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________________ भाव-संग्रह एसो अट्ठपयारो णाणुवओगो हु होइ सायारो । जक्खु अवक्खू ओही केवलसहिओ अणायारो ।। एषोष्टप्रकारो ज्ञानोपयोगो हि भवति साकारः । चक्षुरचक्षुरवधिः केवल सहितोऽनाकारः ॥ २९४ ॥ अर्थ- इस प्रकार ज्ञानोपयोग आठ भेद है और वह ज्ञानोपयोग साकार है। अनाकार वा आकार रहित उपयोग के चार भंद है अनाकार उपयोग दर्शन को बाहते है । दर्शन के चार भेद है । चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन । किसी पदार्थ को चक्षुओं ने देखने को चक्षुदर्शन करते है । चक्षु के सिवाय अन्य इन्द्रियों से देखना अचक्षुदर्शन है अबधि ज्ञान के साथ अवधि ज्ञान से पहले होने वाले दर्शन की अवधि दर्शन कहते है और केवल ज्ञान के साथ होने वाले दर्शन को केवल दर्शन कहते है। इस प्रकार उपयोग के बारह भेद बतलाये । आग आत्मा का आकार बतलाते है। जम्हि भवे जे वेहं तम्हि भवे तापमाणओ अप्पा । संहार वित्थर गुणो केवलणाणीहि उद्दिद्यो । यस्मिन् भवे यो देहः तस्मिन भवे तत्प्रमाण आत्मा । संहार विस्तारगणः केवलज्ञानिभिः उद्दिष्टः ॥ २९५ ।। अर्थ- इस संसारमें परिभ्रमण करता हुआ यह आत्मा अनेक योनियों मे अनेक प्रकार के छोटे बड़े शरीर धारण करता है । जिस भाव में जैसा छोटा या बड़ा शरीर धारण करता है उस शरीर के प्रमाण के समान ही आत्मा का आकार हो जाता है। इसका कारण यह है कि इस आत्मा में संकोच और विस्तार होने की शक्ति है। इसलिये छोटे शरीर में जाता है तो संकुचित होकर छोटा आकार हो जाता हे और बड़े शरीर में बड़ा हो जाता है। आगे यह जीव कर्ता भोक्ता है यह दिखलाते है । जो कसा सो मुसा यवहार गुणेण सोइ कम्मस्स । ण हुणिन्छएण भणिओ कत्ता भोत्ता य कम्मापं ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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