SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाव-सग्रह आग किस रुप से भगवान का ध्यान करना चाहिय सो बतलार किच्चा काउस्सगं देवं झारह समवसरणत्यं । लख पाडिहेरं णवकेवल लद्धि संपुष्णं ।। कृत्वा कायोत्सर्ग देव घ्यायेत् समवसरणस्थम् । लम्धाष्ट प्रातिहार्य नवकेबललब्धिसम्पूर्णम् ।। ४७९ ।। अर्थ- नदनन्तर कायोत्सर्ग कर भगवान जिनेन्द्र देव का ध्यान करना चाहिय । आगे किस रूप से ध्यान करना चाहिये सो बतलाते हैं। भगवान समवसरण में विराजमान है आठों प्राति हार्यों से सुशोभित है यथा नी केवल लब्धियों से परिपूर्ण है । अशोक वृक्ष का होना देवों के द्वारा पुष्प वृष्टी का होना, देवों के द्वारा बाजे बजना, सिंहासन, समर, छत्र भामंडल का होना दिव्य ध्वनी का होना ये आठ प्राति हार्य कहलाते है । अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान क्षायिक ज्ञान क्षायिक लाभ क्षायिक भोम क्षायिक उपभोग क्षायिक वीर्य क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ये नौं लब्धियां कहलाती हैं । आगे और भी बतलाते है । गट चउ घाइ कम्म केवल णाणेण मुणिय तियलोयं । परमेठी अरिहंत परमत्थं परम माणत्थं ।। नष्ट चतुर्धाति कर्माणं केवल ज्ञानेन ज्ञातत्रिलोकम् । परमेष्टिनमहन्तं परमात्मानं परमध्यानस्थम् ।। ४८० ।। अर्थ- जिनके चारों धातिया कम नष्ट हो गये है जो अपने फेवल ज्ञान से तीनो लोकों को प्रत्यक्ष जानते है जो अरहंत पद में विराजमान है, परम परमेष्ठी है परमात्मा है और परम वा सर्वोत्कृष्ट ध्यान में लीन है । ऐसे भगवान अरहंत देव का ध्यान करना चाहिये । माणं झाऊण पुणो ममाणिय बंदणस्थ काऊण । उपसंहरिय विसजे जे पुष्यावाहिया देवा ॥
SR No.090104
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorLalaram Shastri
PublisherHiralal Maneklal Gandhi Solapur
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy