यान मे लगा हुआ मन निरन्तर अत्यन्त स्थिर हो जाता है । सत्तमयं गुणठाणं कहियं अपमत्त णाम संजुत्तं । एतो अप्पुचणामं बुच्छामि जहाणुपुत्रीए || सतर्क गुणस्थानं कथितं अप्रमत्त नाम संयुक्तम् । इतोऽपूर्वनाम वक्ष्यति॥३॥ अर्थ - इस प्रकार अप्रमत्त संयत नाम के सातवे गुण स्थान का स्वरूप कहा | अब इसके आगे अनुक्रम से होने वाले अपूर्व करण नाम के आठवें गुण स्थान का स्वरूप कहते है । इस प्रकार अप्रमत्त संयत नाम के सातवे गुणस्थान का स्वरूप आगे अपूर्व करण नाम के आठवे गुण स्थान का स्वरूप कहते है । बं भेय पऊलं खवयं उवसामियं च णायव्वं । वए खवओ मो उवसमए होइ उवसमओ ।। तद्विभेव प्रोक्तं क्षपक मुपशमकं च ज्ञातव्यम् । क्षपके क्षपको भावः उपशमके भवति उपशमकः ।। ६४२ अर्थ- इस आवे गुण स्थान के दो भेद है एक औपशमिक और दूसरा क्षायिक क्ष कि अपूर्व करण में क्षायिक भाव होते है पश मिक अपूर्व करण में औपशमिक भाव होते है । भावार्थ - सातवे गुण स्थान में ध्यान करने वाले मुनि सातवे गुण स्थान के अन्त में दो प्रकार. के मार्गों का अवलम्बन करते है । एक क्षपक श्रेणी औण दूसरा उपशम श्रेणी । जो क्षपक श्रेणी में चढते है वे अपने कर्मों का क्षय करते जाते है और बारहवे गुणस्थान के अन्त होने पर केवल ज्ञान प्राप्त करते है । उपशम श्रेणी चढने वाले मुनि अपने ध्यान में कर्मों का क्षय नहीं करते Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २७३ किन्तु कर्मों का उपशम करते जाते हैं तथा ग्यारहवें गुम स्थान में पहुंच कर उन कर्मों के उदय हो आने पर नीचे के गुण स्थानों में आ जाते है जगशम अंगी वालों के पमिक भाव ही होते है और क्षपक श्रेणी वालों के क्षायिक भाव ही होते है। आगे इस गुण में होने वाले ध्यान के भेद कहते है । खबएषु उबसमेसु य अपुषणामेसु हबइ तिपयारं । सुक्कझाणं णियमा पुहुत्त सवियस्क सवियारं ।। क्षपकेषु उपशमेषु चापूर्व नामसु भवति त्रिप्रकारम् । शक्लान नियमाद पथकल सवितर्क सविचारम ।। ६४३॥ अर्थ- इस अपूर्व करण नाम के आठवे गण स्थान में पहला शक्ल ध्यान होता है नथा उपशम श्रेणी वाले के और क्षपक श्रेणी वाले के दोनों के ही पहला शुक्ल ध्यान होता है । वह शुक्ल ध्यान नियम से तीन प्रकार होता है । पृथस्व, सवितर्क और सवीचार । आग पृथक्त्व का लक्षण कहते है। पजायं च गुणं वा जम्हा नव्याण मुणइ भेएण । तहमा पुहुत्तणाम भणियं शाणं मुणिदेहि ।। पर्यायं च गुणं वा यस्माद् वव्याणां जानाति भेटेन । तस्मात्पृथक्त्वनाम माणितं ध्यानं मुनीन्द्रः ।। ६४४ ।। श्रुते चिता वितर्क; म्याद्विचारः संक्रमो मतः । पृथक्त्वं स्यादनेकल्वं भवतेत् क्रियात्मकम् || अर्थात्- श्रुत ज्ञान का चितवन करना वितर्क है संक्रमण होना विचार है और अनेकत्व होना पृथक्त्व' है इस प्रकार पहला शुक्ल ध्यान तीन प्रकार का होता है। द्रव्याद् द्रव्यान्तरं यति गुणादगुणांतरं ब्रजेत् । पर्यायादन्य पर्याय सपृथक्त्वं भवत्यतः ।। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सर ___अर्थ- ध्यान करने वाले मुनि जिस ध्यान में द्रव्य पयां को और द्रव्यों को गुणों को पृथक पृथक जानते है उस ध्यान को मनि गज सर्वज्ञ' देव पृथक्त्व नाम का ध्यान कहते है। आग वितर्क कालचरण कहते है। भणियं सुयं पियक्कं वह सह तेण संखु अणवरय । तम्हा तस्स वियक सवियारं युण णिस्सामो ।। भणितं श्रुतं वितर्क वर्तते सहतेनतस्खल अनबरतम् । तस्मात्तस्य वितर्क सवीचारं पुनर्भणियामः ॥ ६४२ । अर्थ- वितर्क शब्द का अर्थ श्रुतज्ञान है जो ध्यान सदा काल श्रुत जान के ही साथ रही उस ध्यान को सविर्तक ध्यान कहते है । आगे सवीचार का लक्षण कहते है। सूशुद्धात्मानुभत्यात्मा भाव श्रुतावलम्बनात् ।। अंतर्जल्पो वितर्कः स्याद यस्मिस्तु सवितर्कजम् ।। अर्थादर्थान्तरे शदाच्छद्वान्तरे च संक्रमः । योगाद्योगान्तरे यत्र सवीचारं ततुच्यते । अर्थात्- एक द्रव्य को छोडकर दूसरे द्रव्य का चितवन करना, एक गुण को छोड़कर दूसरे गुण का चितवन करना और एक पर्याय छोड़कर दूसरे पर्याय का चितवन करना सपृथक्त्व कहलाता है। जिस ध्यान में भाव-थतज्ञान के आलम्बन से अत्यंत शुद्ध आत्मा अथवा शुद्ध अनुभति स्वरूप आत्मा का स्वरूप आत्मा के ही भीतर प्रतिभासमान होता हो उसको सवितर्क ध्यान कहते है। वितर्क शब्द का अर्थ श्रुतज्ञान है जो ध्यान श्रुतज्ञान सहित हो उसको सवितर्क ध्यान कहते है जो ध्यान एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को बदल जाय एक शब्द से होने वाला चितवन दूसरे योग्य से होने लगे उसको संक्रम का वीचार कहते है । पहले शक्ल ध्यान में ये तीनों बातें होती है इसलिये वह शुक्ल ध्यान पृथक्त्व सवितंक सदाचार कहलाता है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह जोएहि तीहि वियरह अक्खर अत्थेसु तेण सवियारं । पढमं सुक्कझाण अतिक्ख परसोयमं भणियं । योगेस्त्रिभिः विचरति अक्षरार्थेषु तेन सवीचारम् । प्रथमं शुक्लध्यानं अतीक्ष्णपरशूपमं भणितम् || ६४६ ।। अर्थ- जिस ध्यान मे चितवन किये हुए पदार्थ वा उनको करने -- वाले सब्दों का चितवन मन से वचन से काया से वा क्रम में अदल बदल कर किया जाता हो कभी काय से चितवन किया जाता हो तथा काय को छोड़कर मन से वा वचन से चितवन किया जाता हो इस प्रकार जिसमें योग वदलते रहते ही तथा पदार्थ और उनके वाचक शब्द भी बदलते रहते हो उसको पत्रीचर ध्यान कहते हैं। योग पदार्थ और शब्दों का बदलना बीचार कहलाता है । तथा वीचार सहित ध्यान को सवीचार ध्यान कहते है यह ध्यान कर्म रूपी वृक्ष को काटने के लिये विनाधार वाले अतीक्ष्ण कुल्हाडे के समान है जो देर से कर्मों का नाश करता है । जह चिरकालो लग्गड़ अतिक्ख परसेण हकब विच्छेए । तह कम्माण य कृष्णे चिरकालो पढम सुक्कम्मि || यथा चिरकालो लगति अतीक्ष्ण परशूना वृक्षविच्छेदे । तथा कर्मणां च हनने चिरकाल: प्रथम शुक्ले || ६४७ २७५ अर्थ - जिस प्रकार किसी वृक्ष के काटने के लिये कुल्हाडी तीक्ष्ण न हो पत्थरी कुल्हाड़ी हो तो उस वृक्ष के काटने मे बहुत देर लगती है उसी प्रकार इस प्रथम शुक्ल ध्यान में कर्मों का नाश करने मे बहुत देर लगा करती है | खइएण उवसमेण य कस्माणं जं अडब्य परिणामो । सम्हा तं गुणठाणं अव्वणामं तु तं भणियं ॥ क्षपेोपशमेन च कर्मणः यदपूर्वपरिणामः । तस्मात्तद्गुणस्थानं अपूर्वनाम तु तद् भणितम् ॥ ६४८ ।। अर्थ- इस गुण स्थान में कर्मों का क्षय होने पर अथवा कर्मों का Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह उपशम होने पर अपूर्व परिणाम होते रहते है जैमे शुध परिणाम पहले कमी नहीं हुए थे वैसे अपूर्व शुद्ध परिणाम होते रहते है इसलिय आचार्यों ने इस गुण स्थान का नाम अपूर्व करण गुणस्थान रक्खा । इस प्रकार अपूर्व करण गुण स्थान का स्वरुप कहा। आगे अनिवृत्ति करण नाम के नौवें गण स्थान का स्वरुप कहते जह तं अपुवणाम अणियट्टी तह य होई गायत्रं । उघसम खाइग्र भावं हवेइ फुडु तम्हि वाणमिम ।। यथा तवपूर्वनाम अनिवृत्ति तथा च भवति जातव्यम् । औपशामिक क्षायिक भावी भवतः स्फुट तस्मिन् गुणस्थाने ।६४९) अर्थ- जिस प्रकार उत्तरोत्तर पूर्व अपूर्व परिगाहोने के कारण आठवे गण स्थान का नाम अपूर्व करण गुण स्थान है उसी प्रकार अति वृत्ति करण नाम का नौवा गुण स्थान समझना चाहिये । इस गुण स्थान में उत्तरोत्तर जो परिणामों की शुद्धता होती जाती है वह शुद्धता बढवी ही जाती है फिर कम नहीं होती। इसलिये इसको अनिवृत्ति करण कहते है जिसमें परिणाम को शुद्धता निवृत्त न हो सके, और बढ़ती ही अल. जाय -सको अनिवृत्ति करण कहते है इस गुण स्थान मे मी औपशमिक मात्र और क्षायिक भाव दोनों ही होते है । उपत्रम अंगी बाले को उपशम भाव होते है और क्षपक श्रेणी वाले के परिणाम प्रायिक होते ।। सुक्क तत्थ पउत्तं जिणेहि पुत्त लक्षणं झागं । त्थि णियत्तो पुनरवि जम्हा अणियदि तं तम्हा ।। शुक्ल तत्र प्रोक्तं जिनः पूर्वोक्त लक्षणं ध्यानम् । नास्ति निवृत्तिः पुनरपि यस्मात् अनियत्ति तत्तस्मात् ॥६५॥ अर्थ- भगवान जिनेन्द्र देव ने इस नौवे गुण स्थान मे भी पहले के अपूर्व करण गुण स्थान में कहा हुआ पहला शुक्ल ध्यान पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम का शुक्ल ध्यान कहा है । इस गुण स्थान में शुद्ध Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावन्मंग्रह करणामों की निवृति नहीं होती इसलिये इस गुण स्थान का नाम अनिवृत्ति करण कहा गया है। हति अणिर्यादृणो ते पडिसमयं जस्स एक परिणाम 1 बिमलयर शाण हुअवह सिहाहि गिद्दड्ढ कम्म वण || भवन्ति अनिवतिनस्ते प्रतिसमयं येषां एकपरिणामः । बिमलतरध्यान हुतवह शिखाभिः निर्दग्ध कर्मवनाः ।।६५१ः। - इस गण स्थान में एक समय में जितने जीत्र होंगे उन सब के एक समान परिणाम होंगे और वे परिणाम निवृत्ति रुप नहीं होते । इस स्थान में रहने वाले मुनिपों का ध्यान अत्यन्त निर्मल होता है तथा इमलिय उस निर्मल ध्यान रूपी अग्नि की शिम्बर में कर्म रुपी वन अवश्य जल जाते है। इस गण स्थान के समय असंख्यात होते है 1 उन में बे ध्यानी मुनि उत्तरोत्तर समयो मे बने रहते हैं । इस गुण स्थान के पहले समय में जितने जीव होंगे उन सबके परिणाम एक से ही होंग दूसरे समय में भी जितने जीव होंग उन सब के परिणाम एक से होंगे। इसी प्रकार तीसरे चौथे पांचवे आदि असंख्यात समयों मे समझ लेना चाहिये । इस प्रकार नौवे गुण स्थान का स्वरूप कहा । अब आग सूक्ष्म सांपराय नाम के दशवे गुण स्थान का स्वरुपकहते जह अणिर्याद पउत्तं खाइय उपसमिय सेढि संजुत्तं । तह सुहमसंपराये दुर्भय होई जिण कहियं ।। यथा अनिवृत्ति प्रोक्तं क्षाहिकोपशमिकश्रेणी संयुक्तम् । तथा सूक्ष्मसापरायं द्विभेद भवसि जिनकथितम् ।। ६५२ ।। अर्थ- जिस प्रकार निवृत्ति करण मे शपक श्रेणी और उपशम श्रेणी दो प्रकार की श्रेणियां वतलाई है उसी प्रकार इस सूक्ष्म सांपराय नाम के दशवे गण स्थान में भी उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी दोनों ही श्रेणियां होती है ऐसा भगवान' जिनेन्द्र देव ने कहा है । सत्थेव हि दो भावा झाणं पुणु तिविह भेय तं सुक्क । लोह कसाए सेसे समलत्तं होइ चित्तस्स ।। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ तत्रैव हि द्वौ भावी ध्यानं पुनः त्रिविधभेद लच्छुक्लम् । steeurये शेषे समलत्वं भवति चित्तस्य । ६५३ ।। माव-संग्रह अर्थ - इस गुण स्थान में भी औपशमिक और क्षायिक दो हो भाव होते हैं । उपशम श्रेणी वाले के अपशमिक भाव होते है और क्षपक श्रेणी वाले क्षायिक भाव होते है। इसी प्रकार इस गुण स्थान में पहले कहा हुआ पृथक्त्व सवितर्क सवीचार नाम का दोनों भेद वाला प्रथम शुक्ल ध्यान ही होता है इस गुण स्थान में केवल सूक्ष्म लोभ कप या होता है इसलिये उनका चित्त कुछ थोडा सा समल वा मल सहिन ( अत्यन्त सूक्ष्म अशुद्धता सहित ) होता है । जह कोसुं य वत्थं होइ सया सुहुमराग सहुत्तं । एवं सुहम कसाओ सुहम सराबोति निद्दिट्ठो ॥ यथा कौसुम्बं वस्त्रं भवति सदा सूक्ष्म राग संयुक्तम् । एवं सूक्ष्म कषाय: सूक्ष्म सराग इति निदिष्ट ।। ६५४ ।। अर्थ- जिस प्रकार कमल मे रंगे हुए वस्त्रों में (कसुभा के फुलों के रंग में रंगे हुए वस्त्र में ) लाली अत्यन्त सुक्ष्म होती है इसी प्रकार इस दर्शवे गुणस्थान में लोभ रूपों कषाय अत्यन्त सूक्ष्म होता है इललिये इस गुण स्थान का नाम सूक्ष्म सांपराय कहा गया है। इस प्रकार सूक्ष्म सांपराय नाम के दशवे गुण स्थान स्वरुप कहा । अब आगे उपशांत कषाय नाम के ग्यारहवे गुण स्थान का स्वरूप कहते है । जो जवसमइ कसाए मोहासंबंधि पडियूहं च । जवसामओति भणिओ खओ णाम न सो लहद्द || यः उपश्याम्यति कषायान् मोहस्य सम्बन्धि प्रकृति व्यूह च । उपशामक इति भणितः क्षपकं नाम न लभते ।। ६५५ ।। अर्थ - जो मुनि मोह की समस्त प्रकृतियों का उपशम कर देते हैं बे उपशांत कषाय नाम के ग्यारहवें गुणस्थान वर्ती मुनि कहलाते है । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह २७९ ग्यारहवें गण स्थान वर्ती मुनि क्षपक कभी भी नहीं कहला सकते । क्योंकि जो उपशम श्रेणी में चढते है और कर्मों का उपशम करते करते ग्यारहवें गुण स्थान तक आ जाते है । वे कर्मों का क्षय नहीं करते। इसलिये वे क्षपक नही कहला सकते । क्षक वे ही कहलाते है जो क्षपक श्रेणी चढकर कर्मों का क्षय करते जाते है । आगे और भी कहते है । सुक्कज्माणं पढ़म मावो पुण तस्थ उयसमो भणिओ। मोहोदयाउ कोई पडिऊग य जाइ मिच्छत्तं ।। शुक्ल ध्यानं प्रथम भावः पुनः तत्रोपशः भणितः । मोहोक्याकश्चित् प्रतिषस्य च याति मिथ्यात्वम् ।१६५६।। अर्थ- इस गुण स्थान में पहला पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम का शुक्ल ध्यान होता है तथा इस गुण स्थान में औपशमिक भाव ही होते है। इस गण स्थान के अन्त में मोहनीय कर्म की जो समस्त प्रकृतियां उपशांत हो गई थीं वे सब प्रकृतियां उदय में आ जाती है और फिर वे मनि इस ग्यारहवें गुण स्थान से गिर जाले है। ग्याहरवें मुण स्थान से गिरने वाले कितने ही मुनि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाने से मिथ्यात्व गण स्थान में भी आ जाते है। कोई पमायरहियं ठाणं अरसिज्ज पुर्णाव आहइ। चरम सरीरो जीवो खवयसेहीं च रय हरणे ।। कश्चित् प्रमाव रहितं स्थान माश्रित्य पुनरप्पारोहयतिः । चरम शरीरो जीवः क्षपक-णि च रजोहरणे ।।६५७!। अर्थ- ग्याहरवे गुण स्थान से गिर कर कितने ही मुनि सावें गुण स्थान मे अप्रमत्त गुण स्थान मे आ जाते है और सातवें गुण स्थान मे आकर फिर भी अंगी चहते है । यदि उन मुनियों में कोई मुनि चरम शरीरी हुए तो वे मुनि क्षक श्रेणी मे चढ़ जाते है तथा क्षपक धेणी मे चढ़ कर वे ज्ञानाबरण दर्शना वरण कर्मों का नाश करने के लिये उद्यम करते है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० कालं काउं कोई तत्यय उचसामगे मुणगे । सुक्कज्झाणं साइय उज्जइ सम्बसिद्धी ॥ कालं कृत्वा कश्चित्तत्रोपशम के गुणस्थाने । शुक्लध्यानं व्यात्वोत्पद्यते सर्वार्थसिद्धये ६५८ ।। ܙ ܀ अर्थ- इसी उपशांत मोर नाम के ग्याहरवें गुण स्थान मे रहने बाले मुनि की यदि आयु पूर्ण हो जाय तो वे शुकान का धान करते हुए शरीर को छोड़ देते हैं और मर कर मुनि नियन सिद्धि मे उत्पन्न होत है । त्रे भाव-संग्रह ओ हु चेदृद्द पंको सर नियम जह सरइ । तह मोहो तम्मि गुणे हेउ लहि ऊण उल्ललई || अधः स्थितोहि तिष्ठति पंकः सरः पानीये यथा शरदि । तथा मोहस्तस्मिन् गुणे हेतुं लब्ध्वा उद्गच्छति ॥ ६५६ ।। अर्थ - जिस प्रकार शरद् ऋतु में कीचड सब तालाब के पानी नीचे बैठ जाती है तथापि वह वायु आदि का कारण पाकर फिर ऊपर आ जाती है उसी प्रकार आठवें नांवें दावें ग्याहरवे गुण स्थानों मे जिस मोहनीय कर्म का उपशम किया था तथा ग्याहरवे गुण स्थान में आकर समस्त मोहनीय कर्म का उपशम कर दिया था बही मोहनीय कर्म इस ग्यारहवें गुण स्थान के अन्त समय में कारण पाकर उदय में आ जान | है। जब मोहनीय कर्म का उदय आ जाता है तब वे मुनि ग्यारहवें भ गिर कर सातवे गुण स्थान मे आ जाते है यदि उसी समय मिध्यात्व का उदय हो जाय तो वे मुनि पहले मिथ्यात्व गुण स्थान में आ जाते जो लवयसेदि रूढो ण होइ उवसामिओति सो जीवो । मोहद स्वयं. तो उसो सवओ जिणिदेहि || यः क्षपक श्रेष्यारूढो न भवति उपशामकः इति स जीवः । मोह क्षयं कुर्वन् उक्तः क्षपको जिनेन्द्रः ।। ६६० ॥ अर्थ - जो मुनि प्रारम्भ से ही क्षपक श्रेणी में चढते हैं वे मुनि Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २८१ कों का उपशम नहीं करते किन्तु मोहनीय कर्म का क्षय करते जाते है इस लयं वे दश गुण स्थान से ग्यारहवे गुण स्थान में नहीं आते किन्तु दहा गुण स्थान से बारहवे गुण स्थान में पहुंच जाते है । इसलिये वे गुग्गुन फिर नीचे के गुण स्थानों मे फिर कभी नहीं आते है। फिर तो बारहवे गण स्थान के अन्त मे धातिया कमों का नाश कर केवल ज्ञान ही प्राप्त करते है। इस प्रकार उपशांत कषाय गुण स्थान का स्बा कहा। ___ आगे क्षीण मोह वा क्षीय पाय नान के बारचे गुन स्थान । स्वरूप कहते है। हिस्सेसमोह खोणे खोण कसायं तु णाम गुणठाणं । पावइ जीवो Yणं खाइयभावेण संजुसो ।। निःशेषमोहक्षीणे क्षीण कषायं तु नाम गुणस्थानम् । प्राप्नोति जीवो नूनं क्षायिक भावेन संयुक्तः ॥ ६५१ ॥ अर्थ- जिस समय उन ध्यानी मुनि के समस्त मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है उस समय उन मुनि के क्षीण कषाय नाम का बारहवा गुण स्थान होता है । बारहवे गुण स्थान में उन मुनियों के क्षायिक भाव ही होते है। जह सुद्ध फलिय भायणि खितं गीर खु हिम्मलं सुखं । तह जिम्मल परिणामो खोण कसाओ मुणेयवो ॥ यथाशुद्ध स्फटिक भाजने क्षिप्तं नीरं खलु निर्मलं सुद्धम् । तथा निर्मल परिणाम: क्षीण कषायो मन्तव्यः । अर्थ- जिस प्रकार शुद्ध स्फटिक मणि के वर्तन में रक्खा हुआ शुद्ध निर्मल जल सदा शुद्ध निर्मल ही रहता है उसी प्रकार जिसके कषाय सव नष्ट हो चुके है ऐसे क्षीण कषाय गुण स्थान में रहने वाले मुनि के परिणाम सदाकाल निर्मल ही रहते है । आगे बारहवे गुण स्थान मे कौनसा ध्यान होता है सो कहते है। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सुक्कज्ज्ञाणं वीयं मणियं सवियक्क एक्क अवियारं । माणिक्क सिहाचलम् अस्थि तहि णत्थि संदेहो || शुक्लध्यानं द्वितीयं भणितं सवितर्ककत्त्रावोचारम् | माणिक्यशिखाचपलं अस्ति तत्र नास्ति सन्देहः ।। ६६३ ।। अर्थ - इस गुण स्थान में एकत्व वितर्क नाम का दूसरा शुक्ल ध्यान होता है वह ध्यान वितर्क अर्थात् श्रुत ज्ञान सहित होता है किसो एक हो योग से होता है और उसमें वीचार वा संक्रमण नहीं होता चार रहित होता है। जिस प्रकार माणिक रत्न की शिखा निश्चल रहती है उसी प्रकार उन मुनो का ध्यान वीचार रहित निश्चल होता है इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । होऊण खीण मोहो हणिऊण य मोह विडविवित्थारं । घाइत्तयं च छाइय द्विचयभ समएस झाणेण || भाव- संग्रह भूत्वा क्षोण मोहो हत्या च मोह विटपि विस्तारम् | धातित्रिकं च घातयित्वा द्विचरम समयेषु ध्यानेन ।। ६६४ ।। अर्थ - जिस समय वे ध्यानी मुनि मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का नाश कर बारहवे गुण स्थान मे पहुच जाते है तब वे मुनि वारहवे गुण स्थान के उपान्त्य समय से अपने प्रज्वलित ध्यान के द्वारा ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्नराय कर्म इन तीनों घातियां कर्मों का नाश कर डालते है । ॐ * अथक्त्व मवीचारं सवितर्कगुणान्वितम् । सन् ध्यायत्येक योगेन शुक्ल ध्यानं द्वितीयकम् || अर्थ- दूसरे एक वितर्क शुक्ल ध्यान में किसी एक ही पदार्थ का ध्यान होता है। वह किसी भी एक योग से धारण किया जाता है, श्रुत ज्ञान सहित होता है तथा विचार रहित होता है । निजात्म द्रव्यमेकं वा पर्याय मथवा गुणम् । निश्चलं चिन्त्यते यत्र तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २८३ घाइच उपक्रविणासे उप्पज्ज सयल बिमल केवलयं । लोया लोय पयासं गाणं णिरुपद्दवं णिच्च ।। घाति चतुष्क विनाशे उत्पद्यते सकलविमलकेवलकम् । लोकालोक प्रकाशं ज्ञानं निरुपद्रवं नित्यम् ।। ६६५ ।। अर्थ- जिस समय घातिया कर्मों का नाश हो जाता है उसी समय उन भगवान के पूर्ण निर्मल केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है । वह केवल ज्ञान लोक अलोक सबको एक साथ प्रकाशित करने वाला होता है, उसमें फिर किसी प्रकार का उपद्रव नहीं होता और वह जान फिर कभी भी नष्ट नहीं होता अनंतानंत काल तक बना रहता है। अर्थ- दूसरे शुक्ल ध्यान में वे मुनि अपने एक आत्म द्रव्य का चितवन करते है अथवा उसकी किसी एक पर्याय का चितवन करते, अथवा उसके किसी एक मुण का चितवन करते । उनका वह ध्यान निश्चल होता है। इसको एकत्व वितर्फ कहते है । तद्रव्य गुण पर्यायपरावर्तविवजितम् ।। चिंतनं तदवीचार स्मृतं सद्ध्यानकोविदः ॥ अर्थ- इस दूसरे शुक्ल ध्यान मे द्रव्य गुण पर्यायों का परिवर्तन नहीं होता यदि द्रव्य का ध्यान करता है तो द्रव्य का ही करता रहेगा। यदि मुणों का ध्यान करता है तो उस एक गुण का ही चितवन करता रहेगा, यदि पर्याय का ध्यान करता है तो पर्याय का ही ध्यान करता रहेगा, ससे बदलेगा नहीं। क्योंकि उसका वह ध्यान निश्चल होता है इस ऐसे निश्चल ध्यान को ध्यान में अत्यन्त चतुर गणघर देव अविचार ध्यान कहते है। ___ निज शुद्धात्म निष्ठत्वाद् भावश्रुता वलंबनात् । चिंतनं क्रियते यत्र सवितर्क तदुच्यते ।। । अर्थ- इस ध्यान में वे मुनि अपने शुद्ध आत्मा में लीन रहते है और भाव श्रुतज्ञान का अवलंबन होता है इस प्रकार जो शुद्ध आत्मा का चितवन करना उसको सवितर्क ध्यान कहते है । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह आवरणाण विणासे दसण णाणाणि अंतरहियाणि । पावइ मोह विणासे अणंत सुक्खं च परमप्पा ॥ ६६६ ।। विध विणासे पावइ अतर्राहयं च बोरियं परमं । उच्चइ सजोइकेवलि तइय उझाणेण सो तइया ।। ६६७ ।। आवरणयोः विनाशे दर्शन जाने अन्त रहिते । प्राप्नोति मोह विनाशे अनन्त सुखं च परमात्मा ।। ६६६ ।। विघ्न विनाशे प्राप्नोति अन्त रहितं च वीर्य परमम् । उच्यते सयोगि केवली ततोय ध्यानेन स तत्र ।। ६६७ ।। अर्थ- नानगावराणा कर्म के बारा होने को जन परमात्मा स्वरूप भगवान के अनंत ज्ञान प्रगट हो जाता है, दर्शना वरण कर्म के नामा होने से अनन्त दर्शन प्रगट हो जाता है, मोहनीय कर्म के अत्यन्त नाश होने म अनंत सुख प्राप्त हो जाता है अतराय कर्म का अत्यन्त नाश होने से अनंत वीर्य प्रगट हो जाता है। इस प्रकार बे भगवान अनंत चतुष्टय को धारण कर सयोगी केवली कहलाते है। उन सयोगी केवलो भगवान के सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नाम तीसरा शुक्ल ध्यान होता है । इस प्रकार बारहवें गुण स्थान का स्वरूप कहा आगे तेरहवे सयोगी केवली गुण स्थान का स्वरूप कहते है। सुद्धोखाइयभायो अवियप्पो जिम्चलो जिणिदस्स । अस्थि तया तं गाणं सुहुम किरिया अपडिवाई ।। शद्ध क्षायिको भावोऽविकल्पो निश्चलो जिनेन्द्रस्य । अस्ति तत्र तध्यान सुक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ।। ६६८ ॥ अर्थ- तेरहवें गुण स्थान वर्ती केवली भगवान जिनेन्द्र देव के शुद्ध क्षायिक भाव होते है तथा वे भाव विकल्प रहित होते है और निश्चल होते है । इस तेरहवें गुण स्थान में सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नाम का तीसरा शुक्ल ध्यान होता है । परिफवो अइसुहमो जोव पसाय अस्थि तमकाले । तेणाणू भाइदा आसविय पुणो विविहरति ।। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-गप्रह पारस्पन्दोऽति सूक्ष्मी जोकप्रवेशानामा तत्काले । लेन अणवः आगत्य आलपित्वा च पुनरपि विघटन्ते ।। ६६९ ।। अर्थ-. इस तेरहवें गुण स्थान मे रहनेवाले भगबान जिनेन्द्र देव के जीव । प्रदेशों का परिम्पंदन अत्यन्त सूक्ष्म होता है इसी लिये शुभ कमों की वर्गणाए आती है और उसी समय चली जाती है । उनके आन्गा के प्रदेशा में वे कर्म वर्गणाए ठहरती नहीं है । आगे इसका कारण बतलाते है । जे णस्थि राय दोसो तेण ण वंधोहु अस्थि केवलिणो । जह सुक्क कु लग्गा वाल झडियंति तह कम्मं ॥ यन्न स्त; राग द्वेषौ तेन न धन्धोहि अस्ति केवलिनः । यथा शुष्क कुडच लग्ना: वालुका निपतन्ति तथा कर्म ।। ६७०।। अर्थ- उन केवली भगवान के राग द्वेष कर्म का सर्वथा अभाव हो जाता है इसलिये उनके कर्मों का बध कभी नहीं होता । जिस प्रकार सुखी दीवाल पर लगी हुइ बालू उसी समय झड जाती है । सूखी दीवाल पर वालू ठहरती नहीं उसी प्रकार विना राग द्वेष के आत्मा के प्रदेशों मे कर्म भी नहीं ठहरते है । भावार्थ- स्थिती बंध और अनुभाग बंध दोनो कषायो से होते है । केवली भगवान के राग द्वेष का सर्वथा अभाव है इसलिये वहा पर स्थितीबंध और अनुभाग बंध भी कभी नहीं होते है। अत्यन्त सूक्ष्म काय योग होने से शुभ कर्म आते है परन्तु वे उसी समय झड जाते है । ठहरते नही। ईहा रहिया किरिया गुण वि मधे वि खाया तस्स । सुक्खं सहावजाय कमकरण विधज्जियं गाणं । ईहारहिता क्रिया गुणा अपि सर्वेपि क्षायिकास्तस्य । सुखं स्वभाव जातं क्रम करण विश्वजितं नानम् ॥ ६७१ ।। अर्थ- भगवान जिनेन्द्र देव की विहार, दिव्य ध्वनी आदि क्रियाएं सब ईहा रहित वा इच्छा रहित होती है । इसका भी कारण यह है कि राग द्वेष के साथ ही उनकी इच्छाएं सब नष्ट हो जाती है । इसीलिये उनकी समस्त क्रियाएं इच्छा रहित होती है, उनके समस्त गुण क्षायिक Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ हो होते हैं उनका सुख स्वात्म जन्य स्वाभाविक ही होता है और उनका ज्ञन इन्द्रियों से रहित और अनुक्रम से रहित होता है । भावार्थ- जिस प्रकार इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान अनुक्रम से होता है उस प्रकार भगवान का ज्ञान न तो इन्द्रियों से होता है और न अनुक्रम से होता है। बे तो एक ही समय और उनकी समस्त पर्यायों को जान लेते है । यही बात आगे दिखलाते है । गाणं तेण जाणइ कालत्तय यदिए तिहूवणत्थे । भावे समय विसमे सच्चेपणा चेयणे सच्चे || ज्ञानेन तेन जानाति कालत्रय वर्तमान् त्रिभुवनार्थान् । भवान् समाश्च विषमान् सचेतना चेतनान् सर्वान् ।। ६७२ ।। भाव-संग्रह अर्थ- वे भगवान उस अपने केवल ज्ञान से तीनों लोकों में रहने वाले समस्त चेतन अचेतन पदार्थों को तथा सम विषम पदार्थो को और भूत भविष्यत् वर्तमान सम्बन्धी उन समस्त दार्थों की अनंतानंत पर्यायों को एक समय में ही जान लेते है । एक्कं एक्कमि खणे अणतपज्जायगुण समाइणं । जाणद्द जह तह जाणइ सच्चई दव्बाई समयस्मि ॥ एकमेकस्मिन् क्षणे अनन्त पर्याय गुण समाकीर्णम् । जानाति यथा तथा जानाति सर्वाणि द्रव्याणि समये ।। ६७३ ॥ अर्थ- जिस प्रकार वे भगवान किसी एक पदार्थों को उसकी अनंता नंत पर्याय और उसके समस्त गुणों को एक ही समय में जान लेते हैं उसी प्रकार वे भगवान एक ही समय मे समस्त द्रव्य उनकी समस्त पर्या और उनके समस्त गुण एक ही समय में जान लेते है । जाणतो पिच्छंतो कालत्तयवदियाइं बचाई । उत्तो सो सम्वहू परमप्पा परम जोइहि ॥ जानन् श्यत् कालत्रयवर्तमानानि द्रव्याणि 1 " दशः स सर्वज्ञः परमात्मा परमयोगिभिः ।। ६७४ ।। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह २८७ अर्थ- ब के बली भगवान सदा काल मत भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों में हार का होने वाले समस्त पदार्थों को वा पदार्थों की पर्यायों को एक साथ देखते है और एक साथ जानते हैं। इसलिये परम पाणी गणधर देव उनको सर्वज्ञ और परमात्मा कहते है । तित्थयरत्तं पत्ता जे ते पायति समव सरणाई । सक्योषा कविहई पंचकल्लाण पुज्जाय ।। तीर्थफरत्वं प्राप्ता ये ते प्राप्नुवन्ति समवसरणादिकम् । शक्रेण कृतविभूति पंच कल्याण पूजां च ।। ६७५ ।। अर्थ- उन केवलियों में से जिनके तीर्थकर प्रकृति का उदय होत है ने इन्द्रों के द्वारा की हुई समवसरण आदि की महा विभूति को प्राप्त होते है तथा गर्भ कल्याणक जन आल्या. दीक्षा का ज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक इन पांचों कल्याणकों में होने वाली परमोत्कृष्ट पूजा को प्राप्त होते है । सम्मुग्धाई किरिया गाणं तह दंसणं च सुक्खं च | सम्वेसि सामण्णं अरहताणं च इयराणं ।। समुद्धातक्रिया ज्ञान तथा वर्शनं च सुखं । सर्वेषां सम्मान अहंता चेतराणां च ।। ६७६ ।। अर्थ- जिनके तीर्थकर प्रकृति का उदय है ऐसे अरहंत केवली तथा जिनके तीर्थकर प्रकृति उदय नहीं है एमे सामान्य केवली इन दोनों प्रकार के केवली भगवान के समुद्धात क्रिया, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य ये सब समान होते है इसमे किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता। जेंसि आयु समाणं णाम गोदं च बेयणीयं च । से अकय समुग्धाया सेसा य कर्यति समुग्धायं । येषां आयुः समान नाम गोत्रं च वेदनीयं च । ते अकृत समुद्धाताः शेषाश्च कुर्वन्ति समुद्धातम् ।। ६७७ ॥ अर्थ- जिन केवली भगवान के नाम कर्म गोत्र कर्म और वेदनीय Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ भाव-संग्रह कर्म की स्थिति आयु कर्म के समान होती है वे वली समुद्धात नहीं करते तथा जिनके नाम गोत्र वेदनीय की स्थिति आयु कम से अधिक होती है वे केवली भगवान नाम गोत्र वेदनीय कर्मों की स्थिति को आय कर्म की स्थिति के समान करने के लिय रामुद्धात करते है । अंतर महत्त कालो हवह जहण्णो वि उत्तनो तेसि । गयवरिसूणा कोडी पुदवाणं हवइ णियमेण ।। अन्तर्मुहर्त कालो भवति जधयोपि उत्तमः तेषाम् । गत वर्षोंनो कोटि: पूर्वाणां भवति नियमेन ।। ६७८ ।। अर्थ- इस तेरहवें गुण स्थान की स्थिति जघन्य अंतर्मुहर्त है और उत्कृष्ट स्थिति जितने वर्ष की आयु में केवल ज्ञान हुआ है उतने वप कम एक करोड पूर्व है । इस प्रकार तेरहवे गुण स्थान का स्वरूप कहा आगे अयोगी केवली नाम के चौदहवें गुण स्थान का स्वरूप कहते है। पच्छा अजोइकेलि हबई जिणो अघाइ कम्महणमाणो । लहु पंचवखर कालो हवाइ फुछ तम्मि गुण ठाणे ।। पश्चावयोग केवलो भवति जिन: अघाति कर्मणां हन्ता। लघुपंचाक्षर कालो भवति स्फुट तस्मिन् गुणस्थाने ।। ६७९ ।। * मलसरीग्मछंडिय उत्सरदेहम्स जीव पिडम्स । _णिग्गमणं देहादी दृषइ समग्धाइयं णाम ।। अर्थ- मूल शरीर को न छोड कर जो जीब के प्रदेश वाहर निकलते है उसको समुद्धात करते है । समुद्धात करते समय के वली भगवान पहले समय में आत्मा के प्रदेशों को दंडाकार लोक पर्यन्त फैलाते है, दूसरे समय में कपाट रूप चौडाई मे लोक पर्यन्त फैलाते है, तीसरे समय में प्रतर रूप लम्बाई में लोक पर्यन्त फैलाते है चौथे समय मे लोक पूरण कर लेते है पांचवे समय मे संकुचित कर प्रतर रूप छठे समय में Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सरह अर्थ- तेरहवे गुण स्थान के अनन्तर चौदहवां गुण स्थान होता है। चौदहवे गुण स्थान का नाम अयोगी बबली है । धातिया कर्मों का नाश कर भगवान तेरहवें सयोगी केवली गुण स्थान मे आते है और चौदहव गण स्थान मे आकर अन्त में अघातिय कर्मों का नाश कर सिद्ध अवस्था प्राप्त करते है । इस गुण स्थान का काल लघु पंचाक्षर उच्चा. रण मात्र है अर्थात् जितनी देर में अ इ 3 ऋ लु इन पांचों हस्त्र अक्षरों का उच्चारण होता है उतना काल इस चौदहवे गण स्थान का काल । परमोदालिय कार्य सिद्धिलं होऊण मलइ तक्काले । थक्कइ सुद्ध सुहावो धण णिविड पएस परमप्पा || परमोडारिक काय: शिथिलो भूत्वा गलति तत्काल । तिष्ठति शुद्ध स्वभावः धननिधिडप्रवेश परमात्मा ||६८०॥ अर्थ- इस गुण स्थान के अन्त मे उनका बह परमौदारिक शरीर शिथिल होकर गल जाता है 1 तथा उनके धनीभूत निविड आत्मा के प्रदेश शुद्ध स्वभाव रूप होकर रह जाते है और इस प्रकार वे भगवान परमात्मा हो जाते है। णटा किरिय पवित्ती सुक्कज्माणं च सत्य णिविद् । स्खाइय भावो सुनो णिरंजणो बीयराओ य नाटा क्रिया प्रवृत्तिः शुक्ल ध्यानं च तत्र निदिष्टम् । क्षायिको भावः शुद्धो निरंजनो वीतरागाच ॥ ६८१ ।। अर्थ- इस गुण स्थान मे समस्त क्रियाओं की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है, तथा चौथा व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम का शुक्ल ध्यान होता कबाट रूप, सातवे समय मे दंड रूप और आठवे समय मे शरीर मात्र प्रदेश कर लेते है । प्रदेशों के फैलाव से नाम गोत्र वेदनीय कर्मों की स्थिति आयु की स्थिति के समान हो जाती है । जिन मुनियों के छह महीने की आयु शेष रहने पर केवल ज्ञान होता है उनको समुद्घात अवश्य करना पड़ता है । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० भाव-संग्रह है । इस गुण स्थान में क्षायिक और शुद्ध भाव होते हैं और इसीलिये वे भगवान निरंजन और परम वीतराग हो जाते हैं । झाणं सजोइ केवलि जह तह अझोइस्स पत्थि परमत्ये । उवपारेण पउत्तं भूयत्थणय विवक्खाए || ध्यानं सयोग केवलिनो यथा तथाऽयोगिनः नास्ति परमार्थेन । उपचारेण प्रोक्तं भूतार्थनय विवक्षया ।। ६८२ ॥ अर्थ- जिस प्रकार सयोग केवली भगवान के ध्यान होता है उस प्रकार का ध्यान भी इस गुण स्थान में नहीं होता । इस गुण स्थान में वास्तव मे ध्यान होता ही नहीं है। इस गुण स्थान में भूतार्थ नय की अपेक्षा से ( पूर्वकाल नय की अपेक्षा से ) उपचार से ध्यान माना जाता है । कर्मों का नाश बिना ध्यान के नहीं होता और चौदहवें गुण स्थान में अघातिया कर्मों का नाश होता है । इसलिये उपचार से ध्यान माना जाता है वास्तविक नहीं । आगे इसका कारण बतलाते है । शाणं तह शायारो शेयवियया य होंति मणसहिए । तं णत्थि केवल दुग्रे तम्हा झाणं ण संभव ध्यानं तथा ध्याता ध्येय विकल्पाश्च भवन्ति मनः सहिते । तारित केवलद्वि तस्माद् ध्यानं न संभवति ।। ६४३ || अर्थ - ध्यान, ध्यान करने वाला ध्याता और ध्यान करने योग्य ध्येय पदार्थों के विकल्प ये सब मन सहित जीवों के होते है । परन्तु वह मन सयोगी केवली तथा अयोगी केवली दोनों गुण स्थान बालों के नहीं हूँ । इसलिये इन तेरहवे और चौदहवे गुण स्थानों में ध्यान नहीं है । मणसहियाणं झाणं मणो विकम्माण कायजोयश्ओ । तत्थ विजय सुहासुहो कम्म उदाएण || मनः सहितानां ध्यानं मनोपि कामकाययोगात् । तत्र विकल्पो जायते शुभाशुभः कर्मोदयेन ॥ ६८४ ॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह अर्थ-- जो जीव मन सहित है उन्ही के ध्यान होता है । तथा मन की प्रवृत्ति कामण काय योग से होती है । तथा जहां पर कार्मण काय योग के निमित्त में मन की प्रवृत्ति होती है वहां पर कर्म का उदय होने से शुभ वा अशुभ विकला भी उत्पन्न होते है। असुहे असुहं माणं सुहमाण होइ सुहोपजोगेण । सुद्धे सुदं कहियं सासवाणासवं दुविहं ।। अशुभोऽशुभं ध्यानं शुभं ध्यान भवति शुभोपयोगेन । शुद्धेशुद्धं कथितं सास्त्रवानास्त्रवं द्विविधम् ।। ६८५ ॥ अर्थ- जहां पर अशु विकल्प वा अशुभोपयोम होता है वहां पर अशुभ ध्यान होता है, जहां पर शुभ विकल्प वा शुभोपयोग होता है वहां पर शुभ ध्यान होता है । तथा जहां पर शुभ अशुभ कोई विकल्प नहीं होता फेवल शुद्ध उपयोग होता है वहां पर शुद्ध ध्यान होता है । यह शुद्ध ध्यान दो प्रकार का होता है, जिसमे नात्रव होता रहै ऐसा आस्रव सहिद शुक्ल ध्यान और जिसमें आसत्र न हो ऐसा आस्रव रहित शुद्ध ध्यान वा शक्ल ध्यान । पढ़म योयं तवयं सासवयं होइ इय जिणो भणइ । विगयासयं चउत्थं झाणं कहियं सभासेण ।। प्रथम द्वितीयं तृतीयं सास्त्रयं भवति एवं जिनो भणति । विगताखवं चतुर्थ ध्यानं कथितं समासेन ।। ६८६ ॥ अर्थ- शुक्ल ध्यान के चार भेद है उनमे से पहला शुक्ल ध्यान, दूसरा शुक्ल और तीसरा शुक्ल ध्यान ये तीनों शुक्ल ध्यान आस्रव सहित होते है अर्थात् इनमें कर्मों का आस्रव होता रहता है और चौथा शुक्ल ध्यान निरास्त्रव है आस्रव रहित, उसमें किसी कर्म का आस्त्रव नहीं होता ऐसा भगवान जिनेन्द्र देव ने कहा है । इस प्रकार संक्षेप से इन ध्यानों का स्वरूप है । . . आगे चौदहवे गुण स्थान के अनंतर होने वाली सिद्ध अवस्था का स्वरुप कहते है। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ भात्र--सन पयडिवंधो चणमसरीरेण होइ किंचूणो । उद्धं गमणसहायो समएणिक्केण पाये ।। नाष्टाष्टप्रकृति अन्धश्चरम शरीरेण भवति किचोनः । ऊर्ध्वगमन स्वभाव: समयकेन प्राप्नोति ।। ६८७ ।। अर्थ- चौदहवे गण स्थान के अन्तिम समा मे जब आठों प्रकार का प्रकृतिबंध नष्ट हो जाता है अर्थात समस्त कर्म नष्ट हो जाते है तब उनकी सिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है । उस मिद्ध अवस्था में आत्मा का आकार चरम शरीर में कुछ कम होता है । अर्थात् उस आत्मा के आकार का घनफल शरीर के आकार के घनफल से कुछ कम होता है शरीर में जहां जहां आत्मा के प्रदेन नहीं है ऐसे पेट नासिका के छिद्र कान के छिद्र आदि में आत्मा के प्रदेश वहां भी नहीं इसलिय सिद्धों के आत्मा के आकार के घनफले में उत्तने स्थान को घनफल कम हो जाता है। इसलिये चरम शरीर के आहार के घनफल से सिद्धों के आत्मा के आकार का घनफल कुछ कम हो जाता है । इसलिये सिद्धों आकार चरम शरीर से कुछ कम बतलाया है । आत्मा का स्वभाव से ही ऊर्ध्व गमन करता है इसलिय कर्म नष्ट होने के अनन्तर एक ही समय में सिद्ध स्थान पर जाकर बिराजमान हो जाता है । आगे मिद्ध स्थान कहां है सो वतलाते है । लोयग सिहर खते जावं तपवन उर्वरिय भायं । गच्छद ताम अथक्को धम्मस्थितेण आयासो।। लोक शिखर क्षेत्र यायत्तनु पवनो परिमं भागम् । गच्छति तावत् अस्ति धर्मास्तित्व आकाशः ।। ६८८ ।। अर्थ- इस लोक शिखर के ऊपर के क्षेत्र में तनुवातबल्य के ऊपरी भाग पर जहां तक के वे सिद्ध परमेष्ठी एक ही समय में पहुंच जाते है। तत्तोपरंण गमछइ अच्छद कालंदु अम्सपरिहीणं । जम्हा अलोय खिते धम्मव्वं गं तं अस्थि ॥ ततः परं न गच्छति तिष्ठति कालं तु अन्त परिहोनम् । यस्याय लोक क्षेत्र धर्मद्रव्यं न तदस्ति ।। ६८९ ।। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह अर्थ- अलौकाकाश में द्रव्य नहीं है । धर्म द्रव्य लोकालाश में ही है । लोकाका और अलोकाकाश का विभाग करने वाले धर्म द्रव्य का अधर्म दृश्य ही है। जहां तक धर्म द्रव्य है वहीं तक जीव वा पुद्गल गमन कर सकते है तथा जहाँ तक अधर्म द्रव्य है वहां तक ठहर सकते है, बिना धर्म द्रव्य के ठहर सकते है । इसलिये वे सिद्ध परमेष्ठी जहां तत्र धर्म द्रव्य हे बही लोक शिस्त्र र के ऊपर भाग तक जाकर उहर जाते और फिर वे भगवान वहां पर अनंतानंत काल तक विराजमान रहते आगे सिद्धों के स्वरूप में और भी कहते है। जो जत्थ कम्ममुक्को जल थल अयास पव्यए गयरे । सो रिजुगई पवपणो माणुस खसाउ उम्मथई ।। ६१० ।। पणयालसहसहस्सा माणुस खेत्तं तु होइ परिमाणं । सिद्धाणां आवासो तित्तिय मित्तम्मि आयासे ।। ६९१ ।। यो पन कर्मयुक्त्तो जलस्थलाकाश पर्वते नगरे । स ऋजुगतिप्रपन्नः मनुष्य क्षेत्रतः उत्पद्यते ।। ६९० १ पंच चत्वारिंशच्छत सहस्रं मानुष क्षेत्रस्यतु भवति परिमाणम् । सिद्धानामावासः तावन्मात्रे आकाशे ।। ६९१ ।। अर्थ- सिद्ध परमेष्ठी मनुष्य क्षेत्र से ही उत्पन्न होते है तथा उनकी गति ऋज गति होती है जिस क्षेत्र में कर्म नष्ट होते है । उसी क्षेत्र की सीत्र में वे सिद्ध स्थान पर जा कर बिराजमान हो जाते है । जल स्थल आकाश पर्वत नगर जहां से भी कर्म मुक्त होंगे उसी की सीध मे सीध जाकर वे लोक शिखर पर विराजमान हो जायेंगे । मनुष्य क्षेत्र का परिणाम पैंतालीस लाख योजन है। इसलिये पैंतालीस लाख योजन के आकाश में ही सिद्धों का निवास स्थान है जंबूद्वीप की चौडाई एक लाख योजन है उसके चारों ओर लवण समुद्र है उसकी एक ओर की चौडाई दो लाख योजन है । लवण समुद्र के चारों ओर घातकी द्वीप है उसकी चौड़ाई एक ओर की चार लाख योजन है। धात की द्वीप के चारों ओर कालोद समुद्र है उसकी एक और की चौड़ाई आठ लाख Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ माव-सग्रह योजन है । कालोद समुद्र के चारों ओर पुष्कर प है उसकी पुरी चौडाई सोलह लाख योजन है । परन्तु पुष्कर होप के ठीक मध्य भाग मं मानुषोत्तर पर्वत है तथा मानुषोत्तर पर्वत तक ही मनुष्य क्षेत्र गिना जाता है । इसलिये आधे पुष्कर द्वीप की चौड़ाई आठ लाख योजन ही समझनी चाहिये । इस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत पूर्व भाग से पश्चिम भाग तक वा उत्तर में दक्षिण तक पैतालीस लाख योजन ही होते है । आगे और भी सिद्धों का स्वरूप कहते है । सम्वे उरि सरिसा बिसमाहिम्मि णिच्चलपएमा । अवगाहणाय जम्हा उक्कस्स जहणिया दिळा ।। ६९१ ।। सन्चे उपरि सदशाः विषमा अघस्तने निश्चल प्रदेशाः । अवगाहना च यस्मात् उत्कृष्टा जघन्याविष्टा ।। ६९२ ।। अर्थ- उस सिद्ध स्थान में अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठी विराजमान है। उन समस्त सिद्धों का ऊपरी भाग समान होता है तथा नीचे का भाग ऊंचा नीचा रहता है । इसका भी कारण यह है कि सिद्धों की अवगाहना उत्कृष्ट सवा पांच मौ धनुष है और जघन्य अवगाहना साडे तीन अरन्ति है । मुठ्ठी बांधकर एक हाथ की लम्बाई को अरन्नि कहते है जिस आसन से जिस स्वरुप से जैसे शरीर से कर्म मुक्त होते है उसी आसन से उसी रुप से और उसी शरीर के समान उनके आत्माका आकार हो जाता है इसलिये ऊपर का भाग तो सबका समान होता है और नीचे का भाग समान नहीं होता। एगोवि अणताण सिद्धो सिद्धाण देइ अवगासं । जम्हा सहमत्तगणो अवगाह गणो पुणो तेसि ।। ६९३ ॥ एकोपि अनन्तानां सिद्धः सिद्धानां बवास्यवकाशम् । यस्मात्सूक्ष्मत्वगुणः अवगाहनगणः पुनस्तेषाम् ॥ ६९३ ।। अर्थ- एक सिद्ध की आत्मा मे अनंतानंत सिद्ध समा जाते है। इसका भी कारण यह है कि आत्मा अमूर्त है, इसलिये उनमे सूक्ष्मस्वं गुण है। इसके सिवाय उनमें अवगाहनत्व गुण भी है । सूक्ष्म और अब. गहनाच गुण के कारण एक सिद्ध में भी अनंतानंत सिद्ध आ जाते है । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह दपक का प्रकाश मुर्त है फिर भी एक आले में अनंत दीपको का प्रकाश समा जाता है फिर सिद्धा का आत्मा तो अमूर्त है इसलिये एक सिद्ध मे मी अनंत सिद्धों का आत्मा आ जाता है। आगे मिद्धों का गुण कहते है। सम्भसणाणदसण वोरिय सुहमं तहेव अवगणं । अगुरु लहुअब्बवाहं अलुगुणा होति सिद्धाणं ॥ सम्यक्त्वशानदर्शन वीर्यसूक्ष्म तथेवावगाहनम् । अगुरुलघु अव्यावा अष्ट गुणा भवन्ति सिद्धानाम् ।।६९४।। अर्थ- सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन वीर्य सूक्ष्मत्व अवगाहन, अगुरु लघु अव्याबाई ये आठ गुण सिद्धों में होते है । भावार्य- यह संसारी आत्मा अनादि काल से ज्ञानावरणादिक आठों कर्मों से जकडा हुआ है। वे आठों कम सब नष्ट हो जाते है तब सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है । आत्मा मे ऊपर लिखे आठ गुण है और उनको आठों ही कर्मों ने ढक रक्खा था। इसलिये उन कर्मों के नाश होने पर ऊपर लिखे आठ गुण अपने आप प्रकट हो जाता है। मोहनीय : कर्म के नाश होने से सम्यक्त गुण प्रगट हो जाता है, ज्ञानावरण कर्म के नाश होने से अनंत ज्ञान प्रगट हो जाता है, दर्शनावरण कर्म के नाश होने से अनंत दर्शन प्रगट हो जाता है , अन्तराब कर्म के नाश होने से अनंत वीर्य प्रगट हो जाता है, आयु कर्म के अभाव होने से अवगाहन गण प्रगट हो जाता है, नाम कर्म के नाश होने से सूक्ष्मत्व गुण प्रगट हो जाता है, गोत्र कर्म के अभाव से अगरुलप गुण प्रगट हो जाता है और वेदनीय कर्म के अभाव से अव्यावाघ गुण प्रगट हो जाता है इस प्रकार आठों कर्मों के नाश हो जाने से सिद्धो में ऊपर लिखे आठ गुण प्रगट हो जाते है । जाणपिच्छइ सपलं लोपालोयं च एक्कहेलाए। सुक्ख सहाय जायं अण्णोयम अंसपरिहोणं । जानाति पश्यति सकल लोकालोकं च एक हेलया। सुखं स्वभाव जात अनुपम अन्सपरिहीनम् ॥ ६९५ ।। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ माव-संग्रह अर्थ- वे सिद्ध भगवान एक ही समय मे समस्त लोकाकाण और समस्त अलोकाकाश को जानते है तथा सबको एक ही साथ एक ही समय में देखते है । उन समस्त सिद्धों का सुख शुद्ध आत्मा अन्य स्वाभाविक है, संसार के सुख की तथा उनकी कोई उपमा नहीं है और न कभी उन सिद्धो का अन्त होता है । वे सदा काल विराजमान रहते है। रवि मेरु बंदसायरगयणाईयं तु णस्थि जह लोए । उयमाणं सिद्धाणं णत्थि तहा सुक्खसंधाए ।। रवि मेश्चन्द्र सागर गगनादिक तु नास्ति यथा लोके । उपमानं सिद्धानां नास्ति तथा सुख संवाते ।। ६९६ ।। अर्थ- सूर्य, चन्द्रमा, मेरु पर्वत समुद्र आकाश आदि इस लोक संबधी समस्त पदार्थ सिद्धों के उपमान नहीं हो सकते, अर्थात् मंसार मे सा कोई पदार्थ नहीं है जिसकी उपमा सिद्धों को दे सकें । इसी प्रकार उनके अनन्तसुखका भी कोई उपमान नहीं हैं। चलणं वलणं चिता करणीयं कि पिणत्यि सिद्धाणं । जम्हा अईदियत्तं कम्मामाबे समुप्पण्णं ॥ चलनं चलनं चिन्ता करणीयं किमपि नास्ति सिद्धानाम् । यस्मादतीन्नियत्वं कर्माभावेन समुत्पन्नम् ।। ६९७ ॥ अर्थ- उन सिद्ध परमेष्ठी को न कहीं गमन करना पड़ता है; न अन्य कोई क्रिया करनी पड़ती है और न किसी प्रकार की चिंता करनी पडती है। इसका भी कारण यह है कि उनके समस्त कर्मों का अभाव हो गया है इसलिये उनके अतोन्द्रियत्व प्राप्त हो गया है । भावार्थ-संसार में जितनी क्रियायें है वे सब इंद्रियों के द्वारा होती है। सिद्ध परमेष्ठी के शरीर और इन्द्रियां सभी नष्ट हो गई है। इसलिये उनको कोई भी किया कभी नहीं करनी पड़ती हैं। आगे आचार्य अन्तिम मंगल करते है। गठ कम्मबंधण जाइ जारामरण विष्पमुक्काणं । अट्ठवरिष्ठगुणाणं णमोणमो मध्य सिद्धाणं ।। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव - संग्रह नष्टाष्टकर्मबन्धनजातिजरा मरण विप्रमुक्तेभ्यः । अष्टवरिष्ठ गुणेभ्यो नमो नमः सर्वसिद्धेभ्यः ।। ६९८ ।। अर्थ - जिनके आठों कर्मों का बंधन नष्ट हो गया है, जन्म मरण बुढापा आदि सांसारिक समस्त दोष जिनके नष्ट हो गये है और कार लिखे सर्व श्रेष्ठ आठ गुण प्रगट हो गये है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी को मैं श्री देवगेन आचायें बार बार नमस्कार करता हूँ । जिणवर सासण मतुलं जयज चिरं सूरि सपर जबयारी । पाढय सांहूवि तहा जयंतु भव्वा वि भुषणयले ॥ जिनबर शासन मतुलं जयतु चिरं सूरिः स्वपरोपकारी । पाठक: साधु रपि तथा जयन्तु भव्या अपि भुवन तले ।। ६९९ ।। २९७ अर्थ- संसार में जिसका कोई उपमा नहीं ऐसा यह भगवान जिनेन्द्र देव का कहा हुआ शासन सदाकाल जयशील रहे। इसी प्रकार अपने आत्मा कल्याण करने वाले और अन्य अनेक भव्य जीवों का कल्याण करने वाले आचार्य परमेष्ठी सदा काल जयशील रहे । इसी प्रकार उपाध्याय परमेष्ठी तथा साधु परमेष्ठी सदा काल जयवंत रहे तथा तीनों लोकों मे रहने वाले भव्य जीव भी सदा जयवंत रहे । जो पद्म सुणइ अक्खड असि भाव संग्रहं सुत्तं । सहण णियय कम्मं कमेण सिद्धालयं जाए || यः पठति शृणोति कथयति अन्येषां भाव संग्रह सूत्रम् । सन्ति निजकर्म क्रमेण सिद्धालयं याति ।। ७०० ॥ अर्थ -- इस प्रकार कहे हुए इस भाव संग्रह के सूत्रों को जो पढ़ता हैं सुनता है अथवा अन्य भव्यजीवों को सुनाता है वह पुरुष अनुक्रम से से अपने कर्मों को नाश कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है । सिरिबिमलसेज गणहर सिस्सो णामेण देवसेणोति । अह जण बोहणत्थं तेणेंयं विरइयं सुतं ॥ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ भाव-सग्रह श्री बिमलेसनगणधर शिष्यो नाम्ना देवसेन इति । अबुधजन बोधमार्थं तेने विरचितं सूत्रम् ।। ७०१ ।। अर्थ- श्री विमलसेन गणघर वा आचार्य के शिष्य श्री दबसन आचार्य ने अज्ञानी लोगों को समझाने के लिये इस भावसंग्रह सूत्र की रचना की है। इस प्रकार अयोग केवली गुणस्थान का स्वरूप कहा । इस प्रकार आचार्य श्री देवसेन विरचित भाव संग्रह ग्रंथ की धर्मरत्न, सरस्वती दिवाकर, पंडित लालाराम शास्त्री द्वारा निर्मित यह भाषा टीका समाप्त हुई। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार इस भावसंग्रह ग्रन्थ मे चौदह गुणस्थानों का स्वरूप है । उस स्वरूप में सब गुणस्थानों की क्रियाए भाव आदि बतलाये है, तथापि थोडासा स्वरूप और लिखा जाता है जिसमे उनका पूर्ण ज्ञान हो जाय । गुणों के स्थानों को गुणस्थान कहते है, मोह और योग के निमित्त में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रुप आत्मा के गुणों की तारतम्यरूप अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते है। वे सब गुणस्थान चौदह है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टी, देश विरत, प्रमत्त विरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्व करण, अनि वृत्ति करण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली. अयोगकेवली । इनमें से पहला गुणस्थान दर्शन मोहनीय के उदय से होता है, इसमे आत्मा के परिणाम मिथ्यात्व रूप होते है, चौथा गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम से होता है । इस गुणस्थान में आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का प्रादुर्भाव हो जाता है । तीसरा गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्वरूप दर्शनमोहमोहनीय कर्म के उदय से होता है। इस गुणस्थान मे आत्मा के परिणाम सम्यग्मिथ्यात्व अर्थात् उभय रूप होते है । पहले गुणस्थान में औदयिकभाव, चौथे मुणस्थान में औपशमिक क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव और तीसरे गुणस्थान . में औदयिक भाव होते है। परन्तु दुसरा गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म का उदय उपशम क्षय और क्षयोपशम इन चार अवस्थाओं मे से किसी भी अवस्था की अपेक्षा नहीं रखता है । इसलिये यहां पर दर्शनमोह कर्म की अपेक्षा से पारिणामिक भाव है किन्तु अनंतानुबंधी रूप चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा से औदयिक भाव भी कहे जा सकते है | इस गुणस्थान में अनंतानुबन्धी के उदय से सम्यक्स्क घात हो गया है इसलिये वहां सम्यक्त्व नहीं है और मिथ्यात्व का भी उदय नहीं आया है इसलिय Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव सग्रह मिथ्यात्य परिणाम भी नहीं है । असार यह गुणस्थान मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की अपेक्षा से अनुदय म्प है। पांचवे गुणस्थान प दशवे गुण - स्थान तक छह गुणस्थान चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होते है इसलिये इन गुणस्थानों मे क्षायोपमिक भाव होते है । इन गुणस्थाना मे सम्यक् चारित्र गण की क्रम से वृद्धि होती जाती है । ग्यारहवां गुणस्थान चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से होता है इसलिये ग्यारहवे भणस्थान में औपमिक भाब होते है । यद्यपि यहां पर चारित्र माहनीय कम का पूर्णतया उपशम हो गया है तथापि योग का सद्भाव होने से पूर्ण चारित्र नहीं है। क्योंकि सम्यक् दारित्र के लक्षण में योग और कषाय के अभाव से सम्यक् चारित्र होता है ऐसा लिखा है। बारहवा गुणस्थान चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय से होता है इसलिये यहा आयिक भाव होते है । इस गुणस्थान में भी ग्यारहवे गुणस्थान की तरह सम्यक् चारित्र की पूर्णता नहीं है । सम्यग्ज्ञान गुण यद्यपि चौथा गणस्थान मे ही प्रगट हो चुका था । भावार्थ- यद्यपि आत्मा का ज्ञान गण अमादिकाल से प्रवाह रूप चला आ रहा है तथापि दर्शन मोहनीय कर्म उदय होने से बह ज्ञान मिथ्यारूप था परन्तु चोथे गुणस्थान में जब दर्शनमोहनीय कम के उदय का अभाव हो गया तब वही आत्मा का ज्ञान गुण सम्यग्ज्ञान कहलाने लगा । पंचमादि गुणस्थानों में तपउचरणादिक के निमित्त से अवधिज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान भी किसी किसी जीव के प्रगट हो जाते है तथापि केवल ज्ञान के हुए बिना सम्यरजात की पूर्णता नहीं हो सकती । इसलिये वारहवे गुणस्थान तक यद्यपि सम्यग्दर्शन की पूर्णता हो गई है । क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व के बिना क्षपक श्रेणी नहीं चढ़ता और क्षपक श्रेणी के विना बारहवा मुणस्थान नहीं होता ) तथापि सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र अभीतक अपूर्ण है । इसलिये अभी तक मोक्ष नहीं होता । तेरहवां गुणस्थान योगों के सदभाव की अपेक्षा हो होता है । इसलिये इसका नाम सयोग और केवलज्ञान के निमित्त से सयोग केवली है । इस गुणस्थान में सम्य ज्ञान की पूर्णता हो जाती है परन्तू चारित्र गुण की पूर्णता न होने से माक्ष नही होता । चौदहवा गुणस्थान योर्गों के अभाव की अपेक्षा से है इसलिये इसका नाम अयोग केवली है । इस गुणस्थान में सायग्दर्शन Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ३०१ सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों गुणों की पूर्णता हो जाती है अतएव मोक्ष भी अब दूर नहीं रहा, अर्थात् अ इ उ ऋ ल इन पत्र हस्व स्वरों के उच्चारण करने मे जितना काल लगता है उतने ही काल मे मोक्ष हो जाता है। आग सक्षप से सब गुणस्थानों का स्वरुप कहते है। मिथ्यात्व गुणस्थान-- मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से अतस्वार्थ श्रद्धा न रूप आत्मा के परिणाम विशेष को मिथ्याल गुणस्थान कहते है। इस मिथ्यात्व गुणस्थान में रहने वाला जीव विपरित श्रद्धान करता हैं और सच्चे धर्म की ओर इसकी रूचि नहीं होती। जैसे पित्तज्वर वाले रोगी को दुग्ध आदि मीठे रस कडवे लगते है उसी प्रकार इसको भी समीचीन धर्म अच्छा नहीं लगता । इस गुणस्थान में कमों की एक सौ अडतीस प्रकृतियों मे से स्पर्शादिक, बीस प्रकृतियों का अभेद विवक्षा से स्पर्शादिक चार में और बंधन पांच संघात पांच का अभेद विवक्षा से पांच शरीरों मे अन्तर्भाव होता है इस कारण भेद विवक्षा से सब एक सौ अडतालीस और अभेद विवक्षा से एक सौ बाईस प्रकृति है। सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता सम्यक्त्व परिणामों से मिथ्यात्व प्रकृति के तीन खंड करने से होती है । इस कारण अनादि मिथ्यादृष्टी जीव की वन्ध योग्य प्रकृति एकसौ बीस और सत्त्व योग्य प्रकृति एक सौ छयालीस है । मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थकर प्रकृति आहारक शरीर और आहारक अगोपांग इन तीन प्रकृतियों का बंध सम्यग्दृष्टि के ही होता है । इसलिये इस गुणस्थान मे एक सौ बीस मे से तीन घटाने पर एक सौ सत्रह प्रकृतियों का बन्ध होता है। सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व समग्मिथ्यात्व आहारक शरीर आहारक आंगोपांग और तीर्थकर प्रकृति इन पांच प्रकृतियों का इस गुणस्थान मे उदय नहीं होता । इसलिये एक सौ बाईस में से पांच घटाने पर एक सौ सत्रह प्रकृतियोंका उदय होता है । तथा एक सो महतालीस प्रकृति योंका सत्त्व रहता है। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह सासादन गुणस्थान- प्रथमोपशम सम्यक्त्र के काल मे जब अधिक से अधिक छह आवली और कमसे कम एक समय शेष रहता है तब अनंतानुबंधी पाय की किसी एक प्रकृति का उदय होने से सम्यक्त्व 1 का नाश हो जाता है तथा मिध्यात्ववादि होता नहीं इसलिये उस समय जीव सासादन गुणस्थान वाला कहलाता है । वह ३०२ मिथ्यात्व गुणस्थान में एक सौ सत्रह प्रकृतियों का बंध होता था उनमें से उसी मिथ्यात्व गुणस्थान मे मिथ्यात्व हुडक संस्थान, नपुंसक वेद, नरकगति नरकगत्यनुपूर्वी नरकाय असंप्राप्ताष्टपादक संहनन, एकेन्द्रिय जाति विकलत्रय तीन स्थावर आताप सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण इन सोलह प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है इसलिये एक सौ सत्रह मे से सोलह घटाने पर एक सी प्रकृतियों का बंध इस गुणस्थान में होता है पहले गुणस्थान में एक सौ सत्रह प्रकृतियों का उदय होता है उसमे से मिथ्यात्व आतम, सुक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पांच प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाति है अतएव पांच घटानें पर एक * सम्पक्व के तीन भेद है। दर्शन मोहनीय को तीन प्रकृति और अनन्तानुबंधी की चार प्रकृति इस प्रकार इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम सम्पक्त्व होता है। इन सातों प्रकृति क्षय होने से जो सम्पक्त्व होता है वह क्षायिक है तथा छह प्रकृतियों के अन्दय और सम्यक् प्रकृति नाम की प्रकृति के उदय होने से जो सम्प *त्व होता है उसको क्षयोपशमिक सभ्यवत्व कहते है । उपशम सम्यक्त्व के दो भेद है एक प्रथमोशन सम्यत्व और दूसरा द्वितीयोपशम सम्यवत् । अनादि मिथ्यादृष्टि के पांच और सादि मिथ्या दृष्टी के सात प्रकृतियों के उपशम होने से जो सम्पवत्व होता है उसको प्रथमोपशम सम्भव कहते है | सातवे गुणस्थान मे क्षायोपशनिक सम्यग्दृष्टि जीव श्रेणी चढने के सन्मुख अवस्था मे अनंतानुबंधी चतुष्टय का विसंयोजन ( अप्रत्याख्यानादि रूप ) करके दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों का उपशम करके जो सम्पत्व को प्राप्त होता है उसको द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते है । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ३०३ सी वा प्रकृति रही । परन्तु नरक गत्यानुपूर्वी का उदय इस गुण स्थान में नहीं होता इसलिये इस गुणध्थान में एक सौ ग्यारह प्रकृतियों का उदय होता है तथा सत्व एक सौ ४५ प्रकृतियों का होता है। यहां पर तीर्थकर प्रकृति आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियों की सत्ता नहीं रहती । मिश्र गुणस्थान- सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीव के न तो केवल सम्बव परिणाम होते है और न केवल मिथ्यात्व रूप परिणाम होते हैं किन्तु मिले हुए दही गुड के स्वाद के समान एक भिन्न जाति के मिश्र परिणाम होते है इसको मिश्र गुण स्थान कहते है । दुसरे गुण स्थान में बन्ध प्रकृति एक सी एक थी। उनमे से अनंतानुबंधी कोष मान माया लोभ स्थानमृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुभंग दु:स्वर अनादेय, यग्रोध संस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जक संस्थान वामन संस्थान, वज्रनाराच संहनन नाराच संहनन अर्द्धनाराच संहनन, कोलित संहनन, अप्रशस्त विहायो गति, स्त्रीवेद, नीच गोत्र, तिर्यग्गति तिर्यग्गत्यानुपूर्वी तिर्यगायु, उद्योत इन पच्चीस प्रकृतियों की व्युच्छत्ति होने से शेष छत्तरि प्रकृतियां रहती है । इस गुण स्थान में किसी भी आयु कर्म का बंध नहीं होता इसलिये इन छितरि में से मनुष्यायु और देवायु इन दो के घटाने पर चौहत्तर प्रकृतियों का बंध होता है । नरकायु की पहले गुण स्थान में और निर्यमायु की दूसरे गुणस्थान में व्युच्छित्ति हो चुकी है । r .... इस गुण स्थान में एक मौ प्रकृतियों का उदय होता है क्योंकि दूसरे गुण स्थान मे एक सौ ग्यारह प्रकृतियों का उदय था उनमें से अनंतानुबंधी चार, एकेंद्रियादिकि चार, स्थावर एक इस प्रकार नौ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होने पर एकसौ दो प्रकृतियां रह जाती है। इनमें से नरकगत्यानु पूर्वी दूसरे गुण स्थान में घट चुका है और देवगत्यानुपूर्वी मनुष्यगत्यनु पूर्वी तिर्यग्गत्यानुपूर्वी इन प्रकृतियों का उदय इस गुण स्थान में नहीं होता क्योंकि इस गुण स्थान में मरण नहीं होता । इस प्रकार शेष निन्यानवे प्रकृति रह जाती है। तथा सम्यग्मिध्यात्व प्रकृति का उदय इस गुण स्थान में रहता है। इस प्रकार इस गुण स्थान में सौ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माव-सग्रह प्रकृतियों का उदय रहता है । इस गुण स्थान में तीर्थंकर प्राति के विना एक सौ सेंतालीस प्रकृतियों का मन्त्र रहता है । अविरत सम्यग्दृष्टी गुणस्थान- दर्शनमोहनीय की तीन और अनन्तानुबंधी की चार इन सात प्रकृतियों के उपशम तथा क्षय अथवा क्षयोपशम होने से और प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ के उदय से व्रत रहित सम्यन्वृष्टी पुरुष पाये गुगली कहलाता है। तीसरे गुणस्थान में चौहत्तरि प्रकृतियां का बंध होता है उनमें मनुष्यायु देवायु और तीर्थंकर कृति इन प्रकृतियों सहित सतत्तार प्रकृति का बंध होता है। तीसरे गुणस्थान में सौ प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें से मम्यग्मिथ्यात्व की व्युच्छित्ति हो जाती है तथा चार आनुपूर्वी और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन पांच प्रकृतियों के मिलाने से एक सौ चार प्रकृतियों का उदय होता है। इस गुण स्थान में एक सी अडतालीस प्रकृतियों का सत्त्व रहता है किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टी के एक सौ इकतालीस प्रकृतियों का ही सत्व रहता है। पांचवां देश विरत गण स्थान- प्रत्याख्यानाबरण क्रोध मान माया लो। के उदय में यद्यगि संयम भाव नहीं होता तथापि अप्रत्याख्याना. रण क्रोध मान माया लोभ के उपशम के श्रावक व्रत रूप देश चारित्र होता है। इसी को देश बिग्त नामक पांचवां गुण स्थान कहते ।। पांचय आदि ऊपर के समाप्त गुण स्थानों में सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शन का अविनाभाबी सम्य-ज्ञान अवश्य होता है। इनके बिना पांचवे छट्ट आदि गुण स्थान नहीं होते। जिस गुणस्थान में कम प्रकृतियों के बंध उदय अथवा सत्व की पुच्छित्ति कही हो इस गुणस्थान तक ही उन प्रकृतियों का बंध उदय अथवा सत्त्व माना जाता है आगे के किसी भी गुण स्थान में उन प्रकृतियों का बंध उदय अथवा सत्व नहीं होता है इसीको व्यच्छित्ति कहते है। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह चोथ गुणस्थान में जो सतत्तरि प्रकृतियों का बंध कहा है उनमे में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी मनुष्यायु औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग वववृषभनाराच महनन इन दश प्रकृतियों की व्युच्छत्ति इस गुणस्थान में हो जाती है । इसलियं सतत्तर मे से दश घटाने पर शव सड़सठ प्रकृतियों का बंध इस गुणस्थान मे होता है। चौथे गुणस्यान में एक मौ चार प्रकृतियों का उदय कहा है उनमे से अप्रत्याम्पानावरण श्रोध मान माया लोभ, देवगति देवगत्यान. पूर्वी, देवायु, नरकायु, नरक गति नरक गत्यानुपूर्वो, वैक्रियक शरीर बेक्रियिक अंगोपांग, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, तिर्यगत्यानुपूर्वी, दुभंग, अनादेय, अयशाकोनि इन सब प्रकृति की शुचिः इस गुणस्थान में हो जाती है, इसलिये एक सौ चार मे से सत्रह घटाने पर सत्तासी प्रकृतियों का उदय होता है। चौथे गुणस्थान में एक सौ अडतालीस प्रकृतिपों का सत्त्व रहता है उनमे से व्युच्छिन्न प्रकृति एक नरकायु के बिना एक सौ सेंतालीस का सत्त्व रहता है । किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टी की अपेक्षा से एक सौ चालीस का ही सन्द रहता है । छठा प्रमत्तविरत गुणस्थान- संज्वलन और नोकषाय के तीन उदय से संयम भाव तथा मल जनक प्रमाद ये दोनों ही युगपत् एक साथ होते है इसलिए इस गुणस्यानवर्ती मुनि को प्रमत्तविरत अथवा चित्रलाचरणी कहते है । यद्यपि संज्वलन और नोकषाय का उदय चारिष गुण का विरोधी है तथापि प्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम होने से प्रादुर्भत सकल संयम के घात करने में समर्थ नहीं है । इस कारण उपकार से संयम का उत्पादक कहा है। पांचवे गुणस्थान मे सड़सठ प्रकृतियों का बंध होता है उनमें से प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ इन चार प्रकृतियों की व्यच्छित्ति हो जाती है इसलिये इन चार के घटाने पर शेष त्रेसठ प्रकृतियों का Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕ ܕ ܀ माव-सग्रह बंध होता है । पांचवे गुणस्थान में सतासी प्रकृतियों का उदय कहा है उनमें से प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ तिर्यग्गति विगायु उद्योत और नीच गोत्र इस आठ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है इसलिये इन आठ प्रकृतियों के घटाने पर शेष उनासी प्रकृतियां रह जाती है। उनमें आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग मिलानेसे इक्यासी प्रकृतियों का उदय रहता है | पांचवे गुणस्थान में एक सौ सैंतालीस प्रकृतियों की सत्ता कहीं है उनमें से तिगाय की व्युच्छित्ति हो जाती है इसलिये मंत्र एक सी छयालीस प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टी की अपेक्षा से एक सौ उन्तालीस का सत्त्व रहता है । सातवां अप्रमत्त विरत गुणस्थान- संज्वलन और नो कषाय के के मंद होने से प्रमाद रतिसंयम भाव होते है। इस कारण इस गुणस्थानवर्ती मुनि को अप्रमत्त विरत कहते है । इस गुणस्थान के स्वस्थान अप्रमत्त विरत और सातिशय अप्रमत्त विरत ऐसे दो भेद है । जो मुनि हजारों बार छठे से सातवे में और सातवे से छठे गुणस्थान में आवे जावे उसको स्वस्थान अप्रमत्त विरत कहते हैं तथा जो श्रेणी चढने के सन्मुख होते है उनको सातिशय अप्रमत्त विरत कहते है । इसमें इतना और समझ लेना चाहिए कि क्षायिक सम्यग्दृष्टी और द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी ही श्रेणी चढ़ते है । प्रथमोपशम सम्य दृष्टी जीव थोम सम्यक्त्व को छोड़कर क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टी होकर प्रथम ही अनंतानुबंधी कोध मान माया लोभ का विसंयोजन करके दर्शन मोहनीय को तीन प्रकृतियों का उपशम करके यातो द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी हो जाय अथवा तीनों प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टी हो जाय तब श्रेणी चढ सकता है । जहां चारित्र मोहनीय की शेष रही इक्कीस प्रकृतियों का क्रम से उपशम तथा क्षय किया जाय उसको श्रेणी कहते है । उस श्रेणी के दो भेद है। उपराम श्रेणी और क्षपक श्रेणी जिसमें चारित्र मोहनीय की Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह इकईस प्रकृतियोंका उपशम किया जाय उसको उपशम श्रेणी कहते है और जिम म उन इकाईस प्रवृतियों का क्षय किया जाय उसको क्षपक श्रेणी कहते है । क्षायिक सम्यग्दृष्टी दोनों ही अंगी चढ़ सकता है । द्वितीयपशम सम्यग्दृष्टी जीव उपशम श्रेणी ही चढता है । क्षपक श्रेणी नहीं चढ़ता। उपशम श्रेणी के आठवां नौवां दशवा और ग्यारहवां गण स्थान है तथा क्षपक अंगो के आठवा नौवां दसवा और बारहवां गुण स्थान है। चारित्र मोहनीय कर्म की इकईस प्रकृतियों को उपशम करने के लिये अथवा क्षय करने के लिये अधः करण अपूर्व करण और अनिवत्ति करण ये तीन प्रकार के परिणाम निमित्त कारण होते है। इनमें से जिस करण में परिणामों के समूह ऊपर के समयवर्ती तथा नीचे के समयवर्ती जीवों के परिणाम सदश भी हो और विसदृश भी हो। उसको अधः करण कहते है । यह अधः करण सातवे गुण स्थान में ही होता है। इसका उदाहरण इस प्रकार है। किसी राजा के यहां ३०७२ तीन हजार बहत्तर आदमी काम करते है वे सब सोलह महकमों में भी बट हए है। पहले महकमे मे एक सौ १६२ आदमी है दुसरे में एक सो छयासठ, तीसरे में एक सौ सत्तर, चौथे मे एक सौ चौहत्तर, पांचवे में एक सौ अठत्तर, छठे में एक सौ ब्यासी । सातवे मे एक सौ छियासी, आठवे मे एक सौ नब्बे, नवि में एक सी चौरानवे, दशवे में एक सौ अठानवे, ग्यारहवे में दो सौ दो बारहवें मे दो सौ छह, तेरहवे में दो सौ दस, चौदहवे में दो सौ चादह, पन्द्रहवें मे दो सा अठारह और सोलहवे मे दो सी बाईस आदमो काम करते है । पहले महकमेके एकसा बासठ आदमियों मे से पहले आदमी का वेतन एक रुपया दूसरे का दो रुपया तीसरे का तीन रुपया इस प्रकार एक एक बढते हुए एकसा बासठवे आदमी का वेतन एकसा बासठ रुपया है। दूसरे महक मेमें एक सा छयासठ आदमी काम करते है उनमे से पहले आदमी का वेतन चालीस रुपया है । दूसरे तीसरे आदि आदमियों का वेतन क्रमसे एक एक रुपया बढ़ता हुआ एकसो छयासठवे आदमी Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ माव-सग्रह का वेतन दो सो पांच रुपया है। तीसरे महकमे में एक सो सत्तरि आचमी काम करते है इनमें से पहले आदमी का वेतन अस्सौ रुपया है फिर अ-गे एक एक रुपया बढ़ता गया है इसलिये एकमो सत्तरि आदमो का वेतन दो सो उनचास रुपया है। चाथे महकमे में एकमो चाहत्तर आदमी काम करते हैं। पहले आदमी का वेतन एकसो इकईस रुपया है तथा आगे आगे के आदमियों का वेतन एक एक रुपया बढ़ता गया है इसरियं एकसो चौहत्तरिवे आदमी का वेतन दोमो चौरानबे रुपया है । इसी ऋम से मोलहवे महकमे में दो गोद दे सदमी का नासो वारह रुपया है । इस उदाहरण मे पहले महकमे के उन्तालीस आदमियों का वेतन ऊपर के महकमें के किसी भी आदमो के वेतन से नहीं मिलता । तथा अन्त के सत्तावन आदमियों का वेतन नीचे के महकमें के किसी भी आदमी के वेतन से नहीं मिलता । शेष वेतन ऊपर नीचे के महकमों के वेतनों के साथ यथा संभव समान भी है । इसी प्रकार यथार्थ मे भी ऊपर के समय संबंधी परिणामों और नीचे के समय संबंधी परिणामों सदशता यथासंभब जानना । विशेष गोमट्टसार से जानना चाहिये । छठे गुणस्थान में तिरेसठ प्रकृतियों का बंध कहा था उनमें से अस्थिर अशुभ असाता, अयशस्कीति अरति शोक इन छह प्रजातियों को व्यच्छित्ति हो जाती है उनके घटाने से सत्तावन प्रकृति रही। उनमें आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग के पिलाने से उनसठ प्रकृतियों का बंध होता है। गणस्थान मे इक्यासी प्रकृतियों का उदय कहा है उनम मे आहारवा शरोर आहारक आंगोपांग, निद्रा निद्रा प्रचला प्रचला, और स्त्यानगृद्धि इन पांच प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है । इसलिये इन पांच के घटाने से शर छिहत्त्वरि प्रकृतियों का उदय इस सातवे गुणस्थान मे रहता है । छठे गुणस्थान के समान इस गुणस्थान में भी एकसो छयालीस की सत्ता रहती है किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टी के एक सो उन्तालीस प्रकृ. तियों का ही सत्त्व रहता है । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह ३०९ आठवां अपूर्व करणगुणस्थान- जिस करण में उत्तरोत्तर अपूर्व परिणाम होते जाय अर्थात् भित्र समय वर्ती जीवों के परिणाम सदा विसदृश ही हो और एक समय वर्ती जीवों के परिणाम सदृश भी हो और विसदृश भी हों उसको अपूर्व करण कहते है और यही आठवा गुणस्थान है । सातवे गुणस्थान में उनसठ प्रकृतियों का बंध कहा है उनमे से एक देवायु प्रकृति की व्युच्छित्ति हो जाती है शेष अट्ठावन प्रकृतियों का बंध इस आठवे गुणस्थान में होता है । सातवे गुणस्थान में जो छिहत्तरि कृतियों का उदय कहा है उनमे से सम्यक् प्रकृति अर्द्ध नाराच कीलक असमाप्ताबाटक इन चार प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है इसलिये चारके घटाने पर शेष बहत्तर प्रकृतियों का उदय इस गुणस्थान में होता है । सातवे गुणस्थान मे एकसो छियालीस प्रकृतियों का सत्त्व कहा है उनमें से अनंतानुबंधी कोष मान माया लोभ इन चार प्रकृतियों की उच्छित्ति हो जाती है इस लिये द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणी बाले के तो एकसो व्यालीस प्रकृतियों का सत्त्व रहता है किंतु क्षायिक सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणी वाले के दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृति रहित एकसो उन्तालीस प्रकुलियों का सर है और क्षपक श्रेणी वाले के अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ दर्शन मोहनीय की तीन और देवायु इन प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है। इसलिये एकसी छियालोस मे से आठ घटाने पर शेत्र एकसी अडतालीस प्रकृतियों का सस्व रहता है । अनिवृत्तिकरण- जिस करण मे भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश ही हो उसको अनुवृत्ति करण कहते है । यही नोवां गुणस्थान है । इन तीनों ही करणों के परिणाम प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धता लिये होते है । आठवे गुणस्थान में अट्ठावन प्रकृतियों का बंध कहा है उनमें से निद्रा, प्रचला, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त विहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मेण शरीर, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, सम Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-सग्रह चतुरस्त्र संस्थान, बैंक्रियिक शरीर देवगति, देवगत्यानुपुर्वी, रूप, रसः गंध, स्पर्श, अगुरु लघुत्व, उपधात परघात, उच्छवास', अस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, जुगुप्सा, भय इन छत्तीस प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है । इन छतीस को घटाने पर शेष वाईस प्रकृतियों का बंध इस नौवें गुणस्थान मे होता है। आठवें गुणस्थाण में जो बहत्तर प्रकृतियों का उदय होता है उनमें से हास्य, रति, सास, शोक, य, असा इन लई प्रकृति की न्युच्छित्ति हो जाती है । शंष छयासठ प्रकृतियों का उदय इस नौवे गणस्थान मे रहता है । इस गुणस्थान मे आठवे गुणस्थान के समान द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणी वाले के एकसो ब्यालीस प्रकृतियों का, क्षायिक सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणी वाले के एकसो उन्तालीस और क्षपक श्रेणी वाले के एकसो अडतीस प्रकृतियों का सत्व रहता है। दशवां सूक्ष्म सांपरायगुणस्थान- अत्यन्त सुक्ष्म अवस्था को प्राप्त लोभ कषाय के उदर को अनुभव करते हुए जीव के सूक्ष्म सांपराम नामका दशवां गुणस्थान होता है। नौवें गुणस्थान मे बाईस प्रकृतियों का बंध होता है । उनमें से पुरुष नेद संज्वलन क्रोध मान माया लोभ इन पांच प्रकृतियों की च्छित्ति हो जाती है शेष सत्रह प्रकृतियों का बंध होता है । नौवे गुणस्थान में जो छयासठ प्रकृतियों का उदय होता है उनमें म स्त्रोवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद, सज्वलन क्रोध मान माया इन छह प्रकतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है । इसलिय इन छह प्रकृतियों के घटाने पर शंष साट प्रकृतियों का उदय दशवें गुणस्थान में रहता है। उपशम श्रेणी में नौवें के समान द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी के एक. सौ ब्यालीस, और क्षामिक सम्यग्दृष्टी के एकसो उन्तालीस और क्षपक श्रेणी वाले के नौवें गुणस्थान में जो एकसी अडतीस प्रकृतियों का सत्त्व है उनम में तिरंगति, तियंगत्यानुपूर्वी, बिकलत्रय की तीन, निद्रानिद्रा, प्रचना प्रचला, रत्यानमृद्धि, उद्योत आतप, एकेंद्रिय, साधारण, सूक्ष्म, Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-मंग्रह स्थावर अप्रत्याख्यानाबरण की चार, पत्याख्यानावरण की चार, नोकषाय को ना, संज्वलन क्रोच मान माया, नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी इन छत्तीस प्रतियों को व्यच्छित्ति हो जाती है । इसलिये इनको घटाने पर शेष किसी दो प्रकृतियों का सत्त्व रहता है। ग्यारहवां उपशांत मोह गुणस्थान-- चारित्र मोहनीय की इकईस प्रकृतियों के उपशप होने में यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले मुनि के ग्यारहवां उपशांत मोह नामक गुणस्थान होता है । इस गुणस्थान का काल समाप्त होनेपर मोहनीय के उदय से जीव नीचले गुणस्थानों में आ जाता है। दशवें गुपास्थान में सत्रह प्रकृतियों का बंध होता था। उनमे से ज्ञानावरण को पात्र, दर्शनावल की चार, अंतराय की पांच, यश: कीर्ति उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है । शेष एक सातावेदनीय का बंध होता है । दशवे गुणस्थान में साठ प्रकृतियों का बंध होता है उनमे से एक संज्वलन लोभ की व्युच्छित्ति हो जाती है। शेष उनसठ प्रकृतियों का उदय होता है। नावें और दशवे गुणस्थान के समान द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी के एकसो ब्यालीस और क्षाधिक सम्यग्दृष्टी के एकसो उन्तालीस प्रकृतियों का सन्द रहता है। बारहवां क्षीणमोह गुणस्थान- मोहनीय कर्म के अत्यंत क्षय होने से स्फटिक भाजन में रक्खं हुए निर्मल जल के समान अत्यन्त्र निर्मल अविनाशी यथास्यात चारित्र के धारक मुनि के क्षीण मोह मुणस्थान होता है। इस गुणस्थान में केवल साता वेदनीय कर्म का बंध होता है । ग्यारहवें गुणस्थान में उनसठ प्रकृतियों का उदय होता है उनमे से यज नाराच और नाराच इन दो प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है शंष सत्तावन प्रकृतियों का उदय होता है । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ 'भाव सग्रह दशवें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी वाले की अपेक्षा एकसो दो पक- तियों का सत्त्व है, उनमें से संज्वलन लोभ की व्यच्छित्ति हो जाती है उसके घटाने पर एकसो एक प्रकृतियों का सत्त्व रहता है। तेरहवां संयोग केवली गुणस्थान-- मोहनीय की अट्ठाईस, ज्ञानाबरण की पांच दर्शनावरण को नौ अन्तराय की पात्र इस प्रकार धातिया कर्मों की संतालीस प्रकृतियां तथा नरक गति, तिर्यग्गति, नरक गत्यानु. पूर्वी तिर्यग्गत्यानुपूर्वी विकलत्रय की तीन देवायु मनुष्याग्रु, तिर्यगायु. उद्योग, आतप, एकेन्द्रिय, साधारण, सूक्ष्म स्थावर इस प्रकार तिरेसठ प्रकृतियों का क्षय होने से लोकाकाश प्रकाशक केवलज्ञान तथा मनोयोग* वचन योग और काय योग के धारक अरहंत भट्टारक के संयोग केवली मामक तेरहवां गुणस्थान होता है । यही केवली भगवान अपनी दिव्य ध्वनि से भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर संसार में मोक्षमार्ग का प्रकाश करते है। इस गुणस्थान मे पेवल एक सातावेदनीय का बंध होता है। वारहवे गुणस्थान में जो सत्तावन प्रकृतियों का उदय होता है उनमे से ज्ञानावरण की पांच, अंतराय की पांच, दर्शनावरण की चार निद्रा प्रचला इन सोलह प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है इस प्रकार शत्र इकतालीस प्रकृतियां रहती है । इनमें तीर्थकर प्रकृति मिला देने मे व्यालीम प्रकृतियों का उदय होता है। बारहवे गुणस्थान में जो एकसो एक प्रकृति गों का मत्त्व है उनमें में ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की चार, अन्तराय की पांच, निद्रा प्रत्रला इन सोलह प्रकृतियों को व्युच्छित्ति हो जाती है । शष पिचासी प्रकृतियोंका सत्त्व रहता है । अयोग केवली चौदहवां गुणस्थ न- मन वचन काय के योगों से रहित केवल ज्ञान सहित अरहंत भट्टारक के चौदहवां गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान का काल अ इ उ ऋ ल इन पांच हस्व स्वरों के उच्चारण मात्र जितना है । अपने गुणस्थान के काल के द्विचरम समय में सत्ता मनोयोग- द्रव्यमन की अपेक्षा से Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-संग्रह ३१३ की निचासो प्रकृतियों में से बहत्तर प्रकृतियों का और चरम समय में तेरह प्रकृतियों का नाश करके अरहंत भगबान मोक्ष बाम को पधार जाते है। तेरहवे गुणस्थान में जो एक साता वेदनीय का बंध होता था उसकी उसी गुणस्थान मे व्युच्छिति होने से इस गुणस्थान में किसी का भी बंध नहीं होता । तेरहवे गुणस्थान में जो विया लीय प्रकृतियों का उदय होता है उनमे से वेदनीय, वजन वृषभ नाराच संहनन, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त विहायो गति, अप्रशस्त विहायो गति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, सम चतुरस्र संस्थान, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंडक, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अगुरु लघुत्व, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रत्येक इन तीस प्रकृतियों की व्युस्छित्ति हो जाती है । शेष वेदनीय, मनुष्यगति मनुष्यायु पंचेन्द्रिय जाति, सुभग, बस, वादर, पर्याप्त आदेय, यशस्कीति, तीर्थकर प्रकृति और उच्चगोत्र इन बारह प्रकृतियों का उदय रहता है। तेरहवें गुणस्थान के समान इस गुणस्थान में पिचासी प्रकृतियों का सत्त्व है परन्तु द्विचरम समय में बहत्तर और अंतिम समय मे तेरह प्रकृतियों का सत्त्व नष्ट करके अरहत भगवान मोक्ष में जा विराजमान होते है । यह उपसंहार आवश्यकता समझकर जैन सिद्धांत प्रवेशिका से लिखा है ।। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ अन्तिम मंगलाचरण ये वीर जिनेन्द्र तद्वाणीं वीरसारं वंदे | तोषित जिनधर्म वंदेऽहं बोधिसाभाय ॥ भाव-संग्रह dddddddball अर्थ- अंत मे में जिनेन्द्र देव भगवान वर्द्धमान स्वामी की नमः स्कार करता हूँ, उनके मुख से प्रगट हुई द्वादशांग वाली को नमस्कार करता हूँ और विद्यमान आचार्य वर्य श्रीवीर सागरजी महाराज की वंदना करता हूँ एवं रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये उनके द्वारा कहे हुए जिनमें की वंदना करता हूँ । जयतु तवा जिनधर्मः सूरिः श्री शांति सागरो जयतु । पच्चरणसेवया मां प्राप्ता स्वल्पा हि जिनभक्ति || अर्थ- यह जैनधर्म सदा जयवंत हो तथा जिनके चरणकमलों की सेवा करने से मुझे थोडी सी जिनभक्ति प्राप्त हुई है ऐसे भाद्रपद शुक्ल २ विक्रम संवत् २०१२ को ८४ वर्ष की आयु मे दिवंगत आचार्य वयं श्री शांति सागर जी महाराज सदा जयवंत रहें । समाप्तोऽयं ग्रंथ: Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृतवाणी जागृत हो धर्मवीर ! धर्म निर्मूल विध्वंस सहन्ले न प्रभावका । विना सावद्यलेशेन न स्याधर्म प्रभावना ।। माजन्म दिगम्बर भगवत् जिनसेनाचार्य धर्म निमूल बिनाशको धर्मबीर, कर्तव्यनिष्ठ, धर्मप्रभावक मनुष्य सहन नहीं करते है । धर्मरक्षाके लिये यत्किञ्चित पाप भी होता है वह नगण्य है । '' सावध लेशो बहु पुण्य राशी" न्यायानुसार पाप कर्म पुण्य अधिक होने से दोषकर नहीं है, बिना स्वल्प पापसे धर्म प्रभावना नहीं हो सकती है। चेतावन धर्मनाशे शियाध्वंसे सुसिद्धान्तस्य विप्लवे । अपृष्टैरपि बक्तव्यं तत्स्वरूप प्रकाशने || " ज्ञानार्णव" धर्मनारामे, क्रिमाध्वंसे अर्थात् धार्मिक सम्यक क्रियाओं के लोपमे सुआगम सम्मत सिद्धांत का विकल्प होने पर, बिना पूछे भी उनका कथन करने के लिये बोलना चाहिये। महापाप जिणवर आणा भंग उरसूत्त लेस देक्षणयं । आणा भंगे पावंता जिनसमय दुकरं धम्म ।। (उपदेशरत्नमाला) जिनाज्ञा उल्लंघन करके उन्मार्ग उत्सूत्र का जो अंशमात्रभी उपदेश देता है वह जिनाज्ञा भंग करता है । उससे एसा पाप होता है जिससे उसको जिनधर्म पाना दुष्कर हो जाता है। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशत्रू तावद् गर्जन्ति शास्त्राणि जम्बुका विपिने यथा / न गर्जन्ति महाशक्तिर्यावद् म्याद्वाद केशरी / / तब तक शास्त्ररूपि शृगाल गर्जन करता है, जब तक महशक्तिवान स्याद्वादसिंह गर्जन नहीं करता है / सत्याग्रह पक्षपाति नमे वीरे न द्वेष कपिलादिषु / युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यपरिहः / / मेरे बीरप्रति पक्षपात नहीं कपिलादि प्रति द्वेष नहीं / किंतु जिनका बचन युक्तियुक्त है उन्हीं का अनुकरण करो। हिन्दी दोहा विषयसुख का लालची सुन अध्यातम वाद ! त्याग धर्म को त्यागकर करे साघु अपवाद / / समकित समकित रटन समकिस कवहुँन होय / वीतराग की भगति विन समकित कहते होय / / कायपात्र कर तप नहीं किना आगम पढकर न मिटि कषाय / घन को जोडि दान नहीं दिना तो तु क्या किया इस आन / कहते है करते नहीं मुंह के बडे लवार कालां मुंह होयेगा कर्म के दरबार // क्या क्या देखो वीतरागमे तू क्या जाने वीरा रे / वीतराग की बाणी द्वार दूर करो भवपीरा रे / /