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भाव-संग्रह
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भावार्थ - मति ज्ञान के अवग्रह ईहा अवाय धारणा से चार भेद है। किसी पदार्थ को जानने के लिये सबसे पहले किसी भी इंद्रिय से उसका दर्शन होता है उस दर्शन के अनन्तर जो प्रथम ज्ञान होता है उसको अवग्रह कहते हैं । जैसे दूर से देखकर यह पुरुष है ऐसा जान होना अवग्रह है: अवग्रह होने के अनन्तर उसके विशेष जानने की इच्छा को ईहा ज्ञान कहते है जैसे यह पुरुष दक्षिणो होना चाहिये। यह ईहा ज्ञान है । फिर यह दक्षिणी ही है ऐसे निश्चय रूप ज्ञान को अवाय कहते से और फिर उसको न भुलना धारणा है । यह चारों प्रकार का ज्ञान बहुत से पदार्थों का होता है, बहुत प्रकार के पदार्थों का ज्ञान होता है. एक पदार्थ का होता है, एक प्रकार के पदार्थों का होता है, देखने मात्र से शीघ्र हो जाता है, देर से होता है, किसी एक भाग को जानकर शेष छिपे पदार्थ का ज्ञान होता है। प्रगट पदार्थ का होता है विना कहे हुए ( बिना सुने) पदार्थ का ज्ञान होता है कहे हुए का ज्ञान होता है ध्रुव स्वरूप ज्ञान होता है और अध्रुवरूप ज्ञान होता है। इस प्रकार बारह प्रकार से होता है और इस प्रकार मतिज्ञान के अडतालिस भेद हो जाते है । ये अडतालिस भेद पांचों इन्द्रियों से तथा मन से होते है इस प्रकार दो सौ अठासी मंद हो जाते है । अवग्रह के अविग्रह और व्यंजनाग्रह ये दो भेद है । पदार्थों के स्पष्ट ज्ञान को अर्थाविग्रह कहते है और स्पष्टता रहित ज्ञान को व्यजनावग्रह कहते है। किसी मिट्टी के सकोरे में एक दो तीन बूंदे डालने से स्पष्ट नहीं होती उनका ज्ञान होना व्यंजनावग्रह है और और चौथी का पांचवी बूंद के स्पष्ट होने पर अर्था वग्रह है । उपर दो सौ अठासी भेद अर्थावग्रह के है । ऊपर व्यंजनावग्रह के ईहा अवाय धारणा नहीं होते तथा बहुत पदार्थों का वा एक पदार्थ का ज्ञान आदि बारह प्रकार का ज्ञान होता है और वह ज्ञान नेत्र और मन से नहीं होता केवल चार इन्द्रियों से होता है । इसलिये उसके अड तालिस भेद होते है। इस प्रकार दो सौ अंधासी अर्थावग्रह के भेद और अडतालिस व्यंजनावग्रह के भेद मिल कर तीनस छत्तीस मंद होते है ।
श्रुतज्ञान के बारह अंग इस प्रकार है ।
आचारांग, सूत्र कृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंतकृदृशांग, अनुत्तरोपेपादिक