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________________ भाव-संग्रह जिसके ज्ञानदर्शनरूप चेतना गुण हो उसको जीव कहते है। यह वेतना गुण संसारी मुक्त दोनों प्रकार के जीवों मे रहता है । आगे जीव के उपयोग गुण को कहते हैं। सायारो अणयारो उवओगो दुविह भेय संजुत्तो। सायारो अट्ठविहो चउप्पयारो अणायारो ।। २८९ ।। साकारोऽनाकार उपयोगो विविध भेदसंयुक्तः । साकारोऽष्टविधः चतुः प्रकारोऽनाकारः ।। २८९ ।। अर्थ- आत्मा ये, ज्ञान दर्शनरून भावों को उपयोग कहते है । उस उपयोग के दो भेद है एक साकार उपयोग दूसरा अनाकार उपयोग । साकार उपयोग के आठ भेद है और अनाकार उपयोग के चार भंद है। आगे साकार उपयोग को कहते है। मइ सुई उचहि विहंगा अण्णाण जुदाणि तिष्ण णाणाणि । सम्मण्णाणाणि पुणो केवल क्ट्ठाणि पंचेव ।। २९० ॥ मतिश्रुतावधि विभंगानि अज्ञानयुक्तानि श्रीणि ज्ञानानि । सम्यग्ज्ञामानि पुनः केवलदृष्टानि पंचत्र ।। २९० ॥ अर्थ - कुमति ज्ञान कुश्रुत ज्ञान और कुअवधि ज्ञान बा त्रिभंगा वधि ज्ञान यं तीनों ज्ञान मिथ्या ज्ञान कहलाते है । तथा भगवान जिनेद्र देव ने सम्यग्ज्ञान के पांच भेद बतलाये है। आगे मम्यग्ज्ञान के पांच भेद बतलाते है। मइणाणं सुयणाणं उवही मणपज्जय च केवलयं । तिण्णिसया छत्तीसा मई सुयं पुण वारसंगगयं ।। २९१ ।। मतिमाम श्रुतज्ञानमधि: मनः पर्ययं च केवलम् । श्रोणि शतानि षट्त्रिंशत् मतिः श्रुतं घुमः द्वोदशांगगसम् ।२९१॥ अर्थ- मति ज्ञान श्रुत शान अवधि ज्ञान मनः पर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान ये पांच ज्ञान' सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं इनमे से मति जान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं तथा श्रुत ज्ञान के बारह अंग कहलाते हैं।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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