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________________ भाव-प्रह है । मद्यान व नष्ट नहीं होता, बना ही रहता है । अथवा आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप है वह भी आत्मा में बना रहता है। कमों के उदय मे उसको विभाव परणति हो जाति है तथापि वास्तविक शुद्धता बनी ही रहती है। आग और भी कहते है। सम्भावे गुड्ढगई विविसं परिहरिय गह बउक्केण । गल्छेद कम्मजुसो सुद्धो पुण रिज्जुगइ जाई ।। स्वभावेनोर्ध्वगतिः विदिशां परिहृत्य गतिचतुष्केन । गच्छति कर्मयुक्ताः शुद्धः पुनः ऋजुगति याति ।। २९९ ।। अर्थ- इस जीव का स्वभाव स्वभाव से ही ऊर्ध्व ममन करना है। परंतु जी कर्म सहित जीव है वे विग्रह मति में चारों विदिशाओ को छोडकर शेष छहों दिशाओं में गमन करते है । तथा जो शुद्ध जीव है वे ऋजुमति से. ऊर्ध्व गमन ही करते है । भावार्थ- आकाश के प्रदेशों की पंक्ति ऊपर से नीचे पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिणा इस प्रकार छहों दिशाओं मे है तथा विग्रह गति मे जीवों की गति आकाश के प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार होती है इसलिये बह छह दिशाओं में ही होती है विदिशाओं में नहीं होती । आग विग्रह मति में होनेवाली गति को दिखलाते है । पाणि विमुत्ता लंगलि बंकगई होइ तह य पुण तइया । कम्माण काय जुत्तो वो तणि य कुणइ बकाइ ।। पाणिबिमुक्ता लांगलिका वऋगतिः भवति तया च पुनः तृतीया । कार्मणकापयुक्ताः द्वित्रीणि करोति वक्राणि ।। ३०० ॥ अर्थ-- पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका इस प्रकार वझ गति के तीन भेद है। विग्रह गति में इस जीव के कार्मण शरीर रहता है केवल कार्मण शरीर को धारण करनेवाले जीब एक दो वा तीन मोड लेते है । भावार्थ- एक शरीर को छोडकर जब यह जीव दूसरा शरीर धारण करने के लिये जाता है तब उसकी उस गति को विग्रह गति
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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