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________________ १४० यः कर्त्ता सभोक्ता व्यवहार गुणेन भवति कर्मणाम् । न तु निश्चयेन भणितः कर्त्ता भोक्ता च कर्मणाम् ।। २९६ ।। भाव-संग्रह 1 अर्थ - यह जीव व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्त्ता है और यही आत्मा अपने आप किये हुए उन कर्मों के फलका भोक्ता है निश्चय नय से न तो वह कर्मो का कर्ता है और न उन के फलका भोक्ता है । निश्चय नय से वह अपने शुद्ध स्वभावों का कर्ता है और उन्हीं शुद्ध स्वभावका भोक्ता है । आगे और भी कहते है । कम्ममलछाइओवि पण सुग्रह सो चेयण गुणं किपि । जोणी लवलगओ वि य जहि कणय कद्दमे खित्तं ॥ कर्मलच्छावतोय न जानाति गुण मि योनिलक्षगतोपि च यथा कर्दमे क्षिप्तम् ।। २९७ ।। अर्थ - यह संसारी आत्मा बौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता हुआ कर्म रूपी मलसे आच्छादित हो रहा है इसलिये जिस प्रकार कीचड मे पडा हुआ सोना जाना नहीं जा सकता उसी प्रकार यह संसारी आत्मा अपने शुद्ध चेतना के स्वरूप को भी नहीं जानता है । आगे और भी कहते है । सुमो अमुत्तित्तिवंती यष्णगंधाइकासपरिहीणी । पुग्गल मजिसगओ वि य गय मिलइ निययसम्भावं ॥ सूक्ष्मोऽमूर्तिमान् वर्णगंधावि स्पर्श परिहीनः । पुद्गलमध्यगतोपि च न च मुंचति निजकस्थ भावम् ।। २९८ ।। अर्थ - यह आत्मा अत्यंत सूक्ष्म है अमूर्त है वर्ण रसगंध स्पर्श इन पुद्गलों के चारों गुणों से रहित है । यद्यपि वह पुद्गलमय शरीर में रहता है पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्मों से मिला हुआ है तथापि वह अपने स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता है। भावार्थ- आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप है यद्यपि वह ज्ञान दर्शन स्वभाव कर्मों से ढका हुआ
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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