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________________ १४२ भाव-संग्रह कहते है । उस समय जो वाणके के समान पोधो गति होती है, उसको इष गलि बा ऋजगति कहते है । हाथमे फेंके हुए पत्थर के समान जिसमें एक माइ लेनी पड़ती है उसको पाणिमुक्ता गति कहते है हलके मांड के समान जिसमें दो मोड लेनी पड़ती है उसको लांगलिका गति काहते हैं और चलते हुए बल के मूत्र के समान जिसमें तीन मोड लेनी पड़े उसको गोमुत्रिका गति कहते है। ऋजुगति वाला जींब जिस समय में निकलता है उसी समय में दूसरा शरीर प्राप्त कर लेता है। पाणिमुक्ता गति बाला जीव दूसरे समय मे पहुंचता है। एक समय उसका मोड लेने में लग जाता है । लांगलिका मति' वाला तोसरे समय मे पहुंचता है उसको दो समय दो मोड लेने मे लगजाते है । गोमुश्रिका जीव चौथ समय मे शरीर प्राप्त करता है उसको तीन समय तीन मोड लेने में लग जाते है । विग्रह गति ऋगति वाला जीव निराहार नहीं रहता जिस समय निकलता है उसी समय पहुंचकर आहार ग्रहण कर लेता है। पाणिमुक्ता गति वाला एक समय निराहर रहता है । चौथे समय में पहुंच कर आहार वर्गणाऐं ग्रहण कर लेता है ।। तइए समए गिण्हइ चिरकयकम्मोदएण सो देहं । सुरणर गारवयाणं तिरियाणं चेव लेसवसो । तृतीय समये गृणाति चिरकृत कर्मोदयेन स वेहम् । सुरनरनारकाणां तिरश्चां चैव लेश्यावशः ।। ३०१।। अर्थ- अपनी अपनी लेश्याओं के निमित्त से देव मनुष्य तिर्यच देव आदि गतियों में अपने चिरकाल से उपाजित कियं कर्मों के उदय से जैसा शरीर धारण करना है वह शरीर पहले ही समय में वा दुसर समय में या तीसरे समय में अथवा चौथे समय में धारण कर लेता है। सुह दुक्खं भुंजतो हिडवि जोणीसु सयसहस्सेसु । एविय विर्यालदिय सलिदिय पण्ज पज्जत्तो ।। सुखदुःखं भुजानः हिण्डते योनिषु शतसहस्वेषु । एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय सकलेन्द्रिय पर्याप्त्तापर्याप्तः ।। ३०२ ।।
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
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