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भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है वह पुरुष सूर्य चन्द्रमा के समान तेजस्वी शरीर को धारण करता है ।
सिल्लारस अयय मिस्सिय णिगगइ धूवेहि बहल धूमेह । धूवइ जो जिण चरणेस लहई सुबत्तणं तिजए ॥
मात्र-संग्रह
शिलारसागुरुमिश्रित निर्गतधूपैः वहलघु । धूपयेद्रयः जिनचरणेसलम्यते शुभवर्तनं त्रिजगति ॥ ४७६ ॥
अर्थ- जिससे बहुत भारी धुआं निकल रहा है और जो शिलारस ( शिलाजीत ) अगुरु चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से बनी हुई है ऐसी धूप अग्नि में खंकर भगवान जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों को धूपित करता है वह तीनों लोकों में उत्तम पद को प्राप्त होता है। धूप को अग्नि में रखना चाहिये और उसमें निकला हु धुंआं दायें हाथ से भगवान की ओर करना चाहिये ।
पक्के रसड्ढ समुज्जलेहिं जिणचरणपुरओ । णाणा फलेहि पावइ पुरिसो हिय इच्छियं सुफलं ।।
पक्वः रसायः समुज्वलः जिनवरचरणपुरः | नानाफलैः प्राप्नोति पुरुषः हृदयेप्सितं सुफलम् ॥ ४७७ ।।
अर्थ - जो भव्य पुरुष अत्यंत उज्वल रससे भरपूर ऐसे अनेक प्रकार के पके फलों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों के सामने समर्पण कर पूजा करता है वह अपने हृदय अनुकूल उत्तम फलों को प्राप्त होता है ।
इर्ष अभय अच्चण काऊं पुण जवद्द मूलविज्जा य । जा जत्थ जहा उत्ता सयं च अठोत्तरं आवा |
इति अष्टभेदानं कृत्वा पुनः जपेत् मूलविद्यां च । यां यत्र यथोक्तां शतं चाष्टोसरं जाप्यम् ।। ४७८ ।।
अर्थ - इस प्रकार अष्ट द्रव्यों से भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा करनी चाहिये तदनंतर मूल मन्त्र का जप करना चाहिये। जिस पूजा में जो मूल मन्त्र बतलाया है उसी मन्त्र को एक सौ आठ बार जपना चाहिये ।