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________________ १३८ भाव-संग्रह दशांग, प्रश्न व्याकरणांग, विपाक सूत्रांग और दृष्टि वादांग । य बारह अंग कहलाते है। प्राग अवधिज्ञान के भेद बतलाते है । देसावहि परमावहि सरुवावहि अवहि होइ तिम्भया । भव गुण कारणभूया णायन्या होइ णियमेण || देशावधिः परमावधिः सर्वावधिः अवधिः भवतिः त्रिभेदः । भवगुण कारण भूतः ज्ञातव्यो भवति नियमेन ।। २६२ ।। अर्थ- देशावधि परमावत्रि और सविधि इस प्रकार तीन प्रकार का अवधिज्ञान होता है । इनमें उत्तरोत्तर जानने की शक्ति अधिक होती है । देगावधि के और परमावधि के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य ये तीन तीन भेद है। सर्वावधि का कोई भेद नहीं है । देशाबधि के वर्षमान होयमान अवस्थिस अनवस्थित अनुगामी अननुगामी अप्रनिपाति प्रतिपाति इस प्रकार आठ भंद होते है । सर्वावधि के अवस्थित अनुगामी अननुऔर अनिपातो ये चार भेद होते है । आये मनःपर्यय ज्ञान को कहते है । मणपज्जयं च बुयिहं रिउ विउलमइ तहेवाणायन्वं । केवलणाणां एक्कं सम्वत्थ पयासयंणिस्य । मनः पर्ययश्च द्विविधः ऋविपुलमतो तथैव ज्ञातव्यः । केवलज्ञानं एक सर्वथ प्रकाशकं नित्यम् ।। २६३ ।। अर्थ- मनः पर्यग्रज्ञान के दो भेद है । एक ऋजुर्मान और दूसरा बिजुलमति । जो दूसरे के मन में ठहरे हुए सूक्ष्म बा स्थूल पदार्थों को प्रत्यक्ष जाने उसको मनःपर्यय शान कहते है। जो सरल मन में ठहरे हा पदार्थों को जाने वह ऋजुमति है और जो कुकील मन में ठरर हुए पसार्या कामी जान ले वह विपुलमति है। अर्थ... ऋजुमति मे विपुलमति अधिक और अधिक शुद्ध है । केवल जान एक है । वह नित्य है अनंत काल तक रहता है और लोक अलोक सय को प्रकाशिस करता है सब को जो जानता है ।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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